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| जन-मंगल धर्म के चार चरण
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मानुषोत्तर, प्रमद, सौमनस, सहायक, नागरमण, भूतरमण आदि वन तथा वायु प्रदूषण के शिकार हो गये। वनविहीन क्षेत्रों के निवासी नामों से भी मिलती है।१४
बर्बर, क्रूर और हिंसक होते हैं क्योंकि ऐसे क्षेत्रों में ऑक्सीजन की इन सब संदर्भो के आधार पर निर्विवाद रूप से कहा जा
कमी हो जाती है, परिणामतः शारीरिक और मानसिक रूप से कई सकता है कि जैन दृष्टि से प्रभावित भारतीय संस्कृति में
रोग पनपते हैं। तात्पर्य यह है कि वनों के कटने से प्राकृतिक वृक्षों को जीवन का मित्र माना गया है। पेड़-पौधों की अहिंसा
संतुलन में विषमता आ जाती है। वनस्पतिकाय की हिंसा के अनेकमनुष्य के अपने जीवन के लिए भी अनिवार्य है। इसी कारण
विध दुष्परिणाम होते हैं-प्राणवायु का नाश, भूक्षरण को बढ़ावा, प्राचीनकाल में भारतभूमि शस्यश्यामला रही है। यहाँ फल और
भूमि की उर्वराशक्ति का घटना, वर्षा के अनुपात में कमी, कन्दमूल का भण्डार रहा है तथा वृक्ष-वनस्पतियों पर ही ।
जनजीवन के विनाश में तीव्रता आदि। आश्रित होकर जीने वाले गो आदि पशुधन की समृद्धि से। औद्योगिक प्रदूषण-भूमि आदि प्रकृति के सभी अंगों का घी-दूध आदि की नदियां बहती रही हैं। सम्प्रति न केवल पौष्टिक सर्वाधिक प्रदूषण आधुनिक विज्ञान पर आश्रित उद्योगों के कारण आहार (दूध-घी आदि) अपितु सामान्य खाद्य पदार्थों के अतिशय होता है। यह प्रदूषण सर्वाधिक तीव्र और भयानक है। इस प्रदूषण अभाव का कारण जीवनमित्र वृक्षों का नाश ही है। वर्षा का को हम दो भागों में विभाजित कर सकते हैं। (१) उद्योगों से अभाव, बाढ़ से फसलों का विनाश, भूस्खलन से जन और धन की अपसृष्ट कचरा, जो जल, वायु अथवा भूमि को प्रदूषित करता है। बर्बादी आदि सभी आपदाएँ जीवनमित्र वृक्षों के नाश के कारण ही (२) उद्योगों से प्रसूत उपभोग सामग्री, जो विविध प्रकार की गैसों उत्पन्न हुई हैं।
का विसर्जन करके वायुमंडल में प्रदूषण पैदा करती है। जोधपुर विश्वविद्यालय में वानस्पतिक प्रदूषण के सम्बन्ध में (१) औद्योगिक अपसृष्ट (कचरा)-उद्योगों से कई प्रकार का आयोजित एक गोष्ठी में बोलते हुए प्रो. जी. एम. जौहरी ने कहा अपसृष्ट (कचरा) निकलता है। कोयला, डीजल, पेट्रोल अथवा था-पेड़ पौधों से ही पृथ्वी पर जीवन है। वनस्पति के बिना जैविक यूरेनियम का ईंधन के रूप में प्रयोग करके चलायी जाने वाली प्रक्रिया असम्भव है। जैविक संतुलन बनाये रखने के लिए मशीनों से विविध प्रकार की गैसे निकलती हैं, जिनमें सर्वप्रमुख पीध-संरक्षण आवश्यक है। सचमुच वनस्पति मनुष्य के लिए अनेक कार्बनडाइऑक्साइड और कार्बनमोनोऑक्साइड हैं। ये गैसें दृष्टियों से वरदान है। संसार में जितना प्राणवायु है, उसका बहुत प्राणशक्ति (जीवन शक्ति) को नष्ट करती हैं। इसके अतिरिक्त बड़ा भाग वनस्पति से ही उत्पन्न होता है। यतः मानव जीवन कार्बनडाइऑक्साइड गैस सूर्य की किरणों को पृथ्वी तक आने तो वनस्पति पर आधारित है, वही मनुष्य की समस्त आवश्यकताओं देती है किन्तु वापिसी में गर्मी के कुछ भाग को पृथ्वी पर रोक लेती की पूर्ति करती है उसका विनाश व्यक्ति का अपना स्वयं का विनाश । है। यह क्रिया क्लोरोफ्लोरो कार्बन गैस में सौ गुनी अधिक है। है। इसीलिए आज प्राणवायु की दृष्टि से भी वनों की कटाई रोकने । ग्रीनहाउस गैसों की स्थिति और भयावह है। इनके कारण पृथ्वी तल और पौधों को संरक्षण दिये जाने की आवश्यकता है। निश्चय ही के वनों का निरन्तर ह्रास हो रहा है। अब तक १.१ करोड़ हेक्टेयर आज वनस्पति-सम्पदा का जिस तरह विनाश हो रहा है, वह एक वनों का नाश हो चुका है। फलतः वायुमण्डल का सन्तुलन बिगड़ चिन्ता का विषय है। पेड़-पौधों की लगभग ५00 प्रजातियां नष्ट हो रहा है। गयी हैं। इसी प्रकार वनस्पति के विनाश से रेगिस्तान का जो
उद्योगों से प्रसूत गैसों के कारण ही सूर्य और पृथ्वी के बीच विस्तार होता है, वह भी एक भयंकर समस्या है। रेगिस्तान का
सुरक्षा कवच के रूप में स्थित ओजोन परत का क्षरण हो रहा है, विकास मानव द्वारा किया गया है और वह उसके अपने अस्तित्व
जो अत्यन्त भयावह है। ओजोन परत के विच्छिन्न होने के कारण के लिए भी खतरा सिद्ध हो रहा है।
पृथ्वीवासियों के अस्तित्व पर भी भय की छाया मंडराने लगी है। वनस्पति की हिंसा का तीव्र विरोध करते हुए आचारांग में सूर्य से निरन्तर पराबैंगनी किरणों का विकिरण होता है, ओजोन भगवान् महावीर ने कहा है कि कोई साधक स्वयं वनस्पतिकायिक उन्हें रोकने के लिए कवच का कार्य करती है। सामान्य स्थिति में जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से करवाता है या करने की | अविच्छिन्न ओजोन पराबैंगनी किरणों से टकराकर ऑक्सीजन में अनुमति देता है, वह हिंसा उसके स्वयं के लिए अहितकर होती है। बदल जाती है। ये किरणें पुनः ऑक्सीजन से टकराती हैं और आवश्यकता इस बात की है कि हम महावीर की क्रान्त दृष्टि ओजोन का निर्माण होता है। इस प्रकार सन्तुलन बना रहता है। वनस्पतिकाय की अहिंसा को युगीन सन्दर्भ में गम्भीरतापूर्वक पृथ्वी पर ऑक्सीजन का मुख्य स्रोत ओजोन ही है। पराबैंगनी समझाकर उसे एक नया अर्थबोध दें। इतिहास साक्षी है कि जहाँ भी किरणे अत्यन्त शक्तिशाली और इसी कारण अतिशय भयानक होती वन समाप्त हुए वहाँ संस्कृतियाँ और समाज समाप्त हो गये, क्योंकि } हैं। उनके संस्पर्श से शरीर की सुरक्षा-व्यवस्था समाप्त हो सकती है। वृक्षविहीन धरती रेगिस्तान में बदल गयी और समाज भूख, प्यास शरीर में कैंसर, आँखों के रोग आदि भयावह रोगों का जन्म हो