________________
१६६
डिंगल भाषाशैली निबद्ध काव्य
श्रद्धा सुमन
-प्रवर्तक श्री रूपमुनि 'रजत'
त्राम्बा सुत रिपुता गुरु, ता भुख का असवार । ता जननी पियु आभरण, ता भुख सुत जुहार ॥ सवैया
पुष्कर-पुष्कर टैरत है हम, मुख कानन भान न बात सुने न, वरुनी से गोन कियो तुम ता दिनसे, दिन ही या कुल कान रहो न रहो परि-देव-तो
से भीन लही सु नही। धुनि जो वहि सो बही ॥ दिन याद नई रु नहीं । टेक ग्रही रूग्रही ॥
प्रेम जहर लागी लहर, कहै दशा जिम जाय । व्याध मिटे जनभक्त की, पुष्कर गुरु मिल जाय ॥ वैन सदा पुष्कर उच्चारत, नैन पुष्कर-गुरु दर्शाये । रैन पुष्कर विन दुर्भर सदा, सैन पुष्कर बिना न सुहावे ॥ चाह पुष्कर की याद रहे नित, 'देवेन्द्र' शिष्य को जी ललचावे ॥ रोम ही रोम " पुष्कर" रमें रजत-कौउ आय-गुरु राज मिलावे ॥
तान दिन संत जपंत, जादिन से विछुहा भयो।
याद न चुकत चिंत, गुरु पुष्कर गये धाम में
सवैया
नैन उसास हियो भर आवत, वासर एसे किते भरिये। ले फिरियाद कहाँ फरिये मन, लाय लगे सो किसे लरिये ॥ जाय किघो गिरिये गिरितुंगन, खाय किधो विष को मरिये । रूप कहै उपचार बताओ मुनी, अंतहुं-पुष्कर कहा करिये ॥ या पलही पलही तलफे तन तोबिन तोबिन के झप जैसे,
Jain, Education International,
पंथ थके सुमनोरथ के मुख, जोत मनो शशी सुरडदेसे ॥ ज्वाल कराल जगी उर भीतर, कौलो निभाव बने अब कैसे। मुनि पुष्कर - विनु “रूप” करे अब क्यों करिये भरिये दिन ऐसे ॥ पुष्कर-ध्यान लगो घट भीतर-तजेन चित्तर रूप का ही कोउ दिनों पल एक बन्यौ सोउ, जान नहीं गुजरीसु जबेही ॥ होन को कौन मिटावन हैं, ऐसी लही है निशानी सबै ही ।।
परमानन्द पुष्करमुनि सर्व विषय कल्लोल । संयम अनुभवते सदा आनन्द लह्यो अमोल ॥ अखंडित पंडित भोअनुप, शास्त्रनको सुगाल कसोटी थी कविता तणो, उपाध्याय टकशाल ॥
वाई ..
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ
कोटि-कोटि वन्दन- अभिनन्दन
जिनके पावन पद रज से,
धरती का कण कण महका था।
वचन पुष्प पराग झरा तो,
जन जन का मन खनका था । तीर्थराज पुष्कर माना
स्वयं मूर्त रूप पाया, उपाध्याय पुष्कर मुनि जी से जिनशासन गौरव चमका था ॥ १ ॥
10.0.0.0.
For Private & Personal Use Only
-श्री सौभाग्य मुनि जी म. "कुमुद" ( श्रमण संघीय महामंत्री )
तारा गुरु के नयन सितारे माँ भारती के नन्दन
सहमी धरा गगन हतः प्रभ था लहर पवन की रोई थी
वीर जयन्ती भी आई पर
उसकी खुशियां धोई थीं लाखों लाखों आँखों की आशा खोई खोई थी उपाध्याय जी की काया जब अग्नि शय्या पर सोई थी ॥२॥
ब्रह्म कुलावतंश ज्ञान के सजे सजाये शुभ स्पन्दन तुम गये भक्तों के मन में जगा गये करुणा क्रन्दन जय देवेन्द्राचार्य निर्माता
कोटि-कोटि वन्दन- अभिनन्दन ॥३॥
www.jainelibrary.org