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________________ १२४ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । सत्य के तेज पुंज थे वे भावभीनी वन्दना -गणेशलाल पालीवाल पूर्व प्रधान -कालूलाल ढालावत D 156Dad - 0.00000501 2000OOD PROPORY परम आदरणीय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. करुणा के रणक्षेत्र में जूझने वाला बहादुर होता है, वह जूझते हुए मृत्यु सागर थे, शांति के प्रचारक थे, सत्य के तेज पुंज थे, छल कपट से को वरण कर लेता है तो भी उसकी मृत्यु सामान्य मृत्यु नहीं किन्तु मुक्त थे, संगठन के सदैव सजग प्रहरी थे, कर्त्तव्यपरायण थे, वीर मृत्यु कहलाती है, वीर बाहर के शत्रुओं से लड़ता है पर संत उच्चकोटि के सादगीप्रिय थे, विकार और वासनाओं से मुक्त थे, वे आभ्यन्तर शत्रुओं से लड़ता है। वह काम, क्रोध, मद, मोह, छल आगम साहित्य के प्रकाण्ड पंडित थे तथापि अभिमान से मुक्त थे, आदि बुराइयाँ जो रावण की प्रतीक रही हैं, उन बुराइयों को प्रेम, प्रभृति सद्गुणों के कारण ही वे जन-जन के वंदनीय थे। यों वे वात्सल्य, सदाचार आदि सद्गुणों से पराजित करता है, उसका युद्ध हमारे परिवार के ही जन्मे हुए नररत्न थे। चौदह वर्ष की लघुवय अन्तरंग जीवन का युद्ध होता है। जैनमुनियों की आचार संहिता में उन्होंने संयम स्वीकार कर लिया था और भारत के विविध भारत के अन्य संतों से विलक्षण है, उनके जीवन में त्याग की दूर-दूर के अंचलों में विचरते रहे, इसलिए पहले उनसे विशेष प्रधानता होती है और त्याग से ही वे शीर्षस्थ पुरुष बनते हैं। परिचय नहीं हो पाया किन्तु सन् १९८० से गुरुदेवश्री के निकट संपर्क में आने का अवसर मिला। गुरुदेवश्री का सन् १९८० में परम श्रद्धेय उपाध्याय पूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी म. का हमारे गाँव सारोल में पदार्पण हुआ। तब से गुरुदेवश्री के अत्यधिक | जन्म हमारे गांव में ही हुआ। नान्देशमा उनका ननिहाल था, वहीं सन्निकट में रहने का सुअवसर मुझे मिला, कई बार विहारों में साथ पर उनकी मातेश्वरी रहती थीं, इसलिए उनके बाल्यकाल के सुनहरे में रहा। दिल्ली, मदनगंज, किशनगढ़, राखी, अहमदनगर, इन्दौर क्षण नान्देशमा में ही बीते और दीक्षा लेने के पश्चात् भी तीन आदि सभी स्थानों पर गुरुदेवश्री के दर्शन हेतु पहँचा। गुरुदेवश्री की चातुर्मास नान्देशमा में किए। उन चातुर्मासों में बड़े गरुदेवश्री भी असीम कृपा मेरे पर रही, पहले तो मेरे मन में यह संकोच था ताराचंद्रजी म. सा. ने हम ग्रामवासियों को किस प्रकार जीवन कि गुरुदेवश्री जैन मुनि हैं, वे हमारे से वार्तालाप करेंगे या नहीं जीना चाहिए यह कला उन्होंने सिखाई। उन्होंने सामाजिक जीवन के करेंगे। यद्यपि भाई होने के नाते जैन मुनियों के आचार संहिता से परिप्रेक्ष में बताया कि जैन धर्म में अहिंसा का सूक्ष्म विवेचन है। परिचित न होने के कारण मन में यह भय रहा हुआ था पर । अतः लम्बे समय तक यदि घर में आटा रखा जायेगा तो उसमें गुरुदेवश्री के निकट संपर्क में आते ही वह भय कपूर की तरह उड़ अनेक जन्तु गिर जायेंगे। इसी तरह अन्य वस्तुओं के संबंध में भी गया। उन्होंने विवेकयुक्त जीवन जीने के लिए सभी को उत्प्रेरित किया, पूज्य गुरुदेवश्री का बाह्य व्यक्तित्व जितना लुभावना था, उससे शौच आदि बाहर जाओ तो लोटे आदि से पानी ले जाना चाहिए भी अधिक आकर्षक था, आभ्यन्तर व्यक्तित्व। ज्यों-ज्यों गुरुदेवश्री केवल नदी, नालों पर जाकर निवृत्त होना उपयुक्त नहीं है। न जाने के सन्निकट परिचय में आते रहे त्यों-त्यों अनुभव हुआ कि पूज्य कितनी ही शिक्षा की बातें उन्होंने सिखाईं, जिससे हमारे ग्राम्य गुरुदेवश्री गुणों के पुंज हैं, उनकी सबसे बड़ी विशेषता हमने यह जीवन में एक अभिनव जागृति आई, नहीं तो पहले तीन-तीन, पाई कि वे धनवानों से भी अधिक गरीबों से प्यार करते हैं, गरीब चार-चार महीने का आटा उपयोग में लेते थे, जिसमें कई प्रकार व्यक्ति कोई भी किसी समस्या से आक्रान्त होता तो गुरुदेवश्री की लटें आदि पड़ जाती थीं, हमारे यहां पर कन्द-मूल का भी उसकी समस्या को सुलझाते और समाधान भी करते, उसे इस | अधिक प्रचलन था। गुरुदेवश्री के उपदेश से कन्दमूल का प्रचार बंद प्रकार का जप बताते वह उस जप की साधना कर अपूर्व आनंद हुआ तथा गुरुदेवश्री के वर्षावासों में अत्यधिक व्यक्तियों के जीवन की अनुभूति करता, गुरुदेवश्री की जप साधना से दृष्टि इतनी पैनी में परिवर्तन आया। बन गई थी कि किसी भी व्यक्ति को दूर से देखकर समझ जाते थे गुरुदेवश्री हमारे गांव के होने से उनके साथ सहज आकर्षण कि इसमें यह व्याधि है या उपाधि है और वे उसका उपाय भी होना स्वाभाविक था। गुरुदेवश्री के बाल्यकाल की अनेक घटनाएँ बताते, वस्तुतः उनका ज्ञान गजब का था, उनकी साधना महान थी, आज भी चमक रही हैं। गुरुदेवश्री प्रकांड पंडित थे। संस्कृत, मुझे परम गौरव है कि भाई म, भारत के एक महान संत के पद प्राकृत, अपभ्रंश आदि विविध भाषाओं के तलस्पर्शी अध्येता थे, वे पर प्रतिष्ठित हुए। मैं उनके चरणों में अपनी अनंत श्रद्धा समर्पित धाराप्रवाह संस्कृत में बोलते थे और लिखते भी थे, गुरुदेवश्री करता हूँ। आशुकवि थे, समय-समय पर प्रवचन सभा में ही नई कविताएँ, नये भजन बनाकर प्रस्तुत कर देते थे। गुरुदेवश्री के प्रवचनों में मन के ऊपर कर्तव्य को विजय पानी ही पड़ेगी। जहाँ तत्व दर्शन की गुरू गंभीरता थी वहां पर लोक कथाएँ, बोध -उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि कथाएँ, रामायण और महाभारत के पावनप्रसंग भी समय-समय पर 680लयाला ACat900ASOAPatra200090020200400200. 500000.00 dain Education Jethmational So g For private & Personal use only 3800 m wwjalnelibrary.org 2018Rehta edo 10805555 19. 08 80.00000000000
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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