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बाग देवता का दिव्य रूप
जपयोग की महान उपलब्धि
इन और ऐसी उपलब्धियों की अनुभूति जपयोग विधिविधानों का भलीभांति पालन करने वाला हर एक साधक कर सकता है। इस तथ्य को टाइपराइटर के उदाहरण से अच्छी तरह समझिए टाईपराइटर की कुंजियों को अंगुली से दबाने पर वे कुंजियां ( तीलियां) कागज पर गिरकर अक्षर छापने लगती हैं। मुख से उच्चारण किए जाने वाले मंत्र के शब्दों को टाईपराइटर की कुंजियां कह सकते हैं। मंत्रों का उच्चारण है-उन शब्द रूपी कुंजियों का दबाना। इस प्रक्रिया से उत्पन्न हुआ शक्ति प्रवाह नाड़ी तन्तुओं की तीलियों के सहारे सूक्ष्मचक्रों तथा सूक्ष्मग्रंथियों तक पहुंचकर उन्हें जगाने की भूमिका निष्पन्न करता है। टाईपराइटर की कुंजियां दबाने से कागज पर अक्षरों के छपने की उपलब्धि के समान शक्ति संस्थानों की जागृति है, जो उपलब्धि के रूप में प्रत्येक उपयोग के सायक को दिखाई पड़ती है।
जपनीय शब्दों की पुनरावृत्ति के अभ्यास का चमत्कार
मनुष्य की मानसिक संरचना ऐसी है, जिसमें कोई भी बात गहराई तक जमाने के लिए उसकी लगातार पुनरावृत्ति का अभ्यास करना होता है। पुनरावृत्ति से मस्तिष्क एक विशेष ढांचे में ढलता जाता है। जिस क्रिया को बार-बार किया जाता है, वह आदत में शुमार हो जाती है। जो विषय बार-बार पढ़ा, सुना, बोला, लिखा या समझा जाता है, वह मस्तिष्क में अपना एक विशिष्ट स्थान जमा लेता है। किसी भी बात को गहराई से जमाने के लिए उसकी पुनरावृत्ति करना आवश्यक होता है।
प्रारंभिक विद्यार्थियों को वर्णमाला के अक्षर, बारहखड़ी तथा गणित के पहाड़े कण्डस्थ कराने के लिए उन्हें प्रतिदिन दोहराना तथा स्लेट पर लिखाना पड़ता है। आगे चलकर विद्यार्थी इतना अभ्यस्त हो जाता है कि पुस्तक अतिशीघ्रता से पढ़ लेता है, गणित का कोई भी हिसाब मिनटों में जवानी करके बता देता है। यह पुनरावृत्ति के अभ्यास का चमत्कार है योद्धाओं को प्रतिदिन कवायद तथा निशाना ताकने का अभ्यास करना होता है, इससे वह युद्ध भूमि में स्फूर्ति से सतर्क होकर लड़ सकता है। पुनरावृत्ति हमेशा अधिक प्रभावशाली होती है। जपयोग में पुनरावृत्ति ही अधिक महत्वपूर्ण है। बहुमूल्य रासायनिक औषधियां बनाने के लिए उनकी मात्रा में काफी देर तक घुटाई, पिसाई करनी होती है। रस्सी की बार-बार रगड़ से कुंए की पत्थर जैसी कठोर जगत पर निशान यह जाते हैं। पत्थर को मुलायम तथा चिकना करने के लिए घिसना पड़ता है। आटा पीसने की चक्की तथा तेल निकालने के कोल्हू में भी एक ही क्रिया का चक्रगति से प्रयोग चलता रहता है। कपड़े धोने के लिए उन्हें बार-बार फींचना पड़ता है। स्नान के लिए भी शरीर को रगड़ना पड़ता है। दांतों को चमकीला बनाये रखने के लिए ब्रश से या दतौन से घिसा जाता है। मशीनें भी बार-बार
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चलती हैं-गति करती हैं, तभी किसी चीज का उत्पादन कर सकती हैं। एक ही रास्ते पर बार-बार पशुओं व मनुष्यों के चलने से पगडंडियां बनती हैं। इसी प्रकार मंत्र जप के द्वारा नियमित रूप से अनवरत मंत्रगत शब्दों की आवृत्ति करने से जपकर्ता के अन्तरंग में वह स्थान जमा लेता है। उस लगातार जप का ऐसा गहरा प्रभाव व्यक्ति के अन्तर पर पड़ जाता है कि उसकी स्मृति लक्ष्य से संबंधित अपनी जगह मजबूती से पकड़ लेती है। चेतन मन में तो उसका स्मरण पक्का रहता ही है, अचेतन मन में भी उसका एक सुनिश्चिय स्थान बन जाता है। फलतः बिना ही प्रयास के प्रायः निद्रा और स्वप्न में भी जप चलने लगता है। यह है-जपयोग से पहला और महत्वपूर्ण लाभ |
जपयोग से दूसरा लाभः शब्द तरंगों का करिश्मा
जपयोग से दूसरा लाभ है अन्तरिक्ष में प्रवाहित होने वाले दिव्य चैतन्य-प्रवाह से अभीष्ट परिमाण में शक्ति खींचकर उससे लाभ उठाना जैन दृष्टि से भी देखा जाए तो मंत्र के अधिष्टायक देवी-देव जपकर्ता साधक को अभीष्ट लाभ पहुंचाते हैं। इसका अर्थ है-मंत्रजाप से उत्पन्न होने वाली सूक्ष्म तरंगें विश्वब्रह्माण्ड (चीदह
प्रमाण लोक) में प्रवाहित ऊर्जाप्रवाह को खींच लाती है जिस प्रकार किसी सरोवर में ढेला फेंकने पर उसमें से लहरे उठती हैं। और ये वहीं समाप्त न होकर धीरे-धीरे उस सरोवर के अन्तिम छोर तक जा पहुँचती हैं, उसी प्रकार मंत्रगत शब्दों के अनवरत जाप (पुनरावर्तन) से चुम्बकीय विचारतरंगें पैदा होती है, जो विश्व-ब्रह्माण्ड-रूपी सरोवर का अंतिम छोर विश्य के गोलाकार होने के कारण, वही स्थान होता है, जहां से मंत्रगत ध्वनि तरंगों का संचरण प्रारंभ हुआ था। इस तरह मंत्रजप द्वारा पुनरावर्तन होने से पैदा होने वाली ऊर्जा-तरंगें धीरे-धीरे बहती व बढ़ती चली जाती है और अन्त में एक पूरी परिक्रमा करके अपने मूल उद्गम स्थान - जपकर्ता के पास लौट आती हैं।
शब्द तरंगों की ब्रह्माण्डव्यापी यात्रा क्या और कैसी?
एक बात ध्यान में रखनी है कि शब्द तरंगों की यह यात्रा चुपचाप पूरी नहीं होती । तरंगों की चुम्बकीय शक्ति बहुत कुछ ग्रहण और विसर्जन करती चलती है। ये तरंगें जिस क्षेत्र से संपर्क बनाती हैं, उसे प्रभावित करती हैं और स्वयं भी प्रभावित एवं परिवर्द्धित होती हैं। उनका यह प्रभाव सजातीयता के सिद्धांत पर चलता है। "समानशील- व्यसनेषु सख्यम्" "समान आचार और व्यसन (आदत) वालों में दोस्ती हो जाती है," इस कहावता के अनुसार समानवर्ग के प्राणी या पदार्थ जैसे एक-दूसरे से प्रभावित एवं आकर्षित होते हैं, वैसे ही मस्तिष्क से उद्भूत तथा मुख से निकलने वाले भले-बुरे विचार या शब्द भी अपने साथ सजातीय विचारों व शब्दों का एक पूरा झुंड लेकर अपने उद्गम स्थान पर अपेक्षाकृत अधिक परिवर्द्धित एवं बलवत्तर होकर लौटते हैं।
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