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________________ 690666006266500906 0202080303Paro202 Peer ODOD 200000.00 श्रद्धा का लहराता समन्दर 9ORNO POEROR 9000000 श्रद्धा, मन के समन्दर में मचल-मचलकर उठने वाली वह कोमल स्नेहिल तरंग है, जिसके हर स्पन्दन में सृष्टि के साथ दिव्य चेतना का तादात्म्य जुड़ा हुआ है। श्रद्धा, श्रद्धेय के प्रति आस्था का समर्पण है, विश्वासों की धड़कन है, आदर और अहोभाव की पुलकन है। मानव-चेतना जिन सद्गुणों के प्रति सहज आकृष्ट होती है, उनके प्रति विनत/समर्पित भी हो जाती है। कृतज्ञतापूर्ण अहोभाव के साथ ही उत्फुल्ल होकर नाचने भी लगती है। जीव जगत की इस जागृत दिव्य चेतना का नाम ही है, श्रद्धा। श्रद्धेय के प्रति श्रद्धा की अभिव्यंजना मनुष्य का सहज धर्म है, स्वभाव है, मौलिक अधिकार भी है। युग-युग से मानव का भावुक अन्तःकरण श्रद्धेय के प्रति भक्ति की पुलक लिए मुखर होता रहा है। उसकी भाव-स्पन्दना से निःसृत/स्फुरित कोमल कान्त मधुर शब्दावली सहज ही एक भक्ति काव्य बन जाती है। श्रद्धा के उस लहराते महा समन्दर की प्रत्येक तरंग अपने आप में एक भक्ति संगीत होता है, एक अन्तर्लीन भक्ति नृत्य होता है। श्रद्धा पुरुष गुरुदेव उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. आपके, हमारे सबके श्रद्धेय पुरुष थे। उनके असीम उपकारों का आकार अमाप है। उनका सान्निध्य, उनकी वाणी, आशीर्वचन और उनका मार्गदर्शन देव प्रसाद के रूप में जिन्हें प्राप्त हुआ, उनकी गणना सैकड़ों में नहीं, हजारों में है। ____ वे जब हमारे बीच विद्यमान थे तब भी हमारे कृतज्ञता के स्वर उनके चरण-मन्दिर में गीत बनकर मुखरित होते रहते थे। विगत वर्ष उदयपुर में जब उनका महाप्रयाण हो गया तो हजारों-हजार श्रद्धासिक्त मानस तरंगाकुल हो उठे। दिन के उजाले में सघन अंधकार सा छा गया। प्यासे होठों से लगा अमृत-चषक जैसे हाथों से छूटकर गिर गया हो, होठ अनबुझी प्यास से अकुलाते रह गये। उस स्थिति की विरह-वेदना, अन्तर को चीर-चीर देने वाली अकथ व्यथा, शब्दों से व्यक्त करना ही कठिन है, उसे रोक पाना भी कठिन है। पूज्य गुरुदेव के महाप्रयाण के पश्चात् भक्तजनों ने, अपनी निगूढ मनोव्यथा को वक्तव्यों द्वारा, पत्रों द्वारा, काव्य पंक्तियों द्वारा रूपायित किया है। वास्तव में यह मनोवेदना, भक्ति और श्रद्धा का वह कारुणिक रूप है, जिसे आज की भाषा में श्रद्धांजलि कहा जाता है। सचमुच श्रद्धांजलि क्या है ? मन की घनीभूत पीड़ा से द्रवित हुआ वह अश्रु बिन्दु है। जिसके लघु कण-कण में उच्छल श्रद्धा का निस्सीम सिंधु है। श्रद्धेय आचार्यश्री देवेन्द्र मुनिजी के पास धीरे-धीरे ऐसे पत्रों का अम्बार लग गया, कई फाइलें भर गईं, जिनमें पूज्य उपाध्यायश्री के प्रति सहज श्रद्धा रखने वाले, कृतज्ञमना, गुणज्ञ त्यागी मुनिजनों, विद्वानों, श्रावकों व श्री संघों आदि के श्रद्धा स्निग्ध भावोद्गार कमल पत्र पर पडे निशीथ की ओस की तरह मोती बनकर चमक रहे हैं। किसी ने पांच-सात पंक्तियों में, किसी ने एक-दो पृष्ठों में तो किसी ने पांच-सात पृष्ठों में अपनी भावनाएँ उकेरी हैं, स्मृतियाँ संजोयी हैं, गुरूदेव के प्रति कृतज्ञ भावेन शब्दों की सुमनांजलि समर्पित की है। भावना का अन्तःस्फूर्त वेग ऐसा प्रवाहपूर्ण होता है, कि रोकना चाहने पर भी रुक नहीं पाता। हृदय के उत्स से फूटकर श्रद्धा का निर्झर बह-बह जाना चाहता है। ___ हमारा प्रयल रहा है, उन पवित्र भाव-सुमनों की ढेर सारी पंखुड़ियाँ को श्रद्धा के थाल में सजाकर रख लिया जाय। भक्ति के समन्दर की उन आकुल तरंगों का रूपाकंन कर लिया जाय, उन भाव-प्रवण भक्ति रेखाओं को ग्रन्थ के हृदय पटल पर रंगोली की तरह मंडित कर लिया जाय। ___ हम ने सावधानी बरती है, प्राप्त सामग्री में से किसी का नाम छूट न पाये। हाँ उनके विस्तार को कम अवश्य किया है। क्योंकि आखिर स्मृति ग्रंथ के पृष्ठों की भी सीमा है, पाठकों के पठन-काल की सीमा है। सभी कुछ सीमा में अच्छा रुचिकर मनोरम लगता है। फिर भी आप देखेंगे, ग्रन्थ का यह प्रथम खण्ड सबसे विशाल बन गया है, महत्वपूर्ण भी 1601 ARDAN 06:0010300.000.00 Frate Pantera se only LCO0:00 S wapitainelibrarycordi 50.0ORAR0206095 3000
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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