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। इतिहास की अमर बेल
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आपश्री को योग्यतम समझकर आचार्यश्री अमरसिंहजी महाराज ने नाम विजयचन्द जी भण्डारी और माता का नाम याजूबाई था। आपको अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। आपश्री ने राजस्थान के | आपके पूज्य पिताश्री और मातेश्वरी दोनों ही सात्विक प्रकृति विविध अंचलों में विचरण कर स्थानकवासी धर्म की अत्यधिक | के धनी थे। दोनों में धर्म के प्रति गहरी निष्ठा थी। संसार में रह प्रभावना की। सैकड़ों, व्यक्तियों को श्रावकधर्म प्रदान किया और । करके भी जल कमलवत् वे निर्लिप्त थे। यही कारण है कि अनेकों को श्रमणधर्म में दीक्षित किया। अन्त में जोधपुर में माता-पिता के सुसंस्कार पुत्र पर भी गिरे और उसके जीवन में भी वृद्धावस्था के कारण कुछ दिनों तक स्थानापन्न विराजे और त्याग-वैराग्य के फूल महकने लगे। आचार्यप्रवर तुलसीदासजी पैंतालीस दिन का संथारा कर वि. सं. १८३० के भाद्रपद शुक्ला महाराज विविध स्थानों पर धर्म की ज्योति जागृत करते हुए जब सप्तमी को आप स्वर्गस्थ हुए।
मारवाड़ पधारे तब आचार्यश्री के त्याग-वैराग्य से छलछलाते हुए
प्रवचनों को सुनकर अपनी मातेश्वरी याजूबाई तथा भगिनी के साथ आपश्री बहुत ही प्रभावशाली और तेजस्वी आचार्य थे। आचार्य
आचार्यप्रवर के सान्निध्य में वि. सं. १८१८ की चैत्र शुक्ला सम्राट् श्री अमरसिंहजी महाराज के शिष्यों में आप अग्रगण्य थे।
ग्यारस सोमवार को आपने आहती दीक्षा ग्रहण की। आचार्यश्री आचार्यप्रवर जीवन के अन्तिम क्षणों तक जाग्रत रहे। जाग्रत मृत्यु
के सान्निध्य में रहकर आगम का गहराई से अध्ययन किया। विशिष्ट साधकों को ही उपलब्ध होती है जो उनके तेजस्वी जीवन
आपकी प्रवचन-कला बहुत ही चित्ताकर्षक थी, जो श्रोताओं के दिल की प्रतीक है। उनका जीवन युग-युग तक विश्व को प्रेरणा प्रदान
और दिमाग को आकर्षित कर लेती थी। आपने मेवाड़, मारवाड़ करता रहेगा।
और मध्य प्रदेश में परिभ्रमण कर हजारों भव्य प्राणियों को
प्रतिबोध प्रदान किया। आचार्यप्रवर तुलसीदासजी महाराज ने आचार्यप्रवर श्री सुजानमलजी महाराज आपको सुयोग्य शिष्य समझकर आचार्य पद प्रदान किया। आपने
अपने आचार्य काल में धर्म की ज्योति जागृत की। अनेकों व्यक्तियों महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने एक रूपक प्रस्तुत किया है कि । ने श्रामण्य प्रव्रज्या ग्रहण कर आपका शिष्यत्व स्वीकार किया। एक बार जलती हुई लकड़ी को निहार कर हरी लकड़ी की आँखों आप जहाँ भी पधारे वहाँ अपने यश सौरभ से जन-जन के मन को में आँसू आ गये। उसके अन्तर्मन की व्यथा इस रूप में व्यक्त हुई- मुग्ध किया। इसमें कितना तेज भरा पड़ा है। अन्धकार बेचारा लज्जा से एक
विहार करते हुए आचार्यश्री किशनगढ़ पधारे। आचार्यश्री के ओर खिसक गया है, चारों ओर ज्योति ही ज्योति जगमगा रही है।।
प्रवचनों में जनता उमड़ पड़ी। किसे ज्ञात था कि आचार्यश्री लघुवय परमात्मा! ऐसा तेज मुझे कब प्राप्त होगा।
में ही संसार से विदा हो जायेंगे। शरीर में व्याधि उत्पन्न होने पर जलते हुए अंगारे ने उत्तर दिया-बहन, चेष्टाविहीन इस व्यर्थ उसके उपचार का प्रयास किया गया। श्रद्धालुगण सेवा में प्रस्तुत थे। वासना से पीड़ित होने में क्या लाभ है? हमें जो कुछ भी प्राप्त हुआ उपचार करने के बावजूद भी व्याधि शैतान की आँत की तरह बढ़ है वह तप करके प्राप्त हुआ है। क्या वह तुम्हारे लिए यों ही टपक रही थी। शरीर एक था, व्याधियाँ अनेक थीं। रोगों ने ऐसे पड़ेगा?
महापुरुष पर आक्रमण किया था। जिसकी वेदना केवल उन्हीं को प्रत्येक आत्मा में दिव्य ज्योति छिपी हुई है। उसे प्रगट करने
ही नहीं अपितु अनगिनत श्रद्धालुओं को वह अभिभूत कर रही थी। के लिए अखण्ड साधना करनी होती है। कवीन्द्र रवीन्द्र की
रोगी वीर सेनानी की भाँति रोगों से जूझ रहा था, किन्तु उसके भाषा में अंगारे ने वही उत्तर दिया है कि बिना तपे कोई
श्रद्धालु उस युद्ध में उसका साथ नहीं दे पा रहे थे। वे आचार्य के ज्योति नहीं बनता और बिना खपे कोई मोती नहीं बनता। ज्योति
प्रति मोह से ग्रसित थे। बनने के लिए स्वयं को तपाना होता है, खपाना होता है। विश्व के अन्त में आचार्यश्री ने देखा मेरा शरीर अब रोगों का घर जितने भी महापुरुष हुए उन्होंने अपने जीवन को साधना की भट्टी बन चुका है, मुझे सावधानी से ही इस शरीर का त्याग करना में तपाकर निखारा है। आचार्यप्रवर श्री सुजानमल जी महाराज का । चाहिए। यदि शरीर ने मुझे छोड़ा, इसमें बहादुरी नहीं है। उन्होंने जीवन ऐसा ही जीवन था। उन्होंने उत्कृष्ट साधना एवं तप की । प्रसन्नता से चतुर्विध संघ की साक्षी से अनशन व्रत ग्रहण किया आराधना कर जीवन को माँजा था और स्वर्ण के समान उसे । और वि. सं. १८४९ की ज्येष्ठ कृष्णा अष्टमी मंगलवार को निखारा था।
स्वर्गस्थ हुए। सुजानमलजी महाराज आचार्यसम्राट श्री अमरसिंह महाराज के युवा आचार्य के स्वर्गवास से समाज ने भारी आघात का तृतीय पट्टधर थे। आप तुलसीदासजी महाराज के शिष्य थे। अनुभव किया। किन्तु क्रूर काल के सामने किसका जोर चला है? आपका जन्म राजस्थान के मारवाड़ ग्राम में विक्रम संवत् १८०४ । आचार्यश्री का भौतिक देह नष्ट हो गया किन्तु वे यशःशरीर आज भाद्रपद कृष्णा चौथ को हुआ था। आपश्री के पूज्य पिताश्री का भी जीवित हैं और भविष्य में सदा जीवित रहेंगे।
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