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________________ 000000RROR 1062ORGA 18 | २२४ a2 S 6903069088906 उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ अभी तो उस भव्य ज्ञान-प्रासाद की ईंटें चुनी जा रही थीं- यही, कि- “साहित्य, संगीत, कलाविहीनः। Jo2000 मंज़िल पर मंज़िल खड़ी की जा रही थी। साक्षात् पशुः पुच्छ-विषाण हीनः॥" 1965 राजस्थानी भाषा में एक कहावत है-"ज्ञानकंठा, दामअंटा"- जो मनुष्य साहित्य-संगीत-कला इत्यादि से विहीन होता है, वह RE बहुत सरल-सी प्रतीत होने वाली इस कहावत के हार्द को आपश्री साक्षात् बिना पूँछ और सींग वाला एक पशु ही होता है। सम्यक् प्रकार से जानते थे। अतः ज्ञान को कण्ठस्थ करने में असामी के अ लावा अनेक जोन आपका विशेष लक्ष्य था। के विद्वान् नियुक्त किए और उनके मार्गदर्शन में आपश्री ज्ञान के आपने संस्कृत व्याकरण का अध्ययन जब आरम्भ किया तब भव्य मन्दिर के एक के पश्चात् एक सोपान चढ़ते ही चले गए। इस गुरुदेव ने उसकी दुरूहता का दिग्दर्शन कराते हुए कहा सरस्वती आराधना में उन्होंने पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा। पंडित खान-पान चिन्ता तजै, निश्चय मांडे मरण । रामानन्द जी, जो मैथिल के थे, उनका सहयोग इस साधना में भरपूर मिला। आपने ब्यावर, पेटलाद (गुजरात) और पूना के घो-ची-पू-ली करतो रहै, तब आवे व्याकरण फर्ग्युसन कालेज में न्याय व साहित्य तीर्थ की परीक्षाएँ उत्तीर्ण की। अर्थात्-कोई जब खान-पान प्रभृति चिन्ताओं को त्याग कर साथ ही आपने वैदिक, बौद्ध तथा जैन दर्शन का तुलनात्मक केवल व्याकरण-ज्ञान के पीछे ही अपना जीवन झोंक देता है, उतने अध्ययन भी किया। आपने वेदों का, उपनिषदों का, गीता और समय के लिए स्मरण करने, पुनरावर्तन करने, पूछ-ताछ करने और महाभारत का अध्ययन और बौद्ध परम्परा के विनयपिटक, लिखने को अपना प्रमुख विषय बनाता है, तब कहीं जाकर । दीघनिकाय, मज्झिमनिकाय आदि पिटक साहित्य का तथा आगम व्याकरण को हृदयंगम करने में सफलता प्राप्त होती है। साहित्य के अतिरिक्त उसके व्याख्या साहित्य का विशेषावश्यक ___एक व्याकरण की ही क्या बात, आपश्री ने जिस किसी भी भाष्य, तत्त्वार्थ भाष्य, सन्मतितर्क, प्रमाण मीमांसा, न्यायावतार, विषय को हाथ में लिया, उसमें स्वयं को पूर्ण एकाग्रता के साथ स्याद्वाद् मंजरी, रत्ना-करावतारिका, सर्वार्थसिद्धि, समयसार, D : समर्पित कर दिया और अपनी प्रखर बुद्धि के बल पर सैंकड़ों ग्रन्थों प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, योगदृष्टिसमुच्चय, योगबिन्दु, योगशतक आदि का भी अध्ययन किया। को कण्ठस्थ कर लिया। आपश्री में यह सहज ज्ञान था कि बाल्यकाल में जितना भी स्मरण कर लिया जाय उतना ही अच्छा इस व्यापक और गहरे अध्ययन के अतिरिक्त आपका संस्कृत, BABA है, क्योंकि वह स्मरण चिरस्थायी होता है। प्राकृत, गुजराती और उर्दू भाषा पर भी पर्याप्त अधिकार था। अंग्रेजी भाषा का अध्ययन भी आपने आरम्भ किया था, किन्तु इसके आगे का सोपान आता है बुद्धि की परिपक्वता का। जब उसमें विशेष विकास का अवसर प्राप्त नहीं हो सका। 1000 बुद्धि आरम्भिक अध्ययन के पश्चात् स्वतः ही परिपक्व हो जाती है, तब पढ़े हुए विषय का अर्थ समझने की जिज्ञासा जागृत होती है । इस प्रकार आपने अपनी प्रतिभा, मेधा और कल्पना शक्ति के तथा अपने ज्ञान को अन्य व्यक्तियों के साथ बाँटने की भी। बल पर स्वयं को ज्ञानालोक से विभूषित कर लिया। हमारे यहाँ कहा गया है जिसके पास कुछ है, वही दूसरों को कुछ दे सकता है। शून्य में से तो शून्य की ही प्राप्ति हो सकती है। ज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् सरस्वती के भंडार की, बड़ी अपूरव बात। आपश्री ने अपने इस विपुलज्ञान को मुक्त-हस्त होकर अपने शिष्यों ज्यों खरचे त्यौं-त्यौं बढ़े, बिन खरचे घटि जात ॥ तथा अन्य जिज्ञासुओं में बाँटना आरम्भ किया। सारे संसार के विद्वान एक ही सत्य को भिन्न-भिन्न भाषा अध्यापन एक कला है। तपस्या है। उसमें बड़ी कुशलता की FORE अथवा शैली में अभिव्यक्त किया करते हैं। प्रसिद्ध, प्रगाढ़ पाश्चात्य आवश्यकता पड़ती है। अध्ययन तो सरलता से किया जा सकता है, विचारक और विद्वान् बेकन ने उपरोक्त सत्य और तथ्य को अपनी किन्तु अध्यापन में स्वयं को खपाना पड़ता है। किसी भी ग्रन्थ के शैली में इस प्रकार कहा है निगूढ़तम भावों को पहले स्वयं समझकर फिर अन्य के मस्तिष्क में "रीडिंग मेक्स ए फुल मैन, स्पीकिंग ए परफैक्ट मैन, राइटिंग उन्हें बिठाना बड़ा ही दुस्तर कार्य है। अध्यापन कार्य में वही व्यक्ति एन एग्जैक्ट मैन।" अर्थात् अध्ययन मनुष्य को पूर्ण बनाता है, सफल होता है जिसमें प्रतिभा की तेजस्विता होती है, स्मृति की भाषण अथवा संभाषण उसे निष्णात बनाता है तथा लेखन उसे प्रबलता होती है तथा अनुभवों का अम्बार होता है। आपश्री में प्रामाणिक बनाता है। प्रतिभा, स्मृति तथा अनुभूति तीनों गुणों का अद्भुत समावेश था। आप कठिन से कठिन विषय को भी सरल बनाकर सामने वाले को कथन का सार यही है कि अध्ययन एवं ज्ञान के अर्जन से ही समझाने में दक्ष थे। विद्यार्थी की योग्यता के अनुसार विषय का । एक मनुष्य वास्तविक अर्थों में मानव बनता है, अन्यथा मानव और संक्षेप अथवा विस्तार करना आपश्री को खूब अच्छी तरह से एक पशु में फिर भेद ही क्या रह जाता है? आता था। A0000OODOOD Dged OVONO DOOD90000 00000वन्दर For Private & Personal use only RADEducatiordptematicoals . 00 HOO.C
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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