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श्रद्धा का लहराता समन्दर
जगत हितार्थ श्री पुष्कर मुनि
:- श्रीमती विजयकुमारी बोध बी.ए., बी. एड मंडी गीदड़बाहा (पंजाब)
(दिव्य दोहा द्वादशी)
जगत हितार्थ विशिष्ट जो, कर जाते हैं काम । अमर हुआ है जगत में, उनका ही तो नाम ॥ १ ॥
"उपाध्याय पुष्कर मुनि” ऐसे ही थे सन्त । जग-जन हित जिनने यहाँ, काम किये अत्यन्त ॥ २ ॥
ज्ञानाराधक आपसा, मिलना मुश्किल अन्य । नामी ग्रामी आप थे, कलम कलाधर धन्य ॥ ३ ॥
जिनमें सेवा, स्नेह है, दया, क्षमा, तप, त्याग । "जैन कथायें" के लिखे इकसी ग्यारह भाग ॥४॥
देश-भक्ति, प्रभु-भक्ति है, शक्ति, शील है, दान। क्या बतलायें और है, कितना इनमें ज्ञान ॥ ५ ॥
आध्यात्मिकता का भरा, जिनमें कोरा ज्ञान। ग्रन्थ लिखे हैं आपने ऐसे कई महान् ॥६॥
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भाषण में भी आप थे, रखते बड़ा कमाल। सुन करके व्याख्यान को, गूँज उठे था हाल ॥७॥
उठ करके व्याख्यान से, जाए कौन चला । ऐसी थी बस आपकी अद्भुत कथा कला ॥८॥
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जैनागम के बिन कभी, करते थे न बात। जैनागम स्वाध्याय में लगे रहे दिन-रात ॥ ९ ॥
योग-साधना आपकी भी थी बड़ी कमाल घंटे निश-दिन ध्यान में, देते कई निकाल ॥१०॥
नहीं गुणों का आपके, आ सकता है अन्त । सचमुच ही थे आपजी, सुलझे सच्चे सन्त ॥११॥
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'विजयकुमारी बोथरा', मंडी गीदड़बाहा । भेंट शब्द दो कर रही, मन में भर उत्साह ॥ १२ ॥
हे गुरुदेव !
आकाश नहीं, पर अनन्त जो, सागर नहीं, पर अथाह जो, पर्वत नहीं, पर विशाल जो, भगवान नहीं, पर इंसान जो, ऐसे व्यक्ति को, ऐसे गुरु को, चन्दन मेरा, हे गुरुदेव!
धर्म का प्रचारक जो, ज्ञानी और विचारक जो, स्नेहशील और दानी जो,
विनम्र और विवेकी जो, ऐसे ज्ञानी को, ऐसे गुरु को, वन्दन मेरा हे गुरुदेव !
महावीर का अनुयायी जो, त्यागी और तपस्वी जो, श्रमणसंघ का गुरु जो,
ताराचन्द्र का शिष्य जो,
राजस्थान का केसरी जो, महावीर नहीं, पर पुष्कर जो, ऐसे व्यक्ति को, ऐसे गुरु को, बन्दन मेरा, हे गुरुदेव!
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देह त्यागी, आँखें त्यागी,
न त्याग पाए मेरा हृदय हे गुरुदेव ! विलीन हुई जब आत्मा परमात्मा में, छू गई मुझे यह हे गुरुदेव ! तुम्हें मिल गई मुक्ति,
बाँध गई वही, मुझे तुमसे हे गुरुदेव ! ऐसे देवलोकी को, ऐसे गुरु को, नतमस्तक हो, वन्दन मेरा, हे गुरुदेव ! हे गुरुदेव ! हे गुरुदेव !
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- संदीप 'विकी'
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