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। इतिहास की अमर बेल
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रहे थे।
विचारों में लीन होने के लिए जप किया जाता है। जप के निष्काम महाराजश्री ने कहा कि इस प्रकार ज्ञानियों को ज्ञान का अभिमान और सकाम ये दो भेद हैं। किसी कामना व सिद्धि के लिए इष्टदेव | करना योग्य नहीं है। यदि उन्हें शास्त्रार्थ करना है तो मैं प्रस्तुत हूँ। का जप करना सकाम जप है और बिना कामना के एकान्त निर्जरा
शिष्यों ने राजेन्द्रसूरि जी की ओर से क्षमायाचना की और के लिए जप करना निष्काम-जप है। जप के भाष्यजप, उपांशुजप और
कभी भी किसी सन्त का अपमान न करेंगे ऐसी प्रतिज्ञा ग्रहण की। मानसजप ये तीन प्रकार हैं। सर्वप्रथम भाष्यजप करना चाहिए, उसके
। महाराजश्री ने कहा-सूरिजी ठीक हो चुके हैं। आप पुनः सहर्ष जा पश्चात् उपांशु और उसके पश्चात् मानसजप करना चाहिए। ज्येष्ठ ।
सकते हैं। शिष्यों ने ज्यों ही जाकर देखा त्यों ही सूरि जी की उल्टी मुनि रात्रि के प्रथम प्रहर में प्रतिक्रमण आदि आवश्यक कार्यों से
और दस्ते बन्द हो चुकी थीं और वे कुछ स्वस्थता का अनुभव कर निवृत्त होकर जिस समय उपाश्रय में लोग बैठे रहते थे उस समय वे सो जाते थे और ज्यों ही लोग चले जाते त्यों ही एकान्त शान्त स्थान पर खड़े होकर जप की साधना करते थे और प्रातःकाल जब लोग एक बार आपश्री जालोर विराज रहे थे। प्रवचन के पश्चात् आते तो पुनः सो जाते थे। इस प्रकार उनकी साधना गुप्त रूप से । आपश्री स्वयं भिक्षा के लिए जाते थे। ज्यों ही आप स्थानक से चलती थी। लोग उन्हें आलसी समझते थे, किन्तु वे अन्तरंग में बहुत निकलते त्यों ही प्रतिदिन एक वकील सामने मिलता जिसके मन में ही जागरूक थे। स्वाध्याय और जप की साधना से उन्हें वचनसिद्धि साम्प्रदायकि भावना के कारण आपके प्रति अत्यधिक घृणा की हो गयी थी। अतः लोग उन्हें पंचम आरे के केवली कहते थे।
भावना थी। महाराजश्री ज्यों ही आगे निकलते त्यों ही वह अपने एक बार आपश्री आहोर से विहार कर वादनवाड़ी पधार रहे
पैर के जूते निकालकर अपशकुन के निवारणार्थ उसे पत्थर पर थे। रास्ते में उस समय के प्रकाण्ड पण्डित विजयराजेन्द्र सूरिजी
तीन बार प्रहार करता था। प्रतिदिन का यही क्रम था। एक दिन अपने शिष्यों के साथ आपसे मिले। आपश्री ने स्नेह-सौजन्यता के
किसी सज्जन ने गुरुदेव को बताया कि वह प्रतिदिन इस प्रकार का
कार्य करता है। साथ वार्तालाप किया। राजेन्द्रसूरिजी ने अहंकार के साथ कहा कि आप मेरे से शास्त्रार्थ करें। आपश्री ने कहा-आचार्यजी! शास्त्रार्थ से महाराजश्री ने उसे समझाने की दृष्टि से दूसरे दिन मुड़कर कुछ भी लाभ नहीं है। न आप अपनी मान्यता छोड़ेंगे, और न मैं देखा तो वह पत्थर पर जूते का प्रहार कर रहा था। महाराजश्री ने अपनी मान्यता छोडूंगा। फिर निरर्थक शास्त्रार्थ कर शक्ति का । मधुर मुस्कान बिखेरते हुए कहा-वकील साहब, यह क्या कर रहे अपव्यय क्यों किया जाए? शास्त्रार्थ में राग-द्वेष की वृद्धि होती है, हैं ? आप जैसे समझदार बुद्धिमान व्यक्तियों को इस प्रकार सन्तों से किन्तु अन्य कुछ भी लाभ नहीं होता। अतः आप अपनी साधना करें
नफरत करना उचित नहीं है। सन्त तो मंगलस्वरूप होते हैं। उनका और मैं अपनी साधना करूँ, इसी में लाभ है।
दर्शन जीवन में आनन्द प्रदान करता है। राजेन्द्रसूरिजी ने जरा उपहास करते हुए कहा-ये ढूंढ़िया पढ़ा
वकील साहब ने मुँह को मटकाते हुए कहा-आपके जैसों को हम हआ नहीं है। लगता है, मुर्खराज शिरोमणि है। इसीलिए शास्त्रार्थ से । सन्त थोड़े ही मानते हैं। ऐसे तो बहुत नामधारी साधु फिरते रहते हैं। कतराता है। राजेन्द्रसूरिजी के सभी शिष्य खिलखला कर हँस पड़े। । महाराजश्री ने कहा-आपका यह भ्रम है। सन्त किसी भी __महाराजश्री ने उसी शान्तमुद्रा में कहा-अभी इतनी शास्त्रार्थ की । सम्प्रदाय में हो सकते हैं। किसी एक सम्प्रदाय का ही ठेका नहीं है। जल्दी क्यों कर रहे हो? कल ही आपका शास्त्रार्थ हो जाएगा। यह
सन्तों का अपमान करना उचित नहीं है। एक सन्त का अपमान कहकर महाराजश्री अपने लक्ष्य की ओर चल दिये और राजेन्द्र
। सभी सन्त समाज का अपमान है। अतः आपको विवेक रखने की सूरिजी भी आहोर पहुँच गये। आहोर पहुँचते ही दस्त और उलटिएँ
आवश्यकता है। प्रारम्भ हो गयीं। वैद्य और डाक्टरों से उपचार कराया गया किन्तु वकील साहब ने कहा-ऐसे तीन सौ छप्पन सन्त देखे हैं। कुछ भी लाभ नहीं हुआ। इतनी अधिक दस्त और उलटी हुई कि
महाराजश्री ने कहा-यहाँ पत्थर पर जूते क्यों मारते हैं? सिर राजेन्द्रसूरिजी बेहोश हो गये। सारा समाज उनकी यह स्थिति
पर ही जूते पड़ जायेंगे। यों कहकर महाराजश्री आगे बढ़ गये और देखकर घबरा गया। जरा-सा होश आने पर उन्हें ध्यान आया कि
वकील साहब कोर्ट में पहुँचे। वकील साहब के प्रति गलतफहमी हो मैंने अभिमान के वश उस अध्यात्मयोगी सन्त का जो अपमान
जाने के कारण न्यायाधीश ने आज्ञा दी कि वकील साहब के सिर किया उसके फलस्वरूप ही मेरी यह दयनीय स्थिति हुई है। उन्होंने
पर इक्कीस जूते लगाकर पूजा की जाय। उसी समय अपने प्रधान शिष्य विजय धनचन्द्रजी सूरि को बुलाकर कहा-तुम अभी स्वयं वादनवाड़ी जाओ और मुनि ज्येष्ठमल जी
वकील साहब अपनी सफाई पेश करना चाहते थे, पर कोई महाराज से मेरी ओर से क्षमायाचना करो। मुझे नहीं पता था कि सुनवाई नहीं हुई और जूतों से उनकी पिटाई हो गयी। वह इतना चमत्कारी महापुरुष है। यदि तुमने विलम्ब किया तो मेरे उस दिन से वकील साहब किसी भी सन्त का अपमान करना प्राण ही संकट में पड़ जायेंगे। राजेन्द्रसूरि के आदेश को शिरोधार्य । भूल गये और महाराजश्री के परम भक्त बन गये। इसको कहते हैं कर शिष्य वादनवाड़ी पहुंचे और महाराजश्री से क्षमाप्रार्थना की।
1 'चमत्कार को नमस्कार।'
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