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________________ 200 वाग देवता का दिव्य रूप उन सज्जनों के सम्पर्क से बदल जाता है वे अपने कुकृत्यों को त्यागकर सुकृत्यों को अपनाते हैं। कथाएँ कुछ बड़ी हैं, कुछ छोटी कथा-लेखन शैली कथा कहने के समान ही है। सभी कथाएँ वर्णनात्मक एवं उपदेश प्रधान हैं। उपदेश यत्र-तत्र सूत्र रूप में भी दिया गया है। ये कथाएँ आधुनिक कहानी व उपन्यास की दृष्टि से भले ही कम खरी उतरें, क्योंकि लेखक का उद्देश्य पाठक को शब्दजाल में व शैली के भँवरजाल में उलझाना नहीं है वह तो पाठकों के जीवन का चारित्रिक दृष्टि से निर्माण करना चाहता है। इसीलिए यत्र-तत्र उपदेश, नीति-कथन व उद्धरणों का प्रयोग स्वाभाविक रूप से हुआ है। भाषा में चुम्बकीय आकर्षण है जो पाठकों को सदा आकर्षित करता रहता है। कथोपकथन यथास्थान कथासूत्र को आगे बढ़ाने में उपयोगी हैं। ये सभी कथाएँ जैन-कथा साहित्य की सुन्दर व अनमोल मणियाँ हैं जो सदा चमकती रहेंगी। जैन कथाओं के अतिरिक्त आपश्री के प्रवचन साहित्य में सैंकड़ों रूपक, ऐतिहासिक कथाएँ व बोध कथाएँ प्रयुक्त हुई हैं। उदाहरण के रूप में हम यहाँ एक-दो कथाएँ दे रहे हैं, जिससे ज्ञात हो सके कि ये सभी कथाएँ कितनी सरस व बोध प्रदान करने वाली हैं। देखिए अर्धरात्रि का समय था। आकाश में चपला चमक रही थी। घनघोर घटाएँ छाई हुईं थीं। बरसात की झड़ी लगी हुई थी। ठीक ऐसे समय में सुनसान मरघट में एक नारी का करुण क्रन्दन सुनाई देता है। उसके नेत्रों से गंगा-यमुना बरस रही है। वह दुखिया अबला पुकार रही थी- "महाराज ! यहीं रहते हो ? जरा आओ, अन्तिम समय में अपने प्यारे पुत्र का मुखड़ा तो देख लो।" अबला रोयी । किन्तु वहाँ उस अरण्य रोदन को सुनता ही कौन था? इतने में उसने सामने देखा एक जरा जीर्ण काले-कलूटे शरीर का एक व्यक्ति हाथ में बाँस लिए खड़ा है और बोलता है-"अरी पगली ! क्यों रोती है? यहाँ राजमहल नहीं है, कौन आएगा तुझे देखने ?" करुण स्वर में तारा ने कहा- "तुम्हारे पास माँ का हृदय होता तो तुम्हें मेरी व्यथा का अनुभव होता। यह मेरे कलेजे का टुकड़ा आज जमीन पर पड़ा है। इसके शव को ढकने के लिए आज पूरा कपड़ा भी नहीं मिल रहा है। सोने के पालने में झूलने वाले सूर्यवंश के राजकुमार को आज कफन के लिए टुकड़ा भी नसीब नहीं है। मेरा हृदय आज वेदना से फटा जा रहा है। इस पुत्र के पिता ध्वजपति सम्राट् को मैं पुकारती हूँ।" सामने खड़े व्यक्ति ने पूछा- "कौन हो तुम? क्या तुम्हारा नाम तारा है ?" Jain Education fatemational 200 २९३ "और आप सूर्यवंशी सम्राट हरिश्चन्द्र हैं ? " - तारा ने प्रति प्रश्न किया और तभी बिजली चमकी। दोनों ने एक-दूसरे को देखा। वर्षों से बिछुड़े हुए दो प्राणी मिले। किन्तु अत्यन्त करुण प्रसंग को लेकर पुत्र के शव को देखकर हरिश्चन्द्र का हृदय भर आया। किन्तु दूसरे ही क्षण कर्त्तव्यपालन के लिए हृदय को कठोर कर बोला - "अरी पगली ! अब यह राजा हरिश्चन्द्र नहीं है, यह तो कालिया चांडाल का क्रीत दास है, और तुम तारा हो, पर अब महारानी नहीं हो, ब्राह्मण की क्रीत दासी हो। अब भूल जाओ उन दिनों को क्या उस दिन की घड़े को हाथ लगाने की घटना भूल गई ? Do तारा के आँसुओं का बाँध टूट चुका था। वह कहने लगी"नाथ ! सब्र करो। देखते नहीं हो प्राणप्यारा पुत्र सामने मरा पड़ा है ?" हरिश्चन्द्र- " क्या हुआ है इसे ?" “प्राणनाथ ! आज यह फूल चुनने उद्यान में गया था, तभी एक काले नाग ने इसे इस लिया। इसके शरीर के अणु-अणु में जहर फैल गया है।" तारा दिखलाने के लिए आगे बढ़ती है। "तारा! यह तो ठीक है। किन्तु इस समय मैं अपने मालिक के कर्त्तव्य पर नियुक्त हूँ। मैं कुछ भी रियायत करने के लिए तैयार नहीं। एक टका लेकर आओ दाह-संस्कार का। जब तक दाह-संस्कार का टका नहीं दोगी जब तक दाह-संस्कार नहीं हो सकेगा।" तारा - " नाथ ! यह तो जैसा मेरा पुत्र है, वैसा ही आपका है। क्या आप दाह-संस्कार के लिए सामान नहीं दे सकते? यहाँ तो काफी लकड़ियों का ढेर है। कौन देखता है प्राणनाथ ?" हरिश्चन्द्र ने गरजते हुए कहा- "मैं कर्त्तव्य से च्युत नहीं हो सकता। मैं अपने अधिकार की वस्तु छोड़ सकता हूँ पर यह तो मेरे स्वामी के अधिकार की वस्तु है। शव दाह के लिए दो टके देने ही होंगे।" 'नाथ! एक ही साड़ी थी। आधी का कफन बनाया और आधी लज्जा - निवारण के लिए है। और कुछ भी मेरे पास नहीं।' हरिश्चन्द्र चाहे कुछ भी हो, तुम्हें टके चुकाने होंगे। तारा दरख्त की ओट में होकर अपनी साड़ी खोलकर देते हुए कहती है-लो, नाथ! टके की कीमत की तो होगी ही न?" कर्त्तव्य की कठोर अग्नि परीक्षा में हरिश्चन्द्र उत्तीर्ण X For Private & Personal Use Only o X हुए। x बंगाल के महान् दार्शनिक सतीशचन्द्र विद्याभूषण की प्रशंसा सुनकर उनकी माता के दर्शन के लिए एक व्यक्ति आया। उसका www.jainelibrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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