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प्राचीनकाल से अपनाये हुए हैं। योगियों ने इसे स्वाध्याय का एक अंग माना है। जप यौगिक अभ्यास का महत्वपूर्ण अंग है। जप का अर्थ होता है-" किसी पवित्र मंत्र की लगातार बार-बार पुनरावृत्ति करते रहना। इसके बार-बार उच्चारण के अभ्यास से जपकर्ता अपने आपको अन्तिम उद्देश्य पर पहुँचने के योग्य बना लेता है।
रामकृष्ण परमहंस ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा है" एकान्त में बैठकर मन ही मन भगवान् का नाम लेना जप है। इस प्रकार के नामस्मरण से अन्तःकरण की शुद्धि होती है और उससे कषायों और रागद्वेषों से होने वाले बन्धन शिथिल होते हैं। पापवृत्तियां भी छिन्न-भिन्न हो जाती हैं।
कर्मयोगी श्रीकृष्ण ने “जप को यज्ञों में सर्वश्रेष्ठ यज्ञ और उसे अपनी विभूति बताया है।"
गोस्वामी तुलसीदास जी के शब्दों में कहूँ तो "विश्वासपूर्वक भगवद्-नाम-स्मरण से कठिन से कठिन संकटों पर विजय प्राप्त की जा सकती है, नाम जप का आश्रय लेने पर साधक या उपासक पर दशों दिशाओं से कल्याण की मंगलमयी अमृतवर्षा होती है । २"
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शरीर पर मैल चढ़ जाता है तो उसे धोने के लिए लोग स्नान करते हैं। इसी तरह मन पर भी वातावरण में नित्य उड़ती फिरने वाली दुष्प्रवृत्तियों की छाप पड़ती है, उस मलिनता को धोने के लिए जप ही सर्वश्रेष्ठ सुलभ एवं सरल उपाय है। नामजप से इष्ट का स्मरण, स्मरण से आह्वान आह्वान से हृदय में स्थापन३ और स्थापन से उपलब्धि का क्रम चलना शास्त्रसम्मत भी है और विज्ञान सम्मत भी । अनभ्यस्त मन को जप द्वारा सही रास्ते पर लाकर उसे प्रशिक्षित एवं परमात्मा के साथ जुड़ने के लिए अभ्यस्त किया जाता है, परमात्म (शुद्ध आत्म) चेतना को जपकर्ता अपने मानस पटल पर जप द्वारा प्रतिष्ठित कर लेता है। जपयोग की प्रक्रिया से ऐसी चेतनशक्ति का प्रादुर्भाव हो जाता है, जो साधक के तन-मन-बुद्धि में विचित्र चैतन्य हलचलें पैदा कर देती हैं। जप के द्वारा अनवरत शब्दोच्चारण से बनी हुई लहरें (Vibrations) अनन्त अन्तरिक्ष में उठकर विशिष्ट विभूतियों व्यक्तियों और परिस्थितियों को ही नहीं, समूचे वातावरण को प्रभावित कर देती हैं। सारे वातावरण में जप में उच्चरित शब्द गूँजने लगते हैं।
जपयोग से सबसे बड़ा प्रथम लाभ
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जपयोग का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इसकी प्रक्रिया दोहरी प्रतिक्रिया उत्पन्न करती है एक भीतर में दूसरी बाहर में जप के ध्वनि प्रवाह से शरीर में पत्र-तत्र सन्निहित अनेक चक्रों एवं उपत्यकाओं (नाड़ी संस्थानों) में एक विशिष्ट स्तर का शक्ति संचार होता है। इस प्रकार के विशिष्ट शक्ति संचार की अनुभूति जपकर्ता
१. यज्ञानां जपयज्ञोस्मि
२. "नाम जपत मंगलदिसि दसहूँ"
३. “स देवदेवो हृदये ममास्ताम् "
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-गीता अ. १० श्लोक-२५
- गोस्वामी तुलसी दास -अमितगतिसुरि
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
अपने भीतर में करता है, जबकि बाहरी प्रतिक्रिया यह होती है कि लगातार एक नियमित क्रम से किए जाने वाले विशिष्ट मंत्र के जप से विशिष्ट प्रकार की ध्वनि तरंगें निकलती हैं, जो समग्र अन्तरिक्ष में विशेष प्रकार का स्पन्दन उत्पन्न करती हैं, वह तरंग स्पन्दन प्राणिमात्र को और समूचे वातावरण को प्रभावित करता है।
मंत्रजाप से दोहरी प्रतिक्रिया : विकारनिवारण, प्रतिरोधशक्ति
प्रत्येक चिकित्सक दो दिशाओं में रोगी पर चिकित्सा कार्य करता है। एक ओर यह रोग के कीटाणुओं को हटाने की दवा देता है, तो दूसरी ओर रोग को रोकने हेतु प्रतिरोधात्मक शक्ति बढ़ाने की दवा देता है। क्योंकि जिस रोगी में प्रतिरोधात्मक शक्ति कम होती है, उसे दी जाने वाली दवाइयां अधिक लाभदायक नहीं होतीं। जिस शरीर में रोगों से लड़ने की क्षमता होती है, वहीं दवाइयां ठीक काम करती हैं। इसीलिए डॉक्टर या चिकित्सक इन दोनों प्रक्रियाओं को साथ-साथ चलाता है। इसी प्रकार मंत्रजप से भी दोहरी प्रतिक्रिया होती है-१. मन के विकार मिटते हैं, २. आन्तरिक क्रोधादि रोगों से लड़ने की प्रतिरोधात्मक शक्ति विकसित होती है। मंत्र जाप से ऊर्जाशक्ति प्रबल हो जाती है, फलतः बाहर के आघात प्रत्याघातों को समभावपूर्वक झेलने और ठेलने की प्रतिरोधात्मक शक्ति बढ़ जाती है। मन पर काम, क्रोध, लोभ तथा राग-द्वेषादि विकारों का प्रभाव प्रायः नहीं होता। मंत्रजाप से इस प्रकार की प्रतिरोधात्मक शक्ति के अभिवर्धन के लिए तथा मन को इस दिशा में अभ्यस्त करने के लिए शास्त्रीय शब्दों में संयम और तप से आत्मा को भावित करने के लिए मंत्रजाप के साथ तदनुरूप भावना या अनुप्रेक्षा का प्रयोग करना चाहिए। ऐसा होने पर वह मंत्रजाप वज्रपंजर या सुदृढ़ कवच हो जाता है, जिससे मंत्र जपसाधक पर बाहर के आघातों का कोई असर नहीं होता और न ही काम-क्रोधादि विकार उसके मन को प्रभावित कर सकते हैं।
जपयोग में शब्दों के अनवरत पुनरावर्तन से लाभ
बार-बार रगड़ से गर्मी अथवा बिजली पैदा होने तथा पानी के बार-बार संघर्षण से बिजली (हाइड्रो इलेक्ट्रिक ) पैदा होने के सिद्धांत से भौतिक विज्ञानवेत्ता भली भांति परिचित हैं। जपयोग में अमुक मंत्र या शब्दों का बार-बार अनवरत उच्चारण एक प्रकार का घर्षण पैदा करता है। जप से गतिशील होने वाली उस घर्षण प्रक्रिया से साधक अन्तर में निहित दिव्य शक्ति संस्थान उत्तेजित और जागृत होते हैं, तथा आन्तरविद्युत् (तेजस शक्ति) अथवा ऊर्जाशक्ति की वृद्धि होती है। श्वास के साथ शरीर के भीतर शब्दों के आवागमन से तथा रक्ताभिसरण से गर्मी उत्पन्न होती है, जो जपकर्ता के सूक्ष्म (तेजस्) शरीर को तेजस्वी, वर्चस्वी एवं ओजस्वी तथा आध्यात्मिक साधना के लिए कार्यक्षम बनाती है। साधक के जीवन की त्रियोग प्रवृत्तियां उसी ऊर्जा (तैजस्) शक्ति के सहारे चलती है।
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