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श्रद्धा का लहराता समन्दर
थे। वे संयम साधना के सजग प्रहरी थे। वे संयम साधना में सतत जागृत रहते थे। वे जैन गगन मण्डल के एक ज्योतिर्मान नक्षत्र थे। वे संगठन एवं संघ एकता के प्रबल पक्षधर थे। वे श्रमणों में श्रेष्ठ श्रमण थे। ये योगियों में श्रेष्ठ योगी थे ये ज्ञानियों में उत्तम ज्ञानी थे। वे सत्य-अहिंसा की साक्षात् मूर्ति थे। श्रमण संस्कृति के उन्नायकों में उनका विशिष्ट और श्रेष्ठ स्थान रहा है। उन्होंने साहित्य एवं प्रवचनों के द्वारा समाज का अत्यधिक उपकार किया है, जिससे जैन समाज उनका चिर ऋणी रहेगा। वे धीर थे, गम्भीर थे, सरल थे और समताधारी थे। वे सच्चे क्षमाश्रमण थे। महावीर की अहिंसा, राम की मर्यादा और बुद्ध की करुणा से उनका जीवन ओत-प्रोत था। इन गुणों से वे महावीर थे, राम थे एवं बुद्ध भी थे।
वे स्वयं तो गहन विद्वान थे ही, उनके शिष्यरत्न भी परम विद्वान हैं जिनमें श्री देवेन्द्रमुनि जी म. वर्तमान में स्थानकवासी समाज के एक मूर्धन्य संत हैं जो श्रमणसंघ के आचार्य जैसे सर्वोच्च पद पर आसीन हैं। मुझे अटल विश्वास है कि इनके शासन में श्रमणसंघ की दिनों-दिन उन्नति होगी। स्थानकवासी जैन समाज का गौरव बढ़ेगा। बस इन्हीं शब्दों के साथ उन परम पावन, उपाध्यायप्रवर, स्वनामधन्य श्री पुष्कर मुनिजी म. को मैं अपने श्रद्धा सुमन समर्पित करता हूँ ।
कल्पवृक्ष मुनिराज थे
-श्रमणसंघीय सलाहकार श्री ज्ञानमुनि जी म.
उपाध्याय पद की गरिमा
पंच परमेष्ठी में आचार्य पद का तीसरा और उपाध्याय पद का चौथा स्थान है। आचार्य पद आध्यात्मिक आचरण के महास्तोत्र का अभिव्यंजक होता है और उपाध्याय अध्यात्म विद्या का चमचमाता दिव्य दिवाकर माना जाता है। यह सत्य है कि प्रशासन की दृष्टि से आचार्य का स्थान ऊँचा है, उपाध्याय से महान् होता है, परन्तु एक अपेक्षा से उपाध्याय का पद आचार्य पद से भी अधिक महत्वपूर्ण रहता है क्योंकि आचार्य केवल साधु-साध्वी के आचार को शुद्ध बनाने में जागरूक रहते हैं, उनके आचरण में जान डालते हैं। कौन नहीं जानता कि आचरण तभी तेजस्वी हो पाता है, जब उसके साथ ज्ञान का संगम कायम रहे। ज्ञान से ही आचरण में तेजस्विता आती है। जैनागम भी आचरण से पहले ज्ञान हो महत्व देते हैं। श्री दशवैकालिक सूत्र इस सत्य का पूर्णतया सम्पोषण कर रहा है
"पढमं नाणं तओ दया।"
भाव स्पष्ट है, पहले ज्ञान और उसके अनन्तर दया (आचरण) होती है।
ज्ञान के प्रदाता महापुरुष उपाध्याय ही होते हैं। अतः श्रमण संघ का प्रथम शिक्षक उपाध्याय ही माना जाता है। विधान कहता है
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कि साधु १२ वर्ष तक उपाध्यायश्री के चरणों में बैठकर श्रद्धा-भक्ति और विनयपूर्वक आगमों के मूलपाठ का अध्ययन करे, उसके बाद १२ वर्ष तक उन्हीं आगमों का अर्थ रूप से आचार्यश्री से अध्ययन करे। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उपाध्याय सूत्रशिक्षक है और आचार्य भाष्यशिक्षक। परन्तु भाष्य सदा मूल के आधार पर ही चलता है, फलतः उपाध्याय श्रमणसंघ की पहली शक्ति है, पहला शिक्षक है और आचार एवं विचार को नया मोड़ देने वाली महाज्योति है।
वंदनीय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म.
हमारे परमाराध्य पूज्यपाद उपाध्यायश्री पुष्करमुनि जी म. अखिल भारतवर्षीय श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमणसंघ के मनोनीत ख्यातिप्राप्त एवं लोकप्रिय महासंत रहे हैं। ये महापुरुष योगी, ध्यानी, लेखक, व्याख्याता, चिन्तक, विचारक, अनुभवी एवं एक चमत्कारी सिद्ध पुरुष थे। इनके व्यक्तित्व- सिन्धु में गुण सम्पदा के अछूट खजाने भरे पड़े थे। इनके लिखे साहित्य का जब हम परिशीलन करते हैं तो ऐसा लगता है कि इनकी लेखनी पर भगवती सरस्वती का वास था, इनकी प्रत्येक रचना में जीवन के सिद्धान्त मुखरित होते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। इनके मुख से निकली प्रत्येक पंक्ति, प्रत्येक पंक्ति का प्रत्येक अक्षर जादूगर की भाँति अपना अपूर्व प्रभाव लिए हुए था।
जैनधर्म दिवाकर वन्दनीय आचार्य सम्राट पूज्य श्री आत्माराम जी म. के शास्त्रीय ज्ञान के चमत्कार इन नयनों ने स्वयं निहारे हैं, परन्तु श्रद्धा के केन्द्र महामहिम उपाध्याय पूज्य श्री पुष्कर मुनि म. का आगम ज्ञान भी बड़ा विलक्षण और अद्वितीय सुनता हूँ, इनकी साहित्य सेवाएँ जब सन्मुख आती हैं तो इनके ज्ञान शरीर की सुषमा को देखकर आनंद-विभोर हो उठता हूँ। परन्तु क्या किया जाए, मेरा यह दुर्भाग्य ही रहा कि मैं चलते-फिरते इस अनमोल ज्ञान निधि के दर्शन नहीं कर सका। यह सत्य है कि भीनासर सम्मेलन में आचार्य सम्राट् गुरुदेव पूज्यश्री आत्माराम जी म. के आदेश से मेरा भी भीनासर जाना हुआ था, सैकड़ों की संख्या में वहाँ पर साधु-साध्वियाँ विराजमान थीं, स्मृति साथ नहीं दे रही कि उस महासम्मेलन में साधना के अमरदूत, अहिंसा, सत्य और तप की पावनत्रिवेणी उपाध्यायप्रवर पूज्य श्री पुष्करमुनि जी म. के मंगलमय दर्शन करने का पावन अवसर प्राप्त हुआ था या नहीं, पर जिस किसी ने इनकी यशोगरिमा के दर्शन किए हैं वह आज भी इनकी गुणगाथाएँ कहता हुआ थकता नहीं है।
सुनता हूँ देहली चांदनी चौक में जब आपश्री विराजमान थे तो उस समय दोपहर के १२.०० बजे भी श्रद्धा के सरोवर में डुबकियाँ लगाने वाले भक्तजन हजारों की संख्या में आपके पावन मुख से मंगलपाठ सुनने के लिए खड़े रहते थे, श्रद्धालु जनता का करबद्ध तथा पंक्तिबद्ध होकर खड़े रहना कितना प्यारा, मनोहारी, आकर्षक, श्रद्धा एवं निष्ठा की वर्षा करता हुआ दिखाई देता था, कुछ कहते नहीं बनता ।
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