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तल से शिखर तक
अद्भुत लगभग अनिर्वचनीय ही है अविराम यात्रा का आनन्द ।
सभी
रात्रि और दिवस, पृथ्वी और आकाश, ग्रह-नक्षत्र - काल, किसी रहस्यमय अनन्त यात्रा पर हैं।
चलते चलो अकेले राम ! किसने बाँधा है आकाश !
जन्म और मरण के अनादि-अनन्त चक्र को अपने हाथों से घुमाती चली जा रही यह समूची सृष्टि ही मानो एक ऐसी यात्रा पर है जिसका कोई ओर-छोर दिखाई नहीं देता।
न दे दिखाई इस यात्रा का अन्त, किन्तु कभी न कभी आती है। एक स्थिति, जिसका फिर कोई, कभी अन्त नहीं होता।
किन्तु फिर वह स्थिति है।
सिद्ध स्थिति।
अचल और अनन्त ।
आनन्द की बात यही है कि उस परम और चरम सिद्धस्थिति तक पहुँचने से पूर्व का जो काल है वह चिर गतिमान है-उसमें कहीं कोई विराम नहीं है, विराम जड़ता ना देता है।
चैतन्य आत्मा का जड़ता से तो कोई सम्बन्ध ही नहीं । अतः यात्रा है
"रात-दिवस, प्रतिपल, प्रतियाम,
धूप-छाँह में, सुबहो - शाम,
जीवन और मरण से आगेचलते चलो अकेले राम ॥"
नाम में तो कुछ रखा नहीं है। काम ही है जो महत्त्व रखता है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने ऐसे किसी अकेलेराम को नाम दिया - घुमक्कड़ । पूरा एक शास्त्र ही लिख डाला उन्होंने घुमक्कड़ - शास्त्र ।
श्रमण संस्कृति का श्रमण 'घुमक्कड़' है।
इस शब्द को किसी हलके रूप में लेना ठीक नहीं होगा। 'घुमक्कड़' अर्थात् एक ऐसा यात्री, जिसकी यात्रा अविराम है जो कहीं रुकता नहीं। अपनी सम्यकदृष्टि से देखता चलता है-और चलता ही चला जाता है।
इस छोर से उस छोर तक
अनादि से अनन्त तक।
बात को कुछ सरल रूप में कहा जाये
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जैन श्रमण एक ऐसा सम्यक् दृष्टिवान यात्री है जो हिमालय से कन्याकुमारी तक और अटक से कटक तक पैदल ही परिभ्रमण करता है, और अपनी इस यात्रा में वह जन-जन के अन्तर्मानस में धर्म की ज्योति जगाता चलता है।
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यह कितना बड़ा काम है? समूचे मानव-जीवन की सार्थकता निहित है इस पुण्य कर्म में धर्म से विमुख बने हुए व्यक्तियों को श्रमण धर्म का वास्तविक मर्म बताता चलता है।
सरिता कहीं रुकती नहीं । श्रमण भी उसी सरिता की सरस धारा के समान चलता ही रहता है, उसका जीवन सतत् प्रवाहित रहता है।
इसीलिए तो भगवान् महावीर ने कहा है- " विहार चरिया इसिणं पसत्था - अर्थात् श्रमण ऋषियों के लिए बिहार करना प्रशस्त है। जैन श्रमणों के लिए ही नहीं, वैदिक संन्यासियों तथा बौद्ध भिक्षुओं के लिए भी परिभ्रमण करना आवश्यक माना गया है। अवश्य ही जीवन की गतिशीलता के साथ पैरों की गतिशीलता का कोई अदृष्ट सम्बन्ध रहना चाहिए। नीतिकारों ने देशाटन को चातुर्य का कारण माना है" देशाटनं पण्डित मित्रता च।"
उपनिषदकारों ने सूत्र दिया- "चरैवेति-चरैवेति" इस सूत्र के द्वारा केवल भावात्मक गतिशीलता को ही नहीं, अपितु परिभ्रमण को विभिन्न उपलब्धियों का हेतु माना गया है। वृद्धश्रवा इन्द्र ने सत्य ही कहा है" धरती चरतो भग"जो बैठा रहेगा, उसका भाग्य भी बैठा रहेगा, जो चलता चलेगा, उसका भाग्य भी चलता चलेगा, गतिशील रहेगा।
तथागत बुद्ध ने भी अपना मन्तव्य इस प्रकार दिया है - जिस प्रकार गैंडा अकेला वन में निर्भय होकर घूमता है। वैसे भिक्षुओं को निर्भय होकर घूमना चाहिए। एक समय उन्होंने अपने साठ शिष्यों को बुलाकर कहा
चरथ भिक्खवे बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय । चरथ भिक्खवे चारिकां, चरथ भिक्खवे चारिकां ॥
हे भिक्षुओ! बहुत-से लोगों के हित के लिए और अनेक लोगों के सुख के लिए विचरण करो। भिक्षुओ! अपनी जीवन चर्या के लिए सतत् चलते रहो। सतत् भ्रमण करते रहो।
उन भिक्षुओं ने तथागत बुद्ध से पूछा - " भदन्त ! अज्ञात प्रदेश में जाकर हम लोगों को क्या उपदेश दें ?"
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