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श्रद्धा का लहराता समन्दर
अयं स्वेच्छामृत्योः फलमपि च लब्ध्वाऽगमदितः, रहस्यं स्पष्टं तन् न च किमपि कष्टं पुनरभूत् । अथाऽऽचार्यावाप्तौ मरणमपि मे तन्न हि भवेत्, यतोऽयं देवेन्द्रो भवतु सहसैको गुरुरयम् ॥२७॥
महोत्कर्षोऽस्याऽयं कथमपि तु कष्टं जनगणे, श्रुतं वा जातं तन्न हि किमपि दुःखं समभवत् । परन्त्वन्ते देहं त्यजति विधितोऽयं गुरुवरः, महारम्ये स्थाने स्वपिति ससुखं पुष्कर मुनिः ॥ २८ ॥
समस्ताः सन्तः स्युः परमविदितोऽसौ जनगणः, महासत्यः पूज्याः परमविदितास्ता अपि गणे। समे शिष्या जैना जगति सुषमा साऽप्युदयपूः, स्थितावस्यामन्ते त्यजति च शरीरं गुरुरयम् ॥ २९ ॥ रमेशं शिष्यं स्वं विषम समयेऽसावधिगते, शरीरान्तं ज्ञात्वा वदति सहसा तं गुरुरयम् । महापक्षाघातं जगति च सहेऽन्ते विधिवशात्, विवक्षं ज्ञात्वा तं यतति पुनरेषोऽप्यतिमतिः ॥३०॥ मुनेरन्तं ज्ञात्वा निधन समयज्ञाश्च मुनयः, यथेच्छं संस्तारं चरितुमनसस्तेऽप्यनुमतिम् । प्रतीक्षन्ते तावद् वदति पुनरन्ते स्वयमहो ! कथं संस्तारेच्छुः कमहमितरं नावदमिदम् ॥३१॥
श्रुतं वृत्तं वाक्यं वदति कविरेतत् पुनरिदम्, भवेद् वाक्यं सत्यं कथमपि वदेयं स्वयमहम् । परन्त्वेतत्तथ्यं मुनिगुरुरयं पुष्कर मुनिः, महान् सन्नेकोऽभूत् कथमिहलिखेयं पुनरिदम् ॥३२॥ यतोऽवात्सं शिष्यैः सह भवतु शिक्षा प्रतिदिनम्, मुनीनां बालानां विहतिसमये मे मुनिजने । कृपापात्रं तावानहमपि गुरोः पुष्करमुनेः, दयाभावः कोऽयं किमिति हृदयेऽहं समगमम् ॥ ३३ ॥
स्वभावे गाम्भीर्यं कियदवधिकं मेऽस्य च मुनेः, न वक्तुं स्याल्लोके सरलमतिकः कोऽपि मनुजः । महान्तो विद्वान्सो विमलमतयस्तेऽपि चकिताः, तदासन् दृष्ट्वा तं किमहमधिकं चाब्रुवमिदम् ॥ ३४ ॥
जनानां ज्ञानार्थं सततमुपकारी गुरुरयम्, कथानां साहित्यं व्यसृजदपरं मङ्गलमयम् । अधीत्यैतत्सर्वे परममुपकारं स्वहृदये, विदन्त्यन्ये विज्ञामुनय इह कार्यं शुभमिदम् ॥३५॥
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जनते
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गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी महाराज इस संसार से स्वेच्छा मृत्यु जिसको संस्तार अथवा संथारा कहते हैं, उसके फल को प्राप्त कर इस जगत् से पधारे। आप जानते थे कि मेरी मृत्यु से आचार्य पद महोत्सव में किसी प्रकार का विघ्न न हो, अतः उत्सवपर्यंत आप जीवित रहे ॥ २७ ॥
यह कितना आपश्री का उत्कर्ष है, कि किसी को कोई कष्ट, किसी प्रकार का कष्ट नहीं हुआ, यह न देखा, न सुना। किन्तु अन्त में, आप गुरुदेवश्री विधिपूर्वक शरीर त्यागकर एक सुन्दर (इतिहास प्रसिद्ध) शहर उदयपुर में सो रहे हैं ॥ २८ ॥
अपार जनसमूह, सभी सन्त और पावन सतियों एवं सभी आपके शिष्य उपस्थित थे। जगत् में शोभा, वह उदयपुर नगरी। ऐसी स्थिति में आप अपने शरीर को छोड़ते हैं ॥ २९ ॥
यह जानकर कि अब इस संसार से उठना है, अपने शिष्य श्री रमेश मुनिजी महाराज को गुरुदेव फरमाते हैं, किन्तु पक्षाघात के कारण कहते नहीं बनता। शिष्यवर भी विवक्षु जानकर यत्न करते हैं, किन्तु अन्त में विवश हो जाते हैं ॥३०॥
निधन के जानकर मुनिजन, संथारे के लिए अनुमति की प्रतीक्षा करते हैं, किन्तु संस्तारेच्छु गुरुदेव श्री पुष्करमुनिजी महाराज अन्त में ऐसी चेष्टा करते हैं कि क्या मैंने अभी तक संस्तारव्रत के लिये अभी तक किसी को नहीं कहा ! ॥ ३१ ॥
मैं कवि के रूप में, सुनी हुई बात को कह रहा हूँ, परन्तु यह तो एक तथ्य है कि मुनिजन के गुरु, गुरुदेव श्री पुष्करमुनिजी महाराज एक महान् सन्त हुए, इसको लिखूँ भी तो कैसे लिखूँ ? ॥ ३२ ॥
बालमुनियों की प्रतिदिन शिक्षा हो, इसलिये मैं इनके विहार के समय भी साथ रहा। अतः मैं भी तब तक इन गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी महाराज की कृपा से समझ पाया कि दयाभाव, वास्तव में किसको कहते हैं ॥ ३३ ॥
गुरुदेव श्री पुष्करमुनिजी महाराज की गम्भीरता कहाँ तक है। इसको संसार में स्वाभाविक वृत्ति का मनुष्य नहीं जान सकता था। क्योंकि बड़े विद्वज्जन भी, इनको समझने में, आश्चर्य मानते थे। तब मेरे जैसे सामान्य बुद्धि का मनुष्य उनको कहाँ तक कुछ अधिक कह पायेगा ॥ ३४ ॥
निरन्तर उपकारी गुरुदेव श्री पुष्करमुनिजी महाराज ने मनुष्यों के ज्ञान के लिये मङ्गलमय कहानियों का साहित्य रचा, जिसको सभी पढ़कर उनके उपकार जो जानते हैं। साथ ही ज्ञानी मुनिजन, इस शुभ कार्य कहते हैं ॥ ३५ ॥