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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । 2994 वज्र है, जो अमीरी और गरीबी की विषमता और विभेद की लिए भी नहीं है यदि वह देता है तो उसके देने में उस दाता की SODo दीवारें तोड़ सकता है। दान की अमोघवृष्टि ही, मानव जाति में । महानता परिलक्षित होती है। अपने इस प्रवचन के प्रारंभ में उन्होंने
प्रेम, मैत्री, सद्भाव और सफलता की शीतल धारा प्रवाहित कर लिखा-"कई बार मनुष्य के अंतर् में दान देने की शुद्ध प्रेरणा होती सकती है। (पृष्ठ ३१)
है, किन्तु उस प्रेरणा को वह दबा देता है। वह कभी तो मन को इस Guide अपने पाँचवे प्रवचन में उपाध्यायश्री जी ने दान को जीवन के
प्रकार मना लेता है कि मैं कहाँ धनवान हूँ। मुझ से बड़े-बड़े धनिक लिए अमृत बताया है। अमृत में जितने गुण होते हैं, उतने ही बल्कि
दुनिया में पड़े हैं, वे सब तो दान नहीं देते, तब मैं अकेला ही उससे भी बढ़कर गुण दान में है। उन्होंने लिखा है-“इसीलिए
छोटी-सी पूँजी में से कैसे दान दे दूंगा। पर वह यह भूल जाता है दानामृत जिसके करकमल में हो, वह मनुष्य इतनी उच्च स्थिति पर
कि गरीब आदमी का थोड़ा-सा दान धनिकों को महाप्रेरणा देने पहुँच जाता है, वह विश्व वन्दनीय और जगतपूज्य बन जाता है।
वाला बन जाता है।" (पृष्ठ १४६)। एक गरीब को दान देते हुए ऐसा दान रूपी अमृत हजारों लाखों मनुष्यों को जिला देता है, रोते
देखकर अमीर व्यक्ति के अहं को चोट लगती है और तब वह उस हुए को हंसा देता है, रुग्ण शय्या पर पड़े हुए रोगियों को स्वस्थ ।
गरीब से प्रेरणा पाकर दान देना आरंभ कर देता है। किन्तु इस पर 3.5 एवं रोगमुक्त कर देता है, पीड़ितों में नई जान डाल देता है, }
भी गरीब के दान की महत्ता अपने स्थान पर प्रशंसनीय ही बनी बुभुक्षियों और तृषियों की भूख-प्यास मिटाकर उन्हें नया जीवन दे
। रहती है। जिस व्यक्ति के पास एक लाख रुपया है, वह उसमें से देता है, संकट-ग्रस्तों को संकट मुक्त करके हर्ष से पुलकित कर देता
एक हजार रुपये दान कर देता है तो कोई विशेष अंतर नहीं पड़ता PEOPA है। सचमुच, दान संजीवनी बूटी है, अमृतमय रसायन है, }
है। किन्तु यदि किसी व्यक्ति के पास एक हजार रुपये हैं और उनमें D o रोगनाशिनी अमृतधारा है, अद्भुत शक्तिवर्द्धक टॉनिक है,
से वह दो सौ रुपये दान करता है तो वह अधिक महत्वपूर्ण
होता है। दरिद्रतानाशक कल्पतरु है, मनोवांछित पूर्ण करने वाली कामधेनु है। तदान में आश्चर्यजनक चमत्कार है, यह वशीकरण मंत्र है, आकर्षक इस प्रवचन संग्रह का द्वितीय अध्याय-दान : परिभाषा और ॐ तंत्र है और प्रेमवर्द्धक यंत्र है।" (पृष्ठ ४७)।
प्रकार शीर्षक से अलंकृत किया गया है। धन की परिभाषा दान के _दान से सहज ही आनन्द की प्राप्ति होती है। दान देने वाला
अंग, दान के लक्षण, दान की श्रेणियाँ, दान की विविध वृत्तियाँ, देकर, संतुष्ट होकर आनंद का अनुभव करता है और लेने वाला
दान के भेद, दान के विविध पहलू, वर्तमान में प्रचलित दान, दान अपनी आवश्यकता की पूर्ति होने पर आनंद मनाता है। इस संबंध
और अतिथि सत्कार, दान और पुण्य आदि को समझने के लिए में उन्होंने लिखा है-"भारतवर्ष में ऐसी भी बहनें हुई हैं, जिन्होंने
इस अध्याय का परिशीलन आवश्यक है। अपनी मुसीबत के समय भी आशा लेकर घर पर आए हुए किसी हम प्रारंभ में दान की परिभाषाओं की चर्चा कर चुके हैं। अतः याचक को खाली हाथ नहीं लौटाया। मानो उनका जीवन सूत्र बन । इस संबंध में यहाँ पुनः चर्चा करना प्रासंगिक नहीं होगा। हां, गया था-"दानेन पाणिः न तु कंकणेनं।" निःसंदेह दान हाथ का । परिभाषाओं में स्व-पर अनुग्रह शब्द का प्रयोग हुआ है। पर अनुग्रह आभूषण है, वही हाथ को सुशोभित करता है और उसी शोभा से। अर्थात् दूसरे पर उपकार करना तो प्रायः सभी व्यक्ति समझते हैं मनुष्य की अन्तर् आत्मा प्रसन्न होती है, आनंद विभोर होती है। किन्तु दान देने में स्व-अनुग्रह स्वयं पर उपकार कैसा? इसे समझना आनंद का सच्चा स्त्रोत दान की पर्वतमाला से ही प्रवाहित होता ! कुछ आवश्यक प्रतीत होता है। वैसे प्रारंभ में इस संबंध में संकेत है।” (पृष्ठ ९६)।
किया जा चुका है किन्तु प्रवचनकार ने बहुत ही स्पष्ट रूप से आगे के कुछ प्रवचनों में उन्होंने दान को कल्याण का द्वार,
सरलता से इसे इस प्रकार समझाया है। यथाधर्म का प्रवेश द्वार बताया है। दान की पवित्र प्रेरणा में दान रूप में र “अपने पर अनुग्रह करने के यहाँ अनेक अर्थ फलित होते हैं, सहायता करने की प्रेरणा प्रदान की है और दान को भगवान एवं जिनमें कुछ का निर्देश इन व्याख्याओं में किया गया है। समाज के प्रति अर्पण बताया गया है।
का एक अर्थ यह है अपने में (अपनी आत्मा में) दया, उदारता, प्रथम अध्याय का अंतिम प्रवचन गरीब का दान है। शीर्षक सहानुभूति, सेवा, विनय, आत्मीयता, अहिंसा आदि विशिष्ट गुणों कुछ विचार करने के लिए बाध्य करता है। चौकाता है। किन्तु ऐसी के संचय रूप (अथवा उद्भव) उपकार करना स्वानुग्रह है। कोई बात नहीं है। केवल धनाढ्य ही दान करे ऐसा कोई नियम
दूसरा अर्थ है-अपने में धर्मवृद्धि करना स्वानुग्रह है। नहीं है। शास्त्रों में भी ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है। वास्तव में गरीब का दान अमीर के दान की तुलना में कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।
तीसरा अर्थ है-दान के लिए अवसर प्राप्त होना स्वानुग्रह है। जिसके पास अपनी आवश्यकता से भी अधिक है, वह देता है तो । दान के साथ जब तक नम्रता नहीं आती, तब तक दान कोई आश्चर्य नहीं किन्तु जिसके पास अपनी आवश्यकता पूर्ति के अहंकार या एहसान का कारण बना रहता है। इसलिए दान के
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