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। इतिहास की अमर बेल
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गये। जिस गुरुदेव की शीतल छाया में जीवन का यह नवीन पौधा माँ की शिक्षा भरी बातों को सुनकर बालकमुनि ताराचन्दजी ने संरक्षण व संवर्द्धन पा रहा था, अकस्मात् क्रूर काल की आँधी के कहा-माँ तू चिन्ता मत कर। मैं तेरे दूध को रोशन करूँगा। मैं ऐसा एक ही वेग से वह शीतल छाया ध्वस्त हो गयी। इस स्थिति में कोई भी कार्य नही करूँगा जिससे तुझे उपालंभ सुनना पड़े। माँ पुत्र बालक मुनि अपने को असहाय व आश्रयहीन अनुभव करने लगा।। के तेजस्वी और ओजस्वी चेहरे को देखकर प्रफुल्लित थी। उसे उस समय ज्येष्ठमलजी महाराज व नेमीचन्दजी महाराज ने मधुर आत्मविश्वास था कि मेरा लाल साधना के महामार्ग में सदा आगे स्नेह से उन्हें स्वस्थ किया। वे पुनः शान्त और स्थिरचित्त होकर } ही बढ़ता रहेगा। आपश्री ने विक्रम संवत् १९५३ का वर्षावास संयम-साधना में लीन हो गये।
रंडेडा में किया और वर्षावास के पश्चात् अपनी जन्मस्थली बम्बोरा ___ वर्षावास के पश्चात् जालोर से विहार हुआ। श्रमण ऋषियों के
पधारे। उस समय वहाँ पर पूज्यश्री तेजसिंहजी महाराज की 90 लिए विहार करना प्रशस्त माना गया है-'विहार चरिया इसिणं
गडा
सम्प्रदाय के बड़े प्यारचन्दजी महाराज से आपका मिलना हुआ। यहाँ पसत्था।' सरिता की सरस धारा के समान श्रमणों की विहार यात्रा यह स्मरण रखना चाहिए कि आपश्री इसके पश्चात् पुनः अपनी है। जैसी सरिता के सन्निकट की भूमि उर्वरा होती है वैसे ही सन्तों
| जन्मभूमि में संवत् २००३ में पधारे, अर्थात् पचास वर्ष के बाद। के सत्संग के जन-जीवन में सत्संस्कार, सद्विचार तथा सदाचार आपश्री का स्वभाव बहुत मधुर था। आपकी वाणी में मिश्री के पनपने लगते हैं और स्नेह सद्भावना की सरस भावनाएँ | समान मिठास था। सेवा और विनय के कारण आपश्री सन्तों के अठखेलियाँ करने लगती हैं। एक कवि ने कहा भी है
अत्यधिक प्रिय हो गये। आपकी प्रतिभा से सन्त प्रभावित थे। “साधु, सलिला, बादली, चले भुंजगी चाल।
आपश्री ने छह चातुर्मास कविवर्य नेमीचन्दजी महाराज के साथ
किये और दूज के चाँद की तरह आपका प्रेम निरन्तर बढ़ता ही हा जिण-जिण सेरी नीसरे, तिण-तिण करत निहाल ॥"
रहा। रतलाम में श्री उदयसागरजी महाराज ने आपको देखकर बालक मुनि श्री, ताराचन्दजी अपने गुरुभ्राता कविवर्य श्री
नेमीचन्दजी महाराज से कहा-इसके शुभ लक्षण बताते हैं कि यह नेमीचन्दजी महाराज के साथ मेवाड़ पधारे और मातेश्वरी महान प्रभावशाली सन्त होगा औ यह देश-विदेशों में भी लम्बी ज्ञानकंवरजी से मिले। माँ ने अपनी वाणी में स्नेह-सुधा घोलते हुए । यात्राएँ करेगा। कहा-वत्स! मैं जानती हूँ कि गुरुदेवश्री का एकाएक स्वर्गवास हो
विक्रम संवत् १९५९ में आपश्री आत्मार्थी ज्येष्ठमलजी गया है। तुम्हें साधना के क्षेत्र में अब अधिक जागरूकता से आगे
महाराज की सेवा में पधार गये और वे जब तक जीवित रहे तब बढ़ना है। दूध को गरम करते समय उफान आता है किन्तु
तक आपश्री उन्हीं की सेवा में रहे। आपश्री की सेवा से समझदार रसोइया जल के छींटे जाकर उस उफान को शान्त कर
ज्येष्ठमलजी महाराज अत्यधिक प्रभावित हुए। आपने ज्येष्ठमलजी देता है। जो व्यक्ति समुद्र की यात्रा करता है उसे तूफान का सामना
महाराज के सुशिष्य तपस्वी हिन्दूमलजी महाराज जो गढ़सिवाना के करना पड़ता है। कुशल नाविक तूफानी वातावरण में भी नौका को
थे, जिन्होंने भरे-पूरे परिवार का परित्याग कर आर्हती दीक्षा ग्रहण खेता हुआ पार पहुंचा देता है। तो तुम्हें उफान और तूफान में शान्त
की थी, और दीक्षा ग्रहण करते ही जिन्होंने पाँचों विगयों का रहना है। उफान जीवन में अनेक बार आते हैं। यदि साधक
परित्याग कर दिया था एवं उग्र तप की साधना करते थे। एक बार जागरूक न रहे तो उफान भी तूफान बन जाता है। अतः सतत
वे सिवाना के सन्निकट उजियाना गाँव में थे। उस समय परस्पर जागरूकता की आवश्यकता है।
कुत्ते लड़ रहे थे। उनकी झपट में आ जाने से तपस्वी हिन्दूमलजी वत्स! अभी तेरी उम्र छोटी है। यह उम्र अध्ययन करने की है। महाराज नीचे गिर गये और उनके पैर की हड्डी टूट गयी, जिससे अध्ययन से बुद्धि मँजती है। विचारों में निखार व प्रौढ़ता आती है। वे चल नहीं सकते थे। आप उन्हें अपने कन्धे पर बिठाकर उपचार अध्ययन के साथ ही विनय और विवेक भी आवश्यक हैं। नगीना | हेतु छह मील चलकर गढ़ सिवाना लाये और उनकी अत्यधिक सेवा स्वर्ण में जड़ने से ही शोभा पाता है वैसे ही विनय के साथ विवेक करके उन्हें स्वस्थ किया। तपस्वी हिन्दूमलजी महाराज ने चौदह वर्ष की भी शोभा होती है। विनय से जीवन में हजारों सद्गुण आते हैं। 1 तक संयम-साधना और उग्र तप की आराधना की। अन्तिम चार विनय वह चुम्बक है जो सद्गुणों को अपनी ओर आकर्षित करता 7 वर्षों में वृद्धावस्था और रुग्णावस्था के कारण उनमें चलने का Padga है। साथ ही चाहे तुमसे बड़े हों चाहे छोटे हो उन सभी की तन, मन सामर्थ्य नहीं था। तब अध्यात्योगी ज्येष्ठमलजी महाराज के आदेश से सेवा करना। सेवा से तेरे जीवन में नयी चमक और दमकको शिरोधार्य कर चार वर्ष तक उनकी अत्यधिक सेवा की। आयेगी। देख बेटा, "चाम नहीं, काम वाल्हो है।" मेरी इन शिक्षाओं 1 नन्दीसेन मुनि की तरह अग्लानभाव से आपको सेवा करने में पर तू सदा ध्यान रखना। दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् तू पहली | आनन्द की अनुभूति होती थी। अपनी सम्प्रदाय के सन्तों की तो बार मुझसे मिला है। अतः मैंने अपने हृदय की बात तुझे कही है। सेवा करते ही थे, किन्तु अन्य सम्प्रदाय के सन्तों की सेवा का प्रसंग इसे जीवन भर न भूलना।
उपस्थित होने पर भी आप पीछे नहीं रहते थे।
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