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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ (११) समता, शान्ति और समर्पण इन तीनों को साधक श्रावकाचार का पालन, (४) जीवन में प्रामाणिकता, (५) स्वधर्मी के जितना अधिक अपने जीवन में उतारेगा उतनी ही अधिक प्रगति प्रति वात्सल्य, (६) जप का निश्चित समय, (७) निश्चित आसन, होगी।
(८) निश्चित दिशा, (९) निश्चित माला या प्रकार, (१०) निश्चित (१२) अपने सभी सम्बन्धों में आध्यात्मिकता स्थापित करनी
संख्या, (११) पवित्र एकान्त स्थान, (१२) स्थान को शुद्ध व पवित्र चाहिये।
करना, (१३) सात्विक भोजन आदि। (१३) अयोग्य आकर्षणों की ओर झुकाव नहीं होना चाहिए।
महर्षियों ने जप के लिए कई मंत्र भिन्न-भिन्न आशयों के लिये |
बनाये हैं। मंत्र साधन है। अच्छे मंत्रों का श्रद्धापूर्वक, लयबद्ध, शुद्ध, (१४) किसी को भी किसी प्रकार के राग द्वेष में नहीं बाँधना
आत्मनिष्ठा, संकल्प शक्ति के समन्वय के साथ किया गया जप चाहिये।
अत्यन्त शक्तिशाली हो जाता है। मंत्र के निरन्तर जप से होने वाले (१५) साधना के परिणाम के लिए अधीर नहीं होना चाहिये। कम्पन अपने स्वरूप के साथ ध्वनि तरंगों पर आरोहित होकर (१६) यह विश्वास रखना चाहिये कि साधना में बीते प्रत्येक
पलक झपकें इतने समय में समस्त भू-मण्डल में ही नहीं अपितु १४ पल का जीवन पर अचूक असर होता है।
राजूलोक में अपना उद्देश्य प्रसारित कर देते हैं। जप के शब्दों की |
पुनरावृत्ति होते रहने से उच्चारित किये गये शब्दों की स्पन्दित (१७) नवकार सूक्ष्म भूमिकाओं में अप्रगट रूप से शुद्धि का
तरंगों का एक चक्र (सर्किट) बनता है। कार्य करता है। चाहे तात्कालिक प्रभाव नहीं मालुम हो परन्तु धीरे-दीरे योग्य समय पर अपनी समग्रता में तथा अपने वातावरण
जिस प्रकार इलेक्ट्रो मेग्नेटिक तरंगों की शक्ति से अन्तरिक्ष में में उसके प्रभाव का प्रगट रूप में अनुभव होता है।
भेजे गये राकेट को पृथ्वी पर से ही नियंत्रित कर सकते हैं, लेसर |
किरणों की शक्ति से मोटी लोहे की चद्दरों में छेद कर सकते हैं, (१८) जब तक साधक के चित्त में चंचलता, अस्थिरता,
उसी प्रकार मंत्रों के जप की तरंगों से मंत्र योजकों द्वारा बताये गये। अश्रद्धा, चिन्ता आदि होते हैं तब तक वह प्रगति नहीं कर सकता।
कार्य हो सकते हैं। जप क्रिया में साधक को तथा वातावरण को (१९) जप साधना के लिए शान्ति, स्थिरता, अडिगता चाहिये। प्रभावित करने की दोहरी शक्ति है। जप करने वाला मन के निग्रह (२०) साधक को गुणों का चिन्तन मनन करना चाहिये और
से सारे विश्व के प्राण मण्डल में स्पन्दन का प्रसार कर देता है। स्वयं गुणी होना चाहिये।
मन एक प्रेषक यंत्र की तरह कार्य करता है। मन रूपी प्रेषक यंत्र
(Transmitter) से प्राण रूपी विद्युत द्वारा विश्व के प्राण मण्डल (२१) साधक को श्रद्धा होनी चाहिये कि उद्देश्य की सफलता ।
में स्पन्दन फैलाया जाता है, जो उन जीवों के मन रूपी यंत्रों इस जप के प्रभाव से ही होने वाली है तथा जैसे-जैसे सफलता
(Receiver) पर आघात करते हैं जिनमें जप करने वाले योगी मिलती जावे उसमें समर्पण भाव अधिक होना चाहिये।
कोई भावना जगाना चाहते हैं। क्योंकि वाणी का मन से, मन का । (२२) जप की संख्या के ध्यान के साथ जप से चित्त में अपने व्यक्तिगत प्राण से और अपने प्राण का विश्व के प्राण से। कितनी एकाग्रता हुई इसका ध्यान रखना चाहिये।
उत्तरोत्तर सम्बन्ध है। (२३) एकाग्रता लाने के लिये भाव विशुद्धि बढ़ाना चाहिये। साधारण रूप में प्रत्येक शब्द चाहे किसी भाषा का हो, मंत्र है। (२४) जप से मन की शुद्धि होती है जिसके फल में बुद्धि ।
अक्षर अथवा अक्षर के समूहात्मक शब्दों में अपरिमित शक्ति निहित 32 निर्मल बनी रहती है ऐसा विचार रखना चाहिये।
है। मंत्रों से वांछित फल प्राप्त करने के लिए मंत्र योजक की
योग्यता, मंत्र योजक की शक्ति, मंत्र के वाच्य पदार्थों की शक्ति, 100 % (२५) जप करने वाले को विषयों को विष वृक्ष के समान,
उन वाच्य पदार्थों से होने वाले शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक, LOR
संसार संयोगों को स्वप्न के समान समझना; अनित्यादि भावना व । सौर मण्डलीय शक्ति का प्रभाव तो है ही. साथ ही जप करने वाले। उसके मर्म को समझने का चिन्तवन करना चाहिये।
की शक्ति, आत्म स्थित भाव, अखण्ड विश्वास, निश्चल श्रद्धा, (२६) जप करने वालों को श्रद्धा रखनी चाहिये कि जप से । आत्मिक तेज, मंत्र की शुद्धि, मंत्र की सिद्धि आदि का विचार भी। Foooocन शुभ कर्म का आस्रव, अशुभ का संवर, पूर्व कर्म की निर्जरा. लोक । आवश्यक है।
स्वरूप का ज्ञान, सुलभ बोधिपना तथा सर्वज्ञ कथित धर्म की जप का मूल साधन ध्वनि है। भारतीय ध्वनि शास्त्र में भवोभव प्राप्ति कराने वाला पुण्यानुबंधि पुण्य कर्म का उपार्जन स्नायविक और मानसिक चर्चा के आधार स्वरूप ध्वनि के चार होता है। आदि.....
स्तर हैं-(१) परा, (२) पश्यन्ती, (३) मध्यमा, (४) वैखरी। जप करने वालों को कुछ नियमों का पालन करना आवश्यक (१) परा-परा वाक् मूलाधार स्थित पवन की संस्कारीभूता है-(१) दुर्व्यसनों का त्याग, (२) अभक्ष्य भक्षण का त्याग, (३) । होने के कारण एक प्रकार से व्यक्त ध्वनि की मूल उत्स शक्ति की ।
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