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श्रद्धा का लहराता समन्दर
दृष्टि से मैं उस समय पदराड़ा में रहता था । परम सौभाग्य से गुरुवर्य के वर्षावास का अवसर मेवाड़वासियों को मिला। हमारा हृदय आनंद से झूमने लगा। मैंने सोचा, व्यवसाय तो जीवन भर करना ही है पर गुरु चरणों की सेवा कब प्राप्त होगी और मैं दिन रात गुरु चरणों में रहने लगा।
गुरुदेव की मेरे पर असीम कृपा रही। मुझे बहुत ही निकट से गुरुदेवश्री को देखने का अवसर मिला और मेरा हृदय अपार आस्था से आपूरित हो गया। मैं सोचने लगा कितने महान हैं मेरे गुरुदेव एक पाश्चात्य चिन्तक ने लिखा है कि "महान् व्यक्ति वह होता है, जो छोटों से प्यार करता है।" गुरुदेवश्री छोटे तबके से प्यार करते थे, उनके लिए धनवान और निर्धन, साक्षर और निरक्षर सभी समान थे, यही कारण है कि गुरुदेवश्री के सम्पर्क में हजारों अजैनबन्धु भी आते थे और गुरुदेव की अपार कृपा को पाकर वे अपने आप के भाग्य की सराहना करते थे। चार महीने का समय इस प्रकार बीत गया यह हमें पता ही नहीं चला, गुरुदेवश्री ने विहार किया। हमारी आँखों से अश्रुओं की धारा बह रही थी । गुरुदेवश्री मेवाड़ में जहाँ भी पधारे, उनके दर्शनों के लिए पहुँचता रहा, गुरुदेवश्री का सन् १९६७ का वर्षावास बालकेश्वर बम्बई में हुआ। मैं वहाँ दर्शन के लिए गया। मुझे गुरुदेवश्री के चरणों में बैठे हुए वस्तीमल जी ने आग्रह किया कि आप हमारे व्यवसाय केन्द्र में कार्य करें। मैं उनके आग्रह को मानकर कुछ दिन यहाँ कार्य करता रहा फिर सूरत में कार्य प्रारंभ हुआ, गुरुदेवश्री की असीम कृपा का ही सुफल था कि धीरे-धीरे मेरी प्रगति हो गई और मैं आज जो कुछ भी हूँ वह गुरु कृपा का ही सुफल है।
सन् १९८९ का वर्षावास गुरुदेवश्री का हमारी जन्मभूमि में हुआ। निरन्तर चार महीने तक गुरुदेवश्री की सेवा में रहने का सौभाग्य मुझे मिला। गुरुदेवश्री जैसे अप्रमत्त साधक के प्रति किसकी सहज निष्ठा जागृत नहीं होती, उन्हें निहार कर ही और उनकी कमलवत् निर्लिप्तता को देखकर हमारा हृदय सदा ही उनके चरणों में नत रहा। गुरुदेवश्री सन् १९८७ में पाली में विहार कर पूना सम्मेलन में पधारे, उस विहार यात्रा में भी मेरे को सेवा का अवसर मिला, उस लम्बी यात्रा में सूरत के अनेक श्रद्धालुगण साथ थे। हमने देखा कि गुरुदेवश्री लम्बी विहार यात्रा कर गाँव में पधारते जबकि हम लोग थक जाते थे और विश्रान्ति के लिए सोचते पर गुरुदेवश्री समय होते ही ध्यान में विराज जाते। कई बार तो वे रास्ते में ही ध्यान में विराजे । नियमित समय पर ध्यान करना उन्हें पसन्द था और रात्रि में भी वे नियमित समय पर ध्यान में विराज जाते थे।
गुरुदेवश्री का जीवन बहुत ही प्रेरणा स्रोत रहा वे जन-जन के हृदयहार थे और मेरे पर उनकी असीम कृपा सदा रही। बहर समारोह के अवसर पर भी गुरुदेवश्री की कृपा से मुझे सेवा का अवसर मिला। मैं लगातार महीने भर उदयपुर रहा। सोच रहा था
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कि गुरुदेवश्री के साथ बिहार यात्रा में रहूंगा। यों गुरुदेवश्री कुछ रुग्ण अवश्य थे किन्तु उनके अपूर्व आत्मबल के कारण किसी को यह पता ही नहीं चलता था कि वे रुग्ण हैं। जब कभी कोई पूछता तो वे एक ही उत्तर देते आनंद ही आनंद है। वे फरमाते तन भले ही अस्वस्थ है किन्तु मेरा मन निजानन्द में लगा हुआ है। उनकी वह भजन पंक्ति आज भी मेरे कर्ण कुहरों में गूंज रही है।
"मेरा तन तो हरदम स्वस्थ रहे और निज आनंद में मस्त रहे, मैंने आसन दृढ़ लगाया है, वाणी पे नियंत्रण पाया है, स्वचिन्तन में विश्वस्त रहे,
मेरा मन तो हरदम प्रशस्त रहे।"
गुरुदेव के मन में कहीं पर भी बीमारी का प्रवेश नहीं था उनके चेहरे पर अपूर्व शांति छलकती थी । गुरुदेवश्री को जिस समय अपार वेदना थी, उस समय भी उनकी आध्यात्मिक मस्ती पूर्ण रूप से प्रस्फुटित हो रही थी। वे इतने जागरूक थे कि उन्होंने अपने मुखारबिन्द से कहकर अपने प्रिय शिष्य आचार्यश्री देवेन्द्रमुनिजी म. से संधारा ग्रहण किया और ४२ घण्टे का उन्हें चीवीहार संधारा आया, हम सभी गुरुदेवश्री के आध्यात्मिक तेज को देखकर आश्चर्यचकित थे उनके प्राण आँखों से निकले। प्राण निकलने के पश्चात् भी ऐसा लगता था कि वे जीवित हैं स्वर्गवास के बाद भी उनके चेहरे पर किसी प्रकार की न्यूनता दिखाई नहीं दी। धन्य हे गुरुदेव, मेरा और मेरे परिवार की ओर से कोटि-कोटि वंदन। आपका मंगलमय आशीर्वाद सदा मेरे साथ रहा है और रहेगा।
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कमल सम निर्लिप्त
-स्वतंत्रता सेनानी देवीलाल मेहता गोगुन्दा (पूर्व प्रधान)
हर वस्तु के दो पहलू होते हैं। एक होता है बाह्य रूप और दूसरा होता है, आंतरिक रूप। बाह्य रूप दिखावटी, आडम्बर और कृत्रिमता से ओत-प्रोत होता है और दूसरा पहलू है आंतरिक । उसमें वास्तवकिता होती है, बाह्य दिखावा की छलना नहीं होती, इन दोनों पहलुओं के आकर्षण में भी अन्तर है, बाह्य आकर्षण चाक चिक्य पूर्ण होता है पर आन्तरिक जीवन में चौंधिया देने वाली वाली कृत्रिमता का अभाव होता है, आंतरिक जीवन की ओर। हर सामान्य व्यक्ति का ध्यान केन्द्रित नहीं होता, वे तो बाहर के ही दृश्य को देखते हैं पर संत के जीवन में बाह्य जीवन की उतनी प्रमुखता नहीं है, जितनी उसके आंतरिक जीवन की महत्ता है।
परम श्रद्धेय सद्गुरुवर्य उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. स्वनामधन्य का जीवन कमल की तरह निर्लिप्त था, उन्हें किसी भी
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