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अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
उत्त. ८३/४४ ॥ फिर भी मनुष्य परिग्रह में सुख मानता है। किन्तु मनीषी विद्वान कहते हैं कि 'रोटी, पानी, कपड़ा, घर, आभूषण, स्त्री, सन्तान एवं हन्डियों के इष्ट शब्दादि विषयों की अभिलाषा में व्याकुल बने हुए संसारी जीव स्वस्थता का स्वाद कैसे ले सकते हैं?
प्रथममशन पान प्राप्ति वाच्छादिहस्ता स्तदनु वसनवेश्माऽलङ्कृति व्यग्रचित्ताः । परिणयनमपत्यावाप्ति मिष्टेन्द्रियार्थान्
सततमभिलषन्ताः स्वस्थतां क्वानुवीरन् !! -शान्त सुधारस कारुण्य भावना ।
बाह्याभ्यंतर परिग्रह संसार के समस्त दुःखों से बचाने में असमर्थ है। क्योंकि जो कार्य जिसका नहीं है, वह उस कार्य को कैसे कर सकता है? परिग्रह तो संसार में द्वंद्व कराने वाला है। वह द्वंद्व से मुक्त करने में असक्षम है। तृष्णा के वशीभूत बनी दुनिया 'जर जोरू और जमीन' के लिए अनेकों बार रक्त-रंजित हुई है।
परिग्रह के ऐतिहासिक उदाहरण-जैन इतिहास में मगधेश कौणिक और चेटक का विराद युद्ध प्रसिद्ध है। जिसमें लाखों की सैना का घमासान हुआ। इस भीषण नर संग्राम के पीछे एक ही कारण था- हार और हाथी को हस्तगत करना। मगध सम्राट श्रेणिक के राजपुत्रों में जब राज्य का बटवारा हुआ, तब एक बेशकीमती हार और हरितराज हाथी हल-विहल भाइयों को प्राप्त हुआ। कौणिक की पत्नी ने जब हार हाथी को देखा, तब वह दोनों पर मोहित हो गयी। उसने मगधेश कौणिक से कहा- 'हार हाथी के बिना यह राज्य सूना है।' बस कौणिक के मन में हार हाथी का परिग्रह जाग उठा और जिसका परिणाम लाखों की संख्या में नर-संहार के रूप में आया।
बौद्ध साहित्य में कलिंग युद्ध प्रसिद्ध है जो सम्राट अशोक ने लड़ा था। कलिंग युद्ध राज्य लिप्सा का ही एक उदाहरण है।
महाभारत भी राज्यलिप्सा को प्रस्तुत करता है। रामायण स्त्री परिग्रह का संकेत करती है।
सम्राट औरंगजेब द्वारा अपने पिता शाहजहाँ को कैदखाने में बंद करना और भाइयों का वध करना राज्य परिग्रह का ही तो प्रतिफल है।
सिकन्दर की विकविजय के पीछे धनलिप्सा और जगत सम्राट बनने की भावना ही तो थी।
मगधेश कौणिक ने भी राज्य लोभ से अपने जनक सम्राट श्रेणिक को काराग्रह में बंद कर दिया था।
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कंस ने भी अपने पिता उग्रसेन को इसी राज्यलिप्सा के कारण कारावास में बन्द किया था व स्वयं राज्यसिंहासन पर आसीन हुआ
था ।
और भी ऐसे अनेक उदाहरण इतिहास गगन पर प्राप्त हो सकते हैं। इसी परिग्रह के कारण भाई-भाई में, पिता-पुत्र में, पति-पत्नी में द्वन्द्व होते देखे गए हैं। घर के टुकड़े भी इसी तृष्णा की बढ़ती हुई बाढ़ के कारण होते हैं हरे-भरे घर उजड़ते हुए देखे जा सकते हैं। इस परिग्रह ने क्या नहीं किया? "अर्थमनर्थम भावयनित्यम् ।" विनोबा ने कहा है यह अर्थ अनर्थ की खान है। समस्त पापों का मूल है। या यों कहें कि यही अर्थ या लोभ पाप का बाप है। लोभी व्यक्ति अन्धा ही होता है। उसे अपना भला-बुरा भी दिखाई नहीं देता तो वह देश, समाज व राष्ट्र का क्या उत्थान करेगा ?
अनासक्त-अनिच्छक
अपरिग्रही - परिग्रह की इतनी चर्चा के बाद अब अपरिग्रह पर भी एक दृष्टि निक्षेप करें। आचार्य हेमचन्द्र ने अपने इतिहास प्रसिद्ध ग्रंथ 'त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित' में कहा है सर्वभावेषु मूर्च्छायास्त्यागः स्यादपरिग्रहः । अर्थात् सभी पदार्थों पर से आसक्ति हटा लेना ही अपरिग्रह है।' जहाँ ममत्व / आसक्ति परिग्रह का हेतु है, वहाँ निमर्मत्व / अनासक्ति अपरिग्रह का। ममत्वशील प्राणी संसार में भटकते हैं 'ममाइ लुंपइ वाले।' सूत्र. १-१-१-४। और आचारांग सूत्र में कहा गया है कि 'अधिक मिलने पर भी संग्रह न करे और परिग्रह वृत्ति से अपने को दूर रखे- 'बहुपि लद्धुं न निहे, परिग्गहाओ अप्पाणं अवसक्किज्सा ॥ १-१-५१ परिग्रह कर्म बन्ध/ इन्द्र/संघर्ष का कारण है और अपरिग्रह मुक्ति का ।
मनुष्य को जीवन जीने के लिए, जीवन निर्वाह की साधन सामग्री अवश्य चाहिए। इससे भी इन्कार किया ही नहीं जा सकता है। ऐसे में कुछ परिग्रह की उपस्थित अवश्य हो ही जाती है। अतः क्या करे ? इस प्रश्न का उत्तर देतें हुए विशेषावश्यक सूत्र के भाष्यकार कहते हैं कि गंथोऽगंयो व मओ मुच्छा, मुच्छाहि निच्छयओ। २५७३ 'निश्चय दृष्टि से विश्व की प्रत्येक वस्तु परिग्रह भी है और अपरिग्रह भी । यदि मूर्च्छा है तो परिग्रह है और यदि मूर्च्छा नहीं है तो अपरिग्रह ।' + सूत्रपाहुड में कहा है- 'अप्पगाहा, समुद्दसलिले सचेल अत्थेण - २७ ग्राह्य वस्तु में से भी अल्प (आवश्यकतानुसार) ही ग्रहण करना चाहिए जैसे समुद्र के अथाह जल में से अपने वस्त्र धोने के योग्य अल्प जल ही ग्रहण किया जाता है। ऐसी वृत्ति वाला साधक/मनुष्य अपरिग्रही कहलाता है। आवश्यकतानुसार अपरिग्रह भाव से ग्राह्य वस्तु का ग्रहण अपरिग्रह की कोटि में ही आता है। जैसाकि कहा है-'अपरिग्गहसंकुडेण सोगंमि विहरियव्वं ॥ प्रश्न २/३ 'अपने को अपरिग्रह भावना से संवृत बनाकर लोक में विचरण करना चाहिए।'
अपरिग्रह अर्थात् अनिच्छाभाव का जागरण / अनिच्छा से इच्छा को जीता जा सकता है। और सुख पाया जा सकता है- 'तम्हा
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