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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । BOD 500 की अनुभूति होती है तब पुद्गल कर्मों का आत्म प्रदेशों में आगमन क्षय-नहीं होता (पृष्ठ २३७)।" धवला १.१.१ गाथा ४८ एवं ५१
स्वतः रुक जाता है। यह कार्य स्व-पर के भेद-विज्ञान पूर्वक होता भी मननीय है-“प्रवचन अर्थात् परमागम के अभ्यास से मेरु समान 66 है, जो आत्मा की ज्ञानात्मक सहज-क्रिया है। संवर में बुद्धिपूर्वक निष्कम्प, आठ मल-रहित, तीन मूढ़ताओं से रहित अनुपम
सहकारी होते हैं-तीन गुप्ति, पाँच समिति, दस धर्म, बारह भावनायें { सम्यग्दर्शन होता है। अज्ञान रूपी अन्धकार के विनाशक भव्य जीवों 696 00. 00 बाइस परिषहजय और पाँच चारित्र। इनसे ऐसा पर्यावरण निर्मित के हृदय को विकसित और मोक्ष पक्ष को प्रकाशित करने वाले
होता है जो ज्ञान स्वभावी आत्मा को ज्ञान के द्वारा स्व-ज्ञेय में । सिद्धान्त को भजो।" बुद्धि पूर्वक तत्व विचार से मोहकर्म का स्थापित होने में (करने में नहीं) सहयोग करता है। इस प्रक्रिया में । उपशमादिक होता है। इसलिए स्वाध्याय, तत्व-विचार में अपना
ज्ञान-दर्शनात्मक आत्मा का उपयोग अपनी ओर ही होता है और उपयोग लगाना चाहिए, इससे ज्ञानमय आत्मा का ज्ञान होता है। ED.SED विकल्पात्मक भाव का भेद विलय हो जाता है।
कर्मों की निर्जरा आत्म ध्यान से होती है। एकाग्रता का नाम शुद्धात्मा की प्राप्ति का दूसरा चरण है निर्जरा। अनादिकाल से ध्यान है। “चारित्र ही धर्म है जो मोह क्षोभ रहित आत्मा का आत्मा के साथ कर्मों का बन्धन है जो उसे पर-द्रव्यों में शुभाशुभ परिणाम है। द्रव्य जिस समय जिस भाव से परिणमन करता है उस प्रवृत्ति कराते हैं। विकार-विभाव की उत्पत्ति की जड़ हैं-कर्म का । समय उस भाव-मय होता है। इसलिए धर्म परिणत आत्मा स्वयं धर्म उदय एवं कर्मों की सत्ता। निर्जरा से कर्मों की सत्ता का नाश होता होता है। जब जीव शुभ अथवा अशुभ भाव रूप परिणमन करता है है, वह भी करना नहीं पड़ता, क्योंकि 'करना' अधर्म है, होना धर्म । तब स्वयं ही शुभ या अशुभ होता है और जब शुद्ध भाव रूप है। पूर्वबद्ध कर्मों की सत्ता की निर्जरा 'तपसा निर्जरा च' के । परिणमन करता है तब शुद्ध होता है" (प्र. सार ६ से ७)। अनुसार तप से होती है। प्रकारान्तर से इच्छा के निरोध को भी तप निरुपाधि शुद्ध पारिणामिक भाव और निज शुद्धात्मा ही ध्यान का कहते हैं। उत्तम क्षमादि दश धर्मों में भी तप सम्मिलित है। इस ध्येय होती हैं इससे ज्ञान-ज्ञायक-ज्ञेय तीनों का आनन्दमय मिलन प्रकार तप से कर्मों का संवर और निर्जरा दोनों ही होते हैं। होता है जिसका फल है प्रतिपक्षी कर्मों की पराजय-ध्वंस। ध्यान
चार प्रकार का है-आर्तध्यान, रौद्र ध्यान, धर्म ध्यान और शुक्ल तब बारह प्रकार के हैं-छह अंतरंग और छह बहिरंग। अंतरंग
ध्यान। इनमें आर्तध्यान और रौद्र ध्यान शुभ-अशुभ रूप र तप आत्माश्रित हैं, वे हैं-प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय,
मोह-राग-द्वेष उत्पन्न कराते हैं अतः अधर्म स्वरूप है। धर्म ध्यान व्युत्सर्ग और ध्यान। इससे ज्ञायक आत्मा अपने ज्ञान स्वरूप में
और शुक्ल ध्यान आत्मोपलब्धि एवं वीतरागता उत्पन्न कराते हैं। होने-जैसी-रहती हैं। बहिरंग तप शरीराश्रित हैं, वे हैं-अनशन, भूख
धर्म ध्यान शुभ रूप होता है और शुक्ल ध्यान वीतराग। अवलम्बन के कम खाना (ऊनोदरी) भिक्षा चर्या, रस परित्याग, विविक्त
की दृष्टि से ध्यान के चार भेद हैं-पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और शैय्यासन और काय क्लेश। यह तप शरीर और मन की ऐसी सहज
रूपातीत। इस प्रकार संवर और तप से कर्मों का क्षय होता है और स्थिति निर्मित करते हैं जिससे साधक अंतरंग तप के द्वारा शुद्धात्मा
राग-द्वेष का अभाव होकर आत्मा के ज्ञानादि गुण प्रकट होते हैं। में स्थित रह सके। बहिरंग तप करते समय यदि आत्मा की
निर्जरा दो प्रकार की है- सविपाक और अविपाक। सविपाक उपलब्धि का भाव-बोध नही है तो वह शुद्धि की दृष्टि से
निर्जरा सभी जीवों की होती रहती हैं। अविपाक निर्जरा अर्थात् निरर्थक है।
बिना फल दिये कर्मों का झड़ना सम्यक् तप से ही होती है जो कर्मों की निर्जरा हेतु सभी तप एक साथ, आवश्यकतानुसार निष्कर्म का मूल है। उपयोगी हैं किन्तु अन्तरंग तप में स्वाध्याय और ध्यान तप _____कर्म से निष्कर्म का फल-सम्यक् तप का फल है वीतरागता की महत्वपूर्ण है। स्वाध्याय की नींव पर मोक्ष-मार्ग स्थित है। सत्शास्त्र
उत्पत्ति। धर्माचार से यदि राग-द्वेष का अभाव न हो तो वह का पढ़ना, मनन, चिन्तन या उपदेश ही स्वाध्याय है। जागरूकता
निष्फल-निरर्थक होता है। संवर-निर्जरा से तप की अग्नि में जब पूर्वक ज्ञान की आराधना करना स्वाध्याय है। इससे कर्म संवर और
समस्त कर्म-कलंक भस्म हो जाते हैं तब आत्म पटल पर केवल निर्जरा होती है। “जिन शास्त्र द्वारा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से पदार्थों को
ज्ञान-दर्शनादि नौ लब्धियों का दिव्य सूर्य उदित होता है और आत्मा जानने वाले के नियम से 'मोह-समूह' क्षय हो जाता है, इसलिए
परम-शुद्ध, परिपूर्ण, स्वतंत्र, स्वाधीन और स्वावलम्बी हो जाता है। शास्त्र का सम्यक प्रकार से अध्ययन करना चाहिए (प्रवचनसार । उसके शाश्वत ज्ञान-आनन्द के समक्ष इन्द्रियजन्य ज्ञान-सखाभाव ८६)। आगम हीन श्रमण निज आत्मा और पर को नहीं जानता,
सभी अकिंचित्कर सिद्ध हो जाते हैं। मोह राग-द्वेष उत्पन्न करने वाले पदार्थों को नहीं जानता हुआ भिक्षु कर्मों का क्षय किस प्रकार
मिथ्यात्व, असंयम/कषाय आदि का अभाव होने से कर्म-बन्ध का करेगा? (पृष्ठ २३३)। साधु आगम चक्षु है, सर्व इन्द्रिय चक्षु वाले मार्ग सदैव के लिए अवरुद्ध हो जाता है। आत्मा विज्ञान घन रूप हैं, देव अवधि चक्षु वाले हैं और सिद्ध सर्वतः चक्षु हैं (पृष्ठ वीतराग आनन्द-शिव स्वरूप हो जाता है। आत्मा की इस स्वावलम्बी
से यदि पदार्थों का श्रद्धान न हो तो सिद्धि-कर्म । अवस्था को ही निष्कर्म का फल-मोक्ष कहते हैं।
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