________________
F
1 ४६८
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । धनतेरस-धन्यतेरस हो गयी
प्रचण्ड और असाध्य हो गया था। उन्हें अपना अन्तिम समय निकट इसके पश्चात् ही उन मांगलिक परिस्थितियों का सूत्रपात हुआ
प्रतीत होने लगा। स्वप्न में उन्हें संथारा लेकर आत्मकल्याण की जिन्होंने न केवल इस बरडिया दम्पति को अनुपम गौरव प्रदान
प्रेरणा प्राप्त हुई। उन्होंने अपने पिताश्री से अपनी यह अभिलाषा किया, अपितु इसके माध्यम से उदयपुर नगरी धन्य हो उठी;
| व्यक्त करते हुए महासती सोहन कुँवरजी म. के दर्शनों की कामना राजस्थान ही नहीं, समग्र भारत देश को कीर्तिलाभ हुआ और
भी प्रकट की। महासती जी के सम्मुख श्री जीवनसिंह जी ने अपने श्रमण संघ को कुशल संरक्षण प्राप्त हुआ। एक मध्यरात्रि के
पापों की आलोचना करते हुए संथारा करवा देने का अनुरोध अनन्तर मातुश्री श्रीमती तीजकुमारी जी को मांगलिक स्वप्न में एक
किया। विवेक पूर्वक महासती जी ने परिजनों की सहमति से दिव्य विमान दृष्टिगत हुआ। प्रफुल्ल-मना श्रीमती तीजकुमारी जी को
सागारी संथारा तत्काल ही करा दिया। श्री जीवनसिंह जी ने अपने
अभिभावकों से क्षमा याचना की और तत्काल ही उनकी जीवन अद्भुत मानसिक शान्ति और सुख का अनुभव हुआ। अति उत्साह में उन्होंने पतिदेव को जगा कर अपने स्वप्न से अवगत कराया तब
लीला का पटाक्षेप हो गया। उन्होंने गद्गद कण्ठ से आन्तरिक हर्षद भावों को व्यक्त करते हुए मृत्यु-पूर्व उसी दिन का प्रसंग है। श्रीमती तीजकुमारी जी ने कहा कि तुम अत्यन्त भाग्यशालिनी हो। हमें महान् पुण्यपूत पुत्र की । अपने नवजात शिशु को पतिदेव की गोद में रख दिया था। प्राप्ति होने वाली है। स्वप्नफलवेत्ताओं ने भी पुष्टि की कि ऐसी भावविभोर होकर उन्होंने अपनी धर्मपत्नी से कहा था-"तुम चिन्ता स्वप्नद्रष्टा नारी के लिए महान् भाग्यशाली वत्स की जननी होने के नहीं करना। मेरा बेटा कभी भी दुःखी नहीं होगा। यह बड़ा ही गौरव का योग बनता है। सारे परिवार में इस सुखद भविष्य की भाग्यशाली रहेगा और मलमल के कपड़े पहनेगा।" पिताश्री का यह कल्पना से अमित आनन्द व्याप्त हो गया। मातुश्री दानशीलता की कथन आज हम सबके लिए मननीय हो उठा है। प्रवृत्ति की ओर उन्मुख हुई। उनका मानस इन शुभभावों से पूरित बरडिया-परिवार के लिए महान् शोक और संताप का काला हो उठा कि दीन-हीनों की सेवा सहायता की जाय, चतुर्विध धर्म दिवस २८ नवम्बर सन १९३१ को आया। इसी माह की ८ तारीख संघ को आहार अर्पित किया जाय, जीवों को अभय प्राप्त हो और को बालक श्री धन्नालाल का जन्म हुआ था। स्पष्ट है कि इस समय जन-जन में धर्माचार सुदृढ़ हो। पतिदेव श्री जीवनसिंह जी ने भी बालक की आयु मात्र इक्कीस दिन की ही थी और इनकी अग्रजा प्रसन्न चित्तता के साथ इन शुभ मनोकामनाओं की पूर्ति में योगदान सुन्दरी इस समय सात वर्ष की थी। मात्र २७ वर्ष की अल्पायु के किया। मातुश्री को शुद्ध फलाहार करने का दोहद भी उत्पन्न हुआ। ही अपने ज्येष्ठ पुत्र को खोकर पिता श्री कन्हैयालालजी तो जैसे पावन आचार-विचार, शुभभावनाओं और धर्मसाधनाओं के साथ टूट ही चुके थे। श्रीमती तीजकुमारी जी पर विपत्तियों का पहाड़ ही गर्भकाल व्यतीत होता रहा और अन्ततः यथासमय वह शुभ घड़ी टूट पड़ा था, किन्तु वे प्रबुद्ध और विवेकशील थीं। वेदना की इन आयी जब विक्रम संवत् १९८८ की कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी (धन घड़ियों में भी उनका चिन्तन अपनी भावी भूमिका निर्धारित करने तेरस) तदनुसार ८ नवम्बर सन् १९३१ ई. को बरडिया दम्पति को
में लगा रहा। लौकिक आश्रय छूट जाने पर उन्होंने धर्म का आश्रय दिव्य पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। दीपावली पूर्व धन तेरस का यह पर्व ग्रहण कर लेने का निश्चय किया। संयोग ही था कि गृहस्वामी श्री जैन जगत को महान् विभूति प्रदान कर स्वतः ही 'धन्यतेरस' हो । कन्हैया लाल जी का चिन्तन भी इसी दिशा में सक्रिय था। उदयपुर उठा। लोकमान्यता है कि “अण-पूछा मुहूर्त भला धन तेरस के में स्थिरवास विराजिता साध्वीरत्न महासती श्री मदन कँवर जी एवं तीज” का मुहूर्त अत्यन्त शुभ होता है। हमारे चरितनायक (पूज्य महाश्रमणी सोहन कँवर जी का आश्रय पाकर श्रीमती तीजकुमारी आचार्य सम्राट) को तो तेरस और तीज दोनों का मांगलिक सुयोग्य जी आश्वस्त हुईं। यहीं से माता, पुत्री और पुत्र के जीवन में वह सहज ही सुलभ हो गया था। क्योंकि तेरस को जन्म लिया और } नया मोड़ आया जिसने इन्हें अध्यात्म मार्ग पर गतिशील कर दिया। तीज को दीक्षा ग्रहण की। यह आपश्री के भावी आध्यामित्क उत्कर्ष । इसी गति-प्रगति की सतत् निरन्तरता ने इन्हें महान् आध्यात्मिक का एक सशक्त पूर्व-संकेत ही था। प्रासंगिक रूप में नवजात शिशु उपलब्धियों से विभूषित भी किया है। का नाम धन्नालाल ही रखा गया। मोती जिस सीपी में उत्पन्न होता है ।
महासती श्री पुष्पवती जी वह भी आन्तरिक रूप से दीप्तिपूर्ण होती है। आपश्री के अभिभावक भी धार्मिक मनस्कला से कान्तिमान थे।
सद्गुरुणी जी द्वय की आध्यात्मिक शिक्षाओं और धर्मोपदेशों
का बालिका सुन्दरी जी पर अतिशय और गहन प्रभाव हुआ। वे पितृ-वियोग
अपनी मातुश्री जी के साथ-साथ स्वाध्याय में तल्लीन रहने लगीं। पिताश्री जीवनसिंह जी होनहार पुत्र की प्राप्ति पर अत्यन्त । इसी क्रम में उनके बाल-मन में ही वैराग्य-भावना अंकुरित हो गयी उल्लासित थे। सर्वत्र हर्षातिरेक था किन्तु यह चिरकालिक नहीं रहा। और अनुकूल परिवेश पाकर वह तीव्रगति से पल्लवित होने लगी। बरडिया परिवार पर वज्रपात जैसा हो गया। श्री जीवनसिंह जी महासती जी ने संयम मार्ग की दुष्करताओं से भी इन्हें परिचित संग्रहणी रोग से ग्रस्त थे और इस समय तक यह रोग अत्यन्त कराया, किन्तु इससे ये विचलित नहीं हुई, वरन् उनका संयम
Jain Education International
SOC03030- privategpursonal use only.00HCO90-00
20.9Poww.jainelibrary.com 100000000000000000000000