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मैंने कहा- 'गुरुदेव ! मुझे भी कोई मंत्र अपने मुखारविन्द से प्रदान कीजिये, जिससे जाप में स्थायित्व आएगा, आपश्री द्वारा प्रदत्त मंत्र के जाप से मेरी जाप के प्रति रुचि और श्रद्धा बढ़ेगी।"
गुरुदेव ने एक कागज लिया, और उस पर एक छोटा-सा मंत्र लिख दिया, तथा जाप करने की प्रेरणा भी दी।
मैं विचार करती हूँ, गुरुदेव कितनी उदार प्रवृत्ति के थे। उनके जीवन में न दुराव था, न छिपाव । एकदम स्पष्ट जीवन अकृत्रिम मानस! महापुरुषों की पहचान ही इसी से होती है
"जहा अंतो तहा बाहिं, जहा बाहिं तहा अंतो।"
मृत्युञ्जयी गुरुदेव !
जीवन के अंतिम क्षणों में जब वे अपनी जन्मभूमि नदेिशमा में पधारे तब हम भी जसवन्तगढ़ से नांदेशमा पहुँचे। उस समय उनका स्वास्थ्य बड़ा नरम चल रहा था।
हम गुरुदेव के पास दर्शनार्थ पहुँचे। वंदन नमस्कार करने के बाद मैंने पूछा "गुरुदेव ! अब आपका स्वास्थ्य कैसा है ? सादड़ी के चातुर्मास में आपको हार्ट की बड़ी तकलीफ रही, हमें दूर बैठे ही चिंता करा दी ?"
वे सहज मुस्कुराते हुए कहने लगे- “ चिंता की कोई बात नहीं, सादड़ी में डॉक्टरों ने ऑपरेशन किया, तब सबको चिन्ता हो गई थी, लेकिन अब मुझे कोई तकलीफ नहीं है, बी. पी. भी ठीक है। मैंने अपनी ध्यान-साधना से सब ठीक कर लिया है।"
उनका आत्म-विश्वास से दीप्त चेहरा देखकर मैं दंग रह गई, कि इतनी अस्वस्थ अवस्था में भी गुरुदेव कितने सहज हैं।
उसी दिन रात्रि को अचानक खून की उल्टी, दस्त आदि होने लगे। वेदना की असह्यता से गुरुदेव बेहोश हो गये। उपस्थित सभी संत एवं श्रावक वर्ग घबरा गया। ऐसा लगने लगा, मानो गुरुदेव अभी गये। जैसे चंद मिनटों के मेहमान हों। उदयपुर से भक्त लोग भागे-भागे डॉक्टर को साथ लेकर आये। लेकिन सबेरा होते-होते स्वास्थ्य कुछ सुधरा, सबके जान में जान आई।
हम भी प्रातः ही दर्शन एवं वंदन हेतु पहुँचे, उस समय तो बाहर से ही पू. रमेशमुनि जी म. सा. ने हमें आश्वस्त करते हुए | कहा- 'गुरुदेव इस समय विश्राम कर रहे हैं, कमजोरी अत्यधिक है, वैसे चिंता की कोई बात नहीं।"
दोपहर को हम पुनः गुरुदेव की सेवा में पहुँचे, यद्यपि गुरुदेव की अस्वस्थता और निर्बलता देखते हुए हमें दर्शन की भी उम्मीद नहीं थी, परन्तु जैसे ही हम अंदर गये, गुरुदेव उठकर बैठ गये। हमने वंदन करके सुखसाता पूछी तो उसी गंभीर गिरा में वे बोले"सब ठीक है! आनंद मंगल है।"
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
हमने स्वास्थ्य के बारे में पूछा, तो कहने लगे-"हाँ! रात्रि को थोड़ा उल्टी, दस्त हो गये थे, पर संतों ने संभाल लिया। अब ठीक हूँ।"
हम तो गुरुदेव का चेहरा ही देखते रह गये, इतनी वेदना और अशक्तता में भी गुरुदेव के चेहरे पर उतनी ही प्रसन्नता, उतनी ही सहजता, जैसी पहले दिन थी। मानों, विशेष कुछ हुआ ही नहीं ।
उदयपुर चादर- समारोह में भी प्रतिदिन आपश्री के दर्शनों का लाभ मिलता रहा। उस समय तो ऐसा प्रतीत होने लगा, मानो एक महान् योगीश्वर के दर्शन कर रही हूँ। तन में व्याधि पर मन में गजब की समाधि थी। तन की वेदना मन को छू भी नहीं रही थी। चेहरे पर कोई अकुलाहट नहीं, घबराहट नहीं, सिकुड़न नहीं, दीनता नहीं, किसी की अपेक्षा नहीं, मानों वे कृतकृत्य हो गये हों। न शिष्यों का मोह, न कोई क्षोभ न राग, न द्वेष, एकदम असंपृक्त, एकदम निर्लिप्त, एकदम अनासक्त। वे मानों सबको मृत्यु की कला सिखा रहे हों। मृत्यु में से अमरत्व निकाल रहे हों। मौत का स्वागत कैसे करना चाहिये, यह पहली बार मैंने उनसे सीखा।
गुरुदेव को मेरा नमन ।
ऐसे महान योगी, साधक, संयमी, सदा अप्रमत्त गुरुदेव के चरणों में मैं क्या चढ़ाऊँ? जो चढ़ाना चाहती हूँ, वह मेरे हृदय की वस्तु है हृदय की वस्तु हृदय में ही पड़ी रहे, यही चाहती हूँ।
गुरुदेव ! आपके समस्त शुभ्रगुणों के प्रति मेरा नमन !
" आपका यह विराट् रूप, शब्दों में नहीं समाता। जितना कुछ लिखें मगर, लिखने को शेष रह जाता ॥"
सफल जीवन की निशानी
साध्वी श्री विकासज्योति जी म. (महासती विदुषी श्री शीलकुंवरजी म. की सुशिष्या)
"जिनका जीवन सदा समता की रसधार रहा, जिनका जीवन सदा साधना का द्वार रहा। जिनने जीना सीखा सिखाया सभी को जीनाजो जीवन की अन्तिम श्वासों का संघ का आधार रहा।" पुष्पवाटिका में रंग-बिरंगे फूल खिलते हैं, महकते हैं और अपनी सौरभ को चारों ओर फैलाकर अंत में समाप्त हो जाते हैं, मानव वाटिका में भी अनेक जीवन रूपी पुष्प महकते हैं, अपने पवित्र चरित्र की सौरभ से जन-जन के मन को मुग्ध करते हैं और अंत में संसार से विदा हो जाते हैं किन्तु उनका यश चारों ओर फैला रहता है, वे नहीं रहते किन्तु उनका यश दिग्दिगन्त में व्याप्त
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