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श्रद्धा का लहराता समन्दर
सादड़ी सम्मेलन के बाद हम पुनः मेवाड़ आ गये और उपाध्याय श्री अपने गुरु श्री ताराचन्द्र जी म. के साथ दूरवर्ती क्षेत्रों प्रवासरत रहे।
एक लम्बे अन्तराल के बाद हम फिर देलवाड़ा मिले, जहाँ स्व. निवाड़भूषण पूज्य मोतीलाल जी म. सा. स्थानापन्न थे।
पूज्य उपाध्याय श्री ने यहाँ भी मेरे अध्ययन की पूर्ण जानकारी नी। इसके बाद तो अनेक बार उपाध्याय श्री से मिलन होता रहा।
मैंने जब-जब भी उनको देखा वे प्रसन्नवदन थे। प्रफुल्लित, आनन्दपूर्ण बने रहना उनका स्वभाव-सा बन गया था। उदासीनता ख दैन्य उनके वातायन में भी कहीं प्रविष्ट नहीं हो सकते थे, यहाँ तक कि यदि कोई कुछ उदासी ओढ़े उन्हें दिखा भी गया तो थे चन्द शब्दों से ही उसे गुदगुदा देते थे।
"यथाकृति तथा गुणाः " यह उक्ति उनमें शत-प्रतिशत चरितार्थ श्री जैसी उनकी कद-काठी, डील-डील भव्य था, उनकी अनुभूति, अभिव्यक्ति तथा प्रवृत्ति सभी उतने ही भव्य और उदात्त थे।
मधुर और मनोरंजक स्वभाव होने से हमें उनसे बात करने में कभी संकोच नहीं हुआ। यही नहीं, हम कभी-कभी उनसे कुछ कौतूहल भी कर बैठते तो उपाध्याय श्री स्वयं ही खिलखिला कर हँस पड़ते और उस कौतूहल को आनन्दपूर्ण वातावरण प्रदान कर देते।
यह उनकी कृपा ही थी कि भ्रमणसंघ और सामाजिक प्रश्नों पर वे हमारे जैसे छोटे मुनियों से भी विचार चर्चा कर लिया करते थे।
संवत्सरी विषय विषयक हमारी और उपाध्यायश्री की पूर्व नरम्परा में पर्याप्त भेद रहा।
श्रमणसंघ में भी संवत्सरी का प्रश्न चर्चित होता रहा।
जब कभी सेवा में बैठने का अवसर मिलता उपाध्यायश्री अवश्य फरमाते-अरे कुमुद, यह संवत्सरी का विवाद तो श्रमण संघ से समाप्त करो।
मैं कहता- उपाध्यायश्री आप मिटाओगे तो यह विवाद मिट ही जायेगा।
अन्ततः पूना सम्मेलन में वह विवाद भ्रमणसंघ में सदा के लिए समाप्त हो गया। उस दिन जब मैं सभा समाप्ति पर उपाध्यायश्री से मिला तो उनके हर्ष का पारावार न था ।
उन्होंने फरमाया- बस ! आज बहुत अच्छा हुआ। जो विवाद श्रमणसंघ में काँटे की तरह चुभ रहा था, निकल गया।
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संघ ऐक्य की कितनी गहरी शुभेच्छा भरी हुई है उपाध्यायश्री के मन में।
उपाध्यायश्री हर्ष-विभोर होकर बोले जा रहे थे, मैं उनके -आनन्दोल्लसित मानस की हर्षोर्मियों को पढ़ रहा था। मैंने सोचा
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उपाध्यायश्री ने कहा- पूरे जैन समाज की संवत्सरी भी एक दिन निश्चित हो जाये तो कितना आनन्द रहे ?
मैंने कहा- महाराजश्री आपकी भावना यह लाखों अनुयायियों की भावना है, यह कभी न कभी अवश्य सफल होगी।
पूज्य उपाध्यायश्री की अपनी एक अनूठी वक्तृत्व कला थी। गेयात्मक पदों का पुनःपुनः उच्चारण करते हुए अपने विषय को रसपूर्ण और सर्वग्राही बना देने में वे परम निपुण थे। गम्भीर से गम्भीर विषय को भी लोक ग्राह्य बनाकर प्रस्तुत कर देते थे। कभी-कभी तो मैंने देखा कि उपाध्यायजी न्यायशास्त्र के रूक्ष और गम्भीर विषय पर ही विवेचना करने लगते, हम समझते कि अभी जनता में उकताहट आ जायेगी। ऐसे रूक्ष और गम्भीर विषय को यहाँ कौन समझने वाला है किन्तु उपाध्याय जी छोटे-छोटे दृष्टान्त और लोकोक्तियों को प्रस्तुत कर उस विषय में ऐसी सरलता भर देते कि श्रोता न केवल उस विषय तथा रूप को समझ लेता अपितु वह आनन्द से भी परिपूर्ण हो जाता। हम सोचते यह कला उपाध्यायजी में ही है।
वे जन्मना ब्राह्मण थे। श्रमण वाङ्मय का अध्ययन तो उन्होंने किया ही, वैदिक शास्त्रों का अध्ययन भी उनका बढ़ा-चढ़ा था। उनके वार्तालाप और प्रवचन में श्रमण-ब्राह्मण संस्कृति के तत्त्वों का विलक्षण समन्वय रहता था। इससे न केवल उस विषय की रोचकता बढ़ जाती अपितु दोनों संस्कृति के ज्ञान रस का अद्भुत समन्वित आनन्द उपलब्ध होता था।
उपाध्यायश्री की बहुश्रुतता अतिविख्यात भले ही न हो किन्तु गहन और विस्तृत अवश्य थी। बहुश्रुत कहलाने वाले सन्तों के द्वारा दिये गये समाधान भी जब उपाध्यायश्री की तर्क कसौटी पर चढ़ते तो उन्हें असफल और निष्तेज होते देखा गया।
स्वाध्याय उनके जीवन की अनिवार्य प्रवृत्ति थी। वे अध्ययन और अध्यापन के प्रति बहुत ही जागरूक थे। यही कारण है कि आचार्य श्री देवेन्द्रमुनि जी, श्री गणेश मुनिजी, डॉ. राजेन्द्र मुनिजी, रमेश मुनिजी और अनेक विदुषी साध्वीजी को महाराज श्री तैयार कर सके। सचमुच वे जीवन-शिल्पी थे। उनकी ज्ञान गरिमापूर्ण प्रतिभाशाली रचनाओं से जिनशासन और श्रमणसंघ शोभान्वित हो रहा है।
आचार्य चहुर महोत्सव के अवसर पर जब हम दिनांक १८ मार्च को उदयपुर पहुँचे तब उपाध्यायश्री स्वस्थ और प्रसन्न थे। उन्हें देखकर एक क्षण के लिए भी हम यह नहीं सोच पाये कि यह विभूति अब अपनी आयु के अन्तिम क्षणों में प्रवर्तमान है।
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