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जन-मंगल धर्म के चार चरण
सामिष भोजन करने वाले व्यक्तियों में हिंसा और क्रूरता की प्रवृत्ति अधिक पाई जाती है। गत दिनों ग्वालियर जेल में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार जब कैदियों को सामिष भोजन के स्थान पर निरामिष भोजन दिया गया तो उनके व्यवहार में इस प्रकार का स्पष्ट परिवर्तन पाया गया।
यह एक निर्विवाद तथ्य है कि मनुष्यों और जानवरों के मस्तिष्क में हिंसा की प्रवृत्ति उनके भोजन विशेष के कारण होती। है। सतत रूप से मांस भक्षण एवं मदिरा का सेवन करने वाले मनुष्य का मस्तिष्क हिंसक प्रवृत्ति वाला हो जाता है। इसके विपरीत शाकाहारी मनुष्य स्वभावतः शांत एवं सरल होता है।
मनुष्य प्रकृति से अहिंसक प्राणी होने से शाकाहारी है, तदनुसार ही उसके शरीर और दांतों की रचना आकृति आदि पाई जाती है। मांसाहार के पाचन में सामान्यतः जिन पाचक रसों की आवश्यकता होती है वे हिंसक पशुओं में ही पाए जाते हैं। उनके दांत की बनावट तथा आंतों की लम्बाई भी उसी के अनुसार होती है जिससे वे मांस को चबा और पचा सकें, किन्तु मनुष्य के लिए यह अति कठिन है। खाया हुआ मांस यदि किसी प्रकार पच भी जाय तो उसकी प्रतिक्रिया ऐसी होती है कि जिससे मनुष्य के स्वास्थ्य को हानि पहुँचती है और उसकी जीवनी शक्ति प्रभावित होती है। मनुष्य के शरीर में निर्मित और नवित होने वाले पाचक रस शाकाहार को पचाने की क्षमता रखते हैं। उन पाचक रसों की प्रकृति ऐसी होती है कि वे शाकाहार को ही ठीक तरह से पचा सकते हैं।
विशेषज्ञों ने लोगों से आहार में सामिष पदार्थों को घटाने एवं हरी पत्तियों वाली सब्जियों का अधिकाधिक प्रयोग करने का आग्रह किया। डाक्टरों ने लोगों से यह भी आग्रह किया कि वे जीने के लिए खाएँ, न कि खाने के लिए जिएँ । मात्र स्वाद की दृष्टि से जिका की लोलुपता की वशीभूत होकर ऐसा आहार नहीं लेना चाहिए जो दूसरे प्राणियों को मारकर बनाया गया हो। वस्तुतः यदि देखा जाए तो मांस का तो अपना कोई स्वाद होता ही नहीं है। उसमें जो मसाले, चिकनाई आदि अन्य अनेक क्षेपक द्रव्य मिलाए जाते हैं उनका ही स्वाद होता है, जबकि शाकाहारी पदार्थों फल, सब्जी, मेवे आदि में अपना अलग स्वाद होता है और वे बिना किसी मसाले आदि के स्वाद से खाए जाते हैं।
अमेरिका और इंगलैंड की सरकारों द्वारा इस समय जनता को औपचारिक रूप से यह हिदायत दी जा रही है कि वे भोजन में
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मांस की खपत को कम करें, ताकि उनका स्वास्थ्य अच्छा रहे। डॉ. गुप्ता ने कहा कि मैं पूरे वैज्ञानिक आत्मविश्वास के साथ कह सकता हूँ कि इस समय संसार में व्याप्त भुखमरी का एक प्रमुख कारण योजनावद्ध मांसाहार है। इसके तर्क में उन्होंने कहा कि योजनाबद्ध मांसाहार का तात्पर्य एक ऐसी कृषि खाद्य प्रणाली से है। जिसमें खेतों में कुछ अनाजों का उत्पादन सिर्फ इसलिए किया जाता है कि वह अनाज जानवरों को खिलाया जाय ताकि उनका मौस अधिक कोमल और स्वादिष्ट हो।
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समय-समय पर आयोजित विभिन्न गोष्ठियों में इस सम्बन्ध में आश्चर्यजनक आंकड़े भी प्रस्तुत किए गए हैं। उन आंकड़ों के अनुसार अमेरिका और कनाडा में उत्पन्न होने वाले गेहूँ का केवल ३०वां भाग ही मनुष्य के आहार के लिए प्रयुक्त होता है। इन देशों में प्रतिवर्ष प्रति व्यक्ति एक हजार किलोग्राम गेहूँ की खपत है। जिसमें से मनुष्य केवल ३०-४० किलोग्राम गेहूँ खाते हैं और शेष ६०-७० किलोग्राम गेहूँ गायों, सूअरों आदि को खिलाया जाता है, ताकि वे पुष्ट हो सकें और उनसे अधिक और अच्छा मांस मिल सके। यह एक तथ्य है कि संसार की विशाल जनसंख्या के बावजूद विश्व में इतना अनाज पैदा होता है कि प्रत्येक मनुष्य का पेट भर सके।
पर्यावरण की दृष्टि से भी यदि शाकाहार और मांसाहार की उपयोगिता पर विचार किया जाय तो स्वतः यह तथ्य सामने आता है कि पशुओं का जीवन वनों के संरक्षण और संवर्धन के लिए अनिवार्य है। इसलिए यदि अपनी स्वाद लोलुपता और आहार के लिए पशुओं को मारकर उनका जीवन समाप्त किया जाता है और वनों को पशु विहीन बना दिया जाता है तो इसका सीधा प्रभाव वनों पर पड़ेगा। क्योंकि पशु जीवन समाप्त होने से वनों से पशुओं की संख्या घटेगी जिससे वनों का ह्रास होगा और हम बहुत बड़ी वन सम्पदा और उससे प्राप्त होने वाले लाभों से वंचित हो जायेंगे। क्योंकि वनों के ह्रास का अर्थ है बंजर जमीन में वृद्धि तथा कृषि उत्पादन में कमी होना सामिष भोजन के अधिक प्रयोग से परोक्ष रूप से कृषि उत्पादन के घटने की संभावना रहती है।
पता :
आचार्य राजकुमार जैन
'भारतीय चिकित्सा केन्द्रीय परिषद्
ई / ६, स्वामी रामतीर्थ नगर
नई दिल्ली ११००५५
जीवन में कभी ऐसे भी क्षण आते हैं जब मनुष्य पतित से पावन और दुष्ट से सन्त बन जाता है।
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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