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| वाग् देवता का दिव्य रूप
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जैन कथा वाङ्मय का अमृत-मन्थन उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी द्वारा रचित "जैन कथाएं"
-आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि हिन्दी जैन कथाओं के दो रूप हमें प्राप्त होते हैं। प्रथम रूप है- 1 आगम-साहित्य के बाद जो कथा-साहित्य रचा गया, उसकी विभिन्न भाषाओं से अनूदित कथाएँ और दूसरा रूप है मौलिकता, धारा में एक नया परिवर्तन आया। आगमगत कथाओं, चरित्रों और जो पौराणिक कथाओं के माध्यम से अभिव्यञ्जित हुआ है। आज महापुरुषों के छोटे-मोटे जीवन प्रसंगों को लेकर मूल कथा में बहुत से विद्वानों ने जैन पुराणों की कथाओं को अभिनव शैली में अवान्तर कथाओं का संयोजन तथा मूल चरित्र को पूर्वजन्मों की प्रस्तुत किया है और सतत निमग्न हैं। डॉ. नेमीचन्द्र जैन के । घटनाओं से समृद्ध कर कथावस्तु का विकास और विस्तार करना कथनानुसार “जैन आख्यानों में मानव जीवन के प्रत्येक रूप का यह पश्चात्वर्ती कथा साहित्य की एक शैली बन गई। सरस और विशद विवेचन है तथा सम्पूर्ण जीवन चित्र विविध
प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश से होती हुई जैन कथाओं की परिस्थिति-रंगों से अनुरंजित होकर अंकित हैं। कहीं इन कथाओं में
विकास यात्रा हिन्दी के कथा-भंडार की अभिवृद्धि करती है, अपनी ऐहिक समस्याओं का समाधान किया गया है तो कहीं पारलौकिक
मंजिल तय करती है। परम्पराओं की भिन्नता, अनुश्रुतियों का अंतर समस्याओं का। अर्थनीति, राजनीति, सामाजिक और धार्मिक
एवं समय के दीर्घ व्यवधान के कारण कथासूत्रों में परस्पर भिन्नता परिस्थितियों, कला कौशल के चित्र, उत्तुंगिनी अगाध नद-नदी आदि
और घटनाओं का जोड़-तोड़ भी काफी भिन्न हो गया। अनेक कथाएँ भूवृत्तों का लेखा, अतीत के जल-स्थल मार्गों के संकेत भी जैन
तो ऐसी हैं जो बड़ी प्रसिद्ध होते हुए भी कथा-ग्रंथों में बड़ी भिन्नता कथाओं में पूर्णतया विद्यमान हैं। ये कथाएँ जीवन को गतिशील,
लिए रहती हैं। आगमों में वर्णित कुछ कथाओं में, पश्चात्वर्ती हृदय को उदार और विशुद्ध एवं बुद्धि को कल्याण के लिए उत्प्रेरित करती है। मानव को मनोरंजन के साथ जीवनोत्थान की ।
साहित्य में अवान्तर कथाएँ जोड़कर उन्हें व्यापक विस्तृत कर दिया त प्रेरणा इन कथाओं में सहज रूप से प्राप्त हो जाती है। हिन्दी जैन ।
गया है। साहित्य में संस्कृत और प्राकृत की कथाओं का अनेक लेखकों और कथा सूत्रों की इस विविधता को देखकर यह प्रयत्न करना कि कवियों ने अनुवाद किया है। एकाध लेखक ने पौराणिक कथाओं कथा का मूल स्रोत कहाँ है, कैसा है, उसमें जो मतभेद या अवांतर Ped का आधार लेकर अपनी स्वतंत्र कल्पना के मिश्रण द्वारा अद्भुत कथाएँ हैं वे मान्य है या नहीं यह कार्य सिर्फ जलमंथन जैसा ही कथा साहित्य का सृजन किया है। इन हिन्दी कथाओं की शैली बड़ी होगा। कथाओं की ऐतिहासिकता की खोज के बजाय हमारा लक्ष्य ही प्रांजल, सुबोध और मुहावरेदार है। ललित लोकोक्तियां, दिव्य उनकी प्रेरकता की ओर रहना चाहिए। हजारों लेखकों ने भिन्न-भिन्न दृष्टान्त और सरस मुहावरों का प्रयोग किसी भी पाठक को अपनी । देश-काल में जो कथा-ग्रंथ रचे हैं उनमें मत-भिन्नता, कथासूत्र का ओर आकृष्ट करन के लिए पर्याप्त हैं।"
जोड़-तोड़ भिन्न प्रकार का, नाम आदि की भिन्नता होना सहज ही हिन्दी की इन कथाओं के पीछे एक पवित्र प्रयोजन समाविष्ट ।
है। अनेक कथा-ग्रंथों के पर्यवलोकन से हमारा विश्वास बना है कि है कि श्रोताओं और पाठकों की शुभवृत्तियाँ जाग्रत हों, पाप कर्म से हमें प्राचीन ग्रंथों की "शव-परीक्षा" न करके "शिव-परीक्षा" निवृत्त होकर शुभकर्म-प्रवृत्ति की प्रेरणा प्राप्त हो, कथा-रचना में
(कल्याणतत्व की परीक्षा) करने की आदत डालनी चाहिए। जिस ऐसा उच्च एवं उदात्त आदर्श जैन कथा वाङ्मय की अपनी । कथा ग्रंथ में जहाँ जो उच्च आदर्श, प्रेरक तत्व और जीवन विशिष्टता है। साधारणतया कथा का प्रयोजन मनोरंजन होता है, निर्माणकारी मूल्यों के दर्शन होते हैं, उन्हें बिना किसी भेदभाव के
OPos पर, जैनकथा के विषय में यह अधिकारपूर्वक कहा जा सकता है । ग्रहण कर लेना चाहिए।
be8000 कि उसका प्रयोजन मनोरंजन मात्र नहीं है, किन्तु मनोरंजन के साथ अनेक ग्रंथों में ऐसा भी देखा जाता है कि एक ही कथानक 2006 किसी उच्च आदर्श की स्थापना करना, अशुभ कर्मों का कटुफल
अलग-अलग प्रसंग में अलग-अलग रूप में अंकित मिलता है। कहीं | परिणाम बताकर शुभकर्म की ओर प्रेरित करना रहा है। उच्चतर
कथानक का पूर्वार्ध देकर ही उसको छोड़ दिया है, कहीं उत्तरार्ध तो सामाजिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की प्रतिष्ठा करना,
कहीं कुछ अंश ही। ऐसी स्थिति में कथासूत्रों को सम्पूर्ण रूप से व्यक्तित्व के मूलभूत गुण-साहस, अनुशासन, चातुरी, सज्जनता,
लिखना बड़ा कठिन हो जाता है और उनमें विवादास्पद प्रश्न भी सदाचार एवं व्रतनिष्ठा आदि को प्रोत्साहित करना तथा उनके
खड़ा हो सकता है। हमने उपाध्यायश्री पुष्करमुनिजी की जैन कथाएँ चरित्र में उन संस्कारों को बद्धमूल करना-यही जैन कथा साहित्य
भाग १ से १११ तक में इस प्रकार के प्रसंगों पर प्रयत्न यह किया का मूल प्रयोजन है।
है कि जहाँ तक जो कथासूत्र परिपूर्ण मिला है उसे दो-तीन १. हिन्दी जैन साहित्य-परिशीलन, भाग २, डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री, पृष्ठ ७७। कथाग्रंथों के संदर्भो से जोड़कर पूर्ण करने का प्रयल किया है किन्तु
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