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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । प्रयुक्त किया जाता रहा है। जैसे-जैन-सम्प्रदाय के सभी फिरकों में जैनधर्म का यह महामंत्र इस प्रकार है‘णमोकार मंत्र महामंत्र' के रूप में प्रसिद्ध है। यह मूल में आत्मा का
"णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो जागरण करता है, आत्मा में सुषुप्त अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख और
उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।" शक्ति को जगाता है। इससे अध्यात्म यात्रा निर्विघ्नतापूर्वक सम्पन्न होती है। नमस्कार महामंत्र का प्रयोजन सर्पदंशमुक्तिमंत्र, लक्ष्मीप्राप्ति इसके साथ ही इसकी फल प्राप्तिसूचिका गाथा हैमंत्र, विद्यालाभमंत्र, रोगनिवारक मंत्र आदि मंत्रों के समान
एसो पंच णमोकारो, सव्वपावप्पणासणो। कामनामूलक नहीं है अर्थात् यह महामंत्र विविध लौकिक कामनाओं
मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं ।। की पूर्ति करने वाला नहीं है। हाँ, यह कामना, इच्छा, लालसा, आसक्ति को समाप्त कर सकता है। नमस्कार महामंत्र से मानव की
बौद्ध धर्म का महामंत्र है-"नं म्यो हो रेंगे क्यो" इसका अर्थ ऊर्ध्वचेतना जागृत हो जाती है, सांसारिक कामनाओं से विरक्ति हो है-समस्त बुद्धों को नमस्कार। अध्यात्म-साधना में पारंगत बुद्धों को जाती है। जब व्यक्ति में अन्तश्चेतना जागृत हो जाती है, तब वह नमस्कार करने के पीछे यही उद्देश्य है कि उनके जैसा ज्ञान, भक्ति कामनापूर्ति, स्वार्थपूर्ति, यहाँ तक कि रोगनिवारण आदि के लिए। और चारित्र हमारे जीवन में भी आए। नमन समर्पणवृत्ति का लालायित नहीं होता। नमस्कार महामंत्र की आराधना करते समय द्योतक है। इसी का विस्तृत रूप है-"बुद्धं सरणं गच्छामि, धर्म जब साधक अन्तस्तल की गहराई में उतरता है, तब अलौकिक सरणं गच्छामि, संघं सरणं गच्छामि। यह त्रिशरण-सूचक मंत्र है। ज्ञान-दर्शन के आलोक से परिपूर्ण हो जाता है, अलौकिक आनन्द । इन तीनों के प्रति आत्मीयता-शरणागति होने से विश्व की सभी की किरणें फूट पड़ती हैं, सुख-दुःख की भ्रान्त धारणाएँ बदल जाती | आत्माओं से मैत्री-आत्मौपम्य भावना और समता स्थापित हो सकती हैं और वह असीम आत्मिक सुख (आनन्द) की अनुभूति करने है। बौद्ध परम्परा पर चिन्तन करने से एक बात स्पष्ट हो गई कि लगता है, आत्मा में निहित सुषुप्त अथवा मूर्च्छित शक्तियों का उसमें हीनयान, महायान से लेकर वज्रयान सहजयान या सिद्धयान
नगता है। नमस्कार महामंत्र का प्रथम उदात्त हेतु ही 600
के काल तक मंत्रतंत्रात्मक साधना का बहुत जोर रहा। यह है कि वर्तमान में जो वृत्तियाँ, बुद्धि और अन्तरात्मा अधोमुखी हो रही हैं, निम्न स्तर का चिन्तन तथा विविध कामनामूलक मनन
योगमार्गियों के अन्तर्गत नाथ-सम्प्रदाय की साधना में भी नाद करने में लगी हैं, नमस्कारमंत्र की साधना उनका ऊर्चीकरण कर
और ध्यान की साधना के साथ-साथ मंत्र-साधना भी विकसित हुई। देती है। नमस्कार मंत्र का प्रत्येक पद (वाक्य) ही नहीं, उसका
परन्तु नाथों की साधना में ब्रह्मचर्य और आचार शुद्धि पर बहुत क एक-एक शब्द और अक्षर भी आत्मा का ऊर्चीकरण करता है।
बल रहा। 300 नमस्कार मंत्र इसलिए महामंत्र कहलाता है कि इसके साथ कोई
वैदिक धर्म का प्रमुख मंत्र है-गायत्रीमंत्रभी याचना, कोई भी मांग या लौकिक इच्छा जुड़ी नहीं है। इसके
“ॐ भूर्भुवः स्वः तत् सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि, धियो नए साथ पाँच परम आत्माएँ विश्व की पाँच महाशक्तियाँ जुड़ी हुई है। यो नः प्रचोदयात्।" अर्हत् परमात्मा, सिद्ध परमात्मा तथा पंचविध आचार द्वारा परम
ऊर्ध्व, अधो और मध्यलोक में व्याप्त वह परमात्मा सूर्य से भी आत्मा का जागरण करने-कराने वाले आचार्य, समस्त श्रुतराशि में
श्रेष्ठ एवं तेजस्वी है। वह दिव्य तेज धारण कराए। वह परमात्मा अवगाहन करके ज्ञान का प्रकाश फैलाने वाले उपाध्याय, एवं जो
हमें शुद्ध बुद्धि की प्रेरणा दे।" समस्त आवरणों को दूर करके परमात्मसाक्षात्कार करने की सतत् साधना कर रहे हैं, ऐसे समस्त साधुसाध्वीगण इस महामंत्र के साथ इसी गायत्री मंत्र के अन्तर्गत एक प्रार्थनात्मक मंत्र हैजुड़े हुए हैं। इसलिए आध्यात्मिक शक्तियों का अन्तरात्मा में जागरण
ॐ असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्माऽमृत करना नमस्कार महामंत्र का द्वितीय उद्देश्य है।
गमय।" नमस्कार महामंत्र का तीसरा उद्देश्य है-सम्यग्ज्ञान-दर्शन- अर्थात्-हे प्रभो ! मुझे असत् से सत् (तत्त्व = आत्माचारित्र-तपरूप जो मोक्षमार्ग है, उसकी सुषुप्ति या मूर्छा दूर करके
परमात्मा) की ओर ले चलो, मुझे (अज्ञानरूपी) अन्धकार से प्रकाश 52 मोक्षमार्ग में जागृत कर देना। नमस्कार महामंत्र की साधना में
की ओर ले चलो तथा मृत्यु (विनाशी परभावों) से अमृत साधक की अध्यात्मयात्रा का समग्र पथ छिपा हुआ है। इसलिए यह
(अविनाशी = स्वभाव) की ओर ले चलो।" न महामंत्र परम लक्ष्य की ओर ले जाने वाला पथप्रदर्शक है।
इस्लामधर्म का प्रार्थनात्मक मंत्र हैनमस्कार महामंत्र का चौथा उद्देश्य है-दुःख निवृत्ति का सामर्थ्य 2902 प्राप्त करना-कराना। मनुष्य की सारी वृत्ति-प्रवृत्तियाँ, चेष्टाएँ और
"अऊजुबिल्लाहि मिनश् शैत्वानिर रजीम।" क्रियाएँ हैं, वे दो तथ्यों से संलग्न हैं-दुःखों से मुक्ति और इसका अर्थ है-'शरण लेता हूँ मैं अल्लाह की, पापात्मा शैतान सुख-अव्याबाध सूख की प्राप्ति।
से बचने के लिए।"
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