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जन-मंगल धर्म के चार चरण
लोगों का लालच निरन्तर बढ़ता ही जायेगा और एक दिन दुनियां के सामने अत्यन्त विकट स्थिति आ जायेगी। वे कहा करते थे"लोगों के भरण-पोषण के लिए धरती माता के पास पर्याप्त भण्डार है, किन्तु उनके लालच को पूरा करने की क्षमता उसमें नहीं है।" दुर्भाग्य से वही स्थिति हमारे सामने आ गई है। आज हम पृथ्वी का इतना दोहन और निम्नीकरण कर रहे हैं कि उसकी संभरण क्षमता के चुक जाने की नौबत आ रही है। पन्द्रहवीं शताब्दी में कश्मीर के एक फकीर नुन्द ऋषि (नूरुद्दीन शेख) ने अद्भुत बात कही थी कि जब तक जंगल रहेंगे, तब तक कोई भूखों नहीं मरेगा। लेकिन हम वनों और वन्य जीवों का तेजी से सफाया करते जा रहे हैं और समग्र पर्यावरण को विषाक्त बना रहे हैं। भारतीय मनीषियों ने तो इस तथ्य के मर्म को सहस्रों वर्ष पहले ही गहराई से समझ लिया था। तभी तो उन्होंने अपने आराध्य देवी-देवताओं, अवतारों, तीर्थंकरों आदि के साथ किसी न किसी वनस्पति अथवा प्राणी को जोड़ दिया था, ताकि जन साधारण उनका विनाश नहीं करें; किन्तु अपने आपको धर्म-परायण कहने वाले अधिकांश लोग इस महत्वपूर्ण पक्ष पर तनिक भी विचार नहीं करते।
अगर हमें पृथ्वी पर अपना और अन्य जीव-जन्तुओं का अस्तित्व बनाये रखना है तो दृढ़ संकल्प के साथ मानव समाज को अपनी जीवन-पद्धति में प्रबल परिवर्तन लाना पड़ेगा। यह बात कहने में बड़ी सरल प्रतीत होती है किन्तु लोगों की जड़-प्रवृत्ति, निहित स्वार्थों के विरोध एवं अन्य व्यावहारिक कठिनाइयों को देखते हुए इसे मूर्त रूप देना अत्यन्त दुष्कर कार्य है। भारतीय समाज को भी इस सन्दर्भ में अपनी उदात्त विश्व-दृष्टि के अनुरूप सामूहिक चेतना उत्पन्न करनी होगी तथा एक जुट होकर पर्यावरण की रक्षा में कार्यरत होना होगा। इस दृष्टि से सारा परिदृश्य बड़ा निराशाजनक है। हम लोग न तो अपनी आध्यात्मिक विरासत के प्रति आस्थावान हैं और न वैज्ञानिक ज्ञान और सिद्धान्तों के प्रति सच्चे हैं। अगर ऐसा होता तो क्या हम हमारे महान् पूर्वजों के "वसुधैव कुटुम्बकम्" सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह तथा सभी जीवों के प्रति करुणाभाव के सिद्धान्तों को ताक में रखकर केवल प्रतीकों की पूजा-अर्चना करते हुए धर्म के गीण पक्षों पर जोर देते रहते और धर्म के विपरीत आचरण करते रहते? पर्यावरण के प्रदूषण को कम करना तथा उसके परिरक्षण का माहौल तैयार करना किसी एक व्यक्ति या देश के बस की बात नहीं है। यह एक विश्व-स्तरीय समस्या है जिसके लिए प्रयास भी विश्व-स्तरीय ही होना आवश्यक हैं। इस दिशा में कदम उठ चुके हैं और इस यज्ञ को सफल बनाने हेतु सबको कदम मिलाकर चलना पड़ेगा। इस दृष्टि से हमारे देश में प्राथमिकता के आधार पर जो ठोस कदम उठने चाहिए, उनमें से कुछ इस प्रकार हैं :
१. सर्व प्रथम हमें जनसंख्या पर प्रभावशाली नियंत्रण करना पड़ेगा। इस क्षेत्र में पश्चिमी देश हमसे बहुत आगे हैं।
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निरन्तर बढ़ती हुई जनसंख्या विकासशील देशों के लिए बहुत बड़ी चुनौती है।
२. हमें हमारी लालसाओं और लोभ-लालच पर अंकुश लगाना पड़ेगा। ये अपार विलासिता के आधार हैं, जिसके कारण पर्यावरण विशेष रूप से प्रदूषित हो रहा है। यहाँ अपरिग्रह एवं आर्थिक समानता की सच्ची भावना बहुत कारगर सिद्ध हो सकती है। इस क्षेत्र में विकसित देश विकास के नाम पर मानवता के प्रति अक्षम्य अपराध के भागी हैं। उन देशों में संसार की मुश्किल से एक चौथाई आबादी बसती है; किन्तु विकासशील देशों की अपेक्षा पर्यावरण को प्रदूषित करने में उनका योगदान तीन चौथाई है। विकसित देशों ने इस सन्दर्भ में विकास और पर्यावरण को विवाद का विषय बना दिया है। आजकल विकसित देश विकासशील देशों को यह सीख दे रहे हैं कि वे विकास की गति को धीमा करें, जबकि विकसित देशों को अपनी विलासिता में प्रबल कमी करके कल-कारखानों और वाहनों की संख्या में भारी कमी करने तथा खनन कार्यों को प्रायः बन्द करने की तत्काल आवश्यकता है। इसी तरह यद्यपि विकासशील देशों को जनता की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अभी विकास के कार्यक्रमों को आगे बढ़ाना है, तथापि भविष्य को ध्यान में रखते हुए उन कार्यक्रमों को इस तरह नियोजित करना पड़ेगा जिससे प्रदूषण के कारण पर्यावरण अपने पुनरुद्धार की क्षमता नहीं खो बैठे।
३. हमें अपने वनों का परिरक्षण एवं पुनर्जनन करना होगा। एक स्वच्छ एवं स्वस्थ पर्यावरण के लिए धरती के एक तिहाई भू-भाग यानी ३३ प्रतिशत भूमि पर वन होने चाहिए। इस मानदण्ड के अनुसार स्थिति बहुत निराशाजनक है। आजकल विश्व में वन १६-१७ प्रतिशत और भारत में ९-१० प्रतिशत के आस-पास आ पहुँचे हैं। वनों पर जैव-विविधता, जलवायु तथा भूमि की उर्वरता निर्भर करती है। अतः जन-जन के बीच "वृक्ष लगाओ-वृक्ष बचाओ," "जब तक जंगल, तब तक मंगल", "पंचवटी में राम मिलेंगे, पहले वृक्ष पाँच लगाओ" - जैसे मंत्र फूँकने पड़ेंगे। प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिदिन औसतन १५ किग्रा ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है, जो सामान्यतया पांच वृक्षों से प्राप्त होती है। पाँच वृक्ष लगाने के पीछे यही मर्म है। सघन वनों के बीच ही पृथ्वी पर जीवों के अस्तित्व की कुंजी बसती है।
४. समग्र मानव समाज को एक ऐसी नवीन जीवन-पद्धति के आधार पर पुनर्गठित करने की आवश्यकता है, जिसके अधिकाधिक कार्य-कलाप सौर ऊर्जा से निष्पादित हो सकें ताकि खनिज ईंधन का उपयोग उत्तरोत्तर कम होता चला जाए।
ये कुछ बिन्दु हैं जो पर्यावरण परिरक्षण की दिशा निर्देशित करते हैं। पृथ्वी पर मनुष्य समेत समस्त जीव-जगत् के अस्तित्व को बनाये रखने के लिए पर्यावरण को प्रदूषण से बचाना अपरिहार्य
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