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श्रद्धा का लहराता समन्दर
ज्ञान और चारित्र के बल से जैन और जैनेतर समाज का अवर्णनीय उपकार किया।
यह निर्विवाद सत्य है कि वे आध्यात्मिक पुरुष थे। उनका आध्यात्मिक जीवन "बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय" था। आप चमत्कार प्रदर्शन में किंचित मात्र भी विश्वास नहीं करते थे किन्तु सहज रूप से चमत्कार होते थे। आपके ध्यान के मंगलपाठ को श्रवण कर हजारों व्यक्ति आधि-व्याधि और उपाधि से मुक्त हो गये। "हमने स्वयं ने अनुभव किया कि हजारों व्यक्ति रोते हुए आते और हँसते हुए विदा होते, चिरकाल की व्याधि भी कुछ ही क्षणों में नष्ट हो जाती। आपका यह स्पष्ट आघोष था कि नमस्कार महामंत्र में अपूर्व शक्ति है यदि कोई एकाग्रता के साथ और नियमित समय पर जाप करे तो उसके जीवन में सुख और शान्ति का सागर अठखेलियाँ करने लगेगा।
आप सफल प्रवचनकार थे, आपकी वाणी में जादू था। आप आगम के गुरु गंभीर विषयों को भी सरल और सुगम दृष्टि से प्रस्तुत करते थे। आपके प्रवचन श्रोताओं के मन-मस्तिष्क पर और हृदय पर गहरी छाप छोड़ते थे। उनकी वाणी में आध्यात्मिक गहराई और अनुभूतियों का अद्भुत संगम था।
आपश्री की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी कि आप स्वयं गहराई से आगम, दर्शन, धर्म संबंधी ग्रन्थों का अध्ययन करते थे। टीका चूर्णि भाष्यों के अध्ययन में आपकी गहरी रुचि थी। अध्ययन के साथ दूसरों को पढ़ाने की आप में असीम शक्ति थी, आप जब पढ़ाते थे तो मूल आगम के रहस्यों को उद्घाटित करने के लिए अन्य आगमों के इस प्रकार उदाहरण और तर्क देते थे कि अध्ययन करने वाला आपकी प्रबल प्रतिभा से सहज प्रभावित हो जाता था। आगम के प्रति आपकी रुचि को देखकर सभी चकित थे, आगम के रहस्यों को बहुत ही सुगम रीति से प्रस्तुत करते थे। सटीक उदाहरणों से विषय को इस प्रकार प्रस्तुत करते कि जिज्ञासु गद्गद हो उठता, उसके हृदयतंत्री के तार झनझना उठते धन्य है गुरुदेव आपके ज्ञान को । धन्य है सद्गुरुदेव आपकी प्रतिभा को । वस्तुतः आप प्रज्ञापुरुष, अध्यात्म-योगी और सच्चे उपाध्याय के सद्गुणों से मण्डित थे। मेरी कोटि-कोटि वंदना ।
एक ज्योतिर्मय व्यक्तित्व के धनी उपाध्यायश्री
--साध्वी श्री तरुणप्रभा जी म. “साहित्यरत्न"
परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. राजस्थान के गौरव थे, हमारे पूज्य गुरुदेव स्व. युवाचार्य श्री मिश्रीमल जी म. "मधुकर" के सहपाठी थे और पूर्ण सहयोगी थे। उपाध्यायश्री का व्यक्तित्व बहुत ही तेजस्वी/ओजस्वी और वर्चस्वी था। जब भी हमने उपाध्याय श्री के दर्शन किए. उनकी स्नेह से छलछलाती हुई वाणी
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को सुना, हमारा हृदय बासों उछलने लगा, उनकी वाणी में मिश्री सा माधुर्य था, वे बहुत ही मधुर शब्दों में प्रेरणा प्रदान करते थे, निरर्थक वार्तालाप करना उन्हें पसन्द नहीं था, जब भी चरणों में पहुँची उन्होंने हमें यही प्रेरणा प्रदान की कि आगमों का अध्ययन करो, आगमों के अध्ययन से साधना में जागरूकता आएगी और साथ ही स्तोक साहित्य का भी अध्ययन करो, स्तोक साहित्य हमारा, वह साहित्य है, जिसे हम आगम की पूँजी कह सकते हैं, आगमों के गुरु गम्भीर रहस्य स्तोक साहित्य के द्वारा सुगमरीति से समझ में आ जाते हैं।
सन् १९९३ का मार्च महीना हमारे संघ के लिए वरदान रूप रहा । २८ मार्च को हमारे संघ के तृतीय पट्टधर आचार्यश्री देवेन्द्र मुनिजी म. का चद्दर समारोह का भव्य आयोजन उदयपुर में रखा गया था, हम भी उदयपुर पहुँचीं, २०० से अधिक साधु-साध्वी इस अवसर पर पहुँचे और लाखों सुश्रावक/ श्राविकाओं ने इस समारोह में भाग लेकर अपने जीवन को धन्य बनाया, हमने प्रथम बार इतना विराट् आयोजन देखा। आचार्यश्री देवेन्द्र मुनिजी म., उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. के अंतेवासी हैं, चहर समारोह के पश्चात् किसी को भी यह कल्पना नहीं थी कि उपाध्यायश्री एकाएक रुग्ण हो जाएँगे और संथारा कर उनका स्वर्गवास हो जायगा । हमने देखा संथारे के समय उनके चेहरे पर गजब का तेज था। कौन कह सकता था कि यह विमल विभूति हमारे बीच नहीं रहेगी, देखते ही देखते ४२ घंटे के पश्चात् उनका संथारा सीज गया और वह महान् आत्मा हमारे से सदा-सदा के लिए बिछुड़ गई पर उन्होंने जो साधना की सौरभ विश्व में फैलाई, उससे आज भी जनमानस महक रहा है, ऐसे परम गुरु उपाध्यायश्री के चरणों में भाव-भीनी वंदना के साथ श्रद्धार्थना
धर्म के जीते-जागते रूप उपाध्यायश्री
-महासती सत्यप्रभा जी
परमादरणीय अध्यात्मयोगी उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. श्रमण संस्कृति के एक आदर्श संत, तत्वद्रष्टा और प्रखर प्रवक्ता थे। राजस्थान का मेवाड़ प्रदेश त्याग, बलिदान, साहित्य, संगीत और कला का अनन्यतम केन्द्र रहा है। शक्ति और भक्ति का यहाँ पर अद्भुत समन्वय हुआ है। यहाँ की पावन पुण्य धरा पर अनेक संत, शूरवीर - देशभक्त और सती-साध्वियों ने जन्म लिया और अपने साधनामय तपोनिष्ठ उदात्त जीवन से यहाँ के कण-कण को गौरवान्वित किया। ऐसी गौरवमयी परम्परा के देदीप्यमान नक्षत्र रहे हैं, श्रद्धेय उपाध्याय गुरुदेवश्री ।
भौतिक चित्ताकर्षक प्रभुता प्रदर्शन से अलग-थलग रहकर शान्त / प्रशान्त आध्यात्मिक साधक के रूप में स्वकल्याण के साथ
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