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________________ १६ बहुत सामान्य अस्वस्थता उभरी और बढ़ती गई, फिर भी दिनांक २८ मार्च (चहर महोत्सव) तक अस्वस्थता इतनी गम्भीर नहीं थी, कि जो घटित हुआ उसकी कल्पना कर सकें। उपाचार्य श्री चद्दर उत्सव के लिए आशीर्वादार्थ सेवा में पहुँचे तो मैं साथ था। प्रसन्नतापूर्वक आशीर्वाद देते हुए विदा किया और पुनः हम लौटकर आये तो मैंने पूछा- उपाध्यायश्री कौन आये हैं? उपाध्यायश्री ने गम्भीर वाणी में कहा "आचार्यश्री" और बड़े भाव-विभोर हो आशीर्वाद दिया। उसी रात्रि उपाध्याय श्री गम्भीर स्थिति में चले गये, उसके बाद वे उस रोगान्तक से उभर नहीं पाये और हमारे देखते-देखते प्रयाण कर गये। जिस गरिमा से वे जिए, उसी गरिमा के साथ चल पड़े। सैकड़ों साधु-साध्वी जी और हजारों श्रावक-श्राविकाओं की उपस्थिति उनके स्वर्गवास क्षणों की अन्यतम विशेषता है जिसका अन्यत्र उदाहरण मिल पाना कठिन है। उपाध्यायश्री नहीं रहे, एक युग खंडित हो गया, एक पीढ़ी चुक गई। आचार्यसम्राट् आनन्द ऋषि जी म. पूज्य गुरुदेवश्री भारमल जी म., प्रवर्त्तक श्री पन्नालाल जी म., पूज्य मरुधरकेशरी म., पूज्य कस्तूर चन्द जी म. पूज्य छोगालाल जी म. आदि महान् सन्तों की एक पीढ़ी थी । उपाध्याय जी उसी पीढ़ी के संत थे, आज वह पीढ़ी समाप्तप्रायः है। उस पीढ़ी के अभी दो-तीन महान् संत शेष बचे हैं, अन्यथा अधिकांश आज अनुपलब्ध हैं, समाज में एक ऐसी रिक्तता खड़ी हुई है, जिसे भर पाना कठिन लग रहा है। पूज्य उपाध्यायश्री के स्वर्गस्थ होते ही मैं नीचे आया और गुरुदेवश्री (पूज्य प्र. श्री अम्बालाल जी म. सा.) को कहा कि उपाध्यायश्री नहीं रहे गुरुदेव में कहा "मेरे सभी साथी छोड़कर चले गये।" गुरुदेवश्री के ये वचन इतने आर्द्र थे कि मेरा हृदय हिल गया। मैंने देखा - गुरुदेवश्री की आँखों के पास की झुरियाँ अश्रु कणों से भीगी थीं। मैं भी मन-नयन से आर्द्र हो उठा। हम जानते हैं कि उपाध्यायश्री के अभाव की पूर्ति अब संभव नहीं है, किन्तु उनकी कमी समाज को लम्बे समय तक अखरेगी। वे बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे, उनकी स्मृति ही युगों-युगों तक हमें सम्प्रेरणाएँ प्रदान करती रहेगी। श्रद्धा-सुमन -ध्यानयोगी पं. श्री हेमचन्द्र जी म. परम पावन, उपाध्यायप्रवर स्वनाम धन्य श्री पुष्कर मुनि जी म. की पुण्य स्मृति में एक स्मृति ग्रन्थ के प्रकाशन का आयोजन किया जा रहा है, यह अत्यन्त प्रसन्नता एवं गौरव का विषय है। Jain Education International उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ ऐसे सर्वोत्कृष्ट महापुरुषों के कृत उपकार से उऋण होने के लिए ऐसे सात्विक आयोजनों का होते रहना, समाज के लिए आवश्यक ही नहीं अपितु अनिवार्य होता है। इसी संदर्भ में मेरे मन में भावना जागृत हुई कि उस सर्वोत्कृष्ट महापुरुष के चरणों में मैं भी कुछ श्रद्धा के सुमन समर्पित करूँ। उस अध्यात्मयोगी महाश्रमण के पावन श्रीचरणों में बैठने और मुक्त हृदय से वार्तालाप करने का सौभाग्य मुझे कई बार संप्राप्त हुआ था। इसलिए उन परम पावन क्षणों को मैं अपने जीवन पर्यन्त भुला नहीं सकता। वे जादू भरे क्षण तो आजीवन मेरे मानस पटल पर अमिट रूपेण उटटकित रहेंगे। एक बार श्रद्धेय उपाध्यायश्री जी का वर्षावास वीर नगर, जैन कॉलोनी, दिल्ली में था और हमारा चातुर्मास उनके अत्यन्त सन्निकट ही शक्तिनगर, दिल्ली में था। एक दिन मेरे मन में आया कि वीरनगर जाकर उस परम पावन पुरुष के दर्शन किए जायें और उनका मंगलमय आशीर्वाद लिया जाये। लेकिन मन थोड़े असमंजस एवं थोड़े संकोच में भी था कि पता नहीं, श्रद्धेय महाराजश्री जी का मेरे साथ क्या कुछ और कैसा व्यवहार होगा ? फिर भी हिम्मत करके मैं उनके पावन चरणों में पहुँच ही गया। मुझे अपने सन्मुख देखते ही वे महापुरुष हर्ष से गद्गद् होकर कमल के समान खिल उठे। आओ ! मुनि जी आओ! पधारो ! बड़े दर्शन दिए, ऐसा कहते हुए वे अपने पट्टे से उठे और आगे बढ़कर मेरा हाथ पकड़ते हुए अत्यन्त प्रेमपूर्वक अपने आसन तक ले गये। फिर उन्होंने बलात् मुझे अपने पट्टे पर अपने बराबर ही बैठा लिया। तदनन्तर कुशल मंगल पूछते हुए अत्यन्त प्रेमपूर्वक निस्संकोच वार्तालाप करने लगे। उनके इस अपनत्व एवं प्यार भरे मधुर व्यवहार को देखकर मेरा समस्त असमंजस और सारा का सारा संकोच छू-मन्तर हो गया। उस समय तो मुझे ऐसा अनुभव होने लगा मानो हम दोनों तो जन्म-जन्म से चिर-परिचित एवं संगी साथी हो उस समय उनके चरणों में बैठकर मुझे जो प्यार मिला, वह अनुपम था। उस समय उनसे जो आत्मीयता मिली, वह सचमुच में बेजोड़ थी। इस प्रकार उनका अकृत्रिम स्नेह एवं मधुर व्यवहार प्राप्त करके मैं तो निहाल हो गया, कृत-कृत्य ही हो गया। वास्तव में उनकी जैसी महिमा एवं गुण गरिमा सुनी थी, प्रत्यक्ष में उससे भी अधिक दृष्टिगोचर हुई। तभी से मेरे मन में उनके प्रति गहन आस्था और अगाध श्रद्धा है। इसी से मैं डंके की चोट कह सकता हूँ कि श्रद्धेय उपाध्यायश्री जी का जीवन समता और स्नेह से परिपूर्ण था। वे जैसे बाहर में थे, वैसे ही अन्तर में थे। उनका हृदय निष्कपट था उनमें किसी भी प्रकार की कोई बनावट नहीं थी। वे श्रमणसंघ के प्राण थे। वे साधु समाज के स्थायी स्तम्भ थे। वे निरन्तर ज्ञान-साधना में लीन रहते For Private & Personal Use Only She 2:0 www.jainelibrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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