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________________ ४२८ है, जिसे तू शासित करना चाहता है वह तू ही है। अतः अहिंसा के मर्म को समझा जाय। इस प्रकार अहिंसा पर आचार्यप्रवर ने गम्भीर विश्लेषण किया जिसे सुनकर बादशाह ने कहा-योगी प्रवर ! मेरे योग्य सेवा हो तो फरमाइये। उत्तर में आचार्यश्री ने कहा हम जैन श्रमण हैं। अपने पास पैसा आदि नहीं रखते हैं और न किसी महिला का स्पर्श ही करते हैं। हम पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। यहाँ तक कि मुँह की गरम हवा से जीव न मर जायें इसलिए मुख पर मुखवस्त्रिका रखते हैं और रात्रि के अन्धकार में पैर के नीचे आकर कोई जन्तु खतम न हो जाये इसलिए रजोहरण रखते हैं। भारत के विविध अंचलों में पैदल घूमकर धर्म का प्रचार करते हैं। मेरी हार्दिक इच्छा है कि आप किसी भी प्राणी को म मारें; गोश्त का उपयोग न करें यही हमारी सबसे बड़ी सेवा होगी। बादशाह ने आचार्यश्री के आदेश को सहर्ष स्वीकार किया और नमस्कार कर अपने राजभवन में आ गया। मारवाड की ओर प्रस्थान वर्षावास पूर्ण होने जा रहा था, आचार्यप्रवर के सम्पर्क से दीवान खींवसीजी का जीवन ही धर्म में रंग गया था। उनके अन्तर्मानस में यह विचार उदबुद्ध हो रहे थे कि यदि आचार्यश्री जोधपुर पधारें तो धर्म की अत्यधिक प्रभावना हो सकती है। जोधपुर राज्य की जनता धर्म के मर्म को भूलकर अज्ञान अन्धकार में भटक रही है। चैतन्योपासना को छोड़कर जड़ोपासना में दीवानी बन रही है। दीवान खींवसी जी ने आचार्यप्रवर से निवेदन कियाभगवन्! कृपाकर आप एक बार जोधपुर पधारे। क्योंकि "न धर्मो धार्मिकबिना।" आचार्यश्री ने कुछ चिन्तन के पश्चात् कहा- दीवानजी, आपका कथन सत्य है; मारवाड़ में धर्म का प्रचार बहुत ही आवश्यक है। किन्तु साम्प्रदायिक भावना का इतना प्राबल्य है कि वहाँ पर सन्तों का पहुँचना खतरे से खाली नहीं है जिस प्रकार बाज पक्षियों पर झपटता है उसी प्रकार धर्मान्ध लोग सच्चे साधुओं पर झपटते हैं। मैंने यहाँ तक सुना है कि सम्प्रदायवाद के दीवानों ने इस प्रकार के सिद्धान्त का निर्माण किया है कि "चार सवाया पाँच" अर्थात् मक्खी चतुरिन्द्रिय है और जैन साधु पंचेन्द्रिय हैं, उनको मारने में सवा मक्खी का पाप लगता है। इस प्रकार निकृष्ट कल्पना कर अनेकों साधुओं को मार दिया गया है। अतः ऐसे प्रदेश में विचरण करना खतरे से खाली नहीं है। दीवान खींवसी जी विचार सागर में गोते लगाने लगे कि किस प्रकार आचार्यप्रवर को मारवाड़ में ले जाया जा सके। चिन्तन करते हुए उन्हें एक विचार आया। वे आचार्यप्रवर को नमस्कार कर बादशाह बहादुरशाह के पास पहुँचे और विनम्र निवेदन करते हुए कहा- जहाँपनाह! मैं आचार्यसम्राट श्री अमरसिंह जी महाराज को जोधपुर ले जाना चाहता हूँ। आपश्री जानते ही हैं जैन साधु किसी वाहन का उपयोग नहीं करते, वे पैदल चलते हैं। सम्प्रदायवाद के Jain Education International a उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ नशे में उन्मत्त बने हुए लोग इन साधुओं को भी अत्यधिक कष्ट देते हैं। उन्हें मार्ग में कोई कष्ट न हो, अतः आप शासन की ओर से ऐसा आज्ञा पत्र निकाल दें कि आचार्य अमरसिंह जी जो मारवाड़ में आ रहे हैं इन साधुओं को जो कष्ट देगा उनके साथ कड़क बर्ताव किया जायेगा; खेत वाले का खेत, घर वाले का घर, गाँव वाले का गाँव और अधिकारियों का अधिकार छीन लिया जायेगा। इस प्रकार बाईस ताम्रपत्रों पर आदेश लिखकर जोधपुर राज्य के वाईस परगनों में भिजवा दिए गये। दीवान खींवसी जी प्रसन्नमुद्रा में आचार्यप्रवर के पास आये और उनसे सनम्र निवेदन किया-भगवन्! अब आप मारवाड़ में पधारें। आपको मारवाड़ में किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं होगा। मैंने शासन की ओर से आज्ञा पत्र सभी स्थानों पर भिजवा दिये हैं। आचार्यश्री ने दीवान खींवसी जी भण्डारी की स्नेहपूर्ण प्रार्थना को स्वीकार किया और वर्षावास के पश्चात् आचार्यप्रवर ने देहली से मारवाड़ की ओर विहार किया। दीवानजी भी अपना कार्य पूर्ण कर चुके थे, अतः उन्होंने भी वहाँ से जोधपुर की ओर प्रस्थान कर दिया। धर्म - रंग लगा रंगलालजी को आचार्य श्री देहली से विहार करते हुए अलवर पधारे। कुछ समय तक अलवर में विराज कर धर्म की प्रभावना की और वहाँ से जयपुर पधारे। पूज्यश्री के जयपुर पधारने पर जयपुर की भावुक जनता प्रतिदिन हजारों की संख्या में प्रवचन सभा में उपस्थित होने लगी। पूज्यश्री ने अपने प्रवचन में अपरिग्रह का महत्व प्रतिपादन करते हुए कहा-जड़ वस्तुओं के अधिक संग्रह से मानव की आत्मा दब जाती है। उसका विकास अवरुद्ध हो जाता है मानव चाहे जितने व्रत ग्रहण करे किन्तु संग्रहवृत्ति पर नियन्त्रण न रखे तो उसको सच्चे आनन्द की उपलब्धि नहीं हो सकती। धर्मरूपी कल्पवृक्ष को परिग्रहवृत्ति जलाकर नष्ट कर देती है। चिन्ता-शोक को बढ़ाने वाला, तृष्णारूपी विषवल्लरी को सींचने वाला, कूट-कपट का भण्डार और क्लेश का घर परिग्रह है। परिग्रह का अर्थ है मन की ममता व आसक्ति। जिनेश्वरदेव ने वस्तु के प्रति रहे ममत्व-भाव को परिग्रह कहा है “मुच्छा परिग्गहो वृत्तो।"२६ विश्व के सभी प्राणियों के लिये परिग्रह के समान दूसरा कोई जाल नहीं है । २७ इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त हैं । २८ विश्व के पदार्थ ससीम है किन्तु इच्छाएँ असीम हैं, अतः कामनाओं का अन्तः करना ही दुःख का अन्त करना है ।२९ प्रमत्तपुरुष धन के द्वारा न इस लोक में अपनी रक्षा कर सकता है न परलोक में।३० पूज्यश्री के अपरिग्रह के विश्लेषण को सुनकर रंगलालजी पटवा जो बहुत ही गरीब थे, उन्होंने निवेदन किया- भगवन् मुझे पाँच हजार से अधिक परिग्रह नहीं रखना है, इसकी मर्यादा करवा For Private & Personal Use Only www.jsinelibrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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