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________________ BAE .01dated 2500 HAMICWCWCO ME0%al- PA60.033000 । तल से शिखर तक अपने इस ज्ञान का वरदान आपने अपने गुरुभ्राता श्री एडिसन जैसे प्रख्यात शिक्षाविद् का कथन है-“शिक्षा हीरामुनिजी, सुशिष्य देवेन्द्रमुनि, गणेशमुनिजी, जिनेन्द्रमुनिजी, मानव-जीवन के लिए वैसे ही है, जैसे संगमरमर पाषाण के लिए रमेशमुनिजी, राजेन्द्रमुनिजी, प्रवीणमुनिजी, दिनेशमुनिजी, नरेश शिल्पकला।" Poe मुनिजी, सुरेन्द्र मुनि, गीतेश मुनि, शालीभद्र मुनि को आगम साहित्य का अध्ययन करा कर दिया। इसी प्रकार आपश्री भी यही मानते थे कि विश्व में जितनी भी उपलब्धियाँ हैं, उनमें शिक्षा ही सर्वोत्तम है। यह शिक्षा ही है जिससे आपश्री ने महासती शीलकुंवर जी, महासती कुसुमवती जी, जीवन में सदाचार की उपलब्धि होती है, सद्गुणों के सरस सुमन महासती पुष्पवती जी, महासती कौशल्या जी, महासती चन्दनबाला 1 खिलते हैं। अतः 'दीक्षा' के साथ 'शिक्षा' भी आवश्यक है। जी, महासती विमलवती जी, महासती सत्यप्रभाजी, महासती चारित्रप्रभा जी, दिव्यप्रभाजी, दर्शनप्रभाजी, सुदर्शनप्रभाजी, रुचिका । इसी भावना से अनुप्रेरित रहकर आपने अपने शिष्यों तथा जी, हर्षप्रभा जी, किरणप्रभा जी, सुप्रभा जी, रत्नज्योति जी, शिष्याओं को सदैव शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ते रहने के लिए रुचिका जी, राजश्री जी, प्रतिभा जी, गरिमा जी, चन्दनप्रभाजी, प्रोत्साहित किया, प्रेरणा दी। उनकी शिक्षा के लिए समुचित व्यवस्था सुमित्रा जी, नयनज्योति जी, संयमप्रभा जी, निरूपमा जी, अनुपमा की। जिस युग में सन्त-सतीवृन्द परीक्षा देने से कतराता था, उस जी, विचक्षणश्री जी, स्नेहप्रभा जी, सुलक्षणप्रभा जी आदि युग में आपने स्वयं ने उच्च परीक्षाएँ दी और अपने अन्तेवासियों से महासतियों को आगमों की टीकाओं व न्याय आदि का अध्ययन } भी दिलवाईं। कराया। श्रमणी विद्यापीठ, बम्बई में भी आपने कुछ समय तक टीका ग्रन्थों का अध्ययन करवाया। जीवन-विकास की इस आधारभूत नींव को दृढ़ बनाने की आपकी इस शुभ भावना का ही सुफल इस रूप में विकसित हुआ इसके अतिरिक्त भी अनेक सन्तों, न्यायमूर्ति इन्द्रनाथ मोदी, वकील रस्तोगी जी, वकील हगामीलाल जी, वकील आनन्दस्वरूप कि जैन जगत के सुप्रसिद्ध विद्वान्, ज्ञानमहोदधि स्व. पं. जी आदि शताधिक गृहस्थ व्यक्तियों को भी आपने तत्त्वार्थ सूत्र, शोभाचंद्रजी भारिल्ल यह कहा करते थे कि उपाध्याय श्री पुष्कर कर्मग्रन्थ आदि का अध्ययन करवाया। मुनि जी की शिष्य मंडली जितनी सुशिक्षित एवं विद्वान है, उतनी अन्य किसी की नहीं। पंडित शोभाचन्द्र जी भारिल्ल जैसे महापंडित विशेषता यह थी कि आपकी विद्वत्ता गहन थी, प्रतिभा सूक्ष्म का यह कथन कितना मूल्यवान है यह तो कहने की आवश्यकता थी और इनमें मधुर संगम हो गया था तर्कपटुता एवं वाक्चातुर्य ही नहीं। वे कभी एक शब्द भी अयथार्थ, अनावश्यक अथवा का। इन विशेषताओं के दृढ़ आधार पर जब आप किसी भी विषय का निरूपण करते थे तो ऐसा प्रतीत होता था मानो किसी पुष्प की अतिरंजनायुक्त नहीं बोलते थे। जो कुछ भी कहते थे वह यथार्थ ही एक-एक पंखुड़ी खुलती चली जा रही है। इस प्रकार गंभीर से होता था, सत्य ही होता था। गंभीर विषय भी सहज ही हृदयंगम कर लिया जाता था। । शिक्षा, सेवा, साधना के ज्योतिस्तम्भ ) आपश्री की यह मान्यता थी कि जीवन में शिक्षा का वही मतलब है जो शरीर में प्राण का है। अशिक्षित व्यक्ति का जीवन अधूरा, नीरस और निरर्थक-सा ही रहता है। क्योंकि शिक्षा के शिक्षा के प्रति आपश्री के इतने लगाव का ही फल था कि अभाव में जीवन में गति नहीं आ सकती, प्रगति नहीं हो सकती। आपश्री की प्रबल प्रेरणा से भँवाल चातुर्मास में वीर लोकाशाह जैन विद्यालय की स्थापना हुई। अनेक स्थानों पर धार्मिक पाठशालाएँ शिक्षा के स्वरूप तथा उद्देश्य पर अपने विचार प्रगट करते हुए खुलीं। श्रमणी विद्यापीठ घाटकोपर (बम्बई) के निर्माण में भी यूनान के प्रसिद्ध दार्शनिक प्लेटो ने कहा था-"शरीर और आत्मा में अधिक से अधिक जितने सौंदर्य और जितनी सम्पूर्णता का उपाध्याय श्री का प्रबल पुरुषार्थ ही कारणभूत रहा था। विकास हो सकता है, उसे सम्पन्न करना ही शिक्षा का उद्देश्य है।" सन् १९७५ में आपश्री का वर्षावास पूना में था। उस अवधि कहते हैं, एक कहावत है-गुरु गुड़ ही रह गए, चेला शक्कर | में विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग के अध्यक्ष डॉ. ऐस. बारलिंगेजी हो गए-कुछ ऐसी ही बात हुई थी प्लेटो और अरस्तू के विषय में। से आपका परिचय हुआ। इस परिचय का अच्छा परिणाम यह हुआ अरस्तू प्लेटो का शिष्य था। किन्तु इन दोनों महान् दार्शनिकों में से कि विश्वविद्यालय में जैन धर्म और दर्शन सम्बन्धी अध्ययन व कौन किससे बढ़कर था, घटकर था, यह निर्णय आज तक नहीं हो । अध्यापन के लिए एक जैन चेयर की संस्थापना करने की योजना सका है। बनी। इसमें सेठ लालचन्द जी हीराचन्दजी दोशी ने ढाई लाख रुपये, ऐसे ही महान् दार्शनिक और विद्वान अरस्तू ने कहा है श्री रतिभाई नाणावटी ने एक लाख रुपये, श्री नवलभाई फिरोदिया "जिन्होंने मानव-शरीर पर शासन करने की कला का अध्ययन ने एक लाख पच्चीस हजार रुपये और अन्य जैन बंधुओं की ओर किया है, उन्हें यह विश्वास हो गया है कि युवकों की शिक्षा पर ही । से सवा दो लाख रुपये, इस प्रकार कुल सात लाख रुपये एकत्र राज्य का भाग्य आधारित है।" किये गए। । EDOAVO यसयताकतात . For hvale & Personal use only SE0.0000.00 SAMMEducation internatiogabapa'.00656690 10200505 2006.30003081600 Oowsanentagore
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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