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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । एक बार आचार्य रघुनाथमलजी महाराज की सम्प्रदाय के सन्त फलस्वरूप सर्वप्रथम विक्रम संवत् १९८८ में पाली के पवित्र प्रांगण कालूरामजी महाराज अत्यधिक अस्वस्थ हो गये थे। उस समय । में मरुधर प्रान्त में विचरने वाले छह सम्प्रदायों के महारथियों का उनकी सेवा में कोई भी सन्त नहीं था। जब आपश्री को यह ज्ञात । सम्मेलन हुआ और आपश्री के प्रबल पुरुषार्थ से संगठन का हुआ, तो गुरुजनों की आज्ञा लेकर उनकी सेवा में समदड़ी पहुँचे । सु-मधुर वातावरण तैयार हुआ। उस सम्मेलन के कारण संघ में
और मन लगाकर सेवा की। अन्त में कालूरामजी महाराज को बीस । एक उत्साहपूर्ण वातावरण का निर्माण हुआ और बृहत् साधुदिन का संथारा आया। उस समय आपकी सेवा प्रशंसनीय रही। सम्मेलन, अजमेर की भूमिका तैयार हुई। अजमेर में विराट आपश्री ने ज्येष्ठमलजी महाराज, नेमीचन्दजी महाराज, सम्मेलन हुआ। उस सम्मेलन में भी आपश्री ने स्थानकवासी समाज मुलतानमलजी महाराज, दयालचन्दजी महाराज, उत्तमचन्दजी की एकता पर अत्यधिक बल दिया। सन् १९५२ में जो सादड़ी महाराज, बाघमलजी महाराज, हजारीमलजी महाराज आदि सन्तों
सम्मेलन हुआ उस वर्ष आपश्री का वर्षावास सादड़ी में था और की अत्यधिक सेवाएँ कीं। सेवा आपका जीवन-व्रत था। जिस आपकी ही प्रबल प्रेरणा से सादड़ी में सन्त सम्मेलन हुआ। उसमें असिधारा व्रत पर चलते समय बड़े-बड़े वीर भी घबरा जाते हैं, । आपश्री ने अत्यधिक निष्ठा के साथ कार्य किया। आपश्री का कार्य किन्तु आपने सेवा का ज्वलन्त आदर्श उपस्थित किया।
नींव की ईंट के रूप में था, यद्यपि वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण RUDP आपश्री को जब सेवा से अवकाश मिलता तब आप ग्रन्थों की संघ में आप सबसे बड़े थे, तथापि आपश्री में तनिक मात्र भी
प्रतिलिपियाँ उतारते थे। आपके अक्षर मोती के समान सुन्दर थे। अहंकार नहीं था। संघ की प्रगति किस तरह हो, यही चिन्तन
आपश्री ने रामायण, महाभारत, श्रेणिकचरित्र आदि चरित्र और । आपश्री का था। आपश्री को पद का किंचित् मात्र भी लोभ नहीं जह सैकड़ों भजन, चौपाइयाँ लिखीं।
था। यही कारण था कि सादड़ी सन्त सम्मेलन में आपको पद देने के आपकी प्रवचन-कला अत्यन्त आकर्षक थी। जब आप प्रवचन
लिए अत्यधिक आग्रह किया गया किन्तु पद लेना आपश्री ने करते तब सभा मन्त्रमुग्ध हो जाती थी। हास्यरस, करुणरस,
स्वीकार नहीं किया। यह थी आपकी पूर्ण निस्पृहता। वीररस और शान्तरस सभी रसों की अभिव्यक्ति आपकी वाणी में शिक्षा के प्रति आपश्री की स्वाभाविक रुचि थी। स्वयं आपने सहज होती थी। उसके लिए आपको किंचित्मात्र भी प्रयत्न नहीं तो पण्डित से डेढ़ दिन ही पढ़ा था। क्योंकि वह युग ऐसा था जिस करना पड़ता था। आपकी वाणी में मृदुता, मधुरता और सहज युग में पण्डितों से पढ़ना उचित नहीं माना जाता था। केवल सुन्दरता थी। वक्तृत्वकला स्वभाव से ही आपको प्राप्त हुई थी। किस गुरुओं से अध्ययन किया जाता था। किन्तु समय ने करवट बदली; समय क्या बोलना, कैसे बोलना, कितना बोलना यह आप अच्छी आपश्री ने देखा, संस्कृत, प्राकृत भाषा का जब तक गहरा अध्ययन तरह से जानते थे। जहाँ-जहाँ भी आप गये वहाँ आपका जय- नहीं होगा तब तक आगमों के रहस्य स्पष्ट नहीं हो सकते। अतः जयकार होता रहा।
आपश्री ने अपने सुयोग्य शिष्य भी पुष्कर मुनिजी महाराज को आपश्री का वि. सं. १९९१ का चातुर्मास ब्यावर में था। संस्कृत- प्राकृत भाषा का अध्ययन नहीं करवाया, अपितु किंग्स ब्यावर सदा से संघर्ष का केन्द्र रहा है। वहाँ का संघ तीन विभागों कालेज बनारस की और कलकत्ता ऐसोसियेशन की काव्यतीर्थ, में विभक्त है-प्रथम स्थानक के अनुयायी, दूसरे आचार्य न्यायतीर्थ आदि परीक्षाएँ भी दिलवायीं। अपने अन्य शिष्य और जवाहरलालजी महाराज को मानने वाले और तीसरे जैन दिवाकर प्रशिष्यों को भी तथा सती वृन्द को भी अध्ययन की दिशा में आगे श्री चौथमलजी महाराज के अनुयायी थे। स्थानक वालों में सदा । बढ़ने के लिए प्रेरणा दी। आपश्री को एक बार प्रातःकाल स्वप्न दिवाकरजी महाराज के अनुयायियों में परस्पर सद्भाव था जिससे आया था कि मेरे शिष्य-शिष्याएँ प्रकाश की ओर बढ़ रही हैं। एक वर्ष उनका चातुर्मास और द्वितीय वर्ष स्थानक का चातुर्मास आपश्री ने उसका यही अर्थ लगाया कि ज्ञान के क्षेत्र में ये प्रगति होता था। किन्तु उस वर्ष ऐसा वातावरण बना कि तीनों संघों ने करेंगे। मिलकर आपश्री से चातुर्मास की प्रार्थना की। संगठन, स्नेह
ज्ञान के साथ ही आचार पर आपका बहुत अधिक बल था। सद्भावना की वृद्धि को संलक्ष्य में रखकर आपने चातुर्मास स्वीकार
| आप स्वयं कम बोलते थे और गृहस्थों से निरर्थक वार्तालाप नहीं किया और आपके प्रवचनों की ऐसी धूम मची कि सभी श्रोता
किया करते थे। आपका यह मानना था कि सन्तों को गृहस्थों का विस्मित हो गये। आप प्रवचनों में आगमिक गम्भीर रहस्यों को
सम्पर्क कम से कम करना चाहिए। अधिक सम्पर्क से श्रमणों के रूपक, लोककथाओं, उक्तियों व संगीत के माध्यम से इस प्रकार
| जीवन में साधना की दृष्टि से न्यूनता आती है। मक्खन लम्बे समय व्यक्त करते थे कि श्रोता झूम उठते।
तक छाछ में रहेगा तो मक्खन का ही नुकसान है, छाछ का नहीं। आपश्री संगठन के प्रबल पक्षधर थे। स्थानवासी परम्परा में
साधना की उत्कृष्टता के लिए आचार की निर्मलता अपेक्षित है। OR विभिन्न मतों को देखकर आपका हृदय द्रवित हो गया था। आपने जितना आचार शुद्ध होगा उतना ही साधक के जीवन का प्रभाव उह स्थानकवासी समाज की एकता के लिये प्रबल प्रयत्न किया जिसके } बढ़ेगा।
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