________________
वाग देवता का दिव्य रूप
गुरुदेव श्री की साहित्य-स्रोतस्विनी (विहंगम दृष्टि )
साहित्य और कला मानव-जीवन के लिए वरदान है। साहित्य एवं कला का परस्पर सम्बन्ध आज से नहीं, अनादि काल से रहा है। एक साहित्यकार अवश्य ही कलाकार भी होगा। इनका अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। भारत के महान् कवि एवं साधक भर्तृहरि ने साहित्य-संगीत-कला से विहीन मानव को साक्षात् पशुवत् ही कहा है।
काव्य से प्राप्त होने वाले आनन्द का वर्णन करना प्रायः असंभव ही है। इसका तो अनुभव ही किया जा सकता है। इसीलिए गीर्वाण-गिरा के यशस्वी कवियों ने काव्य से प्राप्त होने वाले रस या आनन्द को "ब्रह्मानन्द सहोदर" की संज्ञा दी है। 'ब्रह्मानन्द' की अभिव्यक्ति कहाँ तक सम्भव है ? वह तो अनुभूति का ही विषय है।
आचार्य मम्मट ने काव्य प्रयोजनों पर चिन्तन करते हुए उससे प्राप्त होने वाले यश, कीर्ति, व्यावहारिक ज्ञान अमंगल का विनाश, आनन्द तथा उपदेश पर विस्तार से प्रकाश डाला है। यदि हम काव्य की श्रेष्ठता तथा ज्येष्ठता का प्रतिमान इन्हीं तत्त्वों को मान लें तो हम पाते हैं कि गुरुदेवश्री की अनगिन काव्य रचनाओं में इन तत्त्वों की सहज संस्थिति है।
गुरुदेवश्री की कविताओं का लक्ष्य किसी अमूर्त सौंदर्य लोक की कल्पना अथवा संस्थापना करना नहीं है। न ही उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा जैसे अलंकारों से कविता कामिनी को सजाना ही है। अपितु उनका लक्ष्य तो जन-जन के मानस में त्याग और वैराग्य की मंगलमय भावना उत्पन्न करना ही है। सत्काव्य की यही विशेषता रही है। वह मानव को शब्दों के जाल में उलझाता नहीं, वरन् सीधे हृदय को प्रभावित करता है। उसमें लोकमंगल के विधायक तत्त्व होते हैं। छद्म आधुनिकता का कृत्रिम प्रयास नहीं, अपितु शाश्वत सत्यों का आख्यान और मानवीय संवेदना की गहरी पहचान होती है।
ठीक ही कहा जाता है-कवि बनते नहीं, जन्मते हैं। इसी कारण आपश्री के काव्य में सहजता, मार्मिकता, हृदय की गहराई और भायों की श्रेष्ठता मिलती है। साथ ही निश्छल, मंगलकारी उपदेश प्रवणता के दर्शन भी यत्र-तत्र होते हैं।
सद्गुरुदेवश्री की सुधावर्षिणी साहित्य-स्रोतस्विनी शतथा होकर सहज रूप से, अविराम गति से प्रवाहित होती रही। उसमें क्या नहीं है ? काव्य की गंगा, कथा की यमुना और निबन्ध की सरस्वती का सुन्दर संगम हुआ है।
जो भी पाठक थोड़े से भी सुचित्त से आपक्षी के साहित्य का पारायण करेंगे उन्हें उसमें वाल्मीकि का सौंदर्य एवं विराटता,
Jain Education Inter
२७९
-आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि कालिदास की प्रेषणीयता, भवभूति की करुणा, तुलसीदास का प्रवाह, सूरदास का माधुर्य, दिनकर का शौर्य तथा गुप्तजी की सरलता एवं सुबोधता के दर्शन एक साथ होंगे। चमत्कार मूर्त दृष्टिगोचर होगा।
काव्य एवं गीति साहित्य
यह कहने की तो कोई आवश्यकता ही नहीं रहती कि गुरुदेव एक मनस्वी एवं यशस्वी साहित्यकार थे लिखना पढ़ना, कविताएँ करना, प्रवचन करना, धर्म एवं संस्कृति पर चर्चाएँ करनाकालयापन के ये ही श्रेष्ठ प्रकार आपश्री को प्रिय थे। प्रारम्भ से ही आप साहित्य का सृजन करते रहे। साहित्य के क्षेत्र में प्रवेश काव्य के द्वारा हुआ, किन्तु उसके बाद फिर साहित्य का कोई भी अंग, कोई भी विधा, आपकी अमर, अमृतवर्षिणी लेखनी से अछूती नहीं रही।
आपश्री सफल साधक, गम्भीर विचारक और मानवता के सन्देशवाहक थे। अपने युग की सम्पूर्ण प्रवृत्ति तथा सत्ता के आप दृष्टा एवं स्रष्टा थे। आपका साहित्य मानवता की भावना से ओतप्रोत है। अपने गहन विचारों को जनचेतना के समक्ष रखने में आप सिद्धहस्त थे। आपका साहित्य मात्र जड़ शब्द-समूहों का जंजाल नहीं है, किन्तु उसमें तो बोलता हुआ, गाता हुआ जीवन है।
आपके गीत धार्मिक, आध्यात्मिक और सामाजिक भावों से परिपूर्ण हैं। उनमें आध्यात्मिकता व सामाजिकता का मधुर, मंगलमय आलाप है-अपलाप मात्र नहीं।
गीतों के संकलन 'पुष्कर पीयूषपट', 'पुष्कर-प्रभा', 'संगीतसुधा', 'भक्ति के स्वर', 'सायर के मोती', 'अमर-पुष्पांजलि आदि शीर्षकों से प्रकाशित हुए हैं। अप्रकाशित भजनों का परिमाण भी बहुत अधिक है।
मानव हृदय की अबोल वाणी को स्वर देने में, झंकृत करने में संगीत का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। एतदर्थ ही मध्यकालीन सन्तों ने अपनी धार्मिक वाणी को विविध राग-रागिनियों से सम्युक्त कर मानवीय संवेदना को जागृत करने का सफल प्रयास किया है। कबीर, नानक, सूर, तुलसी, मीरा, आनन्दघन, यशोविजय, समयसुन्दर प्रभृति सन्तों ने अपनी-अपनी भक्ति भावनाओं की श्रद्धांजलि संगीत के माध्यम से प्रस्तुत किया है।
आपश्री के काव्य में भाषा की सरलता, शैली की सहजता, तथा लोकप्रिय धुनों का सुन्दर सामंजस्य है। लोकप्रिय धुनों पर लिखे गए आपके गीत बहुत प्रभावशाली हैं। आपका ध्यान केवल
For Private & Personal Use
www.jainelibrary.laro