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पं. श्री मुक्तिविमलजी जैन ग्रन्थमाला ग्रन्थाङ्क - ९
जगत्पूज्य क्रियोद्धारक सूरिपुरन्दर श्रीमद् ज्ञानविमलसूरिविरचितवृज्युपेतम्
प्रश्नव्याकरणसूत्रम्
[ द्वितीयः खण्डः ]
सकल सिद्धांत वाचस्पति - बालब्रह्मचारी - अनेक संस्कृतग्रन्थ प्रणेता - श्रीमद् पंन्यासप्रवरमुक्तिविमलगणिवरान्तेवासि - विद्वद्वर्य - व्याख्यानवाचस्पति कविदिवाकर - श्रीमद् पंन्यास रक्ङ्गविमलगणिवरोपदेशेन प्रकाशक : श्री मुक्तिविमलजी जैन ग्रन्थमाला व्यवस्थापकः शांतिलाल हरगोविन्ददासः संपादक :- पंडित मफतलाल झवेरचंद्र
विक्रम सं. १९९५
मुक्ति संवत २१
ज्ञान सं. २१३
पण्यं २-१२-०
वीर संवत २४६५
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प्राप्तिस्थान शाह शांतिलाल हरगोवनदास ठे. देवीशाहनो पाटो अमदावाद
प्राप्तिस्थान पंडित मफतलाल प्रवेरचंद ठे, खेतरपाळनी पोळ अमदावाद
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मुद्रका शारदामुद्रणालय जैन सोसायटी अमदावाद.
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पूज्यपाद व्याख्यानवाचस्पति विद्वद्वर्य
कविदिवाकर पं. श्रीमत्
[स्तुतिः]
रंगविमलजीगणिवर
सशास्त्रार्थविमर्शनार्जितशूचिज्ञानप्रदीपाचिपाः मिथ्याज्ञानघनान्धकारनिवहं चिच्छेद
चित्तस्थितम् ।। सत्कार्यजिनशासनोन्नतिकरो व्याख्यान
वाचस्पति जर्जीयाद् भूरिसमाः सुरंगविमलो ज्ञानप्रदः
सद्गुरुः ॥१॥
जन्म सं. १९४० आसो सुदी १० आहोर
[मारवाड] दीक्षा सं. १९६६ कारतक बदी ६ पालीताणा गणिपद सं. १९८४ मागशर सुद ३ विजापुर पंन्यासपद सं. १९८४ मागशर वदी ६ विजापुर
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समपेण परमपूज्य, धर्मधुरंधर, जैनशासन नभोनभोमणि, सुविहितसाधु शिरोमणि, जैनागम परिशीलनशाली, सद्धर्मोपदेष्टा, विद्वज्जनवृंदवंदनीय, आबाळब्रह्मचारी, व्याख्यानवाचस्पति कवि दिवाकर, परमकृपालु गुरुदेव अनुयोगाचार्य श्री १००८ श्री पंन्यासप्रवर श्रीमद्
रंगविमलजी महाराज साहेबना करकमलमां आपश्रीनी प्रेरणा उपदेश अने लागणीथी आ महामूल्य ग्रंथरत्न प्रकाश पामे छे ते प्रश्नव्याकरणांग ग्रंथना प्रतिपादित विषयरूप पंचाश्रवत्यागी अने पंचसंवरने जीवनमा एकमेक करनार, एवा दीर्घ तपस्वी शास्त्रविशारद आप महापुरुष मारा परमतारक गुरुदेवने आ ग्रंथ समपी कृतार्थ थाउं छु
एज भवदीय लघु शिष्य कनकना कोटि वंदन.
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प्रश्न०
२
परमपूज्य शास्त्रविशारद् शासनसम्राद् महान् क्रियोद्धारक तपागच्छाधिपति जगत्पूज्य सूरिपुरन्दर ज्ञानविमलसूरीश्वरस्तुत्यष्टकम् ।
सदाचारप्रख्यं विहितजनसख्यं सुमनसम् । क्रियोद्वारे दक्षं समवहितलक्ष्यं प्रभुपदे । अमोघैः सद्बोधैः प्रशमितभविव्रात विपदम् । नमामि ज्ञानाब्धिं गुरुवरमहं ज्ञानविमलम् ॥ १ ॥ प्रलिप्ताः पापौघैः सुकृतचयहीनाः प्रतिपदम् । समुद्विग्ना भूव्यिसनशतकीर्णा भविजनाः । सुधां योधाख्यां सपदि परिपीय प्रवत्रजुः । नमामि ज्ञानाब्धिं गुरुवरमहं ज्ञानविमलम् ॥ २ ॥ प्रणीय प्राक्कर्मप्रदहनपटून् संस्कृतमया - ननेकान् सद्ग्रन्थान् स्थिरतरधिया ज्ञानजटिलान् । जिनप्रोक्तानर्थान् जननिकरसंज्ञापनपरम् । नमामि ज्ञानाब्धिं गुरुवरमहं ज्ञानविमलम् ॥ ३ ॥ तपस्तप्त्वा तीव्रं कठिनतरकर्मद्रुपरशुः । सितध्यानैः साक्षात्कृतपरतरज्योतिषपरम् । सदा सिद्धान्तानां प्रकटितसुतत्त्वगुरुतरम् । नमामि ज्ञानाब्धिं गुरुवरमहं ज्ञानविमलम् ॥ ४॥ विधाय द्राकर्मप्रलयमतुलातिं प्रददतम् । विधाय प्राज्यासद्गतिगमनदानज्ञत्ति॑िवहान् । निधाय स्वान्ताब्जे प्रभुचरणपद्मं सुविमलम् । नमामि ज्ञानाब्धिं गुरुवरमहं ज्ञानविमलम् ॥५॥
व्याक०
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ज्वलन्तं क्रोधाग्निप्रशमनरसोत्सारितशिखम् । दृढं कामं ब्रह्मव्रतधृतिसमुन्मूलितबलम् । परां मायां दूरं झटिति प्रविधाय व्रतधरम् । नमामि ज्ञानाब्धिं गुरुवरमहं ज्ञानविमलम् ॥६॥ विशुद्धश्रामण्यक्षपितनिखिलाहः समुदयम् । गुरूपास्ति सम्यक् सुकृतततिं लभ्यां विदधतम् । समीचीनज्ञानैः प्रविलयितमोहान्धतमसम् । नमामि ज्ञानाब्धि गुरुवरमहं ज्ञानविमलम ॥७॥ मदौजस्कं वीरप्रभुसमुपदिष्टार्थनिपुणम् । भवाब्धी निर्ममान् दुरितकलितान् तारणपरम् । कषायैर्निर्मुक्तं मतिसुकृतिगाम्भीर्यसदनम् । नमामि ज्ञानाब्धि गुरुवरमहं ज्ञानविमलम् ॥८॥ संवद्वहिनवद्वयाब्जसमिते मासे शुभे कार्तिके। तत्पक्षे धवले तिथौ प्रतिपदि वारे शुभे भास्करे । स्तोत्रं भक्तिभरण रंगविमलनैतन्मुदा निर्मितम् ।जीयादत्र महीतलेऽतिविपुले यावत्सुधोपांशुको।
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मन
प्रश्नव्याकरण बीजोभाग पाववामांबार्मिक सहाय आपनारसग्रहस्थोनीयादीर ११७) मालवाडाना यो सरकथी शा. हजारीमलजी
नागजीमा 1 १३८) पूरण गामना पंचो तरफथी क ५१) शा. साराचंद मोतीजी गामडीया-बागाम क ५०) शा. मोतीजी कसेनाजी रु १५) शा. कानरुपजी धरमाजी। रु १३) शा. देवाजी तलकाजीनां बहु
जीवीबाइ तरफथी रु ११) शा. परखाजी दोलाजी
३) शेठ तलकाजी हीराजी रु ६०) परचुरण सद्गृहस्थो तरफथी
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प्रस्तावना
ज्ञान, दर्शन अमे चारिवना उच्च आदर्श शोभता जैनदर्शनमां ज्ञान या अंगप्रधोनुं जेतुं स्थान छे. तीर्थंकर 'भगवंतो तीर्थने स्थापे छे ते तीर्थमां द्वादशांगी तीर्थसम मनाय के, ने तेनुं अस्तित्व न होय तो तीर्थनो अभाव मनाय. अर्थात् जैनदर्शनना आत्मा समान भागम अंथो छे, ने ते आगमपंथाने अनुलक्षी जैनदर्शनना बीजा तमाम साहित्यनो विकास भने परिवर्धन थम के.
आ अंग बार छे. तेमां दृष्टिवाद घणां वर्षों थयां नाश पाम्युं होवाथी अगियार अंगो विद्यमान के तेमां प्रश्नव्याकरण दसमुं अंग तरीके प्रसिद्ध छे.
ग्रन्धनुं नाम
आ प्रन्धनुं नाम प्रश्नव्याकरण सूत्र छे, या प्रश्नव्याकरण दशा छे. आ मन्नेनो अर्थ प्रश्नव्याकरणनी विधमान बने वृत्तिओ जणाक्तां छे के मां प्रश्नो अंगुष्ठ वियेरे विद्या प्रश्नोनुं वर्णन होय ते प्रश्नव्याकरण अने कोइक ठेकाणे आ प्रन्थनुं नाम प्रश्नव्याकरण दशा छे तेनो मां विद्याभने प्रतिपादन करनारां दश अध्ययनो ग्रन्थनी पद्धतिओ छे ते प्रश्नव्याकरण दशा. परंतु उपर जणावेल बन्ने रीतिना अर्थ आजे विद्यमान प्रश्नव्याकरण प्रन्थमां उपलब्ध नभी. आजे तो प्रश्नव्याकरण मुदित छे तेमां अने आ छपाइ तैयार बती प्रतिमां जे दश अध्ययनो छे. ते वरेकमां पांच आश्रवद्वार भने संवारनं विवेचन के. हिंस्स मृषा चोरी अब्रा अनं परिग्रह ए पांच आश्रम. अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य अने अतित्वे तिल्यं रमणारे
१.ति
संबो
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प्रश्न
.
अपरिग्रह ए पांच संवर मळी कुल दस विषयोने दस अध्ययनोमा खुब विस्तृत रौते प्रतिपादन कया छे. तो पण आ ग्रन्थमा 'प्रथम विधाओर्नु व्याक० प्रतिपादन हुतुं ते वातनो स्वीकार वृत्तिकार सूरिपुरंदर श्रीमद् अभयदेवसूरि महाराज करी हाल पांच आश्रव अमे पांच संवरना प्रतिपादननो कइ रीते संबंध छे ते जोडतां कहे छे के “ विद्याओना प्रतिपादनरुप प्रश्नव्याकरणनो व्युत्पत्ति अर्थ पहेला हतो पण हाल तो पांच आश्रव अने पांच संवरनु प्रतिपादन मळे छे, अथवा तो महाज्ञानी पूर्वाचार्योए आ युगना नजीवा कारणे विद्याओनो उपयोग करनार पुरुषोना स्वभावने जाणी ते विद्याने बदले पंचाश्रव अने पांच संवरनु वर्णन कयु लागे छे."
आ बाबतमा सूरिपुंगव श्रीमद् पू. ज्ञानविमलसूरि महाराज पू. अभयदेवसूरि महाराजे जणावेल प्रश्नव्याकरण प्रश्नव्याकरण दशा अने तेना अर्थने पूर्ण रीते स्वीकार कर्या उपरांत जणावे छे के___आ प्रश्नादि विषाओ पांच आश्रवनो त्याग करी पांच संकर रूप संवममा जीवता महापुरुषोने ज उत्पन्न थइ शके. माटे संयमवाळो ज विद्यावाळो थह शके तेथी संयमना स्वरूप प्रतिपादन ते परिणामे विधाना प्रतिपादनरूप छे.
१. प्रमाः-अंगुष्ठादिप्रभाविद्यास्ता ब्याक्रियन्ते-अमिधीयन्तेऽस्मिचिति प्रमव्याकरणम् क्वचित् 'प्रश्नव्याकरणदशा' इति रक्ष्यते, तत्र प्रश्नानां विद्याविशेषाणां यानि व्याकरणानि तेषां प्रतिपादनपरा दशा-वशाध्ययमप्रतिबद्धाः ग्रंथपद्धतयः इति प्रश्नव्याकरणवशाः [प्रमव्याकरण पृ.१.] अर्थ व्युत्पत्त्यर्थोऽस्य पूर्वकालेऽभूत् इदानीं त्वाश्रवपशकसंवरपशकण्याकतिरेवोपलभ्यते
। २. विशिएसयमवतां क्षयोपशमवशात् प्रमादिविद्यालमवात् ततः संयमवानेव तवान् मतस्तत्स्वरूपमयतारितवान्
शाम वि० पृष्ठ ६.
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अन्थविषय आ ग्रन्थमां श्रीमद् ज्ञानविमळसूरिजीए हेय अने आदेय आ बे तत्वो उपर खुवज विस्तीर्णपणे प्रतिपादन कयु छे. पांच आश्रव हेय छे, अने पांच संवर आदेय छे. आ हेव अने आदेयरूप पांच माश्रव भने संवस्नी उत्पत्तिना कारणो तेनो प्रभाव फळ अमे असर विगैरेन खुब महत्वपूर्ण विवेचन के. साथे साथे जैनदर्शन अने जैनेतरवर्शनोना अनेक अवतरणो मूकी प्रथने खुबज सुस्पष्ट कयों छे.
ग्रंथपकाशन अंगे आजथी प्रण वर्ष पहेला परमपूज्य गुरुवर्य कवि दिवाकर पंन्यास श्रीमद् रंगविमळजी गणिवरे सूरिपुंगव श्रीमद् आचार्यश्री ज्ञानविमळसूरीश्वरजी रचितवृत्ति ज्यारे अमदावादमां देवशाना पाडामां विमळना उपाश्रयमा प. पू. पं. दयाविमळजी महाराजना भंडारमा जोइ त्यारथी तेओर्नु दील आवी अपूर्व कृति जरुर प्रसिद्ध कराय तो सारं ए निर्णय साथे प्रसिद्ध करवानू शरु कयु. दैवयोगे एज भंडारमाथी परमपूज्य पं. मुक्तिविमळजी गणिवरना हाथे तैयार करायेल बीजी प्रति पण मळी आवी. आयी प्रकाशित थता आ ग्रंथ प्रत्ये वधारे आदर थयो.
आ प्रतिमा प्रकाशनमा मुख्यत्वे वे प्रतिमोनो उपयोग करवामां आव्यो छे. एक डहेलाना उपाश्रयनी प्रतिनो अने बीजी देवशाना पाडामा बिमळगम्ना उपाश्रयमा प.पू.पं. श्री दयाविमळजी महाराजना भंडारनी प्रतिनो जो के प्रकाशननी दृष्टिए बन्ने प्रतिओमां एके प्रति शुद्ध नथी, छतां डहेलना उपासवनी प्रति अक्षरे सारी अने जुनी छे. मने के प्रतिने अनुलक्षीने ज मूख्यत्वे आग्रंथर्नु प्रकाशन थयु हे. उक्त सूरीश्वरजीनी कृतिओनो
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पन
| रचनाकाळ १७७३ सुधी छे. 'ज्यारे आ प्रतिनो लेखनकाळ संवत १७९३ फागण वद ३ मंगळवार छ, अर्थात् तेओना काळधर्म पछी आ ग्रंथ | व्याक० वीस वर्ष बाद लखायो छे.
आ वृत्तिमां प्रासंगिक श्लोको खुबज छे ने ते कर्त्तानी विद्वत्ता सचवे छे. खुब श्लोकोने लइमे अथवा लेखकदोष वगैरेने लइ केटलीक जग्याए तो जे ग्रन्थनु नाम सूचव्यु होय ते ग्रन्थने बदले कोइ जुदोज ग्रन्थ होय तेवु बन्या छतां तेमज केटलाक अधिकारोनी मिश्रणता होवा छतां यथाशक्य पयोनां स्थळो अने अधिकारोनां मूळस्थानो तपासी तेने शुद्ध करवा प्रयत्न कयों छे..
आ ग्रन्थमा लम्धिस्तोत्र तेमज पिंडनियुक्ति जेवा संपूर्ण ग्रन्थो संक्षिप्तपणे दाखल कर्या छे, तेमज मूळ वृत्तिमा जे न होय तेवा घणा अधिकारो अन्य अन्य ग्रन्थोना आ ग्रन्थमा दाखल कर्या छतां प्रन्थने त्रुटक के क्षत न थाय तेवी श्रीमद् ज्ञानविमळसूरिजीए आ वृत्तिमां खुबज काळजी सेवी छे.
अमने प्रकाशनमा ज्या ज्यां त्रुटक अशुद्ध के अपूर्ण लाग्यं त्यां अमे [ ] मां मूक्यु छे जेथी मूळकारना आशयनो ख्याल भावे.
आ ग्रन्थना प्रकाशनमा प्रतिपत्रे जेटलं मूळ तेटली व्याख्या राखवाथी मूळ अने व्याख्यानी संगतता द्वारा स्हेजे अर्थ समजी शकाय तेवी ति प्रकाशन करवामां आव्यु छे, कोइ पण जिज्ञासु आ ग्रन्थना पठन पाठननो लाभ लेशे तो मा प्रकाशन सफळ थयुमानीश, प्रेसदोष, दृष्टिदोष के स्खलनाने अंगे थयेली भूलोनी क्षमा मागी विर, छ. सं. १९९५ भा. सु.५
एज ली. .. _ व्याख्यानवाचस्पति विद्वद्वर्य परमपूज्य श्रीमत् पंन्यास रंगविमलगणिवर विनेयाणु कनकविमल १. संवत् १७९३ वर्षे फाल्गुनमासे कृष्णपक्षे तृतीयायां तिथौ कुजवारे सिद्धियोगे सकलभट्टारक श्री श्री श्री १०८ विजयप्रभसूरिः तत्शिष्यसकलवाचकचक्रचक्रवति महोपाध्याय श्री श्री १०८ विमलषिजयगणि तशिष्य महोपाध्याय श्री श्री १९ श्री । शुभविजयगणि तत्शिष्यसकलपंहितश्रीगंगविजयगणि तत्शिष्य पं. श्री नयविजयेन लिपीकता आत्मार्थे..
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प्रश्नव्याकरणसूत्र
मूहकार तथा वृत्तिकारनो ढंक परिचय आ सूचना राचयिता सकल जैन श्रमणसंघना आद्य माधारभूत पूज्य प्रवर गणघर भगवान सुधर्मास्थामीजी के. भगवान महावीर परमात्माए कैवल्यवान पाम्या पछी साधु साध्वी श्रावक भाविकारुप चतुर्विध संघनी स्थापनारुप तीर्थ स्थाप्यु. चतुर्विधसंघर्नु मूख्य अप्रगण्य अंग श्रमणसंघना आद्य महापुरुषोते अगिभार गणधर भगवंतो छ, जे महापुरुषोए भगवान महावीर पासेथी “ उप्पन्ने हवा विगमे हवा धुवे हवा "रूप त्रिपदी पामी पोतपोताना तीक्ष्ण क्षयोपशमद्वारा मिन्नभिन्न द्वादशांगी-जिनवाणीनी रचना करी भगतमा रहेल तमाम पदार्थो भने तेमा थनारा प्रत्येक रूपान्तरो के जे भाषार्मा उतरवाने शक्य होय ते सर्वना अनंतमा भागने तेमणे पोतानी द्वादशांगीमां उताया. ते द्वादशांगीनो साता जिनसदृश थाय तेषी महोर छाप पण केवलीभगवंत महावीरद्वारा सिद्ध करी.
आ अगिार गणधर भगवंतो परस्पर शब्दाने सरखा होवा छतां दीर्घायुषी पांचमा गणधर सुधर्मास्वामीनी द्वादशांगीज परंपराए जैनशासनमां प्रचार पामी. कारणके सुधर्मास्यामि भगवंत सिवायना इसे गणधर भगवंतो थोडा काळमां निर्वाण पाम्या, अने तेमनी प्ररुपित द्वादशांगी पण तेमनी साथे लुप्त थई गह.
आजे जे जिनागम मूळ स्वरूपे अर्थरुपे भावरुपे के अन्यरुपान्तरे विद्यमान ते सर्वनुं मूळस्थान सुधर्मास्वामी भगवंतनी द्वादशांगी है. जे विद्यमान जे आगमग्रंथो छे ते सर्व पूज्यप्रवर सुधर्मास्वामी रचित के.
मा प्रश्नव्याकरणसूत्र अगिभार अंग पैकीनुं दशमु अंग छे. ते पण सुधर्मास्वामी भगवते रचेलुं छे, जे पू. अभयदेवरि महाराजनी वृत्तिनी प्रस्तावनाथी सहेजे जणाय के.
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मन
नीचे मुज
- 'अस्य श्रीमन्महावीरवईमानस्वामिसम्बन्धी पञ्चमगणनायकः श्रीसुधर्मस्वामी स्त्रतो जम्बूस्वामिनं प्रणयनं चिकीर्षुः म्याक. संबन्धाभिधेयप्रयोजनप्रतिपादनपरी जम्बू...इत्यादि गायां.
मा सुधास्वामि गणधर भगवंत परमात्मा महावीर प्रभुना 'माच पहपर तेमनुं जन्मस्थळ विगेरेतुं स्वरूप
कोल्लाग नामना गाममा धमिल पिता महिला माताना पुत्र, चोदे विद्याना पारगामी प्रभु महावीरना दर्शन अने उपदेशथी प्रतिबोध पामी ५० वर्षनी उम्मरे मगवान महावीरने पोताना परमतारक स्वीकारी ३० वर्ष महावीर परमात्मानी सेवा का बाद महावीर प्रभना निर्वाण पछी बार वर्षे केवल्यज्ञानने प्राप्त करी८ वर्ष सुधी केवलज्ञाननी परिपालमा करी १०० सो वर्ष पूर्ण आयुष्य पारी निर्वाण पाम्या.
काळक्रमे आ पूर्वमहर्षिना रखेला महाकिमती रत्नसमान आगमोना गूढ अर्थो अने आमन्याओ काळना प्रभावने ला ओछी थती बुद्धि अने धीरजने लाने विस्मरण था मज दुष्काळ विगेरेना उपद्रवोने ला नष्ट थतां देखी शहयातमा 'स्कंदिलाचार्य मधुरामा अने नागार्जुनरिए वळामां-वल्लभीम श्रमसंमेलनद्वारा जे जे अवस्थामा जे महर्षियोने कंठे जेटला जेटला प्रमाणमां ग्रंथो उपलब्ध थया तेनो संग्रह कों. ने त्यारवाद बोदाज बखतम पू. देवर्षिगणि समाश्रमणभगवते मागम तथा अन्य अन्य पूर्वपुरुषोना ग्रंथोने साधुसंमेलनद्वारा एकत्र करी पुस्तकारुड का. .
१. श्रीमद्वीरजिनेन्द्रस्य विनेयो विश्ववल्लभः येनाऽधीतानि पूर्वाणि सुधर्मास्वामिनाऽद्भूतम् [विबुधधिमलकृतपट्टावल्यां] २. कल्पसूत्र पृ. १८६ तमे कोल्लागसन्निवेशे धम्मिलविप्रस्थ..................इत्यादि वर्णन शेय
१. जिनवचनं च दुष्षमकालवशादुच्छिमाप्रायमिति मत्वा भगवभिनागार्जुन-स्कंदिलाचार्यप्रभृतिभिः पुस्तेकेषु न्यस्तम् [कलिक सर्वश० हेमचन्द्ररिकृत योगशासप्रकाश ३ श्लोक १२०] .......
२. बल्लहिपुरंमि नयरे देवढिपमुह सयलसंधेहि, पुत्ये भागमलिहिया नवसयअसीमाओ वीरामो. [कल्पसूत्र पृ. १४४]
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त्यारवाद मळ आगमनथों तेमज पूर्वमहर्षियोना प्रतिपादित करेल अन्थोना रहस्योने स्फुट करना विवरणोरूपले ग्रंथोना विवरणो अने विवरणसंप मिट मित्र सुंदा जुदा अनेक प्रयोनी रचनाद्वारा जैनशासक अधिच्छिा प्रभावशाळी आजसुधी वर्ते हे.
आचरांग, सूपगडांग, ठाणांग, समवायांग, विवाहप्राप्ति (भगवतीजी) शाताधर्मकांग, उपासकवांग, अंतकृतवांग, अमुसरोपपातिकदशांग, प्रश्नव्याकरण अने विपाकसूच' अगिआर अंग छे. बार, अंग वीरसंवत १००० लगभग विच्छेद पाम्यु.
सं. ९३३ मां सूरिपुंगव शीलांकाचार्य आचारांगसूत्र उपर तेमज वाहरिगणिनी सहायची सूपगडांग उपर संस्कृत भाषामा खबज चमत्कारिक वृत्तिओं रची छे. जे आजे उपलब्ध है. आबे अंग सिवाय बीजा नवे अंगो उपर पण तेज आचार्य पुंगवे होती. परंत उपरोकबे टीकामो सिवाय नवे टीकाओ विच्छेद पामयाधी आचार्य अभयवेवसूरि महाराजे 'शव मंगो उपर तद्दन नवी टीकाओ बनावी. ......
आ प्रश्नव्याकरण उपर आजे सुरम्य बे वृसिमो उपलब्ध छे. एक रिपुंगव अभयदेवरि महाराज रचित वृत्ति अने बीजी महान क्रियोद्धारक श्रीमद् शानविमळसूरि महाराजनी रचित वृत्ति छे. ते बन्ने वृत्तिकारोनो परिचय पण आवश्यक छे.
जैनदर्शनमा महाप्रभावक ग्रंथकार तरीके अमथदेवसरिता नामघाळा पांच महापुरुषो थया छे. अभयदेवसरि (राजगच्छीय)
१.प्रभावक चरित. अमयदेवसूरिप्रबंध श्लोक १००-१०५ तथा पुरातनप्रबंधसंग्रहे-अभयदेवत्रिविहरन् पल्यपुरे श्रीवर्समानसरिष दिवं गतेषु अमयदेवसूरीणां तत्रस्थितानां महादुर्भिक्षे सिद्धान्तास्तद्वृत्तयोऽपि त्रुटिताः, यदवस्थितं तदपि दुरवबोधत्वात् खिलं जातं शासनदेवी रात्रौ प्रभुं जगौ यदङ्गवर्य मुक्त्वा नवाशांनां वृत्तिं कुरु सरिराह-'सुधर्मस्वामीकृतसिद्धान्तविवरण कवि मन्दमतित्वात्सूत्रप्ररूपणावनम्तसंसारित्वम् । परं त्वायनुल्लायां करिष्यामि' देव्योक्तम्-यत्र यत्र सन्देशस्तत्राऽई स्मर्तव्या सीमधरस्वामिवावां सादाम कुर्चे प्रभुभिर्वन्यपूर्णतावधि यावदाचाम्लाभिप्रदोऽमाहि...इत्यादि.
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मन०
व्याक०
| जेमणे संमतितर्क जेवा महान् प्रन्य उपर तस्वबोध विधायिनी टीका बनावी के के जेर्नु प्रतिबिंव जैनदर्शनां परंपरा समय न्यायग्रन्थोमां पडयु के, ने जेना संतानीय धनेश्वरसूरि तथा प्रवचनसारोखारनी वृत्तिकार विगेरे महर्षियो.
बीजा अमयदेवसूरि नागगच्छीय रामसूरि-चंद्रसूरि-देवसूरि-अभयदेवसूरि ए रीते संबंध धरावे छे. तेमनो समय बारमी शताब्दि आसपासनो गणाय के.
त्रीजा अभयदेवसूरि रुद्रपल्लीय गच्छना स्थापक छे. चोथा अभयदेवसूरि प्रसिद्धमलधारी हेमचंद्रसूरिना गुरु के.
उपरना चार सूरिएंगवो नवांगवृत्तिकार अभयदेवरिथी मित्र छे ते वस्तु आपणने तेमणे जणावेल प्रशस्तिमा सूचवेल गुरुना मने गच्छना नामथी समजाय छे.
आचार्य जिनेश्वरसरि के जे बद्धिसागर नामे प्रसिद्ध छे तेमना शिष्य अभयदेवसूरि महाराज आ प्रश्नव्याकरण सूत्रना रचयिता छ, अने तेमनी रचेल वृत्तिना संशोधक द्रोणसूरिजी छे, ते वात तेमनी प्रशस्तिथी स्पष्ट जणाय छे.
उक्तस्त्रना वत्तिकार अभयदेवसरिजी महाराज सं. १०८८ मां सोल वर्षनी उम्मरे आचार्यपदारूढ थया के तेमणे प्रथम शातासूत्रनी वृति सं. ११२० मां रची अने त्यारपछीथी बीजा अंगोनी वृत्ति ११३३ लगभग पूर्ण करी छे. नवांगवृत्ति उपरांत षट्स्थानक भाष्य, हरिभद्रसूरिकृत पंचाशक पर वृत्ति तथा आराधनाकुलक पंचनिन्थी प्रकरण विगेरे अनेक ग्रन्थो रच्या छे. तेओना स्वर्गवास कपडवंजमां सं. ११३५ मां थयो छे.
श्री प्रश्नव्याकरणसूत्र उपर बीजी वृत्ति शास्त्रविशारद सूरिपुंगव श्रीमद् भानविमलसूरिश्वरजी महाराजनी के तेमनो परिचय नीचे मुजब के.. श्रीमाळीमोनी उत्पत्ति अने अनेककिंवदंतिमोथी जोडायेल मारवाडमा आवेल भिन्नभाल नगरमां विशाओशवालना वंशविभूषण श्रेष्ठी वासवजीपिता अने कनकावती मातानी कुक्षिप सं. १६९४ मा मंगळप्रभाते पुत्रनो जन्म थयो. संसारी अवस्थामां
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ते पुत्रनुं नाम नाथुमल यल्यु. अनुक्रमे आठवर्षनी ऊम्मरे पंडित प्रवर पू. पंन्यास श्री धीरविमलजीगणिवर्यनी पासे दीक्षा सं. १७०२ मां लीधी. ने दोक्षा बखते तेमनं नाम मनिश्री नयविमलजी राखवामां आव्यं. त्यारवाद केटलोक अभ्यास पोताना गुरुवर्य पासेकयों में विशेषत अभ्यास पंडित ममतविलजीगणिवर्य तथा कविराज मेकविमलजी गणिवर्य पासे करी न्याय सिद्धांत तर्क, काव्य, छंद विगेरेमां कुशल बन्या-ते वखते तपगच्छनी पाटे आचार्यश्री विजयप्रभसूरीजी विराजता हता. तेओए तेमनी क्रिया, अभ्यास विगेरेनी ऊज्वल किति सांभळी मने औदार्य गांभीर्यादि गुणोथी रजित थइने तेओनीना गुरुवर्यना अभिप्रायथी पंन्यासपदने योग्य जाणी संवत १७२७ ना महासदि दशमना मंगल प्रभाते सरीश्वरजीप पोताना वरद हस्ते घाणेरावनगरमा पंन्यासपदाबद्ध कर्या, त्यारवाद पोताना गुरुवर्यनी साथे अनेक जीवोने प्रतिबोध आपता विचरता हता तेटलार्मा गुरुदेवनो सं. १७३९ मा स्वर्गवास थयो. त्यारबाद क्रियोद्धार माटे श्री विजयप्रभसूरीश्वरजीनी आशा मागी त्यारे ज्ञानगंगाना बहावनार, सरस्वतीकंठाभरण अने महप्रभाविक जाणी सूरीजीए क्रियोद्धार माटे आशा आपी अने पंडित विभूषण पंन्यासश्री नयविमलजीगणिवयें सं. १७४७ ना फागणसुदि ५ मे पाटणा क्रियोद्धार कों ने श्री विजयप्रभसूरिजीनी आशाथी महिमासागरसूरीजीप पाटणपासे संडेर गाममा आदीश्वरभगवानना बहेरासरमा संवत १७४८ ना फागणसुदि पाचमे पूर्व सूरिप्रयुक्त आचार्थपदारुढ कर्या सकल संवेगी साधुओना नायक बनाव्या ने तेमन नाम श्रीमद शानविलसूरीश्वरजी राखवामां आव्यु. अनेक मुनिओने धर्म माग स्थिर करी तेज अरसामा धर्ममां स्थिर अने चुस्तवर्गने संविनपक्षिय प नामे प्रचलित करनार आ महापुरुष छे. आ आचार्य पदनो महोत्सव श्रेष्ठी नागजो पारेखे पोताना घणा धननो सदव्यय करी संदर कों हतो. सं. १७७७ नी सालमा सुरतमां चातुर्मास कयु. त्यां ऊक्तसूरीजीना उपदेशथी सुरतनिवासी श्रेष्ठवर्य प्रेमजी पारेखे तीर्थाधिराज श्री सिद्धगिरिनो अपूर्व संघ काल्यो तेमां ३५०००) पाश्रीस हजार यात्रालओ अने ३००)त्रणसो साधुसाध्वीओ हता, ऊक्तसूरीजीना शुभहस्ते सिध्धगिरि उपर तथा बीजे घणा स्थळे प्रतिष्ठाओ तथा अंजनसलाकाओ घणी था छ, अन्ते आ महापुरुष खंभातमा १७८२ चातुर्मास
१. मणुंदरोड स्टेशनथी एक गाउ हे, आजे पण पारेख कुटुम्ब अने ते प्रासाद मोजुद छे.
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प्रश्न
व्याक
कर्यु ने ते दरमियान शरीर क्षीण थतां सं. १७८२ ना आसो वदि ना रोजे गुरुवारे वृद्धवये कालधर्म पाम्या. रिपुंगवना कालधर्मथी मांडीने ४०) चालीस दीवस सुधी अमारी पडह अने धर्म उत्सव सकळ संघे कॉं. तेमज तेमना स्मरणनिमित्ते
सकरपरामां पगलायुक्त दहेरी करावी. जे दहेरी आजे पण विद्यमान छ भने तेममो संगृहित शानमंडार पण खारवाडाना । संवेगी-विमळगच्छीय उपाश्रयमा विद्यमान है. जे प्रश्नव्याकरण प्रन्थनी टीका करता अभयदेवसुरि महाराज शरुभातमा जणावे छ के
अशा वयं शाखमिदं गभीरं, प्रायोऽस्य कटानि च पुस्तकानि
सूत्र व्यवस्थाप्यमतो विमृश्य, व्याख्यानकल्पादित पप नैव ॥१॥ अने अन्ते जणावे छ के,
पेरेषां दुर्लक्ष्या भवति हि विषक्षा स्फुटमिदं विशेषावृष्धानामतुलवचनज्ञानमहसाम्
निरमायाधीभिः पुनरतितरां माशजनैः ततः शास्त्रार्थ मे वचनमनध दुर्लममिह ॥ अर्थात् आ प्रश्नव्याकरण शास्त्र कुट ग्रन्थ छे, मारा जेवार करेली व्याख्या उपर ध्यान न आपतां संबंध मेळवी व्याख्या करवी बगेरे जणावधूते प्रश्नव्याकरणनी महागंभीरता सबक.
आ ग्रन्थना स्वपर शाखतत्वज्ञाता शासनसम्राट् तपागच्छाधिपति आचार्यदेवेश श्रीमद पू.शानविमळसरीश्वरजी महाराजे अभयदेमरिनी टीकाने अनुलक्षी खुबज सरल बनाववा प्रयत्न कयों छे. ने जेमां ते खूबज सफळता पाम्या छे. तेमणे अभयदेवपरिनी टीकामां नहिं वृत्ति करायेल तेवा एकेक पदनी संस्कृत छाया अने पदेपदनी व्याख्या आपी छ, तदुपरांत तेमनीटीकार तेमना माननी गंभीरता अने बहुश्रुतता जणावे छे. तेमणे छेदप्रन्योथी मांडी जैन अने जैनेतरना अनेक प्रन्योना पुरावा अने
साक्षिमीथी मा प्रथमें खुपज महत्त्वभयों बनाव्यो के. आ प्रथम प्रसंगने अनुसरीने अनेक अधिकारो आपी था प्राथने घणो | रसमय बनाष्यों छ, अर्थात् कुट गणाती आ प्रन्थ तेमनी तार्किक अने निपुण शक्तिथी सर्वजनभोग्य बनायो के..
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मानविमळसूरि मासालमा दविनयरिने समला कराने व प्रतिभासंपन्न थया छ, जे आनंदविमळ सरि माटे अन्यमान्छीमार पण कभूरवः सन्ति सुरयो गच्छे गच्छे च मर्विताः आणंदविमलादन्यो धन्यो नास्ति महीतले ।
[मालवी ऋषिकता स्तुतिः] महान् क्रिोचार करणार आनंदक्मिलसरि महायज पडी है क्रियोध्धार पंडित इर्षविमळमणि पंडित कीति धिमळमची, पं. विनयविमळजीनाम, पंकीरधिमळणि सुधी सतत् चाल्यो पण पछीथी तेमा स्खलना थतां हे महान् कियोध्यार कर वार्नु भान्य मान्यमा बृक्तिकार सुरिसम्राट् श्रीमद् विगळसूरीश्वरजीने ललाटे लखायु. जे आजसुधी ते किवोच्चार खाल्यो आवे छे. पू. श्रीमद् शानविमलसूरीश्वरजी महाराजे आ टीका उपरति भिन्न भिन्न विषयोना अनेक प्रन्यो नीचे मुजबना बनाया ज्ञानविमलमूरि महाराजे आचार्यपद लीधा पहेलां मुनिश्री नवविफलनी अवस्थामा बनावेल ग्रन्थोनी यादि
७ साडात्रणसो गाथानो बाळावबोध. २साबुन रास.
८ प्रश्नद्वात्रिंशिका स्वोपक्ष बाळावबोध. : ३ अनुस्वामी राम . ४ रणसिंहराजर्षि रास.
९ श्रीपाळ चरित्र संस्कृत गद्य.
१० दश दृष्टान्तनी सज्झाय. ५गवतत्त्व बाळायबोध. ६भमणसूत्र बाळावबोध.
१२ सतको सम्झायो पदो स्तुतिमओ.
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मश्न०
९
श्रीमद् ज्ञानविमळसूरिनी अवस्थामां बनावेल ग्रन्थोनी यादि
१२ प्रश्नव्याकरण वृत्ति.
१३ संसार दावानळवृत्ति.
१४ बारवतनो रास.
१५ रोहिणी अशोकचंद्र रास.
१६ दीवाळी कल्प बाळावबोध.
१७ आनंदघन चोषीशी बाळावबोध. १८ जण भाष्य बाळावबोध.
१९ अध्यात्म कल्पद्रुम बाळावबोध.
२० पाक्षिकसूत्र बाळावबोध.
२१ योगदृष्टि सज्झाय बाळावबोध.
२२ चंद्रकेवळी गस.
२३ शांतिनाथ भने पार्श्वनाथनो कळश.
२४ स्तवनो सज्ज्ञायो पदो कळश स्तुतिओ विगेरे.
आ उपरांत तेमनी घणी कृतिओ नए यह संभवे छे. पूज्य आचार्य शानविमळसूरितुं विशिष्ट जीवनचरित्रनो आद्य संग्रह परम पूज्य गुरुदेव श्रीमद् पंन्यास मुक्तिविमळजी गणिवरे प्राचिन स्तवन रत्नसंग्रह नामना पुस्तकमां संग्रह कर्यो छे, ने त संग्रहने अनुसरीने श्री मोहनलाल दलीचंद देशाइकृत प्राचीन गुर्जरकवि भा. २ जैनसाहित्यनो संक्षिप्त इतिहास समज मुनिश्री कनकविमळजीप तैयार करेल उक्त सूरिना चरित्रमां विगेरे खूब खूब तेमना जीवनने लगतुं साहित्य छे, वधु जिज्ञासुर त्यांथी जो ले. अहिं तो पुस्तकनी प्रस्तावनाने लइ डंक निर्देश कर्यो छे.
१. सकलाई स्तबक-ए नमस्कार टवाध लिख्यो अर्थथी बालावबोधरूपे भ० ज्ञानविमलसूरिखं साधर्मिकजन बोधमाट सं. १७७३ वर्षे महा शुदि ११ शनौ दिने सुरतमध्ये [ मुनि इं. वि. सं. शा. वदोदय. ]
व्याक०
९
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नाणं च दंसणं चैव
पढमं नाणं तो दया सूचनाणं महडिडबं
या बंधासवपुचपावा जीवो संवरनिरखो
श्रीमद् ज्ञानविमलसूरिविरचित प्रश्नव्याकरणांग - प्रथमभागगतपद्यसंग्रहः
पत्र पृ. पं. |
२ १ २ २१ ६
२ १ ११
२ १ १३
२ १ १४
कंटकस्य मतीक्ष्णत्वं
प्रातव्यो नियतिबलाश्रयेण
२ २ ३
३ १ ३ ४ २ ५ २१ १ ९
योऽर्थः ?
पिच खाद च चारुलोचने ! आसीदिदं तमोभूतं इत्यादि
अत् भासर अरहा न भवति धर्म श्रोतुः सामाइयमाइयं सुवनाणं मज विषयकषाया एमिंदिर पंच
२१ १ १२
असंखोसप्पिणी उस्सप्पिणीओ २१ १ १३ एवमेके वदंति मोसं अतेरसचारस
२१ १ १४
पत्र पृ. पं.
२८ ११२ एक एव हि भूतात्मा
पच सप्तकं २९ १ ८-१४
२९ २
५ २९ २ ६
जले विष्णुः स्वले विष्णुः पृथिव्यामप्यहं पार्थ !
सो किल जलन सत्ये
६
२८ २ २८ २ १४
पद्यषष्ठं २९ २ ९-१४
एमो माया ३० १
१
पव पू. पं. ३० १ ५ ३० १ ९ ३० १ १४ ३०२ २
३० २ ५ ३०२ ९
३० २ १३
३१ १ १
सा सा संपयते बुद्धिः
३१ १ २
ब्रह्मा येन कुलालवनियमितो ३१ १ ५ दुसाध्यप्युधमतस्सुसाध्यं कालो सहाय नियई
३१ १ ८
३१ १ १०
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि अकर्त्ता निर्गुणो भोक्ता यस्मान बध्यते नाऽपि कालः सृजति भूतानि रविरुष्णः शशी शीतः प्राप्तव्यमर्थ लभते मनुष्यः द्वीपादन्यस्मादपि
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१०
बौद्धं नैयायिकं सांख्यं ३१ १ १४ | यस्यास्तिस्य मित्राणि ६१ २ ४ नामाऽपि स्रीति संडादि ६४ २ मन०
९ | जैन सांख्यं जैमिनीयं ३१ २ १ रान्ये सारं वसुधा ६१ २ ५ सर्वेऽना विधीयन्ते कालः सृजति भूतानि ३२ १ ८ यद्यदारभते कर्म ।
कामः जानामि ते रूपं ६४ २ १३ बब १ बालव २ कौलब ३ ३७१ ९ सइ भुज्जइत्ति भोगो ६२ १ ५ यश्चेह लोकेऽयपरे नराणां चौरः चौरार्पको मन्त्री ५३ २ १० | हरिहरहिरण्यगर्भप्रमुखे ६३ १ ७ रसा पगामं न निसेवियव्वा ६५ १६ भलनं १ कुशलं २ तर्जा ३ न वि किंचि अणुन्नायं
प्रशान्तवाहि चित्तस्य पद्यत्रयी ५३ २ १२-१४ | सन्मार्गे तावदास्ते ६३ २ ३ दृश्यं वस्तु परं न पश्यति पुढवि ७ दग ७ अगणि ७ ५९ १ ११ किं किंण कुणइ ६३ २८ निकडकडनिक्खेवप्पहार तैजसकार्मणवन्तो
| कम्पः स्वेदः श्रमो मूर्छा ६४ १ १ ये रामरावणादीनां व्यक्तितोऽसंख्यभेदास्ताः ५९ २ १ जो सेवइ किं लहइ ६४ १ २ दुःखात्मकेषु विषयेषु ६५२ ७ लक्षाश्चतुरशीतिश्च ५९ २४ कृशः खञ्जः काणः ६४१४ जइ ठाणी
६५ २८ संवृता विद्वता चैव तिव्वकसाओ बहुमोह-परिणओ६४१ ७ तो पढिअं
६५ २८ उक्तोभयस्वभावा ५९ २ ६ अरिहंतसिद्धचेइ ६४ १ ९ न मांसभक्षणे दोषो ६६ २ १४ सीयादी जोणीओ-पद्यपञ्चकं ६० २ ६ संजइचउत्थभंगे ६४ २ ४ हिमवंत सागरं धीरं
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6
सेणावइ गाहावइ
७० १ ६ रिषहो उ होइ पट्टो ८१ २ ७ वर्जयेद्विदलं शूली नेसप्पे पण्डुयए
७१ १ १ लीला विलासो विच्छित्ति ८२ १ १२ | व्रणेः श्चयथुरायासी महापद्मश्च पदश्च ७११ ४ संघयणं संहाणं
परदारानिवृत्तानामिह नेसप्पंमि निवेसा ७१ १६-१३ तिर्यचो मानवाः देवाः
पुएइ भाइणिज्जे ग्रामहित्त्या व्रतः स्यात ७१ २१२ | सन्तापफलयक्तस्य
८५२ ५ इत्यादि पधपञ्चक.
८९२१० समुद्रविजयोऽ १ क्षोभ्यः २ ७३ ११० धर्म शीलं कुलाचारं
मुग्धमृगनयनयुगळे! ८५ २.७
नरएसु जाई अइक्खडाई अस्थिष्वर्थाः सुखं मांसे ७४ १ ११ श्लथसद्भावना धर्मा ८५ २ १० |
इत्यादि पद्यत्रयोदशी ९० २ ५६ एकदिग्गामिनी कीर्तिः ७७ १ ८ अकीर्तिकारणं योषित् ८५ २ १२ | संसारमूलारम्भाः ९१ २
___ श्रीमद् ज्ञानविमलसूरिविरचितप्रश्नव्याकरणांगे द्वितीयविभागगत प्रासंगिकपद्यसंग्रहः कल्लाणकोडी जणणी १२ ८ सत्यं शौचं तपः शौचं ३२१३ | दंसणमिह सम्म निष्टिं एत्य वयं इक्कं चिय २२१३ | रिउसामण्णं तम्मत्तगाहिणी ४२१२ वेयगमवि सासायण अणुकम्पऽकाम णिजर
सम्माणु सव्व विरई बावत्तरि कलाकुसला
इत्यादि गाथात्रयी ५१ ९-१३
सम्मत्तमिय लद्धे किं तीए पढियाए ३१ १० | अस्तित्वमस्तिभावेन
प्र१०सा०पृ०४०४
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ध्याका
एए अन्य बहु जेसि जो मुचपएक बहु ९१ ३ संसहमसंसट्ठा
१३ २ २ ११ तथा हि योगमाहात्म्यात् ६१ ६ | अक्खीण महागसीया ९१ ९ एगराइयं छ णं भिक्खु १५१ १३ योगशास्त्रवृत्ति पृ. १०-२ अक्खीण महालया जे ९१ १०
पश्चाशक पृष्ठ २८३-२ योगिनां योगमाहात्म्यात् ६१ ७-१० संभिन्न चकि जिन हरि ९२
सार्दु दोवि पाए १५ २ ४ योगशास्त्रवृत्ति इत्यादि पद्यपञ्चकं पृ.१०-२ अरिहंत चक्कि केशव इत्यादि
अष्टादश पञ्चाशकान्तर्गतविंशतितमःश्लोकः नखा केशा रदाश्चापि ६२ १
पद्यत्रयं ९२
वीरासणं तु सिंहासणे म्म १५ २ १० ___ योग० वृत्ति पृ. १२-२ चक्कं छत्तं दंडो इत्यादि
आयावणा उ तिविहा १५ २ १२ तथा हि तीर्थनाथानां ६२ २
पद्यत्रयं १० २ २-५
शंकिय मक्खिय निक्खित्तं १७१ २
पिं. नि. गा. ५२१ योमवृत्ति पृ. १२-२ संसटेयर हत्यो
११२६
सोलस उम्गम दोसा . १७ १ ७ भाशी-दाढा तग्गय
पिं०नि० पृ. २५२ ६२ १२
पि. नि. पृ. १४६ रिउ-सामणं तम्मत्त गाहिणी ७१११ | दत्तिओ जत्तिए वारे १२१ ९
अहाकम्मुद्देसिय इत्यादि विउलं बत्युविसेसेण ७२ १ मासाइ सत्तं वा
१२२९
पद्यद्वयं १७२ १ मु. तत्वार्थ पृ. १०१ पञ्चाशकान्तर्गतान्तिमे पञ्चाशके तं पुण जं जस्स
१७२१४ मिण सासण पडिणीयं ८११४ तवेण सत्तेण मुत्तेण
पिं.वि. गा.८
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जाति यमुस १८ १ १४ | काय दयानतोऽपि ३३ १ १० । देवमयावच्चे हरियवाए २११० पिं.नि. गा. २३० उदेसियमि नवगं ३६ २ ४
पिं०नि०मा० ६६२ धाइ दुइ निमित्ते इत्यादि २४ ११० पिं.कि.पृ.११७ तमे ३९५माया वृत्ती
पंथवा बत्यि जरा ४१११५ गाबाद पिं.वि. गा. ४०८-४०९ परियट्टिए अमिहडे ३६२ ५
पिं० कि०.१७०
साबिय नियमाणं निस्थामा स्थविरां धात्री २५१ ६
तमे ३९५ माथा वृत्ती
बलावरोधिनिर्दिष्टं ४२२९ पि.नि. पृ. १२३ मुहमा पाइदिचा घिय ३६ २ ६
. पिं०नि०६६७४चौ माडपं भवति स्यूरापाः २५ १ ७
तमे ३९५ गाथा वृत्तौ
विषया विनिवर्तन्ते पिं.नि. पृ. १२३ सो एसो जस्त गुणा ३७ १ १२
देशी असलिहिए कणा अंशवते वर्ण २५ १९
पि०नि० गा०४९१
इत्यादि गाथाद्वयं पि. नि. पृ. १२३ बत्तीस कबला पुरुसस्स ४१२ ९
दृत्ति दाणं न होइ अफलं २६ २ १४
पि०नि० पृष्ठ १७३ | आयके उस्सग्गे
४३१११ कोहे वेवर खवगो २८१ ५ अइवयं अइबहसो ४१२११
म.इ.१.२१५ पिं०नि०पृ. १३९
पिं०नि० गावा ६४६ | वित्थय पडिको :४४३-१४
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प्रश्न
व्याक
१२
तणडगल छारमल्लग ४५ २६
दश.हारि.पू.२१०
म. पृ. १७९ गत गाया ६४३ पश्चाशक १गत गाया २७६ २७७ गृहइ आयसहावं
५८२ ७ असणाइया चउरो इत्यादि
भाषाणं भन्ते ५११ २
प्र. गाथा ६४३ गत पर्च पद्यचतुष्टयी ४५ १ ६ पञ्चाशक मज्ञापनासूत्र १२पद १५ सूत्र पृ.७७९ | कोउय १ भूइकम्मे ५८२ ९ सत्येनानिर्भवेच्छीतो शृङ्गार हास्य करुणा ५३११४
म. गाथा ६४४ मियं सत्यं वाक्य ४८ ११४ वयणतिय लिंगतियं ५३२ ९ सइविग्गहशीलत्तं सुरा सत्याद्वाक्यात् ४९१ २
म.गाथा ६४५ जणवय सम्मय ठवणा ४९१ ५ जो संजओ वि एयासु ५७१ ५ उमग्गदसणा मग्ग
५९११४ दशवै. हारि. वृत्ति पृ. १०८ तथा प्र. म०पृ.१८० गाथा ६४१ वृत्तौ
म. गाथा ६४६ सा. पृ. २६१ | कंदप्पदेव किब्बिस ५७ १ ७ | एयाओ विसेसेणं ५९ २ ९ उप्पन मिस्सिया विगय ४९ ११० म. पृ. १७९ गत ६४१ गाथा दश हारि.पृ. २०९-२लोकमकाश पृ. ३१२ | कंदप्पे कुक्कुए
तेऽसुविहियाय मन्ने ६२ २ ५ आमंतणी आणवणी
म. पृ. १७९ गत गाथा ६४२ | वेयावच्चं वावडभावो इत्यादि गाथाद्वयं ५. १ १३ सुयनाण केवलोणं ५८१ ४ | भरिहंत सिद्ध चेइय
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६८ २
५
व्रतानां ब्रह्मचर्य हि ६८१ ४ अहो चौलुक्यपुत्रीणां ७५१ ५ देसण वय सामाइय ८०११२ एकतश्चतुरो वेदा ६८१ ५ चन्द्रवत्रा सरोजाक्षी ७५१ ६
म. गाथा ९८० अपुत्रस्य गतिर्नास्ति
विग नारीरौदीच्या ७५ १८ राइमत्त परिणाए ८२ ११० अनेकानि सहस्राणि ६८ २ ६ चेटिका परिवारोऽपि ७५११०
म. पृष्ठ २९६ किं यामः कुत्रतिष्ठामः ६८ २ १० | हावो मुखविकारः स्यात् ७५ २ ९ अट्ठा णवा हिंसा
८२ २ ७ नवि किंचि अणुन्नायं ६८ २ १३ | लीला विलासो विच्छित्तिः ७५ २ १३
म. गाथा ८१८ देवदाणवगन्धव्वा
अंबे अंबरिसी चेव ८३ २ ९ ६९ १ ८ | हस्तपादाङ्ग विन्यासो ७६ २ ८
म. गाथा ८५-८६ मेहुणप्पभवं वरं
७१ २ ७ स्त्रीकान्तं वीक्ष्य नाभि ७६ २ १० समओ१ वेयालियर उवसग्ग ३८४ २ ४ अब्रह्मचारी ब्राह्मणो न ७२१ ४ जहा दवग्गी परिंधणो
पुढवि दग अगणि नित्यं यश्च कलाकलापकलितः ७२ १ ५ | जह अम्भंगण लेबो ७८ १८ ओरालियं च दिव्वं इष्टानामर्थानां
७४ २ ६ पुढवाइसु आरंभो ७९ ११० उक्खित्तणाए संघाडे इत्यादि स्थानासनगमनानां ७ जाई कुल बल रूवे
गाथाद्वयं ८४ २ १४ विलासो नेत्रजो ज्ञेयः ७४ २ ८ वसहि कह निसिन्जि ८० १ ८ खुहा पिवासा सीउण्हं घिग् ब्राह्मणी विधवायाः ७५ १ ४ | खंती महव अज्जव ८०११०। इत्यादि गाथाद्वयं
...
५२११
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१३
रिवर किरिक्टार ८५२ ९ परिसेल्पसंहाणे ८७१७ जंपि बत्थं च पार्थवा पण खर जोइ ८५ २ ११ पंच णावावरणे बब
इत्यादि माथाद्वयं ९३ २ १२ दस ज्वेसणकाला ८५ २१४ | राबविवस्म सेहो ८८१७ अम्भत्य विसोहिए ९४१ ९ बब छकर्षिदियाणं इत्यादि
जव गोधूम बीहि कंगु ९०२ ८ बजा दय संवम ९५ ११० गावाइयं ८६१ ६ विदाम्मेइम लोणं ९१२ ५ चंभा मउंद महल सत्व परिष्णा लोक विजओ ८६ ११० | बत्तीस किर कवला ९२१ अरुणांदुंबर वर्ष १०० १ ६ पिंडेसण सेन इरिया
पि.नि.गाथा ६४२ स्थूल१ यारुकर महाकुष्ठ ३१००१ ७ ८६ १११ उग्याई अणुग्घाई यण यावच्चे
पृथक् समस्तैरपि ९२२१२ पास
१०० १ ११ अट्ट निमित्तंगाई
वि.नि. गाथा ६६२
पुराणोदक भूविष्ठाः १०० २४
सूयो१ दणोर जवन्नं ३ से ण तसे न चउरंसे ८७१ ६ काहे अछित्ति अदुवा
इत्यादि गाथाद्वयं १०२११४
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प्रश्नव्याकरणागस्य विषयानुक्रमः
१
४७-१
१८-२ १९-२
१९-२
९-१० १०-११
प्रथमं संवरद्वारम् संवरद्वारे अहिंसायाः नामानि अहिंसायाः कारकाः पकत्रिंशद् मेदभिन्नलब्धिस्वरूपम् केषां जीवानां का लब्धयो! प्रयोविंशतिरत्नपदवीविचारः संसृष्टासंसृष्टविचारः दत्तिलक्षणं दत्तिस्वरूपम् च भिक्षुप्रतिमास्वरूपम् नवकोटिपरिशुद्धाहारनिर्देशः उद्गमोत्पादनैषणादोषशुद्धाहारनिर्देशः उद्गमदोषस्वरूपम् १ आषाकर्मस्वरुपम् २ उद्देशिकस्वरूपम् ३ पूतिकर्मस्वरूपम्
४ मिश्रजातस्वरुपम् ५ स्थाफ्नादोषस्वरुपम् ६ प्राभृतकदोषस्वरूपम् ७प्रादुष्करणदोषस्वरुपम् ८ क्रीतदोष स्वरुपम् ९ अपमित्यदोष स्वरुपम् १० परिवर्तितदोष स्वरूपम् ११ अभिहृतदोष स्वरुपम् १२ उद्भिन्नदोष स्वरुपम् १३ मालापहृतदोष स्वरुपम् १४ आच्छेद्यदोष स्वरुपम् १५ अनिःसृष्टदोष स्वरुपम् १६ अध्वपूरकदोष स्वरूपम् अवान्तरमेवसहितोत्पादनादोषस्वरुपम् १धात्रीदोष स्वरूपम्
१२--१५
२२-२३ २३ २३-२४
१८-२
२४-२५
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मन० १४
२६ २६-२७
३०-१ ३०-२ ३१-१ ३१-३३ ३४
२७
२७-२ २७-२ २७-२
३४-२
२ दूतीदोषस्वरूपम् ३ निमित्तदोष स्वरुपम् ४ आजीविका दोष स्वरूपम् ५ वनीपकदोष स्वरूपम् ६ चिकित्सादोष स्वरूपम् ७ क्रोधदोष स्वरूपम् ८ मानदोष स्वरुपम् ९ मायादोष स्वरूपम् १० लोभदोष स्वरुपम् ११ संस्तवदोष स्वरूपम् १२ विद्यादोष स्वरुपम् १३ मन्त्रदोष स्वरुपम् १४ चूर्णदोष स्वरुपम् १५ योगदोष स्वरुपम् १६ मूलदोष स्वरूपम्
अवान्तरमेवभिन्नैषणादोषस्वरूपम् १ शकितदोष स्वरुपम् २ प्रक्षितदोष स्वरूपम्
३ निक्षिप्तदोष स्वरूपम् ४ पिहितदोष स्वरूपम् ५संहतदोष स्वरूपम् ६ दायकदोष स्वरूपम् ७ उन्मिश्रितदोष स्वरूपम् ८ अपरिणतदोष स्वरुपम् ९लिप्तदोष स्वरुपम् १० छर्दितदोष स्वरूपम्
द्विचत्वारिंशद्दोष यन्त्रकम विशोधि अविशोधिकोटिस्वरुपम प्रथम संवरद्वारे प्रथमा भावना प्रथम संघद्वारे द्वितीया भावना प्रथम संवरद्वारे तृतीया भावना प्रथम संवरद्वारे चतुर्थी भावना संयोजना दोषरहिताहारनिर्देशे
पश्चप्रासैषणादोषस्वरुपम् आहारकरणे षट् कारणवर्णनम् अभोजनकारणानि षट्
३८-३९
२८-१ २८-२ २८-२ २८-२ ૨૮-૨ २९
२९-३५ २९-१ २९-२
३९-२ ३९-४०
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६०
४३ ४३-४५ ४५-४७
४७-६० ४७-५२
४९-२
कीदर्श भोजनं योग्य? शय्यातरपिण्डविचार स्वरुपम् प्रथमसंवरद्वारे पञ्चमी भावना द्वितीयं संवरद्वारम् सत्यस्य स्वरूप महिमा च दशविध सत्यस्वरूपं दशविध सत्यभाषास्वपरम् दशविध सत्यमृषा भाषास्वरूपम् द्वादशविधाऽसत्यामृषाभाषास्वरूपम् सत्यमपि कीडशे न वक्तव्य कीदृशं वाच्यमिति वर्णनं द्वितीयसंवरद्वारे प्रथमा भावना द्वितीयभावनायां क्रोधनिग्रहणं तृतीयभावनायां लोभो न सेवितव्यः चतुर्थभावनायां न मेतव्यं पञ्चमीभावनायां हासो न विधेयः कांदपिकाद्यशुभभावनापञ्चविंशतिनिरूपण
तृतीयं संवरद्वारम्
६०-७० अदत्तादानविरमणस्वरूपम् परद्रव्ये इष्टे कया भावनया वत्तितव्यं ६१ तद्ग्रहणे ग्रहणविधिनिरूपण
६१-२ तृतीयसंवराराधनं
६२ वस्तुविविक्तवासो नाम्नी प्रथमा भावना ६४ अनुभातसंस्तारकग्रहणात्मिका द्वितीया भावना ६४-६५ बस्तुशय्या-परिकर्मवर्जना तृतीया भावना ६५ अनुशातभक्कादि-भोजनलक्षणा चतुर्थी भावना ६६ साधर्मिकविनयकरणनाम्नी पश्चमी भावना ६६ ___ चतुर्थ संवरद्वारम्
६७-७८ ब्रह्मचर्यस्वरुपम्
६७-७२ यथास्त्रीसंसक्ताधयवर्जनलक्षणा प्रथमा भावना ७३ नारीजनमध्ये कथा न कथयितव्या
इति द्वितीया भावना ७४ स्त्रीरुपनिरीक्षणवर्जननानी तृतीया भावना कामोदयकरवर्जनरुपा चतुर्थी भावना
५२-२
५७-६०
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________________
मन
७७-७८
७९
८२-२ ८२-२ ८३-२
८८
प्रणीत भोजनवर्जनरुपा पञ्चमी भावना पञ्चमं संवरद्वारं परिग्रह विरमणेअसंयम निरूपणाद्-अशातान्तानां वर्णनं रागद्वेषनिरुपणं दण्डत्रयनिरुपणं कषायनिरुपणं पंचक्रियानिरुपणं षड् लेश्यानिरुपणं सप्तभयनिरुपणं अष्टमदस्थाननिरुपणं नवब्रह्मचर्यगुप्तिनिरुपणं दशश्रमणधर्मनिरुपण श्रमणोपासकप्रतिमानिरुपणं
७९-८९ ७९-२ ७९-२ ७९-२ ७९-२ ७२--२
द्वादशभिक्षुप्रतिमानिरुपण त्रयोदशक्रियास्थाननिरुपण चतुर्दशभूतनामनिरुपणं पंचदश पारमाधार्मिकनिरुपणाद् आशातनान्तं
निरुपणम् परिग्रहविरतौ संवरपादपः पंचमसंवरद्वारोपसंहरणं भिक्षा असन्निधिनिरुपणं परिग्रहविरतभिन्नविशेषणानि शब्दे निस्पृहतानाम्नी प्रथमा भावना चक्षुरिन्द्रियसंवरनाम्नी द्वितीया भावना घाणेन्द्रियसंवरनाम्नी तृतीया भावना जिहवेन्द्रियसंवरनाम्नी चतुर्थी भावना स्पर्शेन्द्रियसंवरनाम्नी पंचमी भावना पंचमसंवरद्वारसंक्षेपणं प्रश्नब्याकरणोपसंहार प्रशस्ति
९४-९६
८०-१
८०-१
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खुडालानिवासी स्वर्गस्थ श्रीमान श्रेष्ठीवर्य तेजमालजी भागचंदजीनी
== संक्षिप्त जीवनरेखा - धर्मना आद्य स्थान तरीके शोभता मरुधर देशमा आवेला जोधपुर स्टेटमा फालना स्टेशनथी अडधो माइल पर आवेला शीखरबंध भव्य वे जिनालयो चार धर्मशालाथी सुशोभित खुडाला गामा ओशवालवंशभूषण श्रेष्ठीवर्य ताराचंदजी हीराचंदजी रहेता हता, तेओने खेमचंदजी, प्रेमचंदजी ने तेजमालजी नामे त्रण पुत्रो इता. तेमां तेजमालजीनो जन्म १९४४ मां थयो हतो ताराचंदजीना लघु बंधु भागचंदजीने पुत्र न होवाथी ताराचंदजीओ पोताना पुत्र तेजमालजीने भागचंदजीनी गोदे आप्या. तेजमालजी बालपणथीज धर्मप्रेमी ने गुरुभक्त हता. ते हमेशा प्रभुपूजा विगेरे धर्मक्रिया करता हता. तेओनी बाल्यावस्था लगभग मुंबइमाज गइ इती ने तेथीज तेजो चार चोपडीनो अभ्यास कर्यो हतो छतां तेओ खुब हाजरजवाबी ने बाहोश हता. थोडा दिवस पछी तेओ पोताना पिताश्रीनी हाथ नीचे दुकानमां काम करवा लाग्या. एटलामा पोतानी लगभग १५) वर्षनी अल्पवयेज तेओना पिताश्री मागचंदजी देवगत थया अने घरनो तमाम भार तेमना उपर आवी पडयो. परंतु तेओ बालपणथी बुद्धिशाली, हींमतवाला अने धर्मवासित होवाथी सुख दुःख ए तो कर्मधारी उपर अवारनवार आव्या करे एम विचारी स्वहहिंमतथी लगभग १७ सचर वर्षनी वये पोतानो स्वतंत्र जुदो घंधो शरु करी दीघो अने तेमां तेओओ पोतानी बुद्धिनी कुशलताथी ते व्यापारमा घणुं द्रव्य प्राप्त कयु ने मुंबइनी अंदर बहुज सारी नामना मेळवी.
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ASISAMIRMImmumourngm
तेजोशी या बोबार ओवास हाउसवा दुस्टी इता मे लगथप गोडबाड ओशवालनी बघी दुकानोना तेओ आगेवान हता ने स्वांना मोगमुकदमा.स्वाबी मीमाजी देवगत क्या स्वारे पोतानो बचो मार स. शीश्री तेजमालजीने सोपी गया हलने वासुधीही सेवमासजी सात हल त्यांची जोवे बोबाने दीपावी मारवाडी महाजनयां सारी नाममा मेवी हता. मोगा जोपालो पाटे एकमोई बील्लीबजे गुलालवाडीयां छे ते मोटी रकम आपी खरीद कयु हतु, तेजी पूज्यनी१.०८ विणक्वापसीवीया माय माहवा बने धीक्षकाला पार्थवाव जैन विद्यालयबी कार्यकरणी कमीटीना मेम्बर
चालवाहता. तेवजापार्य विद्यालयमा माने जो मुंबद सेयज दास्याम जाने सारी महेनतकरी इसी बात को सुबा गाममा देशसवी मीकावासासाना दृस्टी हता. तेओभीनो स्वर्गवास मुंबइमां संवत १९८८ मासर सुधि१९ (मौन कादशी) मा रिले ई मांदगी भोगवीने त्यो हतो, अने वेओचीनी पाछळ तेओना परिवारमा बोधीनी रियाली तथा ने पत्रो एक कपुरचंदयाइ बीजा बाबुभाइ तथा त्रण दीकरीओ एक पुत्रवधु नै वे पौत्र छ, भने ते सर्व व पर्योसी, पकति अवे देवगुरु उपर पूर्व प्रवाद के
ओबीना पुत्र भाइ कपुरचंदजीओ पोताना पिताश्रीना स्मरणार्थ रु. पाँच हजार ५०००) श्री पलाना रिचालयमा आप्या छै से सिवाय बीजी नानी मोटी घणी सखावतो करीखुप प्रशंसा ..
आ प्रश्न व्याकरयला जा शयनी १५१) एसम्म एकाव कोषीमा ग्राहक बनीने ज्ञान प्रचार करवामां तेओओ जे मदद करी छे ते बदल तेओनो आभार मानीए छीए अने तेजओभी पोतानी सब्लक्ष्मीनो समार्गे व्यय करी पून्यौपार्जन करे एज प्रार्थना.
बी. प्रकाशक
MAALMISARLAHARMA
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MAHARASHTRATIMATTITUTIII
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DDASE
जन्मः सं. १९४४.
खुडाला निवासि स्वर्गस्थ श्रीमान् श्रेष्ठिवर्य तेजमालजी भागचंदजी
स्वर्गगमनः सं. १९८८ मागसर सुद ११
(मौन एकादशी) मुंबई
TITTWITTTTTTTTTTTTTTTTTTHI Krishna Printery, Ahmedabad,
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परमपूज्य - शान्तमूर्ति श्रीमत् पन्यास दयाविमलगणिवरपादपद्मेभ्यो नमः
तपागच्छाधिपति सूरिपुरन्दर श्रीमद् ज्ञानविमलसूरिवृत्त्युपेतम्
प्रश्नव्याकरणसूत्रम्
[ द्वितीय विभाग संवरद्वारस्वरूपः ]
जंबू ! - एतो संवरदाराई पंच योच्छामि आणुपुब्बीए । जह भणियाणि भगवया सव्वदुहविमोक्खणट्ठाए
तत्र प्रथममहिंसा - जीवदयालक्षणं संवरद्वारमभिवक्तुकामस्तत्प्रतिपादनार्थ शिष्य मामन्त्रयेदमाह
जम्बूचि - हे जम्बू इतथ आश्रवभणनाऽनन्तरं अवसरायातः संवरः - कर्मणामनुपादानं तस्य द्वाराणीव द्वाराणि - उपायाः संवरद्वाराणि पश्च वक्ष्यामि - भणिष्यामि, आनुपूर्व्या - प्राणातिपातविरमणादिक्रमेण यथा भणितानि भगवता - महावीरेण श्रीवर्द्धमानखामिना, यथाशब्देनेति - अविपर्ययमात्रेणेति, अहिंसासाधर्म्य न तु युगपत्सकलसंशयव्यवच्छेद सर्वस्वस्व भाषानुगामिभाषादिभिरतिशयैः सर्वदुःखविमोक्षणार्थमिति १
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बान०वि०
मनव्या
संबरद्वारे अहिंसाया नामानि
॥१॥ पहम होइ अहिंसा वितिय सवयणति पातं । बत्तमणुभाय संवरो यमचेरमपरिग्गहत्तं च॥२॥ तत्थ |पहम अहिंसा तसथावरसयभूयखेमकरी। तीसे सभावणाओ किंची बोच्छ गुणुरेसं ॥२॥ ताणि उ इमाणि
सुब्बय! महव्वयाई लोकहियसव्वयाई सुपसागरदेसियाई तवसंजममहब्बयाई सीलगुणवरब्बयाई सजवव्य| प्रथमं संवरद्वारं भवति अहिंसा १, द्वितीय सत्यवचनमिति प्ररूपितं भगवतिः २, तृतीयं अदत्तविपथं दर्ष-वितीर्ण अशनादि अनुज्ञातं खामिजीवतीर्थकरगुरुमिरिति भोग्यतया, संवरोत्ति दत्तानुज्ञातग्रहणलक्षणः संवरस्तृतीयः ३ चतुर्थ ब्रह्मचर्य शीलं ४ पत्र | अपरिग्रहत्वं च संवरौ ॥२॥ ___ तेषु पञ्चसु मध्ये प्रथम संवरद्वार अहिंसा-जीवघातवर्जन 'कल्लाणकोडिजणणी दुरंतदुरियारिवग्गनिट्ठवणी, इक्कुचिय जीवदया भणिया वरनाणदंसीहिं॥१॥ इति
कीदृशी ? प्रसस्थावराणां सर्वेषां भूतानां क्षेमकरणशीला कुशालकारिणीत्या, तस्या अहिंसायाः सभावनायास्तु-भावनापश्च| कोपेताया अग्रे वक्ष्यमाणायाः किश्चित् अल्पं अल्पं वक्ष्ये गुणोद्देश-गुणोत्कीर्चन मिति ३ .
यानि संवरशम्देन अभिहितानि तानि नामानि हे सुव्रत ! शोभनव्रत! जम्यूनामन् ! महांति-करणत्रयेण यावजीवं सर्व| विषयनिवृत्तिरूपत्वात् महाँति अणुव्रतापेक्षया वा बृहन्ति व्रतानि-नियमा-यमा वा । लोके धृतिदानि जीवलोकचित्तस्वास्थ्यकारीणि,
१पर्व पञ्चाश्रवस्याऽपि प्रतिपक्षिपञ्चसंवरान् उक्त्वा पर मुख्यसंवरस्य द्वार सम्यक्त्वं मया न कथितं वक्त्रा सविस्तरेण सम्यत्वरूपाधिकारोऽत्र वाच्यः
SARAI
॥१॥
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SASACAUSESS
याइं नरगतिरियमणुयदेवगतिविवजकाई सव्वजिणसासणगाई कम्मरयविवारगाई भवसयविणासणकाई दुहसयविमोयणकाई सुहसयपवसणकाई कापुरिसदुरुत्तराई सप्पुरिसनिसेवियाई निव्वाणगमणसग्गप्पणायकाई संवरदाराइं पंच कहियाणि उ भगवया ॥ तत्थ पढम अहिंसा जा सा सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स भवति वीवो यथाभुवसागरे देशितानि यानि कथितानि, तथा तपः-पूर्वकर्मनिर्भरणफलं संयमा-पृथिव्यादिसंरक्षणलक्षणोऽभिनवकर्मानुपादान| फलसादूपाणि व्रतानि तपासंयमयोर्नास्ति व्यय:-क्षयो येषु तानि, तथा शीलं-भोगेषु संकल्पसमाधानं, गुणाश्च विनयादयः तैर्वराणि
प्रधानानि यानि व्रतानि तानि शीलगुणवरव्रतानि, तथा सत्यं मृषावादवर्जनं आर्जवं-मायावर्जन तत्प्रधानानि व्रतानि यानि तथा | सत्यार्जवाव्ययानि वा, तथा नरकतिर्यग्मनुजदेवगतीर्विवर्जयन्तीति-मोक्षप्रापणेन तासां गतीनां व्युच्छेदकानि यानि, सर्वजिनः शिष्यन्ते-प्रतिपाद्यन्ते यानि सर्वजिनशासनानि । कर्मरजो विदारयन्ति-स्फोटयन्ति तानि विदारकानि, भवशतविनाशकानि अतएव | दुःखशतविमोचकानि, सुखशतप्रवर्तकानि । पुनः कीदृशैः कापुरुषैः कातरैर्दुखेन उत्तीर्यन्ते निष्ठां नीयन्ते इति । सत्पुरुषर्षीर निषेवितानि | सत्पुरुषप्राप्ततीराणीत्यर्थः हिच पुरुषग्रहे स्त्रीणामुपलक्षणं न तनिषेधोत्र प्रतिपत्तव्यः, बहु वाच्यं तत्तु ग्रन्थान्तरादवसेयं । पुनः कीदृशानि निर्वाणगमनमार्ग इव माग्गों मोक्षमार्गों यानि तानि, तथा स्वर्गप्रयाणकानि-देहिना खर्गे गमने प्रयाणकानि पापणकानि यानभूतानि वा सर्वत्र कर्मधारयस्तानि, महाव्रतसंज्ञितानां संवरद्वाराणि पश्च संख्याकानि । एतेषां एतन्माहात्म्यं कथं विशिष्टमणेतृत्वात् तदाह भगवता-श्रीमन्महावीरेण कथितानि अतो हेतोः स्वर्गापवर्गप्रदानीति भावः इति प्रथमसंवराध्ययनप्रस्तावना ।
वत्र तेषु पञ्चसु मध्ये प्रथम-आद्यं संवरद्वार अहिंसा, किंभूता ? सदेवमनुजासुरलोकस्य भवति, द्वीपो यथा गाधोदधिमध्यममानां
-
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वर
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शान०वि०
संबरद्वारे अहिंसाया
वृत्ति
नामानि
॥२॥
SHRIENCEROSARICS
ताणं सरणं गती पाहा निव्वाणं १ निव्वुई २ समाही ३ सत्ती ४ कित्ती ५ कंती ६ रतीय ७विरती य८ सुर्य॥ गतित्ती ९-१० दया ११ विमुत्ती १२ खन्ती १३ सम्मत्ताराहणा १४ महंती १५ वोही १६ बुद्धी १७ धिती १८ | नानाश्वापदकदम्बककदचितवेगमहोम्मिमालामथ्यमानगात्राणां प्राणिनामाश्वासस्थान द्वीपो भवति, द्विधा गता आपो यस्मिमिति 'द्वीपं तथा अहिंसा संसारोदधिमध्यगतानां व्यसनशतश्वापदपीडितानां संयोगवियोगवीचिविधगात्राणां त्राणं भवति, तस्याः संसा-2 रोत्तारहेतुत्वात् अहिंसा द्वीपतुल्या । यथा वा दीपः अन्धकारनिराकृतहकप्रसराणां हानोपादानविमूढमनसा तिमिरनिराकरणेन प्रवृत्ति| कारणं भवति,तथा अहिंसापि ज्ञानावरणीयकर्मतिमिरनिराकरणविशुद्धिबुद्धिप्रभापटलप्रवर्तनेन सकलशुभप्रवृत्तिहेतुत्वात् दीप इव.दीपः, तथा त्राणं परेषामापनिवारणत्वात्, शरणं तथैव संपदा संपादनत्वात् , पुनः कीदृशी गम्यते आधीयते श्रेयोमिरिति गतिः, प्रतिष्ठते आसते सर्वगुणाः सुखानि वा यस्यां सा प्रतिष्ठा, १ निर्वाणं मोक्षस्तद्धेतुत्वात् , २ निर्वृत्तिः-स्वास्थ्यं दुर्व्यानरहितत्वात् , ३ समाधिः समताशक्तिकारणात् , ४ शांतिः परद्रोहविरतिः, ५ कीर्तिर्यशः ख्यातिः, ६ कान्तिः शोभाकारणत्वात् , ७ रतिः-सर्वेषां
रागहेतुत्वात्, ८ विरतिनिवृत्तिः,९-१० श्रुतं श्रुतज्ञानं तदेव अहं कारणं यस्याः सा 'पढमं नाणं तओ दयाइति पाठात् , तृप्तिः 8 संतोषस्तस्य हेतुत्वात् वृप्तिः,११दया देहिरक्षा, १२तथा विमुच्यते प्राणीसकलवधबन्धनेभ्यो यया सा विमुक्तिः, १३शान्तिः क्रोधनिग्रहः |
तजनिताऽहिंसाऽपि शान्तिः, १४ सम्यग्प्रतीतिरूपं स्वादादे सम्यग् बोधो वा तस्य आराधना-सेवना, १५ महंती सर्वधर्मानुष्ठानानां । मध्ये वृहती यदुक्तं-निदिढ़ एस्थ वर्य इकंचिय जिणवरेहिं सब्बेहि,पाणाइवायवेरमणमवसेसा तस्स रक्खट्ठा ॥१॥
१ घेट इति भाषा । २ निदिधं अत्र व्रतं एकमेव जिणवरैः सर्वैः, प्राणातिपातविरमणमवशेषाणि तस्य रक्षार्थम् ॥१॥
AASARAN
॥२॥
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got satsat
समिद्धी १९ रिद्धि २० विद्धी २१ ठिती २२ पुडी २३ नंदा २४ भद्दा २५ विसुद्धी २६ लद्वी २७ विसिद्वविद्वी २८ कल्लाणं २९ मंगलं ३० पमोओ ३१ विभूती ३२ रक्ता ३३ सिद्धवासो ३४ अणासवो २५ केवलीण ठाणं ३६ सिर्व १६ बोधि - सर्वज्ञधर्मप्राप्तिः अहिंसा - अनुकम्पा सा व बोधिकारणं यथा - अणुकरूपऽकामणिज्जरबालतबे दाणविणयविग्भङ्गे संजोगविप्पजोगे वसणूसबहडिसक्कारे ॥ १॥ इत्यावश्यक नियुक्तिवचनात् १७ तथा बुद्धिः - साफल्यकारणत्वात् तथा चवरिलासला पंडिय पुरिसा अपंडिया चैव । सव्वकलाणं पवरं जे धम्मकलं न याणंति ॥ १॥ धर्मचाहिं सेब, १८ धृतिविचदाढर्थ, १९ समृद्धि: - आनन्दहेतुत्वात् २० ऋद्धिः लक्ष्मीहेतुत्वात् २१ वृद्धिः पुण्यमकृतिसम्पादनात्, २२ स्थिति | खाद्यपर्यवसितमोक्षस्थितिहेतुत्वात्, २३ पुष्टिः पुण्योपचयकारणत्वात्, पुरा पापापचयः पुष्टिर्वा, २४ नन्दयति स्वं परं वा इति नन्दा २५ भद्रं कल्याणं खस्य परेषां वा करोतीति भद्रा । २६ तथा विशुद्धिः - पापक्षयोपायत्वेन जीवनिर्मलतास्वरूपत्वात् २७ लम्बि केवलज्ञानादिलब्धिनिमित्तत्वात्, २८ विशिष्टदृष्टिः- प्रधानदर्शनं खाद्वादमित्यर्थः अन्यदर्शनस्याऽग्राधान्यमेव यदुक्तं -
कितीए पढियाए पयकोडीए पलालभ्याए, जत्थेत्तियं न नायं परस्स पीडा न कायव्वा ॥ १॥ २९ कथं - आरोग्यं तत्प्रापकत्वात्कल्याणं, ३० मङ्गलं- दुरितोपशमकत्वात्, ३१ प्रमोद हर्षोत्पादकत्वात्, ३२ विभूतिः - सर्व१ अनुकम्पा कामनिर्जराबाळतपोदानविनयविभङ्गाः । संयोगविप्रयोगों व्यसनोत्सव दिसत्काराः ॥१॥
२ द्वासप्ततिकलाकुशला, पण्डितपुरुषाः अपण्डितामेव सर्वकलानां प्रवरां, ये न धर्मकलां जानन्ति ॥१॥
३ किं तया पठितया पदकोटपा, पलालभूतया । यत्रेयत् न ज्ञातं परस्य पीडा न कर्त्तव्या ॥१॥
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ANONS
&३७ समिई ३८ सील ३९ संजमो ४०तिय सीलपरिघरो ४१ संबरो ४२ य गुत्ती ४३ ववसाओ४४ उस्सो ४५ बान०वि०
संबरद्वारे HTTPजनो ४६ आयतणं ४७ जतण ४८ मप्पमातो ४९ अस्सासो ५०वीसासो५१ अभओ५२ सव्वस्सवि अमाघाओ P M
1॥५३ चोक्ख ५४ पवित्ता ५५ सूती ५६ पूया ५७ विमल ५८ पभासा ५९५ निम्मलतर ६० त्ति एषमादीणि निय-13 नामानि
ऋदिसंपनिमिचत्वात्, ३३ रखा-जीवरक्षणस्वभावत्वात् , ३४ सिखावासो-मोक्षनिवन्धनत्वात् , ३५ अनावः कर्मबन्धनिरोधोपाय॥शा | स्वात् , ३६ केवलिनां स्थानं केवलिनामहिंसैव तत्र व्यवस्थितत्वात् योगनिरोधस्वात् अन्यथा जावंच भारम्भ समारम्भ
Bाबा इत्यादिवत्रविरोधापरित्यं बहुबक्तव्यमस्ति तत्तु नोक्त । ३७ शिव-निरुपद्रवहेतुत्वात् , ३८ समिति-सम्यक्प्रवृत्तिरूप| त्वात् अहिंसासमितिः, ३८ शीलं समाधानरूपत्वात् , ४० संयम:-हिंस्रोपरतत्वाद, ४१ शीलं सदाचारो प्रम वा तस्य गृहं चारित्रस्थानं, ४२ संघरब प्रतीतानाश्रवत्वेन, ४३, गुप्तिः अशुभाना मनाप्रमृतीनां रोषः, ४४ विशिष्टः शोभनः अवसायः अविकलभावसंपमत्वात् विशिष्टव्यापारः, ४५ उच्छ्यो -भावोमतित्वं, ४६ यज्ञो-मावदेवपूजा, ४७ आयतनं-गुणानां आश्रया, ४८ पजनं-अभयस्य दानं यतनं वा-प्राणरक्षणप्रयत्नः, ४९ अप्रमादःप्रमादवर्जन, ५० आश्वासः परमप्तिहेतुत्वाद, ५१ विश्वासो-वित्रंभः प्राणिनां, |५२ अभयः-सर्वप्राणिगणस्य निर्भयत्वं, ५३ अमाघातः अमारिक मरणरहितत्वात् , ५४ चोथा पवित्रा पवित्रादपि पवित्रा एकार्थशब्दद्वयोपादानात् अत्यर्थ पवित्रा अथवा ५५ पविवत् वज्रवत् वायते इति पवित्रा, ५६ शुचि:-मावशौचरूपा आह च- - __ सत्यं शौचं तपः शौचं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । सर्वभूतदया शौचं, जलशौचं च पञ्चमं ॥१॥ इति
॥३॥ __५७ पूता पवित्रा पूजा वा भावतो देवताया अर्चनं, ५८-५९ विमलः प्रभासा च तमिवन्धनत्वात् , ६. निर्मलं-कर्मरजोरहित
RRRRRRRREKKS
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STOCK
यगुणमिम्मियाई पजपनामाणि होति अहिंसाए भगवतीय वर्ष २१] एसा सा भगवती अहिंसा जा सा भी. याण विव सरणं, पक्लीणं पिव गमणं, तिसियाणं पिवसलिलं, खुहियाण पिव असणं,समुहमझे व पोतवणं, पउप्पयाण व आसमपर्य, दुहटियाणं च ओसहिवलं, अरबीमझे बिसस्थगमणं, एत्तो विसिहतरिका अहिंसा जा.सा पुढविजलअगणिमारुयवणस्सइबीजहरितजलचरथलचरखहचरतसथावरसव्वभूयखेमकरी एसा भगवती जीवं करोतीति निर्मलकरा एवमादीनि-एवं प्रकाराणि निजक-स्वकगुणनिष्पादितानि निम्मितानि यथार्थानीत्यर्थः, पर्यायनामानि तद्धर्माश्रितानि भवन्ति इत्यर्थः । अहिंसाया दयायाः भगवत्याः इति पूजावचनं । ___ एषा पूर्वोत्तमामार्थसार्था भगवती पूज्या अहिंसा कीशी? या सा प्रसिद्धा मीतानां-मयप्राप्तानां देहिनां शरणमिव शरणं गृहं त्राण १ पक्षिणां विहायोगमनमिव गमनं यथा पक्षिणां गतौ गमनाधारः आकाशं तद्वत् सकलधर्माणामाधारः अहिंसा २ दृषिवानामिव सलिल-बलं प्राणरक्षणत्वात् ३ क्षुधितामामिव अशनं भोजनं 'अनं प्राणा घृतं तेज इति वचनात् ४ समुद्रमध्ये पति-18 तानां यथा पोववहन प्रबहणमापणं ५ चतुष्पदानां यथा आश्रमपदं-गोष्ठतुल्यं बाथमे यथा चतुष्पदास्तिष्ठन्ति ६ दुःखस्थितानां च | यथा ओपपिपल यथापीडितानां औषधिस्तोपकारिणी ७ अटवीमध्ये यथा सार्थवाहागमनं यथा सार्थपतिररण्ये सुखकत्तथा अहिंसा। 3 | एतेभ्योऽपि विशिष्टता प्रधानतरा अहिंसा शरणादीनामपि विशेषणेभ्यः या सा, पृथ्वी जल-अप्काय: अनिस्तेजस्कायः मारुतोवायु बनस्पतिः बीजा शाल्यादयः हरितास्तुणादयः जलचरा मत्स्सादयः खलचरावतुष्पदाः खचराः-पक्षिणः सा दीन्द्रियादयः। सावराः पृथिव्यादयः एतेषां सर्वभूतानां क्षेमकरी कल्याणकरी एषा भगवती पूज्या अहिंसा या सा प्रसिद्धा एतादृशी अहिंसकैः
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संवरद्वारे
नव्या वृत्ति
अहिंसाया कारकाः
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॥४॥
अहिंसा जा सा, अपरिमिपमाणसणधरेहिंसीलगुणविणयतवसंयमनायकेहिं तित्थंकरहिं सबजगजीववच्छ
तिलोगमहिएहिं जिणचंदेहिं सुद्द दिट्ठा ओहिजिणेहिं विण्णाया उज्जुमतीहिं विविट्ठा विपुलमतीहिं वि. पुरुः प्रकाशिता तामाह
अपरिमितं-अमेयं शानदर्शनं येषां ते वैरित्यर्थः, शील-समाधानं तदेव गुणः शीलगुणः विनयतपःसंयमाच तान् नयंति प्रापयन्ति ते नायकाः स्वस परेषां वा तैस्तीर्थकरैर्दादशाङ्गसङ्घप्रथमगणघरकृतिः तित्थं भंते 'तित्थं चाउवण्णे संघे पवयणे पढ
मगणहरे या' इति वचनात् , सर्वजगजीववत्सलैः योगक्षेमकारित्वात् करुणोपेते, त्रैलोक्यमहितैस्तीर्थकरनामकर्मणः जगत्पूज्यनी४ यत्वात् , जिनचन्द्रैः-कारुण्यैकनिशाकरैः जिना:-सामान्यकेवलिनस्तेषां मध्ये चन्द्रा इव चन्द्रास्तैः, सुष्टु शोमनतया दृष्टा केवला
लोकनतः स्वरूपतः कार्यतब । सम्यग् विनिश्चिता तत्र गुरूपदेशतः कर्मक्षयोपशमादा बाह्याभ्यन्तरकारणतः, कार्यतस्तु अस्याः प्रम|सयोगात माणव्यपरोपणकदपि हिंसा प्रतिपक्षरूपत्वात् यतनापरिणामेनेति प्रोक्ता। विशिष्टावधिज्ञानिनस्तैरपि विज्ञाता परिक्षया युद्धा विशिष्टतया ज्ञाता, प्रत्याख्यानपरिक्षया च सेविता । ऋज्वी सामान्यग्राहिणी मतिर्येषां ते ऋजुमतयस्तैः ऋजुमतिमिष्टा अवलोकिता, विपुला-विशिष्टविशेषग्राहिणी मतिर्येषां ते विपुलमतयस्तैर्विपुलमतिभिर्विशेषतो दृष्टा, ऋजुमति-विपुलमतिबिमेदा अपि मनःपर्यवज्ञानिमः कथ्यन्ते सार्द्धद्वयद्वीपस्थितसंज्ञिपञ्चेन्द्रियमनोगतपर्यायवेदिनस्वैर्नितरां दृष्ट्वा रिउसामण्णं तम्मत्तग्गाहिणी मइ रिउमवि घडमित्तं चिन्तियमणेण नाणं पायं मणोदब्बे, विउला विसेसगाहिणी मई सा विजलमई नाणम्मि मयसो. पणिय वा पाडलीपुत्तो घडोणेण ॥२॥ इति विशेषस्तु नन्दीतो ज्ञेयः। उत्पादाग्रायणीयादिचतुर्दशपूर्वपररपीता श्रुतान्तर्गुम्फिता|
ऊजद
॥४॥
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६ सती पठिता, विष्यामः शुतज्ञानवद्भिः सम्पअधिः सर्वरोगा
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कविता पुष्षधरेहिं अघीता वेउव्धीहिं पतिक्षा, आभिणियोहियनाणीहिं, सुयनाणीहि, मणपज्जवनाणीहिं, केवल
नाणीहिं, आमोसहिपत्तेहिं, खेलोसहिपत्तेहि, विप्पोसहिपत्तेहिं, जल्लोसहिपत्तेहिं, सब्वोसहिंपत्तेहिं, सती पठिता, विकुर्विभिः-वैक्रियलब्धिधारिभिः प्रतीर्णा आजन्म पालिता इत्यर्थः, आभिनिवोधिकज्ञानिमिः-मतिज्ञानवद्भिस्तथा श्रुतं
आचाराङ्गादि तदध्येभिः श्रुतज्ञानवद्भिः सम्यक्प्रकारेण यतनया अनुचीर्णा प्रतिक्षणं प्रतिक्षणं आचरिता, मनापर्यवज्ञानिभिः केवल मज्ञानिमिः आमर्शः-स्पर्शः स एव औषधिरिव औषधिः सर्वरोगप्रहर्तृत्वात् तपश्चरणप्रभावात् लम्धिविशेषः तेन प्राप्ता येते तैः एवं सर्वत्र दायोज्यं । खेलो-निष्ठीवनं तदेव औषधिरिव औषधिस्ता प्राप्तास्तैः, विड्पा-मूत्रपुरीषावयवा अथवा विडत्ति विट-विष्टा पत्ति-प्रश्रवणं | | मत्रं शेषं तथैव व्याख्यातं, जल्ल:-शरीरमलस्तदेव औषधिरूपं येषां ते तैः जल्लोषधिलब्धिवादिः, सर्व एव आमादयः लब्धयः उक्ता अन्ये च बहवः अवयवाः सर्वा अपि औषधयस्ताः लब्धाः-प्राप्तास्तैः,
अथ प्रसङ्गादागतं लब्धिस्वरूपं किञ्चिदवबोधाय लिख्यते सम्माणु सम्वविरई मल-विप्पाऽमोस खेल सम्वोसही। विउव्वी आसीविस ओही रिउ विउले केवलयं ॥१॥ संभिन्न की जिण हरि बले चारण धुव्व गणहर पुलाए ।आहारग महुघयखीरआसवो कुंडबुद्धीय ॥२॥ बीयमई पैंयाणुसारी अक्खीणग तेय सीयलेसाइ।इय सयल लद्धिसंखा भवियमणुयाणमिह सव्वा ॥३॥ इति पूर्षाचार्यप्रणीतगाथात्रयं विचार्यते
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शान०वि० प्रश्न-व्या०
लब्धिस्वरूपम्
॥५॥
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तत्र तत्त्वार्थश्रद्धानरूपं सम्यक्त्वं स्याद्वादमतप्रतीतिः अस्तित्वमस्तिभावेन,नास्तित्वं नास्तित्वभावनैः। उभयत्वमेकभावेषु तत्त्वं स्याज्जिनभाषितं ॥१॥ इत्यादिरूपं तच्चानेकविधं यदुक्तं
दसणमिह सम्मत्तं तं पुण नन्नत्थ[तत्तत्थ] सहहणरूवं । खइयं खओवसमियं तहोवसमियं च नायव्वं ॥१॥ वेयगमवि सासायण पञ्चविहं होइ चत्तमिच्छत्तं। आयारमट्ठभेयं जो पालेइ तस्स सम्मत्तं ॥२॥
इत्यादिरूपा लन्धिः-प्रापणं सम्यक्त्वलब्धिः १, पृथक्त्वपल्योपमस्थितिमिथ्यात्वाऽपनयतो अणुव्रतप्रापणलन्धिः-अणुलब्धिः, | समतम्मि य लद्धे पलियपहुत्तेण सावओ होइ, चरणोवसमखयाणं सागरसंखंतरा हुँति ॥१॥ इति वचनात् , [प्रवचन वृत्ति पृ०४०४] जीवो यदा प्रन्थिमेदं कृत्वा सम्यक्त्वं प्राप्नोति ततो पश्चात् अन्ताकोटिस्थितिमध्यात् पलियपहुत्तत्ति केऽपि द्विपल्यस्थितिन्युना क्रियते केऽपि त्रिपल्योपमन्यूना क्रियते एवं यावत् नवपल्योपमपर्यन्तं तदा देशविरतस्य प्राप्तिः स्यात् । अणुशरीरकर| णशक्तिः यथा विशच्छिद्रमपि प्रविशति तत्र चक्रवर्तिभोगानपि भुते इत्यणुलब्धिः। तथा सर्वविरतिलब्धिः सप्तदशधा संयमप्रापणं पश्चाश्रवविरमणं पञ्चेन्द्रियनिग्रहः कषायजयः दण्डत्रयविरतिप्रापणं तदेव लब्धिः सर्वविरतिलब्धिः ३। मलो-जल्लः कर्णवदननासिकानयनजिह्वासमुद्भवः शरीरसंभवश्च यत्प्रभावात्सुगन्धीभवन् सर्वत्र भेषजीभावं भजते सा लब्धिर्मललब्धिः, लब्धिशब्दस्य प्रतिपदं योजना कार्या, सा मलौषधिलब्धिः कस्याऽपि शरीरकैदेशे समुत्पद्यते कस्याऽपि सर्वस्मिन् शरीरे, यदि स तेन आत्मानं परं वा व्यपगतरोग| मिति चुळ्या लिम्पति तदा व्याधेरपगमो भवति ४॥ मूत्रस्य पुरीषस्य वाऽवयवो विगुड् इत्युच्यते । अन्ये तु विगुड् विष्टा प्रश्रवणं च | ते द्वे औषधी यस्य विपुडौषधिरित्याहुः, अन्ये वित्ति विष्टा ताः संति पत्ति पासवणं 'एए अन्ने य बहु जेसिं सुरहिणोऽव
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| यवा रोगोत्रसमसमत्थाते हुन्ति ओषहीपत्ता' । ५ । आमर्शणं आमर्शः संस्पर्शनं स एव औषधिर्यस्या सा वाऽमशौषधिः, करादि| संस्पर्शमात्रादेव व्याध्यपनयनसमर्थः लब्धिलब्धिमतोरभेदोपचारात् साधुरेवाऽमर्शोषध्यादिलब्धिमानित्यर्थः, एवं शेषपदेष्विति भावनीयं इदमत्र तात्पर्यं तत्प्रभावात् स्वहस्तपादाद्यवयव परामर्शमात्रेणैवाऽऽत्मनः परस्य वा सर्वेऽपि रोगाः प्रणश्यन्ति सा आमशैषधिलब्धिः ६ खेल - श्लेष्मा तल्लब्धिमन्तो यदि आत्मानं परं वा रोगापनयनबुद्ध्या परामृशन्ति तदा तद्रोगापगमः । तथा चोक्तं योगशास्त्रान्तरलोकवृत्तौ तथाहि
तथाहि योगमाहात्म्यात् योगिनां कफबिन्दवः । सनत्कुमारादेवि, जायन्ते सर्वरुकुच्छिदः ॥ १ ॥ [ मुद्रित योगाखवृत्तौ पृ० १०-२]
योगिनां योगमाहात्म्यात् पुरीषमपि कल्पते । रोगिणां रोगनाशाय, कुमुदामोदशालि च ॥२॥ मलः किल समानातो, द्विविधः सर्वदेहिनां । कर्णनेत्रादिजन्मैको द्वितीयस्तु वपुर्भवः ॥३॥ योगिनां योगसंपत्ति-माहात्म्यात् द्विविधोऽपि सः । कस्तूरिकापरिमलो रोगहा सर्वरोगिणां ॥४॥ रोगिणां कायसंस्पर्शः, सिञ्चन्निव सुधारसैः । क्षिणोति तत्क्षणं सर्वानामयानामयाविनाम् ॥५॥
सर्वे एते विण्मूत्रकेशनखादयोऽवयवाः सुरभयो व्याध्यपनयनत्वादौषधयो यस्याऽसौ सर्वौषधिः, अथवा सर्वा आमर्शोषध्यादिकाः औषधयो यस्यैकस्यापि साधोः सा सर्वौषधिः तथा चोक्तं
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जान०वि० प्रभ०व्या०
प्रचि
लब्धि
REAC
स्वरूपम्
॥६॥
नखा केशा रवाधान्यदपि योगिशरीरज । भजते भैषजीभावमिति सर्वौषधिः स्मृता ॥१॥ तथाहि-तीर्थनाथानां, योगभृचक्रवर्तिनां। देहास्थिसकलस्तोमः, सर्वः स्वर्गेषु पूज्यते॥२॥ [मुद्रित योगशास्त्रवृत्ति पृ. १२-२]
किं च मेघमुक्तमपि वारि यदंगसंगमालदीवाप्यादिगतमपि सर्वरोगहरं भवति । तथा विषमूञ्छिता अपि यदंगसङ्गे वातस्पर्शा| देव निर्विषाः स्युः। विषसंपृक्तमप्यत्रं यन्मुखप्रविष्टं सदविषं स्यात्-महाविषव्याधिवाधिता अपि जीवा यद्वचः-श्रवणमात्रादर्शनाच वीत| विकाराः स्युः, एष सर्वोऽपि सौषधिपकारः ८। | वैक्रियलब्धिरनेकधा तद्यथा महत्त्वं-मेरोरपि महत्तरशरीरकरणसामर्थ्य १ लघुत्वं-वायोरपि लघुतरशरीरताकरणं २ गुरुत्वं | वज्रादपि गुरुशरीरतया इन्द्रादिभिरपि प्रकृष्टवलैर्दुस्सहता वा ३ प्राप्तिर्भूमिस्थस्याङ्गुल्यग्रेण मेरुपर्वताग्रप्रभाकरादिस्पर्शसामर्थ्य ४ अप्सु
भूमाविव प्रविशतो गमनशक्तिः अप्स्विव भूमावुन्मजननिमजने वा प्राकाम्यं ५ इशित्वं त्रैलोक्यस्य प्रभुता तीर्थकरत्रिदशेश्वरऋद्धिविकुर्वणं ६ वशीत्वं-सर्वजीववशीकरणलब्धिः ७ अप्रतिघातित्वं अद्रिमध्येऽपि निशई गमनशक्तिः ८ अन्तर्धानमदृश्यरूपता ९ | कामरूपित्वं युगपदेव नानाप्रकाररूपविकुर्वणशक्तिः १० इत्याधनेकविधवैक्रियलम्ध्यन्तर्गता अणिमादयः सिद्धयो भवन्ति ॥९॥
आशी-दाढा तग्गय महाविसासीविसा दुविह भेया। ते कम्मजाइभेएणणेगहा चरविहविगप्पा॥१॥ आश्यो | वदनमध्यगतदंष्ट्रास्तासु विषं येषां ते 'आशीविषा, आशीरिष्टप्रशंसायां दंष्ट्रायां पवनाशिनामित्यनेकार्थतिलकवचनात् ते द्विधा जातितः कर्मतक जातितो वृश्चिकमण्डकोरममनुष्यजातयः, वृश्चिकविषं तूत्कर्षतोर्द्धभरतममाणशक्तिः परं न केनापि कुता कुर्वाणा कारिष्य
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माणा वा, मणकवि भरतक्षेत्रप्रमाणं, भुनाविर्ष जम्बूद्वीपमान, मनुष्यविषं समयक्षेत्रप्रमाणे शक्त्या इति जातितः, कर्मतब पत्रट्रान्द्रियतिर्यग्योनयो मनुष्या देवांधासहस्रारान्ता एते तपवरणानुष्ठानतोऽन्यतो वा गुणत आशीविषधिकादिसाच्या क्रियां कुर्वन्ति,
शापप्रदानादिना परं व्यापादयन्ति, देवास्तु अपर्याप्तावस्खायां तच्छक्तिमन्तो ज्ञेयाः, ते हि पूर्वभवे समुपाजिंताशीविषलब्धयः सहस्सारान्तर्देवेष्वपि नवोत्पन्नाः प्राग्भव विकाशी विषलब्धिसंस्कारेण अपर्याप्तापस्थायामाशीविषलम्धयो व्यवड़ियन्ते, पर्याप्तावस्थायां संस्कारस्यापि निवृत्तिरिति न तद् व्यपदेशभाजः, तेऽपि शापादिना परं व्यापादयन्ति परं न तल्लन्धिव्यपदेशो, भवप्रत्ययतस्तथारूपसामर्थ्यस्य सर्वसाधारणत्वात् , गुणप्रत्ययो हि सामथ्यविशेषो लम्धिरित्याशीविषलब्धिः १०
ओहीत्ति अवशब्दो-अधः शब्दार्थः अवो-अघोऽधो विस्तृतं वस्तु धीयते परिच्छिद्यतेऽनेनेत्यवधिः, अथवा अवधिमर्यादा रूपिष्वेव द्रव्येषु परिच्छेदकतया प्रवृतिरूपा तदुपलक्षितं ज्ञानं तस्य लब्धिः-प्राप्तिरवधिलब्धिः। सा तु भवप्रत्ययगुणप्रत्ययिकमेदाम्बा क्षयोपशमवैचित्र्यतः द्रव्यक्षेत्रकालभावमेदात्मनः असंख्येयमेदास्ते तु आवश्यकवृत्तिनन्दीवृत्यादिभ्योऽवसेयाः ११ ।
ऋजुमतिरिति ऋज्वी-सामान्यग्राहिणी मविर्घटोऽनेन चिन्तित इति, | रिउ-सामण्णं तम्मत्तग्गाहिणी रिउमइ मणोनाणं । पायं विशेषविमुहं घडमित्तं चिन्तियं मुणह १
ऋजुमति:-प्रायो बाहुल्येन विशेषविमुख-देशकालाबनेकपर्यायपरित्यक्तं परेण चिन्तितं जानाति सा अजुमतिलन्धिः १२ विपुला-विशेषग्राहिणीमतिविपुलमतिः घटः सौवर्णः पाटलिपुत्रीयः। १ भदीशीपप्रमाणं । २ अष्टमदेवलोकं यावत् ।
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बानवि०
1४/लब्धि
प्रश्न०व्या०
स्वरूपम्
प्रति
॥७॥
MERA ROASAAB*
. विउलं वत्थुविशेसेण नाणं तग्गाहिणीमइ विउला। चिन्तियमणुसरह घडं पसंगओ पजवसएहिं ॥१॥ ___तथा विपुलं-विस्तीर्ण घटादेविशेषणानां देशकालादीनां मानसंख्यास्वरूपं तद्ग्राहिणी मतिः, सा च परेण चिन्तितं घटं प्रसङ्गतः पर्यायसहितैरुपेतं अनुसरति, सौवर्णो राजतो मृन्मयो वा अद्यतनो वा महान् अपवरकस्थित इत्याद्यपि प्रभूतविशेषविशिष्टघट परेण चिन्तितमवगच्छतीत्यर्थः, इदमत्र तात्पर्य मनःपर्यायज्ञानं द्वेषा ऋजुमतिविपुलमतिश्च, ततश्च सामान्यवस्तुमात्रचिन्तनमवृत्तिमन:परिणामप्राहि किञ्चिदविशुद्धतरमतृतीयाकुलहीनमनुष्यक्षेत्रविषयं ज्ञानं ऋजुमतिः, पर्यायशतोपेतघटादिवस्तुविशेषचिन्तनप्रवृत्तमनो. द्रव्यग्राहि स्फुटतरं-सम्पूर्ण मनुष्यक्षेत्रविषयं ज्ञानं विपुलमतिः । तत्र ऋजुमतिज्ञानं याति विपुलमतिस्तु केवलज्ञानहेतुः । यद्यपि सामान्यविशेषे सत्यपि मनापर्यवज्ञाने दर्शन न भवति,कथं सामान्यविशेषधर्मस्तु बोधे एव तिष्ठति, यथा मतिश्रुतयोः सामान्यविशेषे सत्यपि दर्शनं नास्ति तद्वदत्राऽपि ज्ञेयं, दर्शनस्याऽनाकाररूपत्वादत्र तु साकरोपयोगे सामान्यविशेषात्मको बोधधर्मो ज्ञेयः, न तु दर्शनावरणगतदर्शनधर्मो विवक्षितः, अत्र बहुवक्तव्यं तत्तु तत्त्वार्थवृत्ति-विशेषावश्यकवृत्तितो ज्ञेयमिति मनःपर्यवज्ञानलब्धिः १३। [१० तत्वार्थवृत्ति पृ० १०१
केवलं असहायं-मत्यादिज्ञाननिरपेक्षत्वात् , निरावरणं, सम्पूर्ण केवललब्धिः प्रतीता १४ ।
संभिनत्ति-यः सर्वैरपि शरीरप्रदेशःशृणोति स संभित्रश्रोताः एकेनापीन्द्रियेण समस्तापरेन्द्रियैर्गम्यान विषयान् योऽवगच्छति स इत्यर्थः । संभिन्नानि परस्परत एकरूपतामापनानि श्रोतांसि इन्द्रियाणि यस्येति वा-अथवा द्वादशयोजनविस्तृतस्य चक्रिसैन्यस्य युगपत् ब्रुवाणस्य तत्र्यसंघातस्य वा समकालमास्फाल्यमानस्य सम्भिन्नान् लक्षणतो विधानतश्च परस्परविभिन्मान जननिवहसमुत्था
RECASIOBACAAN:
॥७॥
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माSAABAR
र शंखकाहलमेरीभाणटकादितूर्यसमुद्भवशब्दान् युगपदेव विशेषतया शृणोति स संभित्रोतोलब्धिमान् ॥१५॥
चक्रवर्तित्वं १६ अर्हत्त्वं १७ वसुदेवत्वं १८ बलदेवत्वं १९ एता ऋद्धयस्तु ग्रन्थान्तरात्तवर्णनतः सुबोधाः।
अथ अतिशयगमनागमनलन्धिसंपन्नाश्चारणास्ते च द्विधा जवाचारणा विद्याचारणाश्च, ये चारित्रपवित्राः षष्ठायनिदानतपोविशेष| प्रभावतः सद्भूतातिशयगत्या गतिलब्धियुक्तास्ते चारणाः, ते प्रथमोत्पातेन त्रयोदशं रुचकद्वीपं यान्ति, वलमानाः प्रथमोत्पातेन
नन्दीश्वरे, द्वितीयोत्पातेन यत गतास्तत्राऽऽयान्ति, ऊर्ध्वमेकेनैव मेरुशिरसि पाण्डकवनं, वलन्तो एकेन नन्दनवन, द्वितीयेन खस्थानं, ला तेषां चारित्रातिशयप्रमावतो लब्धिः स्यात्ततो लब्ध्युपजीवनौत्सुक्यप्रभावतः प्रमादसम्भवाचारित्रातिशयनिबन्धना लन्धिरपि हीयते, | ततो वलन्तो द्वाभ्यामुत्पाताम्यां स्वस्थानं यान्तीति । ये पुनर्विद्यातिशयतः अष्टमादितपोविशेषतः समुत्पन्नगत्या गतिलब्धयस्ते विद्या
चारणाः, ते चोत्पावेनैकेन मानुष्योचरं, द्वितीयेन नन्दीश्वरं यान्ति, वलन्तः स्वस्थानं एकेनैव, ऊर्ध्वमेकेन नन्दनवन, द्वितीयेन पाण्डकवनं, एकेनैव खस्थान, ते रविकराऽऽतपं स्वीकृत्य गच्छन्ति । विद्याचारणा हि विद्यावशाद्भवन्ति, विद्या च-परिशील्यमाना स्फुटा स्फुटतरा जायते,ततः प्रतिनिवर्तमानस्य शक्त्यतिशयसंभवादेकेनैवोत्पातेन खस्थानमायान्ति, एवं बहुधा जलचारणाः पत्रचारणाः पुष्पचारणाः अग्निशिखाचारणाः पर्वताप्रशृङ्गसंचारिण इत्यादिका लब्धिः चारणलन्धिः ॥२०॥
पूर्वाणि चतुर्दशापि उत्पादादयस्तदध्ययनगणनशक्तिः पूर्वलब्धिः ॥२१॥ ___ गणधरलब्धिर्गणधरपदप्राप्तिस्तजन्मन्येव सिद्धेस्तीर्थकरशासनाधिपपदप्रापका प्रसिद्धा ॥२२॥ पुलाकलब्धिः पुलाकचारित्रजन्या। जिणशासणपडिणीयं, चूपिणज्जा चक्कावहिसेणं पि। कुविओ मुणी महप्पा, पुलायलद्धी संपुण्णा ॥१॥॥२३॥
CATEGOREGAO
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स्वरूपम्
॥८॥
शान०वि०
आहारकशरीरकरणशक्ति-कविचतुर्दशपूर्वधरवित् यति ऋद्धिप्राप्तो निमोदादिसंशयविच्छेदनार्थ जिनदिफाति-दर्शनार्थ वाट प्रश्न०व्या० खशरीर हस्तप्रमाणमनुत्तरसुरादप्यतिमासुरं विवर्य विदेहस्खजिनपाचे मोचयति तत् पृच्छनमात्रेणव अत्रस्खस्य संशयो याति यया सावृत्ति ऽऽहारकलब्धिः ॥२४॥
मधु-शर्करादिमधुण्यं सर्पि-घृतं अतिशायि गन्धादि घृतं, धीरे चक्रवसिंगोसत्कं दुग्धं तेषां य आसवोऽतिशायी रसो अथवा | आसवा धातुदीप्रकारिणो द्रव्या वा एतत्वादोपमानवचना वैरखाम्यादिवत् तद्वत् आश्रवति स्वादुत्वं यद्वचनं याति, अथवा यत् पात्र| पतितं कदनमपि मधुधीरसपिवीर्यविपार्क जायते, यद्वचनं शरीरादिदुःखसंतप्तानां मधुसप्पिक्षीरादिवत् सन्तर्पकं भवति ॥२५॥ । कोढबुद्धत्ति कोष्ठागारेखापितानामसंकीर्णधान्यबीजानामविनष्टानां भूयसां यथा कोष्ठेऽवस्थानं तथा परोपदेशादवधारिवानां श्रोता. नामर्थवीजानां भूयसामनुस्मरणमन्तरेणाऽविनष्टानामवस्थानात् कोष्ठबुद्धिः। यथा कोष्ठकनिक्षिप्तधान्यानि इव सुनिर्गला अविस्मृतत्वा
चिरस्थायिनः सूत्रार्था येषां ते, कोष्ठे इव धान्यं या बुद्धिः आचार्यमुखाद्ययावनिर्गतौ सूत्राौँ तदवस्थानावेव धारयति न किमपि तयोः है त्रार्थयोः कालान्तरेऽपि गलति सा कोष्ठषुद्धिः २६
सुकृष्टे-वसुमतीक्षेत्रे क्षित्युदकाधनेककारणविशेषापेक्षं बीजमनुपहतं यथाऽनेकबीजकोटिप्रदं भवति तथैव ज्ञानावरणीयादिक्षयोपशमातिशयलाभादेकार्थचीजश्रवणे सत्यनेकार्थवीजतां प्रतिपचिर्वीजपुद्धिः २७
पदानुसारिणस्नेषा अनुश्रोतः पदानुसारिणः, प्रतिश्रोतः पदानुसारिणः, उभयपदानुसारिणः, तत्र आदिपदस्वार्थ प्रन्यं च परत | उपश्रुत्व आअन्त्यपदादर्थग्रन्थं विचारयितुं समर्थमतयोऽनुश्रोतःपदानुसारिणः । अन्त्यपदस्यार्थ अन्वं च परत उपभुत्प ततः प्रातिकू
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॥८॥
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339004-04WCASEX
ल्येनादिपदाद अर्यग्रन्थविचारपटवः प्रतिश्रोत पदानुसारिलब्धयः। मध्यपदखार्थ प्रन्यं च परकीयोपदेशादधिगमाघतावधि परिमिक
अपदसमूहप्रतिनियतार्थब्रन्थोदधिसमुत्तारणसमर्थासाधारणातिशयपटवः उभयपदानुसारिणः | जो सुत्पएण बहु, सुयमणुधावह पयाणुसरि सो। जो अस्थ पएणत्थं, अणुसहस बीयबुद्धीयओ॥१॥ इति वचनात् ॥२८॥
अक्खीण. येषामल्पमपि अनं पात्रे पतितं श्री गौतमादीनामिव बहुम्यो दीयमानमपि नक्षीयते तेऽक्षीणमहानसाः,अक्षीणं येना|ऽनीतं मैक्षं बहुभिरपि-लक्षसंख्यैरप्यन्यैस्तृप्त्या भले न धीयते यावदात्मना भुक्तं सत् निष्ठा यातीत्यक्षीणलन्धिः। कारणे कार्योंपचारात् एवं अक्षीणमहानसलब्धिरपि। परिमितभूमिप्रदेशेऽपि अपरिमिते इव तत्राऽसंख्याता देवादयः परस्परं बाधारहिता वृद्धलघुत्वाद स्थितिविवेकभाजः तीर्थकरपर्षदीव सुखमासत इति अंक्षीणमहालयलब्धिवन्तः यतः
अक्खीण महाणसीया भिक्खं जेणाणीयं पुणो तेण। परिभुत्तं चिय खज्जइ बहुएहिंवि न उण अन्नेहिं ॥१॥ 8 अक्खीणमहालया जे, परिभूमिसु अपरिमिउव्वजणा। चिट्ठह अव्वाषाहाऽसंखजणावुलहुभावा ॥२॥२९ ।
तेयत्ति तेजोलेश्यालब्धि:-क्रोधाधिक्यात् प्रतिपन्थिनं प्रति मुखेनाऽनेकयोजनप्रमाणक्षेत्राश्रितवस्तुदहनदक्षतीव्रतस्तेजोनिसर्जनशक्तिः , इह यः खलु शमी निरन्तरं षष्ठतपः करोति पारणकदिने च सनखकुल्माषमुष्टया जलचूलुकेनैव एकेन आत्मानं यापयति तस षण्मासान्ते तेजोलेश्यालब्धिरुत्पद्यते ३०
सीयत्ति-शीतलेश्यालब्धि:-अगण्यकारुण्यवादनुप्रासं प्रति तेजोलेश्याप्रशमप्रत्यलशीतलतेजोविशेषविमोचनसामध्य। पुरा किल | श्रयते-गोशालः कूर्मग्रामे करुणारसिकान्तःकरणतया प्रभूत्यूकासंततितायिनं वैशिकायनं बालतपस्विनं अहेतुकलहकलनतया अरे!
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मानवि०
ABREAC
स्वरूपम्
युकाशय्यातरेत्याधनर्थोक्तिमिः कोपाटोपाध्मातमकरोत् तदाशिकायितपस्वी तस्य दुरात्मनो दाहाय बजदहनदेश्यां तेजोलेश्या प्रश्न०व्यात
विससर्ज । तत्कालमेव भगवान् वर्धमानखामी प्रगुणितकरुणस्तत्प्राणत्राणाय प्रचुरपरितापोच्छेदछेको शीतलेश्यामसुत्रादिति शीतलेवृत्ति || श्यालन्धिः ३१
| आदिशब्दात् प्रज्ञादयोऽपि प्रकृष्टश्रुतावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमाविर्भूता अनधीतद्वादशांगचतुर्दशपूर्वाऽपि सन्तो यमर्थ ॥९॥ चतुर्दशपूर्वी निरूपयति तस्मिन् विचारकृच्छ्रेऽप्यर्थेऽतिनिपुणप्रज्ञाः प्राधिमन्तः श्रमणाः । एता लन्धयः स्युरिति संक्षेपार्थः।
| अथ येषां येषां या या लब्धयो भवन्ति न भवन्ति पूर्वोक्तास्ताः प्रसंगतोऽवबोधाय लिख्यन्ते-संमिन १ चकि २ जिन ३ हरि | ४ बल ५चारण ६ पूज्य ७ गणहर ८ पुलाका ९ हार १० वर्ज शेषा एकविंशतिलब्धयो भव्यस्त्रीणां सिद्धिगमनयोग्यानां भवन्ति ।
तथा मल्लिस्वामिनः स्त्रीत्वे प्रभूतलब्धिसर्वत्वं तीर्थकरत्वं चाऽभूत् तदाश्चर्यभूतत्वान गण्यन्ते। अभव्यपुरुषाणामपि पोडश न भवन्ति | पञ्चदश भवन्ति १सम्म २अणु ३सव्व ४विपुल ५केवल ६ऋजुमई एते षद् , पूर्वोक्ता दश एवं षोडशवजे शेषाः पञ्चदश भवन्ति, क्षीराश्रवलब्धिरपि अभव्यत्रीणां न भवति, अभव्यस्त्रीणां चतुर्दशैव भवन्ति, यदुक्तं
अरिहंतचचिकेशवपलसंभिन्ने य चारणे पुव्वा। गणहर-पुलाय आहारगं च, न हु भवियमहिलाणं ॥१॥
अभवियपुरिसाणं पुण दस पुब्बिलाउ केवलितं च । उज्जुमई विउलमई तेरस एयाओ नहुहुन्ति ॥२॥ अभविय महिलाणंपि हु एयाओ हुँति भणियलद्धीओ। महुखीरासपलद्धीवि नेय सेसा विय अविरुद्धा ॥३॥ नारकाणां सम्यक्त्व १ अवधि २ वैक्रिय ३ लम्धयो भवन्ति । सुरासुराणां तु पूर्वोक्तास्तिस्रः तेजोलेश्या सहिताश्चतस्रः, गर्म
BISHESA5645
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॥९॥
ASEAROR
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35SAALKAROES
ॐ जसंक्षिपञ्चेन्द्रियतिर्यक्षु देशविरतियुक्ताः पञ्च,युगलिषु सम्यक्त्वलम्धिश्चैका १ पर्याप्तस्थूलवायुषु वैक्रियलम्धिः १ स्थूलैकेन्द्रिय-अपर्याप्त
| पृथिव्यवनस्पत्यादिषु न कापि केचित् सास्वादनं च, अपर्याप्तविकलेषु न काऽपि लन्धिः, अपर्याप्तसुरनारकेषु सम्यक्त्वावधिलब्धी | * समुछिमेषु सूक्ष्मेषु न काऽपि लम्धिः, रत्नप्रमादागतानां तद्भवसिद्धिकाणां सर्वा अपि ॥३१॥ शर्कराप्रमादागतानां चक्रिवजे त्रिंशत् | ||३०। वालुकागतानां हरिबलवर्ज २८ भवन्ति । पङ्कादागतानां जिनवर्ज २७ भवन्ति । धूमादागतानां ऋजुमति यावत् द्वादशलब्धयो | भवन्ति तद्भवसिद्धेरभावात्१२ तमःप्रभादागतानां सम्यक्त्वदेशविरती लब्धी द्वे सर्वविरतेरभावादन्यासां प्रतिषेधः२। तमातमाप्रमा| दागतानां सम्यक्त्वलब्धिरेका नाऽन्यासंभवन्ति । वैमानिकादागतानां तद्भवसिद्धिकानां सर्वा अपि ३१॥ भवनपति-व्यन्तर-बानव्यन्तर-ज्योतिष्केभ्य आगतानां जिन हरिवर्ज २९ भवन्ति। अनुसरविजयादिचतुर्म्यः समागताना ३० तिर्यग्भ्यो नरेभ्यश्च समागतानां तीर्थकच्चक्रिहरिबलवर्जाः २७ भवन्ति । पृथव्यब्बनस्पतिभ्यः समागतानां अपि एता एव २७ लब्धयो भवन्ति । विकलेन्द्रियेभ्य आगतानां विपुलमतिप्रभृतिलन्धिसमुदायं विहाय पूर्वोक्ताः सम्यक्त्वादिद्वादशलब्धयो। मिथुननिकरेभ्य आगताना सुर| वच्चतस्रः सम्मोहि घेउब्धि सतेया ४ इत्युक्तेः। सूक्ष्मानिपवनेभ्य आगतानां न कापि लब्धयो भवन्ति । सहयातायुष्कभव्य| नराणां स्त्रीणां च प्रवरा शिवलब्धिर्भवति । एतावता विजयादिवत् युगलिनोऽपि मुक्तिगामिनः। सर्वार्थविमानात् ब्युताः चतुःकृत्वः कृतोपशमश्रेणिकाहारकशरीराः जिनाः गणधराश्च नियमेनैव तद्भवे सिद्धिगामिनो भवन्ति । लोकान्तिकदेवाः सप्ताष्टमवैर्मुक्तिगामिनस्तदधिपतयः एकावतारिणत्यादयो लब्धिविचाराः आवश्यकवृत्तिप्रवचनसारोदारकृति-लब्धिस्तोत्रादिग्रन्थान्तरादवसेयाः ७ अत्र तु ज्ञापनकृते किञ्चिल्लिखित इति । प्रवचनसारोद्धार-४२८-१३२]
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बान वि०
प्रश्नाव्या
वयोविंशति रत्नपदवी विचार:
वृति
FEAEAA570
॥१०॥
प्रयोविंशतिरत्नपदवीविचारो यथाचकं छत्तं दंडी खरेंग चैम्मं च मणीय कागणीया एगेंदी सत्त रयणाणि पणिदिरयणाणि तह सत्त॥१॥ सेणावई १गाहावई २ वहुई ३इत्थी ४ पुरोहिओ५ तुरओ६ गयरयणं ७ चक्कीणं पउद्दस एयाणि रयणाणि ॥२॥ तित्थयर १५ चकि१६ हरि १७ बल १८ केवलनाणं १९ मुणीय २० समत्तं २१ मंडलिय २२ देशविरई २३ तिगवीसं रयणपदवीणं ॥३॥
रत्नप्रभातो निर्गता सप्तैकेन्द्रियवर्ज पोडशपदव्यः[वी.] प्राप्नुवन्ति । शर्करात आगता चक्रिपदवर्ज पञ्चदश, वालुकात: आगताः हरिबलवर्ज त्रयोदश, पकातः आगताः चक्रिहरिवलतीर्थवर्ज द्वादश, धूमातः आगताः केवलिबर्ज ११, तमाप्रभातः आगताः साधुपदवीवर्ज दश १०, तमस्तमःप्रभातः आगताः गजतुरगसम्यक्त्वरत्नपदवीत्रयं लभन्ते । भवनव्यन्तरज्योतिष्कदेवेम्यो निर्गतास्तीर्थकरवासुदेवपदवी वर्ज २१ पदवी प्राप्नुवन्ति । पृथिव्यम्बनस्पतिभ्य उद्धृत्तानां तीर्थकच्चक्रिबलवासुदेवपदवीवर्ज १९ पदव्योभवन्ति, तेजोवायुम्यो निर्गताः सप्तैकेन्द्रियरत्नं गजाश्वरत्नानि चाऽनुभवन्ति । विकलेन्द्रियेम्य उद्धृत्वाः तीर्थचक्रिवलहरिकेवलिवर्ज अष्टादशपदवीः प्राप्नुवन्ति, मनुष्येभ्यो तिर्यग्भ्यो निर्गताः तीर्थकचक्रिहरिवलवर्ज एकोनविंशतिपदवीः १९ प्राप्नुवन्ति, सौधर्मेशानेम्य आगतात्रयोविंशतिपदवीरनुभवन्ति, सनत्कुमारादिदशदेवलोकेभ्य आगतानां सप्तैकेन्द्रियरत्नपदवीवर्ज पोडश भवन्ति, नव|वेयकेश्य आगतानां सप्तैकेन्द्रिवरत्नपदवी-अश्वगजरलपदवीवर्जपतर्दश भवन्ति १४, अनुचरविमानेम्य आगताः तीर्थकवचक्रि
KOLAN
॥१
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56-
SAHASABASSAGE
बीजबुद्धीहि, बुद्धीहिं; पदाणुसारीहि, संभिक्षसोतेहिं, सुयधरेडि, मणवलिएहिं, वयवलिएहिं, कायलिएर माणबलिएहिं, वंसंणबलिएहिं, चरित्तबलिएहिं, खीरासबेहिं,मधुआसवेहिं, सप्पियासवेहिं, अक्खीणमहाणसिएहिं चारणेहिं, विजाहरेहिं, चउत्थभत्तिएहिं, एवं जाव छम्मासभत्तिएहिं, उक्खित्तचरएहिं,निक्खित्तचरएहिं, अंतचरएहिं, पंतचरएहिं, लूहचरएहिं, अबइलाएहिं, समुदाणचरएहिं, मोचरएहिं, संसहकप्पिएहिं, तब्जाय | पलकेवलज्ञानमुनिसम्यक्त्वमांडलिकदेशविरतिप्रभृत्यष्टौ पदवी प्राप्नुवन्ति, शेषाः पञ्चदशन । प्रसङ्गादिति अपि लिखितम् । द्रव्य८. लोकप्रकाश पृष्ठ
- अथ प्रस्तुतं वच्मा-धीजकल्पा बुद्धिर्येषां ते तैः, कोष्ठ इव बुद्धिर्येषां ते तैः, पदं प्रति अनुसरणशीला बुद्धिर्येषां ते ते, ४ भिमानि एकार्थबाहीणि इन्द्रियाणि येषां ते तैः संमिश्रोतोभिः,श्रुतधरैः, मनसा बलं येषां ते दुर्दर्षेऽपि कार्य अक्षोभ्यचेतसः, षण्मासं है यावत् प्रत्युत्तरदानेप्रतिक्षोभ्यवचसा दुर्वादिन प्रति निराकरणशीला वचनबलिनस्तैः, काया शरीरं परीषहादिभ्यः अकम्प्रचलं येषांद
ते कायवलिनस्तैः, ज्ञानेन मत्यादिना बलिनस्तैः दर्शनं निश्शंकितादितत्त्वश्रद्धानरूपं तेन बलवन्तस्तैः, चरित-षट्कायसंयमः कर्मणां| ४चयस्य रिक्तीकरणं चारित्रं तेन बलवद्भिः, क्षीराश्रवलब्धिमद्भिः, मध्वाश्रवलब्धिमद्भिः, सप्पिः घृतं तदास्वादवाक्यलब्धिमद्भिः, अ.
क्षीणा महानसिकलब्धिमद्भिः एतेषां सर्वेषामपि पदानां अर्थों व्याख्यातोऽस्ति, अङ्गुष्ठादिप्रश्नोत्तरविघामद्भिः, चतुर्थभक्तिमद्भिःएकान्तरोपवासकारिकैः चतुर्थभक्तशब्द:-एकक्षपणपर्यायः, एवं षष्ठभक्तकैः-उपवासद्वयकारकै, अष्टममक्तकैः-उपवासत्रयकारकैः, एवं, दसम-दुवालस-चोदस-सोलस-मास-दोमास-तिमास-घउमास-पश्चमास-पण्मासा एतचपःकारकैः, एवं तपोधिकारात् द्रष्टव्यम् ।
1
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ज्ञान वि० प्रश्न०व्या०
न
॥१२॥
LATIOEATRE
उत्क्षित पाकभाजनात् उद्धृतं तं चरन्ति-गवेषयन्ति ते उत्क्षिप्तचरास्तैः, निक्षिप्त पाकस्सालीस्थितं गवेषयन्ति ते निक्षिप्तचरास्तैः, अंत | वल्लचणकादिधान्यं चरन्ति ते वैः, तदेव धान्यं भुक्तावशेष प्रान्तं तद गवेषयन्ति ते अन्तप्रान्तचरास्तैः, रुवं निःस्नेहं विदलादि तं चरन्ति ते तैः, एतादृशं मैक्ष्यप्राप्ताप्राप्तौ सत्यां ग्लान-दैन्यं न धारयन्ति ताशैर्वाचंयमैः, समुदानं बहुगृहं समुदायिमेवं तं चरन्ति ते तैः, मौनं-पार्थना-चाटुवाक्यसंयमः तं चरन्ति ते तैः, निर्दोषानमोजिभिरित्यर्थः, संसृष्टकल्पिकैः-संसृष्टो-अभिग्रहरूपकल्प | आचारो येषां ते संसृष्टकल्पिकास्तैः, संसृष्टादिविचारस्त्वे| संसट्टेयरहत्थो मत्तोविय दव्व सावसेसेहिं । एएसु अडभंगा नियमा गहणेसु ओजेसु॥१॥
दातुः सम्बन्धी हस्तः संसृष्टोऽसंसृष्टो वा भवति येन च कृत्वा मिक्षां ददाति, तदपि पात्रं संसृष्टमसंसृष्टं वा, द्रव्यं सावशेष इतरद्वा | | निरवशेष एतेषां च प्रयाणां पदानां संसृष्टहस्त-संसृष्टपात्र-सावशेषद्रव्यरूपाणां परस्परसंयोगतोऽष्टौ भङ्गा भवन्ति, ते चाऽमी-संसृष्टो हस्तः संसृष्टं पात्रं सावशेषं द्रव्यं १ संसृष्टो हस्तः संसृष्टं पात्रं निरवशेषं द्रव्यं २ संसृष्टो हस्तः असंसृष्टं पात्रं सावशेषं द्रव्यं ३ संसृष्टो हस्तः असंसृष्टं पात्रं निरवशेष द्रव्यं ४ असंसृष्टो हस्तः संसृष्टपात्रं सावशेष द्रव्यं ५ असंसृष्टो हस्तः संसृष्टं पात्रं निरवशेषं द्रव्यं ६ असंसृष्टो हस्तः असंसृष्टं पात्रं सावशेष द्रव्यं ७ असंसृष्टो हस्तः असंसृष्टं पात्रं निरवशेषं द्रव्यं ८ एतेषु चाऽष्टभङ्गेषु मध्ये ओजस्सु-विषमेषु प्रथमतृतीयपश्चमसप्तमेषु ग्रहणमोदनस्य कर्त्तव्यम् , न च समेषु-द्वितीय-चतुर्थ-षष्ठाष्टमेषु मङ्गेषु । इयं चान भावना-इह हस्तो पात्रं | वा द्वेषा खयोगेन संसृष्टे वा भवतः, असंसृष्टे तद्वशेन पश्चात्कर्म सम्भवति किं तर्हि द्रव्यावशेषे न, तथाहि-यत्र द्रव्यं सावशेषं तत्रैव साध्वर्थ खरंटिते अपि न दात्री प्रक्षालयति, भूयोऽपि परिवेषणसम्भवात् यत्र तु निरवशेष-द्रव्यं तत्र साधूनां दानानन्तरं नियमत
CHECRECROMANSAR
॥१२॥
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IMSHASAA-%
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संसट्ठकप्पिएहिं, उवनिहिएहि, सुद्धेसणिएहिं, संखादत्तिएहिं, विट्ठलाभिएहिं, अदिठ्ठलाभिएहिं, पुट्ठलाभिएहिं, आयविलिएहिं, पुरिमडिएहिं, एक्कासणिएहिं, निग्वितिएहिं, भिन्नपिंडवाइएहिं, परिमियपिंडवाइएहिं, अंताहारेहिं, पंताहारेहिं, अरसाहारेहिं, विरसाहारेहिं, लूहाहारेहिं, तुच्छाहारेहिं, अंतजीविहिं, पंतजीविहिं, लूहजीस्तद् द्रव्याघारस्थाल्यां हस्तं पात्रं वा प्रक्षालयति, ततो द्वितीयादिषु भङ्गेषु द्रव्ये निरवशेषे पश्चात्कर्म सम्भवात् न कल्पते विसमेषु | पथात्कर्म असम्भवात् कल्पते इति संसृष्टादिविचारः पिण्डनियुक्त्यादिभ्योऽवसेयः। ।
तजातं तत्प्रकारेण जातं यत्द्रव्यं तदेव कल्पो येषां ते तैः, उपनिधिप्रत्यासमं चरन्ति ते उपनिधिकास्तैः, शुद्धैषणिकै शकितादिदोषपरिहारिणस्तैः, संख्याप्रधानाभिः पश्चमादिपरिमाणवतीमिर्दत्तिमिः सद्भक्तादिपात्रप्राप्तलक्षणाभिवरन्ति ये ते संख्यादत्ति| कास्तैः, दत्तिलक्षणं चैतत् ।
दत्तिओ जत्तिए वारे खिवह य होति तत्तिया अवोच्छिन्ननिवाया दत्तीओहोंति बव्वम्मि ॥१॥
दृश्यमानस्थानादानीतं गृह्णन्ति ते दृष्टिलाभिकास्तैः, एवं अदृष्टपूर्वेण दीयमानं गृहन्ति ते तैः, इद साधूनां कल्पते इत्येवं प्रश्नBा पूर्वकं ये लब्धं गृहन्ति ते पृष्टलामिकास्तैः, सर्वदा आचाम्लमेव येषां ते तैः, पुरिमार्द्ध पारणकेऽपि येषां ते तैः, एतावता षष्ठाष्टमादि | पारणेष्वपि तत्तपोवद्भिः, एकाशनकं पारणेऽपि येषां तैः, निवृत्तिकतपोवद्भिः, मित्रपिंडेति भिमा-फुटितः पिण्डस्य-ओदनस्य पातः-पात्रपतनं येषां ते मिमपिण्डपातिकास्तैः, एतावता दायकहस्तेभ्यः खयमेव निसृष्टपिण्डग्राहि अभिग्रहवद्भिः, परिमितग्रहप्रवे.. पिण्डनियुकि पृष्ठ २५-२ यतिदिनचर्या पृष्ठ १७८-२
AAAAAG
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बान०वि०
प्रश्न०व्या०
द्वादश मिक्षु प्रतिमा स्वरूपम्
॥१२॥
SARAIGHASIRCARRROR
विहि, तुच्छजीविहिं, उपसंतजीविहिं, पसंतजीविहि,विवित्तजीविहिं,अस्वीरमहसप्पिएहिं, अमजमंसासिएहि, शादिना वृत्तिसंक्षेपेण पिंडपातिकास्तैः, अन्त-धान्याऽपेक्षया वल्लकचणकादि प्रान्तं पूर्वकरणात् गवेषणायाः पूर्व अथवा प्रान्तं तदेव शीतपर्युषितं तदेव आहारो येषां ते तैः, अरसं हिंग्वादिमिरसंस्कृतं, विरसं-पुराणत्वात् , गतरसं-निःसारं, रूक्ष-स्निग्धविकृत्यादिभिः | रहितं, तुच्छं तदपि अल्पत्वात् तदाहारादिभिः, अन्तं पूर्वोक्तं तेन जीवितं एषां ते तैः । सदाकालं यावत् इति सर्वत्र योज्यं । अन्त
जीविभिः प्रान्तजीविभिः रूक्षजीविभिः, तुच्छजीविभिः, प्राप्ताऽप्राप्तौ सत्यां उपशान्ततया जीवितं येषां ते तै, उपशान्तत्वं पहिल्या | वदनचक्षुषादिना, प्रशान्तत्वं-अन्तर्वृत्या क्रोधादुपशमेन वा, विविक्तैर्दोषविकलभक्तादिभिर्जिवितं येषां ते तैः, अक्षीरमधुसस्पिष्ट | एतावता दुग्धमधुरक्षौद्रघृतवर्जकै, नास्ति मद्यमांसादीनामशनं येषां ते तैः, स्थान त्वग्वर्तनस्थानाभिग्रहविशेषेण आददते इति स्थाना. दिकास्तैः अथवा स्थान-निषीदनं तिष्ठन्ति ते तैः, प्रतिमया स्थायिभिः-कायोत्सर्गेण भिक्षुपतिमया मासिक्यादिक्या तिष्ठन्ति ये ते तथा तैः, अथ प्रसङ्गादागतं प्रतिमाखरूपं लिख्यतेमासाइ सत्तं वा ७पढमा ८षिय९तइय १० सत्तराइदिणा। अहोराई ११ एगराई १२ भिक्खुपडिमाण बारसगं ॥
मासादयो-मासप्रभृतयः सप्तांता सप्तमासावसानाः एकैकमासवृक्ष्या सप्त प्रतिमा भवन्ति, तत्र एको मासः परिमाणमस्याः सा | एकमासिकी १, एवं द्विमासिकी द्वितीया २, त्रिमासिकी तृतीया ३, यावत् सप्तमासिकी सप्तमी ७, पहमति सप्तानां प्रतिमानां उपरि प्रतिमा प्रथमा द्वितीया तृतीया एताब तिस्रोऽपि क्रमेण अष्टमी नवमी दशमी सप्तरात्रिदिवा परिमाणा, अहोराइचि अहोरात्रं परिमाणं
१ पञ्चाशकग्रन्थान्तरान्तिमपञ्चाशके भिक्षुप्रतिमाधिकारः
॥१२॥
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अस्या सा अहोरात्रिकी एकादशी प्रतिमा ११, एगराइचि - एकारात्रिर्यस्यां सा एकरात्रिकी द्वादशी प्रतिमा इत्येवं भिक्षुप्रतिमाणसाधुप्रतिज्ञाविशेषाणां द्वादशकं भवन्ति ।
अथैताः कीदृशी मुनिः प्रतिपद्यते १ तत्र संहननं वज्रऋषभनाराचादेराद्यत्रयान्यतरदेतद्युक्तो प्रत्यन्तपरीषहसहनसामर्थ्यवान्, धृतिवित्तखास्थ्यं तद्युक्तः, महासत्वः सात्विकः अनुकूलप्रतिकूलोपसर्गेष्वपि हर्षविषादं न कृतवान, सद्भावनाभावितान्तःकरणः प्रतिमानुष्ठानेन भावितात्मा तुलनापश्चकेनापि धृतिमान् यदुक्तं
सवेण सत्तेण सुत्तेण एगलेण वयेण य । तुलना पंचहा वृत्ता पडिमं पडिवजओ ॥ १ ॥
भाषितात्मा कथं सम्यग् यथागतं तथा गुरुणाऽऽचार्येण वाऽनुज्ञातः यदा गुरुरेव प्रतिपत्ता तदा व्यवस्थापिताऽऽचार्येण गच्छेन वाऽनुमतस्तदा गच्छ एव साधुसमुदायमध्येऽवतिष्ठन निर्मात आहारादिविषये प्रतिमाकल्पपरिकर्मणि परिनिष्ठितः, परिकर्मपरिमाणं तु मासिक्यादिषु सप्तसु या यत्परिमाणा प्रतिमास्तस्यास्तत्परिमाणमेव परिकर्म, तथा वर्षासु नैताः प्रतिपद्यन्ते, न च परिकर्म करोति, यथा - आद्यद्वयमेकत्रैव वर्षे, तृतीयचतुर्थ्यां चैकैकस्मिन् वर्षे, अन्यासां विसृणां एकत्र एकत्र वर्षे प्रतिकर्म्म, अन्यत्र च प्रतिपत्तिस्तदेवं नवभिर्वर्षेराद्याः सप्त समाप्यन्त इति । श्रुतमपि उत्कृष्टतस्तु दश असपूर्णानि पूर्वाणि किश्चिदूनानि । सम्पूर्णदशपूर्वधरो हि अमीघवचनत्वात् धर्मदेशनया भव्योपकारित्वेन तीर्थवृद्धिकारित्वात् प्रतिमादिकल्पं न प्रतिपद्यते । जघन्यतस्तु नवमपूर्वस्य प्रत्याख्याननामकस्य तृतीयवस्त्वाचाराख्यं तद्भागविशेषं यावदित्यर्थः । स्याञ्जघन्योऽल्पीयानपि श्रुताधिगमः श्रुतज्ञानं सूत्रतोऽर्थतश्च । एतत् श्रुतवि| रहितो हि निरतिशयज्ञानरहितत्वात् कालादीन् न जानाति, तीर्थकरादीनां वचनानुसारतः स्कन्धकादिवत् करोत्यल्पञ्जतक्ानपीत्यर्थः ।
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ज्ञान०वि०
प्रश्न० व्या०
वृचि
॥१३॥
तथा त्यक्तदेहममत्वः, दिव्यमानुषतैरश्रोपद्रवसहिष्णुर्जिनकल्पिकवत् परीषहसहः, एक्जापिण्डग्रहणेऽप्येतादृशः१संसट्टमसंसठ्ठा २उद्धड ३तह अप्पलेवडा चेव४ । उग्गहिया५ पग्नहिया६ उज्जियधम्मा ७ सत्तमिया ॥१॥ तथाख्यानं यथा
पिण्डः- समयभाषया मक्तं तस्य एषणा- ग्रहणप्रकारः असंसृष्टा हस्तपात्राभ्यां १ संसृष्टा हस्तपात्राभ्यां २ पूर्वोकाष्टमेदं उद्धृतं पाकस्थानात् स्थाल्यादौ स्वयोगेन भोजनजातमुद्वृत्तं ततोऽसंसृष्टे हस्ते संसृष्टे पात्रे संसृष्टे हस्ते असंसृष्टे पात्रे गृह्णतः ३ अल्पक्षब्दोऽमाववाचकः निर्लेप वल्लकचणकादि गृहतः ४ अवगृहीता भोजनकाले भोक्तुकामस्य शरावादिषूपहृतमेव भोजनजातं यत् तद्गृहतः ५ प्रगृहीता भोजनवेलायां भोक्तुकामाय दातुमुद्यतेन करादिना प्रगृहीतं यद्भोजनजातं भोक्ता भोक्तुं वा स्वहस्तादिना तद्गृहतः ६ उ जायत्ति - कायपरित्यागाईमां अन्यच्च द्विपदादयोऽपि नेच्छन्ति तदहं त्यक्तं वा गृहतः, तासां सप्तानामेषणानां मध्ये आययोर्द्वयोरग्रहणं पश्चसु ग्रहणं । तन्मध्ये पुनरपि विवक्षितदिवसे अन्त्यानां पञ्चानां द्वयोरभिग्रहः एका भक्ते एका च पानके इति आहारनिर्मितिः । उपधिरपि एषणाद्वयलब्धा एव वक्णा चतुष्टयमस्ति तदिदं कासिकाद्युदिष्टमेव च वस्त्रं ग्रहीष्यामि १ प्रेक्षितमेव ग्रहीष्यामि २ परिभक्त प्रायमेवोचरीयादि ३ तदपि उज्झितधर्मिकमेवेति ४
अय एवं कृतपरिकर्मा गच्छाद्विनिष्क्रम्य तत्र वद्याचार्यादि प्रतिपसा तदाऽल्पकालिकं साध्वन्तरे स्वपदनिक्षेपं कृत्वा शुमेषु द्रव्येषु शरीरं वासित्वा शरत्काले सकलसाध्वामश्रणं क्षामणपूर्वकं निःशल्यो निष्कषायो मासिकीं प्रतिमां प्रतिपद्यते । दत्तिरविच्छिमदानरूपा एकैवाच खाऽज्ञातोञ्छरूपस्य उद्वृत्तादूतरेपणा पचाकगृहीतस्याऽलेपकारिणः कृष्णादिभिरमिवृक्षित एकलामीसत्कस्यैव
द्वादश भिक्षु प्रतिमा स्वरूपम्
॥१३॥
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| गुर्विणी वालवत्सा पीयमानस्तनीमिः देहलीकस्यान्तः पदमेकं विनस्याऽपरं बहिर्म्यवस्थाप्य दीयमानस्य तथा पानकाहारस्पैकैव तत्र | मासिक्या प्रतिमायां दत्तिर्भवेदिति ॥ यथा जलस्थलदुर्गादौ स्थितख यत्राऽस्तं याति पूर्यस्तत् सानात् जलाअन्यादेः पदमात्रमपि
क्षेत्रं न गच्छति आदित्योदयं यावत् । तथा ज्ञातो-ज्ञातः प्रतिमापमोऽयं तत्र प्रामादौ अहोरात्रमेवाऽवतिष्ठति नत्वधिकमिति, अक्षा| ततया तु द्विरात्रमवतिष्ठति न परतः। तथा दुष्टच्याघहस्तिसिंहश्वापदादीनां भयं न, मरणभीत्या पदमात्रमपि न गच्छति दूरतः, ६ एवमादिनियमसेवी छायात उष्णे उष्णतः छायायां गमनमपि न कुर्वति शरीरहेतोः। ब्रामानुग्राम विचरति यावदखण्डो मासः,
अन्येऽपि बहवो नियमा प्रतिपत्तव्याः, तथा चरणप्रविष्टदारुकष्टकशर्करादिकं न स्फेटयति, अक्षिगतं रेणु रणमलादिकंवा नापनयति, तथा संस्तारकोपाश्रयादीनां याचनार्थ संशयितसूत्राौँ वा गृहादेवा प्रश्नार्थ तृणकाष्ठादीनामनुज्ञापनार्थ प्रश्नितसूत्रादीनां वा कृते द्विार
वा वक्ति न तु वारंवार भाषान्तरं वक्ति प्रतिमा यावत् । तथा आगन्तुकागारविवृतागारवृक्षमूल एव वसतित्रयं वसति नत्वन्यत्र । तत्र || यत्र कार्पटिकादय आगत्य क्सन्ति तदागन्तुकागारं, यदधः कुब्बामावादुपरि चान्छादनाभावात् विकृतगृहं, अनाच्छादितं सवाल | करीरादितरुमूलं साधुपर्जनीयदोषरहितं तथा चाऽदि प्रदीप्ताग्निभयानुपामयाब निर्गच्छति।
अथ कदाचित् कोऽपि बालादौ गृहीत्वा कर्षति तदा निर्यात्येव करचरणमुखादिकं प्राशुकजलेन नांगं प्रक्षालयति तदन्यसाधवो दहि पुष्टालम्बने पादादि प्रथालयन्ति अपि । इत्याधनेकाभिग्रहक्रियायुक्तो मासपूरणानन्तरं साधुसमुदायं उपैति विभूत्या, कवं? भन्छ | स्थानासमग्रामे आगत्य आचार्यास्तु तत्मवृत्तिमन्विच्छन्ति ततो नृपादीनां निवेदनं यथा प्रतिपालितपथमाप्रतिमारूपमहातपाः साधुरबागतः ततो नृपादिलोक श्रमणसंघेन चामिनन्यमानस्तत्र प्रवेश कुरुते । ततोबहुमानार्थ तदन्येषां च श्रद्धाइयर्थ प्रवचनप्रभावनार्थ
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बान वि० प्रमन्या.
इति
॥१४॥
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च एवं प्रथमा उक्ता।
द्वादश भिक्षु शेषाः एवमनेनैव क्रमेण द्विमासिकी त्रिमासिकी यावत् सप्तप्रतिमाः सप्तमासिक्यः नवरं केवलं प्रथमायाः सकाशादियान् विशेषो प्रतिमा यतो दत्तयस्तासु वर्द्धन्ते, तत्र द्वैमासिक्यां मक्तपानस्य प्रत्येकं दत्तिव्यं, त्रिमासिक्या भक्तपानस्य प्रत्येकं दत्तित्रयं यावत् सप्तमासिक्यां भक्तस्य पानस्य च सप्तदत्तय इति । ___अथाष्टमी सप्तम्या अनन्तरं अष्टमी प्रथमसप्तरात्रिंदिवा प्रथमा, तत्र चतुर्थ चतुर्थेन-एकान्तरोपवासेन आसितव्य, अपानकेन | चतुर्विधाहाररहितेनेत्यर्थः । इह च पारणके आचाम्लं कर्त्तव्यं दत्तिनियमस्तु नास्ति इति विशेषः। तथा उत्तानके-उर्ध्वमुखे पार्थे वा | शयितो निषद्यावान् समपूततयोपविष्टो वा तथा कायचेष्टाविशेषनिवर्चनं स्थानं पूर्वोक्तं कृत्वा ग्रामवहिः स्थित्वा घोरान् रौद्रान् देवता | कृतादीन् मानुष्यतैरश्चिकृतानुपसर्गान् सहन्ते, अविकम्प्रमनाः शरीराभ्यामचल इति ८
द्वितीयाऽपि द्वितीया सप्तरात्रिंदिवा द्वितीया प्रतिमा इदृश्येव सर्वासु क्रियासु, परं उत्कटिकासनो-भूमो अविन्यस्तपादतया उपविष्टः तथा लगुडगुसंस्थितं काष्ठं तद्वत् शयनः मस्तकपाष्णिकामिरेव पृष्ठप्रदेशेनैव वा स्पृष्टभूभागः, तथा दण्डवत् यष्टिबदायतो
॥१४॥ | दण्डायतः पादप्रसारणेन भृमिन्यस्तायतः शरीरः स एव दण्डायतका, वा दिवा रात्रौ दिव्याद्युपसर्गान् सहते ९ ___ तृतीयाऽपि सप्तरात्रिंदिवा तृतीयाऽप्येतादृश्येव नवरं स्थानं गोदुहिका-गोदोहनसमाकारं गोदोहनप्रवृत्तस्यैव पुतयोः पाणिभ्यां संयोगे अपादतलाभ्यामवस्थानक्रिया। तथा वीराणां दृढसंहनतानामासनं वीरासनं, सिंहासनाधधिरूढस्य भूमिन्यस्तपादस्य : सिंहासनाधपनयने सत्यपि अचलितः सन् तथैवास्थानरूपं तत्स्थानं स्थितं, यद्वा वामपादो दक्षिणस्योरोरुपरि यत्र क्रियते वामकरस्य
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30-
सस्योपरि दविणकरवलापानं नामिलनं च यत्र विधीयते तद्वीरासनं अथवा आम्रकुम्जो वा आम्रफलवक्राकारेणावस्थिता,एवमेछावास्तिस्रोऽपि प्रथमसतरात्रिंदिवाचा एकविंशतिदिवसैयर्यान्तीति १० | अकादशी एवमेवोक्तरीत्या अहोरात्रिकी भवति, नवरं केवलं षष्ठं भक्तं भोजनवर्जनीयतया पष्ठमक्त-उपवासद्वयरूपं, तत्र उपवासवे हि स्वारि भक्तानि वय॑न्ते, एकाशनेनैव पदारभ्यते तेनैव निष्ठां यान्तीत्येवं षड्भक्तवजेनरूपं मवति । तदपि अपानकं । चतुर्विधाहारखर्जनमित्यर्थः तथा ग्रामनगरेम्यो पहिस्तादयाधारितपाणिके प्रलंबमजस्य स्थानमवस्थानं भवति । इयं चाहोरात्रिकी प्रतिमा दिनत्रयेण याति इत्येकादशी ॥११॥ | अहोरात्रिक्वनन्तरं अहोरात्रिकी प्रतिमावदेकरात्रिकी प्रतिमा मवति, अष्टमभक्तेन उपवासत्रयेण अपानकेन स्थानमवस्थानं तत्
कर्तु बहिष्टाग्रामात् तथा इषत् प्राग्भारगत ईषत् कुम्जो नधादिदुस्तरीस्थितो वाऽसौ स्यात् , तथानिमेषनयनो-नियतपुद्गलदृष्टियथा दलितगात्रो गुतेन्द्रियः संहत्य द्वौ अपि पादौ जिनमुद्रया व्यापारितपाणिस्तिष्ठति लम्बितबाहुर्वा ताग्ररूपा पालने कियान् लामो भवति । तदाह
ऐगराइयं च णं भिक्खु पडिम सम्म अणुपालेमाणस्स । इमे तओ ठाणाहियाओ भवन्ति तं जहा ओहिनाणे समुप्पज्जेजा, मणपज्जवनाणे वा समुप्पज्जेजा, केवलनाणे वा असमुप्पन्नपुव्वे समुप्पज्जेजा, विराहणे पुण उम्मायं वा लमेझा, दीहकालिय वा रोगायक पाउणेजा, केवलिपसाओ धम्मामो भंसेज्जा, इति वचनात् ।
१ पशाशकह २०३-२.
SSPARAGAVARAN
340-499
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जान०वि० प्रम०व्या०
वृत्ति
संबरद्वारे प्रतिमा स्वरूपं
॥१५॥
ठाणाइएहि, पडिमंठाईहिं,ठाणुकडिएहिं, वीरासणिएहिं, सब्जिएहिं, डंडाइएहिं, लगंडसाईहिं, एगपासगेहिं, आयावएहिं, अप्पावएहिं, अणिट्ठभएहिं, अकंडुयएहि,धुतकेसमंसुलोमनखेहिं, सव्वगायपडिकम्मविप्पमुक्केहिं, इयं प्रतिमा रात्रेरनन्तरं अष्टमकरणात् चतूरात्रिदिवसमाना स्यात् , यदुक्त:
साहव दोवि पाए वग्धारियपाणि ठायइ ठाणं । वाघारियलंविभूओ अंते य इमाइ लद्धीओ॥१॥ | इति लेशतः प्रतिमास्वरूपं लिखितं विस्तरतस्तु दशाश्रुतस्कन्धचूर्णिवृत्तितः तथा प्रवचनसारोद्धारावश्यकनियुक्तिवृत्तिो|ऽवसेयमिति।
स्थानं उत्कटिका येषां ते तैः,वीरासनं भून्यस्तपादस्य सिंहासनोपवेशनमिव तदस्ति येषां ते तैः, निषद्या समपुतोपवेशना तया चरन्ति ते तैः, दण्डस्येव आयतं स्थानं येषां ते वैः, लगंडु-दुःसंस्थितं काष्ठं तद्वत शिरः प्रपा नां चूलाग्रेण शेरते ये ते लगडुशायिनस्तर, उक्तं--
वीरासणं तु सिंहासणे व्व जहमुफजाणुगणिविट्ठो। दंडगलगंड उवमा आयत कुजे य दोण्हं पि॥२॥ इति वृत्तौ एक एव पार्श्वे भूम्यां शय्यंते न द्वितीयेन पावेन भवन्ति इत्येकपाश्चिकास्तैः, आतापनैरातापनाकारिमिस्तैःआयावणाउ तिविहा उकोसा मझिमा जहन्ना य । उक्कोसओणिवन्ना णिसण्ण मझा ट्ठियजहन्ना ॥१॥ १ अष्टादशपञ्चाशकान्तर्गतविंशतितमः श्लोकः २ आतापना तु त्रिविधा उत्कृष्टा मध्यमा जघन्या च । उत्कृष्टा तु सुप्तस्य मध्यमा निषण्णस्य स्थितस्य जघन्या ॥१॥
ASTRACTORRERASHNESS
ASAROK
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18 समणुचिमा, सुयधरविदितत्थकायबुद्धीहिं धीरमतिबुद्धिणो, य जे ते आसीविसउग्गतेयकप्पा, निच्छयववसायपज्जत्तकयमतीया, णिच्चं समायझाणअणुषद्धधम्ममाणा, पंचमहब्वयचरित्तजुत्ता, समिता समितिसु, समि
प्रावरणेन वर्जितः वनाच्छादनरहितैः, अनिष्टाः अपरित्यक्ताः शरीरतो निष्ठीवनं मुखश्लेष्माणां अपरिष्ठापकास्तैः, अंकण्डयनका| रकै, धूताः-संस्कारापेक्षया त्यक्ताः केशश्मश्रुरोमनखा यैस्ते तैः, तत्र केशाः-शिरोजाः श्मश्रु-दंष्ट्रिका कूर्च लोम तदन्यत् सर्व अंग५ रोमाणि, नखा:-करचरणप्रवृद्धाः। किंबहुना सर्वगात्रे सर्वस्मिनपि देहे प्रतिकर्म अभ्यंगादि तस्मात् विप्रमुक्तैः रहितैः इत्यर्थः। विभू|पाऽभावात् तादृशैः साधुमिरियमहिंसा समनुचीर्णा आसेविता इत्यर्थः। श्रुतघरा:-सूत्रधरास्तैर्विदितो ज्ञातः अर्थकायः-तत्वज्ञानराशिः | श्रुताभिधेयो यया सा विदितार्थकाया तादृशी बुद्धिर्येषां ते तैः। तथा धीरा-अक्षोभ्या स्थिरा वा मतिरवग्रहादिका बुद्धिः-उत्पत्यादिका |वा येषां ते तथा, ये ते तथा आशीविपा-नागास्ते च-उग्रतेजसब-तीव्रप्रभावाः तीव्रविषास्तत्तुल्यास्तत् सदृशाः शापादिदानेनोपघातकाहै| रित्वात्तेऽपि । तथा निबयो-वस्तुनिर्णयो व्यवसायः उद्यमः पुरुषाकारस्तयोः पर्याप्तयोः परिपूर्णयोः कृता विहिता मतिबुद्धियैस्ते ।। | तथा पाठान्तरे णिच्छयववसाय विणीय पज्जत कयमतीया तत्र निधयव्यवसायौ विनीतौ आत्मनि प्राप्तौ ये ते पर्याप्ता
चमत्कृता चमत्कार प्रापिता मतियेस्ते। पुनः नित्यं-सदा स्वाध्यायो-चाचनादि, ध्यान-चित्तनिरोधरूपं दुर्ध्यानत इति गम्यं | तदेव अनुबद्धं सततं धर्मध्यानमालाविचय १ अपायविचय विपाकविचय ३ संस्थानविचयरूपं येषां ते तथा, पञ्चमहाव्रतरूपं चारित्रं तेन युक्ता ये ते तथा, समिताः सम्यग् प्रवृत्तिप्रवृत्तार, वा अथवा सुष्ठु शोभनं समिति एकीभावेन [गतं] पापं येषां ते तथा शमि
१ श्लेष्मादिक बाहिरका २ खरज पाणि नसणे इति भाषा ३ दाढी मुंछि।
AKAAGAR
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प्रथम संवरद्वारे अहिंसाया: कारकाः
इत्ति
ज्ञान०वि०
लातपाबा, ब्धिहजगवच्छता, निचमपमत्ता, एएहिं अमेहि य जा सा अणुपालिया भगवती इमं च पुढविदगअ-I प्रश्नम्म्यागणिमारुयतरुणणतसथावरसवमूपसंयमदयट्ठयाते सुद्धं उज्यवेसिपब्वं अकतमकारिमणाहुपमणुडिं, अकी
3 यकडं, नवहि य कोडिहिं सुपरिसुद्धं, ६ सपापा: त्यक्तकल्मषा वा, पशिधजगद्वत्सला:-पड्जीवनिकायहिताः, नित्यं-सदा अप्रमचा:-प्रमादरहिताः सर्वत्रापि कर्मधारयः।
एते पूर्वोक्तगुणयुक्तास्तैः अन्यैरपि अनुक्तलक्षणैर्गुणवद्भिः या पूर्वोक्तनामाऽलंकृतवती सा अहिंसा भगवती पूज्या तादृशगुणैर्महपिमिः अनुपालिता संवरद्वारहार्दैन ।
अथ अहिंसामथमसंबरद्वारपालकस्य यद्विधेयं तत् उच्यते-इमं प्रत्यक्षतया प्राप्त पृथिवी दक-पानीयं अग्निः मारुतो-वायुः यणगणो-वनस्पतिसमदापः प्रसा-द्वीन्द्रियादयः स्थावरा:-पृथिव्यादिपचकं सर्वभूतप्राणिनां संयमो-रक्षणस्तलिमिचा या दया-कृपा है वस्था अर्थ किं कर्तव्यमित्याह
शुद्ध-निर्दषणं अशनादि गवेषितव्यं, उन्छ-उत्पाटितक्षेत्रगतकणादानं यथा क्षेत्रे पतितकणग्रहणं उञ्छः तथा साधुनाऽपि गृह| खार्थ कृतनिष्पादितामग्रहणं अन्वेषितव्यं, तत् कीरशं? अकृतं-साध्वर्थ दायकेन अनिष्पादितं, न चाऽन्यैः सह कारापितं, आकारितं, अनाहतो [स] ग्रहस्थेन साचोरनिमन्त्रणपूर्वकदीयमानं अनुद्दिष्टं यान्तिकादिभिर्विवर्जितं, अक्रीतकृतं तदेव अपश्चितं नवमिश्च | कोरिमिः सुपरिवदं न हन्ति १ न पातयति २ अन्तं नाऽनुजानन्ति ३ न पचति ३ न पाचयति ५ पचन्तं नाजुजानन्ति ६ न कीमावि.कापयति ८ क्रीणन्तं नाऽनुजानन्ति ९ तथा दशमिव दोपैविप्राक्तं यदुक्तं
RERABBIKANERNOR
34555ॐॐ
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वसहि य पोसेहिं विष्पमुक्क, उग्गमउपायणेसणासुद्ध,
शकिय १ मक्खिय २ निक्खितं ३ पिहिय ४ साहारिय ५ दायगु ६ म्मीसे ७ । अपरिणय ८ लित्त ९ छडिय १० एसणवोसा इस हवंति ॥१॥ पिंड नि० गा० ५२१
उगम उत्पादन एषणा-गवेषणा दायकाताः उद्गमाः १६ उत्पादना ग्राहकाआताः १६ एषणा पिंडदोषाः१० तथा शुद्धो या पिण्डः स तथा तादृशं उछ ।
अब उछाहणार्थ पिण्डदोषानाऽऽहसोलस उग्गमदोसा सोलस उप्पायणा य जे दोसा। दस एसणाय दोसा गासे पण मिलिय सगयाला ॥१॥
तत्र उद्गमनं उद्गमः पिण्डस्योत्पत्तिस्तद्विषया आधाकर्मादयो दोषा उद्गमदोषाः षोडश दायकात् समुत्पद्यन्ते सतिपिण्डस्यैव । तथा उत्पादन उत्पादः स एव उत्पादना मूलतः शुद्धस्याऽपि पिण्डस्य धाच्यादिभिः प्रकारैः उत्पादनं तद्विषया दोषा उत्पादना दोषा का ग्राहकार उत्पधन्ते तेऽपि पोडश। तथा दश एषणा दोषाः एषणं-गवेषणं एषणा अशनादेग्रहणकाले शैकितादिभिः प्रकारैः अन्वेषणं | तद्विषया दोषा एषणा दोषा दश । प्रयोऽपि मिलिता द्विचत्वारिंशद्भवन्ति । तत्रोद्गमदोषामामग्राहमाह१ पिं० वि० पृ० १४६ शक्ति प्रक्षितः निक्षिप्तः पिहितः संहृतः दायकदुष्टः उन्मिश्रः । अपरिणतो लिसः छर्दिताः एषणादोषा दश भवन्ति ॥१॥
छAREKA
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(ज्ञान०वि० प्रम० व्या०
वृचि
॥१७॥
अहाकम्मु १हेसिय२ पूइकम्मे य३ मीसजाए ५४ । ठवणा५ पाहुडियाए६ पाओयर७ कीय८ प्यामिचे९ ॥१॥ परियहिए १० अभिहडे ११ भिन्ने१२ मालाहडे इय१३ अच्छिज्जे १४ अणिसट्टे १५ अज्झोयरए१६ सोलसपिंडुग्गमे दोसा ॥२॥
व्याख्याः — तत्र आधानं - साधुनिमित्तं मनसः प्रणिधानं यथा अमुकस्य साधोः कारणेम मया भक्तादि पाचनीयं तया आधया कर्म प्रतिकर्मक्रिया आधाकर्म तद्योगात् भक्ताद्यपि आधाकर्म इह दोषाभिधानप्रक्रमेऽपि यद्दोषवतो ( भक्तादि) अभिधानं तद्दोषदोष| वतोरभिधाना भेदविवक्षया एकमेव द्रष्टव्यं । तथा तदाधाकर्मादि ग्राहिणं पृथिव्याद्युमर्दोद्भूतपानाशनादिग्राहिणं साधुं तद्दायकं वा अधःसंयमाद्वा अघो नरकगतौ नयन्ति तदधःकर्म । तथा आत्मानं चरणात्मानं तस्य हंतीति निश्चयनयमाश्रित्य चरणविघाते ज्ञानदर्शनविधातोऽवश्यं स्यात् यतस्तयोश्चरणफलत्वात् न तयोर्विघातः पृथगुक्तः, अन्त्यग्रहणे पूर्वयोर्ग्रहणं कृतमेव ।
अथ व्यवहारनयमाश्रित्य चरणघाते इतरयोर्विनाशः स्याद्वा नवेति कथं यदा मिध्यात्वं याति तदा न ते तदभावे तु ते तयोः सद्भावादिति - स्यातामिति । चरणविघाते तयोर्विघातसद्भावादिति आत्मगुणान् हन्तीति आत्मन्नमपि उच्यते । तत्राधाकर्मणः तं पुण जं जस्सेत्यादिद्वाराष्टकव्याख्यानं तु सोदाहरणं पिण्डनिर्युक्त्यादिभ्योऽवसेयमत्र तु शब्दार्थेन व्याख्यायते
उद्देसियत्ति - उद्देशेन उद्देशनमुद्देशो यावदर्थिकादिचिन्तनं तेन निवृत्तं उद्देशिकं तच द्विविधं ओवेन १ विभागेन २ तत्र ओषः१ पिंडनियुक्ति गा० ९२-९३
२ तं पुण जं जस्स जहा जारिस मसणे य तस्स जे होसा ५ । दाणे य ६ जहा पुच्छा ७ छलणा सुहीय तह घोच्छं ॥८॥ पिंडविशुद्धि
प्रथम
संवरद्वारे पिण्डोद्गम
दोषाः
॥१७॥
1
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5A5%
SAOR-KAVREASNA
|| सामान्यविभागः पृथक्करणं अत्र भावना अदत्तं सत् केनापि किमपि न लभ्यते मिक्षाचरा बहवः कतिपयाः मिथा वयं दब इति | विचार्य कतिपयाधिकतंदुलप्रक्षेपेण यभिवृत्तमशनादि तदोषोदेशिकं सामान्येन खपरविभागाकरणभावात् ।
तथा विवाहप्रकरणादिषु यदुद्धरितं तत् पृथक् कृत्वा दानाय कल्पितं सद्विभागोदेशिकं, विभागेन खसचाया उत्तार्य पृथक कृतत्वात् विभागौदेशिकं । तत्रौषोदेशिकं प्रायेण भवति इति कधिदनुभृतदुर्भिक्षसुक्षः संप्राप्तसुभिक्षो गृहस्थश्चिन्तयति यथा जीविताः स्मो वयं कथमपि दुर्भिक्षे तदिदानी प्रति अर्थिजनसम्पूर्णभोजनशक्त्यभावे मम कियत्यपि भिक्षा दातुं युक्ता । यतो 'अदत्तफलात् कुत्रापि किमपि नोपलभ्यते कृतस्यैव प्राप्तिरिति श्रुतिः, ततो गृहिणा पुण्योपार्जनबुझ्या प्रतिदिवसं भक्तपानं पच्यते, यः कोऽपि
समागमिष्यति तस्य मिधादानार्थमेतावत् खार्थमेतावत् इति विभागरहितमेव तन्दुलानधिकतरान् प्रक्षिपति तदुद्देशिकं। हा विभागोदेशिकं पुननिधा-उद्दिष्टं १ कृतं २ कर्म ३ च तत्र स्वार्थमेव निष्पन्नमशनादि भिक्षाचराणां दानाय यत् पृथक् कल्पितं तदुद्दिष्टं १, यत्पुनरूद्धरितं शाल्योदनादि भिक्षादानाय करम्बादिरूपतया कृतं वत् कृतं २, यत्पुनर्विवाहप्रकरणादिपद्धरितं मोदकचू
र्णादि तद्भ्योऽपि गुडपाकदानादिना भिक्षाचराणां दानाय मोदकादिरूपतया कृतं तत्कर्म ३ । एवमेकैकमपि चतुर्वा-उद्देश १ समुद्देश २ आदेश ३ समादेशमेदाव, तत्र त्रिविधमपि विभागोदेशिकं यावन्तो भिक्षवः समाग. मिष्यन्ति तेषां देयमित्युद्देशः। यदा पुनः पाखण्डिनां देयत्वेन कल्पितं तदा. समुद्देशाख्यं २। यदा श्रमणानां शाक्यादीनां देयमिति
चिन्तितं तदादेशाख्यं ३ यदा निर्ग्रन्थानां महव्यतीनामेव दास्थामीति तदा समादेशकं नाम ४ । यदाPI जाति यमुद्देसं पाखंडीणं भवे समुसं। समणाणं आएसं निग्गंधाणं समाएसं॥१॥ पि०नि० गा• २३०
%*
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प्रथम
प्रश्नाच्या
पिण्डोगमदोषाः
AAROBAR
सर्वसंख्यथा विभागौदेषिकं द्वादशया भवति ।
अवाऽधाकर्मोदेशकयो को विशेष ? इत्युच्यते-यत् प्रथमत व पदकायोपमर्दनेन साध्वर्थ निष्पादितं तत् आधाकर्म, यत् पुनः 5 प्रथमतः स्वार्थनिष्पादितं सत् भूयोऽपि पाककरणेन पच्यते तत् उद्देशिकं २।।
प्रतिकर्मेति-उद्गमादिरहिततया खतः पवित्रस्य भक्तादेपरसाऽविशुद्धकोटिकमक्तादेरवयवेन सह संपृक्तं मिलितं पूर्वकर्म-करणं पूतिकर्म. अयं भावः यथा सौरभ्यमनोहरस्वादिगुणैर्विशिष्टमपि भाल्योदनादिमोज्यं कृथिताऽशुचिगन्धादिद्रव्यलवेन युक्तं अपवित्रं |साद, सजनजनैः परिहार्य च, तथा निरतिचारचारित्रिणो यतेः साविचारतयाऽपवित्रत्वकरणेन अविशोधिकोटीमायवयवमात्रेणाऽपि | संयुक्तः शुद्धोऽप्याहार उपयुज्यमानो भावपूतेः कारणत्वात् पूतिरिव दुर्गन्ध इच, आधाम्मिकाऽवयवलेशेनाऽपि संसृष्टा स्थाली घटुकारोटिकादयोऽपि पूतित्वाद्वजनीया इति ३
मीसजाएत्ति-मित्रेण कुटुम्बमनःप्रणिधानं साधुप्रणिधानमीलनरूपेण मावेन जातं पाकादिकं यद्भक्तं तन्मिश्रजातं, आत्मना कुटुबेनाऽपि साधुनाऽपि गुज्यते इत्येवं मिश्रं । तदपि विधा, यावदपिकमिश्रं १, पाखंडिमिकं २, साधुमिथं च ३, तत्र मित्रत्वं तु यावदर्थिकादि त्रिभिरात्मयोग्यं च एकत्र पच्यते तन्मिश्र, श्रमपमिश्र पाखण्डियन्स वात् पृथग् नोक्त ४
उवणति-स्थाप्यते साधुनिमिचं कियन्तं कालं निधीयते सा स्थापनं स्थापना साधुभ्यो देयमिति बुख्या रक्षणं सा स्वस्थाने बुल्लीस्वाल्यादौ परस्थाने सुस्थितमाजनादौ तदपि चिरकालं इत्वरकालं च साधुदामनिमित्त पार्यमाणमशनादिकं वा ५
पाहुनिए ति कस्मैचित् पूज्याप इष्टाय वा बहुमानपुरस्सरीकरणाय यदीष्टं वस्तु दीयते तत्प्राभृतकमुच्यते, प्राभृतमेव प्रामृतिका
UPSESSIONSAIANA
॥१८॥
S
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ज इति प्रकर्षेण, आ इति साघुदानलक्षणमर्यादया, भृतानिवर्त्तिता यका मिक्षा सा प्राभृतिका । सा च द्विविधा सूक्ष्मवादरमेदात् पत्र बादरारम्भविषया बादरा स्थूला इत्यर्थः, स्वल्पारम्भविषयतया तु सूक्ष्मा. एकैकाऽपि द्विविधा ओसकणेन अवसकणेन च, तत्र स्वत्रयोगप्रवृत्तिकालं मर्यादीकृत्य उर्ध्व परतः आरम्भस्य यत् करणं तत् ओसकणं, तथा स्वप्रयोगप्रवृत्तिकालावधेः अर्वाग् यत् आरंभस्य करणं यत् अवस्कणमभिधीयते । इह हि केनाऽपि श्रावकेण कुत्राऽपि नगरे निजापत्यस्य विवाहं कर्तुमारेमे, लग्नं च भव्यं दत्तं ज्योतिकेण, परं तस्मिन् समये अन्यत्र विहृतत्वेन तत्र गुरवो न सन्ति ततोऽसौ श्राद्धो विकल्पयति अस्मिन् विवाहलग्ने संखढ्यामनेकाशनखाद्यादिमनोरमायां क्रियमाणायां जनखाद्यमेव सर्व व्रजति न तु व्रतिनां किञ्चिदुपयोगं याति । कियद्दिनानन्तरं विहारक्रमेण श्री गुरवोऽपि आगन्तारः श्रूयन्ते तत् समय एव विवाहः कर्तुम् युज्यते येन साधूनामशनादिकं पुष्कलं ददामि इत्यादि विचिन्त्य निष्टङ्कितं लग्नात्परतो गुरूणामागमनसमये विवाहं करोति एवं च विवाहदिनस्योत्वष्कणं कृत्वा यदुपस्क्रियते भक्तादि सा बादरा ओसकणमाभृतिका १ । तथा कश्चित् श्रावकः स्वपुत्रादेर्विवाहदिनं निष्टङ्कितं तद्दिनादर्वागेव साघवस्तत्रागतास्ततोऽसौ विचारयति मया साधूनां विपुलं विशिष्टं भक्त्यादि पुण्यार्थ देयं परं विवाहादिके पर्वणि विशालं भक्त्यादि भवति परं मत्पुत्रविवाहं यदि जानंति तदा गुरवोऽन्यत्र विहरिष्यन्ति इति विचार्य तत्रस्थ एव अन्यलग्नं स्थापयति, अत्र च भविष्यत्कालभाविनो विवाहलग्नस्य अवष्कणं कृत्वा यदुपरिक्रयते भक्तादि सा बादरावष्कणप्राभृतिका २ ।
१ विवाहादिप्रकरणं
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प्रथम संबरद्वारे पिण्डोद्म
दोषाः
१९॥
जान०वि०
सबकापिस्तुलुम्बिनी सूत्रकर्चनादिव्यापारपरायणा रुदता शिशुना भोजनं याचते 'मातमें भोजनं देहि तत्र तदवसरे प्रत्यासप्रश्न व्या०मगृहे भिक्षामटन् साधुसंघाटकस्तया एस्तं दृष्ट्रा कर्तनादिलोभतः रुदन्तं शिशुं प्रत्यवक् मा रोदीस्त्वं ? इह गृहानुगृहं प्रविशन् साधु.
का संघाटकः समेष्यति तस्य दानाय उत्थिता सती तवाऽपि तत्समय एव भोजनं दास्यामीति उक्त्वा क्रमेणागते. साधुसंधाटके तस्मै | दत्वा बालकस्यापि प्रदत्तं भोजनं । इह च यत्र समये बालकेन याचितं तदेव तथा कर्तुमुचितस्य पुत्रभोजनदानस्य भविष्यकालमाविना साधुभिक्षादानेन समये यत्करणं तदुत्त्वष्कणं, तत्र या प्राभृतिका सा सूक्ष्मोत्स्वष्कणप्राभृतिका । तथा काचित् गृहस्थिनी कर्चनं कुर्वती भोजनं याचमानं पालक प्रति वदति कर्तयामि तावत्पूणिकामेकां पश्चाते भोजनं दास्यामीति, अत्रान्तरे साधुरागतस्तत ज. त्थाय तस्मै मिक्षा ददती बालकस्य भोजनं ददाति । इह च यत्पूणिकाकर्तनसमात्यनन्तरं दातव्यतया बालकाय प्रतिज्ञाते साधुनिमित्तमर्वागुत्थानेन यदगिव बालकस्य भोजनदानं तदवष्कणदानं सा सूक्ष्मावष्कणप्राभृतिका २ इयं च प्राभृतिका साध्वर्थमुत्थिताया बालकमोजनदानं तदनंतरं हस्तधावनादिनाऽप्कायमर्दनहेतुत्वात् अकल्पनीयं ६
. पाउयरत्ति साधुदाननिमितं वहिप्रदीपमण्यादिस्थापनेन मित्ताचपनयनेन वा बहिनिष्कास्य धारणेन वा प्रादुःप्रकटनं देयवस्तुः करण प्रादुष्करणं, तच द्विधा प्रकाशकरणं प्रगटकरणं च । तत्र कोऽपि श्रावकः साधु भक्तिमान् अचक्षुर्विषयतया साधुनाम
यमिति विचिन्त्य तस्य भक्तादेः प्रकाशनार्थ माखरमणिं तत्र स्थापयति अग्निमदीपं वा कुरुते गवाक्षजास्यादि उद्घाटयति लघुबराहद्वारं करोति कुख्याग्निद्रादि विदधाति इत्थं यत् स्थानं स्थितस्यैव देयवस्तुनः प्रकाशनं तत्प्रकाशकरण । यस्पुनगृहमध्यचिंबूल्ल्यां खगृहाथ सहासनादेरन्यकारादपसार्य बहिः चुल्यास्तद्वयतिरिक्तोऽन्यस्मिन् प्रकाशप्रदेशे सावर्ष सपनं प्रगटकरण
ॐॐॐ
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ऊन
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SHREE-
एतच्च द्वयोरपि प्रादुष्करणयोः षट्कायोपमर्दप्रवृत्तिदोषादिसद्भावात् साधुभिर्वर्जनीयमिति ७। ४ा कीयत्ति-क्रीतं यत्साध्वयं मूल्यादिना गृहीतं तच्चतुर्दा यथा आत्मद्रव्यक्रीतं १ आत्मभावक्रीतं २ परद्रव्यक्रीतं ३ परभावक्रीतं
४ तत्र आत्मना स्वयमेव द्रव्येणोजयन्तादितीर्थशेषरूपपरावर्त्तादिकारिगुटिका-सौभाग्यादिसंपादकरक्षादिरूपेण प्रदानतः परमावर्त्य भक्तादि गृह्यन्ते तदात्मद्रव्यक्रीतम् । दोषाश्चात्र-उज्जयन्ताद्रितीर्थशेषादिसमर्पणानन्तरमेव दैवयोगेन तस्य गृहिणो अकस्मादेव ज्वरादिमान्ये जातेऽनेन साधुनाऽहं निराकुलः सन् ग्लानीकृत इत्यादि प्रजल्पतः शासनस्य मालिन्यं स्यात् , तद्राजादिना ज्ञाते सति राजादयः कर्षणकुट्टनादिकं विदध्युः, तथाऽग्रतो मन्दः सन् देम शेशादिना समपितेन नीरोगः संपद्यते तदा चाटुकारिण एते यतयः इत्युड्डाहो लोकस्य जल्पतो भवेत् , तथा निर्माल्यादिप्रदानेन प्रगुणशरीरस्य गृहव्यापारादिप्रयोजकतया पद्जीवघातपातः कर्मबन्धः स्थादित्यादयः, तथा आत्मना खयमेव भक्ताद्यर्थ धर्मकथकवादिक्षपकतपःकविप्रमुखर्धर्मकथाापलक्षणेनाऽन्येन भावेन आक्षिप्तभ्यो | जनेभ्यो यदशनादि गृह्यते तदात्मना क्रीतम् । दोषाश्चात्र निजनिर्मलतपोनुष्ठानमलिननिष्फलीकरणादयः । तथा गृहस्थेन यतिनिमित्तं सचित्ताचित्तमिश्रमेदेन द्रव्येण कृत्वा यदशनादिक्रीतं तत्परद्रव्यक्रीतं । अत्र षट्कायविराधनादयः प्रतीता एव दोषाः । तथा परेण 'मंखेन-विज्ञानप्रदर्शनधर्मकथादिरूपेण वा भावेन परमावर्त्य यत्नतो गृहीतं यत्तत्परभावक्रीतं, इत्थंभूते परे भावक्रीते त्रयो दोषाः, एकं तावत्क्रीतं, द्वितीयं अन्यस्मात् गृहात् आनीय नीतमित्यम्याहृतं, आनीयानीय चैकत्र स्थाप्यते तत्स्थापितमिति क्रीतरीतिः ।
१ मंख-केदारको यः पटं पट्टिकं वा उपदर्य लोकमावर्जयति स मंखः।
ACEBOES
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ज्ञान०वि०
प्रश्न० व्या०
वृचि
॥२०॥
पामिच्चेति अपमित्यं भूयोऽपि तव दास्यामीत्येवमभिधाय यत्साधुनिमिचमुच्छिनं गृह्यते तदपमित्यकं प्रामित्यकं वा तद् द्विविधं लौकिकं लोकोत्तरं च । तत्र लौकिकं यद्गृहस्थेन परस्मादुच्छिनं गृहीत्वा घृतादिवस्तु व्रतिभ्यो दीयते । दोषाश्च दासत्व-निगडत्व नियन्त्रणादयः । लोकोचरं च वस्त्रादिविषयं साधूनामेव परस्परमवसेयं, तदपि द्विविधं कोऽपि कस्याऽपि सक्तं एव वस्त्रं गृह्णाति यथा कियदिनानि परिभुज्य पुनरपि तत् समर्पयिष्यामि कोऽपि पुनरेवं तावत् दिनानामुपरि तवैतत् सदृशं परं वस्त्रं दास्यामि । तत्र प्रथमे प्रकारे शरीरादिमलेन मलिनीभूते यदि वा पाटिते चौरादिना गृहीते मार्गपतिते वा तस्मिन् वस्त्रादिके कलहादयो दोषाः, द्वितीये च प्रकारेऽन्यवस्त्रादिकं याचमानस्य तस्य दुष्कररुचेर्विशिष्टतरेऽपि दत्ते महता कष्टेन रुचिरापादयितुं शक्यते ततस्तमाश्रित्य कलहादयो दोषा सम्भवन्तीति ९ । परियकृति परिवर्त्तितं यत् साधुनिमित्तं कृतपरावर्च तद्द्वैषं लौकिक लोकोत्तरं च, एकैकं द्विविधं तद्द्रव्यविषयं च अन्यद्रव्यविषयं च तद्द्द्रव्यविषयं यथा- कुथितं घृतं दत्त्वा साधुर्निमित्तं सुगन्धिघृतं गृह्णाति इत्यादिरूपं, अन्यद्रव्य. विषयं यथा कोद्रवकूरं समर्पयित्वा साधुनिमित्तं शाल्योदनं गृह्णाति इदं च लौकिकमेव । लोकोचरं अपि साधोः साधुना सह वस्त्रादिपरिवर्तनस्वरूपं द्विधा भावनीयं दोषायात्राऽपि प्राग्वदेव १० |
अभिहडेत्ति-अमि साध्वभिमुखं हृतं गृहस्थेन स्थानान्तरादानीतं अभिहतं तद्विधा, आचीर्ण अनाचीर्ण, तत्राऽनाचीणं द्विविधं प्रच्छलं च प्रगटं च सर्वथा साधूनां अभ्याहृतत्वेन यदपरिज्ञानं तत्प्रच्छन्नं यत्पुनः अभ्याहृतत्वेन जातं तत्प्रगटम् । एकैकमपि द्विविधं स्वग्रामविषयं परग्रामविषयं च यस्मिन् ग्रामे साधुर्वसति स किल स्वग्रामः, शेषस्तु परग्रामः काचित् भक्तिमती श्रा विका साधूनां प्रतिलाभनायाम्याहृता शङ्कानिवृत्यर्थं प्राहुणमिषेणोपाश्रये मोदकाद्यानीय साधुसम्मुखमेवं बदति यथा भगवन् ! आठ
प्रथम
संवरद्वारे पिण्डोद्गम
दोषाः
॥२०॥
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DISTERRORISEASEAR
मातगेहादी संख्या इद लब्धम् । यदा मया खजनानां गृहे प्रहेणकमिदं गृहान्नीतं तैश्च रोषादिना केनापि कारणेन न गृहीतं, | सम्पति वन्दनार्य प्रविष्टा यदि युष्माकमिदमुपकरोति तदा गृखतां । ततः सा यद् ददाति तत्पच्छन्नं स्वग्रामविषयमम्याहृतं । यदेक्छ । साधुम्यो दीयते वदा महत्पूण्यं
अथ केचित् साधवो दूरे तिष्ठन्तः केचित् प्रत्यासत्राः परमन्तराले नदी विद्यते, ततस्तेऽप्कायविराधनामयाभागमिष्यन्ति, आमता अपि प्रचुरमोदकानि वीक्ष्य शुद्धमिति कथ्यमानेऽप्याधाकर्मशङ्कया न ग्रहीष्यन्ति ततो यत्र ग्रामे साधवो निवसन्ति तत्रैव है प्रच्छन्नं गृहीत्वा ब्रजाम इति तथैव कृते ते भूयोऽपि चिन्तयन्ति यदि साधूनाऽऽहूय दास्यामस्ततस्तेऽशुद्धमाशङ्कथ न ग्रहीष्यन्ति, | तस्मात् द्विजातिभ्योऽपि किमपि दद्म इत्येवं चिन्तयित्वा कस्मिंश्चित् प्रदेशे द्विजातिभ्यः स्तोकं दातुमारग्धं, तत उच्चारादिकार्यार्थ । निर्गताः केचन साधको दृष्टाः ततस्ते निमश्रिताः, मो साधव ! अस्माकमुद्धरितमोदकादिकं प्रचुरमवतिष्ठति ततो यदि युष्माकं किम-5 प्युपकरोति तर्हि तत्प्रतिगृह्यता, साधवोऽपि शुद्धमिति ज्ञात्वा गृहन्ति, एतत्प्रच्छन्नं परग्रामविषयमभ्याहृतम् । परंपरया ज्ञाते चल परिष्ठापनीयमिति । तथा कश्चित् साधुभिक्षामटन् क्वाऽपि गृहे प्रविष्टः, तत्र गौरवाईखजनमोजनादिकं प्रारब्धं वर्त्तते, तदानीं साधवे मिक्षादानाऽवसरो नास्ति इत्यादिभिः कारणैः केचित् श्राद्धाः स्वगृहात् साधोरुपाश्रये मोदकादिकमानीय यद् ददाति तत्प्रकटं स्वग्रामविषयमभ्याहृतं, एवं परग्रामविषयमपि प्रकटं अनाचीण शेयम् । अथाचीणं पुनर्द्विधा क्षेत्रविषयं गृहविषयं च, तत्र क्षेत्रविषयमपि त्रिविधं उत्कृष्टं मध्यमं जघन्यं च, तत्र कस्मिंश्चित् महति गृहे भूरिभुजानकजनपतिरुपविष्टा तस्याश्चेकस्मिन् पर्यन्ते साधुसंघाटको
प्रेषितं । २ आचीर्णानाचीर्णमेदमिन्नाभ्यातदोषस्वरूपम् पिं० नि० १०२
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शान वि०४ | द्वितीयेषु देयमशनादि तिष्ठति, न च साधुसंघाटको जनसंकुलछुप्तिमयात् तत्र गन्तुं न शक्नोति । ततो हस्तशतप्रमितक्षेत्रादानीतं
४ प्रथम प्रश्न०व्या०
| यद्गृह्णाति तदुत्कृष्टक्षेत्रादपहतमाचीर्णम् । हस्तशतात्परतस्त्वानीतं निषिद्धमेव । मध्यमक्षेत्राभ्याहृतं पुनः करपरिवन्दुपरि यावद्धस्तशतं संबरद्वारे वृत्ति | किश्चिन्न्यूनं भवति तावद्विज्ञेयम् । करपरिवर्तक्षेत्रं तु जघन्यम् । करपरिवत्र्तो नाम हस्तस्य किञ्चित्प्रलम्बन, यथा काचित् दात्री 8 पिण्डोद्गम
उर्ध्वा उपविष्टा वा खयोगेनैव निजकरगृहीतमोदकमण्डकादिका प्रसारितबाहुस्तिष्ठति सा च तथा स्थिता साधुसंघाटकं दृष्टा करस्थि॥२१॥ तमोदकादिभिस्तं निमन्त्रयते स च करस्याधः पात्रकं धारयति सा च भुजां वालयति किश्चिन्मुष्टिं शिथिलयति ततो मण्डकादिपात्रे
पततीदं जघन्यक्षेत्रविषयमाचीर्ण । गृहविषयमभ्याहृतं पुनरित्थं पतिस्थितानि त्रीणि गृहाणि सन्ति । तत्र यदि साधुसंघाटको मिक्षा गृह्णाति तदा एकः साधुः एकत्र धर्मलाभिते क्षेत्रे गृह्यमाणभिक्षागृहे उपयोगं ददानो भिक्षा लाति, अपरस्तदनुवतिं द्वितीयः साधुसंघाटकस्तु धर्मलाभितगृहादपरयोहयोरानीयमानभिक्षयोरुपयोगदायकहस्तविषयादिकं ददाति यदि शुद्धं जानाति तदा गृहत्रपादानीतमशनादिकं आचीर्ण चतुर्थगृहादेस्त्वनाचीर्णमिति ११॥ उभिनेति-उद्भेदनं उद्भिबं साधुभ्यो घृतादिदाननिमित्तं कुतुपादेर्मुखस्य गोमयादिस्थगितस्योद्घाटनं तद् द्विधा-पिहितोद्भिनं कपाटोद्भिवं च, तत्र यत् छगणकाग्नितापितजन्तुसचित्तपृथ्वीकायप्रभृतिभिः | श्लेषद्रव्यैः पिहितद्वारं प्रतिदिनमपरिभोगं खण्डगुडघृतादिभृतकुतुपकुशूलादिकं साधुदानाय उद्घाटयति तद् दीयमानं खण्डादि पिहि| तोद्भिर्म, यत्पुनरपवरकादेनिश्चलनिभृतदत्तकपाटस्य प्रतिदिनमनुद्घाटितद्वारस्य साधुदाननिमित्तं कपाटमुद्घाट्य खण्डादि यत् दीयते तत् कपाटोद्भियम् । प्राग्वर्णितदोषाः पद्जीवविराधनादिकास्तथाहि-कुतुपादिमुखमुद्घाट्य घृतादिकं साधुदानाऽनन्तरं शेषरक्षणार्थ
पिं० नि० पृ० १०५
दोषाः
RELESEGORI
HEROENUAROERA
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IBCCIENERASACARBARICA
भूयोऽपि कुतुपादिमुखं सचित्तेन पृथवीकायेन जलेनार्दीकृत्योपलिम्पति पृथिवीकायान्तः समुद्गककीटिकादयोऽपि संभवन्ति तेषामपि | | विराधनाऽथवा कोऽप्यभिज्ञानार्थ जतुकादिकं ददाति ततस्तेजकायघातो यत्राऽग्निस्तत्र वायुरपीति षट्कायघातस्तथा च कुतुपादिलेपनिमित्तं दाता कदाचित् वृश्चिकादिभिर्दश्यते तदा प्रवचनमालिन्यं । तथा पुत्रादिदाने क्रये विक्रये चाऽपि पापप्रवृत्तिः। तथाऽपिधानीकृते विस्मृत्या मूषिकादयो जीवा विनश्यन्ति । कपाटोद्भिन्नेऽप्येवं दोषाः तथाहि-कपाटात् प्राक् कथमपि पृथिवीकायो जलभृतः करको वा| | बीजपूरादिकं वा मुक्तं भवति, तदा तस्मिन्नुद्घाटिते तद्विराधना जलभृते च करकादौ च लुठथमाने भिद्यमाने वा पानीयं प्रसर्प-18 भासन्नचुल्यादौ प्रविशेत्तदा अग्निकायविराधनाऽपि, यत्राऽग्निस्तत्र वायुरपि, अथ भूमिकाविवरगतं जलं कीटिकादिकमपि विनाशे त्रसकायविराधना, अतो द्विविधमपि उद्भिन्नं न ग्राह्यं । यदा तु कुतुपादीनां मुखबन्धः प्रतिदिन छोड्यते बध्यते जतुमुद्राव्यतिरेकेण केवलवस्त्रादिग्रन्थिना बध्यते तदा साध्वर्थ उद्भिद्य दीयते तदा साधुना गृह्यते, कपाटोद्भिन्नमपि यत्र प्रतिदिनं उद्घाटयते कपाटउल्लालक-अर्गलिका यदि भूमिघर्षितो न भवति तदा कपाटोद्भिनमपि कल्पत इति १२
मालापहृतेति-मालातः सिक्ककादेरपहृतं साध्वर्थ आनीतं यद्भक्तादिकं तन्मालापहृतं । तच्चतुर्धा-ऊर्ध्वमालापहृतं, अधोमालापहृतं, 2 उभयमालापहृत, तिर्यग्मालापहृतं । तत्र ऊर्ध्वमालापहृतं-विधा, जघन्योत्कृष्टमध्यममेदात् , तत्र ऊवं विलगितोच्चसिक्ककादेहीतमशक्तत्वेनोत्पाटिताभ्यां पाणिभ्यां पादाधोभागाग्रेतनफणाभ्यां भूमिन्यस्ताभ्यां दाच्या निजचक्षुषाऽदष्टं यद्गृहीतमशनादि तत्पाणिमात्रोत्पाटनस्तोकक्रियागृहीतत्वाजघन्यमूर्ध्वमालापहृतं, यच्च निश्रेण्यादिकमारुह्य प्रसादोपरितालात् दाच्या गृहीतं तन्निश्रेण्यादिरो
१पि०नि० पृ० १०७
EिADACASSAUGAECCASE
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स्कृष्ट मालापहतं, अनामजुषाकोष्टकादिमिकरोति तेनो नितम्यादा तिर्यप्रसारितवाला इति ज्ञेयम् ।।४
ज्ञान०वि० प्रश्न०व्या०
वृत्ति
भिन्यादिस्थिते स्कन्धसमोचला-भिच्यादिस्थितगवाक्षादिकालीकट्या उच्चप्रदे
॥२२॥
k%AAAGIR
हणाद्गुरुक्रियागृहीत्वात् उत्कृष्टं मालापहृतं, अनयोर्मध्यवर्ति मध्यमम् । तथा साध्वर्थ भूमिगृहादौ प्रविश्य तत्र स्थितं भक्तादि यदा
प्रथम नीय ददाति तदधोवर्तिमालापहृतं। तथोष्ट्रिकाकलशमञ्जुषाकोष्टकादिस्थितं किश्चित् सकष्टतया दात्री ददाति तदुभयमालापहृतं, तथा
संवरद्वारे बृहत्तरोच्चैस्तरकुम्भ्यादिमध्ये स्थितस्य देयस्य ग्रहणाय दाता पार्युत्पाटनं करोति तेनो श्रितव्यापारता, येन त्वधोमुखं बाहुं व्या- पिण्डोद्गमपारयति तेनाऽधोगतव्यापारता, यदा च पृथुलभित्यादिस्थिते स्कन्धसमोच्चप्रदेशप्राये दीर्घगवाक्षादौ तिर्यप्रसारितबाहुक्षिप्तेन हस्तेन दोषाः गृहीत्वा यद्देयं प्रायेण दृष्टयाऽदृष्टं दाता दत्ते तत् तियग्मालापहृतं तिर्यग्माला-मित्यादिस्थितगवाक्षादिरूपादपहृतं वा इति ज्ञेयम् । मालाशब्देन उच्चप्रदेश एवाभिधीयते तत्कथं भूमिगृहाधोगृहादीनां मालाशब्दः कथ्यते ? इति न वाच्यं, यतो लोकरूढ्या उच्चप्रदेशवाचको मालाशब्दः इह तु मालाशब्दः समयप्रसिद्ध्या भूमिगृहोर्ध्वाऽधोभूम्यादिषु सर्वत्र कथ्यते, दोषाश्चात्र मञ्चकमश्चिकोदूखलादिष्वारुह्य पाणिं वा उत्पाटय उर्ध्वावलगितसिक्ककादिस्थितमोदकादिग्रहणे कथमपि स्खलति निपतति दात्री तदाधः स्थितानामपि पीपिलिकादीनां पृथिव्यादीकायानां च विनाशः, दान्याश्च हस्तपादाद्यवयवभङ्गं विसंस्थूलपतनतासंभवात् प्राणव्यपरोपणमपि स्यात् , तथा च प्रवचनोड्डाहो यथा-साध्वर्थ भिक्षां ददानः परासुरभृत्तस्मादमी अदृष्टाः सन्तः कल्याणकारिणः इत्यादयो बहवो दोषास्तस्मात् | | मालापहृतं साधुभिन ग्राह्यं, यच्च पुनर्ददरसोपानादीनि सुखावताराणि सुखावलोक्यानि तान्यारुह्य ददाति तन्मालापहृतं न भवति, केवलं का साधुरपि तत्रैषणाशुद्धिनिमित्तं प्रासादस्योपरि दर्दरादिना चटति, अपवादपदे दौर्लभ्यलामे च भूमिस्थोऽपि ततोऽप्यानीतं गृह्णाति १३ || ॥२२॥ आच्छेज्क्ष इति आच्छिद्यते अनिच्छतोऽपि भृत्यकपुत्रादेः सकाशात् साधुदानाय यदशनादि गृह्यते तदाच्छेद्य, तत् त्रिविधं खामिविषयं, ||
१ पिं०नि० पृ० ११०
RSHUR)
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प्रभुविषयं स्तेनविषयं च । तत्र ग्रामादिनायकः - खामी गृहमात्रनायकः - प्रभुः स्तेनचौरः, ततो ग्रामादिखामी संयतान्निरीक्ष्य भद्रकतया कलहेनाऽकलहेन वा बलादपि साधुदानाय कौटुम्बिकेभ्यः सकाशात् आच्छेद्य यतिभ्यो ददाति तत् खामिविषयं । तथा यद्गोरक्षककर्मकरपुत्र पुत्रवधूभार्यादिसत्कमेतेभ्यो अनिच्छद्भयोऽपि गृहीत्वा गृहस्वामी साधुभ्यो दुग्धादिकं ददाति तत्प्रभुविषयं आच्छेद्यं । तथा स्तेना अपि केचित् संयतान् प्रति भद्रका भवन्ति ततस्ते मार्गे आगच्छन्तः कदाचित् तथाविधसार्थ सार्धमागतान् भोजनार्थं कृतावस्थितैः सार्थस्य मध्ये भिक्षामटन्तः परिपूर्णतामप्राप्नुवन्तश्च संयतान् दृष्ट्वा तन्निमित्तमात्मनो वाऽर्थाय सार्थिकेभ्यो बलादाच्छिद्य पाथेयादि यद्दत्तवन्तस्ततस्तेनविषयमाच्छेद्यं । एतत् त्रिविधमप्याच्छेद्यं साधूनामकल्प्यं । अप्रीतिकलहात्मघातान्तरायप्रद्वेषाद्यनेकदोषसंभवात् । केवलं स्तेनाऽऽच्छिद्येऽयं विशेषो येषां सम्बन्धिभक्तादि बलादाच्छिद्य चौराः साधुभ्यो ददति त एव सार्थिका यदि स्तेनैर्बलादाप्यमाना एवं ब्रुवन्ते अस्मदीयं सर्वं चौरगृहीतव्यं, ततो यदि चौरा युष्मभ्यं दापयन्ति ततो अस्माकं महान् संतोष इति यदि तैरनुज्ञाता मुनयो दीयमानं चौरैरपि गृह्णन्ति पश्चाच्चौरेषु अपगतेषु भूयोऽपि ततो गृहीतं द्रव्यं तेभ्यः समर्पयन्ति यदा तदानीं चौरभयादस्माभिगृहीतं संप्रति ते गतास्तदात्मीयं द्रव्यं यूयं गृहीथ, एवमुक्ते यदि ते समनुजानते यदा युष्मभ्यमेवास्माभिर्दत्तं तर्हि भुञ्जते कल्पनीयत्वादिति १४ अनिसृष्टम् न निसृष्टं स्वामिभिः साधुदानार्थमननुज्ञातं यत्तदनिःसृष्टं तस्त्रिधा साधारणानिसृष्टं, जड्नानिसृष्टं, चोल्लकानिसृष्टं । तत्र साधारणं बहुजनसामान्यं, चोल्लकं स्वस्वामिना पदातिभ्यः प्रसादीक्रियमाणं कौटुम्बिकेन वा क्षेत्रादिस्थित कर्म्म करेभ्यो दीयमानं देशीयभाषया भक्तमुच्यते, जद्नो हस्तिभिरनिसृष्टमननुज्ञातं न कल्पते साधूनां तत्र साधारणापिं० नि० ११३
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SAROKARM5RI
प्रथम संवरद्वारे पिण्डोद्गमदोषाः
कि निसृष्टं यत्र हट्टगृहादिस्थिततिलकुट्टितैलवस्तुलड्डुकदध्यादिदेयवस्तुभेदेनाऽनेकधा, तत्र घाणकादियन्त्रे तिलकुट्टीतैलादिकं हटे वस्त्रा- प्रश्न व्यादिकं गृहेऽशनादिकं बहुजनसाधारणं च सर्वैः स्वामिभिरननुज्ञातं यदेकः कश्चित् साधुभ्यो प्रयच्छति तत्साधारणानिसृष्टं । तथा चोल्लको वृत्ति द्विविधः छिन्नोऽच्छिन्नश्च, तत्र कोऽपि कौटुम्बिकः क्षेत्रगतहालिकानां कस्याऽपि पार्श्व कृत्वा भोजनं प्रस्थापयति, स यदा एकैक
| हालिकयोग्यं पृथक् पृथक् भाजनं कृत्वा प्रस्थापयति तदा स चोल्लकच्छिन्नी । यदा तु सर्वेषामपि हालिकानां योग्यमेकस्यामेव ॥२३॥ स्थाल्यां कृत्वा प्रेषयति तदा सोऽच्छिन्नः, तत्र यश्चोल्लको यस्य निमित्तं छिन्नः स तेन दीयमानो मौलस्वामिना कौटुम्बिकेन दृष्टोऽदृष्टो
वा साधूनां कल्प्यते च्छिन्नेन तस्य स्वकीयीकृतस्य दत्तत्वात् , अच्छिन्नोऽपि कौटुम्बिकेन येषां हालिकानां योग्यः सचुल्लकस्तैश्च साधुभ्यो दानाय अनुज्ञातो दृष्टाऽदृष्टो वा कल्पते तैः पुनरननुज्ञातो न कल्पते एव द्वेषान्तरायपरस्य कलहादिदोषसम्भवात् । तथा जड्ना निसृष्टं हस्तिनो भक्तं मिण्ठेनानुज्ञातं अपि राज्ञा हस्तिना वाऽननुज्ञातत्वात् न कल्पते, हस्तिनो भक्तं राज्ञः सम्बन्धि ततो राज्ञाननुज्ञातस्य ग्रहणे ग्रहणाकर्षणवेषोदालनादयो दोषा भवन्ति । तथा मदीयाज्ञामन्तरेणैव साधवे पिण्डं ददाति कदाचित् मिण्ठं स्वाधिकाराट्रंशयति ततस्तस्य वृत्तिच्छेदः साधुनिमित्त इति साधोरन्तराय इति । राज्ञाऽननुज्ञातत्वाद् अदत्तादानदोषश्च । तथा गजस्य पश्यतो मेण्ठस्याऽपि सत्कं न गृहीतव्यं गजो हि सचेतनस्ततो मदीयकवलमध्यात् मुण्डैरपि पिण्डो गृह्यते इत्येवं विचार्य यथायोग | || मार्ग परिभ्रमन् उपाश्रये तं साधं दृष्ट्वा तमुपाश्रयं पातयति साधु च कथमपि मारयति १५ ।
अज्झोयरत्ति अधि-आधिक्येन पूरणं स्वार्थदत्ताशनादेः साध्वागमनमधिगम्य तद्योग्यभक्तसिद्ध्यर्थ प्राचुर्येण भरणमध्यवपूरः १ पिं०नि० पृ० ११५
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॥२३॥
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Pil स एव अध्यवपूरकः स्वार्थ कप्रत्ययविधानात् तद्योगाद्भक्ताद्यष्यध्यवपूरकः । तत्रिधा खगृहयावदर्थिकमिश्रः, खगृहपाखण्डिमिश्रश्च,
खगृहश्रमणमिश्रस्तु स्वगृहपाखण्डिमिश्रेऽन्तर्भावित इति पृथग् नोक्तः। तत्र यावदर्थिकात्-प्रथममेवाग्निसंधुक्षणस्थालीजलप्रक्षेपादिरूपे आरम्भे स्वार्थ निष्पादने पश्चात् यथासंभवं त्रयाणां यावदर्थिकादीनां अर्थाय अधिकतरान् तण्डुलादीन प्रक्षिपति एषोऽध्यवपूरकः अतएवाऽस्य मिश्रजाताऽदो यथा मिश्रजातं तदुच्यते-यत्प्रथमत एव यावदर्थिकाद्यर्थमात्मार्थ च मिश्रं निष्पाद्यते, यत्पुनः प्रथमं आरभ्यते
स्वार्थ पश्चात् प्रभूतान् अर्थिनः पाखण्डिनः साधून् वा समागतानवगम्यते तेषामर्थायाधिकतरं जलतण्डुलादि प्रक्षिप्यते सोऽध्यवपूरक ल इति । अत्र च स्वगृहं यावदर्थिक मिश्रेऽध्यवपूरके शुद्धभक्तमध्ये यावन्तः कणाः कार्पटिकाद्यर्थ पश्चात् क्षिप्ताः तावन्मानं स्थाल्याः |पृथग् क्रियते कार्पटिकेभ्यो वा दत्ते सति शेषमुद्धरितं भक्तं तत् साधूनां कल्पते । अतएव चाऽयं विशोधिकोटिर्वक्ष्यते तथा स्वगृह| पाखण्डिमिश्रे स्वगृहसाधुमिश्रे च शुद्धभक्तमध्ये पतिते पूर्तिभवति यदि तावन्मानं स्थाल्याः पृथक्कृतं दत्तं वा पाखण्डयादिभ्यस्तथापि | शेषं न कल्पते । यतः सकलमपि तद्भक्तं पूतिदोषदुष्टं भवतीति १६ उक्ताः षोडश उद्गमदोषाः, । अथोत्पादना दोषानाऽऽह
धाइ दह निमित्ते-इति गाथाद्वयं पूर्वोक्तं वाच्यं, तत्र धयन्ति पिबन्ति बालका यां इति धीयन्ते धार्यन्ते पालकानां दुग्धपानाद्यठा र्थमिति वा, धात्री बालपालिका, सा च पश्चधा-क्षीरधात्री १ मञ्जनधात्री २ मण्डनधात्री ३ क्रीडनधात्री ४ उत्संगधात्री ५ च । इन
१ षोडशोद्गमदोषस्वरूपम् पिंडनियुक्ति पृष्ठ ३४-११६ यावत् २ धाई दुइ निमित्त आजीव वणीमगे तिगिच्छा य । कोहे माणे माया लोमे य हवंति दस पए ॥१॥ पुब्धि पच्छा संथव विजा मंते य चुन्न जोगे य । उप्पायणाइ दोसा सोलसमे मुलकम्मे य ॥२॥ पि०नि० गा०४०८-४०९
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बनविदच धात्रीत्वस्य यत्करणं कारापणं वा धात्रीशन्देनोक्तं, तथा धात्र्याः पिण्डो धात्रीपिण्डो, एवं दूत्यादिष्वपि भावनीयमिति, इयमत्र
प्रथम प्रश्नव्या भावना-कश्चित् साधुर्भिक्षार्थ पूर्वपरिचितगृहे प्रविष्टो, रुदन्तं बालकं विलोकयन् तन्मातरमाह यतोऽयं दारकोऽद्यापि क्षीराहारः क्षीरं वृत्ति विना रुदति तन्मह्यं मिक्षा मंक्षु दत्वा पश्चादेनं स्तन्यं पायय, यद्वा प्रथममेनं पायय पश्चात् भिक्षां देहि, यदि वा अलं भिक्षया, पिण्डोत्पासंप्रति एनं पायय, अहमन्यत्र गत्वा पुनः समेष्यामि, यदि वा तिष्ठ त्वं निराकुला अहमेवाऽस्मै कुतोऽपि क्षीरमानीय दास्यामीति
| दनदोषाः ॥२४॥ स्वयं धात्रीत्वं करोति । तथा मतिमान् निरोगश्चिरायुः बालः स्तन्यं पायितः स्यात् इति श्रुते अपमानितस्तु विपरीतो भवति दुर्लभ
खलु लोके पुत्रमुखदर्शनं अतः सर्वाण्यन्यानि कर्माणि मुक्त्वा बालकं स्तन्यं पाययेति एवं च क्रियमाणे बहवो दोषा भवेयुः । तथाहिबालकमाता भद्रकत्वादादृतमानसा सत्याऽऽधाकर्मादिकं कुर्यात् , तथा बालकः खजातो वा अन्यो वा प्रातिवेश्मिकादि बालकमात्रा सह साधोः संभावयेत् , चाटुकरणदर्शनात् यदि वप्ता वा बालजननी भवेत्तदा रोपं वहेदहो प्रव्रजितस्य महती परकीया तप्तिः, तथा वेदनीयकर्मविपाकवशात् बालकस्य कदाचिन्मान्द्ये संजाते मदीयपुत्रोऽनेन लोचनीकृत इत्यादि साधुना सह कलहकरणात् प्रवचनमालिन्यं इति दोषाः। अथवा कस्यापीभ्यगृहे बालधापनपरां धात्री स्वबुद्धिप्रपश्चन अन्यां मायाँ तत्र स्थापयन् धात्रीत्वं करोति, यथा क-| श्चित् साधुभिक्षाचयाँ प्रविष्टः महेभ्यगृहे सशोका काञ्चिदवलोक्य पृच्छति-किमद्याऽधृतिपरा दृश्यसे! सा प्राह साधर्मिकमुने ! दुःखं | दुःखसहायकस्यैव कथ्यते, को दुःखसहायो भवत्याः ? सा प्राह यो निशम्य दुःखप्रतिकार करोति । मुनिः प्राह-मां मुक्त्वा कोऽन्य-द स्तथाभूतः। सा प्राह भगवन् ! स्फेटिताऽहं अपरधाच्या इभ्यगृहात् तेन विषण्णा, ततः साधुरुत्पन्नाभिमानो वक्ति तत्र स्थापयामि ततो है यथेप्सितां भिक्षां ददामीति इत्यभिधाय स्फेटितुमिष्टाया धाच्या अदृष्टत्वात् स्वरूपं अजानन् तस्या एव पार्श्वे [अभिनव स्थापितायाः
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॥२४॥
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स्वरूपं] पृच्छति । सा किं तरुणी मध्यमा वृद्धा वा प्रतनुस्तनी स्थूलस्तनी कूपरस्तनी वा मांसला कृशा कृष्णा गौरी वेत्यादि पृष्ट्वा च, तत्रेश्वरगृहे गतः सन् तं बालकमालोक्य गृहखाम्यादि समक्षं धात्रीदोषान् वक्ति। यथा-वृद्धा धात्री अबलस्तन्या तां धयन् दारका अबल: संपद्यते, कृशा धात्री स्तोकस्तन्या तां धयन् शिशुरपि परिपूर्णस्तन्याभावात् शिशुरपि कृश एव, स्थूलस्तन्या स्तन्यं धयन् कोमलाङ्गत्वात् कुचचंपितवक्त्रघ्राणः सन् चिपिटघ्राणः स्यात् , कूर्पराकारस्तन्यास्स्तनं धयन् बालः सदैव स्तनाभिमुखदीर्घाकृतमुखतया शूचीसदृशबदनचिर्पटनेत्रश्च स्यात् । यत उक्तं
निःस्थामा स्थविरां धात्री, सूच्यास्यः कूर्परस्तनीम् । चिपिटः स्थूलवक्षोजां, धयंस्तन्वीं कृशो भवेत् ॥१॥ जाडयं भवति स्थूरायाः, तनुक्यास्त्ववलंकरं । तस्मान्मध्यबलस्थायाः, स्तन्यं पुष्टिकरं स्मृतं ॥२॥ तथाऽभिनवस्थापिता धात्री येन वर्णेन उत्कटा भवति तेन तां निन्दति यथाकृष्णा भ्रंशयते वर्ण, गौरी तु बलवर्जिता । ततः श्यामा भवेद् धात्री, बलवर्णैः प्रशंसिता ॥१॥ इत्यादि।
एतद्वचः गृहस्वामी श्रुत्वा स्थविरत्वादिस्वरूपां वर्तमानधात्री परिभाव्य स्फेटयति तां साधुसंमतां धात्रीं करोति । सा च प्रमुदिता तस्मै साधवे विपुलां भिक्षां प्रयच्छति इति-धात्रीपिण्डोऽनाचीर्णः । अत्र बहवो दोषाः तद्यथा-या स्फेटिता सा विद्वेष याति वक्ति चाऽनया सह साधुर्यथेच्छं रमते इत्यलं दत्ते । अतिद्विष्टा सती विषादिदानतो मारयत्यपि । या चिरंतनी स्थापिता साऽपि चिन्तयति चित्ते यथा-ऽनेनाऽग्रेतनी स्फेटयित्वा मां धात्री कृता तथा कदाचिदन्ययाऽभ्यर्थितो मामपि स्फेटयिष्यति ततस्तथा करोमि यथाऽयं
१ पि०नि० पृ० १२३-२
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पति इति विसावनीयाका ततो
शान०वि० प्रश्न०व्या०
वृत्ति
AROGREASE
प्रथम संवरद्वारे | पिण्डोत्पा. दनदोषाः
व ग्रा
॥२५॥
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न भवति इति विचिन्त्य विषादियोगेन मारयेदित्यादयो बहवो दोषाः। एवं मजनधात्रीत्वकरणे कारापणे क्रीडनकअङ्कधात्रीत्वकरणे कारापणे दोषाः परिभावनीयाः ॥१॥
दूती परस्परसंदिष्टार्थकथिका ततो दूतीत्वकरणेन-सन्देशकथनेन यः पिण्ड उपार्जितो यतिना स दूतीपिण्डः स द्विविधः स्वग्रामे परग्रामे च । तत्र यस्मिन् ग्रामे साधुर्वसति तस्मिन्नेव ग्रामे यदि सन्देशं कथयति तदा स्वग्रामदूती। यदा तु परग्रामे गत्वा सन्देशं कथयति तदा परग्रामदूती। सैकैकाऽपि द्विधा प्रकटा, प्रच्छन्ना च, प्रच्छन्ना पुनर्द्विधा एका लोकोत्तरविषया द्वितीयसंघाटिकसाधोरपि गुप्ता इत्यर्थः। द्वितीया पुनर्लोक-लोकोत्तरविषया पाश्ववत्तिनो जनस्य संघाटिकद्वितीयसाधोरपि गुप्ता इति भावः। ततः कश्चिद् साधुर्भिक्षाकृते वजन् विशेषतस्तल्लाभार्थ तस्यैव ग्रामस्य सम्बन्धिनः पाटकान्तरे ग्रामान्तरे वा जनन्यादेः सत्कं पुत्रिकादि पुरतो गत्वा सन्देश कथयति, यथा सा तव माता सा तव पिता भ्रातादिर्वा, त्वयात्राऽऽगन्तव्यमित्यादि तत्संमुखं वदति । एवं स्वपक्षपरपक्षयोनिःशङ्क शृण्वतोः कथनात् स्वग्रामपरग्रामविषयं दूतीत्वं । तथा कश्चित्साधुः कयाचिहुहित्रा मात्रादिकं प्रति स्वग्रामे परग्रामे वा सन्देशकथनाय प्रार्थितः। ततस्तत्सन्देशकं अवधार्य तज्जनन्यादि पार्श्वे गतः, सन्नैवं चिन्तयति दूतीत्वं तु गर्हितं सावद्यत्वात् ततो द्वितीयसंघाटकसाधुर्मा दूतीदोषदुष्टं माज्ञासीत , तदर्थ भङ्गयन्तरेणेदं भणति, यथा-श्राविकेतिमुग्धा सा तव पुत्री यतः-सावद्ययोगरहितानस्मान् प्रति वदति यथेदं प्रयोजनं मदीयागमनादिकं मातुस्त्वया कथनीयमिति साऽपि दक्षतयाऽभिप्रायं ज्ञात्वा द्वितीयसंघाटकचित्तरक्षणार्थ प्रति भणति यथा-वारयिष्याम्यहं तां पुनस्त्वां न वदिष्यति इति संघाटकसाधोरपि गोपयितुमिष्टं न लोकस्येति लोकोत्तरप्रच्छन्नं स्वग्रामपरग्रामविषयं दतीत्वं । उभयप्रच्छन पुनरेवं यथा काचित् साधुं प्रति वदति मअनन्यास्त्वमेवं कथयेस्तत्कार्य तव प्रतीतं यथा
ROSAROSAROK
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त्वं जानासि तथैव संपन्न इति, इह च साधुसंघाटकस्य शेषलोकानां च सन्देशार्थानवगमादुभयप्रच्छन्नदूतीत्वं । दोषाश्च सर्वत्र गृहस्थव्यापारादिना जीवोपमर्दादय इति दूतीदोषः २
निमित्तेत्त निमित्तं अतीताद्यर्थपरिज्ञानहेतु शुभाशुभचेष्टातद्धेतुकं ज्ञानं निमित्तज्ञानं, तत्करणेन पिण्डो निमित्तपिण्डः । यथा कोऽपि साधुः कथयति तव अतीतदिने सुखदुःखलाभालाभादि जातं, आगामिदिने वा राजप्रसादिकं भविष्यति, संप्रति वाऽद्यैव दिने | | अमुकं अमुकं भवतीति भविष्यति वा, तेऽपि गृहस्था लाभालाभसुखदुःखजीवितमरणादिविषयं निमित्तं पृष्टमपृष्टं वा धृष्टेन तेन कथ्यमानमालोक्यावर्जितमानसास्तस्मै मुनये मोदकादिकां विशिष्टविपुलां भिक्षां ददते दापयन्ति वा स निमित्त पिण्डः साधूनामनाचीर्णः, | आत्मपरोभयविषयाणां वधादिदोषाणामनेकेषामत्र संभवादिति ३
आजीवति आजीवनं वृत्तिराजीविका सा पश्चधा - जातिविषयः १ कुलविषयः २ गणविषयः ३ कर्मविषयः ४ शिल्पविषयश्च ५ । एकैकोऽपि द्विधा - सूचया १ सूचया२ च । सूचा - वचनरचनाविशेषेण कथनं, असूचा - अस्फुटवचनेन तत्र सूचया - स्वजातिप्रकटनेनतजातिमुपजीवति । यथा कश्चित् साधुभिक्षामटन् द्विजवेश्म प्रविष्टः, तत्र द्विजपुत्रं यागहोमादिक्रियां सम्यकुर्वन्तं वीक्ष्य तञ्जनकाग्रे | स्वजातिप्रकटनाय वक्ति यथा समिधमन्त्र - आहुतिस्थानं यागकालघोषादयः क्रियाः सम्यक् असम्यक् वा भवन्ति । तत्र समिधः पिप्प| लादीनामार्द्रशाखाखण्डरूपाः, मत्राः प्रणवादिका वर्णरचनाः, आहूतिः अग्न्यादौ घृतक्षेपरूपा स्थानं - उत्कटिकादि यागोऽश्वमेघादि, कालः प्रभातादि, घोष उदात्तादि, सर्वं यथा प्रतिपादितं तथा क्रियते सा सम्यविक्रया तद्विपरीता न्यूना अधिकतया वा विपर्ययेण वा क्रियते साऽसम्यक्क्रिया । अयमपि त्वत्पुत्रः सम्यक् क्रियां कुर्वाणः श्रोत्रियस्य पुत्रः ज्ञायते इत्येवमुक्ते स द्विजो वक्ति अवश्यं
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ज्ञान०वि०
प्रश्न० व्या०
वृत्ति
॥२६॥
त्वं ब्राह्मणोऽसि तच्छ्रुत्वा मौनेन स्थितं एतच्च सूचया जाति प्रकटनं असूचया तु पृष्टोऽपृष्टो वा आहारार्थं स्वजातिं प्रकटयति यथाऽहं ब्राह्मणः, अत्र चाऽनेके दोषाः स द्विजो यदा भद्रकस्तदा स्वजातिपक्षपातात् प्रभूतमाहारादिकं पक्त्वाऽपि ददाति आधाकर्मदोषः । अथ अप्रीतस्तदा भ्रष्टोऽयं पापात्मा ब्रह्मत्वं त्यक्तवानिति विचिन्त्य स्वगृहान्निष्कासनादि करोति एवं क्षत्रियादिजातिकुलादिष्वपि भावनीयं ४
वणीमग्गति वनु याचने प्रायो दायकाभिमतेषु श्रमणादिष्वात्मानं भक्तं दर्शयित्वा पिण्डं याचते इति वनीपकः । कश्चिद्यतिनिर्ग्रन्थशाक्य तापस परिव्राजकाजीविकद्विजप्राघूर्णश्वानकाकशुकादिभक्तानां गृहस्थानां गृहं भिक्षां भ्रमन् प्रविष्टस्ततस्तेषां पुरतोऽशनादिलाभार्थ निर्ग्रन्थादिगुणवर्णनेनात्मानं तद्भक्तं दर्शयति । तथाहि - स कदाचित् प्रविष्टो निर्ग्रन्थभक्त श्रावकगृहे निग्रंथानाश्रित्य वदति| भो श्रावक ! तथैते गुरवः सातिशयज्ञानभूषिता बहुश्रुता इत्यादिकां प्रशंसां, शाक्योपासकगृहे शाक्यान् एवं तापस-परिव्रजकाजीविकद्विजानप्याश्रित्य तद्दानतद्गुणप्रशंसाकरणेन वनीपकत्वं विज्ञेयं । तथाऽतिथिभक्तानां पुरत एवं वक्ति इह प्रायो लोकः परिचितेषु उपकारकेषु वा ददाति, पुनः अखिन्न अतिथिजनं पूजयति तस्यैव दानं जगति प्रधानमिति, श्वानभक्तास्तु किन्तु एते श्वानः कैलासपवैतादागत्य यक्षा एव श्वानरूपेण पृथवीं संचरन्ते, तत एतेषां दानेन वैश्रमणः प्रसन्नीभूय धनं ददाति । एवं काकादिष्वपि भावनीयं, इत्थं वनीपकत्वकरणेन पिण्डो बहुदोषाय भवति । यथाऽधामिके धामिके वा पात्रे दानं दत्तमपि न निष्फलं भवतीत्येवमुक्तेऽपात्रदानस्य पात्रता प्रशंसनेन स त्यक्ताचारः स्यात् किं पुनः कुपात्रानेव शाक्यादीन् साक्षात् प्रशंसतः उक्तं चअपते ॥ १ ॥
दाणं न होइ अफलं पत्तमपत्तेसु संनिजुज्जंतं । इय भणिए विय दोसो, पसंसओ किं पुण
प्रथम
संवरद्वारे पिण्डोत्पा
दनदोषाः
॥२६॥
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WAISAARCOAGAHARI
एवं शाक्यादिप्रशंसने लोके मिथ्यात्वं स्थिरीकृतं भवति । यथा साधवोऽप्यमन् प्रशसंति तस्मादेतेषां धर्मः सत्य इति । यदि ते | | शाक्यादिभक्ता भद्रकास्तदा इत्थं प्रशंसां श्रुत्वा तयोग्यमाधाकर्मादि कुर्वते तद् गृद्धतया कदाचित्तद्धर्ममपि प्रतिपद्येरन् , लोकेऽपि वचनीयता चाटुकारिण आहाराद्यर्थ श्वान इव लाटपटयकारिणः । यदि ते प्रत्यनीकास्तदा गृहनिष्काशनादि कुर्युरिति साधूनां तेषांट प्रशंसने मृषावादः। अनुमोदनद्वारा प्राणातिपातादयोऽपि स्युरित्यर्थः ५ चिकित्सा इति चिकित्सनं चिकित्सा-रोगप्रतीकारः तदुप
देशो वा सा पि द्विधा सूक्ष्मा बादरा च, तत्र सूक्ष्मा औषधवैद्यकज्ञापनेन वा, बादरा स्वयं चिकित्साकरणेन अन्येभ्यः कारापणेन वा। & यथा कश्चिद्गृही ज्वराक्रान्तस्तस्य गृहे गतं साधुं दृष्ट्वा पृच्छति भगवन्मदीयस्य व्याधेः प्रतीकारं जानी ? स वक्ति भोः श्रावक!
यादृशो व्याधिस्तव ममाऽपि तादृश्येवमभृत् परममुकेनौषधेन शान्त इति । अनेन अज्ञगृहस्थस्य भैषज्यकरणाऽभिप्रायेणौषधसूचनं कृतं ।। | अथवा रोगिणा चिकित्सा पृष्टा वदति किमहं वैद्यो येन प्रतिकारं जाने एवं चोक्ते रोगिणोऽनभिज्ञस्य सतोऽस्मिन् विषये वैद्यं पृच्छन्ति सूचनं कृतं सूक्ष्मा विचिकित्सा । बादरा तु यदा स्वयं वैद्यीभूय साक्षादेव वमनविरेचनक्वाथादिकं करोति कारापयति वा, तदा एवं कृते गृही मुदितो भिक्षां विपुलां यच्छति इति द्विविधोऽपि पिण्डोऽप्यनाचीर्णः । अनेके दोषाः संभवन्ति, यथा-चिकित्साकरणकाले कन्दमूलफलादि जीवबाधा, क्वाथादिकरणे षट्कायविराधना, तप्तायोगोलकसमो गृही प्रगुणीकृतोऽनेकजीवघातं कुर्यात् । तथा यदि दैवयोगात् चिकित्स्यमानस्याऽपि रोगिणो व्याधेराधिक्यं जायते, तदा कुपितस्तत्पित्रादिभिराकृष्य राजकुलादौ ग्राहयेत् , तथाहारादिलब्धमानाः चिकित्सादि कुर्वन्तीति प्रवचनमालिन्यं स्यादिति ६
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ज्ञान०वि०
प्रश्न०व्या०
वृत्ति
॥२७॥
कोहेत्ति क्रोधः कोपस्तद्धेतुकः पिण्डः क्रोधपिण्डः, किमुक्तं भवति ? कस्यचित् साधोः सम्बन्धिनमुचाटनमारण शापादिकं विद्याप्रभावं तपःप्रभावं सहस्रयोधित्वादिखबलं च राजकुलवल्लभत्वं च ज्ञात्वा शापदानेन वा कस्यचित् मारणाद्यनर्थरूपं क्रोधफलं साक्षादेव दृष्ट्वा भयात् गृहस्थेन यस्तस्मै दीयते स क्रोधपिण्डः । अथवा अन्येभ्यो ब्राह्मणादिभ्यो दीयमानो याचमानोऽपि साधुर्यदा न लभते तदा अलब्धिमान् सन् कुप्येत् कुपिते च सति तस्मिन् साधुः कुपितो भव्यो न भवतीति यद्दीयते स क्रोधपिण्डः । अथ च सर्वत्र कोप एव पिण्डोत्पादने मुख्यकारणं द्रष्टव्यं विद्यातपःप्रभृतीनि तु तत् कारणान्येवेति । न विद्यापिण्डादिभिरस्य मित्रत्वं आशङ्कनीयं क्रोधादिष्वेवान्तर्भावात् इति ७
मानो - गर्वस्तद्हेतुकः पिण्डो मानपिण्डः अयमर्थः कश्चिद्यतिः कैश्चिदपरैः साधुभिरिति उक्तस्त्वं लब्धिमान् ज्ञास्यसे यचद्य भोजयिष्यसि इत्यादि वाक्यैरुतेजितो अथवा नन्वयम् किमपि [न] सिद्ध्यति इत्यपमानतो वा गर्वष्मातचेता अथवा लब्धिप्रशंसादिकपरैर्वाच्यमानमाकर्ण्य यत्र कुत्राऽप्यहं व्रजामि तत्र सर्वथाऽपि लभे, तथैव जनो मां प्रशंसति इत्येवं प्रवर्द्धमानमानः कस्याऽपि गृहिणः पाश्च गत्वा तं गृहिणं तैस्तैर्वचनजातैर्दानविषयेऽभिमाने च दापयति । स च गृही तथाऽभिमानपरः शेषकलत्रादिके निने लोके दातु| मनिच्छत्यपि यदशनादिकं ददाति स मानपिण्डः ८
मायत्ति माया - परवञ्चनात्मिका बुद्धिस्तया कश्चित् साधुर्मन्त्रयोगाद्युपायकुशलः स्वकीयरूपपरावृत्यादि कृत्वा यन्मोदकादिकं उपाजयति स मायापिण्डः, ईयमत्र भावना - कश्चिद्यतिः अद्याऽहं सिंहकेसरादिमोदकादिकं गृहीष्यामीति बुद्ध्या अन्यद् वल्लचणकादिल१ पिं० नि० १३३ । २ पतद्भावो पिण्डनिर्युक्तौ ४८१ गाथायां लोभपिण्डे न्यस्तोऽत्र तु मायापिण्डे
Rotat
69649
प्रथम
संवरद्वारे पिण्डोत्पा|दनदोषाः
॥२७॥
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-
भ्यमानमपि यन्त्र गृह्णाति तन्मायापिण्डः ९
लोमेन सारस्य लोपटथात् पूर्व तथाविधषुद्ध्यभावेऽपि यथाभावं प्रचुरं लभ्यमानं लपनश्रीप्रभृतिक भद्रकर इति कृत्वा यद्गृहाति स लोभपिण्डः, यथा पायसादिलब्धेऽपि खण्डशर्करादि कुतोऽपि लभ्यते तदा शोभनतरमिति रूपो योऽध्यवसायः पर्यटन् सल्लभते | स लोभपिण्ड इदं च क्रोधादिकचतुष्टयमपि साधूनां न कल्पते, प्रद्वेषकर्मबन्धप्रवचनलाघवादिदोषसंभवात् १० यथा... कोहे घेवर खवगो, माणे सेवइय खुड्डुओ नायं । मायाइसाढभूइ, लोभे केसरय साहु त्ति॥१॥
इति पिण्डनियुक्तिगतोदाहरणत्वात् । पुदिव पच्छासंथवोत्ति संस्तवो द्विधा, वचनसंस्तवः सम्बन्धसंस्तवश्च। तत्र वचनं | श्लाघा तद्रूपो यः संस्तवो वचनसंस्तवः। सम्बन्धिनो-मात्रादयः स्वस्रादयश्च तद्रूपो यः संस्तवः सम्बन्धसंस्तवः। एकैकोऽपि-द्विधा | पूर्वसंस्तवः पश्चात्संस्तवश्च । तत्र देये लब्धे पूर्वमेव दातारं गुणैर्वर्णयति स पूर्वसंस्तवः। यत्तु लब्धे सति दातारं गुणैर्वर्णयति स पश्चात् 3 संस्तवः । इयमत्र भाषना-कश्चिद्यतिर्भिक्षार्थ भ्रमन् कञ्चिदीश्वरगृहं निरीक्ष्य सत्यैरसत्यैरौदार्यादिगुणैः स्तौति पूर्ववार्तादिभिर्यादृशा उदारत्वेन संश्रुतास्तादृशा एव दृष्टाः यस्येदृशा गुणाः सर्वत्र प्रस्फुरन्ति इत्यादि संस्तवपूर्व दानात् । तथा पश्चात् त्वदीयदर्शनेनाऽस्माकं | मनोलोचने च शीतले जाते इत्याधनेकचाटुवचनानि वक्ति, उभयरूपेऽप्यस्मिन् मायामृषावादाऽसंयमानुमोदनादयो बहवो दोषा भवन्ति | सम्बन्धेऽप्येवमेव भाव्यं । तथा असति सम्बन्धे युनक्ति यादृशी तव माता तादृशी ममाऽपि अस्ति तामालोक्याश्रुणि क्षरन्ति, अथवा तब मार्या सदृशी मयाऽपि भार्या मुक्ता, अथवा यादृशास्तव पुत्रास्तादृशाः ममाऽपि सन्ति इत्यादिसम्बन्धो योजयति, अथवा कल्प-14
१ क्रोधमानमायालोभपिण्डोपरि दृष्टान्तचतुष्कं पि०नि० पृ० १३३-१३९ । २ पिं० नि० पृ० १३९
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ERSEASE
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FECALCA
वृत्ति
प्रथम संवरद्वारे | पिण्डोत्पादनदोषाः
शान०वि०
यति त्वं जननीप्राया ममाऽस्ति भगिनीदुहितापाया इत्येवं कृते हि बहवो दोषास्तथा हि-ते गृहिणो यदि भद्रकास्तदा साधौ तत्पतिप्रश्न०व्या० चन्धो भवेत् प्रतिबन्धे च सति आधाकादिकं कुर्वति, अथ प्रान्तास्तहिं अयमस्माकं खस्य कार्पटिकप्रायस्य जनन्यादिकल्पनेनाप
भ्राजनां विधत्ते, तत् एवं विचिन्त्य निष्काशनादिकं कुर्युः, अधृत्याश्रुमोचनादि कुर्वन् मायावी एषोऽस्माकं आवर्जनादिनिमित्तं चाटु
| कानि करोतीति निन्दा। तथा ममेदृशी माना आसीदिति मृतस्य पुत्रस्य स्थानेऽयं मत्पुत्र इति बुद्ध्या तस्मै स्वस्नुषादिदानं श्वश्रूरी॥२८॥ दृशी ममासीदित्युक्ते विधवां कुरण्डा वा निजसुतां दद्यादित्यादयश्च बहवो दोषास्ततः संस्तवपिण्डो यतीनामकल्प्य इति ११
विजामंते य ति द्वारद्वयं वक्ष्यते तत्र विद्या-प्रज्ञप्त्यादिस्त्रीरुपदेवताधिष्ठिता जपहोमसाध्याक्षरविशेषपद्धतिः, पुरुषरूपदेवताधिष्ठि४ तपाठमात्रसिद्धो वाऽक्षरपद्धतिर्मत्रः, तद्वथापारणेन य उपजीव्यते पिण्डः, दोषाश्चात्र यो विद्ययाऽभिमत्रितः सन् दानं दाप्यते स
खभावस्थो जातः कदाचित् प्रद्विष्टोऽन्यो वा तत्पक्षपाती प्रद्विष्टः सन् प्रतिविद्यया स्तम्भनोच्चाटनमारणादि कुर्यात् , तथा विद्यादिना परद्रोहकरणरूपेण जीवनशीलाश्चैते लोकगर्दा तथा कार्मणकारिण इमे इति राजकुले च राजा ग्रहणाकर्षणवेषपरित्यागजनकदर्थनमारणादीनि कुर्यादित्यादयः १२-१३।।
चूर्णयोगत्ति द्वारद्वयं चूर्णयोगः अञ्जनयोगश्च, तत्र चूर्णो नयनाञ्जनादि, अन्तर्धानादिफलः योगः पादलेपादि सौभाग्यदौर्भाग्यकरः, एतद्व्यापारणेन यः उपाय॑ते पिण्डः स चूर्णपिण्डः, योगपिण्डश्च । दोषाश्चात्राऽपि पूर्ववद्भावनीयाः। ननु चूर्णयोगयोर्द्वयोः । क्षोदरूपत्वे सति अनयोः परस्परं को विशेषः येन भिन्नतया उक्तः। सत्यं उच्यते-परं कायस्य बहिरुपयोगी चूर्णः अंतश्योपयोगी
१ पिं० नि० पृ० १४१ । २ पिं० नि० पृ० १४३
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॥२८॥
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योग इति । यतोऽसावभ्यहार्योऽनाहार्यश्च तदा द्विविधो भवेत्तत्र जलपानादिना अभ्यहार्यः, पादलेपादिनाऽन्यभ्यवहार्यः इति ||2|| विशेषः १४-१५ | मूलकम्मेयत्ति मूलकर्म-अतिगहनभववनस्य मूलं कारणं सावधक्रिया मूलकर्म, तत्र गर्भस्थंभन-गर्भाधान-गर्भपात-गर्भशात| उत्क्षिप्तयोनित्वकरणादिना उपाय॑ते पिण्डः स मूलकर्मपिण्डः, अयं च साधूनां न कल्पते सकारणनिष्कारणेऽपि प्रद्वेषप्रवचनमालिन्य
जीवविधाताधनेकदोषसंभवात् , तथाहि-गर्भस्तंभन-गर्भशातने च साधुकृते सति प्रद्वेषो भवति । ततः शरीस्याऽपि नाशः गर्भाधान-18 | वत्तथाऽयोनित्वकरणे यावजीवमैथुनप्रवृत्तिः गर्भाधानादिपुत्रोत्पत्तौ इष्टा भवति, क्षतयोनित्वकरणात् पुनर्भोगान्तरायादीनि स्युरिति |१६ उक्ताः षोडशाऽप्युत्पादना दोषाः। अथ एषणादोपानाऽऽह
संकिंय १ मक्खिय २ निक्खित्त ३ तत्र शङ्कितमाधाकर्मादिदोषसम्भावितं अत्र चतुभङ्गी--ग्रहणे शङ्कितो भोजनेऽपि शक्ति इति प्रथमः १ ग्रहणे शङ्कितो भोजने न द्वितीयः २ भोजने शङ्कितो न ग्रहणे तृतीयः ३ न ग्रहणेनाऽपि भोजने चतुर्थः ४ तत्रायेषु त्रिषु भङ्गेषु षोडशोद्गमदोषनवैषणारूपाणां पञ्चविंशतिदोषाणां मध्ये येन दोषेणाशङ्कितं भवति तं दोषमाप्नोति, किमुक्तं भवति यदाधाकर्मत्वेन शक्तिं गृह्णाति भुङ्क्ते वा तेन दोषेन सम्बध्यते चतुर्थभङ्गे तु वर्तमानः शुद्धो न केनाऽपि दोषेण सम्बध्यत इत्यर्थः। एतेषां चैवं संभवः, यथा कश्चित् साधुः स्वभावतो लावान् क्वाऽपि गृहे भिक्षार्थ गतः, प्रचुरा भिक्षां लभमानो मनसि शङ्कते किमत्र प्रचुरा भिक्षा दीयते न च लज्जया प्रष्टुं शक्नोति, एवं शङ्कया गृहीत्वा शङ्कित एव भुते इति प्रथमभङ्गवी, तथा कश्चित् साधुमि
१ पिं० नि० पृ० १४४ । २ पि०नि० पृ० १४७
CARRIERA2%*
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ज्ञान०वि० प्रश्न० व्या० वृत्ति
॥२९॥
क्षार्थं गतः तथैव शङ्कितचेताः प्रचुरां भिक्षामादाय स्ववसतिमागत्य भोजनावसरे दोलायमानं तं दृष्ट्वा अपरः साधुर्विज्ञातभिक्षादात्गृहव्यतिकरस्तदाशयं ज्ञात्वा भणति भोः साधो ! यत्र या भिक्षा प्राप्ता तस्य गृहे महत्प्रकरणं लाभनकं वा प्रचुरं कुतोऽप्यागतं तत् | श्रुत्वा विगतशङ्कस्तद्भुङ्क्ते इति द्वितीयभङ्गवर्त्ती, तथा कश्चित् साधुरिभ्यगृहात् प्रचुरां भिक्षां निशङ्कितो लात्वा वसतावागत्य अन्यान् साधून वा गुरोः पुरतः स्वभिक्षातुल्यां भिक्षां आलोचयतः श्रुत्वा संजातशङ्कितश्चिन्तयति, यथा यादृश्येव मया भिक्षा प्रचुरा लब्धा तादृशी अन्यैरपि साधुसंघाटकैर्लब्धा तन्मनसाधाकर्मादिदोषदुष्टं भुञ्जानस्तृतीयभङ्गभाक् ॥ १॥
मक्खियत्ति प्रक्षितं पृथिव्यादिना अवगुण्ठितं तद् द्विधा सचित्तम्रक्षितं अचित्तम्रक्षितं, तत्र सचित्तम्रक्षित त्रिविधं पृथव्यव्वनस्पतिकायप्रक्षित च तत्र शुष्केण-आर्द्रेण वा पृथ्वीकायेन देयं मात्रकं हस्तो वा यदि प्रक्षितो भवति तदा सच्चित्तपृथ्वी कायम्रक्षितम् । अकायम्रक्षिते चत्वारो भङ्गाः पुरः कर्म पश्चात्कर्म सस्निग्धं उदकार्द्र च तत्र दाता दानपूर्वं साध्वर्थं कर्म हस्तमात्रादेर्जलप्रक्षालनादि पुरः क्रियते, तत् पूर्वकर्म । यत् पुनर्भक्कादेर्दानात् पश्चात् क्रियते तत् पश्चात्कर्म । सस्निग्धमीपल्लक्ष्यमाणजलखरण्टितं हस्तादि, उदकाई स्पष्टोपलभ्यमान जलसंसर्ग, तथाभूत [पनस ] फलादीनां सद्यः कृतैः श्लक्ष्णखण्डैः खरण्टितं यत् हस्तादि तद्वनस्पतिकायम्रक्षितं, शेषैस्तु | तेजः समीरत्रस कायैर्ब्रक्षितं न भवति तेजस्कायादिसंसर्गेऽपि लोके प्रक्षितशब्दप्रवृत्यदर्शनात् । अचितम्रक्षितं द्विधा गर्हितमगर्हितं च, गर्हितं वसादिना लिप्तं इतरत् घृतादिना, तत्र सचित्तम्रक्षित न कल्प्यते, अचित्तम्रक्षितं तु लोकनिन्दादिना न ग्राह्यं घृतादिना श्रक्षितं तु कल्प्यते २
१ पिं० नि० पृ० १४९
प्रथम
संवरद्वारे
एषणा
दोषाः
॥२९॥
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36436
'निक्खित्तेत्ति निक्षिप्तं सचित्तोपरि स्थापितं, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसत्वेन षोढा, पुनरेकैकं द्विधा अनन्तरं परम्परं च, अन| न्तरं अव्यवधानेन तत्र सचित्ते मृदादौ यत्पक्वान्नमण्डकादिकं आनन्तर्येण व्यवस्थापितं तदनन्तरनिक्षिप्तं, तदेव नवनीतादि पक्वान्नादि वा जलमध्यस्थितेषु नावादिषु स्थितं परम्परनिक्षिप्तं, तथा वह्नौ पर्पटादि यत् प्रक्षिप्यते एतदनन्तरनिक्षिप्तं यत्पुनरग्रे उपरि स्थापिते पिठरादौ क्षिप्तं तत्परम्परनिक्षिप्तं, तथा वातोत्पाटिता शालिपर्यटकादि अनन्तरनिक्षिप्तं यद्येनोत्पाटयते तत्तत्र निक्षिप्तमुच्यते इति विवक्षया परम्परनिक्षिप्तं तु पवनपूरितदृत्यादि उपरिस्थितमण्डकादि । तत्र वनस्पत्यनन्तरनिक्षिप्तं सचित्तत्रीहिकाफलादिषु अपूपामण्डका - दिन्यस्तं, परम्परानिक्षिप्तं तु हरितादीनामेवोपरिस्थितेषु पिठादिषु निक्षिप्ता अपूपादयः । तथा त्रसेऽनन्तरनिक्षिप्ते बलीवर्दादिपृष्टोपरिस्थितेषु पिठरादिषु अपूपमोदकादयो निक्षिप्ताः, परम्परनिक्षिप्तं तु बलीवर्दादिपृष्टनिवेशित कुतूपादिभाजनेषु निक्षिप्ता घृतमोदकादय इति । अत्र च पृथिव्यादिषु सर्वेष्वप्यनन्तरनिक्षिप्तं देयवस्तु यतीनामकल्पनीयमेव भवति सचित्त पृथ्वीकायाद्युपरि स्थितत्वेन संघट्टादिदोषसम्भवात् । परम्परनिक्षिप्तं पुनः सचित्तादिसंघट्टादिपरिहारेण यतनया ग्राह्यमपीति ।
अथ केवलं तेजस्काये परम्परनिक्षिप्तस्य ग्रहणमाश्रित्य विशेषं प्रतिपाद्यते, यथेक्षुरसः पाकस्थानेऽग्नेरुपरिस्थिते कटाहादौ यदि कटाहः सर्वतः पार्श्वषु मृत्तिकया अवलिप्तो भवति दीयमाने चेक्षुरसे यदि परिशाटो नोपजायते सोऽपि च कटाहो विशालमुखो भवति, सोऽपि चेक्षुरसोऽचिरक्षिप्तो भवति इति कृत्वा यदि नात्युष्णो भवति स यदा दीयते तदा कल्पते, इह यदि दीयमानस्येक्षुरसस्य कथमपि बिन्दुः बहिः पतति तर्हि सलेप एवाऽऽवर्त्तते । ननु चुल्लीमध्यस्थिततेजस्कायमध्ये पतति ततो मृत्तिकयावलिप्त इत्युक्तं, तथा विशा १ पिं० नि० पृ० १५०
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दोषाः
OLLA
झान०वि०४ालमुर | लमुखादादाकृष्यमाणउदश्चनपिठरस्य कर्णे न लगति ततः पिठरस्य न भङ्ग इति[न], तेजस्कायविराधनेन गृह्यते, अत्युष्णे च आत्म
प्रथम प्रश्न व्याविराधनादयो दोषाः तथा च षटकाविराधनेति संयमविराधना चेति ३ ।
संवरद्वारे वृत्ति __ 'पिहियत्ति पिहितं सचित्तेन स्थगित तदपि पोढा पूर्ववत् , एकैकमपि द्विधा अनन्तरं परम्परं च पूर्ववद्भावनीयम् । तथापि || एषणा
| लिख्यते॥३०॥
सचित्तपृथिवीकायेनाऽवष्टब्धं मण्डकादिसचित्तपृथिवीकायानन्तरपिहितं पृथिवीकायगर्भपिठरादिपिहितं सचित्तपृथिवीकायपरम्परपिहितं, तथाहि-हिमादिनाऽवष्टब्धं मण्डकादिसचित्ताप्कायाऽनन्तरपिहितं हिमादिगर्भपिठरादिना पिहितं सचित्ताऽप्कायपरम्परापि| हितं, तथा स्थाल्यादौ संस्वेदिमादीनां मध्येऽङ्गारं स्थापयित्वा हिड्वादि वासो यदा दीयते तदा तेनाऽङ्गारकेण केषाञ्चित् संस्वेदिमादी| नां संस्पर्शोऽस्तीति तेजस्कायानन्तरपिहितं चनकादिकमपि मुर्मुरादिक्षिप्तमनन्तरपिहितं ज्ञातव्यं, अङ्गारभृतेन शरावादिना वा स्थगित पिठरादि परम्परपिहितं तथा तत्रैवाऽङ्गारधूपितादौ अव्यवहितमनन्तरपिहितं तथैव वायो द्रष्टव्यं, यत्राऽग्निस्तत्रवायुरिति वाक्यात् समीरणभृतेन तु बस्तिना पिहितं परम्परपिहितं तथा फलादिना अतिरोहितेन पिहितं वनस्पत्यनन्तरपिहितं फलभृतेम [छब्बपिठरादौ छब्बकस्थाल्यादौ स्थितेन फलेन] बक्वादिना पिहितं परम्परपिहितमपीति तथा मण्डकमोदकादिकमुपरि सञ्चरत् पिपीलिका
पङ्गिक वसाऽनन्तरपीहितं कीटिकाद्याक्रान्तशरावादिना पिहितं त्रसपरम्परपिहितं, तत्र च पृथिवीकायादिभिरनन्तरपिहितं न कल्पत ४ एव यतीनां संघट्टादिदोषसम्भवात् , परम्परया पिहितं तु यतनया ग्राह्यमपीति, तथाऽचित्तेनाऽप्यचित्ते देयवस्तुनि पिहिते चतुभङ्गी ||
१ पि०नि० पृ० १५४
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%िANAGE
| यथा-गुरुकेण गुरुकं पिहितं १, गुरुकं लघुकेन २ लघुकं गुरुकेन ३ लघुकं लघुकेन ४ । तत्र प्रथमतृतीयभङ्गयोरग्राह्यं गुरुद्रव्यस्यो
पाटने हि कथमपि तस्य पाते पादादिभङ्गसम्भवात् , द्वितीयचतुर्थयोस्तु ग्राह्य, उक्तदोषाऽभावात् देयवस्त्वाधारस्य पिठरादेर्गुरुत्वे*पि ततः करोटिकादिना दोषाऽसम्भवात् ४।। मा साहारियत्ति-संहृतं अन्यत्र प्रक्षिप्तं यत्र येन करोटिकादिना कृत्वा भक्तादिकं दातुमिच्छती दात्री तत्राऽन्यत्र दातव्यं किमपि ५ सचित्तमचित्तं मिश्रं वा स्निग्धं ततस्तद् देयमपि अन्यत्र स्थानान्तरे क्षिप्वा तेन ददाति एतत् संहृतमुच्यते । तच्च देयं कदाचित् सचि
तेषु पृथिव्यादिषु मध्ये क्षिपति कदाचिदचित्तेषु कदाचिन्मिश्रेषु ततो मिश्रस्य सचित्तेऽन्तर्भावात् , सचित्ताचित्तपदाम्यां चतुर्भङ्गी यथा | सचित्ते सचित्तसंहृतं १ अचित्ते सचित्तं २ सचित्ते अचित्तं ३ अचित्ते अचित्तं ४ तत्रायेषु त्रिषु भङ्गेषु सचित्तसंघट्टादिदोषसंभवात् न प्राथं । चतुर्थभने तु तथाविधदोषाभावे सति कल्पते । अत्राऽप्यनन्तरपरम्परप्ररूपणा पूर्ववत् कर्तव्या । यथा-सचित्तपृथिवीमध्ये यदा संहरति तदाऽनन्तरसचित्तपृथिवीकायसंहृतं, यदा तु सचित्तपृवीथिकायस्योपरिस्थिते पिठरादौ संहरति तदा परंपरसचित्तपृथिवीकायसंहतं एवमप्कायादिष्वपि भावनीयं, अनन्तरसंहृते न ग्राह्यं परंपरसंहृते तु सचित्तपृथिवीकायाद्यसंघट्टने ग्राह्यमिति ५
दायगत्ति दायकदोषदुष्टं दायकश्चानेकप्रकारः तथाहि स्थविरः, अप्रभुः, पंडकः, कम्पमानकायः, ज्वरितः, अंधो, बालो, मत्ता, | उन्मत्तः, च्छिन्नकरः, छिन्नचरणो, गलत्कुष्टो, बद्धः, पादुकारूढः, कण्डयन्ती, पेषयन्ती, भर्जमाना कृतं लोठयन्ती, पंजयन्ती, दलयन्ती, विरोलयन्ती, भुजाना, आपनसत्त्वा, बालवत्सा, षट्कायान् संघट्टयन्ती, तानेव विनाशयन्ती, सप्रत्यपाया चेति, तत एवपिं०नि० पृ० १५६ । २ पिण्डनियुक्तिगत ५७२-५७७ गाथासु बाले बुहे...वज्जणिज्जाए यावत् दायकदीषस्य चत्वारिंशभेदाः वर्णिताः
प्राय । चतुर्थभने तु तथाविधाकायसंहतं, यदा तु सचित्तवयितु सचित्तपृथिवीकायायसंघटने ग्रवारता, अंधो, बालो, मत्तः, संदरति तदाऽनन्तरसचितानाय, अनन्तरसंहृते न ग्रामं वरः, अप्रभुः, पंडका, कम्पमानाकृतं लोठयन्ती, पंजय
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RECROBA
वृत्ति
पदमादिस्वरूपे दातरि ददति न कल्पते
प्रथम प्रश्न०व्या०
तत्र स्थविरः सप्ततिवर्षाणां मतान्तरे षष्टिवर्षाणामुपरिवर्ती स च प्रायो गलल्लालो भवति ततो देयमपि वस्तु गलल्लालया खरण्टितं संवरद्वारे | भवतीति तद्हणे लोके जुगुप्सा । तथा अप्रभुः गृहस्य अस्वामी अन्येन केनाऽपि दीयमानं न कल्पते, धनिकस्याऽभिप्रायाऽज्ञातत्वा- एषणा | दिना द्वेषः स्यात् , तथा धनिकेन दत्ताज्ञस्तदा कल्पतेऽपीति । तथा कम्पमानहस्तश्च भवति, तद्धस्तकम्पनवशाद्देयं वस्तु भूमौ निप-10
दोषाः ॥३१॥ तति, तत्र पद्जीवनिकायविराधना । तथा च प्रायो स्थविरो गृहस्य अप्रभुभवति ततस्तेन दीयमाने कोऽस्याऽधिकारो वृद्धस्येति गृह
| स्वामिनियुक्तान्यस्य प्रद्वेषः स्यादिति, तथा स्वरूपेण दृढशरीरो भवति स्वयं अधिकारी भवति, तदा दीयमानं कल्पतेऽपीति । तथा
नपुंसकादभीक्ष्णं भिक्षाग्रहणे अतिपरिचयात्तस्य नपुंसकस्य साधोर्वा वेदोदयो भवेत् , ततो नपुंसकस्य साध्वाद्यालिङ्गनाद्यासेवनेनोमय| स्याऽपि कर्मबन्धः, तथा एते अहो नपुंसकादपि निष्कृष्टाः गृहंति इति जननिन्दा भवेत् ततो न ग्राह्यं अपवादतस्तु वद्भुितकञ्चिप्पिनकमत्रोपहतऋषिशप्तदेवशप्तादिषु केषुचिदप्रतिसेवितेषु नपुंसकेषु ददत्सु गृह्यतेऽपीति । तथा कम्पमानकायोऽपि भिक्षादानसमये देयं । समानयन् भूमौ परिशाटयेत् , तथा साधुभाजनादहिभिक्षा क्षपयेत् , देयपात्रकं वा पातनेन स्फोटयेत् ततो न कल्पते, सोऽपि यदि दृढभिक्षामाजमग्राही भवेत् पुत्रादिभिदृढहस्तो भिक्षा दाप्यते तदा कल्पतेऽपीति । एवं ज्वरितेऽपि दोषाः भावनीयाः किश्चिज्ज्वरिताद्भिक्षाग्रहणे ज्वरसंक्रमणमपि साधोभवेत् तथा जने उड्डाहो यतोऽमी आहारलम्पटा ज्वरपीडितादपि गृह्णन्ति, यदि असंचरिष्णुज्वरो ॥३१॥
भवेत् तदा गृह्यतेऽपीति । तथा अन्धात् भिक्षाग्रहणे उड्डाहः यदमी औदरिका भिक्षां दातुमशक्नुवतोऽपि भिक्षां गृह्णन्तीति, तथाऽप२|श्यन् पद्भ्यां भूम्याश्रितषड्जीवनिकायघातं विदधाति इत्यादयो दोषाः, अथ स यदि पुत्रादीनां धृतहस्तो भवति तदा गृह्यतेऽपीति ।।
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तथा बालो जन्मतोऽष्टवर्षाभ्यन्तरवर्ती तस्मिन् दीयमाने न कल्पते, मात्राद्यसमक्षं यदाऽऽदत्ते तदा एते लुण्टाका इव दृश्यन्ते साधवः, सवृत्ता न इति जनापवादः, मात्रादीनां च वतिनामुपरि विद्वेषः स्यादतो न ग्राह्यं, यदि मात्रादिभिः कार्यवशादन्यत्र गच्छद्धि
लिकस्य कथितं भवेदेतत् त्वया गृहागतानां साधूनां देयमिति ततो गृह्यतेऽपीति कलहादेरभावादिति । तथा च मत्तः पीतमदिरादि| भिस्स च भिक्षा ददन् मत्ततया साधोरालिङ्गनं ददाति, भाजनं वा भिनत्ति कश्चिद्ददन् आसवं वमति, वमन् साधुपात्रं खरण्टयति, | ततो लोकगर्दा 'धिगमी अशुचयो ये मत्तादपि गृह्णन्ति, कोऽपि मत्तो जल्पति वा रे मुण्ड ! किमत्रायातस्त्वमिति ब्रुवन् घातमपि लं करोति, ततो न कल्पते, यदि तस्य पार्श्वे कश्चिद्भवति तदपरोद्धा तदा कल्पतेऽपीति । तथा उन्मत्तो दृप्तो ग्रहग्रहीतो वा तस्मिन्नप्येते | एव वमनवर्जा दोषा भावनीयाः, तथा मत्तोऽपि यदि भद्रकोऽलक्ष्यमदश्च भवति तथा उन्मत्तोऽपि यदि शुचिर्भद्रकश्च भवति तदा कल्पत इति । तथा च्छिन्नकरो मूत्राद्युत्सर्गादौ जलशौचाभावात् अशुचिरेव तेन च दीयमानं ग्रहणे जनगर्दा इत्यादयो दोषाः, परिशाटिहस्तात्पतने षड्जीवघातः पात्रस्फोटनादयो भाव्याः। च्छिन्नचरणेऽप्येत एव भाव्याः केवलं पादाभावात् तस्य भिक्षादानाय चलतःप्रायो नियमतः पतनं भवेत् , तथा सति भूम्याश्रितपिपीलिकाप्रभृति प्राणीविनाशः तथा च्छिन्नकरोऽपि यदि सागारिकाऽभावे ददाति तदा यतनया गृह्यतेऽपीति । च्छिन्नचरणोऽपि यदि उपविष्टो ददाति असागारिकं च स्थानं भवेत् तदा गृह्यते । तथा गलत्कुटीपुरुषाद्गृह्यमाणेऽपि तदीयोच्छ्वासत्वक्संस्पर्श-अर्धपक्करुधिरस्वेदमललालादिभिः साधोः कुष्टसंक्रमो भवेत् , सोऽपि चेन्मण्डलप्रसूतिरूपकुष्टकीर्णकायः सन् सागारिकाभावे यदा ददाति तदा कल्पते न शेषकुष्टिनः सागारिके वा पश्यति । तत्र मण्डलानि वृत्ताकारदगुविशेषरूपाणि प्रसतिर्नखविदारणेऽपि चेतनायाः ससंवेदनं[असंवित्तिः] भवति । तथा करविषयकाष्ठमयबन्धनरूपेण हस्तांदुना पादविष
-KAK-44
AAAAAG
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184
प्रथम संवरद्वारे एषणा दोषाः
वृत्ति
द्वान विडूयलोहबन्धनरूपेण निगडेन च बद्धे दातरि भिक्षा प्रयच्छति दुःखं तस्य स्यात् , तथा मूत्राघुत्सादौ शौचाऽभावात् ततो भिक्षाग्रहणे प्रश्न व्या० लोकजुगुप्सा ततो न ग्राह्यं, यदा पादबद्धहीनस्ततश्च पीडामन्तरेण गन्तुं शक्तस्तदा ग्रहीतुं कल्पतेऽपीति, बद्धोऽपि यदोपविष्टः सन्
दत्ते सागारिको न पश्यति तदा ग्राह्यमपीति बन्धस्तु प्रतिषेध एव न भजना। तथा पादुकयोः काष्ठमयोपानहोरारूढस्य भिक्षादानाय
प्रचलतः कदाचिद् दुःस्थितत्वेन पतनं स्यात् अतो न ग्राह्य, अथ पादुकारूढोऽपि यद्यचलो भवति तदा कारणे कल्पते । तथा ॥३२॥ | कण्डयन्त्या उदूखले तंदुलादिकं छण्टयन्त्या न गृह्यते यतः सा उदूखलक्षिप्तशाल्यादि बीजसंघट्टादि करोति, तथा दानात् पूर्व पश्चाद्वा ।
जलेन हस्तधावनादि दोष वा विदध्यात् ततो न ग्राह्य, अत्रापि अपवादतः कण्डनायोत्पाटितं मुशलं न च तस्मिन् मुशले काञ्च्यां बीजलग्नमस्ति अत्राऽवसरे समायातः साधुस्ततो यदि सा पतनाद्यनर्थरहिते गृहकोणादौ मुशलं स्थापयित्वा ददाति तदा कल्पतेऽपीति । ५ तथा पिंपन्ती शिलायां तिलामलकादि प्रमृद्गन्ती यदा भिक्षादानायोत्तिष्ठति तदा पिष्यमाणतिलादिसत्काः काश्विनखिका सचित्ता अपि हस्तादौ लगिताः संभवन्ति ततो भिक्षादानाय हस्तादि प्रस्फोटने भिक्षा वा ददत्या भिक्षासंपर्कतस्तासां विराधना भवति पूर्वकर्मपश्चात्कर्मादयोऽपि अप्कायविराधना संभवति, अतो नैव (कल्पते), एषाऽपि पेषणसमाप्तौ पाषुकं वा पिंपती यदि ददाति तदा कल्पते । तथा भय॑माना चुल्लथा कडिल्लकादौ चनकादीन् स्फेटयती तस्यां भिक्षां ददत्यां वेलालगनेन कडिल्लकक्षिप्तगोधूमचणका| दीनां दाहे सति प्रद्वेषादयो दोषा स्युः । अत्रापि यत् सचित्तं गोधूमादि कडिल्लके क्षिप्तं तत् भ्रष्टोत्तारितमन्यच्च नाद्यापि करे गृहीत- | मस्मिन्नवसरे आयातः-साधुरागतः ततो यदि उत्थाय ददाति तदा कल्पते । तथा कुंतत्यां वस्त्रेण रूतपोणिका-सूत्ररूपां कुर्वन्त्यां 8 तथा लोठयन्त्यां-लोढत्यां कर्पासः कणकेन रूततया विदधत्यां तथा विक्षुवत्यां रूतं कराभ्यां पौनःपुन्येन विरलं कुर्वन्त्यां तथा
OREGARRAHARASHTRA
॥३२॥
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1 -৬61
पिञ्जयन्त्यां पिञ्जनेन रूतं विरलं कुर्वन्त्यां न गृह्यते । देयलिदृढहस्तधावनादि पश्चात्कर्मादयो दोषाः । कार्पासकादिसचित्तसंघट्टसंभवो भवति, इह च कर्त्तने यदि सूत्रस्य श्वेततातिशयोत्पादनाय शङ्खचूर्णेन हस्तौ न खरण्टयति खरण्टनेऽपि यदि जलेन न प्रक्षालयति तदा कल्पते, लोठनेऽपि यदि हस्ते धृतः कर्पासो न स्यात् कार्पासिकाद्वा यदि उत्तिष्ठती न घट्टयति तदा गृह्यते, विक्षुवत्यां पिञ्जयन्त्यां च यदि पश्चात्कर्म न भवति तदा कल्पतेऽपीति । तथा दलयन्ती घरट्टेन गोधूमादि चूर्णयन्त्यां - हि दलयन्त्यां घरदृक्षिप्तबी| जसंघट्टहस्तधावने जलविराधना वा दलयंत्यपि सचित्तमुद्रादिना दल्यमानेन सह घरट्टं मुक्तवती । अत्रान्तरे च साधुरायातस्ततो यदि | उत्तिष्ठति अचेतनं वा भ्रष्टमुद्गादिकं दलयती तर्हि तद्धस्तात् कल्पते ५. तथा विरोलयन्ती दध्यादि मध्नाति यदि दध्यादि संसक्तं मध्नाति तर्हि तेन संसक्तदध्यादिना लिप्तकरत्वात् भिक्षां ददती तेषां रसजीवानां वधं विदध्यात्, अत्राऽपि चेदं असंसक्तं दध्यादि | मध्नाति तदा कल्पते । तथा भुञ्जाना दात्री भिक्षादानार्थ आचमनं करोत्याचमने च क्रियमाणे उदकं विराध्यते, अथ न करोत्याचमनं तर्हि लोके जुगुप्सा उक्तं च
छक्कायदयावन्तोऽपि संजओ दुल्लहं कुणइ बोहिं । आहारे नीहारे दुगंछिए पिंडगहणे य ॥ १ ॥
तथा आपन वायां भिक्षां ददत्यां न ग्राह्यं यतस्तस्या दानार्थमुवभवन्त्या गर्भबाधा भवेत्, तत्राऽपि स्थविरकल्पिकानां मासाष्टकं यावत् तत्करणे कल्पते वेलामासे न कल्पते । अथ च यथोपविश्यतया वेलामासे दीयते तदा गृह्यते ।
तथा बालवत्सा - बालकं भूमौ मचिकादौ वा यदि स्थाप्य भिक्षां ददाति तर्हि बालकं तं मार्जारसारमेयादयो मांसखण्डं शश
66 এ%% %
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ज्ञान०वि० प्रश्न व्या०
वृत्ति
प्रथम संवरद्वारे एषणा दोषा:
॥३३॥
कशिशुरिवाऽऽकृष्य विनाशयेयुः, तथा आहारखरण्टितौ शुष्को हस्तौ कर्कशौ भवतस्ततो भिक्षा दवा पुनर्दाच्या हस्ताभ्यां गृह्यमाणस्य बालस्य पीडा स्यात् , अथ च यस्या बालको आहारे लगति भूमौ मुक्तः सन् न रोदिति तहिं तस्या हस्तात् कल्पतेऽपीति, स्थविरकल्पि- कानां, तथा आहारं गृह्णन् बालः प्रायः शरीरेण पुष्टो भवति ततस्तं माआरादयः पीडां [न] कुर्वन्ति, ये तु जिनकल्पिका भगवन्तस्ते 3 निरपवादत्वात् श्रुतबलेन गर्भाधानादि ज्ञात्वा मूलत एव आपन्नसत्त्वां सबालवत्सां च सर्वथा परिहरन्तीति । __ तथा षट्कायान्-पृथव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसरूपान् संघट्टयन्ती हस्तपादाभ्यां शरीरावयवेन स्पृशती तानेव षट्कायान् व्यापादयन्ती खभावतो वा संयतं प्रेक्ष्य यदि ददाति तदा तद्धस्तात् ग्रहीतुं न कल्पते ।
तथा सप्रत्यपाया-सम्भाव्यमानविघ्नास्तत्र अपायात्रिधा तद्यथा तिर्यगुलमधश्च, तत्र तिर्यग् गवादिभ्यः, ऊर्ध्व उत्तरंगकाष्ठादेः, अधः सर्पकण्टकादेः, इत्थं त्रिविधानामपायानामन्यतममापायं बुद्ध्या सम्भावयन् न ततो भिक्षां गृह्णीयादिति । अथ षट्कार्य संघट्टयन्त्यां सप्रत्यवायायां नापवादः सर्वथा न कल्पत एव, शेषेषु तु पुनरपवादो दर्शितः। तथा क्षिपती यतीन् दृष्ट्वा साधुदानोद्यता षट्कायान् | भूमौ क्षिपति-भूमौ मुश्चति, तथा साधारणं-बाह्वायत्तं वा स्वयं ददती, चोरिकया गृहीतं वा ददती, तथा परकीयं ददती, पराथै कापेटिकादीनां कल्पितं तदेव ददती, तथा या स्त्री साधुदानोद्यता स्वाभीतः स्थापयती बलीरग्रकूरं, तथा उद्वर्त्तयती नमयती पिठरादिस्खाल्यादि, अत्र च कण्डूयन्तीत्यारभ्य सर्वाणि विशेषणानि स्त्रीमुख्यत्वादुक्तानि, पुरुषेष्वपि भावनीयानीति, अत्राऽपवादोऽपि | तथाविधदौलभ्यद्रव्ये सातिशयज्ञानपूर्वकत्वात् ग्राह्यमपीति, प्रायः दायकदोषाश्चत्वारिंशदुक्ताः एवमन्येऽपि दायकदोषाः स्वयं शास्त्रान्त
ॐॐॐ
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BASAHEGORN
रतश्च परिभाव्य परिहर्त्तव्याः ६ षष्ठः।
उम्मीसत्ति उन्मिथ-सचित्तसंमिश्रं-इह कश्चित् गृहस्थः केवलं वस्तु इदं वतिने वितीर्यमाणमल्पं स्यादिति लजया पृथग्वस्तु| द्वयदाने वेला लगति इत्यौत्सुक्येन मिलितं वस्तुद्वयं मिश्रं भवतीति भक्त्या तथा सचित्तभक्षणभङ्गो भवत्वेतेषां इति प्रत्यनीकतया,
अनाभोगेन वा साधूनां कल्पनीयतया उचितपूरणादिकं अकल्पनीयतया मुनीनामनुचितेन करमन्दकदाडिमकुलिकादिना मिश्रयित्वा | यद् ददाति तन्मिश्रम् । अत्र च कल्पनीयाऽकल्पनीये द्वे अपि वस्तुनी मिश्रयित्वा यद् ददाति तदुन्मिश्रं, संहरणं तु यद्भाजनमदेयं वस्तु तदन्यत्र क्वाऽपि स्थगनिकादौ संहृत्य ददाति तदुन्मिश्रसंहृतयोर्भेदः ७।
अपरिणयत्ति अपरिणतं-अप्रासुकीभूतं तत्-ओघतो द्विधा द्रव्यतो भावतश्च पुनरेकै द्विधा दावृविषयं गृहीविषयं च । तत्र | द्रव्यरूपमपरिणतं यत् पृथिवीकायादिकं खरूपेण सजीवं । यत्पुनर्जीवन विप्रमुक्तं तत्परिणतमिति। तच यदा दातुः सत्तायां वर्तते तदा दातृविषयं, यदा तु गृहीतुः सत्तायां तदा गृहीतविषय, तथा द्वयोर्बहूनां वा साधारणे देयवस्तुनि यद्येकस्य कस्यचिद् ददामीत्येवं | भावः परिणमति न शेषाणामेतद्भावतो दाविषयं अपरिणतं साधारणानिसृष्टं दायकपरोक्षत्वे, दातृभावापरिणतं दायकसमक्षत्वेत्वनयोर्मेदः । तथा द्वयोः साध्वोः संघाटकरूपेण भिक्षार्थ गृहं गतयोरेकस्य साधोरेतल्लभ्यमानमशनादिकं शुद्धमिति मनसि परिणतं तद् द्वितीयस्य गृहीतविषयभावापरिणतं, एतच्च साधूनां न कल्पते शङ्कितत्वात् कलहादिदोषसम्भवाच्च ८॥
१ अत्र उन्मिश्रदोषवर्णने पिण्डनियुक्तिगाथा ५९६ वृतौ वर्णिताभोगानाभोगवर्णनं सङ्कीर्ण जातं प्रतिभाति २पिं०नि०पृ० १६५-१६७ यावत् वर्णनम्
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%
604
शान०वि० प्रश्न०व्या०
वृत्ति
प्रथम संवरद्वारे एषणा दोषाः
॥३४॥
ALSANSAR
'लितत्ति-हस्तपात्रादिलेपचारित्वात् लिप्तं दुग्धदधितेमनादि तत्पुनरुत्सर्गतः साधूनां न ग्राह्यं, रसाभ्यवहारलाम्पल्यवृद्धिप्रसङ्गात् , दध्याधिलिप्तहस्तप्रक्षालनादिरूपपश्चात्कर्माद्यनेकदोषसद्भावाच किन्तु अलेपकृदेव वल्लचनकौदनादिकं, तथाविधशक्यभावे च निरन्तरस्वाध्यायाध्ययनादिकमपि पुष्टकारणमाश्रित्य लेपकृदपि कल्पते । तत्र च लेपकृति ग्राह्यमाणे दातुः सम्बन्धी हस्तः संसृष्टो असंसृष्टो वा भवति, येन च कृत्वा भिक्षा ददाति तदपि मात्रकं करोटिकादिकं संसृष्टं [असंसृष्टं वा द्रव्यमपि देयं सावशेषं निरवशेष वा, एतेषां च त्रयाणां पदानां संसृष्टहस्तसंसृष्टपात्रसावशेषद्रव्यरूपाणां सप्रतिपक्षाणां परस्परसंयोगेनाऽष्टौ भेदा भवन्ति, ते चाऽमी संसृष्ट हस्तः संसृष्टपात्रं सावशेष द्रव्यं १ संसृष्टहस्तः संसृष्टपात्रं निरवशेषं द्रव्यं २। संसृष्टो हस्तो असंसृष्टं पात्रं सावशेषं द्रव्यं ३ | संसृष्टो हस्तो असंसृष्टं पात्रं निरवशेषं द्रव्यं ४ असंसृष्टो हस्तः संसृष्टं पात्रं सावशेषं द्रव्यं ५ असंसृष्टो हस्तः संसृष्टं पात्रं निरवशेष | | द्रव्यं ६ असंसृष्टो हस्तो असंसृष्टं पात्रं सावशेषं द्रव्यं ७ असंसृष्टो हस्तो असंसृष्टं पात्रं निरवशेषं द्रव्यं ८। | एतेषु चाष्टसु भङ्गेषु प्रथमतृतीयपञ्चमसप्तमेषु ग्रहण कर्त्तव्यं न समेषु-द्वितीयचतुर्थषष्ठाष्टमेषु नैव ग्रहणं, इयमत्र भावना-इह च हस्तो पात्रं वा द्वे स्खयोगेन संसृष्टे वा भवेता, असंसृष्टे वा न तद्वशेन पश्चात्कर्म सम्भवति, किं तर्हि ? द्रव्यावशेषेन । तथाहि-यत्र द्रव्यं | सावशेषं तत्र ते साध्वर्थ खरण्टितेऽपि न दात्री प्रक्षालयति, भूयोऽपि परिवेषणसम्भवात् । यत्र तु निरवशेषं द्रव्यं तत्र साधुदानानन्तरं | नियमतस्तद् द्रव्याधारस्थालं हस्तं पात्रं वा प्रक्षालयति ततो द्वितीयादिषु भङ्गेषु द्रव्ये निरवशेषे पश्चात्कर्मसम्भवान कल्पते। प्रथमादिषु पश्चात्कर्म असम्भवात् कल्पते इति ९।
१ पतवर्णनं पि० नि० गाथा ६२६ वृत्तौ
॥३४॥
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मेदाः
SAIBABASEARCA-ASA
उद्गमदोषमूल उत्तर उद्गमदोषमूल उत्तर उत्पादनादोष उत्तर उत्पादनदोष- उत्तर पषणादोष मेदनामानि मेदाः मेदनामानि मेदाः मूलमेदनामानि मेदाः मूलमेदनामानि मेदाः
मूलमेद १ आधाकर्म | ४१० परावत्तितं ६१ धात्रीदोषः | ५/१० लोभ १ १ शङ्कितं
उदम |२ औद्देशिक | १२ ११ अभिहृतं
६२ दूती २११ पूर्वसंस्तवः। ४२ म्रक्षित
सर्वमेदाः ६३
पश्चातसंस्तवः | ३ पूतिकर्म ३ निमित्तम्
उत्पादन
३ निक्षिप्तं १२ उद्भिन्न १२ विद्या
सर्वमेदाः ४० ४ मिश्रदोष ४ आजीविका
४ पिहितं १३ मालापहृतं
१३ मन्त्र
५ संहतं
एषणा
८ ५ स्थापना ५ वनीपकः
सर्वमेदाः १०१ १४ आच्छेद्य
१४ चूर्ण ६ दायक ४०
सर्वाग्रं २०४ ६ प्राभृतिका ६ चिकित्सा
७ उन्मिथित ३ १५ अनिःसृष्टं
१५ योग ७ प्रादुष्करण ७ क्रोध
८ अपरिणत ४ १६ अध्यवपूरकः
| ९ लिप्त ८ ८ क्रीतं
८ मान सर्वमेदाः १६
सर्वमेदाः १६ ६३
| १० छति ४०
। ९ अपमित्यम् | २|
| सर्वमेदाः १०१०१
NAGAGARWALA७
९माया
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प्रथम
4-0
संवरद्वारे एषणा दोषाः
॥३५॥
ज्ञान०वि०
छदितमिति-छद्दितं-उज्झितं त्यक्तमिति पर्यायः तच्च त्रिधा सचित्तं अचित्तं मिश्र, तदपि कदाचित् छाद्यते[छद्यते] सचित्तमध्ये, प्रश्न०व्या०
| कदाचिदचित्तमध्ये, कदाचिन्मिश्रमध्ये, तत उभयत्राऽपि मिश्रस्य सचित्त एवान्तर्भवति । छद्दते सचित्ताचित्तद्रव्ययोराधारभूतयोराधेयवृत्ति | भृतयोश्च संयोगतश्चतुर्भङ्गी तद्यथा सचित्ते सचित्तं १ अचित्ते सचित्तं २ सचित्ते अचित्तं ३ अचित्ते अचित्तं ४ अत्र चायेषु त्रिषु भङ्गेषु र सचित्तसंघट्टादिदोषसंभवात् न कल्पते चरमे पुनः पारिशाटिसद्भावात् न कल्पते परिशाटौ च महान् दोषः तथाहि
उष्णस्य द्रव्यस्य छईने भिक्षां ददमानो दह्यते भूम्याश्रितानां च पृथिव्यादीनां दाहः स्यात् , शीतद्रव्यस्य भूमौ पतने च भूम्याश्रिताः पृथिव्यादयो विराध्यन्ते, भूमिपतिते च मधुबिन्दाहरणं
यथा कश्चिद्धर्मघोषाख्यमत्री गृहीतव्रतो विहरन् वास्तकपुरे जगाम, तत्र वास्तकमत्रिगृहे मिक्षार्थ गतो, दीयमानमधुघृतान्वितपाः | यसादधोमुखमधुबिन्दुपातदर्शनात दोषमन्वेष्य निर्गतः। तच्च गवाक्षस्थो वास्तको विलोक्य कुतो भिक्षा न गृहीता इति यावचिन्तयति तावत्तत्र भृपतितमधुबिन्दुके मक्षिका [तद्] योगाद्गृहकोकिला तद्योगात् सरटस्ततो मार्जारस्तं प्रति प्राघुर्णकः श्वा धावितः तदनुवास्तव्यः श्वास्तयोः कलहे तत्स्वामिनो विरोधादन्योन्यसंग्रामोऽभूत् । ततो वास्तकेन चिन्तितं अहो अनेनैव कारणेन मुनिना भिक्षा न | जगृहे । धन्यः स इति भावयोगात् जातजातिस्मृतिः देवतार्पितसाधूपकरणः स्वयंबुद्धो जात इति संक्षेपार्थः।
उक्तास्तावत् संक्षेपतो द्विचत्वारिंशद् दोषाः सप्रमेदाश्चतुरधिका द्विशती विस्तरार्थिना तु पिण्डनियुक्तिवृत्तितः सोदाहरणा अवग१ पिं० नि० गाथा ६२७ वृत्तौ ॥ २ पिं० नि पृ० १६९ तमे 'छर्दने सचित्ताचित्तमिश्रद्रव्याणामाधारभूतानामाघेयभूतानां च ल ३ पतदुदाहरणं पिं० नि० ६२८ गाथा वृत्तौ वर्त्तते ॥ ४ पि०नि० पृष्ठ ३४-१६९ यावत् सर्व पिण्डदोषवर्णनम्
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%
॥३५॥
A5
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ORMA-
न्तव्या अत्र तु सुखावबोधार्थ लेशमात्रतो व्याख्याताः।
अर्थतेषामविशोधिविशोधिकोटिविवेचनार्थमाह-सर्वा अपि पिण्डैषणा नवसु कोटिसु विभागे अवतरन्ति ता एवाऽऽह न स्वयं हन्ति, न स्वयं क्रीणाति न च पचतीति त्रयं, एवं का राप]णानुमतिभ्यामपि यथा नाऽन्येन घातयति न क्रीणापयति न पाचयति तथा नाऽपरेण हन्यमानं क्रीयमाणं पच्यमानमनुमोदते मीलिताश्चैता नवकोटयः एभिनवभिः पदैः पिण्डविशुद्धिः सर्वाऽपि संगृह्यते | इति भावार्थः । इह पूर्व षोडशविध उद्गमदोष उक्तः स च सामान्यतो द्विधा भवति तद्यथा-विशोधिकोटिरूपः अविशोधिकोटिरूपश्च,
तत्र यद् दोषदुष्टे भक्ते तावन्मात्रेऽपनीते सति शेषं कल्पते स दोपो विशोधिकोटिः शेषस्त्वविशोधिकोटिः। तत्र ये दोषा अविशो. | धिकोटिरूपा ये च विशोधिकोटिरूपास्तानाह
तंत्र आधाकर्म सप्रमेदं, उद्देशिकस्य विभागौदेशिकस्य चरमत्रिकं कर्मभेदसक्तमन्त्यमेव भेदत्रयं, पुतिर्भक्तपानरूपा, मीसत्ति मिश्रजातं पाखण्डिगृहमिश्र साधुगृहमिश्र, चरमा अन्त्या बादरा इत्यर्थः[A] प्राभृतिका, अध्यवपूरस्य स्वगृहपाखण्डिमिश्रं स्वगृहसाधुमिश्ररूपमन्त्यद्वयं एते उद्गमदोषा अविशोधिकोट्यः । अस्यां चाविशोधिकोट्यावयवेन शुष्कसिक्थादिना तथा भक्तादिना लेपेन वल्लकचणकादिना अलेपेन संस्पृष्टं यदशुद्धभक्तं तस्मिन् उज्झितेऽपि यत् अकृतकल्पत्रये पात्रे शुद्धमपि भक्तं पश्चात् परिगृह्यते तत्पूतितरमवगन्तव्यं । शेषा ओघौद्देशिकं नवविधमपि च विभागौदेशिकमुपकरणपूतिर्मिश्रस्यायो भेदः। स्थापना सूक्ष्मप्राभृतिका प्रादुष्करणं
१ पिण्डनियुक्ति पृष्ठ ११६ तो पृष्ठ ११९ यावत् कोटिवर्णनं २ पिण्डनियुक्ति पृष्ठ ११६ तमे ३९३-३९४-३९५ गाथावृत्तौ सविशेषवर्णनं
KARAN
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वृत्ति
ववगयचुयचावियचत्तदेहं च फासुयं च न निसज्जकहापओयणक्खासुओवणीयंति न तिगिच्छामंतमूलभेसाल शान वि०
। प्रथम प्रश्न०व्या० क्रीतं प्रामित्यकं परिवर्तनं अभ्याहृतं उद्भिद्यं मालापहृतं आच्छेद्यमनिसृष्टः मध्यवपूरकस्याद्योभेदश्चेत्येवंरूपा विशोधिकोटिः । विशुख्य- वारे ति शेषं शुद्धभक्तं यस्मिन् उद्धृत्ते यद्वा विशुद्ध्यति पात्रमकृतकल्पत्रयमपि यस्मिन्नुझिते सा विशोधिकोटिः उक्तं च
विशोधि 'उद्देसियंमि नवगं उवगरणे जं च पूइयं होइ । जावंति य मीसगयं, अज्झोयरए य पढमपदं॥१॥
अविशोधि ॥३६॥ परियट्टिए अभिहडे, उन्भिन्ने मालो हडे इय । अच्छिज्जे अणिसिढे पाउयर कीयपामिचे॥२॥
कोटिसुहमा पाहुडिया विय, वियग[हविय]पिंडो य जो भवे दुविहो । सम्बोवि एस रासी, विसोही कोडी मुणेयव्वा ॥
स्वरुपम् | इह च भिक्षामटता पूर्व पात्रे शुद्धभक्तं गृहीतं, ततस्तत्रैवाऽनाभोगादिकारणवशात् विशोधिकोटिदोषदुष्टगृहीतं कथमपि ज्ञातं, तथैतo द्विशोधिकोटिदोषदुष्टं मया गृहीतं, ततो यदि तेन विनाऽपि निर्वहति तहिं सकलमपि तद्विधिना परिष्ठापयति । अथ न निर्वहति ततो
यदेव विशोधिकोटिदोषदुष्टं तदेव तावन्मानं परिज्ञाय परित्यजति । यदि पुनरलक्षितेन सदृग्वर्णगंधादितया पृथग् परिज्ञातुमशक्येन ४ मिश्रं भवति, यथा द्रवेण तक्रादिना तदा सर्वस्यापि तस्य विवेकः, कृते च सर्वात्मना विवेके यद्यपि केचित् सूक्ष्मावयवा लगिता भवन्ति तथापि पात्रे अकृतकल्पेऽपि अन्यत् परिगृह्णन् शुद्धसाधुरेषणीयभोजीति त्यक्त]भक्तादेविंशोधिकोटित्वादिति अलं प्रसङ्गेन, एवमन्यमनुवक्ताऽपि शय्यातरपिण्डराजपिण्ड-अग्रपिण्ड कान्तार-दुर्भिक्ष-भक्तायनेकदोषाः शास्त्रान्तरादवसेयाः। अथ सूत्रप्रस्तुतं लिखामः। ॥३६॥
व्यपगताः पृथग्भूताः देयवस्तुसंभवा आगन्तुका वा कुम्यादयः च्युताः मृताः परतो वा देयवस्तु-आश्रिताः पृथिवीकायिपिण्डनियुक्ति पृष्ठ ११७ तमे ३९५ गाथावृत्तौ तिम्रो गाथाः
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SUPESHWINNEKHAS
ज्जकज्जलं, न लकरमणुप्पायसुमिणोइसनिमित्तकहकप्पउत्तं, नवि डंभणाए, नवि रक्षणाते, नवि सासणाते, नवि दंभणरक्खणसासणाते भिक्खं गवेसिपब्ब, नवि वंदणाते, नवि माणणाले, नवि पूपणाते, नवि बंदणमाणकादयो वा। चायत्ति [चावियत्ति] त्याजिता वा देयद्रव्यात् पृथरकारिता दायन चत्तत्ति स्वयमेव वा पृथग्भूता देहा यस्मात् उम्छाद | तत्तथा। प्राशुकश्च प्रगतप्राणिकः व्यपगतचेतनापर्यायः तादृशं शुद्धं सदपि कथं लब्धं तदाऽऽह-न-निषेधे निषध-गोचरगत आसने उपविश्य कथाप्रयोजनं-धर्मकथाव्यापारः तस्य यत् करणं तदकरणेन यत् प्राप्तं तत्र शुद्धं
न-नैव चिकित्सा-रोमप्रतीकारः मत्रश्च-चेटिकादिदेवाधिष्ठिताक्षरानुपूर्वी मूलं-वृक्षवल्लथादीनां भेषजं च-द्रव्यसंयोगरूपं हेतु:कारणं लाभापेक्षया यस्य गोचरगतस्य तत्तथा । न-निषेधे स्त्रीपुरुषादीनां लक्षणं-स्त्रीपुरुषवेण्यादीनां लक्षणं, उत्पाता:-प्रकृतिविकाराः, सुमिणंति निद्राविकारः, ज्योतिष-नक्षत्रं चन्द्रयोगादि निमित्त-चूडामणिशास्त्रादिना अतितादिभावसंपादनं, कथा-कामशास्त्रार्थादिका, कुहक-परेषां विस्मयोत्पादप्रयोगः एभिः आक्षिप्तचेतोदायकेन व्यापारितं तं भैक्षं न शुद्धं । तथा नाऽपि दम्भेन-मायामयोगेन, नाऽपि रक्षणया दायकस्य वस्तुनः, नाऽपि शासनया-शिक्षणया पुत्रवत्सकगृहादीनामिति गम्यं, नाऽपि उक्तत्रयसमुदायेनेत्याहदम्भ-रक्षण--शासनादितो, नैव भक्ष्यं-भिक्षासमुहो वा गवेषयितव्यं अन्वेषणीयं । किंच पुनः नैव वन्दनया-स्तवनेन सो एसो जस्स गुणा वियरंति आयरिया दस-दिसासु इहरा कहासु सुणिमो पञ्चवं अज्ज दिहोऽसि ॥१॥
१पषः स प्रत्यक्षः यस्य गुणा आचरिता दस दिशासु अन्यथा कथासु श्रूयते अद्य प्रत्यक्षं दृष्टोऽसि ॥१॥ तथा पिंडनियुक्तिगत | ४९१ तमो श्लोकः पतत्सरश पव
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ज्ञान वि० प्रश्न०व्या०
प्रथम संवरद्वारे अहिंसायाः कारकाः
वृत्ति
॥३७॥
RECRUARHAGAIGARH
णपूयणाते भिक्खं गवेसियव्वं, नवि हीलणाते नवि निंदणाते नवि गरहणाते नवि हीलणनिंदणगरहणाते भिक्खं गवेसियव्वं,नवि मेसणाते नवि तज्जणाते नवि तालणाते नवि भेसणतजणतालनाते भिक्खं गवेसियव्वं, नवि गारवेणं नवि कुहणयाते नपि वणीमयाते नवि गारवकुहणवणीमयाए भिक्खं गवेसियव्वं, नवि मित्तयाए
-नापि माननया-आसनादिदानेन प्रतिपत्त्या वा, नापि पूजनया-तीर्थमाल्यदानमस्तकगन्धक्षेपमुखवत्रिकाऽक्षमालिकादानादिलक्षणया, नाऽपि उक्तत्रयलक्षणया वन्दन-मानन-पूजनहेतुभूतया, भैक्ष्यं नैव गवेषयितव्यं । नाऽपि हीलनया जात्युद्घाटनतः, नापि निन्दनया दायकदोषोद्घाटनेन वा, नापि गर्हणया-लोकसमक्षं दायकनिन्दया, न-निषेधे उक्तत्रयलक्षणया हीलणनिंदणगरहणया मैक्ष्यं नैव गवेषयितव्यं । नापि-नैव भेषणया-दायकस्य अनर्पयतो भयोत्पादनेन, नाऽपि तर्जनया-ज्ञास्यसि रे दुष्ट इत्यादि रूपया, नाऽपि ताडनया चपेटादिदानतः, नैव-निषेधे उक्तत्रयरूपेण मेषणतर्जनतालनारूपेण हेतुना भैक्ष्य-आहारादि न गवेषयि. | तव्यं । नापि गौरवेण-गर्वेण राजपूजितोऽहं इत्याद्यभिमानेन, नापि कुधनतया-दारिद्रयभावेन इत्यादि प्राकृतत्वेन अथवा कुहनं | दम्भचर्या तया अन्तः क्रोधोद्भूतमुखमिष्टत्वेन वा, वनीपकवृत्या वा अस्माकं सर्व याच्यमानमेव भवतीति याचनापरेण, न-नैव | उक्तत्रयरीत्या गारव-फुहण-वणीमगरूपेण हेतुना भैक्ष्य पिण्डं न गवेषयितव्यं । नैव मित्रभावमुपगतस्य दायकं पति तेन हेतुना, नाऽपि प्रार्थनया-याचनया किन्तु साधुवेषदर्शनेनैव दायकस्य हर्षोत्पत्तिः पडिरूवेण सेवित्ता मियं कालेण भक्खए त्ति इति वचनात् । नाऽपि सेवनया स्वामिभृत्यवत् , नाऽपि युगपत् उक्तत्रयमीलकेनेत्याह भैक्ष्यं गवेषयितव्यं यद्वा एभिर्हेतुमिव ।
१ प्रतिरूपेण सेवित्वा मितं कालेन भक्षयेत्
॥३७॥
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REFE
नवि पत्थणाए नवि सेवणाए नवि मित्तपत्थणसेवणाते भिक्खं गवेसियव्वं, अन्नाए, अगढिए, अदुढे, अदीणे,
अविमणे, अकलुणे, अविसाती, अपरितंतजोगी, जयणघडणकरणचरियविणयगुणजोगसंपउत्ते, भिक्खू भिक्खे. | सणाते निरते। इमं च णं सव्वजगजीवरक्खणदयहाते पावयणं भगवया सुकहियं अत्तहियं पेचाभावियं आगमेसि
भई सुद्धं नेयाउयं अकुडिलं अणुत्तरं सव्वदुखपावाण विउसमणं (सू०२२)। तस्स इमा पंच भावणातो पढमस्स | । तदा किं पुनः कया रीत्या गवेषणा कार्या इत्याह । अज्ञातः-स्वयं स्वजनादिसम्बन्धाकथनेन गृहस्थैरपरिज्ञातस्वजनादिभावस्तेन, तथा अग्रथितः-ज्ञातेऽपि सम्बन्धे आहारादिषु अप्रतिबद्धः, अद्विष्टः-आहारेषु दायकेषु वा अदुष्ट, अदीन:-अक्षुभितः, अविमनान विकृतमानसः अलाभादिदोषात् , अकरुणो-न दयास्थानं न्यग्वृत्तित्वात् , अविषादी-अविषादवचनोऽदीन इत्यर्थः, अपरितान्ताःअश्रान्ताः योगा:-मनःप्रभृतयो यस्य सः अपरितान्तयोगी सदनुष्ठानेषु अत एव यतनं-प्राप्तेषु संयमयोगेषु अथवा यतनं उद्यमः घटनं च-अप्राप्ते घटसंप्राप्ते संयमे करणं-विधिः योजनं, चरितः सेवितः विनयो येन स चरितविनयः, गुणयोगात् क्षमादिगुणैः संप्रयुक्तः। तथा पदत्रस्य कर्मधारयः । एतादृशो भिक्षुः भिक्षषणायां निरतो भवेदिति सम्बन्धः । इमं चत्ति इदं पुनः पूर्वोक्तगुणभैक्ष्यादिप्रतिपादनपरं इति योगः,सर्वजगजीवरक्षणरूपा या दया तदर्थ प्रावचनं शासनं भगवता श्रीमहावीरेण पूज्योत्तमेन सुष्टुः-शोभनत्वेन कथितंन्यायाऽबाधितत्वेन, आत्मनां-जीवानां हितं हितकरणत्वात् , प्रेत्य-जन्मान्तरे भवति-शुद्धफलतया परिणमति इत्येवं शीलं प्रेत्यभाविकं, आगामिकाले भद्रं-कल्याणं यतस्तदाऽऽगमिष्यत् भद्रं । शुद्ध-निर्दोष, नेयाउयं ति नैयायिक-न्यायवृत्ति, अकुटिलं-मोक्षं प्रति ऋजु, अनुत्तरं-प्रधानत्वात् , सर्वेषां दुःखानामसुखानां पापानां च तत्कारणानां व्यपगममुपशमकारकं यत्तत्तथा । अथ यहुक्तं 'तीसे
RECTORRRRRER
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+
ज्ञान०वि० प्रश्न०व्या
4
प्रथम संवरद्वारे भावना
वृत्ति
FAC-
॥३८॥
%94
वयस्स होति, पाणातिवायबेरमणपरिरक्षणढयाए पढम ठाणगमणगुणजोगजुंजणगंतरमिवातियाए दिहिए ईरियव्वं, कीडपयंगतसथावरदयावरेण निच्चं पुप्फफलतयपवालकंदमूलदगमट्टियबीजहरियपरिवज्जिएण संमं, एवं खलु सव्वपाणा न हीलियम्बा, म निंदियव्वा, न गरहियव्वा, न हिंसियव्वा, न छिदियव्या, न भिदियव्वा, |न वहेयव्वा, न भयं दुक्खं च किंचि लन्भा पावेउं एवं ईरियासमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा अस. भावणाए उ किश्चि वोच्छं गुणद्देसं ति तत्र काः भावना अस्यां जिज्ञासायामाह
तस्य प्रथमव्रतस्य इमा वक्ष्यमाणाः प्रत्यक्षाः पश्च भावना भाष्यन्ते-प्रथमव्रतस्य भवन्ति, प्राणा-जीवास्तेषां अतिपातो नाशस्तस्य विरमणलक्षणस्वरूपं तस्य परिरक्षणार्थ प्रथमभावनाऽवस्थितिः कोपयुज्यते तदाऽऽह-स्थान-निषीदनं गमनं-चलनं तयोर्गुणयोगं प्रव| चनोपघातवर्जनलक्षणो गुणस्तस्य योगः-सम्बन्धस्तं योजयति-करोति या सा, युगं धूसरं युगान्तरे-युगप्रमाणभूभागे निपतति या सा युगान्तरनिपातिका ततः कर्मधारयः ततस्तया दृष्टया-चक्षुषा ईरितव्यं गन्तव्यं, केनेत्याह-कीटा:-क्षुद्रजन्तवः ईलिकाधाः पतङ्गाः-शलभाः त्रसस्थावरास्तेषु दयापरेण, नित्यं-सदा पुष्पफलत्वक् प्रवाल:-पल्लवाङ्करः कन्दमूलं दकं-जलं मृत्तिका बीजहरितप्रमुस्वपरिवर्जनेनेति सम्यक् शोभनत्वेन अथ इर्यासमित्या प्रवर्त्तमानस्य यत् स्यात्तदाऽऽह
एवममुना प्रकारेण खलु-निश्चितं सर्वप्राणा:-सर्वजीवाः न हीलयितव्या:-अवज्ञातव्याः, न निन्दितव्या न गर्हितव्याः गर्दा च &ा परसमक्षं, तथा हिंसितव्याः-पादक्रमणेन, एवं न छेदितव्याः द्विधाकरणेन, न मेत्तव्याः-स्फोटनेन अण्डादीनां, न व्यथितव्याः | परितापनादिना पीडोत्पादनेन वा, न-निषेधे भयं-भीतिः दुःखं च-शरीरादि किश्चित् अल्पं अपि लभ्याः-योग्याः प्रापयितुं ये इति
*- 1
%
A
5
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ICAAAAAAAA%ARGONESS
वलमसंकिलिनिव्वणचरित्तभावणाए अहिंसओ सुसंजओ सुसाहू, वितीयं च मणेण पावएणं पावकं अहम्मियं | वारुणं निस्संसं वहबंधपरिकिलेसबहुलं मरणभयपरिकिलेससंकिलिटुं न कयावि मणेण पावतेणं पावगं किंचि| वि झायव्वं । एवं मणसमितिजोगेण भावितो ण भवति अंतरप्पा असवलमसंकिलिट्ठनिव्वणचरित्तभावणाए
अहिंसओ संजओ सुसाहू, ततियं च वतीते निपातो वावयालङ्कारे एवं ये प्राणिनः । इर्यासमितिव्यापारेण भावितो-वासितो भवति अन्तरात्मा-जीवः किंविध इत्याह ? अशवलेन
चारित्रमालिन्यरहितेन हस्तकर्मरात्रिभोजनादिलक्षणैकविंशतिमितैन असंक्लिष्टेन-विशुद्ध्यमानमनःपरिणामवता निव्रणेन अक्षतेन| अखण्डितेन चारित्रेण-सामायिकादिना भावना-वासना यस्य सः अशबल-असंक्लिष्टनिव्रणचारित्रभावना अथवा अशबल-असंक्ति ष्टादिहेतुभूतया भावनया अहिंसकः, सुसंयतो-मृषावादाद्युपरतिमान् सुसाधुर्मोक्षसाधक इति एषा प्रथमा भावना । | द्वितीया पुनर्भावना मनसा पापं न ध्यातव्यं एतदेवाऽऽह-मनसा पापकेन पापकमिति ततश्च पापकेन-दुष्टेन सता मनसा पाप| केन पापकमिति न ध्यातव्यं इति सम्बन्धः । पुनः किंभूतं पापमित्याह-अधार्मिकाणामिदमाधार्मिकं तत् दारुणं निःशंसं निःशूक| दयावर्जितं ! वधवन्धन--हननेन यमनेन परिक्लेशेन-परितापनेन च तैर्बहुलं-व्याप्तं । मरणभयपरिक्लेशसंक्लिष्टप्रचुर-न कदापि कस्मिन्नपि समये पापकेन-मनसा-पाप-प्राणातिपातात्मकं किञ्चिदपि अल्पमपि न ध्यातव्यं एकाग्रतया न चिन्तनीयं । एवमनेन प्रकारेण मनः समितियोगेन-चित्तसत्प्रवृत्तिलक्षणव्यापारेण भावितो भवति अन्तरात्मा-जीवः कीदृशः १ सन् इत्याह असबल-असंक्लिष्ट निव्रणचारित्रभावनया हेतुभूतया अहिंसको-दयावान् सुसंयतो-गुप्तेन्द्रियव्यापारः सुसाधु-अंतरुपशमवर्ती इति द्वितीया ।
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शान०वि० प्रश्न०व्या०
प्रथम संवरद्वारे भावना
॥३९॥
DIGENOUGUA-05-
A
पावियाते पावकं [अहम्मियं दारुणं निसंसं वहबंधपरिकिलेसबहुलं जरमरणपरिकिलेससंकिलिटुं न कयावि तीए पावियाते पावकं]न किंचिवि भासियब्वं एवं वयसमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा असबल| मसंकिलिट्ठनिव्वणचरित्तभावणाए अहिंसओ संजओ सुसाहू, चउत्थं आहारएसणाए सुद्धं उञ्छ गवेसियवं अन्नाए अकहिए, अदीणे, अकलुणे, अविसादी, अपरितंतजोगी, जयणघडणकरणचरियविणियगुणजोगसंपओगजुत्तो, भिक्खू, भिक्खेसणाते जुत्ते, समुदाणेऊण भिक्खाचरियं उंछं घेत्तूण आगतो गुरुजणस्स पासं ___अथ तृतीया पुनर्भावना च सुवचनसमितः यत्र वाचा पापं न भणितव्यमिति आह-वतीते पावियाते पूर्ववत् काकुभाषया अध्येयं, पापात्मिकया पापकं, नवरं आधार्मिकं दारुणं निःशूकं-निर्दयं वधबन्धनपरिक्लेशप्रचुरं, जरामरणपरिक्लेशसंक्लिष्टं, न कदापि पापिकया, वाचा पापात्मक-प्राणिघातात्मकं, न कदापि भाषितव्यं, एवममुना प्रकारेण वचनसमितियोगयुतो भावितो भवति अन्तरात्मा-जीवः असबल-असंक्लिष्ट-निव्रणचारित्रभावनया कृत्वा अहिंसकः संयतः सुसाधुरिति तृतीया।
चतुर्थभावना-या आहारं अशनादि चतुर्धा [तेषां] एषणा पूर्वोक्ता तया शुद्धं, उञ्छ-गृहसमुदायगतं गवेषयितव्यं इदमेव भावयितुमाह-अज्ञातो-अनवगतो दायकजनैरयं श्रीमान् प्रवजितोऽस्ति इति न ज्ञातः, अकथितः स्वयमेव यथाहं श्रीमान् पूर्वमभूवं इति, अप्राप्तौ अदीनः अथवा दीनोऽहं पूर्वमिति, अकलुषः-आशयशुद्धः, कुत्रचित् 'अगढिए अदुडे' इत्यपि पाठः तत्र अगृद्धिकः अद्विष्टः दायकादायकोपरि समचित्तः, अविषादवान् , अपरितान्तयोगी-अश्रान्तत्रिकरणयोगः । यतनं-घटनं निष्पादनं करणं चरणं मूल
१ मुद्रितप्रतौ न । २ अगढिते भदुढे पाठान्तरं
MERIC-OF%ArrarIEGARH
॥३९॥
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6
-
SINGAAMKARAN
गमणागमणातिचारे पडिक्कमेपडिकते, आलोयणदायणं च दाऊण गुरुजणस्स गुरुसंदिट्ठस्स वा जहोवएसं निरइयारं च अप्पमत्तो, पुणरवि असणाते पयतो, पडिक्कमित्ता पसंते आसीणमुहनिसन्ने मुहुत्तमेत्तं च झाणसुहजोगनाणसज्झायगोवियमाणे, धम्ममणे, अविमणे, सुहमणे, अविग्गहमणे, समाहियमणे, सद्धासंवेगनिजरमणे, पवतणवच्छलभावियमणे उढेऊण य पहतुढे जहारायणियं निमंतइत्ता य साहवे भावओ य विइण्णे य गुणोत्तरगुणरूपं तेन चरितः सेवितः विनययोगयुक्तः सम्यग् प्रयोगे व्यापारः संयमलक्षणस्तेन युक्तः। भिक्षुः-साधुः भैक्ष्यषणाया योग| युक्तः, सामुदायिक अटित्वा भिक्षाचर्या गोचरं उंछमिव उंछनं अल्पाल्पगृहीतभैक्ष्यं गृहीत्वा आगतः गुरुजनस्य पाच-समीपं गमना
गमनाऽतिचाराणां प्रतिक्रमणेन इर्यापथिकीदंडकेन प्रतिक्रान्तो निवर्तितपापः। आलोचनं-अयथा गृहीतभक्तपाननिवेदनं तयोरुपदर्शनं |च कृत्वा गुरुजनस्य-गुरुसंदिष्टस्य वा वृषभस्य यथोपदेश-उपदेशाऽनतिक्रमेण निरतिचार-दोषवर्जनेन अप्रमत्तः, पुनरपि अनेषणाया। अपरिज्ञाताऽनालोचितदोषरूपायाः प्रयत:-प्रयत्नवान् इति प्रतिक्रम्य च कायोत्सर्गकरणानन्तरं कीदृशः१ प्रशान्तः-अनुत्सुकः, आसीनः-उपविष्टः सुखनिषण्णः अनाबाधितवृत्त्या पदत्रयस्य कर्मधारयः। ततो मुहूर्तमानं च कालं ध्यानेन धर्मादिना शुभयोगेन-संयमव्या| पारेण गुरुविनयकरणादिना ज्ञानेन-ग्रन्थानुप्रेक्षणरूपेण स्वाध्यायेन-अधीतगुणनरूपेण वा गोपितं-विषयान्तरगमनेन निरुद्धं मनो येन
स तथा। अतएव धर्मे-श्रुतचारित्ररूपे मनो यस्य स तथा श्रुतमना इत्यर्थः। तथा अविमनाः-अशून्यचित्तः, शुभमनाः-असंक्लिहै टचेताः, अविग्रहमनाः-अकलहचेताः अव्युद्ग्रहमना वा-अविद्यमान-असदभिनिवेश इत्यर्थः। सम-तुल्यं रागद्वेषानाऽऽकलितं आहितं| उपनीतं आत्मनि मनो येन स समाहितमनाः अथवा शमेन-उपशमेन च अधिकं मनो यस्य स समाधिकमनाः वा शमे-उपशमे
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CALOR
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ज्ञान०वि० प्रश्न० व्या०
वृति
॥४०॥
गुरुजणेणं उपविट्ठे संपमज्जिऊण ससीसं कार्य तहा करतलं अमुच्छिते, अगिद्धे, अगढिए, अगरहिते, अणज्झोववण्णे, अलुद्धे, अणुतट्ठिते, असुरसरं अचवचवं अदुतमविलंबियं अपरिसार्डि आलोयभायणे जयं स्थापितं मनो येन गुरुणा दत्ते अदत्ते संप्रदायादीनां अस्था[ता]पितमना इत्यर्थः । अथ श्रद्धा-तत्त्वार्थश्रद्धानं संयम - योगविषयो वाऽभिलाषः, संवेगश्च - मोक्षमार्गाभिलाषः संसारभयं वा निर्जरा-कर्मक्षपणं मनसि यस्य स श्रद्धासंवेग निर्जरमनाः । प्रवचनवात्सल्यभावितमना वा, उत्थाय च प्रहृष्टतुष्टोऽतिशयप्रमुदितः यथा रत्नाधिकं यथाज्येष्ठं निमन्त्र्य - आहूय आमन्त्र्य साधवे साधून् साधर्मिकान्-श्रद्धाप्रवचन लिङ्गादिभिः समानान्-धर्माचारान् भावतश्च भक्तस्तद्गुणानुमोदी वितीर्णे दत्ते च गुरुजनेन भुंक्ष्व त्वमिदमशनादीन् अनुज्ञाते च सति [भक्तादौ], गुरुणा उपविष्टे दत्तासने सौम्य अत्र तिष्ठ इत्यनुज्ञया उपविष्टः संप्रमृज्य च प्रतिलेख्य मुखवखिकारजोहरणादिना वा सशीर्ष - समस्तकं सकायं - सनखकरतलं च अमूच्छितः - आहारविषये मूढिमानं न गतः, अगृद्धः - अप्राप्तेषु रसेषु अनाकांक्षावान्, अग्रथितः - रसानुगतरसैः, अगर्हितः - आहारविषये अकृतगर्हः, अनभ्युपपन्नो-न रसेषु एकाग्रमनाः, अलुब्धो - लोभरहितः नोदरपिशाच इत्यर्थः, न आत्माशरीररूपस्तस्य अर्थो यस्येत्यनात्मिकार्थः परमार्थकारीत्यर्थः । कया रीत्या ? आहारमाहारयति तदाऽऽह असुरसरं एवंभूतं शब्दरहितं । अचचचबेति शब्दरहितं । अहृतं - अनुत्सकं अविलम्बितं-न अतिमन्दं अपरिशाटं परिशाटि दोषवर्जितं अपरिशाटि भुंजिजा इति, अग्रेतनपदेन सह क्रियायोगः । आलोकमुखे भाजने पृथुलमुखे अथवा आलोके प्रकाशे नाऽन्धकारे, पिपीलीकावालादीनामनुपलम्भात्, तथा भाजने पात्रे, पात्रं विना जलादिसंपतितसच्चादर्शनात्, यतं मनोवाक्कायसंयमत्वात् प्रयत्नेनादरेण
१ सरस राग नहीं इति भाषा २ बचबाट नहीं भाषा
प्रथम
संवरद्वारे
भावनाः
॥४०॥
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| पयत्तेण ववगयसंजोगमणिगालं च विगयघूमं
पुनः कीदृशं ? व्यपगत संयोजनादो परहितं, अर्निंगालं विगतरागं, विगतधूमं - द्वेषरहितं यदुक्तं रागेण सइंगालं दोसेन सधूमगं वियाणाहिति वचनात् ।
अथ किञ्चित् संयोजनादि पञ्चग्रासैषणा दोषानाऽऽह - तत्र प्रथमं संयोजना पश्चकापेक्षया संयोजनं संयोजना उत्कर्षोत्पादनं - द्रव्यस्य द्रव्यान्तरेण मीलनं सा द्विधा उपकरणविषया भक्तपानविषया च, एकैकाऽपि द्विविधा बाह्याभ्यन्तरभेदभिन्ना । तत्र उपकरणविषया बाह्यसंयोजना यथा कश्चित् साधुः कुत्राऽपि गृहे भव्यं चोलपट्टादिकं प्राप्य पुनर्विभूषार्थ तदुचितं पट्टीप्रभृतिकं मार्गयित्वा वसतेर्बहिरेव प्राषृणोमीति । अभ्यन्तरा तु वसतौ निर्मलचोलपट्टादिकं परिधाय विभूषानिमित्तं तदनुरूपामेव निर्मलां नर्मादिपट्टीं परिदधाति । तथा मिक्षार्थ हिण्डमानः सन् क्षीरादिकं तथा अनुकूलद्रव्यैः खंडादिभिस्सह रसगृध्रया विशेषरसोत्पादनाय बहिरेव संयोजयति एषा बाह्यभक्तपानविषया संयोजना | अभ्यन्तरा पुनर्यद्वसतावागत्य भोजनवेलायां संयोजयति । सा च त्रिधा, पात्रकषिषया कवलकविषया मुख| विषया च, तत्र भोजनसमये यत् पायसादिकं खण्डादिना यद्रोचते तद्रसगृद्ध्या तेनैव सह एकस्मिन् पात्रे संयोजयति सा प्रथमा, यदा तु हस्तगतमेव कवलतया सुकुमारिकादि खण्डादि सह संयोजयति सा द्वितीया । यदा पुनर्मण्डकादिकं मुखे प्रक्षिप्य पश्चात् गुडादिकं प्रक्षिपति तदा तृतीया । अपवादश्चात्र एकैकं साधुसंघाटकं प्रति प्रचुरघृतादिप्राप्तौ सत्यां भोजनाऽनन्तरं यदि कथमपि यदुद्धरितं भवति तद् उद्धरित घृतादिनिर्गमनार्थं खण्डादिभिरपि संयोजना भवति तत् न दोषाय । उद्धरितं हि घृतादि न खण्डादिकमन्तरेण मण्डकादि
१ पिंडनियुक्ति ६५९ । २५० नि० पृ० १७२
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GRA
४ा प्रथम
वृत्ति
संवरद्वारे ४ ग्रासैषणा| दोषाः
वादभिरपि सह भोक्तुं न शक्यते प्रायस्तृप्तत्वात् तच्च न परिष्ठापनं युक्तं,घृतादिपरिष्ठापने स्निग्धत्वात् पश्चादपि पिपीलिकादिप्रणाशसंभवाद, HOP तथा ग्लानस्य भव्यभवनार्थ वा यद्वा भक्तारोचकिनः प्रधानाहारलालितस्य सुखोचितस्य राजपुत्रादेर्वा साधूचितेन संयोगरहित18// माहारेणाऽऽद्यापि सम्यग्भावितस्य मोक्षस्य वा निमित्तं रसगृझ्यापि संयोजना कल्पत एवेति । इदानीं प्रमाणमाह
___ कुर्कुट्यण्डप्रमाणमात्रा कवला द्वात्रिंशत् तत्र कुर्कुटी द्विधा द्रव्यकुर्कुटी भावकुर्कुटी च, तत्र साधोः शरीरमेव कुर्कुटी तन्मुखं अण्डकं ॥४ ॥ || तत्राक्षिकपोलौष्ठवां विकृतमनापाद्य यः कवलो मुखे प्रविशति तत्प्रमाणं कवलस्य । अथवा कुर्कुटी पक्षी तस्या अण्डकं तस्य प्रमाणं
5|| कवलस्य तथा यावन्मात्रेण कवलेन भुक्तेन न न्यूनता नाप्यत्याध्मातमुदरं भवति धृतिश्च विशिष्टा संपद्यते ज्ञानदर्शनचारित्राणां ४च वृद्धिरुपजायते तावत्प्रमाणो आहारो भावकुकुटी तस्य द्वात्रिंशत्तमो भागः अण्डकं तत्प्रमाणं कवलस्य, ततो द्वात्रिंशत्कवलाः पुरुष४|| स्य स्त्रियास्तु अष्टाविंशतिः क्लीवस्य चतुर्विंशतिः । उक्तं च तंदुलवेयालिके४ा बत्तीस कवला पुरुसस्स आहारो इत्थीयाए अट्ठावीसं चतुविसं पंडयस्स ति। अधिकाहारस्तु अजीर्यमाणः सन् व्याधये वमनाय मृत्यवे च भवति । यदुक्तं
अइबहुयं अइबहुसो, अइप्पमाणेण भोयणं भूतं । हाहेज व वमिज्ज व मारिज व तं अजीरंतं ॥१॥ इदानीमङ्गारदोषमाह-रागेण अन्नस्य वा तद्दातुः प्रशंसारूपेणाऽऽस्वादयन प्रासुकमप्याहारं कुर्वाणः स्वचारित्रं सागारं चरणेधनस्य अङ्गारभवनत्वात् . अत्र भावार्थस्तु इह द्विधा अंगारः द्रव्यतः भावतश्च, तत्र द्रव्यतः कृशानुदग्धाः खादिरादिवनस्पतिविशेषाः भावतो
१ पिं० नि० पृ० १७३ २ पिण्डनियुक्ति गाथा. ६४६
SADOR-5-%ECROERA
YOGACASSAGAR
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॥४१॥
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96-MORNAMASTERRANGE
रागामिना निर्दग्धं चरणेन्धनं, तथा यथा दग्धेन्धनं धूमे गते सति अङ्गार इत्युच्यते, एवमिहाऽपि चरणेन्धनं रागाग्निना निर्दग्धं सव | अङ्गार इत्युच्यते, ततश्च भोजनगतविशिष्टगन्धरसास्वादवशेन संजाततद्विषयमूर्छस्य सतः अहो मृष्टं अहो सुसंस्कृतं अहो स्निग्धं K| अहो सुपक्वं अहो सुच्छिन्नं सुहृतं अहो सरसं वेत्यादि प्रशंसातः सहाङ्गारेण यद्वर्तते तत्साङ्गारमिति २ ___इदानीं धूमदोषमाऽऽह-द्वेषेण अन्नस्य तदायकस्य वा निन्दात्मकेन अमनोज्ञममधुराहारं भुञ्जानश्चारित्रं-चरणं सधूमकं करोति | निन्दात्मकं कलुषस्वभावं धूमसन्मिश्रत्वात् , अत्राऽप्ययं भावार्थ:-इह द्विविधो द्रव्यतो भावतश्च तत्र द्रव्यतो अर्घदग्धानां काष्ठानां | सम्बन्धी, भावतो द्वेषाग्निना दह्यमानस्य चरणेन्धनस्य सम्बन्धी कलुषभावो-निन्दात्मकः, ततो यथाऽऽङ्गारत्वमप्राप्तं ज्वलदिन्धन- | | धूमं कथ्यते एवं द्वेषाग्निना दह्यमानं चरणेन्धनमपि साधूनां सधूमं ततश्च भोजनमपि गतरूप-विगंध-विरसास्वादतो जाततद्विषयव्य8 लीकचित्तस्य सतो अहो विरसं विगन्धं अपक्वमसंस्कृतमलवणमेवेति निन्दावशात् धूमेन सह वर्त्तते यत् तत् सधूमं चारित्रमिति ।
अधुना कारणमाह-वेयणवेयावच्चे इत्यादीनि षद् कारणानि प्रत्येकं भोजनेऽभोजने च ज्ञेयानि, तथा क्षुद्वेदनोपशमनाय भुजीतेति सर्वत्र क्रियासम्बन्धः बुभुक्षा हि न शक्यते सोढुं सर्ववेदनातिशायित्वाबृक्षायाः 'छुहा समा चेयणा नत्थी ति वचनात् तथा वैयावृत्त्यकरणार्थ बुभुक्षितोऽपि हि गुर्वादीनां वैयावृत्त्यं कर्तुं न शक्नोति । तथा इर्यासमितिः सैव निर्जरार्थिभिरय॑मानतयाऽर्थस्तस्मै बुभुक्षापीडितस्य हि चक्षुामपश्यतः कथमीर्यासमितिपरिपालनं स्यात् , तथा संयमार्थाय क्षुधातॊ हि प्रेक्षा. १ पिं० नि० गाथा ६६२ वेयणवेयावच्चे इरियहाए य संजमट्ठाए तह पाणवत्तियाए छठं पुण धम्मचिंताए २ पंथ समा नत्थि जरा दारिदसमो य परिभवो नत्थि । मरणसम नत्थि भयं छुहा समा वेयणा नस्थि ॥१॥ पिं०नि० पृ० १७७
CARRIA
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प्रथम संवरद्वारे ग्रासैषणादोषाः
वृत्ति
प्रमार्जनादिलक्षणं विधातुमल [न] अतः संयमामिवृद्ध्यर्थ, तथा प्राणा उससासादयो बलं वा प्राणास्तेषां तस्य वा वृत्तिः-पालनं तदर्थ ज्ञान०वि०५ प्रश्न०व्या
प्राणसंधारणार्थमित्यर्थः, यद्वा प्राणप्रत्ययं बलं जीवितनिमित्तं अविधिना उपक्रमेण म्रियमाणेऽहिंसा स्यादत एवोक्तं भाषियजिणवयणाणं ममत्तरहियाण नत्थि हु विसेसो । अप्पाणमि परंमिय तो वजे पीडमुभए वि ॥१॥
षष्ठं पुनरिदं कारणं यदुत धर्मचिन्तायै धर्मध्यानचिन्ता [श्रुतधर्म चिन्ता] वा ग्रन्थपरावर्तनचिन्तनवाचनादिरूपा, इयं हि उभय॥४२॥
रूपाऽपि बुभुक्षाकुलितचेतसो [न] तस्यार्तध्यानसंभवादिति । इह च यद्यपि वेदनोपशमादीनां शाब्दवृत्त्या तदुपलक्षिते भोजनफलत्वेन प्रतीतिस्तथापि तैर्विना तनिषेधसूचनादर्थवृश्या कारणत्वमेवैषामुपदर्शित
अथ आतंकादीनि पडेव अभोजनकारणन्याहआतंके ज्वरादौ रोगे समुत्पन्ने न भुञ्जीत-उपवासान् कुर्वतो हि प्रायेण ज्वरादयो यांति, यदुक्तं
वेब]लाविरोधिनिर्दिष्ट ज्वरादो लङ्घनं हित । []क्षुतेऽनिल श्रमक्रोधशोककामक्षतज्वरान् ॥१॥
तथोपसर्गे देवमनुष्यतिर्यग्भवे संजाते सति तितिक्षयाहेतुभूतया उपसर्गसहनार्थमित्यर्थः उपसर्गाश्च अनुकूलप्रतिकूलभेदात् द्विविधाः तत्र माता-पितृ-कलत्रादिस्वजनकृतोऽनुकूलास्ते हि स्नेहादिना प्रव्रज्यासेवनार्थ कदाचिदुपतिष्ठन्ते तत्रोपसर्गोऽयमिति मत्वा नाश्नीयात् , यतस्तमुपवासान् कुर्वन्तं वीक्ष्य तनिश्चयावगमान्मरणादिभयाद्वा मुश्चतीति, प्रतिकुलोपसर्गश्च कुपितराजादिकृतम्तत्राऽपि न भुञ्जीत विहितोपवासं हि साधु समीक्ष्य राजादयोऽपि प्रायेण संजातदया मुश्चन्ति इति । तथा ब्रह्मचर्यगुप्तिनिमित्तं-मैथुनव्रत
१ पिं०नि० गाथा ६६७ वृत्ती
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ॐACROBAAREASE
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EिRA
शिष्यनिष्पादनासापवासकरणेन षण्मासादसत्त्वसंसक्तायां प्रमाण
SACRECEIGHERA
४ अक्खोवंजणाणुलेवणभूयं संजमजायामायानिमित्तं संजमभारवहणट्ठयाए मुंजेजा पाणधारणट्ठयाए संजएण |
| संरक्षणार्थमित्यर्थः उपवासान् हि विदधतः कामः काम-दरमुपक्रामति यदुक्तंद विषया विनिवर्तन्ते, निराहारस्य देहिनः इति वचनात , तथा प्राणिदयाहेतोः जीवरक्षणार्थ जलवृष्टौ मिहिकापाते | सचित्तरजःपातादौ प्रभूतसूक्ष्ममण्डूकिकामसकिकाकोद्रविकादिसत्त्वसंसक्तायां भूमौ प्राणिदयानिमित्तमटनं परिहरन भुञ्जीत, तथा तपोहेतोस्तपकरणनिमित्त एकद्वित्र्याापवासकरणेन षण्मासान्तं यावत्तपः कुर्वतो न भोजनसंभवः, तथा शरीरस्य व्यवछेदः परिहार| स्तदर्थ, इह हि शिष्यनिष्पादनादिसकलकर्त्तव्यताऽनन्तरं पाश्चात्ये वयसि संलेखनाकरणेन यावजीवानशनप्रत्याख्यानकरणयोग्यमात्मानं कृत्वा भोजनं परिहरेत् नाऽन्यथा, शिष्यनिष्पादनाद्यभावे प्रथमे द्वितीये वा वयसि शरीरपरित्यागार्थमनशनप्रत्याख्यानकरणे जिनाज्ञाभङ्गाः स्यात् , संलेखनामन्तरेणार्तध्यानादिसंभवाच्च यदुक्तं
'देहंमि असंलिहिए सहसाधाऊहिं खिज्जमाणाहिं। झायइ अदृज्झाणं सरीरिणो चरिमसमयम्मि ॥२॥ छुहवेयणवेयावच्चे, संजमसुहज्झाण पाणरक्खट्ठा। पाणिदया तवहेउं, छटुं पुण धम्मचिन्ताए ॥२॥ इति षट्कारणानि
आयंके उसग्गे बंभगुत्तीय पाणरक्वट्ठा । तव संलेहणमेवमभोयणं छसु कुविज्जा ॥१॥ इत्यादिष्वपि विचार्य भोजनं विदध्यात् तदपि भोजनं कीदृशं सूत्रकार इतिअक्षस्य धुरः उपाञ्जनं अक्षोपाञ्जनं तच्च व्रणानुलेपनं ते-भृते प्राप्ते यत्र तत् तथा तत्कल्पमित्यर्थः, संयमयात्रा संयमप्रवृत्तिः सैव १ प्रवचनसारोद्धारवृत्ति पृष्ठ २१४-२ पंक्ति ५तो पृष्ठ २१५-२ पंक्ति २ यावत् अन्युनातिरिक्तं अत्र न्यस्तं प्रतिभाति
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प्रथम संवरद्वारे शय्यातर
स्वरूपं
समियं एवं आहारसमितिजोगेणं भाविओ भवति अंतरप्पा असबलमसंकिलिनिव्वणचरित्तभावणाए अहिंप्रश्नाच्या० *सए संजए सुसाह,
मात्रा प्रमाणं अर्थो वा संयमयात्रामानं तनिमित्तं हेतुर्यत्र तत्तथा, किमुक्तं भवति ? संयमभारवहनार्थतया, यथाऽक्षस्य उपाञ्जनं भारवह
नक्षम तथा संयमसाधनशरीरं तत आहारमंतरा संयममारक्षमं न भवति इति कारणात् भुञ्जीत, पुनः कारणान्तरमाऽऽह-प्राणधार॥४३॥ &णार्थतया-जीवितव्यसंरक्षणायेत्यर्थः, संयतेन-साधुना समितं यतनापूर्वकं एवममुना प्रकारेण आहारसमितियोगेन भावितो भवति
| अन्तरात्मा असबलअसंक्लिष्टनिव्रणचारित्रभावनया हेतुभूतया अहिंसकः संयतः सुसाधुरिति चतुर्थी भावना
___ अथ प्रसङ्गादागतशय्यातरपिण्डस्याऽपि किश्चिल्लिख्यते-शय्यया साधुसमर्पितगृहलक्षणया दुस्तर-संसारसागरं तरतीति शय्या-3 | तरः स द्विधा कर्तव्यः प्रभु, यतिप्रदत्तोपाश्रयस्वामी प्रभुसंदिष्टो वा तेनैव खामिना यत् कृतप्रमाणतया निर्दिष्टो भवति [तंत्र यः प्रभुः स एको वा भवेदनेको वा] प्रभुसंदिष्टोऽप्येको वा अनेको वा भवति तत्र चतुर्मङ्गी एकः प्रभुः एक संदिष्टः १ एकः प्रभुः अनेके संदिष्टाः २ अनेके प्रभवः एकः संदिष्टः ३ अनेके प्रभवोऽनेकप्रभुसंदिष्टाः ४ ते च शय्यातरा एको वाऽनेके वा ते त्याज्याः। परमत्रैवं भावनाऽपवादपदे यथा अनेकेषु-बहुषु शय्यातरेषु सत्सु एक कमप्यपवादपदेन शय्यातरं स्थापयेव , इयमत्र भावना, बहुजनसाधारणा वसतिः कापि प्राप्ता तत्र च समाचारीविचारचतुराः श्राद्धा यदि एवं वदन्ति एकं कमपि शय्यातरं स्थापयत मा
१ प्रवचनसारोद्धार ८००-८०८ गाथागतवृत्तितो शय्यातरस्वरूपं उद्धरितं प्रतिभाति. २ एतदपि स्खलितं प्रवचनसारोद्धारवृत्तितो न्यस्तं
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॥४३॥
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| सर्वानपि परिहरत इति तदा एकं शय्यातरं स्थापयित्वा शेषगृहेषु भिक्षा गृहन्ति, यद्वा बहवस्तत्र साधवस्ततो यदि सर्वेऽपि संस्त
रन्ति तदा सर्वानपि शय्यातरान् कुर्वन्ति, असंस्तरणे चैकं शय्यातरमिति ग्रहणविधिश्वाऽयं यथा द्वयोः शय्यातस्योरेकान्तरभिक्षाग्र| हणवारको भवति त्रिषु शय्यातरेषु तृतीयदिने एवं वारकेण भिक्षां गृहन्तीति
अथाऽयं शय्यातरः कदा भवति तदाऽऽह कस्मिंश्चित् साथै ग्रामादौ वा उषित्वा सुप्त्वा इत्यर्थः, चरमं प्राभातिकमावश्यक प्रतिक्रमणमन्यत्र स्थानान्तरे गत्वा यदि कुर्वन्ति तदा द्वावपि शय्यातरौ भवतः, इदं च प्रायसः सार्थादौ संभवति आदिशब्दाचौरा 3 वस्कन्दभयादिपरिग्रहः । अन्यथा तु प्रकारान्तरसद्भावे भजना शय्यातरस्य विकल्पना यस्य गृहे स्थिताः स च अन्यो वा शय्यातरोटू भवति, भजनामाऽऽह
यदा रात्रेश्चतुरोपि प्रहरान् जाग्रति साधवः आवश्यकमन्यत्र कुर्वन्ति तदा मूलोपाश्रयस्वामी शय्यातरो न भवति । किन्तु सुप्ते वा | शयने वा प्राभातिकावश्यके वा शय्यातरो भवति अयं भावार्थः शय्यातरगृहे सकलां रात्रिं प्राक् जागरित्वा प्रामातिक प्रतिक्रमणम-12 न्यत्र कुर्वन्ति तदा [मौलः शय्यातरो न भवति किन्तु यद्गृहे प्रतिक्रमणं कृतं स एव, अथ शय्यातरगृहे रात्रौ सुप्त्वा जागरित्वा वा है प्राभातिकप्रतिक्रमणं कुर्वन्ति तदा] स एव शय्यातरो भवति, यदा तु वसतिसंकीर्णतादिकारणादनेकोपाश्रयेषु साधवस्तिष्ठन्ति तदा | यत्राचार्यः स्थितः स एव शय्यातरो नाऽन्य इति।
ननु साधूनां गृहमर्पयित्वा गृहेशो यदा देशान्तरं ब्रजति तदा स शय्यातरो भवति वा न वेति प्रश्नः, कश्चिद् गृहस्थः साधूनां & २ प्रवचनसारोद्धारवृत्तिगता पतत्पंक्तिः स्वलिता दृश्यते
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शान०वि० लाखवेश्म दत्वा सपुत्रदारः पुत्रकलत्रादिसकललोकपरिवृतो वाणिज्यादिभिः कारणैस्तमेव देशमन्यं वा व्रजेत् , तत्रापि स्थितो यदि तस्य
प्रथम प्रश्न०व्यात गृहस्य स्वामी स एव शय्यातरो भवति, न पुनरदेशान्तरस्थितत्वात्तस्य शय्यातरत्वं न भवतीति । अथायं शय्यातरः कस्य सम्बन्धी ||
| संवरद्वारे वृति परिहरणीयस्तदेवाऽऽह-लिङ्गमात्रधारिणोऽपि साधुगुणरहितस्यापीत्यर्थः सम्बन्धी शय्यातरो वजनीयः आस्तां यावदितरस्य चारित्रिण ||
शय्यातर द इति, स च साधुस्तं शय्यातरपिण्डं परिहरतु का भुतां वा तथापि वळः।
पिण्डदोषा: ॥४४॥ है अथ साधुगुणैर्वियुक्तस्य शय्यातरः कस्मात्परिहियते ? उच्यते-साधुगुणैर्युक्तस्याऽयुक्तस्य वा शय्यातरः सर्वथा परिहर्त्तव्यः,
| अत्रार्थे मद्यापणो दृष्टान्तस्तथाहि
महाराष्ट्राख्यदेशे सर्वेष्वपि मघहट्टेषु मद्यं भवतु मा वा तथापि तत्परिज्ञानार्थिध्वजो बध्यते, तं च दृष्ट्वा सर्वेऽपि भिक्षाचरादयोहै|ऽभोज्यमिति कृत्वा परिहरन्ति । एवमसावपि साधुगुणयुक्तो वाऽयुक्तो वा भवतु तथाप्यस्य रजोहरणध्वजो दृश्यते इति कृत्वा शय्या-PI | तरः परिहियते इति शय्यातर-पिंडग्रहणे कियन्तो दोषाऽस्तानाह
तीर्थकरैः प्रतिकृष्टो निषिद्धः शय्यातरपिण्डः शय्यातरग्राहिणां तीर्थकराज्ञाभङ्गः अन्नाय उञ्च्छं चरइ विशुद्धमिति आगम| वचनात् अज्ञातस्य अविदितस्य राजादिप्रवजितत्वेन उच्छवृत्त्या यद्भक्ष्यं तदज्ञातमुच्यते तदेव प्रायः साधूनां ग्राह्यं तत्तु शय्यातर| पिण्डग्रहणे न भवति, शय्यातरपिण्डग्रहणे सति उद्गमादिदोषाः स्युः तथा स्वाध्यायादिश्रवणादिभ्यः प्रीतः शय्या तरः]क्षीरादिस्निग्ध
॥४४॥ द्रव्यं ददाति तच्च गृह्णता गार्थाभावो विमुक्तिर्न स्यात् तथा अलाघवता तत्र विशिष्टाहारलाभेनोपचितत्वात् शरीरालाघवं च भवति ।
१ तित्थयर पडिकुट्ठो अण्णायं उग्गमो वि य ण सुज्झे। अविमुत्ति यऽलाघषय दुल्लहसेज्जा वि उच्छेओ ।
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तथा च वसति दुर्लभा भवति येन किल वसतिर्देया तेन आहाराद्यपि देयमिति गृहिणां भयोत्पादनात् तथा दानभयात् विच्छेदो |भवेत् वसतिदानस्येति गम्यं । तथा पूर्वपश्चिमजिनौ [ मुक्तत्वा ] द्वाविंशतिजिनमध्यम तीर्थकृद्भिः विदेहजैश्च महाविदेहक्षेत्रसमुत्पन्नैः सर्वैरपि तीर्थकरेरेव आधाकर्मादि निषिद्धं मध्यमजिनानां तु यदर्थं कृतं तत् तस्यैवाऽकल्प्यं शेषाणां तु कल्पत एव इत्यादि विमर्शः, परं सागारिकस्य शय्यातस्य पिंडस्तु सर्वैरपि निषिद्ध एवेति । अयं सागारिकपिण्डो द्वादशधा अशनपानखादिमखादिम ४ रजोहरणवस्त्रपात्र कम्बलशूची पिप्पलककर्णशोधननखरदन १२ मेदात् निषिद्ध एवेति तृणडगलादिकस्त्वपिण्डः, यदुक्तं
तृणडगलछारमल्लगसेज्जासंथार पीढलेवाई । सिज्जायरपिंडो सो न होइ सेहो सउवहिओ ॥ १ ॥
यदि शय्यातरस्य पुत्रः पुत्री वा वस्त्रपात्रादिसहिता वा प्रव्रजेत्तदा शय्यातरपिण्डो न भवतीति । तथा साधुसमुदायस्य बाहुल्यात् प्रथमालिकापानकाद्यर्थं वा शय्यातरगृहे पुनः पुनः प्रविशत्सु साधुषु सत्सु शय्यातरः आधाकर्मादिदोषानामपि कारणात्, प्रथमालिका इति कोऽर्थः क्षुल्लकग्लानादीनां प्रथमत एवं भोजनं पानकं प्रतीतं, तथा निरन्तरस्वाध्यायकरणेन च चारित्रेण वाssवर्जिताः सागारिका दोषमपि कुर्युरितिहेतोर्न ग्राह्य इति शय्यातरः कियत्कालं यावत् अपवादतो भवेत् तदाऽऽह
अयं चाहोरात्रात्परतोऽशय्यातरः, इदमत्र हृदयं यत्रोषितास्ततः स्थानात् यस्यां वेलायां निर्गता द्वितीयदिने तावत्वेलायाः परतो - शय्यातरः, तथाऽपवादतो ग्लानत्वादिकारणे शय्यातरपिण्डोऽपि ग्राह्यते, अगाढे पुनः शीघ्रमेव शय्यातरपिण्डग्रहणं क्रियते, निमन्त्रणे च शय्यातरनिर्बन्धे सकृत् तं गृहीत्वा पुनः पुनः प्रसङ्गो निवारणीयः, दुर्लभे च क्षीरादिद्रव्ये आचार्यादीनां प्रायोग्येऽन्यत्रालभ्यमाणे तत्रैव गृह्णन्ति, अशिवे - दुष्टव्यन्तरोपद्रवादिके अवमौदार्ये दुर्भिक्षे वा अन्यत्र भिक्षायामलभ्यमाने शय्यातरगृहेऽपि भिक्षां
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ज्ञान वि०
प्रश्न व्या०
पुञ्छणादी वा
वृत्ति
॥४५॥
CREACHESARI
पंचमं आदाननिक्खेवणसमिई पीढफलगसिज्जासंथारगवत्थपत्तकंबलदंडगरयहरणचोलपट्टगमुहपोत्तिगपाय
प्रथम
|संवरद्वारे | गृह्णन्ति, राज्ञे च प्रविष्ट सति सर्वत्रभक्ष्यनिवारिते प्रच्छन्नं तद्गृहेऽपि गृहन्ति । अन्यत्र तस्करादिभये वा तत्रापि गृह्णन्ति भिक्षादिकं शय्यातर ६ सार्थविषये अग्रगोचरतायामभाव्यमानायां तत्र दिने तत्राऽवस्थितौ सत्यां सागारिकगृहेऽशय्यातरे जायमाने सति पिण्डग्रहणं कृत्वा पिंडदोषाः एकशः प्रच्छन्नतया पुनः शय्यातरं विधाय अन्यत्र गत्वा भोक्तव्यं, पुनस्तत्राऽऽगत्य सुप्तव्यं परं निद्रायमाणे न भाव्यं, तदुक्तं
असणाइया चउरो पाउंच्छणवत्थपत्तकंबलयं । सूइवुरकन्नसोहण, नहरणिया सागारियपिंडे ॥१॥ न हवइ अवमेराया, दुढे खुदाइवंतरा लोवे । सत्थप्पभिइकम्मे संकिणीवसही पभिइए ॥२॥ इचाइ विसमकज्जे सासणकज्जेसु अप्पणो कज्जे । नाणाइयाइ लाभे, संथरणे न होइ सागरिओ ॥३॥ जइ इंदिय तुढिकए सिज्जायपिंडमुवगमिज कया। तित्थयराणां य आणा, पडिसेहकरो य सोउ मुणी ॥४॥ इति शय्यातरपिण्डविचारो लेशतो दर्शितः, अथ प्रस्तुतं वच्मः ।
पञ्चमभावना वस्तु-आदाननिक्षेपलक्षणं तं प्रतिपादयनाऽऽह-पीठादिद्वादशधा उपकरण प्रसिद्ध पीठं चतुरस्रादिसंस्थानमयं, PI आसनं फलगपट्टिका, सेजा-शरीरप्रमाणः संस्तारकः तृणमयो दर्भादि सार्द्धहस्तद्वयमानः, वस्त्रं-कर्पासमुंगिकभंगिकादिमयं, कम्बलं उर्णामयं, दण्डको यष्टिः, रजोहरणं-धर्मध्वजः, चोलपट्टकः-परिधानववं, मुखपोत्तिका, पादप्रोच्छनकं ।
१ बाजोट्ठ इति भाषा । २ पुंछणुं इति भाषा
॥४५॥
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+--
एयंपि संजमस्स उववूहणट्टयाए, वातातवदंस मसगसीयपरिरक्खणट्टयाए, उवगरणं रागदोसरहितं परिहरितव्वं, संजयेण निच्चं पडिलेहणपप्फोडणपमजणाए अहो य राओ य अप्पमत्तेण होइ सययं, निक्खियव्वं च गिहियव्वं च भायण भंडोवहिउवगरणं, एवं आयाणभंडनिक्खेवणासमितिजोगेण भाविओ भवति अंतरप्पा अस| बलमसंकि लिट्ठनिव्वणचरित्तभावणाए अहिंसए संजते सुसाइ । एवमिणं संवरस्स दारं सम्मं संबरियं होति सुप्प
एतत् अपिशब्दादन्यदपि संयमस्य उपबृंहणार्थ संयमपोषणा-साधननिमित्तं तदर्थतया वा, वातातपदंशमशकशीत परिसामस्त्येन रक्षणार्थं यत्किञ्चिदपि, उपकरणं - संयमसाधनस्योपकारकं रागद्वेषरहितं ममत्वभावविरहितं क्रियाविशेषणमिदं तत्सर्वं परिभोक्तव्यं न विभूषादिनिमित्तमिति भावना, संयतेन-साधुना नित्यं सदा तथा प्रतिलेखनया - चक्षुर्व्यापारेण प्रेस्फोटनया - आस्फोटनेन प्रमाजनया - रजोहरणादिरूपतया, पडिलेहणा चक्सुसा पप्फोडा वधूटनं किच्चा नर्त्तनाप्रमार्जना करतलेषु बहिरुञ्चालनं इति व्याख्या अहि रात्रौ च अप्रमत्तेन सता सततं भवितव्यं, निक्षेप्तव्यं-स्थानादौ मोक्तव्यं, गृहीतव्यं वा आदातव्यं किं तत् इत्याह- भाजनं - पात्रं भाण्डं - मृन्मयं पात्रं, उपधिश्च वस्त्रादि एतत् त्रयलक्षणमुपकरणं उपकारकं चारित्रस्येति गम्यम् । एवममुना प्रकारेण आदानभांडनिक्षेपणा प्राकृतशैलीवशात् व्यत्ययेन कर्मधारयः । समितियोगे यो भावितो - वासितो भवति अन्तरात्मा संयतात्मा असवलं - अपङ्किलं असंक्लिष्टनिर्व्रणचारित्रभावनया हेतुभूतया अहिंसकः संयतः सुसाधुः
एवं पूर्वोक्तप्रकारेण इदं प्रत्यक्षगतं संवरस्य - अनाश्रवस्य द्वारं-उपायः सम्यक् संवृतं आसेवितं भवति, किंभूतं सुप्रणिधानवत् १ अखोडा पखोडा इति भाषा ।
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ज्ञान०वि०
प्रश्न० व्या० वृति
॥४६॥
णिहियं इमेहिं पंचहि वि कारणेहिं मणवयणकायपरिरक्खिए हिं, णिचं आमरणंतं च एस जोगो णेयव्वो, धितिमया मतिमया अणासवो अकलुसो अच्छिद्दो असंकिलिट्टो सुद्धो सव्वजिणमणुन्नातो, एवं पढमं संवरदारं | फासियं पालियं सोहियं तिरियं किट्टियं आराहियं आणाते अणुपालियं भवति, एवं नायमुणिणा भगवया पनवियं परूवियं पसिद्धं
सुरक्षित गुप्तं, कैः कृत्वा एभिः पञ्चभिः कारणैः भावनाभिर्भावितैः अहिंसापालन हेतुभिः मनोवाक्कायपरिरक्षितैरिति तथा । नित्यं सदा आमरणान्तं च-मरणरूपमन्तं यावत् पालनीयत्वात् एष योगोऽनन्तरोदितभावनापश्चकरूपो व्यापारी नेतव्यो बोधव्यः | केनेत्याह- भावुकेन धृतिमता - स्वस्थचित्तेन, मतिमता - बुद्धिमता किंभूतोऽयं योगः अनाश्रवः - नवकर्मानुपादानरूपः अतएव अकलुषोऽपापः शुभाध्यवसायत्वात्, अच्छिद्रः- कर्मनीरप्रवेशाऽभावात्, अपरिश्रवः - न परिश्रवतीति पापजलनिषेधत्वात्, असंक्लिष्टो-न चित्तसंक्लेशरूपः, अतएव शुद्धो निर्दोषः, सर्वजिनैः सर्वतीर्थकरैरनुज्ञातो अनुमतः, एवमीर्यासमित्यादिभावनापञ्चकयोगेन प्रथमं संवरद्वारं अहिंसालक्षणं, फासितं स्पृष्टं उचिते काले विधिना प्रतिपन्नं, पालितं सम्यग् उपयोगेन प्रतिचरितं शोधितं - अन्येषामपि तदुचितानां दानात् अतीचारवर्जनाद्विशोधितं निरती चारिकृतं, तीरितं तीरं पारं प्रापितं, कीर्त्तितमन्येषामुपदिष्टं, आराधितं - एभिरेवप्रकारैनिष्ठां प्रापितं, आज्ञया सर्वज्ञवचनेन अनुपालितं भवति पूर्वकालीन साधुभिश्वानु-पश्चात् पालितमिति केनेदं व्याख्यातमित्याह -
एवमिति उक्तरूपं ज्ञातमुनिना क्षत्रियविशेषरूपेण यतिना श्रीमन्महावीरेणेत्यर्थः ।
किंविधेन ? भगवता - ऐश्वर्यादिभगार्थ षट्कयुक्तेन प्रज्ञापितं - सामान्यतो विनेयेभ्यः कथितं, प्ररूपितं - छेदभेदकथनेन, प्रसिद्धं
प्रथम
संवरद्वारे शय्यातर
| पिंडदोषाः
॥४६॥
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COP ভল
सिद्धं, सिद्धचरसासणमिणं, आधवितं, सुदेसितं, पसत्यं, पढमं संवरदारं समतं ति बेमि ॥१॥ [सू० २३]
प्रख्यातं सिद्ध- प्रसिद्धप्रमाणेन प्रतिष्ठितं, सिद्धानां निष्ठितार्थानां वरा प्रधाना शासना - आज्ञा यस्मिन् तत् वरशासनमेतत् आघषित उल्लापितं तथा अर्घः- पूजा तस्य आपः- प्राप्तिर्जाता यस्य तदर्घापितं अथवा अर्थापितं, सुष्ठु देशितं सदेवमनुजासुरायां वर्षदि नानाविधनयगमभङ्गप्रमाणोपेतैः शब्दैरर्थैर्या अभिहितं, प्रशस्तं मङ्गल्यमिति । प्रथमं संवरद्वारं । इति शब्दः - समाप्तौ, ब्रवीमितिसर्वज्ञोपदेशेन न तु स्वमनीषिकया पूर्वोक्तप्रकारेण भावनया तद्वत् अहमपि ब्रवीमि विनेयजनान् । समाप्तं
इति प्रश्नव्याकरणांगस्य दशमस्य षष्ठे अध्ययने व्याख्यातः संवरद्वारप्रथमार्थो वृत्तिमुपजीव्य इति प्रथमसंवरद्वारम् ॥
इति श्री सूरिपुरन्दरज्ञानविमलसूरिरचिते ॥प्रश्नव्याकरणे प्रथम संवरद्वारं संपूर्णम् ॥
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शान०वि०/४
वृत्ति
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॥ अथ द्वितीयं संवरद्वारात्मकं सप्तममध्ययनम् ॥
टू द्वितीय प्रश्न०व्या०
संवरद्वारे अथ सूत्रक्रमसम्बन्धः-अनन्तराध्ययने प्राणातिपातविरमणं उक्तं, तच्च संपूर्ण सम्यग्तयाऽलीकवचोविरमणबतानामेव भवति | Lसत्यस्य
महिमा स्व18 इति हेतोरलीकविरतिः प्रतिपादनीया इत्यनेन सम्बन्धेन सम्बद्धं द्वितीयमध्ययनमारभ्यते अस्य चेदमादि सूत्रं
रूपं च ॥४७॥
जंबू!बितियं च सच्चवयणं सुद्धं, सुचियं, सिवं, सुजायं, सुभासियं, सुब्वयं, सुकहियं, सुदिढे, सुपतिट्टियं, सुपइट्ठियजसं, सुसंजमियवयणबुइयं, सुरवर-नरवसभ-पवरबलवग-सुविहियजणबहुमयं, परमसाहुधम्मचरणं, तवनियमपरिग्गहियं,
जम्बूरिति शिष्यामत्रणं द्वितीयं पुनः संवरद्वारं सत्यं वचः सद्भयो मुनिभ्योः सजनेभ्यो गुणिभ्यः यदर्थेम्योवा हितं सत्यं,यदाऽऽह
तद्वचनं सत्यवचनं कीदृशं? तदाऽऽह-शुद्ध-निर्दोष, अतएव शुचिक-पवित्रं, शिवं शिवहेतु, सुजातं-शुभविवक्षोत्पर्म, शोभनभाषितं वागरूपं वा शुभमिश्रितं सुखाश्रितं वा, अतएव शोभननियमरूपं सुव्रतं, शोभनो मध्यस्थो [रागद्वेषादौ] कथकः प्रतिपादको यस्य
सत्यस्येति सुकथितं, सुदिट्ठति अतीन्द्रियार्थदर्शिभिः दृष्टं अपवर्गादिहेतुतयोपलब्धं, सुप्रतिष्ठितं-समस्तप्रमाणैरुपपादितं सुप्रतिष्ठितं,तस्य 3 महत्तमपुरुषस्य यशः अव्याहतख्यातिकं, सुसंयमितवचनैः-सुनियत्रितवचनैरपि संवादिवचनैरुक्तं यस्य तत्तथा, सुखराणां-इन्द्रादीनां, ॥४७॥ लानरवृषभाणा-चक्रवादीनां प्रवरखलवता हरिप्रतिहादियोदृपुरुषाणां सुविहितस्य-सुसाधुजनस्य बहुमतं संमतं यत् तत्तथा, परमसा-||
धुना-उत्कृष्टमुनीनां धर्मचरण-धर्मानुष्ठानं यत्तत्तथा । तपोनियमाभ्यां परिगृहीतमजीकृतं यत्तत्तथा, यथा तपोनियमौ सत्यवादीना
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| सुगतिपहदेसकं, च लोगुत्तमं वयमिणं । विज्जाहरगगणगमणविज्ञाणसाहकं' सग्गमग्गसिद्धिपहदेसक, अवितर्ह तं सचं । उज्जुयं, अकुडिलं, भूयत्थं अत्थतो, विसुद्धं, उज्जोयकरं, पभासकं भवति सव्वभावाण जीवलोगे । अविसंवादि, जहत्थमधुरं पञ्चक्खं दयिवयंव जं तं अच्छेरकारकं अवत्थंतरेसु बहुए माणुसाणं । सच्चेण महास| मेव स्यातां नाऽपरस्येति भावः । सुगतिपथदेशकं च, लोके सत्यवचनमेव उत्तमं द्रव्यमिति न हि सत्यात्परं किमपि निधानमितिवच| नात्, व्रतमिदं च वक्ष्यमाणं पुनः कीदृशं ? विद्याधराणां गमनगामिन्यो या विद्यास्तेषां साधकं सत्यभाषिणामेव विद्याः सिद्ध्यन्ति इति भावः, स्वर्गमार्गस्य यावदनुत्तरप्राप्तेः सिद्धिपथस्य च देशकं - प्रवर्त्तकं यत् तत् तथा, अवितथं - वितथत्वरहितं मिथ्याभावरहितं तत् संव|रद्वारं द्वितीयं सत्यवचनं । पुनः ऋजुकं - ऋजुभावप्रवर्त्तितत्वात्, अक्कुटिलस्वरूपत्वात् अकुटिलं, भूतः सद्भूतोऽर्थः पदार्थः अभिघेयो | यस्य तद्भूतार्थ अर्थतः प्रयोजनापन्नं इति भावः, अतो हेतोर्विशुद्धं निर्दोषं, उद्योतकरं - प्रकाशकरणं, प्रभाषक- प्रतिपादकं भवति केषां ? | कस्मिन्नित्याह- सर्व भावानां - सर्वपदार्थानां जीवैरुपलक्षितो लोको जीवलोकस्तस्मिन् लोके जीवाजीवाधारक्षेत्रे प्रभाषकं-देशकं । अवि| संवादि - अव्यभिचारि यथार्थमितिकृत्वा, मधुरं - कोमलं, प्रत्यक्षेण दैवतमिव देवता इव यत्तत्तदाचर्यकारि - विस्मयकारि तदीदृशं वचनं | केषु केषामित्याह - तदेव पदं विशिष्य व्याख्यानयन्ति अवस्था - कष्टदशा तस्या अन्तराणि छिद्राणि तेषु अवस्थाविशेषेषु प्रापितेषु | बहुषु मनुष्याणां यदुक्तं
सत्येनाऽग्निर्भवेच्छीतोऽगाधाम्बुधिरपि स्थलम् । नाऽसिः छिनत्ति सत्येन सत्यान्न दशते फणी ॥ १ ॥
तदेव हि सत्येन हेतुना महासमुद्रमध्ये तिष्ठति न निमज्जति, मूढं - नियतदिग्गमनं अप्रत्ययं अग्रं तुंडं अनीकं वा तत्प्रवर्त्तकजन
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मुद्दमझेवि मूढाणियावि पोया सच्चेण य उदगसंभमंमिवि म वुझाइ, न य मरंति थाहं ते लभंति । सच्चेण य ज्ञान वि०
द्वितीय प्रश्न०व्या०
अगणिसंभमंमिवि न डझंति उज्जुगा मणूसा। सच्चेण य तत्ततेल्लतउलोहसीसकाई छिबंति धरेंति न य डझंति संवरद्वारे वृत्ति मणूसा। पव्वयकडकाहिं मुच्चंते न य मरंति सच्चेण य परिग्गलिया। असिपंजरगया समराओवि णिइंति अणहा सत्यस्य य सच्चवादी। वहधभियोगवेरघोरेहिं पमुच्चंति य अमित्तमज्झाहिं निइंति अणहा य सच्चवादी। सादेव्वाणि यमहिमा स्व
ट रूपं च ॥४८॥ स्योत्पाता येषां ते तेऽपि बोहित्था-यानपात्राऽपि तथा सत्येन च उदकसंभ्रमेऽपि-उदकप्लवेऽपि संभ्रमकारणत्वात् तत्रापि न वुज्झन्ति
न प्लाव्यन्ते । न च नियन्ते मरणं प्राप्नुवन्ति, स्ताचं-तलं च लभन्ते । सत्येन हेतुना अग्निसंभ्रमेऽपि-अग्निसंदीपनेऽपि न दह्यन्ते ऋजुका-आर्जवीपेताः नराः-मनुष्याः। च-पुनः सत्येन हेतुभूतेन तप्तं-उष्णीकृतं यत् तैलं त्रपु-कांश्यं अयः-लोहं सीसकानि छिबन्ति । हस्तांजलिमिर्धारयन्ति परं न च दह्यन्ते ऋजुका मनुष्याः। पर्वतैकदेशान् कटकान् प्राप्य आत्मानं मुच्यन्ते 'झाप' इति भाषा तदपि कुर्वन्ते परं नैव म्रियन्ते सत्येन परिगृहीता-युक्ताः । खड्गपञ्जरशक्तिपञ्जरगताः-खगशक्तिव्यग्रकारिषु पुरुषैः वेष्टिता अपि समरात्-सङ्ग्रामात् निर्गच्छन्ति-यान्ति अनघा:-अक्षतगात्रा इत्यर्थः, ते के ? सत्यवादिनः पुरुषाः सत्यप्रतिज्ञाः । वधो-यष्टयादिना बन्धोरज्वादिना वियोगः इष्टवस्तुनाशलक्षणः वैरं-अमित्रैः सह ताडनसंयमनं बलात्कारपोरशात्रवेभ्यः प्रमुच्यन्ते अमित्रमध्यात् निगच्छन्ति
यान्ति स्वस्थानं अक्षताङ्गाः सत्यवादिनः निर्दोषगात्राः । सानिध्यानि च कुर्वन्ति देवताः निजशपथादिविकटकार्येऽपि देवताः सानिध्य ला॥४८॥ ४ कुर्वन्ति सत्यवचनरतानां पुरुषाणां नेतराणामितिभावः । यतः
प्रियं सत्यं वाक्यं हरति हृदयं कस्य न जने ? गिरं सत्यां लोकः प्रतिपदमिमामर्थयति च ।
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देवयाओ करेंति सच्चवयणे रताणं । तं सचं भगवं तित्थकरसुभासियं दसविहं, चोदसपुवीहिं पाहुडत्यविदितं,
सुरा सत्याद्वाक्याद् ददति मुदिताः कामितफलं अतः सत्याद्वाक्यातमभिमतं नास्ति भुवने ॥१॥ यसादेवं तस्मात् हेतोस्तं सत्यं द्वितीयं महाव्रतं भगवद् भट्टारकं तीर्थकरभाषितं-जिनैः सुष्ठुक्तं दशप्रकारं-जनपदसंमतादिमेदेन,
दशविधसत्यस्वरूपं यथाजणवय १ सम्मय २ ठवणा३ नाम ४ रूवे५पडुच्च सच्चे य ६। ववहार ७ भाव८ जोगे९ दशमे उवम्म सच्चे य१०॥१॥
व्याख्या-जनपदसत्यं यथा-कोंकणादिषु पयः पिञ्चं जलं नीरमित्यादि देशप्रसिद्धं १ । संमतसत्यं या लोकसंमतत्वेन प्रसिद्धा भाषा यथा कुमुदकुवलयतामरसानां समानेऽपि पङ्कजत्वे गोपालजनो अरविन्दमेव पङ्कजं मन्यते न शेषेषु इति संमतसत्यं २ । स्थापनासत्यं प्रतिमादिरूपा अङ्कमुद्रादिन्यासं समुपलभ्य क्रियन्ते यथा एकैकः पुरतो बिन्दुदयसहितं उपलभ्य शतं बिन्दुत्रयसहितं सहस्रं तथा विकरिकादौ [मट्टिकादौ] माषकार्षापणोऽयमित्यादिका३ । नामसत्यं यथा-कुलं अवर्द्धयन्नपि कुलवर्द्धन इत्यादिका रूपसत्यं यथा-दम्भतो गृहीतव्रतो यतिरिति भाषा ५ प्रतीतसत्यं यथा वस्त्वन्तरमाश्रित्य यथा अनामिकायाः कनिष्ठामधिकृत्य दीर्घत्वं मध्यमामधिकृत्य च हस्खत्वमिति६ व्यवहारसत्यं यथा-गिरिदह्यते गलति भाजनं, तृणादिदाहे गिरिदहति, उदके श्रवति गलति भाजनमिति प्रतीतिः ७ भावसत्यं यथा यो वर्णादिः यस्मिन्नुत्कटो भवति तेन या सत्या सा भावसत्या यथा सत्यपि पञ्चवर्णसंभवे बलाका शुक्ला शुको नील इत्यादि प्रतीतिः ८ योगसत्यं यथा-दण्डयोगाव दण्डी पुरुषः छत्रयोगात् छत्रीति ९ उपमासत्यं यथा-समुद्रवत्तडागः
१ वशवैकालिक-हारिभद्रीयावृत्ति पृष्ठ २०८ तथा प्रवचनसारोद्धार पृष्ठ २६१
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द्वितीय संवरद्वारे सत्यादि | भाषाभेदाः
मावि चन्द्रवन्मुखं एकदेशग्रहणेनेति १० दशधा सत्यवचनं । अथ प्रसङ्गादन्येऽपि भाषामेदा लिख्यन्ते-असत्याऽपि दशधा भाषाप्रश्न०व्या०ते कोहे? माणे२ माया३ लोभे४ पेज्जे५ तहेव दोसे य६ । हास७ भय८ अक्खाइय९ उवग्याइय णिस्सिया दसहा ॥१॥ वृत्ति
क्रोधनिःसृता क्रोधाद्विनिर्गता तस्य आशयदुष्टत्वात् सत्यं असत्यं वा ब्रूते तत्सर्व मृषा एव १ माननिःसृता पूर्वमननुभूतमप्यैश्चर्य
आत्मोत्कर्षख्यापनायऽनुभूतमस्माभिरपि बहूश इत्यादिरूपा २ मायानिःसृता यत्परवञ्चनाभिप्रायेण सत्यमसत्यं वा भाषते ३ लोभ॥४९॥ निःसृता लोभामिभूतः कूटतुलादिकृत्वाऽयथोक्तप्रमाणं वदति ४ प्रेमनिःसृता प्रेमवशात् यथाऽहं तव दासः पुत्र प्रति जनकस्त्वमि
त्यादिरूपा ५ द्वेषनिःसृता यत्प्रतिनिविष्टजगत्पूज्यतीर्थकरादीनामप्यवर्णवादं भावते ६ हास्यनिःसृता हास्यरसेन-क्रीडारसतोऽसमञ्जसं | भाषते ७ भयनिःसृता तस्करादिभयेनाऽसमञ्जसभाषणं निर्धनोऽहं ज्ञात्वा हीनो वा ८ आख्यायिकानिःसृता यथा-कथासु असंभाव्या| भिधानं मूलदेवादिवत् धूख्यिानवत् ९ उपघातनिःसृता चोरस्त्वमित्यभ्याख्यानरूपा १० इति असत्या भाषा दशधा ।
यद्यपि सत्यं भाषते तथापि दुष्टाशयत्वेनाऽनुबन्धविपाकोदयादसत्यमेवेति मृषा । अथ सत्यामृषा दशधा यथा
उप्पन मिस्सिया १ विगय २ तदुभय ३ जीवा४जीव ५ उभयमिस्सा ६।
अणंत ७ परित्ता ८ अद्धा९ अद्धद्धामिस्सिया १० दसमा ॥१॥ व्याख्या-तत्र उत्पन्नमिश्रिता यथा-कस्मिश्विग्रामे नगरे वा ऊनेषु अधिकेषु दारकेषु वा जातेषु दादरका अध अस्मिनगरे १ दशवकालिक हारिभद्रीयावृत्ति पृष्ठ २०९-१ गत गाथा तथा लोकप्रकाश पृष्ठ ३१२
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॥४९॥
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| जाता इति उत्पन्नमिश्रिता अनुत्पन्नैस्सह संख्यापूरणात्मिका १ एवं मरणकथने विगतमिश्रिता २ तथा जन्मतो मरणतो वा कृतपरिमाणस्य विसंवादेन च उत्पन्नविगतमिश्रिता ३ जीवमिश्रिता यथा प्रभुतानां जीवतां स्तोकानां च मृतानां शङ्खशङ्खनकादीनां एकराशौ दृष्टे यदा कश्चिदेवं वदति - अहो महानयं जीवरा शिस्तदा जीवमिश्रिता ४ यथा प्रभूतेषु मृतेषु स्तोकेषु जीवत्सु कश्चिदेवं वक्ति महानयं मृतो जीवराशिस्तदा अजीवमिश्रिता सत्यामृषात्वं चास्या मृतेषु सत्यत्वात् जीवत्सु मृषात्वादिति भावनीयं ५ तस्मिन्नेव | राशौ एतावन्तोऽत्र जीवन्त एतावन्तो मृता एवेति नियमेनाऽवधारयतो विसंवादे जीवाऽजीवमिश्रता ६ मूलकादिकमनन्तकार्यं तस्यैव सत्कैः पाण्डुपत्रैरन्येन वा केनचित्प्रत्येक वनस्पतिना मिश्रमवलोक्य सर्वेऽप्यनन्तकायिक इति अनन्तमिश्रिता ७ तथा प्रत्येक वनस्पतिसंघातमनन्तकाय मिश्रमवलोक्य सर्वेऽपि - प्रत्येक वनस्पतिरूपोऽयं पिण्ड इति वदतः प्रत्येकमिश्रिता ८ यथा कश्चित् कश्चन त्वरयन् वर्त्तमाने दिवसेऽप्येवं वदति उतिष्ठ रात्रिर्जातेति रात्रौ वा वर्त्तमानायां उत्तिष्ठोद्गतः सूर्य इति अद्धामिश्रा ९ तथा दिवसस्य रात्रेर्वा एकदेशोऽद्धा यथा प्रथमपौरुभ्यामेव वर्त्तमानायां कचित् कश्चन त्वरयमेवं वदति चल चल मध्याह्नो जात इत्यादिरूपा अद्धाद्धामिश्रिता १० । एवं दशधा सत्यामृषा ।
अथाऽसत्यामृषा द्वादशविधा एषा हि प्रागुक्तसत्यादिभाषा विकलत्वात् न सत्या नाऽपि मृषा नाऽपि सत्यामृषा केवलं व्यवहारमात्र प्रवृत्तिहेतुरित्य सत्यामृषा भाषा ज्ञेया यथाआमंतणी आणवणी - २ जायणी ३ तह पुच्छणीय ४ पण्णवणी । पञ्चक्खाणी भासा ६ भासा इच्छाणुलोमाय७
१ दशकालिक - हारिभद्रीपवृत्ति पृष्ठ २२०-१ नत गाथा २७६-२७७
জন-
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ज्ञान०वि०/ प्रश्न०व्या०
वृचि
॥५०॥
अभिग्गहिया भासा ८ भासाय अभिग्गमि९ बोधव्वा । संसयकरणी भासा १० वोग्गड अव्वोगडा चैव ॥२॥
व्याख्या – आमन्त्रणी यथा हे देवदच इत्यादिका १ आज्ञापनीकी कार्ये परस्य प्रवर्त्तना इदं कुरु इत्यादिरूपा २ याचनी यथा कस्यापि वस्तुविशेषस्य देहीति भाषारूपा ३ पृच्छनी अविज्ञातस्य संदिग्धस्य कस्यचिदर्थस्य परिज्ञानाय तद्विदः पार्श्वे पृच्छना ४ प्रज्ञापनी विनीतविनेयस्य-विनेयजनस्य उपदेशदानं यथा प्राणिवधानिवृत्ताः प्राणिनो भवान्तरे दीर्घायुष इत्यादिरूपा ५ याचमानस्य प्रतिषेधवचना प्रत्याख्यानी६ इच्छानुलोमा यथा- कश्चित् कश्चन कार्यमारभमाणः कश्चन पृच्छति स प्राह करोतु भवान् ममाप्येतदिष्टं इत्यादिरूपा ७ अनभिगृहीता भाषा यथा बहुषु कार्येषु समुपस्थितेषु कश्चित् कञ्चन पृच्छति किमिदानीं करोमि स प्राह- सुन्दरं ते | यत्प्रतिभासते तत्कुरु इत्यादिका ८ अभिगृहीता यथा इदानीं इदं कर्त्तव्यं इदं नेतिरूपा ९ संशयकरणी भाषा एका वाक् अनेकार्थाभिधायिनी सती परस्परं संशयं उत्पादयति यथा सैंधवमानयेत्युक्ते सैन्धवशब्दो - लवणवस्त्रवाजिषु तत्राऽनिर्द्धारिता वाकू १० व्याकृता प्रगटार्था - स्पष्टार्थरूपा ११ अव्याकृता - अतिगम्भीरशब्दार्था अव्यक्ता वा अभावार्थत्वादिति १२ द्वादशधाऽसत्यामृषा भाषा एवं द्विचत्वारिंशद्भेदास्तत्र एकेन्द्रियास्त्वभाषकाः द्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु सत्यादिभाषाप्रतिषेधस्तेषु सम्यकूपरिज्ञानपरवश्चनाद्यभितापाऽसम्भवात्, तिर्यक्पञ्चन्द्रिजा अपि सम्यक् यथावस्थितवस्तुप्रतिपादनाऽभिप्रायेण भापन्ते नाऽपि परविप्रतारणबुद्ध्या किन्तु यदा भाषन्ते तदा कुपिता अपि परं मारयितुकामा अप्येवमेव भाषन्ते अतस्तेषामपि भाषाऽसत्यामृषा, किं सर्वेषामपि १ न, किन्तु जातिस्मरणलब्धिमतां तथाविधक्षयोपशमवशात् विशिष्टव्यवहारलब्धि प्रतीत्य तिर्यञ्चोऽपि चतुर्विधां भाषां भाषन्ते । शेषा भाषकजीवाश्चतस्रोऽपि भाषा भाषन्ते, तत्र साधूनां द्वे भाषे प्रथमान्तिमे भवत इत्यादि भूयान् विचारः प्रज्ञापनैकादशपदादवसेय इति
6
द्वितीय संवरद्वारे
सत्यादि
भाषा मेदाः
॥५०॥
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MAING-40
-DHAMARCH
महरिसीण य समयप्पदिन्नं, देविंदरिंदभासियत्थं, वेमाणियसाहियं, महत्थं, मंतोसहिविज्जासाहणत्थं, चारणग
"भाषाणं भन्ते किमादिया कि पवहा किंसंठिया किंपज्जवसिया गोयमा भाषा णं जीवादीया शरीरप्पभवा वजसंठिया लोगपज्जवसिया पण्णत्ता भासा कओ य पभवति कइहिं समएहिं भासती भासं? भासा कतिप्पयारा ? कति वा भासा अणुमयाओ? सरीरप्पभवा भासा दोहिं समएहिं भासती भासं। भासा च उप्पयाराइं दोण्हि य भासा अणुमयाओ" २ इत्यादि विचारोऽवसेयः। ___अत्र दशवैकालिकाद्यनुसारेण सामान्यतः साधूनां द्वे एव भाषे भाषितव्ये अतिशयवतां तु यथाई लामालाभं विचार्य चतस्रो| ऽपि भाषाः अनुमताः इति बोध्यम् ।
तथा चतुर्दशपूर्वविद्भिः प्राभृतार्थ विदितं पूर्वगतांशविशेषाऽभिधेयतया ज्ञातं, तथा महर्षीणां समयेन-सिद्धान्तेन प्रतिज्ञातं समयप्रतिज्ञातं सिद्धांतालापकपाठरूपेण निग्गंथे पावयणमिति वचनात् , देवेन्द्रनरेन्द्रर्भाषितो जनानामुक्तोऽर्थस्तत्साध्यधर्मादिर्यस्य तत् तथा, अथवा देवेन्द्रनरेन्द्राणां भासितः प्रतिभातोऽर्थः प्रयोजनं यस्य तत्तथा अथवा देवेन्द्रादीनां भाषिता अर्थाः-जीवादयो जिनवचनरूपेण येन तत्तथा, पुनः वैमानिकानां साधित-प्रतिपादितं उपादेयतया जिनादिभिरथवा वैमानिकैः साधितं कृतं सेवितमिति, महार्थ-महाप्रयोजनं, तदेवाऽऽह-मन्त्रौषधिविद्यानां साधनं तस्य अर्थः-प्रयोजनं तस्य सत्यं विना तत् सिद्धाभावात् , तथा चारणगण-विद्याचारणा
१ प्रशापनासूत्र ११ पद-१५ सूत्र पृष्ठ ७७९
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MAA
ज्ञान०वि०४ णसमणसिद्धविजं,मणुयगणाणं वंदणिज्ज,अमरगणाणं अच्चणिज्ज, असुरगणाणं च पूयणिज्ज,अणेगपाखंडिप-|
द्वितीय प्रश्न०व्या०ते रिग्गहित, जं तं लोकमि सारभूयं, गंभीरतरं महासमुद्दाओ, थिरतरगं मेरुपव्वयाओ, सोमतरगं चंदमंडलाओ,
संवरद्वारे वृत्ति दित्ततरं सूरमंडलाओ, विमलतरं सरयनहयलाओ, सुरभितरं गंधमादणाओ, जेविय लोगम्मि अपरिसेसा मंत- सत्यस्य जोगा जवा य विजा य जंभका य अत्थाणि य सत्थाणि य सिक्खाओ य आगमा य सच्चाणिवि ताई सच्चे | loमहिमा स्व
रूपं दिवृन्दानां श्रमणानां सिद्धविद्या-आकाशगामिनी वैक्रियकरणादिप्रयोजना यस्मात् तत्तथा मनुजगणानां च वन्दनीयं स्तुत्यः धन्यः
च ॥५१॥
P सत्यभाषी अर्थ इति, अमरगणानां व्यन्तरज्योतिष्कानां च अचनीयं पुष्पादिभिः सर्वत्रासन्नव्यन्तरैः प्रतिपादितमहिमा सत्यभाषिणा
मिति गम्योऽर्थः, असुरगणानां भवनपत्यादीनां पूजनीयं पूज्यं गन्धमाल्यादिभिः, अनेकपाखण्डिभिः परिगृहितं तेऽपि सत्यभाषिणां || चरणशरणं कुर्वन्ति, नानाविधव्रतिभिरङ्गीकृतं, यत् तत् सत्यं लोके सारभूतं प्रधानत्वेन ख्यातं, गम्भीरतरं-अलब्धमध्यं महासमुद्रातअक्षोभ्यत्वात् , स्थिरतरं मेरुपर्वतात् अचलितत्वेन, सौम्यतरं चन्द्रमण्डलात् अतिशयेन सन्तापोपशमहेतुत्वात् , दिप्ततरं सूर्यमण्डलात् यथावद्वस्तुप्रकाशनेन, विमलतरं शरनभस्तलात् अतिनिर्दोषत्वात् , सुरभितरं गन्धमादनाद्-गजदन्तकगिरिविशेषात् तत्र चन्दनवृक्षाः बहवस्सन्तीति सुगन्धतरसहृदयानामतीव हृदयावर्जकत्वात् , येऽपि च लोके अपरिशेषा-निःशेषा मात्रा:-शुभशुभतमा भावा हरिणेगमेषि| आहूतोऽपायाः मन्त्रादयो योगा-वशीकरणादिप्रयोजना द्रव्यसंयोगाः, जपाश्च-मन्त्रविद्याजपनानि, विद्याश्च-प्रज्ञप्त्याद्या, जृम्भकाश्च-12 ॥५१॥ तिर्यग्लोकवासिनो देवविशेषाः दशधा, अस्त्रादीनि-बाणादीनि क्षेप्यायुधानि, शस्त्राणि-खड्गादीन्यक्षेप्यायुधानि, शिक्षा-कलाग्रहणादीनि शास्त्राणि, आगमः-सिद्धान्तः अर्थात् अन्यान्यपि सर्वाणि तानि सत्ये प्रतिष्ठितानि, असत्यवादिनां न केऽपि मत्रा खसाध्यसाधकीभावं
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पइडियाई, सचंपिय संजमस्स उवरोहकारकं किंचि न वत्तव्वं, हिंसासावजसंपउत्तं, भेयविकहकारकं, अणत्थवायकलहकारकं, अणनं, अववायविवायसपउत्तं, वेलंब, ओजधेजबहुलं, निल्लज्नं, लोयगरहणिज्नं, दुद्दिढ, दुस्सुयं, अमुणियं । अप्पणो थवणा परेसु निंदा-न तंसि मेहावी, ण तंसि धन्नो, न तसि पियधम्मो, न तंसि कुलीणो,
न तंसि दाणपती, न तंसि सूरो, न तंसि पडिरूवो, न तंसि लट्ठो, न पंडिओ, न बहुस्सुओ, नवि य तंसि | ४ तवस्सी, ण यावि | भवन्तीति भावः । तथा तादृशं सत्यमपि यत् संयमस्योपरोधकारकं संयमबाधकं तत् किमपि न वक्तव्यं किंभूतं तदित्याह
हिंसया-जीववधेन-सावद्येन च पापोपेताऽऽलापादिना सम्प्रयुक्तं सहितं यत् तत्तथा । मेदश्चारित्रभेदः विकहा-विसंवादिका रूयादिका कथा तत् कारकं यत् तत् तथा, अनर्थवादो-निःप्रयोजनो जल्पः कलहश्च-कलिस्तत्कारकं यत् तत्तथा, अनार्य-अनार्यप्रयुक्तं 5 अन्याययोग्यं तं, अपवादः-परदूषणाभ्याख्यानं विवादो-विप्रतिपत्तिस्तत् सम्प्रयुक्तं सहितं तत् तथा, वेलम्बिकं-परेषां विडम्बनाकारि है ओजो-बलं धैर्य च-धृष्टता ताभ्यां बहुलं, अतएव निर्लज्ज-अपेतलजं, लोके-साधुलोके गर्हणीयं निन्छ, दुर्दष्टं-सम्यगतया नेक्षितं, दुःश्रुतं-सम्यगाकर्णीतं, असम्यक्तया मुणितं-ज्ञातं, आत्मनः-स्वस्य स्तुतिः श्लाघा परेषामन्येषां निन्दा-अवर्णवादः तदेवाऽऽह
नतंसि त्ति त्वं न भवसि मेधावी-प्राज्ञः अपूर्वश्रुतदृष्टग्रहणशक्तियुक्तो मेधावीत्युच्यते, न त्वं धन्योऽसि धन्यवानसि, न त्वं | प्रियधर्माऽसि, तथा न त्वं कुलीनः कुलजातः, न त्वं भवसि दानपतिर्दानदाता इत्यर्थः, न भवसि त्वं शूर:-पराक्रमवान्, न त्वमसि प्रतिरूपः यस्मिन् दृष्टे रूपवान् स्मर्यते, न त्वमसि लष्टः-सौभाग्यवान् , न त्वमसि पण्डितो-बुद्धिमान् , न त्वमसि सुश्रुतः श्रुतमा
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ज्ञान वि० प्रश्नच्या वृत्ति
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द्वितीय संवरद्वारे सत्यस्य महिमा स्वरूपं च
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॥५२॥
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परलोगणिच्छियमतीऽसि, सव्वकालं जातिकुलरूववाहिरोगेण वावि जं होवि वजणिज्जं दुहओ उवयारमतिकतं | एवंविहं सच्चपि न वत्तव्वं । अह केरिसकं पुणाइ सचं तु भासियव्वं?, जं तं दब्वेहिं पज्जवेहि य गुणेहिं कम्मेहिं बहुविवेहिं सिप्पेहिं आगमेहि य नामक्खायनिवाउवसग्गतद्धियसमाससंधिपदहेउजोगियउणादिकिरियाविहात्राधीतबहुशास्त्रः, नाऽपि त्वं तपस्वी-क्षपकः, न चाऽपि परलोकविषये निश्चिता-निःसंशया मतिर्यस्याऽसौ न च त्वं भवसि। सर्वकालं आजन्मावधि किंबहुना उक्तेन वर्जनीयविषयवचनं कथ्यते, जातिकुलरूपव्याधिरोगेण चाऽपीति यद्भवति पीडाकारितवचनं तत् सत्यमपि वर्जनीयमित्यर्थः, इह जान्यादीनां समाहारद्वन्दः, तत्र जातिर्मातृपक्षः कुलं-पितृपक्षः रूपं सुभगता व्याधिः-कुष्टादिरोगः, शीघ्रघाती ज्वरादिः वा-विकल्पे अपि-पुनरर्थे दुहओत्ति द्रोहवान् त्वं अथवा दुहतो-द्विधा द्रव्यतो भावतश्च उपचारं पूजामतिक्रान्तः | एवंविधस्त्वं एवं सद्भूतार्थमपि न वक्तव्यं । ___ अथ कीदृशं? पुनर्वाच्यं पुण्णाइत्ति इह पूर्ववाक्यार्थापेक्षयोत्तरवाक्यार्थस्य विशेषद्योतनार्थ सत्यमपि भाषितव्यं । यत् तत् तद्र्व्यः त्रिकालवर्तिभिः पुद्गलादिभिः, वस्तुपर्थवैश्च नवीनपुराणादिभिः, क्रमवत्तिभिश्च गुणैर्वर्णादिभिः, सहभाविभिः कर्मभिः कृष्यादिव्यापारैः उत्क्षेपणावक्षेपणादिभिर्वा, बहुप्रकारैः शिल्पैः चित्रकर्मादिविज्ञानश्च आगमाः सिद्धांतार्थास्तैः युक्तं । पुनः कीदृशं सत्यं नाम द्विधा व्युत्पन्न-अव्युत्पन्नभेदात् तत्र व्युत्पन्न देवदत्तादि अव्युत्पन्न डित्थ डवित्थादि, आख्यातपदं-क्रियापदं आत्मनि परस्मै उभयपदीरूपं | त्रिकालात्मकं तं यथा-अकरोत् करिष्यति करोतीत्यादिरूपं तद् तदर्थद्योतनाय तेषु तेषु स्थानेषु योजनीयं, निपतन्ति तथा तथार्थद्योत| नार्थेषु ते निपाताः च वाह खलु इत्यादिरूपाः, तथा उपसृज्यन्ते-धातुसमीपे इत्युपसर्गाः अर्थो बलात्कारेण धातुना यैः कृत्वा प्राप्यते
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गधातुसरविभत्तिवन्नजुत्तं यथा-प्र-परा-सम्-अपि-अनु इत्यादिरूपाः, यथा तस्मात् हितं तद्धितं इत्यादि अर्थाभिधायका ये प्रत्ययास्ते तद्धिताः तदंत पदं तद्धितपदं यथा-अण् इकण् इत्यादिप्रत्ययाः यथा गोरपत्यं गव्यः, नामेरपत्य नामेय इत्यादिकं, तथा समसनं समासः अनेकेषां पदानामेकीकरणरूपं वा तथा अनेकास विभक्तीनामेकविभक्तीकरणं तत्पुरुष-द्वन्दू-बहुविहि-द्विगु-कर्मधारयसमासास्तेषां पदं समास
पदं यथा राजपुरुष इत्यादिरूपं, सन्धिरन्योऽन्यसंयोजना तत्पदं सन्धिपदं यथा दधीदं भवत्यत्रेत्यादिरूपं, तथा पदं विभक्त्यन्त & सुबन्तं तिङ्गन्तं च यथा घटः । हेतुः-साध्याऽविनाभूतत्वलक्षणो यथा नित्यः शब्दः कृतकत्वात् , पर्वतोऽयं वह्निमान् धूमादित्यादि | | हेतुपद, यौगिक यदा तेषामेव द्वयादिसंयोगेन एकनामकरणं यथा पद्मनाभः नीलकन्तः इत्यादिरूपं यौगिक पदं तथा उपकरोति सेनया
अभियांति अभिषेणयति इत्यादिरूपं वा यौगिक, उणादिकं यथा उकण् प्रत्ययान्तं मिक्षुः मैक्ष्यमिति तथा अत-सातत्यगमने अतति | सातत्येन नैरन्तर्येण गच्छति तान् तान् भावान् पर्यायानिति आत्मा अत्र मनिद्र प्रत्यय उणादिकः आशु खादु इत्यादि उणप्रत्ययान्तं । तथा क्रियाविधानं सा च क्रियाविधिः कान्तप्रत्ययान्तविधिरिति यथा पचति इति पाकः एवं पाठकः कुम्भं करोतीति कुम्भकारः इत्यादि सिद्धक्रियाविधिपदं अथा धातवो-भ्वादयः भू-सत्तायां अस्-भुवि हुक-करणे इत्यादिरूपाः। स्वरा-अकारादयः षड्जादयो वा क्वचिद्रसा इति पाठः तत्र रसाः शृङ्गारादयो नव यथाशृङ्गार१ हास्य२ करुणा३ रोद्र४ बीर५ भयानका ६ बीभत्सा७ भुत८ शांताश्व९ नव नाटये रसाः स्मृताः॥१॥
विभक्तयः-प्रथमा द्वितीया तृतीया चतुर्थी पञ्चमी षष्ठी सप्तमी सम्बोधनी चेत्यादिरूपाः, सप्तवर्णाः कादयः व्यञ्जनानि, स्वराः
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शान०वि०
प्रश्न०व्या०
वृत्ति
वचन
॥५३॥
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ORMA
तिकल्लं दसविहंपि सच्चं जह भणियं तह य कम्मुणा होइ दुवालसविहा होइ, भासा, वयणंपिय होइ सोलसविहं,
द्वितीय इस्व१ दीर्घर प्लुता३ ख्या मात्रोच्चारणकालविशेषरूपा एभिः युक्तं एकस्मिन् शब्दे नाम्नि वा यत्र तत् सत्यवाक्त्वेन प्ररूपितमिति । | संवरद्वारे
अथ तदेतत् सत्यं भेदत आह त्रैकाल्यं त्रिकालविषयं दशविधमपि सत्यं भवतीति योगः, तत्र दशविधं सत्यं भाषा- षोडशविधभेदेषु पूर्वमुक्तं जणवय-संमय-ठवणे ति गाथायां यथा भणितं येन प्रकारेण दशविधं सत्यं सद्भतार्थतया भवति तथा तेनैव | प्रकारेण कर्मणा वा अक्षरलेखनादिक्रिया सद्भूतार्थक्रियाऽपि सत्यरूपैव कार्या एतावता न केवलं दशविधं सत्यं वाच्यं किन्तु इस्तक
स्वरूपम् र्मादिक्रिया लेखनादिक्रियाऽपि अव्यभिचारितयैव कर्तव्या परव्यसनस्याऽकुटिलाध्यवसायस्य च तुल्यत्वादिति । तथा द्वादशविधा च भवति भाषा यथा-प्राकृत-संस्कृत-मागध-पिशाच-सौरसेन-अपभ्रंशाख्याः तत्र अपभ्रंशस्य देशविशेषेण भूरिभेदाः इयमेव षड्विधा भाषा गद्य-पद्यभेदेन द्वादशधा भवतीति। यथा वचनमपि षोडशविधं भवतीति तदाऽऽहवयणतियं लिंगतियं कालतियं तह परोक्ख पच्चक्ख ११ अवणीयाइ चउकं १५ अज्झत्थं चेव सोलसमं ॥१॥
व्याख्या-तत्र वचनत्रयं एकवचन-द्विवचन बहुवचनरूपं यथा घटः घटौ घटाः वृक्षः वृक्षौ वृक्षाः देवः देवी देवाः इत्यादि || A |रूपत्रयं । लिङ्गत्रयं स्त्रीपुंनपुंसकरूपं, कुमारी वृक्षः कुण्डं, कालत्रिकं अतीतानागतवर्तमानरूपं यथा अभूत-भविष्यति भवति अकरोत करिष्यति करोति । तथा प्रत्यक्षं करोति असौ इदं कार्य पठनादिकं, परोक्षं यथा कृतमनेन कार्य शस्तने दिने, उपनीतवचनं यथागुणौधोपनयनरूपं यथा रूपवानयं मनीषी इत्यादिरूपं, १ अपनीतवचनं यथा-गुणापमयनरूपं यथा-दुःशीलोऽयं दुर्भाषणोऽयं २ उप
॥५३ नीत-अपनीतवचनं यत्र एकादिगुणं वर्तयित्वा पश्चादपनीतगुणवाक्यं उच्यते यथा-रूपवान्-अयं किन्तु दुःशीलः ३ विपर्ययेणाऽपि
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एवं अरहंतमणुन्नायं समिक्स्वियं संजएण कालंमि य वत्तव्वं (सू० २४)
इमं च अलियं पिसुण- फरुस - कडुय-चवलवयणपरिरक्खणट्टयाए पावयणं भगवया सुकहियं, अत्तहियं, | पेच्चाभाविक, आगमेसिभद्द, सुद्धं, नेयाज्यं, अक्कुडिलं, अणुत्तरं, सव्वदुक्खपावाणं विओसमणं, तस्स इमा पंच अपनीत - उपनीतवचनं भवति दुःशीलः परं रूपवानित्यपि भवति ४ अध्यात्म वचनं यथा - अभिप्रेतमर्थं गोपयितुकामस्य सहसा तस्यैव भणनं यथा दुःखितोऽहमिति अथवा आत्मानं अधिकृत्य अध्यात्मभावनया यत् योजनं तदप्याध्यात्ममुच्यते इत्यादिभाषात्मकं सत्यादि स्वरूपावधारणप्रकारेण यत् भवति तदनुज्ञातं साधूनां भाषात्वेनोपादनीयमित्यर्थसमर्थना सर्वत्र कार्या । ननु जिनानुज्ञातमपर्यालोचितं संयतेनाऽकाले न वक्तव्यमिति हृदयं । यदाऽऽह वृत्तिकार:
बुद्धि निउणं भासेज्जा उभयलोय परिसुद्धं । सपरोभयाण जं खलु न सव्वहा पीडजणगं तु ॥ १ ॥ एतदर्थमेव जिनशासनमिति । एवमित्थंभूतं यद्वचनं तदर्हता भगवता अनुज्ञातं समीक्षितबुद्ध्या पर्यालोचितं संयतेन - संयम - वता काले- अवसरे वक्तव्यं ।
इदं च प्रत्यक्षं प्रवचनमिति योगः, अलीकमसद्भूतार्थं पिशुनं सूचकं परोक्षस्य परस्य च दूषणोद्भाषकं अतएव फरुपं - अनाश्रयं भाषाकटुकमनिष्टार्थ, चपलं - उत्सुकतया असमीक्षितं यद्वचनं वाक्यं तस्य परिरक्षणार्थ रक्षायै शासनमिदं प्रवचनमित्यर्थः भगवताश्रीमहावीरेण, सुष्ठु शोभनतया कथितं, आत्महितं जीवस्य हितहेतुकं प्रेत्य-परलोकभावनया युक्तं, अतएव आगमिष्यद्भद्रं - भावि - १ बुद्धया विचार्य भाषेतोभयलोकपरिशुद्धं । स्वपरोभयेषां यत् खलु न सर्वथा पीडाजनकं तु ॥
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ज्ञान०वि० प्रश्न०व्या०
वृत्ति
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भावणाओ । वितियस्स वयस्स अलियवयणस्स वेरमणपरिरक्खणट्टयाए पढमं सोऊण संबरहं परमहं सुद्धं जा णिउण न वेगियं, न तुरियं, न चवलं, न कडुयं, न फरुसं, न साहस, न य परस्स पीलाकरं सावन, सबै चहियं च मियं च गाहगं च सुद्धं संगयमकाहलं च समिक्खितं संजतेण कालंमि य वत्तव्वं । एवं अणुवीतिसमितिजोगेण भाविओ भवति अंतरप्पा संजय करचरणनयणवयणो सूरो सच्चज्जवसंपुन्नो ।
कल्याणकारि, शुद्धं निर्दोषं, न्यायोपपन्नं नैयायिकं, अकुटिलं- ऋजुत्वात् नास्ति अस्मादुत्तरं प्रधानं अन्यत् किमपि, अतएव सर्वदुःखपापानां शुभाशुभकर्मणां विशेषेण उपशमनकारकं, तस्य द्वितीयव्रतस्य इमा अग्रे वक्ष्यमाणाः पञ्चभावनाः चिन्तनीयाः ।
द्वितीयव्रतस्य - अहिंसापेक्षया, अलीकवचनस्य वेरमणं - विरतिः तस्याः परि-सामस्त्येन रक्षणार्थ प्रथमभावनां अनुचिन्त्य समितियोगलक्षणसाधुः आकर्ण्य सद्गुरुसमीपे संवरद्वंति-संवरस्य प्रस्तावात् मृषावादविरमणस्य प्रयोजनलक्षणं तदेव अर्थः प्रयोजनं यस्य तथा तं परमार्थ हेयोपादेयवचनैः सुष्ठु सम्यग्तया एतद् ज्ञात्वा न-नैव निषेधे वेगवत् - विकल्पवत् संशयापन्नं न त्वरितं शीघ्रत्वेनाविमृश्य, न चापल्यं चपलस्वभाववत्, न कटुकं अर्थात् परिणामे विरसं, न परुषं कठिनं वर्णतः, न साहसं साहसप्रधानं अतर्कितं, न च | परस्य जन्तोः पीडाकरं मानसिकदुःखोत्पाद कं, सावद्यं - सपापं प्राणापहारित्वात् सत्ये नैव वक्तव्यं ? कीदृशं पुनर्वक्तव्यं तदाऽऽह-सत्यंसद्भूतार्थं हितं आयतौ हितं पथ्यं तोषोत्पादनतः, मितं परिमिताक्षरं, ग्राहकं प्रतिपाद्यार्थस्य प्रतीतिजनकं, शुद्ध-पूर्वोक्तदोषरहितं, संगतं - उपाधिरहितं, अकाहलं अमन्मनाक्षरं, समीक्षितं पूर्वं बुद्ध्या पर्यालोचितं, एतादृशं संयमवता-साधुना काले-अवसरे वक्तव्यं नाडन्यथा । एवममुना प्रकारेण अनुचिन्त्य पर्यालोच्य भाषणरूपया समित्या सम्यग्योगयुक्तो भवति अन्तरात्मा - जीवः सम्यग्यतना
द्वितीय संवरद्वारे
सत्यव्रत
भावनाः
॥५४॥
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वितियं कोहो ण सेवियव्यो, कुद्धो चंडिविणो मणूसो अलियं भणेज, पिसुणं भणेन्ज, फरुसं भणेज, अलियं पिसुणं फरुसं भणेज, कलहं करेजा, वेरं करेजा, विकहं करेजा, कलहं वे विकहं करेजा, सच्चं हणेज, सीलं हणेन, विणयं हणेज्ज, सच्चं सीलं विणयं हणेज्ज, वेसो हवेज, वत्थु भवेज, गम्मो भवेज, वेसो वत्थु गम्मो भवेज, एयं अन्नं च एवमादियं भणेज कोहग्गिसंपलित्तो तम्हा कोहो न सेवियव्यो। एवं खंतीइ भाविओ भवति अंतरप्पा संजयकरचरणनचणवयणो सूरो सच्चजवसंपन्नो, युक्तः करचरण-नयन-वदनः समाहितेन्द्रियः सन् शूरः-पराक्रमी सत्यार्जवसंपन्नो भवति एषा प्रथमा भावना १ | द्वितीयभावनायां क्रोधनिग्रहणं तदेवाऽऽह-क्रोधो न सेवितव्यः कस्माद्धेतोस्तदाऽऽह-क्रुद्धः-कुपितः चाण्डिक्यं-रौद्ररूपत्वं सञ्जातं
अस्येति चांडिक्यितो मनुष्यो-नरः अलीकं भणति-मिथ्या भाषते, पिशुनं-मर्म भाषते, परुषं कर्कश भाषते, अलीकं पिशुनं परुषं त्रय|मपि भाषते, कलहवाक् कलहं करोति, वैरं करोति, विकथां-परासमंजसमाषणं करोति, विकथां क्रियमाणः कलहं वैरं विकथां त्रयमपि कुर्यात् , सत्यं-सद्भतार्थ हन्यात-नाशयेत् , शीलं-सदाचारं नाशयेत् , विनयं-मानाभावं नाशयेत् , सत्यं शीलं विनयं त्रिकमपि हन्यात्-नाशयेत् , वेषो-द्वेष्योऽप्रियो भवेत् , वस्तु-गृहं दोषाणामिति शेषः दोषवेश्म भवेत् , गम्यं परिभवस्थानं भवेत् , वेश्यो वस्तुगम्यं त्रयमपि भवेत् , एतत् अन्यत् वक्तव्यातिरिक्तं एवमादिकमेवजातीयं भणति, क्रोधाग्निप्रदीप्तः सन् सम्यक् प्रज्वलितो भवति, | तस्मात क्रोधो न सेवितव्यः । एवं प्रकारेण क्षान्त्या-उपशमेन प्रकर्षेण भावितो भवति, अन्तरात्मा-जीवः सम्यक् यतनायुक्तः करचरणनयनवदनः समाहितेन्द्रियः सन् शूरो-पराक्रमी सत्यार्जवसंपनो भवति इति द्वितीयभावना २
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ज्ञान०वि०
प्रश्न० व्या०
वृत्ति
॥५५॥
ततियं लोभो न सेवियन्वो लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं, खेत्तस्स व वत्थुस्स व कतेण १ लुद्धो लोलो भणेज अलियं, कित्तीए लोभस्स व करण २ लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं, रिद्धीय व सोक्खस्स व करण ३ लुद्धो लोलो भणेज अलियं, भत्तस्स व पाणस्स व करण ४ लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं, [पीढस्स व फलगस्स व करण ५ लुद्वो लोलो भणेज्ज अलियं,] सेज्जाए व संथारकस्स व करण ६ लुद्धो लोलो भणेज अलियं, वत्थस्स व पत्तस्स व कएण ७ क्रुद्धो लोलो भणेज अलियं, कंबलस्स व पायपुंछणस्स व कएण ८ लुद्धो लोलो भणेज अलियं, सीसस्स व
अथ तृतीयायां भावनायां लोभो न सेवितव्यः कस्मादित्याह
लुब्धो - लोभवान्, लोलो-व्रते चपलः भणेत्- भाषयेत् अलीकं - कूटवचनं क्षेत्रस्य ग्रामनगरादेः सेतु-केतूभयात्मकस्य वा वास्तुगृहं खात- उच्छ्रित-उभयात्मकं भूमिर्वा तस्य कृते तदर्थ लुब्धो-लोभवान् लोलो भणेज इति पूर्ववदर्थः, कीर्त्तिः ख्यातिः तदर्थकृते तथा | लोभस्य परिवारादीनां पुष्टिकृते औषधादिप्राप्तिहेतोः लुब्धो लोभवान् लोलो- व्रते चपलः भणेत् - भाषयेत् अलीकं - कूटवचनं २ | ऋद्धिः - संपत् तस्याः कृते सुखहेतोः शीतलछायादिसुखहेतोः कृते लुब्धो लोलो भाषयेत् अलीकं ३ | तथा भक्तस्य- अशनस्य पानस्य च कृते लुब्धो-लोलो भाषयेत् अलीकं ४ । [ पीठस्य कृते फलकस्य कृते वा लुब्धो लोलो भाषयेत् अलीकं । ५ ।] सिजा - वसतिः तदर्थं एवं संस्तारकस्य कृते यत्र प्रसारितपादैः सुप्यते सा शय्या तस्याः कृते अर्द्धतृतीयस्तप्रमाणः संस्तारकः तस्य कृते [लुब्धो लोलो ] अलीकं भाषयेत् ६ । वस्त्रं - चोलपट्टादि, पात्रं - अशनादिग्रहणभाजनं तयोः कृते लुब्धो-लोलो भापयेत् अलीकं ७ । कम्बलं - उर्णामयं वस्त्रं पादप्रोञ्छनं कम्बलखण्डः रजोहरणादिर्वा तस्य कृते लुब्धो-लोलो भाषयेत् अलीकं ८ | शिष्यस्य साधोः शिष्यिणी - साध्वी १ एतत्पङ्क्तिस्तट्टीका च अत्र नास्ति किन्तु अभयदेवसूरिकृत वृत्तौ द्वयमपि विद्यते ।
द्वितीय
संवरद्वारे
सत्यव्रत भावनाः
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SiltMRDAS4641.9
सिस्सीणीए व कएण ९ लुद्धो लोलो भणेज अलियं, अन्नेसुय एवमादिसु बहुसु कारणसतेसु लुद्धो लोलो भणेज अलियं। तम्हा लोभो न सेवियव्वो, एवं मुत्तीय भाविओ भवति अंतरप्पा संजयकरचरणनयणवयणो सूरो सच्चजवसंपन्नो। चउत्थं न भाइयव्वं भीतं खु भया अइंति लहुयं भीतो अबितिजओ मणसो भीतो भूतेहिं धिप्पड़ भीतो अन्नंपिहु भेसेज्जा, भीतो तवसजमंपिहु मुएजा, भीतो य भरं न नित्थरेजा, सप्पुरिसनिसेवियं च मग्गं । भीतो न समत्थो अणुचरित्रं, तम्हा न भातियव्वं, भयस्स वा वाहिस्स वा रोगस्स वा जराए वा मच्चुस्स वा तस्याः कृते लुब्धः लोलुपः भाषयेत् अलीकं ९ । अन्येषु-इत्यादिप्रकारेषु बहुषु कारणशतेष्वपि व्यक्तमेव लुब्धो लोलो भणति अलीकं तस्माद्धेतोलोभो न सेवनीयः, एवममुना प्रकारेण मुक्तिनिर्लोभता तया भावितो भवति अन्तरात्मा-जीवः सम्यक्तया वशीकृतः | सुसमाहितकरचरणनयनवदनः शूरः सत्यार्जवसंपन्नः । एषा तृतीया भावना ३
अथ चतुर्थी भावना-न भेतव्यं अंतरभाव निधेयं, खुक्यिालंकारे भीतः पुमान् अइति एति आगच्छति किं लघुकं सत्त्वसारवर्जितत्वेन तुच्छं-आत्मानं वेदते लघुकं शिघ्र तथा भीतो अद्वितीयः सहायो न भवति कस्याऽपि मनुष्यो-नरः, भीतो-भूतैः प्रेतैर्वा गृह्यते अधीश्रीयते -आश्रीयते । तथा भीतः अन्यमपि भाषयेत् , भीतः तपःप्रधानः संयमः तपःसंयममपि हुर-लंकारे मुच्येत्-त्यजेत् । अलीकमपि अयादिति रहस्यं अहिंसादिरूपत्वात् सेयमस्योक्तत्वात् , भीतः पुमान् महत्कार्यादि न निस्तरेत-निर्वाहयेत् , सत्पुरुषैर्धीपुरुषैनिषेवितं-सेवितं मार्ग सम्यक्-ज्ञानक्रियादिकं अनुचरितं-आसेवितं न समर्थो भवति । यत एवं तस्मादेतोः न भेतव्यं भयहेतो ह्यात् दुष्टतिर्यग्मनुष्यदेवादेः तथा आत्मोद्भवादपि न भेतव्यं, तानेवाऽऽह-व्याधेः-क्रुष्टादेः क्रमेण प्राणापहारिणः रोगात का
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ज्ञान०वि०
प्रश्न० व्या०
वृति
॥५६॥
अस्स वा एवमादयस्स एवं घेज्जेण भाविओ भवति अंतरप्पा संजयकरचरणनयणवयणो सूरो सच्चज्जवसंपन्नो । |पंचमर्क हासं न सेवियव्वं अलियाई असंतकाई जंपंति हासइत्ता परपरिभवकारणं च हासं, परपरिषायप्पियं च हासं, पर पीलाकारगं च हासं, भेदविमुत्तिकारकं च हासं, अन्नोन्नजणियं च होज हासं, अन्नोन्नगमणं च होल मम्मं | अनोन्नगमणं च होज कम्मं कंदप्पाभियोगगमणं च होज हासं, आसुरियं किव्विसत्तणं च जणेज हासं, तम्हा शीघ्रतरं प्राणापहारकात् ज्वरादेः जरा-वयोहानिरूपा तस्याः मृत्योर्मरणाद्वा, अन्यस्माद्वा तादृशात् इष्टवियोगादेः इत्येवमादिकात् भयोत्पादकात् न भेतव्यं, एवमनया भावनया धैर्येण सत्वेन भावितो भवति, अन्तरात्मा - जीवः संयतः साधुः वशीकृतकरचरण| नयनवदनः शूरः प्रराक्रमवान संयमसाधने सत्यार्जवसंपन्न युक्तः ४ इति चतुर्थी भावना
अथ पञ्चमीभावना तस्यां पञ्चमीभावनायां किं वस्तु इत्याह-यदुत हास्यं न सेवितव्यं परिहासो न विधेयः यतः अलीकानि सद्भूतार्थनिह्नवरूपाणि असंन्ति असद्भूतार्थानि वचनानि अशोभनानि वा अनुपशमप्रधानानि जल्पन्ति ब्रुवते, हासइत्तेत्ति हासवन्तः परिहास कारिणः - परपरिभवकारणं च हास्यं अपमानताहेतुरित्यर्थः, परपरिवादान्यदूषणाभिधायकं प्रियं इष्टं यस्मिन् हास्ये भवति, परेषां पीडारकं हास्यं भवति, भेदश्चारित्रभेदः विमुक्तिर्विगतनिःस्पृहत्वं अथवा विमूर्त्तिर्विकृतनयनवदनादित्वेन विकृतशरीराकृतिः तद्भेदकारकं हास्यं सीता उपहास्येन संग्रामो जात इति संप्रदायः । अन्योऽन्यं परस्परं जनितं कृतं हास्यं भवेत्, अन्योऽन्यं गमनमधिगमकं | मर्मादिस्थानकप्रापकं हास्यं भवति, तथा परस्परं गमनं दुश्चेष्टितादिकर्मप्रच्छन्नपारदार्यादि मर्मोद्घाटनं हास्यं भवेत्, कांदपिका | हास्यकारिणो देवविशेषाः भांडविशेषा वा आभियोगाश्च अभिओगा निर्देशकारिणः देवा वा तेषु गमनहेतुत्वात् तत्प्रापणगतिहेतु हास्यं
द्वितीय संवरद्वारे
सत्यव्रत
भावनाः
॥५६॥
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हासं न सेवियव्वं
भवेत्, आसुरियत्वं किल्विषत्वं च हास्यं भवेत् तद्गतिप्राप्तिहेतु हास्यं तस्मात् हास्यं न सेवितव्यं भवति,
प्राय यथा हास्यरति ः हास्यप्रियः साधुचारित्रलेशप्रभावात् देवेषु उत्पद्यमानः कांदर्पिकेषु अभिओगेषु च उत्पद्यते न महर्द्धिषु इति हास्यः अनर्थायेति उक्तं यदुक्तं
जो संजओ वि एयासु अप्पसत्थासु वह कर्हि चि सो तव्विसु गच्छइ सुरेसु भइओ चरण विहीणो ॥ १॥ कंदर्पाभिभावनानां अशुभं पश्चकं च प्रसङ्गात् गाथामेदेनाऽऽह
'कंदप्पदेव? किब्बिस२ अभिओगार आसुरिय४ संमोहा५ एसा हु अप्पसत्था पंचविहा भावणा तत्थ ॥ १ ॥
व्याख्या — कंदर्पः कामस्तत्प्रधाना नर्मादिनिरन्तरया विटप्राया देवविशेषास्तेषामियं कांदप स चासौ भावना च कांदापिकी भावना १ एवं देवानां मध्ये किल्बिषाः पापाः अतएवास्पृश्यादिधर्मका देवाश्च ते किल्विषास्तेषामियं किल्बिषीकी स चाऽसौ भावना च किल्बिषी भावना २ आ - समन्तात् आभिमुख्येन युज्यन्ते -- दास्यकर्मणि व्यापार्यन्ते इत्याभियोग्याः - किङ्करस्थानीयदेवविशेषास्तेषामियमाभियोगिकी स चाऽसौ भावना च आभियोगिकी भावना ३ असुरा- भवनपतिविशेषदेवास्तेषामियं आसुरी स चाऽसौ भावना च आसुरी भावना ४ संमुतीति संमोहा मूढात्मनो देवविशेषास्तेषामियं संमोही एषा हु-निश्चितं पश्चविधाऽपि भावना अप्रशस्ता - संक्लिष्टाभावनास्तत्तत्स्वभावाभ्यासरूपा भणितेत्यर्थः, आसां च मध्ये संयतोऽपि सन् यो यस्यां भावनायां वर्त्तते कथचिद्भावमद्यात् सात
१ प्रवचनसारोद्धार पृष्ठ १८० १ गत गाथा ६४१ वृत्तौ एतत्पद्यमुपलभ्यते । २ प्रवचनसारोद्धार पृष्ठ १७९ गत ६४१ गाथा
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ज्ञान०वि०
प्रश्न० व्या०
वृत्ति
॥५७॥
द्विधेष्वेव - कंदर्पादिप्रकारेषु देवेषु गच्छति चारित्रलेशप्रभावात् येः पुनः सर्वथा चारित्रहीनः स भाज्यो विकल्पनीयः कदाचित्तदुचि तेषु सुरेष्वेवोत्पद्यते कदाचिच्च नारकतिर्यक्षु मानुषेष्विति एताश्च पश्चाऽपि भावनाः प्रत्येकं पश्वविधाः सत्यः पञ्चविंशत्यो भवन्ति तासां मेदानाऽऽह - प्रथमपश्चविधां कान्दपभावनामाह
कंदप्पे१कुक्कुर दुस्सीलत्तेय३ हासकरणे य४ परविम्हियजणणेविअ कंदप्पोऽणेगहा तह य ॥ १ ॥
व्याख्या - कन्दर्पे १ कौकुच्ये २ दुःशीलत्वे ३ हास्यकरणे ४ परविस्मयजननेऽपि च विषये भवन्ति पञ्च प्रकाराः परमेकैका अनेकधास्तत्र उच्चैः खरेण हसनं तथा परस्परपरिहासः तथा गुर्वादिना सह निष्ठुरवाक्यं हास्यादिना स्वेच्छालापः तथा कामकथाकथनं | एवं च कुरु इति विधानद्वारेण कामोपदेशस्तथा कामप्रशंसा कंदर्पशब्देनोच्यते, कुकुचो-भांडचेष्टा तद्भावः कौकुच्यं तत् द्वेधा - कायकौकुच्यं वाक्कौकुच्यं तत्र कायकौकुच्यं यत् स्वयमेव हसन् नयनादिभिर्देहावयवैर्दास्यकारकैस्तथा चेष्टां करोति, वाक्कौकुच्यं यथापरिहासप्रधानैस्तैस्तैर्वचन जातैर्विविधजीवविरुतैर्मुखातोद्यवादितया च परं हास्यतीति २ तथा दुष्टं शीलं स्वभावो यस्य स तद्भावः दुःशीलत्वं तत्र यत्संभ्रमावेशवशात् अपर्यालोच्य द्रुतं द्रुतं भाषते यच्च शरत्काले कन्दर्पोद्धुरप्रधानाऽनस्तितबलीवर्द इव द्रुतं द्रुतं गच्छति यच्च सर्वत्राऽसमीक्षितकार्य द्रुतं द्रुतं करोति यच्च खभावस्थितोऽपि तीव्रोद्रेकवशाद्दर्पेण स्फुटं नीचवल्लवति तद् दुःशीलत्वं ३ तथा भांड इव परेषां छिद्राणि - विरुपवेषभाषणविषयाणि निरन्तरमन्वेषयन् विचित्रैस्तादृशैरेव वेषवचनैर्यद् दृष्टृणामत्मनश्च हासं जनयति
१ एतदर्थो 'जो संजओ' पद्यस्य ॥ २ प्रवचनसारोद्धार पृष्ठ १७९ गत ६४२ गाथा । ३ 'हृतं' स्थाने 'द्रुतं' प्र. सारोद्धारात् स्फुटीकृतं
Sex
द्वितीय संवरद्वारे
अशुभ पश्च
विंशति
भावना
स्वरूपम्
॥५७॥
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ASSCOORDINASIA
तत् हास्यकरणं ४ तथा परेषां विस्मयजनकैः तथा इन्द्रजालप्रभृतिभिः प्रहेलिकाकुहेटिकादिभिश्च तथाविधग्राम्यलोकप्रसिद्धैर्यत्स्वयमवि स्मयमानो बालिशप्रायजनस्य मनोविभ्रममुत्पादयति तत्परविस्मयजननं ५
अथ देवकिल्बिषीभावनामाहसुयनाणं केवलीण२ धम्मायरियाण३ संघ४साहूणं ५। माई अवण्णवाई किब्बिसियं भावणं कुणइ ॥१॥
श्रुतज्ञानस्य द्वादशांगरूपस्य १ केवलज्ञानवतां २ धर्माचार्याणां-धर्मोपदेष्तृणां ३ संघस्य-साधुसाध्वीश्रावकश्राविकासमुदायस्य४ साधूनां-यतीनां ५ अवर्णो-अश्लाघा असद् दोषोद्घाटनं वदतीति अवर्णवादी मायी च स्वशक्तिनिगृहादिना मायावी देवकिल्बिपीभावनां करोति इति वाक्यार्थः । श्रुतज्ञानस्याऽवर्णवादो यथा-पृथिव्यादयः कायाः षड्जीवनिकायाः शस्त्रपरिज्ञाध्ययनादिषु बहुशो| यथा वर्ण्यन्ते । तथा व्रतानि-प्राणातिपातनिवृत्यादीनि प्रमादा-मद्यादयः अप्रमदास्तद्विपक्षभूता भूयः भूयः कथ्यन्ते, अधिकं अधिक न किञ्चिदपि पुनरुक्तदोषः । अन्यच्च मोक्षार्थ यतितव्यमिति हेतोः किं सूत्रे सूर्यप्रज्ञप्त्यादिना ज्योति शास्त्रेण ? तथा मोक्षार्थमभ्युद्यतानां मुनीनां किं योन्यादिप्राभृतोऽपनिवन्धनेन ? भवहेतुत्वात्तस्य किं प्रयोजनमित्याद्यवर्णवादः, केवलिनामवर्णवादो यथा-किमेषां ज्ञानदर्शनोपयोगी क्रमेण भवत उत युगपत् ? तत्र यदि क्रमेणेति पक्षोऽङ्गीक्रियते, तदा ज्ञानकाले न दर्शनं दर्शनकाले न ज्ञानमिति परस्परावरणता प्राप्तव कथं निरावरणता।
अथ युगपदिति द्वितीयपक्षः कक्षीक्रियते तदप्ययुक्तः द्वयोरप्येककालत्वादेकतापत्तिः प्राप्नोति, तदा स्वखावरणक्षयात्को गुण १ प्रवचनसारोद्धार पृष्ठ १७९ गत गाथा ६४३
AAAAAAEASA
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ज्ञान०वि०
वृत्ति
इत्यवर्णवादः २ धर्माचार्याणां अवर्णवादो यथा न शोभनैतेषां जाति ते लोकव्यवहारकुशला न चैते औचित्यं विदन्ति इत्यादि विविध
द्वितीय प्रश्नाव्याला गुरून् प्रति भाषते, न चैतेषां विनयवृत्त्या वर्तते तेषां ये प्रातिकूल्यभाजस्तैः सह सांगत्यमिति,तथा अहितछिद्राण्यन्वेषयन् सर्वसमक्षं संवरद्वारे
गुरूणामेवाऽसतोऽपि दोषान् वदति सर्वदैव च तेषां प्रतिकूलतामाचरतीति ३ संघस्यावर्णवादो यथा-बहवः श्वापशुशृगालादीनां संघा- अशुभ पश्च स्तकोऽयं संघो भवतामाराध्य इति वदति ४ साधूनामवर्णवादो यथा-नाऽमी साधवः परस्परं सहन्ते, अत एव देशान्तरं परस्परस्पर्द्धया विंशति
| भ्रमन्ति अन्यथा त्वेकत्रैव संहत्या तिष्ठेयुः, तथा मायावितया सर्वदेव लोकावजनार्थ मन्दगामिनः, महतोऽपि च प्रकृत्यैव निष्ठुरास्तदैव ॥५८॥
भावना
स्वरूपम् रुष्टास्तदैव च तुष्टाः, तथा गृहिभ्यस्तैस्तैः चाटुवचनैरात्मानं रोचयन्ति, सर्वदा सर्ववस्तुसंचयपराश्चेत्यवर्णवादः ५ अन्यत्र सव्वसाहूणति पठित्वा मायीति भिन्नेव पञ्चमी भावना प्रतिपादिता यथा
गृहइ आयसहावं छायेई गुणे परस्स संतेवि । चोरोव्व सब्वसंकी गूढाचारो हवइ मायी ॥१॥ अथाभियोगीभावनां पञ्चमेदामाऽऽहकोउय १ भूइकम्मे २ पसिणेहिं ३ तह पसिणपसिणेहिं ४ तहय निमित्तेणं चिय ५ पंचवियप्पा भवे साय ॥१॥डू
व्याख्या-कौतुकेन १ भूतिकर्मणा २ प्रश्नेन ३ प्रश्नाप्रश्नन ४ निमित्तेन ५ पञ्चविकल्पा भवेत् सा आभियोगिकीभावना, तत्र कौतुकं बालादीनां रक्षादिकरणनिमित्तं स्वपनकरभ्रमण-अभिमत्रण-थूथूकरण-धूपन-विलेपनादि यत्क्रियते तत् कौतुकं १ तथा वसतिशरीरभाण्डकशय्याधान्यादिरक्षणार्थ भस्मसूत्रादिना यत्परिवेष्टनकरणं तभूतिकर्म २ तथा यत्परस्य पार्श्वे लाभालाभादि पृच्छयते ॥५॥
१ प्रवचनसारोद्धार १८१ पृष्ठ गत ६४३ गाथा वृत्तौ एतत्पद्यं । २ प्रवचनसारोद्धार पृष्ठ १७९ गत गाथा ६४४
BHARA
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HERAIBACADARAASHARAMERA
स्वयं वा अंगुष्ठदर्पणतोयखड्गतैलादिषु दृश्यते स प्रश्नः ३ तथा स्वप्ने स्वयं विद्यया कथितं घटिकाद्यवतीर्णदेवतया वा कथितं सत् यदन्यस्मै शुभाशुभजीवितमरणादि परिकथयति स प्रश्नाप्रश्नः ४ तथा निमित्तं अतीतानागतवर्तमानवस्तुपरिज्ञानहेतु नविशेष: ५५ एतानि च भूतिकर्मादीनि गौरवादिनिमित्तं कुर्वाणः साधुरभियोगनिमित्तं कर्म बध्नाति, अपवादपदेन तु गौरवरहितः समतिशय-6 ज्ञाने यतिनिस्पृहवृत्त्या यदा करोति तदाऽसौ आराधक एव उच्चगोत्रं च बध्नाति तीर्थोन्नतिकरणादिति ३।
अथासुरीभावनामेदानाऽऽह
सइविग्गहशीलतं १ संसत्ततवो २ निमित्तकहणं च ३ निक्किवियाविय अवरा ४ पंचमगं निरणुकंपत्तं ॥१॥
. व्याख्या-सदा विग्रहशीलत्वं १ संसक्ततपः २ निमित्तकथनं च३ निःकृपतापि अपरा ४ पञ्चमकं निरनुकम्पत्वं ५ सदा-सर्वद कालं विग्रहशीलत्वं पश्चादतनुतापिताया क्षमणादावपि प्रसत्य प्राप्त्या च विरोधानुबन्धः १ तथा संसक्तस्याहारोपधिशय्यादिषु सदा |
प्रतिबद्धभावस्य आहाराद्यर्थमेव तपोऽनशनादितपश्चरणं संसक्ततपः २ तथा त्रिकालिकस्य लाभालाभसुखदुःखजीवितमरणविषयस्य निमित्तस्य कथनमभिमानाभिनिवेशाव्याकरणं तथा त्रिविधनिमित्तमप्यकैकं षड्विधं तदपि द्विविधमेवेति ३ तथा स्थावरादिसत्वेष्व-8 जीवप्रतिपच्या गतघृणः कार्यान्तरन्यासक्तः सन् गमनासनादि यः करोति कृत्वा च नाऽनुतप्यते केनचिदुक्तः सन् स नि:कृपस्तद्भावो निःकृपताः ४ तथा यः परं कृपापात्रं कुतश्चिद्धेतोः कम्पमानमपि दृष्ट्वा सत्क्रूरतया कठिनभावः सन् अनुकम्पाभाग् न भवति स निरनुकम्पस्तद्भावो निरनुकम्पत्वं ५। अथ संमोहीभावनापश्चमेदानाऽऽह
उमग्गदेसणा १ मग्गदूषणं २ मग्गविपडिवित्तीय ३मोहो य मोहजणणं ५ एवं सा हवह पंचविहा ॥१॥ १ प्रवचनसारोदार पृष्ठ १७९ गत गाथा ६४५ २ प्रवचनसारोद्धार पृष्ठ १७९ गत गाथा ६४६
SABRAN-ABABASIC
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ज्ञान वि० प्रश्न०व्या
वृत्ति
ज्ञानादीन्यपडितमानी खमन
॥५९॥
सामागवाक्य मुह्यति स.
एवं मोणेण भाविओ भवइ अंतरप्पा संजयकरचरणनयणवयणो सूरो सच्चजवसंपन्नो, एवमिणं संवरस्स दारं नीर
व्याख्या-उन्मार्गदेशना १ मार्गदूषणं२ मार्गविप्रतिपत्ति३ मोहो ४मोहजननं च एवं संमोही भावना भवति पञ्चविधा, तथा संवरद्वारे पारमाथिकानि ज्ञानादीन्यषयन् एव तद्विपरीतं धर्ममार्ग यदुपदिशति सा उन्मार्गदेशना १ तथा पारमार्थिकं ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणं अशुभ पश्च भावमार्ग तत्प्रतिपन्नांश्च साधून् पंडितमानी स्वमनीषिकानिमित्तैः जातिषणैर्यद् क्षयति तन्मार्गक्षणं २ तथा तमेव ज्ञानादिमार्ग
विशति
भावनाल असदुषणैषयित्वा जमालिवद्देशतः उन्मार्ग यत्प्रतिपद्यते सा मार्गविप्रतिपत्तिः ३ तथा निःकामं उपहतमतिः सन् अतिगहनेषु ।
स्वरूपम ज्ञानादिविचारेषु यत्मुह्यति यच्च परतीर्थिकसम्बन्धिनी नानाविधां समृद्धिमालोक्य मुह्यति स संमोहः कुशास्त्राणि बहु मन्यते इत्यर्थः ४॥
तथा खभावेन कपटेन वा दर्शनाचारेषु परस्परं मोहमुत्पादयति तन्मोहजननं ५ एताश्च पञ्चविंशतिरपि भावना सम्यक्चारित्रविघ्नविधायित्वादशुभा इति हेतोः यतिभिः परिहर्त्तव्या यदुक्तं
एयाओ विसेसेणं परिहरइ चरणविग्घभूयाओ एय निरोहाउ चिय सम्मं चरणं पि पावंति ॥१॥
प्रसङ्गात् अशुभभावनाविचार उक्तः विस्तरार्थिना तु दशाश्रुतस्कन्धनियुक्तिवृत्तितोऽवसेयः इति मङ्गलं भूयात् । एवमुक्तरीत्या है हास्यप्रयोगेण वर्जितो मौनेन वचनसंयमेन भावितो भवति अन्तरात्मा-जीवः सम्यक्यतनायुक्तः करचरणनयनवदनः समाधिवान् । 5 इन्द्रियः 'शूरः-पराक्रमी' संयमयोगे सत्यार्जवसम्पन्नः। एवमित्युक्तप्रकारेण इदं उक्तं संवरद्वारं । चरितं-सेवितं भवति, सुष्ठु-शोभनतया
१ प्रवचनसारोद्धार पृष्ठ १८३ गत पद्यसदृशं पतत्पद्यं । २ अशुभ पञ्चविंशति भावनास्वरूपम् प्रवचनसाराद्धार पृष्ठ १७९-१८३ पृष्ठोपलब्ध गाथा ६४१-६४६ विवरणतो अन्युनातिरिक्त अत्रोपन्यस्तं प्रतिभाति, किन्तु प्रवचनसारोद्धारगताशुभभावनाप्रतिपादनपराणि पञ्चविंशतिपद्यानि अत्र न न्यस्तानि
RECRUA
॥५९॥
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RECIATERACTIOGRASAI
सम्म संचरियं होइ सुप्पणिहियं इमेहिं पंचहिवि कारणेहिं मणवयणकायपरिरक्खिएहिं निच्चं आमरणंतं च एस जोगोणेयब्बो धितिमया मतिमया अणासवो अकलुसो अच्छिद्दो अपरिस्सावी असंकिलिट्ठो सव्वजिणमणुन्नाओ, एवं वितिय संवरदारं फासियं पालियं सोहियं तीरियं किट्टियं अणुपालियं आणाए आराहियं भवति, एवं नायमुणिणा भगवया पन्नवियं परूवियं पसिद्धं सिद्धवरसासणमिण आघवितं सुदेसियं पसत्थं वितिय संवरदारं समत्तं तिबेमि ॥२॥ (सू०२५)
प्रणिहितं-स्थापित एभिः पञ्चभिः कारणैः मनवचनकायत्रियोगैः परिरक्षितैः नित्य-सदा आमरणान्तं-जन्मावधिपर्यन्तं, प्रशान्तयोगः ट प्रसन्नता प्राप्तो योगो ज्ञातव्यः, धृतिमता मतिमता श्रीमन्महावीरेण उक्तः अनाश्रवः, अकलुषः, अछिद्रः, अपरिश्रावी, असंक्लिष्टः,
सर्वजिनैरनुज्ञातः एवममुना प्रकारेण द्वितीयं संवरद्वारं स्पर्शितं पालितं शोधित तीरितं कीर्तितं अनुपालितं आज्ञया यथावत् आराधितं 8 भवति एवमनया रीत्या ज्ञातमुनिना भगवता प्रज्ञापितं प्ररूपितं प्रसिद्धं सिद्धवरप्रधानशासनमिदं आपवितं पूजितं कथितं शोभन
रीत्या दर्शितं प्रशस्तं द्वितीयं प्राणातिपातविरमणव्रतापेक्षया अलीकविरमणव्रतं समाप्ति प्राप्तम् ॥२॥ इति सप्तमाध्ययनविवरणं समाप्तम् ॥२॥ इत्यादि पदानि पूर्ववक्ष्याख्यातानीति ॥ इति प्रश्नव्याकरणाङ्गस्य दशमस्य सप्तमाध्ययने किञ्चित् द्वितीयसंवरद्वारार्थः ख्यात इह मयका १
॥इति प्रश्नव्याकरणे द्वितीय संवरद्वारं संपूर्णम् ॥
AOBABASAHEA5
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ज्ञान०वि० प्रश्न०व्या
॥६
॥
55ASANGEEPEASALA
॥ अथ तृतीयं संवरद्वारात्मकं अष्टममध्ययनम् ॥
तृतीय | संवरद्वारे
की अदत्तादानअथ सूत्रक्रमसम्बन्धः अनन्तराध्ययने मृषावादविरमणं उक्तं, तच्चादत्तादानविरमणव्रतानामेव अदत्तादानविरमणसुनिर्वाहे भवति । विरमण इत्यदत्तादानविरमणमभिधातव्यं भवति, इति तदनेन प्रतिपाद्यते इत्येवं संबद्धमदचादानसंवराध्ययनमारभ्यते तस्य चेदमादिसूत्रम् । स्वरूपम्
जंबू ! दत्तमण्णुण्णायसंवरो नाम होति ततियं सुव्वता! महव्वतं गुणव्वतं परदव्वहरणपडिविरइकरणजुत्तं अपरिमियमणंततण्हाणुगय-महिच्छमणवयणकलुस-आयाणसुनिग्गहियं, सुसंजमिय-मणहत्थपायनिहुयंद
जम्बृरित्यामन्त्रणं दत्तं-वितीर्ण अनादिकं अनुज्ञातं च प्रातिहारिकपीठफलकादि ग्राह्यमिति शेषः इत्येवरूपः संवरः दत्तादाना|नुज्ञातं संवरं इत्येवनामकं भवति तृतीयसंवरद्वारमितियोगः तत् कीदृशमित्याह
हे सुव्रत ! हे जम्बूनामन् ! महाव्रतमिदं तथा पुनः कीदृशं गुणानाम्-ऐहिकामुष्मिकोपकाराणां कारणभृतं व्रतं-गुणवतं कीदृशं ||४| परद्रव्यहरणं प्रति विरतिकरणयुक्तं-विरमपकारणं, अपरिमिता अपरिमाणा द्रव्यविषये या अनन्ता-अक्षया तृष्णा विद्यमानद्रव्याव्ययेPiछा तया यदनुगतं प्राप्तं तत् अपरिमिताऽनन्ततृष्णानुगतमहेच्छं यत्तत्, मनो-मानसं, वचनं-वाक् ताभ्यां यत् कलुषं परधनविषयत्वेन || पापरूपं आदानं-ग्रहणं तेन ततो वा नियमित-यत्रितं यत्तथा, पुनः कीदृशं सुष्ठु-सम्यग्तया संयमित-संवृतं मनस्तेन मनसा हेतुभूतेन | 3 ॥६॥ हस्तौपादौ निभृतौ-निश्चलौ परधनादानकार्यादुपरतौ यस्मिन् तत् अनेन विशेषणेन मनोवाक्काय निरोधः परधनं प्रति, निर्ग्रन्थं-बाधा
SASEACCIA
AOK
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ASHREEROCEREMADRAKASAUR
निग्गंधे, णेट्टिकं, निरुतं, निरासवं, निभयं, विमुत्तं, उत्तमनरवसभ-पवरबलवग-सुविहितजणसंमतं, परमसाहुधम्मचरणं, जत्थ य गामागर-नगर-निगम-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह-संवाह-पट्टणासमगयं च किंचि दव्वं मणि-मुत्त-सिलप्पवाल-कंस दूस-रयय-वरकणग-रयणमादि पडियं पम्हुह विप्पणटुं न कप्पति कस्सति से कहेउं वा गेण्हिडं वा अहिरनसुवन्निकेण समलेट्टकंचणेणं अपरिग्गहसंवुडेणं लोगंमि विहरियव्वं, जंपिय होजाहि दव्वजातं खलगतं भ्यन्तरग्रन्थिरहितं, निष्टिकं-सर्वधर्मप्रकर्षपर्यन्तवत्ति, निरुक्तं-सर्व रुपादेयतया निरुक्तं अव्यभचारि, निराश्रवं कर्मादानरहितं | निर्भयं-राजादिभयरहितं, विमुक्तं लोभदोषात्, उत्तमनरवृषभाणां प्रवरबलवतां च सुविहितजनस्य-साधुलोकस्य संमतं-अभिमतं | यस्य तत्तथा, परमसाधूनां-उत्कृष्टमुनिवराणां धर्मचरणं-धर्मानुष्ठानं यत्तत्तथा । यत्र-तृतीयसंवरद्वारे ग्राम-आगर-नगर-निगम-खेडट्र कर्बट-मडंब-द्रोणमुख-पत्तन-आश्रम, इत्यादयः शब्दाः पूर्वव्याख्याताः तद्गतं च दत्तं किञ्चिद् अनिर्दिष्टस्वरूपं द्रष्टव्यम् तदेवाह
मणि-मौक्तिक-शिला-प्रबाल-फांस्य-रुप्य[य]-रजत-वरकनक-रत्नादिसर्वद्रव्यजातं पतित-भ्रष्टं वस्त्राञ्चलादेः, विस्मृतं-मुक्तं
सन् , प्रनष्टस्वामिकं गवेषयद्भिरपि न प्राप्तं न कल्पते-न युज्यते, कस्यचित्-असंयतस्य कथयितुं-प्रतिपादयितुं अदत्तग्रहणप्रवर्तनं तू माभूदिति कृत्वा गृहीतुं-आदातुं साघोः निवृत्तत्वात् तेन साधुना दृष्टे परद्रव्ये कया भावनया वर्तितव्यं तदाह
। न विद्यते हिरण्यं-सुवर्ण यस्य तेन समे-तुल्ये उपेक्षणीयतया लेष्टु प्रस्तरं काञ्चनं च यस्य स तेन, अपरिगृहत्वात् सुसंवृत्तेन | सुसंयतेन-साधुना लोके-मर्त्यलोके व्यवहर्त्तव्यम् , यदपि च भवेत् हि-निश्चितं द्रव्यजातं-द्रव्यप्रकारः कीदृशं ? खलं-धान्यराशि
LABESASALAASABHAECA
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| खेत्तगतं रनमंतरगतं वा किंचि पुप्फ-फल-तयप्पवाल-कंद-मूल-तण-कट्ठसकरादि अप्पं च बहुं च अणुं च हूँ ज्ञान वि०
तृतीय प्रश्न०व्या०
| थूलगं वा न कप्पती उग्गहमि अदिष्णंमि गिहिउं जे, हणि हणि उग्गहं अणुन्नविय गेण्हियवं, वज्जेयव्वो वृत्ति
सव्वकालं अचियत्तघरपवेसो, अचियत्तभत्तपाणं अचियत्त-पीढ-फलग-सेन्जा-संथारग-वत्थ-पत्त-कंबल-दंड-1 अदत्तादान
ग-रयहरण-निसेन्ज-चोलपट्टग-मुहपोत्तिय-पायपुंछणाइ भायणभंडोवहिउवकरणं, परपरिवाओ, परस्स दोसो विरमण ॥६॥ | करणभूमिः तत्र गतं, क्षेत्र-सस्योत्पत्तिस्थानं तत्र गतं-प्राप्तं, अरण्यमध्यगतं, [जलगतं, स्थलगतं वा, इति पाठान्तरे] किश्चिदनिर्दिष्ट
स्वरूपम् गतं, पुष्प-फल-त्वक् प्रवालोऽङ्करः कन्दो-भूमिगतः मूलं-तदुपरिवर्ति तृणं शूकादिहरितादिर्वा, काष्ठं प्रतीतं शर्कराः कर्करादयः | ४ अल्पं-स्तोक, बहु-प्रचुर अणुं-सर्षवादि, स्थूलं-महत्प्रमाणं तथैव न कल्पते न युज्यते, अवग्रह[हे] गृहं [हे] स्थण्डिलादिरूपे अदत्ते& खामिना अननुज्ञाते गृहीतुं 'जे इति निपाते' यत् किञ्चित् निषेधे ।
अथ तहणे विधिमाह-अनुज्ञाप्य-यथेह भवदीयावग्रहे इदं च साधुयोग्यं द्रव्यं गृहीष्यामीति पृष्टे तत् खामिना एवं कुरुत इति ४। उक्तः तदा गृहीतव्यं इति खामिना गृहीतव्यम् , वर्जितव्यः सर्वकालं यथा सदा अप्रीतिमतां साधून प्रति तेषां गृहे-प्रवेशो गमनं द्र गृहगमनमित्यर्थः, अप्रीतिकारिणां यत् भक्त-अशनं पानं, अप्रीतिकारिणां संबंधि पीढफलकशय्यासंस्तारकं वस्त्रं, पात्रं, कंबलं, दण्डकं,
रजोहरणकं, निषद्या-आसनादि, चोलपट्टकः-परिधावनवस्त्रं, मुखपोत्तिका, पादरोंछनकं-ऊर्णामयकंबलखण्डः, भाजनं-पात्रं, भाण्डं| मृण्मयं पात्रं, उपधिश्च-वस्त्रादि त एव उपकरणानि-संयमसाधनानि द्वन्द्व समासः तत्सर्व परस्य परकीयं अदत्तमेतत् स्वामिनाऽननु- ॥६ ॥ ज्ञातं इति कृत्वा वर्जनीयं एव । तथा परपरिवाओ विकत्थनं वर्जनीयम् , तथा परस्य दोषो-दूषणं द्वेषो वा वर्जनीयः, तथा परदूषणभाषणं
ACAR
SHASTROTERAKHERI
SHRISTIBREAORECARCIEWERROL
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परववए सेणं जंच गेण्हइ, परस्स नासेइ जं च सुकयं, दाणस्स य अंतरातियं दाणविष्पणासो, पेसुन्नं चैव मच्छरित्तं च, जेविय पीढ-फलग- सेज्जा - संथारग-वत्थ-पाय- कंबल- मुहपोत्तिय- पाय पुंछणादिभायण भंडोवहिउवकरणं | असंविभागी । असंगहरुती, तबतेणे य, वइतेणे य रूवतेणे य, आयारे चेव भावतेणे य, सहकरे, झज्झकरे, तीर्थकर गुरुभ्यामननुज्ञातत्वेन वर्ज्य, अदत्तलक्षणं चेदं "सामीजीवादत्तं " इति लक्षणात् । तथा परस्याचार्यादेः ग्लानादेर्व्यपदेशेनव्याजेन यच्च गृह्णाति -आदत्ते वैयावृत्त्यकारादिस्तत्तेनाऽन्येन च वर्जयितव्यं आचार्यादेरेव दायकेन दत्तत्वात्, तथा परस्परसंबंधो नाशयति अपरान् अपह्नुते यच्च सुकृतं तदपि वर्जयितव्यं, दानस्य वा आन्तरायिकं विघ्नं दानविप्रनाशो दत्तादानलोपः, तथा पैशून्यंपिशुनकं, मत्सरित्वं - गुणानामसहनं तीर्थकराननुज्ञातत्वात् वर्ज्य योऽपि च पीठ - फलक - शय्या - संस्तारक - वस्त्र - कंबल - मुख पोत्तिक एतेषां शब्दानां शब्दार्थाः पूर्व व्यावर्णिता इति पादप्रच्छनादिभाजनभांडोपधि-उपकरणं इत्यादि पदार्थः जातीनां आचार्यग्लानादीनां असंविभागी एषणागुणविशुद्धलब्धं सन् न विभजते नाराधयति व्रतमिदं इति संबंधः । असंग्रहरुचिरितिकोऽर्थः ? गच्छोपग्रहकरणस्य एषणादोषविमुक्तस्य प्राप्तस्य उदरंभरित्वेन नार्पयामीति अविद्यासंग्रहे रुचिर्यस्यासौ असंग्रहरूचिः कीदृशः तपस्तेनः तपसा चौरः स्वभावतः कृशमनगारं दृष्ट्वा कश्चित्पृच्छति भोः साधो ? गच्छे मासक्षपणकः श्रुतः स त्वमेवेति पृष्टे असनपि स्वम् - आत्मानं तद्गुणवन्तं ब्रूते, अथवा धूर्त्ततया वक्ति साधवः क्षपणकारिण एव भवन्ति श्राद्धस्तु मन्यते, एवं सकलसाधुसाधारणवचनमाविष्करोति इति तेन वचस्वी पूर्व भगवान् श्रुतः स त्वं मेनेत्युक्ते आत्मानं तद्रूपं संपादयन् वचस्तेनः रूपस्तेनो यथा, तत्र रूपं द्वेषा शारीरसुन्दरता सुविहितसाधुनेपथ्यं वा यथा
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तृतीय
ज्ञान०वि० प्रश्न०व्या०
वृत्ति
॥६
॥
AEESHAARAA55
कलहकरे, वेरकरे, विकहकरे, असमाहिकरे, सया अप्पमाणभोती सततं अणुबद्धवेरे य, तिव्वरोसी, से तारि|सए नाराहए वयमिणं ।
संवरद्वारे अह केरिसए पुणाई आराहए वयमिणं ?, जे से उवहिभत्तपाणसंगहणदाणकुसले, अचंतबालदुब्बलगि- अदत्तादान| लाणवुडखवग-पवत्तिआयरियउवज्झाए, सेहे, साहम्मिके, तवस्सीकुलगणसंधचेइयतु य निजरही वेयावचं विरमण
स्वरूपम् तेऽसुविहियाय मन्ने जेसिं जल्लेण फासियं अंगं । मलिणा य चोलपट्टा दोणि य पाया समक्खाया ॥१॥
तथा आचारे साधुसामाचारीविषयस्तेनो-यथा स त्वं यः क्रियारूचिः श्रुतः इति कथिते खमुद्भावयति स आचारस्तेन(:) | भावस्य-श्रुतज्ञानादिविशेषस्य स्तेनश्चौरः, तथा शब्दकरो रात्रौ महता शब्देन उच्चारयन् गृहस्थभाषया भाषको वा, येन गणस्य भेदो भवति तद्वाक्यं ब्रूते स झञ्झकरः, कलहहेतुकृद्वाक्यं जल्पति स कलहकरः, वैरं-विग्रहस्तत्कथाकारी वा वैरकरः, ख्यादिकथाकारी, असमाधि-चित्तोद्वेगं करोति इत्यसमाधिकरः तथा, सदा-सर्वदा अप्रमाणभोजी-द्वात्रिंशत्कवलाधिकाहारी, सततं-निरन्तरं अनुबर्द्ध-प्रारम्धं वैरकर्म-प्रत्यर्थिभावं येन स तथा, तीव्ररोपी-सदाकोपः, स तादृशः-पूर्वोक्तस्वरूपः नाराधयति एतद्वत-निरतिचाररूपं अदत्तादानविरमणव्रतमिति गम्यम् ,
अथ कीदृशः सन् एतद्वतमाराधयति प्रश्नार्थः १ अथ परिप्रश्नार्थे योऽसौ उपधि-भक्तपानसंग्रहणं मिलितवस्तुनः दानं साधर्मिक-2 जनेभ्यः, तयोः कुशलो-विधिज्ञो यः स आराधकः, अत्यन्तं यो बाल:-सप्ताष्टवर्षीयः अव्यञ्जनजातो वा, दुर्बलो-कृशाङ्गः, यस्य भक्तं ॥२॥ भुक्तं सत् सप्तधातुतया न परिणमति-न जीर्यते स ग्लानः, वृद्धः षष्ठिहायनः पर्यायेण वा, क्षपको-विकृष्टतपस्वी मासक्षपणादि
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BHASAASHAILE
अणिस्सियं बहुविहं दसविहं करेति, न य अचियत्तस्स गिहं पविसइ, न य अचियत्तस्स गेण्हइ भत्तपाणं, न य अचियत्तस्स सेवइ, पीढ-फलग-सेन्जा-संथारग-वत्थ-पाय-कंवल-डंडग-रयहरण-निसेज-चोलपट्टय-मुहपो. त्तिय-पायपुंछणाइ-भायण-भंडोवहिउवगरणं न य परिवायं परस्स जंपति, ण यावि दोसे परस्स गेण्हति, निरन्तर कर्ता, सीदन्तं प्रति चरणधर्म प्रवर्त्तते प्रवर्त्तावयति स प्रवर्तकः, आचार्यो-गणनेता सदाचार चरति स्वयं अन्यानाचरयति | स आचार्यः, उप-समीपे सूत्रार्थमध्यापयति इत्युपाध्यायः, अभिनवप्रव्रजितः शैक्षा, एकश्रद्धारुचिः साधर्मिकः श्रुतलिंगप्रवचन
रिति, तपस्वी विकृतित्यागी चतुर्थादि भक्तकारी वा, कुलं चांद्रादिकं, एकाचार्यचाचनीकसमुदायः गणो, गच्छ: कौटिकादि, | तत्समुदायभक्तिकृत् संघः, चैत्यानि-जिनप्रतिमा एतासां योऽर्थः प्रयोजनं यस्य स तथा तत्र च निर्जरार्थी-कर्मक्षयंकर्तुकामः, |वैयावृत्य-व्यावृत्तं निराकृतकर्मरूपं उपष्टंभादीनां । अनिश्रितं-यश-कीर्त्यादी(दि)वाञ्छानिरपेक्षम् , बहुविधं-बहुपकारं यद्यस्योचितं | दश प्रकारं कुर्वन्ति यतः॥ यावचं वावडभावो इय धम्मसाहणनिमित्तं, अन्नाइयाण विहिणा संपायणमेस भावत्थो ॥१॥ | अरिहंती सिद्धर चेइय३ आयरिय४ गिलाण५ सेहाणं साहम्मिय७ कुल८ गण९ संघ१० संगयं तमिह कायब्वं ।।
बहुविध-भक्तपानदानभावनानेकप्रकारं करोतीति, तथा न च-नैव अप्रीतिकारिणो गृहं प्रविशति, नैव अप्रीतिकर्तः गृहे भक्तअशनं पानं ग्राहयेत् , न च अप्रीतिकर्तुः सेवते पीठ-फलक-शय्या-संस्तारक-वस्त्र-पान-कंबल-दंडक-जोहरण-निषद्या-चोलपट्टक मुखवस्त्रं पादपोंछनकं भाजनानि-पात्रादीनि, भाण्डं, उपधिः, उपकरणं । न च परिवाद-परदोषं चाटुवाक्यं वा परस्य-अन्यस्य जल्पति
१ अन्यत्र तु 'आयरिय १ उवज्झाए थेर तवस्सी' हति पूर्वपादं । २ मुहपत्ति इति भाषा ।
GOESSAGAR
A
GEKASAR
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स्वरूपम्
दापरववएसेणवि न किंचि गेण्हति,न य विपरिणामेति किंचि जणं म यावि णासेति, दिन्नसुकयं दाऊण य न होइ
तृतीय HOMपच्छाताविए संविभागसीले संग्गहोवग्गहकुसले से तारिसते आराहते वयमिणं ।
*संवरद्वारे वृत्ति इमं च परदव्वहरणवेरमणपरिरक्खणट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहितं, अत्तहितं, पेच्चाभावितं, आगमे काअदचादान सिभई, सुद्धं, नेयाउयं, अकुडिलं, अणुत्तरं, सव्वदुक्खपावाण विओवसमणं ।
विरमण ॥६३॥ | भाषते, न चापि परदोषान् गृह्णाति, परव्यपदेशेन-ग्लानादिव्याजेनापि न किञ्चिद्गृह्णाति एतावता मायां पिधाय किमपि न गृह्णति
भावना | (गृह्णाति), न च केषामपि चेतः विपरिणमति-दानादिधर्माद्विमुखीकरोति किश्चिदपि जनं, नापि नाशयति अपलपनद्वारेण, किश्चिदपि सुकृतं दत्तं एतावता परगुणान् प्रकटीकुरुते न तु तदपलपनम् , देयं-वैयावृत्यादिकार्य दत्त्वा-कृचापि न भवति पश्चात्तापिक:-पश्चा-1X तापवान् , कृतं नोपचारयति-संविभागकारी भवति उपध्यादिद्वादशविधानां साधर्मिकेभ्य इति शेषः, संग्रहे-शिष्यादिसंग्रहे उपग्रहे तेषामेव भक्तश्रुतादिदानेन उपष्टंभतया अवलंबने कुशलो-दक्षः सः-पूर्वोक्तः, तादृशः-तादृशगुणयुक्तः साधुः आराधको-गृहीतप्रतिपालको भवति, इदं व्रत-अदत्तादानविरतिलक्षणं तृतीयं व्रतम्
इमं वचनं परद्रव्यहरणविरमणस्य परिरक्षणं-पालनं स एव अर्थ:-प्रयोजनं यस्य स तथा तस्यैव, प्रवचनमिदं प्रावनिक, भगवता-श्रीमहावीरस्वामिना, सुष्ठु-उपकारखुङ्ख्या कथितम् , आत्मनः हितकारकम् , प्रेत्य-परलोकेऽपि भावित-वासितम् , आगामिकाले भद्र-कल्याणकारि आसन्नसिद्धत्वात् , शुद्धं-निर्दोषम् , न्यायोपपन्नम् , अकुटिलं ऋजुत्वेन युतम् , अनुत्तरं-नास्ति उत्तरं-प्रधानं |
॥६३॥ अस्मात् व्रतादुपरि इति, सर्वदुक्खपापानां व्युत्सर्जनकारक-नाशकम् ,
BASAALKARORA
BHARASHISHNAGARLASSA
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BASEASIROEASANAPAR
तस्स इमा पंच भावणातो ततियस्स होंति परदव्वहरणवेरमणपरिरक्खणट्ठयाए, पढम देवकुल-सभाप्पवा-वसह-रुक्खमूल-आराम-कंदरागर-गिरिगुहा-कम्मउज्जाण-जाणसाला-कुवितसाला-मंडव-सुन्नघर-सु८ साणलेणआवणे अन्नंमि य एवमादियंमि दग-महिय-बीज-हरित-तसपाणअसंसत्ते अहाकडे फासुए विवित्ते पसत्थे उवस्सए होइ विहरियव्वं, आहाकम्मबहुले य जे से आसित-संमजि-ओवलित्तसोहिय-छायण-दूम
तस्य-उक्तरूपस्य इमकस्येति-अस्यैवादत्तिविरतिरूपस्य, पंचसंख्याका भावना-संयमशरीरे व्रतवासनारूपाः तृतीयव्रतस्य भवन्ति परद्रव्यहरणविरमणपरि-सामस्त्येन रक्षणार्थ, तत्र प्रथमां वस्तुविविक्तवासोनाम्नी भावनामाह-देवकुलं यक्षादिग्रह, सभामहाजनस्थानं, प्रपा-पानीयशाला, आवसथं-परिव्राजकस्थानम् , वृक्षमूलं प्रतीतम् , माधवीलतादियुक्तदंपतीरमणाश्रयो वनविशेष:आरामः, कंदरा-दरी, आकरो-लोहायुत्पत्तिः (त्तिस्थानम् ), गिरिगुफा प्रतीता, कर्म-लोहादि परिकर्म्यते-क्रियते तत् परिकर्म, उद्यानं-पुष्पादिमवृक्षसंकुलं उत्सवादौ बहुजनभोग्यम् , यानशाला-रथादीनां रक्षणगृहम् , कुप्यशाला-गृहोपकरणशाला, मंडप:यज्ञाद्युत्सवे (निर्मितवस्त्रगृहविशेषः), शून्यगृह-निर्मानुषं (निर्मानुषनिशान्तम् ), श्मशानं-मृतकजनप्रेतभूमिः, लयनं-शैलगृहम् , आपणः-पण्यस्थानम् ततः समाहार द्वन्द्वः, अन्यस्मिन्नपि-एवं प्रकारे उपाश्रये विहर्त्तव्यम् इति । किंभूते उपाश्रये ? दकमुदकम् , मृत्तिका-पृथिवीकायरूपा, बीजानि-शाल्यादीनि, हरितानि-दुर्वादीनि, साप्राणाः[पाणिनः] द्वीन्द्रियादयः तैः असंसक्तोऽनायुक्तः (तस्मिन्निति), यथाकृते-गृहस्थेन स्वार्थ निष्पादिते, प्राशुके-निर्जीवे, विविक्ते-ख्यादिदोषरहिते, अतएव प्रशस्ते-शुभनिमित्ते उपाः | श्रये-वसतौ भवति विहर्तव्यं-आश्रितव्यं शयनादि वा विधेयम् । यस्मिन् स्थाने न वसितव्यं तदाह-आधया-साधुमनस्याधाय
40339EOSEELA
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तृतीय संवरद्वारे
अदत्तादान विरमण भावना स्वरूपम्
णलिंपण-अणुलिंपण-जलण-मंडचालण अंतो बहिं च असंजमो जत्थ बढ़ती संजयाण अट्ठा वजेयम्बो हु उवशान वि० प्रश्न०व्या०
स्सओ से तारिसए सुत्तपडिकुठे। एवं विवित्तवासवसहिसमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा निचं अहिवृति करणकरणकारावणपावकम्मविरतो दत्तमणुन्नायओग्गहरुती ।
वितीयं आरामुजाणकाणणवणप्पदेसभागे जं किंचि इकडं वा कठिणगं च जंतुगं [जवगं] च परामेरकुच्च॥६४॥ आश्रित्य तया पृथिव्याद्यारंभः क्रियते तदाधाकर्म तेन बहुलं-बहुप्रचुरं यत्र स तथा एवंविधोपाश्रयो वर्व्यः, अनेन मूलगुणदूषितस्य
परिहारः उक्तः। पुनः कीदृशम् आ-ईषत् सितं-सिश्चितम् , संमार्जितम् कचवरापनयेन, उपलिप्तं-उत्कषितं जलाभिसिञ्चनेन, शोभि
तम् वन्दनमालाचतुष्कपूरणादिना, छादनं-उपरि दर्भादिना छादनम् , दुमनं-सेढिकया धवलनम् , लिपनं छगणादिना, सकृत में लिप्तायाः भूमः (मे:) पुनर्लेपनं अनुलेपनम् , शीतापनोदाय वहेज्वलनं, भांडपालनं-प्रकाशहेतो जनानामितस्ततः करणं समाहार|| द्वन्दः, अन्तर्मध्येबहिश्योपाश्रयस्य तत्र असंयमो-जीवविराधना यस्मिन् उपाश्रये वर्तते, संयतानां साधूनां अर्थाय हेतवे तादृशः 3 | सावद्योपाश्रयो वसतिः वर्जनीय इत्यर्थः । हु निश्चयेन स तादृशः सूत्रप्रतिक्रुष्टः-आगमनिषिद्धः । एवं-उक्तप्रकारे विविक्ते-एकान्ते वासः-स्थानं वसतिर्यस्य स ससमितियोगयुक्तो भावितो-वासितः अन्तरात्मा जीवः, निच्च-सदा, अधिकरणकारापणानुमतिपापकर्मविरतो-निवृत्तः सन् दत्तं स्वाम्यादिभिः अनुज्ञातः-सूत्रोक्तस्तादृशो योऽवग्रहो-ग्रहणाय वस्तु तत्र रूचिर्यस्यासौ साधुः इति प्रथमभावना ॥१॥
द्वितीयामाह अनुज्ञातसंस्तारग्रहणात्मिका, आरामः उद्यानम्, पूर्व व्याख्यातौ नगरासर्व सामान्यवृक्षोपेतं काननम् , नगराद्
VASHISHASRECARECRABAR
5-SECCASINE
॥६४॥
SS
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BHARASHIEWERECTEGORIES)
कुसडब्भ-पलालमूयगपब्वय-पुष्फ-फल-तय-प्पवाल-कंद-मूल-तण-कट्ठ-सकरादीगण्हइ सेजोवहिस्स अट्ठा न कप्पए उग्गहे अदिन्नंमि गिण्हेउ जे हणि हणि उग्गहं अणुनविय गेण्हियव्वं एवं उग्गहसमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा निचं अहिकरणकरणकारावणपावकम्मविरते दत्तमणुनायओग्गहरुती। दरवर्ति वनम् , एतेषां यः प्रदेशो-विभागस्तत्र यत्किञ्चिद्ग्रहणीयं वस्तु भवति तदाह इक्कुडं-तृणविशेषः, कथिनक-पंड(इ)तृणं, जलाशयगतं तृण, पराः-तृणविशेषाः, मेरा-मुंजसरिका, कूर्चा-येन तृणविशेषेण कुविन्दाः कूर्चान् कुर्वन्ति, कुशदर्भयोः आकारभेदः तथा बहुमूलो दर्भः अमूलः कुशः, पलालं-व्रीहिकंग्वादिधान्यानां तुषाः, मूयका:-मेदपाटदेशजातयस्तृणविशेषाः, पर्वजास्तृणविशेषाः ग्रन्थिजातयः, पुष्पफल-त्वक्-प्रवाल-कंद-मूल-तृण-काष्ट(ष्ठं) शर्करा:-कर्कराः प्रतीता एव पुनस्ता आदिर्यस्य तत्तथा गृह्णाति, | किमर्थं गृह्णाति तदाह-शय्या-उपधिः संस्तारकरूपस्य उपरि अधो वा चकारार्थः तदर्थ-तत् हेतवे गृह्णाति न कल्पते-न युज्यते । | अवग्रहे अनुज्ञातेऽपि उपाश्रये मध्यगततृणाद्यपि अनुनां विना गृहीतुं न कल्पते एतावता तदपि न ग्राह्यम् , एतदेवाह यत्किञ्चिदपि । विलोक्यते (यस्मिन्) तत् (अहःतस्मिन्) अहनि अहनि-प्रतिदिनं उपाश्रयाद्यनुज्ञावत् सर्व अनुज्ञाप्य गृहीतव्यम् , एवं-उक्तसूत्रनीत्या अवग्रहसमितियोगेन, भावितो-वासितो भवति अंतरात्मा जीवः नित्यं-सदा, अधिकरणकारापणपापकर्मविरतो, दत्त-अनुज्ञातावग्रहरुचिः द्वितीया भावना २
१ भाषा रोहीसादि ॥ २ डीलोचिहो इति भाषा
COBHASPARAGAARAK
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ज्ञान०वि०
प्रश्न०व्या० वृत्ति
॥६५॥
ततीयं पीढफलगसेज्जासंधारगट्टयाए रुक्खो न छिंदियव्वो न छेदणेण भेयणेण सेज्जा कारेयव्वा जस्सेव | उवस्सते वसेज्ज सेज्जं तत्थेव गवेसेज्जा, न य विसमं समं करेज्जा, न निवायपवाय उस्सुगत्तं न डंसमसगेसु खु | भियव्वं अग्गी धूमो न कायव्वो, एवं संजमबहुले संवरबहुले संवुडबहुले समाहिबहुले धीरे कारण फासयंतो सययं अज्झप्पज्झाणजुत्ते समिए एगे चरेज्ज धम्मं, एवं सेज्जासमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा निच अहिकरण-करणकारावण- पावकम्मविरते दत्तमणुन्नायउग्गहरुती ।
तृतीया भावना वस्तुशय्यापरिकर्मवर्जना नाम, तच्चैवंप्रकारेणाह - पीठफलकशय्या संस्तारकार्थनाय वृक्षस्तरुर्न छेदि - तव्यः, तद्भूम्याश्रितवृक्षादीनां कर्त्तनेन पापाणादीनां च भेदनेन शय्या -शयनीयं न कारयितव्यम् (व्या), तथा यस्यैव-गृहपतेः | उपाश्रये - वसतौ वसेत् - निवासं करोति शय्यां शयनीयं तत्रैव गवेषयन् न च विषमा ( मां) अतिसमां कुर्यात्, न निर्वातप्रवातोत्सुकत्वं कुर्यात्, उत्सुकत्वं- हा ! कथं स्यात् एवं न कार्यम्, न च दंशमशकेषु विषये क्षुभितव्यम्, ततश्च दंशाद्यपनयनार्थ अग्निधूमौ वा न कर्त्तव्यौ । एवं-उक्तप्रकारेण संयमबहुल :- पृथिव्यादियतनाप्रवरः प्राणातिपाताद्याश्रवद्वारनिरोधः संवरः तत्प्रचुरः, कषायेन्द्रियजयन | दमनबहुल:, समाधिः - चित्तस्वास्थ्यम् तेन बहुलः, धीरो- बुद्धिमान्, अक्षोभ्यो वा परीषहोपसर्गादिकं कायेनास्पृशत् न मनोरथमात्रेण तृतीयं संवरद्वारम् सततं - निरन्तरम् अध्यात्मनि - आत्मानमधिकृत्य आत्मालंबनं ध्यानं - चित्तनिरोधस्तेन युक्तो यः स तथा, तत्रात्मध्यानं अमुकोsहं, अमुकसिस्से, अमुकधम्मट्ठाणहिए तव्विराहणेत्यादिरूपं समितः समितिभिः एको (S) सहायोऽपि रागाद्यभावात् चरेत् - अनुतिष्ठेत् धर्म - चारित्रधर्म एवं शय्यासमितियोगेन भावितो - वासितो भवति अन्तरात्मा जीवः नित्यं सदा
HONG
तृतीय
| संवरद्वारे
अदत्तादान
विरमण
भावना
स्वरूपम्
॥६५॥
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चउत्थं साहारणपिंडपातलाभे सति भोत्तव्वं संजएण समियं न सायसूपाहिक, न खद्धं, ण वेगित, न तुरियं, न चवलं, न साहसं, न य परस्स पीलाकरसावजं तह भोत्तव्वं जह से ततियवयं न सीदति, साहारण| पिंडपायलाभे सुहुमं अदिन्नादाणवयनियमवेरमणं, एवं साहारणपिंडवायलाभे समितिजोगेण भावितो भवति
अंतरप्पा निचं अहिकरणकरणकारावणपावकम्मविरते दत्तमणुन्नायउग्गहरुती। ४| अहिकरणकारापणपापकर्मविरतः, दत्त-अनुज्ञात-अवग्रहरुचिः इति तृतीयभावना ३
____ अथ चतुर्थीभावनावस्तु अनुज्ञातभक्तादिभोजनलक्षणं नाम, तच्चैवंप्रकारेणाऽऽह सूत्रकार इति, साधारणः-संघाटिकादिसाधर्मिकस्य सामान्यो यः पिण्डः तस्य च-पतद्गृहलक्षणस्य पात्रे-वाधिकरणे लाभो-दायकात् सकाशात प्राप्तिः स साधारणपिंडमात्र. लाभस्तत्र सति भोक्तव्यम्-अभ्यवहर्त्तव्यम् , परिभोक्तव्यं च केन कथमित्याह-संयतेन-साधुना सम्यग् यथादत्तादानं वसति()भवति
तथा सम्यक्त्वमाह न च शाकम्पादिकं साधारणस्य पिण्डस्य शाकम्पाधिके भागे भुज्यमानं साधारणसंघाटिकादिषु प्रीतिरुत्पद्यते वन खद्धं २ प्रचुरं ३ भोजने अप्रीतिरेव, न वेगितं ग्रासस्य गलने वेगवत् , न त्वरितं मुखक्षेपे, न चपलं चपलहस्तग्रीवादिरूपकायचलनवत् है
न साहसमवितर्कितम् , अतएव न च परस्य पीडाकरं च तत् सावधं चेति परपीडाकरं सावद्यं किं बहुनोक्तेन तथा भोक्तव्यं संयतनेन | नित्यं यथा से तथा संयतस्य तृतीयं व्रतं दत्तम् न सीदति-न भ्रंशति, साधारणपिण्डपात्रलाभे साधारणसंघाटिक-आहारोपधिवस्त्रादिलामे सति सूक्ष्म-सुनिपुणं अतिशयेन रक्षणीयत्वादणु अदत्तादानविरमणलक्षणेन कुत्रापि नियंति य मणसा इति पाठः । तत्र अदतादानविरमणलक्षणव्रते नियंत्रितं वशीकृतं मानसं यस्य स तेन, एवं साधारणपिण्डपातलाभे सति समितियोगेन भावितो-वासितो |
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GASURECAREAKING
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ज्ञान०वि०४
कृत्ति
पंचमगं साहम्मिए विणओ पउंजियव्वो, उवकरणपारणासु विणओ पंउजियव्वो, वायणपरियणासुल
तृतीय |विणओ पउंजियव्वो, दाणगहणपुच्छणासु विणओ पउंजियव्वो, निक्खमणपवेसणासु विणओ पउंजियव्वो, |संवरद्वारे प्रश्न०व्या०&
अन्नेसु य एवमादिसु बहुसु कारणसएसु विणओ पउंजियव्वो, विणओवि तवो तवोवि धम्मो तम्हा विणओ | अदत्तादान पउंजियव्वो, गुरुसु साहसु तवस्सीसु य, विणओ पउंजियव्वो एवं विणतेण भाविओ भवइ अंतरप्पा णिचं विरमण
भावना भवति अन्तरात्मा जीवः नित्यं सदा अधिकरणकारापणपापकर्मविरतः दत्तं अनुन्नातं अवग्रहरुचिः भवतीति चतुर्थीभावना ॥६६॥
स्वरूपम् पञ्चमीभावनामाह किं नाम वस्तु साधर्मिकविनयकरणभावनाप्रकारमाह-साधर्मिकजनेषु विनयः प्रयोक्तव्यः, आत्मनो वा F अन्यस्य उपकारणं ग्लानाद्यवस्थायां स्वयं करणं अन्येन उपकारणं तथा तपसः श्रुतस्कन्धादिश्रुतस्य व्यापारगमनं पारणा तयोविनयः
प्रयोक्तव्यः, विनयश्चेच्छाकारादिदानेन बलात्कारपरिहारादिलक्षणेन एकत्रान्यत्र च गुर्वनुज्ञया भोजनादिकृत्यकारिण इत्यादिरूपो विनयः कर्त्तव्यः। तथा वाचना सूत्रग्रहणं, परावर्तना गुरुदत्तसूत्रस्यैव गुणनं तयोविनयः प्रयोक्तव्यः वंदनदानादिलक्षणः, तथा दानं लब्धस्यानादेर्लानादिभ्यो वितरणं ग्रहणं तस्यैव पारणदीयमानस्यादानं पृच्छना विस्मृतस्त्रार्थप्रश्नः एतासु विनयः प्रयोक्तव्यः, तत्र दानग्रहणयोः गुर्वनुज्ञालक्षणः पृच्छनासु यानुवंदनादिदानस्तद्रूपो विनयः निर्गमनं वसतेः प्रवेशनं तत्रैव तयोविनयः आवश्यिकी निषेधिक्यादिकरणं अथवा हस्तप्रसाधनपूर्वकं भूप्रमार्जनानंतरं पादनिक्षेपणम् तथा अन्येष्वपि एवमादिषु बहुष्वपि बहुप्रकारेण शतेषु विनयः प्रयोक्तव्यः कर्तव्यः, कस्माद्धेतोः एवं विनयः सर्वत्र प्रयोक्तव्यः केवलं विनय एव न किन्तु विनयस्तपः अभ्यन्तरतपोभेदेषु पठित
॥६६॥ त्वात् पुनः विनयो धर्मः संयमो वा तस्य चारित्रांशत्वात् तस्मात् कारणात् विनयः प्रयोक्तव्यः, केषु ? इत्याह-गुरुषु-पूज्येषु साधुषु
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BASAASARGEASEASESSIS
अधिकरणकरणकारावणपावकम्मविरते दत्तमणुनायउग्गहरूह । एमिणं संवरस्स दारं सम्म संचरियं होह सुप. णिहियं एवं जाव आघवियं सुदेसितं पसत्थं ॥ (सू० २६) ततियं संवरदारं समत्तंतिबेमि ॥शा गुणज्येष्ठेषु तपस्विषु च-अष्टमादिक्षपणादिकारिषु वा विनयः प्रयोक्तव्यः । एवं-उक्तप्रकारेण विनयेन भावितो वासितो भवति यस्य | अन्तरात्मा जीवः नित्यं-सदा अधिकरणकारापणपापकर्मविरतः दत्तमनुज्ञाताऽवग्रहरुचिर्भवतीति पंचमी भावना
एवं उक्तनीत्या इदं व्याख्यानं यत् संवरस्य तृतीयाश्रवादत्तादानविरमणरूपस्य सम्यक् प्रकारेण आचरितं भवति ।
"एवमिण संवरस्सदारं सम्म संचरिय होइ सुप्पणिहि कारणेहि मणवयणकायपरिरक्खिएहिं णिचं आमरणंतं च एस जोगो णेयम्बो घितिमता मतिमता अणासवो अकलुसो अछिद्दो अपरिस्सावी असंकिलिट्ठो सुसुद्धो सव्वजिणमणुनाओ एवं ततियं संवरदारं फासियं पालिय सोहियं तीरियं किट्टियं सम्मं आराहियं आणाए अणुपालितं भवति एवं णायमुणीणा भगवया पण्णवियं परूवियं पसत्थं पसिद्धं सिद्धवरसासणमिणं आपवियं सुदेसियं तइयं संवरद्वारं संमत्त" । इदं सर्व निगमनसूत्रं पुस्तकेषु किश्चित् साक्षादेवं व्याख्यातमस्ति कुत्रचिन्न लिखितं अर्थस्तु प्रथमसंवरद्वारे व्याख्यातमस्ति ततोबसेय इतिशब्दः-परिसमाप्तौ पूर्ववदेव वाच्यः समाप्तमष्टमाध्ययनविवरण श्रीप्रश्नव्याकरणांगस्य दशमस्य चाष्टमाध्ययनं व्याख्यातं च सदर्थ
तृतीयं संवरद्वारं । इति तृतीयं संवरद्वारं । इति श्रीमद् ज्ञानविमलसूरीश्वरविरचिते प्रश्नव्याकरणे तृतीयं संवरद्वारं समाप्तं
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ज्ञान०वि०
प्रश्न० व्या०
वृचि
॥६७॥
॥ अथ चतुर्थं संवरद्वारात्मकं अष्टममध्ययनम् ॥
अथ सूत्रक्रमसंबंधः व्याख्यातं तृतीयं संवराध्ययनं, अथ चतुर्थं ब्रह्मचर्यसंवराध्ययनमारभ्यते, अस्य च पूर्वेण सह सूत्रक्रमतं एवं | संबंधो यदनन्तराध्ययनेऽदत्तादानविरमणाभिधान संवरभणनानंतरं बंभचेरंति- ब्रह्मचर्याभिधानं संवरद्वारं उच्यते इति शेषः । किं रूपं तत् ब्रह्मचर्यसंवरस्येति प्रस्तावनासूत्रमाह
जंबू ! एतोय बंभचेरं उत्तमतवनियमणाणदंसणचरित्तसम्मत्तविणयमूलं, संयमनियमगुणप्पहाणजुत्तं, हिम
ब्रह्मणा - शीलेन, ज्ञानेन वा चरणं प्रवर्त्तनं ब्रह्मचर्यं एतावता सुशीलानामेव ब्रह्मचर्यं कुशीलानां नैवेत्यागतम् । जम्बूरित्या मंत्रणं शिष्यस्य, इतोऽदत्तादानविरते, "च" पुनरर्थे, चतुर्थ संवरद्वारं ब्रह्मचर्याभिधानं, तत् कीदृशं उदाराः - प्रधानाः ये तपःप्रभृतयः तथा तपोऽ-नशनादि, नियमाः - पिण्डविशुद्ध्यादयः उत्तरगुणाः, ज्ञानं-विशेषबोधो वस्तुनः, दर्शनं - सामान्यबोधा (घोs)वलोकनं, चारित्र - सावद्ययोगविरतिलक्षणम् मिथ्यात्वमोहनीयक्षयोपशमजनितजीव परिणामः सम्यक्त्वम्, विनयः - अभ्युत्थानोपचाररूपः, एतेषां पदानां द्वन्द्वस्तेषां मूलमिव मूलं कारणं यत्तत्तथा । पुनः कीदृशं संयमाः - अहिंसादयः, नियमाः - द्रव्याद्यभिग्रहाः पिण्डविशुद्ध्यादयो वा ते गुणानां मध्ये प्रधानास्तैर्युक्तं तत्तथा । पुनः कीदृशं ? हिमवतः - पर्वतविशेषः तस्मादपि महत् तेजस्विकं एता
चतुथ संवरद्वारे
ब्रह्मचर्य
स्वरूपम्
॥६७॥
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C
LAOBASABHASHASASHALAX
वंतमहंततेयमंतं, पसत्थगंभीरथिमितमज्झं, अजवसाहुजणाचरितं, मोक्खमग्गं विसुद्धसिद्धिगतिनिलयं, सासयमव्वाबाहमपुणब्भवं, पसत्थं, सोम, सुभं, सिवमचलमक्खयकर, जतिवरसारक्खितं, सुचरियं, सुसाहिय, नवरि वता व्रतानां मध्ये महत् गुरुकं यतः
"व्रतानां ब्रह्मचर्य हि निर्दिष्टं गुरुकं व्रतम् । तज्जन्यपुण्यसंभारसंयोगात् गुरुरुच्यते" ॥१॥ अन्यैरप्युक्तं"एकतश्चतुरो वेदाः ब्रह्मचर्य च एकतः। एकतः सर्वपापानि, मद्यं मांसं च एकतः" ॥१॥ इति वचनात्
अतएव प्रशस्तं-शोभनं गंभीरं-अतुच्छं, कातरैर्दुरनुचरत्वात् स्तिमित-स्थिरं मध्यं देहिनः अन्तःकरणं यत्तत्तथा एतावता | कुशीलानां लब्धिः सिद्धिश्चापि न । ततएव आर्जवैः-ऋजुतागुणोपेतैः साधुभिः आचरितं-आसेवितम् , पाठान्तरव्याख्याने प्रशस्तै | गंभीरैः ऋक्ष्या स्थिरमध्यैः मध्यस्थै रागद्वेषानाकुल(लि)तैरेतादृशै() साधुजनैः सेवितमित्यर्थः मोक्षगतेर्मार्ग तत्प्रापकत्वात् , अथवा
तादृशैः साधुजनैराचरितं मोक्षमार्ग यत् तत् , विशुद्ध(द्धा)-रागद्वेषादिदोषाभावतो निर्मला या सिद्धि()-कृतकृत्यता सैव गम्यमानत्वात् | विशुद्धसिद्धिगति() जीवखरूपं तस्य(:)निलयं-स्थानं, "सिद्धानां गति(क) सिद्धिरेवेति वचनात्" । शाश्वतः(त) साद्यपर्यवसितत्वात् , अव्यावाधः(ध) क्षुधादिवाधारहितत्वात् , अपुनर्भवं पुनः संसाराभावात् , प्रशस्तं-प्रधानं उक्तगुणसद्भावात् , सौम्यं-रागाधभावात् ,
शुभं-सर्वप्रियत्वात् , शिव-विघ्नाभावात् , अचलं-स्पंदनादिक्रियाशून्यम् , अक्षतं पूर्णमासीचंद्रवत् आह्लादकर तादृशं ब्रह्मचर्यव्रतं यतिकारैः संरक्षित-पालितं, सुचरितं-शोभनानुष्ठानं, सुष्टु साधितं-शोभनतया प्रतिपादितं-कथितं, नवरं-केवलं, मुनिवरैर्महर्षिभिः, महा
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Ru
चतुर्थ
| संवरद्वारे ब्रह्मचर्य स्वरूपम्
मुणिवरेहिं महापुरिसधीरसूरधम्मियधितिमंताण य सया विसुद्धं सव भव्यजणाणुचिन्नं, निस्संकिय, निम्भय, शान०वि० प्रश्न०व्या०
नित्तसं, निरायासं, निरुवलेवं, निव्वुतिघरं, नियमनिप्पकंप, तवसंजममूलदलियम्म, पंचमहव्वयसुरक्खियं, वृत्ति मा पुरुषैः जात्यादिगुणोपेतैः, धीराः-उत्तमाः, धीराणां मध्येऽपि शूरा-चात्यंतमहासचधनाः, ते च, धार्मिका धर्मशा(शी)लाः, धृति
मंतो-धैर्यवंतः तेषामेव कर्मधारयः तादृशानां सदा विशुद्धं-निर्दोष । अनेन किं साधितं ॥६८॥ "अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गो नैव च नैव च, तस्मात्पुत्रमुखं दृष्ट्वा पश्चाद्धर्म चरिष्यसि"इति निरस्तम् अतः तदुक्तं
___ "अनेकानि सहस्राणि कुमारब्रह्मचारिणाम् , दिवंगतानि विप्राणामकृत्वा कुलसंततिम्"
अतः शीलं सदा विशुद्धम् , सर्वभव्यजनानुचरितं भव्यकल्याणयोग्यमित्यर्थः, निशंकितं-अशंकितं ब्रह्मचारी हि सर्वजनानां निःशंकनीयो भवति विषयनि:स्पृहत्वात् , निर्भयं-ब्रह्मचारी हि निर्भयो भवति, निस्तुष-विशुद्धतंदुलकल्पम् , निरायासं-न खेदकासरकं, निरुपलेपं-स्नेहरहितम् , निवृत्तिः-चित्तस्वाथ्यं तस्य गृहं इव (गृह), यतः टू "किं (क्व)यामः कुत्र तिष्ठामः, किं ब्रूमः, किं च कुर्महे रोगिणश्चिंतयंत्येवं, नीरोगाःसुखमासते" अतो नी| रोगा ब्रह्मचारिणश्चेति गम्यं, सपोनियमेन अवश्यंभावेन निष्प्रकंप-अविचलं तपःसंयमयोर्मूलदलिकयोग्यं, नेम्यं आदिभूतद्रव्यमित्यर्थः अथवा निभ वा तत्सदृशं इत्यर्थः व्रतांतरहिंसामृषावादानपि स्थादित्यर्थः
"न वि किंचि अणुन्नायं पडिसिद्धं वा वि जिणवरिन्देहिं मुत्तुं मेहुणभावं ण तं विणा रागदोसेहिं ॥१॥ १ नैव किञ्चिवनुक्षातं प्रतिषिद्धं वाऽपि जिनवरेन्द्रः मुक्त्वा मैथुनभावं यत् न तद्विना रागद्वेषौ॥१॥
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॥६८॥
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समितिगुत्तिगुप्तं, झाणवरकवाड सुकयरक्खर्णमज्झप्पदिन्नफलिहं, संन्नबद्धोच्छइयदुग्गइ पहं, सुगति पहदेसगं च लोगुत्तमं च वयवयविणं पउमसरतलागपालिभूयं, महासगडअरगतुंबभूयं, महाविडिमरुक्खक्खंधभूयं, महा. नगरपागारकवाड फलिहभूयं रज्जुपिणिद्धो व इंदकेतू विसुद्धणेगगुणसंपिण, जंमि य भग्गंमि होह सहसा
तथा पंचानां महाव्रतानां मध्ये सुष्ठु अत्यंतं रक्षणं - पालनं यस्य तत्तथा समितिरी (भिरी) र्यादिभिः गुप्तिभिः – मनोगुत्यादिभिः वसत्यादि (भ) नवभिर्वा गुप्तं रक्षितम्, ध्यानप्रधानं ध्यानमेव कपाटं सुकृतं सुविरचितरक्षणार्थं यस्य तत्तथा, अध्यात्म-अनुभवज्ञानरूपोपयोगः तदेव दत्तः कपाटदृढीकरणार्थं [ परिघः ] -स्फटिकोऽर्गला यस्य तत्तथा, सन्नद्ध बद्ध इव आच्छादित इव निरुद्धो दुर्गतिपथो येन तत्तथा, सुगतिपथस्य दर्शकम्, लोकोत्तम (म्) व्रतमिदं यदुक्तं
"देवदाणवगन्धव्वा जक्खरक्खसकिन्नरा बंभचारिं नर्मसंति दुक्करं जे करंति ते ॥ १ ॥
पद्मः उपलक्षितं सरः पद्मसरः - स्वतः संभवो जलाशयविशेषः, तडागश्च स एव पुरुषादिकृतं (तः ) पद्मसरसोऽतिमनोहरत्वात् उपादेयत्वं तत्तुल्यो धर्मः तस्य पालिभूतं रक्षकत्वेन, महाशकटारकाः- क्षान्त्यादिगुणास्तेषां तुंबभूतं - आधारभूतं न नामिभंगे शकटा वहंति इति, महाविटपवृक्ष इव - विस्तारभूरुह इव आश्रितानां परोपकारकारित्वाद्धर्मः तस्य स्कंधभूतं तस्मिन् सति सर्वधर्मशाखिन उत्पा द्यमानत्वात् महानगरं विविधसुखहेतुत्वात् प्राकार हव, कपाट इव, परिघ इव रक्षाकरणत्वात् तद्वत् । रज्जुपिनद्ध इव- दवरक वेष्टित इव, इन्द्रकेतु: - महदुत्सवध्वजः, विशुद्धा येऽनेकगुणाः- धैर्यादयस्तैः संपिनद्धं परिवृतं यस्य तत्तथा । यस्मिन् ब्रह्मचर्ये भने स
१ देवदानवगन्धर्वा यक्षराक्षसकिन्नराः, ब्रह्मचारिणं नमस्यन्ति यद् दुष्करं तत्ते कुर्वन्ति ॥१॥
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ज्ञान वि०
चतुर्थ
प्रश्न०व्या० वृत्ति
संवरद्वारे
॥६९॥
TWARAHISHASPACEASE
सव्वं संभग्गमद्दियमथियचुन्निय-कुसल्लिय-पव्वयपडिय-खंडिय-परिसडिय-विणासियं विणयसीलतवनिय. मगुणसमूहं तं बंभं भगवंतं गहगणनक्खत्ततारगाणं वा जहा उडुपत्ती मणिमुत्तसिलप्पवालरत्तरयणागराणं च | जहा समुद्दो वेरुलिओ चेव जहा मणीणं जहा मउडो चेव भूसणाणं, वत्थाणं चेव खोमजुयलं, अरविंद चेव | ब्रह्मचर्य पुप्फजेट्ट, गोसीसं चेव
स्वरूपम् अकस्मात् सर्व सदाचारव्रतं संभग्नं भवति किंचन(किंवत् घटवत् , मर्दितं-मथितं दधीव निर्लोडि(ठि)तं, चूर्णितं चनकपिष्ठमिव, कुशलियतं अंतःप्रविष्टतोमरादेः शल्येन शरीरमिव भग्नं सत् पुनः सज्जं न भवति तद्वत् ब्रह्मचर्यमपीति ज्ञेयम् । पर्वतपतितगंडशैल इव, | प्रासादशिखरादेः कलशादिवि अधोनिपतितं दण्ड इव विभागेन परिच्छिन्नं शटितं-कुष्टाद्युपहतांगं इव, विनाशितं च-भस्मीभूत(तं) पवनविकीर्ण दारु इव निस्सत्ताकं ब्रह्मव्रतं भग्नं सत् एतादृशं असारं भवति एतेषां पदानां द्वन्द्वः कर्मधारयो वा किमेवं भवतीत्याह, हैं विनय-शील-तपोनियमगुणानां वृन्द-समूहो यस्य तत्तथा तदेवं लक्षणं ब्रह्मव्रतं भगवन्तं-भट्टारकं पूज्यं किंतत् इत्याह
इह समूहशब्दस्य छांदसत्वात् नपुंसकनिर्देशः, ग्रहगणनक्षत्रतारकाणां च मध्ये यथा उड्डपतिः-चन्द्रः प्रवर:-प्रधानः इति | योगः, तथैव व्रतानां मध्ये इदं व्रतं वा शब्दः पूर्व विशेषणापेक्षया समुच्चये वा, मणयश्चंद्रकान्ताद्याः, मुक्ताफलानि, शिलाप्रवालानिविद्रुमाणि, रक्तरत्नानि-पद्मरागादीनि तेषां आकरा-उत्पत्तिभूमयो ये ते तथा तेषां वा यथा समुद्रः प्रवरस्तथेदं ब्रह्मवतमिति शेषः। वैडूर्य-रत्नविशेषो यथा मणीनां मध्ये तथेदं ब्रह्मव्रतं प्रवरं इति दृश्यम् , भूषणानां-आभरणानां मध्ये यथा मुकुटः-किरीटम् , वस्त्राणां सा॥६९॥ मध्ये यथा क्षौमयुगलं कासिकत्वक्वस्त्रस्य प्रधानत्वात् तथेदं ब्रह्मव्रतम् , इह च 'इव' शब्दो यथार्थे दृष्टव्यः, पुष्पानां मध्ये अरविन्दं
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SHARECTOBABA-%
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चंदणाणं, हिमवंतो चेव ओसहीणं, सीतोदा चेव निन्नगाणं, उदहीसु जहा सयंभुरमणो, रुयगवर चेव मंडलिकपब्वयाणं, पवरो एरावण इव कुंजराणं, सीहोव्व जहा मिगाणं, पवरो पथकाणं चेव वेणुदेवे, धरणो जह पण्णगइंदराया, कप्पाणं चेव बंभलोए, सभासु य जहा भवे सुहम्मा, ठितिसु लवसत्तमव्व पवरा, दाणाणं चेव अभयथा ज्येष्ठं तथेदं ब्रह्मचर्यम् , चंदनानां मध्ये गोशीर्षाभिधानं चंदनं प्रधान तथेदं ब्रह्मवतम् , हिमवानिव औषधीनां मध्ये यथा हिमवान्-गिरिविशेषः औषधीनामद्भुतकार्यकारिवनस्पतिविशेषाणां उत्पत्तिस्थान तथाऽऽमोषध्यादीनामागमप्रसिद्धानामिदमेव ब्रह्मव्रतमुत्पत्तिस्थानम् , यथा निम्नगाना-नदीनां मध्ये शीतोदा प्रवरा तथेदं ब्रह्मव्रतम्, उदधिषु यथा स्वयंभूरमण:-अन्तिमः समुद्रः महत्वेन प्रवरः तथेदं ब्रह्मव्रतम् , यथा मांडलिकपर्वतानां-मानुषोत्तरकुंडलवररुचकवराभिधानानां मध्ये रुचकवर:-त्रयोदशद्वीपः प्रवरः एव तथेदं ब्रह्मव्रतं प्रवरमिति, यथा कुञ्जराणां मध्ये ऐरावणः-शक्रगजः. तथेदं ब्रह्मव्रतमिति, सिंहो यथा मृगाणां मध्ये-आटव्यपशूनां मध्ये प्रवरः-प्रधानस्तथेदं ब्रह्मव्रतम , पवकानां प्रक्रमात् सुपर्णकुमाराणां मध्ये यथा वेणुदेवः प्रवरस्तद्वगतमिदम् , धरणो यथा पन्नगेन्द्राणांभुजगवराणां राजपनगेन्द्राणां मध्ये प्रवरस्तद्वदिदं ब्रह्मव्रतम् , कल्पाना-देवलोकानां मध्ये यथा ब्रह्मदेवलोकः तत् क्षेत्रस्य महत्वात् (तद्वदिदं ब्रह्मवतम् ) सभासु मध्ये यथा सुधर्मा सभा प्रतिभवनविमानभाविनी उत्पादसभा, व्यवसायसभा, अभिषेकसभा, अलंकारसभा, सुधर्मसभा आसु पंचसु मध्ये सुधर्मासमा प्रवरा भवति तथेदं व्रतम् , स्थितिषु-आयुषः स्थितिषु मध्ये लवस(प्त)त्तमानुत्तरसुरभवस्थितिर्वा शब्दो यथार्थे प्रवरा-प्रधाना तथेदं व्रतम्, तत्रकोनपंचाशव उच्छ्वासाना लवो भवति व्रीह्यादिस्तंबलवनं वा लवः तत्प्रमाणः कालोऽपि लवः ततो लः सप्तमैः सा प्रबध्यते सा लवसप्तमेति आख्याते विवक्षिताध्यवसायविशेषस्य मुक्तिसंपादकस्यापूर्यमाणैर्या
ANSARLAHABAR
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शान०वि० प्रश्न०व्या०
वृचि
चतुर्थ संवरद्वारे ब्रह्मचये स्वरूपम्
॥७०॥
AASHREG RRECTORGARCASS
यदाणं, किमिराउ चेव कंबलाणं, संघयणे चेव वज्जरिसभे, संठाणे चेव समचउरंसे, झाणेसु च परमसुफझाणं, णाणेसु य परमकेवलं तु सिद्धं, लेसासु य परमसुक्कलेस्सा, तित्थंकरे जहा चेव मुणीणं, वासेसु जहा महाविदेहे, गिरिसु गिरिराया चेव मंदरवरे, वणेसु जह नंदणवणं, पवरं दुमेसु जहा जंबू, मुदंसणा वीसुयजसा जीए मामेण य अयं दीवो । तुरगवती, गयवती रहवती, नरवती, जह पीसुए चेव, राया रहिए चेव जहा महारहगते, स्थितिबध्यते सा लवसप्तमेत्युच्यते, तत्र दानानि ज्ञानधर्मोपष्टंभाधनेकभेदानि तेषां मध्येऽभयदान-निर्भयप्रदान श्रेष्ठं तदिदं ब्रह्मव्रतम् , कंबलानां-वासोविशेषाणां क्रमिरागः-रक्तकंबल इव प्रवरः स्वभृमिगतरागः (तद्वदिदं व्रतम् ), संघयणानां मध्ये वर्षभनाराचं ४ प्रधानं तद्ब्रह्मव्रतम , संस्थानानां मध्ये समचतुरस्रं संस्थानं प्रधानं तद्वदिदं ब्रह्मव्रतम् , ध्यानेषु परमशुक्लध्यानं चतुर्थभेदरूपं प्रवरं प्रधान तथा व्रतेषु इदं ब्रह्मव्रतम् , ज्ञानेषु आभिनिबोधिकादिषु पंचकेषु मध्ये परमं केवलं श्रेष्ठ तद्वदिदं ब्रह्मव्रतं प्रधानं तुरेवकारार्थः, सिद्धं । वा प्रवरतया संपूर्णतयाऽत्र सिद्धमित्यर्थः, लेश्यासु परमशुक्ललेश्या श्रेष्ठा तथैवेदं ब्रह्मव्रतं श्रेष्ठम् , तथा-तेनैव प्रकारेण चैव-निश्चित मुनीनां मध्ये तीर्थकरः प्रधानस्तद्वदिदं ब्रह्मव्रतम् , वर्षेषु-क्षेत्रेषु यथा महाविदेहः श्रेष्ठः (तत्र) सनातनधर्मत्वात् तथा व्रतेषु ब्रह्मव्रतम् , गिरिषु राजा यथा मंदरखरो-जंबूद्वीपस्थ मेरुगिरिराजः तथेदं व्रतानां मध्ये ब्रह्मव्रतम् , वनेषु यथा नंदनवनं प्रवरं देवानां अतिरमणशीलत्वात् कल्पद्रुमवत्वाच्च तथेदं व्रतम् , द्रुमेषु-वृक्षेषु यथा जंबूः, सुदर्शना-अनादृतदेवस्य स्थानं विश्रुतयशाः विख्यातकीर्तिः यस्याः नाम्ना कृत्वा अयं द्वीपो जंबूद्वीप इति संज्ञिकस्तद्विदं ब्रह्मव्रतम् । यथा तुरगपतिरश्वपतिः, गजपतिः गजानीकः, रथपतिः, नरपतिः चतुरंगिणीसेनायुक्तो यथा विश्रुतो-विख्यातो राजा श्रेष्ठः प्रधानस्तद्वद्विदं व्रतं विख्यातम् , यथा रथिको-महारथिको रथगतः परेषां
||७||
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A
DREARCHEATRE
एवमणेगा गुणा अहीणा भवंति एकमि बंभचेरे जंमि य आराहियंमि आराहियं वयमिणं सव्वं, सीलं तवो य
विणओ य, संजमो य, खंती गुत्ती मुत्ती तहेव इहलोइयपारलोइयजसे य, कित्ती य, पचओ य, तम्हा निहुएण दबंभचेरं चरियव्वं, सब्वओ विसुद्धं, जावजीवाए जाव सेयट्ठिसंजउत्ति, एवं भणियं वयं भगवया, तंच इमअनभिभवनीयो भवति तद्वदेतद्वतधरः पुमान् उपद्रवानामनभिभूतो भवति,
अथ निगमयबाह एवमनेके गुणाः यस्मिन् व्रते अहीनाः प्रकृष्टाः आधीना आयत्ता भवंति केत्याह-एकस्मिन् ब्रह्मचर्यव्रते सर्वेगुणाः स्थिता इति दर्शितं, कथं? यस्मिन् व्रते आराधिते पालिते सति आराधितं व्रतमिदं निग्रन्थप्रव्रज्यालक्षणं सर्वव्रतं शीलं-मनः समाधान, तपोऽभिलाषविरतिरूपं, विनयः-क्रोधादित्यागः, संयमश्च अनिदानरूपः, क्षान्तिः-क्रोधत्यागः, गुप्तिर्मानसविकारसंवृतिः, मुक्तिनिर्लोभो वा सिद्धिर्वा, तथैवेति समुच्चये, इहलौकिकपारलौकिकिन्यः सिता यशांसि कीर्तयश्च प्रत्ययश्च साधुवादः आराधिता भवंति इति प्रक्रमः, तत्र यशः पराक्रमभवं, कीर्तिः दानपुण्यफलभृता, तथा सर्वदिग्गामि यशः, एकदिग्गामिनी कीर्तिः, सजनधौरेय इत्यादि प्रनीतिः प्रत्यय इति शब्दार्थाः। एवंभूतं व्यावर्णितं तसानिभृतेन-निश्चलेन ब्रह्मचर्यव्रतमासेवनीयम् पालनार्थ १ किंभूतं, मनःप्रभृतिकरणत्रययोगेन शुद्ध-निरवा, यावत् भवतया प्रतिज्ञातं आजन्मेत्यर्थः यावत् श्वेतास्थिः एतावता शोषितमांसरुधिरादिः | तादृशः संयतः-साधुः ब्रह्मव्रतपालनाय उद्यतः, एवं-वक्ष्यमाणं भणितम्-कथितम् व्रतमिदं केनेत्याह ? भगवता-ज्ञानवता पूज्येन श्रीमहावीरेण, तच्च इदं वचनं पद्यत्रयप्रभृतिकं तोटकछंदोरूपेण काव्येन
ASARAMABASNA
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ज्ञान०वि० प्रश्न०व्या० वृति
॥७१॥
पंचमहव्वयसुव्वयमूलं, समणमणाइलसाहुंसुचिन्नं । वेरविरामणपज्जवसाणं, सव्वसमुद्दमहोदधितित्थं ॥१॥ तित्थकरेहि सुदेसियमग्गं, नरयतिरिच्छविवज्जियमग्गं । सव्वपवित्तिसुनिम्मियसारं, सिद्धिविमाणअवंगुदारं ||२||
देवनरिंदनमंसियपूयं सव्वजगुत्तममंगलमग्गं । दुद्धरिसं गुणनायकमेकं मोक्खपहस्स वर्डिसकभूयं ||३|| पंच महाव्रतनामकानि सुष्ठु - शोभनब्रतानि तेषां मूलमिव मूलं यत्तत् कीदृशं समणंति सभावं यथा भवति तथा, अनाविलै:अकलुषैः शुद्धस्वभावैः साधुभिः - यतिभिः सुष्ठु चरितं आसेवितं पुनः कीदृशं ? वैरस्य - परस्परामर्षस्य विरामं करणं-उपशमनप्रापणं निवर्त्तनपर्यवसानफलं यस्य तथा "मेहुणप्पभवं वेरं वेरप्पभवा दुग्गई" इतिवचनात् ब्रह्मव्रते तदुपशम इत्यागतम्, सर्वेभ्यः समुद्रेभ्यः सकाशात् महान् उदधिः स्वयंभूरमणः तद्वत् यद्दुरुत्तरत्वेन तत्र तीर्थमिव तीर्थ संसारदुस्तरणे तीर्थमिव - तरणोपायम् ||१|| तीर्थकरैः - जिनैः सुष्ठु - शोभनतया उपदर्शितमार्ग गुप्यादि तत्पालनोपायम्, पुनः कीदृशं ? नरकतिर्यक्संबंधी विवर्जितो - निषेधितो गतिर्मार्गो येन तथा तम्, सर्वाणि पवित्राणि - समस्तपावनानि सुष्ठु निर्मितानि - शोभनविहितानि साराणि - प्रधानानि येन तत्तथा, | सिद्धेर्मोक्षस्य विमानानां च स्वर्गलोकानां च अपावृतं - अवगुणीकृतं उद्घाटितं द्वारं मुखं येन " शीलव्वयधरो न दुग्गइ गमण. सीलो इति वचनात् ॥ २॥ देवानां नराणां च इन्द्रः नमस्थिता नमस्थिता नमस्कृता येन तथा तेषां पूज्यं-अर्चनीयं यत्तत्तथा । सर्व जगदुत्तमानां मंगलानां मार्गः उपायः अग्रं वा प्रधानं यत्तत्तथा, दुर्द्धर्षं परैरनभिभवनीयं सकलगुणानां नायकम् प्रधानत्वेन अथवा गुणान् नयतीति वा, तथा एकं अद्वितीयम् एतत् सदृशं नान्यद्वतमिति, मोक्षपथस्य - सम्यग्दर्शनादेः अवतंसभूतं - शेखरकल्पं
चतुर्थ
संवरद्वारे
ब्रह्मचर्य
स्वरूपम्
॥७९॥
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जेण सुद्धचरिएण भवइ सुबंभणो सुसमणो सुसाइ सुइसी सुमुणी ससंजए स एव भिक्खू जो सुद्धं चरति बंभचेरं, इमं च रतिरागदोसमोहपवडणकरं किंमज्झ पमाय- दोसपासत्थ-सीलकरणं अभंगणाणि य तेल्लमप्रधानमित्यर्थः इति काव्ययार्थः ॥ ३॥
तथा येन ब्रह्मचर्येण शुद्धचरितेन - सम्यग् आचरितेन भवति सुब्राह्मणो यथार्थनामत्वात् "अब्रह्मचारी ब्राह्मणो न" यदुचिमहे "नित्यं यश्च कलाकलापकलितः प्राज्ञोऽपि विज्ञानवान् विद्यावेदविशारदोऽपि यतिरप्याश्चर्यकृच्छास्त्रवित्, धीरोदात्तगुणैरलंकृततनुस्तादृग् पुनर्नो यदि स्वीयाक्षाणि वशीकरोति पुरुषः किं तस्य पुंस्त्वं भुवि" इति वचनात्, सुश्रमणः - सुतपाः, सुसाधुः - शोभनमुनिः, सुशोभनऋषिः - पदकाय संरक्षकः, सुम्मुनिः सम्यक्ज्ञानवान्, सुसंयतः सम्यक्य तनावान् स एव भिक्षुः- भिक्षणशीलः कर्म मेदनस्वभावः यः शुद्धं चरति ब्रह्मचर्य्यम्,
इदं अत्र पुनः कीदृशं तदाह - रतिश्च विषयाभिष्वंगः, रागश्च पित्रादिषु नेहरागः, द्वेषश्च प्रतीतः, मोहश्र - अज्ञानं, एषां प्रवर्द्धनं करोति तत्तथा, किं मध्यमस्य किं शब्दस्याक्षेपार्थत्वात् मध्यमः - प्रमादः अथवा प्रमाद एव मध्यदोषः तत्करणशीलत्वात् असारमिवासारम् तथा पार्श्वस्थानां - ज्ञानाचारादिबहिर्वर्त्तिनां साध्वाभासानां शीलं अनुष्ठानं निष्कारणं शय्यातराभ्याहृतादि पिण्डपरिभोगादि पार्श्वस्थस्य शीलकरणं पदत्रयस्य कर्मधारयः तस्य करणं- आसेवनं यत्तत्तथा एतदेव । पार्श्वस्थशीलं व्याख्यानयति, अभ्यञ्जनानि
१ सकलकलाकलापकलितोऽपि कविरपि पण्डितोऽपि हि प्रकटितसर्वशास्त्रतत्त्वोऽपि हि वेदविशारदोऽपि हि । मुनिरपि वियति विततनानाद्भुतविभ्रमदर्शकोऽपि हि स्फुटमिह जगति तदपि न स कोऽपि हि यदि नाक्षाणि रक्षति ॥१॥
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शान०वि० प्रश्न०व्या०
वृत्ति
॥७२॥
जणाणि य अभिक्खणं कक्ख-सीस-कर-चरण-बदण-धोवण-संवाहण-गायकम्म-परिमद्दणाणुलेवण-चुन्न-|
चतुर्थ वास-धूवण-सरीरपरिमंडण-बाउसिकं,हसिय-भणिप-नहगीयवाइयनडनट्टकजल्लमल्लपेच्छणवलंबक जाणि य
संवरद्वारे सिंगारागाराणि य अन्नाणि य एवमादियाणि तवसंजमबंभचेरघातोवघातियाई अणुचरमाणेणं बंभचेरं वजे- ब्रह्मचर्य यव्वाइं सव्वकालं, भावेयव्वो भवइ य अंतरप्पा इमेहिं तवनियमसीलजोगेहिं निचकालं, किं ते ?-अण्हाणक
स्वरूपम् घृतवशाम्रक्षणादिना, तैलमज्जनानि-तैलस्नानानि च, अभीक्ष्ण-अनवरतं, कक्षा-बाहुमूल[लं]शीर्षकरचरणवदनानां धावनं-प्रक्षालनं, संबाधनं गात्रकर्म च-हस्तादिगावचंपनरूपं, गात्रपरिकर्म-अंगपरिकर्म परिमर्दनं-सर्वतः शरीरमलनं, अनुलेपनं च-विलेपनम् , चूर्णैःगंधद्रव्यक्षोद्रैः वासश्च-शरीरादिवासनम् , धूपनं वागुरुधृमादिभिः, शरीरपरिमंडनं च, एतत्सर्व बाकुशिकं, बकुशं-कबूर(चुर)चारित्रं प्रयोजनं यस्येति वाकुशिकं न तु भूषणं, नखकेशवस्तुसमारचनादिकं तदेवाह बाकुशिकम् । हसितं-हासः, भणित-प्रक्रमाद्विकृतम् , नाटयं-नृत्यम् , गीत-गानम् , वादितं-पटहादि वादनम् , नटा:-नाटयितारः, नर्तकाश्च ये नृत्यं कुर्वन्ति ते, जल्ला-वरनाखेलका, मल्लाः प्रतीताः बाह्वादिभिः खेलंति तेषां प्रेक्षणं नानाविधवंशखेलनादिसंबंधि वेलंबका:-प्रविडंबकाः विषका-वैहासिका इति एतेषां द्वन्द्वः, छांदसत्वात् विभक्तिलोपो दृष्टव्यः ते सर्वे वर्जनीया इति योगः आंतरविभक्तिवशात् क्षेयम् , किंबहुना यानि च वस्तूनि शृङ्गारागाराणि-शृङ्गाररसगेहानि अन्यानि अपि-उक्तव्यतिरिक्तानि, एवमादिकानि-एवं प्रकाराणि, तपःसंयमब्रह्मचर्याणां घातश्च दे-12 शतः, उपघातश्च सर्वतो विद्यते येषु तानि सर्वघातोपघातकानि, किमत आह अनुचरता-आसेवमानेन ब्रह्मचर्य वर्जयितव्यानि सर्वकालं ॥७२॥
१ दोरना रमणहार भाषा .
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C
AOECORRENAGALA
अदंतधावणसे पमलजल्लधारणं मूणवयकैसलोए य खम-दम-अचेलग-खुप्पिवास-लाघव-सीतोसिण-कट्ठसे
जा-भूमिनिसेन्जा-परघरपवेस-लद्धावलद्ध-माणावमाणा निंदण-दंसमसग-फास-नियम-तव-गुण-विणयमा| दिएहिं जहा से थिरतरकं होइ वंभचेरं । इमं च अवंभचेरविरमणपरिरक्षणट्ठयाए पावयण भगवया सुकहिये, अन्यथा ब्रह्मचर्यो व्याघातो भवति इति योगः, तथा भावयितव्यश्च भवति अन्तरात्मा ब्रह्मचर्यवता एवं भावनीयं, मया अंतरात्मा अनया रीत्या पालनीयः सर्वदा एभिः-वक्ष्यमाणैः तपोनियमशीलयोगैः नित्यकालम् , किं ते तद्यथा अस्नानकं-वा स्नानरहितत्वं, 'दंतधावनं प्रतीतम् , स्वेदः-प्रस्वेदः मल:-कक्खडीभूतः कठिन(नम् ), जल्लो-मलविशेषः अथवा जल्ल:-शरीरजन्यमलः, मल:| साधारणमला, मौनव्रत-विकथाभावः, केशलुश्चः-केशापनयनं प्रतीतम् , क्षमा-क्रोधनिग्रहः, दमश्च-इन्द्रियनिग्रहः, अचेलक-वस्त्रा
भावः, क्षुत्पिपासा च प्रतीता, लाघवं च-अल्पोपधित्वं, शीतोष्णे च प्रतीते, काष्ठशय्या फलकादिशयनं, भूमिनिषद्या-भूमिशयनादि, | परघर [गृह प्रवेशः शय्याभिक्षायाचनाद्यर्थम् , लब्धे वाऽभिमताशनादौ अलब्धे च तदप्राप्तौ लब्धेष्वेव यो मानो-लब्धिवानहमित्यादिरूपः, [अलब्धे च] अपमानश्च-दैन्यं, निंदन-क्लेशः, दंशमशकस्पर्शाश्च, नियमाश्च-द्रव्याद्यभिग्रहाः, तपोऽनशनादिका, गुणा:-* मूलगुणोत्तरगुणादयः, विनयोऽभ्युत्थानादिरूपः, एतेषां द्वन्द्वः इत्येवमादिकैयोगैः यथा-येन प्रकारेण "से" तस्य मुनेः ब्रह्मचर्यव्रतं स्थिरतरं-निश्चलं भवति, इदमेतद्ब्रह्मचर्यव्रतपरिरक्षणार्थ-आसेवनार्थ, प्रावचनिक-प्रवचनस्येदं, भगवता-श्री महावीरेण सुष्टु- शोभनतया कथितं-उपदेशितम् , कीदृशं ? प्रेत्य-परलोके सुखकारित्वात् भाविक-भावनायुक्तं, आगमिष्यद्भद्रं-आगामिकाले श्रेय
१ "दातण इति" भाषा
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बान०वि०/
पतये
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पेचाभाविकं, आगमेसिभई, सुद्धं, नेयाउयं, अकुडिलं, अणुत्तरं सव्वदुक्खपावाण विउसवर्ण । प्रश्न०व्या० तस्स इमा पंच भावणाओ चउत्थयस्स होंति अबंभचेरवेरमणपरिरक्खणट्ठयाए, पढम सयणासण-घरवृत्ति दुवार-अंगण-आगास-गवक्ख-साल-अभिलोयण-पच्छवत्थुक-पसाहणक-हाणिकावकासा अवकासा जे य, ब्रह्मचर्य
वेसियाणं अच्छंति य जत्थ इथिकाओ अभिक्खणं मोहदोसरतिरागवडणीओ कहिंति य कहाओ बहुविहाओ | भावनाः ॥७ ॥
| स्करत्वात , शुद्धं-निर्दोष, न्यायोपपत्र-नैयायिक, अतएव अकुटिलं ऋजु, अनुत्तरं-एतस्मादन्यत् प्रधानं न, सर्वदुःखपापानां विशेPषेण उपशामकं तनाशकत्वात्
तस्य-ब्रह्मचर्यव्रतस्य इमा अग्रे वक्ष्यमाणाः पञ्चसङ्ख्याका भावना चतुर्थव्रतस्य भवन्ति, अब्रह्मचर्यविरमणव्रतपरिरक्षणार्थ तत्र | प्रथमभावनावस्तु यथास्त्रीसंसक्ताश्रयवर्जमलक्षणं तचैवं-शयनं-शय्या, आसनं सिंहासनं विष्ठरं, गृह-गेहं, द्वारं-तस्यैव मुखं प्रवेशनरूपं, अङ्गण-गृहमध्यभागः, आकाशं-अनाच्छादितस्थानं, गवाक्षो-वातायन:, शाला-भाण्डशाला गृहोपस्करस्थानं, यत्र स्थित्वा अभिलोक्यते जनः तदभिलोकस्थानं उन्नतभूप्रदेशः, पच्छवत्थुगं पश्चाद्वास्तुकं-पश्चाद्गृहं वर्चादिस्थानं, वा प्रसाधन-मंडनक्रिया तस्य करणस्थानं, स्नानक्रियास्थानं, तस्या आश्रया स्थानकानि तेषां पदानां द्वन्दः, तत एते सर्वे स्त्रीसंसक्ता-स्त्रीजनादिसंक्लिष्टा वर्जनीया | इति योगः तथा ये च अवकाशा-आश्रयाः स्थानका निवेश्या वा विषयषितानां वा तेषां आसने च तिष्ठन्ति च यत्र येषु अवकाशेषु | त्रियः किंभूतास्ताः १ अभीक्ष्ण-अनवरतं मोहदोषस्य-अज्ञानदोषस्य रतेः रागस्य-कामरागस्य वर्द्धना वृद्धिकारिकाः यास्ताः, तथा जा॥७३॥ कथयन्ति च कथा बहुविधाः बहुप्रकारा जातिकुलरूपनेपथ्यसंबंधिन्यः स्त्रीसंबंधिन्यः पुरुषाः स्त्रियो वा यत्रेति बहुप्रकारं वजनीयाः।
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S
६ वसहीसमितिजोगेण भाजाणं तं तं वज्जेजऽवज भीरू
अाजा जत्थ मणोविम्भमो
भचेरगुत्ते सतवास-13
नीया । एवं
SHREGASARAKA
तेवि हु वजणिज्जा, इत्थिसंसत्तसंकिलिट्ठा अन्नेवि य एवमादी अवकासा ते हुवजणिज्जा । जत्थ मणोविम्भमो वा भंगो वा भंसणा वा अई रुदं च हुन्जमाणं तं तं वजेजऽवज्जभीरू अणायतणं अंतपंतवासी एवमसंसत्तवासवसहीसमितिजोगेण भावितो भवति, अंतरप्पा, आरतमणविरयगामधम्मे, जितेंदिए, चंभचेरगुत्ते १। यत्र वेश्याश्रयाः यत्र बह्वयः स्त्रीकथाकथनं हुर्वाक्यालंकारे ते ब्रह्मचर्यवता वर्जनीया । एवं स्त्रीसंबंधिसंक्लिष्टा न केवलं उक्तरूपा वर्जनीयाः अन्येऽपि च एवमादयः अवकाशा-आश्रया वर्जनीयाः इति ज्ञेयं, हुक्यिालंकारे निश्चयार्थे च । किंबहुना यत्र स्थाने मनसो विभ्रमः ब्रह्मव्रतं पालयामि नवेत्येवंरूपश्च शृङ्गाररसप्रभवंमनसो अस्थिरत्वं जायते कदाचिच्च "चित्तवृत्तेरनवस्थितत्वं शृङ्गारजो विभ्रम उच्यते", भङ्गो वा ब्रह्मव्रतस्य सर्वभङ्गः, भ्रंशना देशतो भङ्गः, आतं-इष्टविषयसंयोगाभिलाषरूपं रौद्रं वा भवेत् ध्यान | तदुपायभूतहिंसानृतादत्तग्रहणानुबन्धिरूपं तत्तदनायतनमिति योगात् वर्जनीयाः । को वर्जयेदित्याह-अवधभीरुः पापाद्विभ्यकः स वय॑ते इति अथवा वजं च वजसत्वात् पापमेव अनायतनं-अलाभस्थान साधूनामनाश्रय इति । किंभूतः१-सावद्यभीरुः अंते | इंद्रियाननुकूले प्रान्ते-स्थाने तत्रैव वशनशीलः अन्तप्रान्तवासी तत्रैव प्रकृष्टतर आश्रये वसनस्वभाव इत्यर्थः । अथ निगमयबाह
एवं अनन्तरोक्तस्त्रीभिरसंसक्तवासो-वसतिः योऽसौ साधुः तद्विषयो यः समतियोगः-सदाचरणप्रवृत्तिसम्बन्धः स तथा तेन भा१ वितो-वासितो अंतरप्पा-अन्तरात्मा जीवः किंविधा-विधिमर्यादीकृत्य आसक्तं-रतं ब्रह्मचर्ये मनो यस्य स आरतमनाः, विरतो-निवृत्तो
ग्रामस्येन्द्रियवर्गस्य धर्मो लुन्धतया स्वविषयेन्द्रियग्रहणस्वभावो यस्य स तथा पदद्वये कर्मधारयः, अतएव जितेन्द्रियः, ब्रह्मचर्यगुप्तः इति प्रथमा भावना
AIRAGABADASIC
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ज्ञान०वि०
प्रश्न० व्या०
वृत्ति
॥७४॥
वितियं मारीजणस्स मज्झे न कहेयव्वा कहा विचित्ता विब्वोयविलाससंपउत्ता, हाससिंगारलोइयकहव्व मोहजणणी न आवाहविवाहवरकहाविघ इत्थीणं वा सुभगदुभगकहा चउस िच महिलागुणा न वन्न - देसद्वितीय भावनावस्तु-किमित्याह ? नारीजनस्य मध्ये स्त्रीपर्षदांतः नो- निषेधे कथा कथयितव्या का इत्याह- कथा - वाक्प्रपश्वरचना विचित्रा वा तत्र ज्ञानोपष्टम्भादिकारणवर्जमिति गम्यं, कीदृशी कथा वर्जनीयेत्याह
विब्बोकविलास संप्रयुक्ता-तत्र विब्बोकलक्षणं चेदं
"इष्टानामर्थानां प्राप्तावभिमान गर्वसंभूतः स्त्रीणामनादरकृतो विब्बोको नाम विज्ञेयः ॥ १ ॥” विलासलक्षणं चेदं "स्थानासनगमनानां हस्तभ्रूनेत्रकर्म्मणां चैव । उत्पद्यते विशेषो यः श्लिष्टः स तु विलासः स्यात् ॥ १॥ "
अन्ये त्वाहुर्विलासो-नेत्रजो ज्ञेयः इति । हासो हास्याभिधानो रसविशेषः शृङ्गारोऽपि रसविशेषस्तयोः स्वरूपमिदं, हासोहास्यप्रकृतिर्विकृताङ्गवेषचेष्टाभ्यो भवति परस्त्रीभ्यः स च भृता स्त्री हास्यवती । शृङ्गारोऽपि द्विधा संभोगो विप्रलम्भश्च एतत्प्रधाना या कथा, लौकिकी अविद्धजनसंबंधिनी कथा - वचनरचना सर्वमोहजनका मोहोदीरका, वाशब्दो विकल्पार्थः, तथा न-नैव । आवाहोनवपरिणीतवधूवरस्य आकारणं, विवाहश्च पाणिग्रहणं तत्प्रधाना या वरकथा - परिणेतृकथा तदुत्कर्षजनका प्रधाना वा सा कथा न कथथितव्या । तथा स्त्रीणां ताः सुभगादुर्भगा वा भवतीत्येवंरूपा न कथयितव्या कथा । चतुःषष्टिश्व महिलागुणाः आलिंगनादीनामष्टानां कर्मणां प्रत्येकमष्टाष्टभेदत्वेन चतुष्षष्टिर्जायते, गीतनृत्यौचित्यादयोऽपि नामतः चतुःषष्टिभेदा अपि संति वा वात्स्यायनप्रसिद्धा आसनादिमेदाः तत्प्रधाना कथा अपि न कथयितव्या, तथा न-नैव देशकुलरूपनामनेपथ्यपरिजनकथा वा न वाच्या स्त्रीणामिति
শ16.
चतुर्थ संवरद्वारे ब्रह्मचर्य
भावनाः
॥७४॥
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| जाति-कुल-रूव-नाम-नेवत्थ-परिजणकहावि इत्थियाणं अन्नावि य एवमादियाओ कहाओ सिंगारकलुणाओ तवसंजमवंभचेरघातोवघातियाओ अणुचरमाणेणं बंभचेरं न कहेयन्वा, न सुणेयव्वा, न चिंतेयव्वा, एवं इत्थी-| प्रक्रमः । तत्र लाटादिदेशसंबंधेन स्त्रीणां वर्णनं यथा-लाटदेशीयाः कोमलवचना रतिनिपुणाः सुस्तन्यो भवन्ति, जातिकथा यथा-धिग् ब्राह्मणी विधवा या जीवन्ती मृता इव, धन्या मन्ये जने शुद्रा पतिलक्षेऽप्यनिन्दिता । कुलकथा यथा
अहो चौलुक्यपुत्रीणां साहसं जगतोऽधिकं । पत्युम॒त्यो विशंत्यग्नौ या प्रेमरहिता अपि ॥१॥ रूपकथा यथाचन्द्रवक्त्रा सरोजाक्षी, सद्गीः पीनघनस्तनी। किं लाटीनामतः सास्य देवानामपि दुर्लभा ॥१॥ नामकथा यथा-सा सुन्दरी सत्यं सौन्दर्यातिशयसमन्वितत्वात् , नेपथ्य-वेषस्तत्कथा यथा-धिग् नारीरौदीच्या बहुवसनाच्छादितांगलतिकत्वात् , यद्यौवनं न यूनां चक्षुर्मोदाय नो भवति॥१॥ सदा परिजनकथा यथाचेटिका-परिवारोऽपि, तस्या कान्तो विचक्षणः। भावज्ञः स्नेहवान् दक्षो, विनीतः सत्कुलस्तथा ॥१॥ किंबहुना अन्याऽपि च एवमादिका उक्तप्रकाराः स्त्री-सम्बन्धिनी कथाः शृङ्गारकरुणा:-शृङ्गारमृदवः शृङ्गाररसेन कारुण्यवाक्प्रपश्चादिकाः, कीदृशी? तपःसंयमब्रह्मचर्योपघातिनीः न कथाः कथयितव्याः। केनेत्याह-ब्रह्मचर्यमनुचरता पुंसा साधुना न श्रोतव्याः अन्यतः सकाशात् , न चिन्तयितव्याः मनसाऽपि यतिजनेनेति ज्ञेयं ।
अथ द्वितीयभावना निगमयबाह-एवं स्त्रीकथाविरतिः एवममुना प्रकारेण स्त्रीकथाविरतिसमितियोगेन भावितो-वासितो भवति
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यथापि, तस्या कान्तो
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स्त्री-सम्बन्धिनातव्याः। केनेत्याह-श्रम
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पतुर्थ
शान०वि० प्रध्यान
वृत्ति
संवरद्वारे ब्रह्मचर्य भावनाः
॥७५॥
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कहविरतिसमितिजोगेणं भावितो भवति अंतरप्पा आरतमणविरयगामधम्मे जितिदिए बंभचेरगुत्ते २।
ततीयं नारीण हसित-भणितं चेट्ठिय-विप्पेक्खित-गइ-विलासकीलियं विब्योतियनगीतवातियसरीरसंठा|ण-वन्न-करचरणनयणलावन्न-रूव-जोव्वण-पयोहरा-धर-वत्थालंकारभूसणाणि य गुज्झोवकासियाई अन्नाणि
अन्तरात्मा-जीवः आरतमना विधि-मर्यादया विस्तग्रामधर्मः, विजितेन्द्रियः-विजितविषयव्यापारः, इति प्रगट एव सूत्रार्थ इति द्वितीया भावना २। . अथ तृतीयभावनावस्तु स्त्रीरूपनिरीक्षणवर्जनं तत्प्रधाना भावना या सा चैत्र
नारीणां-स्त्रीणां हसितं, हास्यं विकारं नर्मादि भणितं सरागसंभोगविप्रलंभद्वयात्मकशब्दादि चेष्टितं-हस्तन्यासादिकरवालनारूपं, | विप्रेक्षित-निरीक्षितं कटाक्षादिना भ्रूचेष्टादिना, गतिर्गमनं मंथरालसपदस्थापनचेष्टाविशेषा, विलासो-हावभावादिलक्षणः, तत्र
हावो-मुखविकारः स्यात्, भावो-चित्तसमुद्भवः, विलासो-नेत्रजो ज्ञेयः, विभ्रमो भ्रयुगांतयोः॥१॥
तथा विभ्रमो-वेषचेष्टितः, इत्यादिरूपः, क्रीडितं-द्युतादि क्रीडा एषां समाहारद्वन्द्वः। 'विब्बोकितं स्तोत्पत्तिजनकं संभाषणं | | वा, नाटथं नृत्य, गीतं गानं, वादितं वीणादिवादनं, शरीरसंस्थानं हस्खदीर्घोन्नतादिलक्षणं, वों गौरादिलक्षणः, करचरणनयनवदनानां लावण्यं-लवणिमा स्पृहणीयतारूपं, तथा रूपं चाकृतिः-आकारः, यौवनं-तारुण्य, पयोधरौ-स्तनौ, अधरोऽधस्तन ओष्ठः, वस्त्राणि
१ लीलाविलासो-विच्छित्तिर्षिब्बोकः कीलकिश्चितं मोट्टायितं कुट्टमितं ललितं विहृतं तथा ॥२॥ विभ्रमश्चेत्यलंकारा स्त्रीणां स्वाभाविका दश इति तत्प्रदिपादकशास्त्राल्लक्षणान्यवसेयानीति
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॥७॥
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य एवमादियाई तवसंजमबंभचेरघानोवघातियाइं अणुचरमाणेणं बंभचेरं न चक्खुसा न मणसा न वयसा पत्थेयव्वाई पावकम्माहूं । एवं इत्थीरूवविरतिसमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा आरतमणविरयगामधम्मे जिदिए वंभचेरगुत्त ३ ।
चस्थं पुन्वरयपुव्वकीलियपुव्वसंगंथगंधसंधुया जे ते आवाहबिवाहचोल्लकेसु य तिथिसु जन्नेसु उस्सवेसु वसनानि, अलंकारा-हारादयः, भूषणं च मंडनादिना शोभाकरणं एतेषां पदानां द्वन्द्वः ततस्तानि न प्रार्थयितव्यानीति शेषः । तथा गुह्यावकाशिकानि लज्जनीयस्थानत्वात् स्थगनीया आच्छादनीया अवकाशा देहावयवो श्रोणिनितम्बयोन्यादयः अन्यानि अपि हासादिकारणाणि एवमादिकानि स्थानकानि तपःसंयमब्रह्मचर्योपधातकानि कुविकल्पोत्पत्तिदेशाः अनुचर्य अनुचरता - ब्रह्मव्रतमासेवता यतिना न चक्षुषा द्रष्टव्यानि अभिलाषतया दृष्टादृष्टिं न बनातीत्यर्थः । न मनसा चिन्तयितव्यानि । अनिदानं चारित्रं तवेवोदाणफले इति वचनात् वचसा न प्रार्थनीयानि इमानि रम्याणीत्यपि वाग्मात्रेणैव नोक्तव्यानीत्यर्थः । पावकानि - पापजनकत्वात् पापकर्माणि, एवमुक्तप्रकारेण स्त्रीरूप विरतिसमितियोगेन भावितो भवति अन्तरात्मा जीवः आरतमना विरतग्रामधर्मा जितेन्द्रियो - मुनिः ब्रह्मचर्यगुप्तो भवति इति तृतीया भावना ३
अथ चतुर्थभावनावस्तु यत्कामोदय करं दर्शन-भणन-स्मरणं भवति तद्वर्ण्यमित्याह - तचैवं - पूर्वरतं गृहस्थाश्रमसम्बन्धिनी कामरतिः पूर्वक्रीडितं - गृहस्थावस्थाश्रयं द्यूतादिक्रीडनं तथा ये पूर्वार्थकालभाविनः संगंथाः संबंधाच श्वसुरकुलसंबंधाः शालक - शालिकादयः अथवा तद्भार्यास्तत्पुत्रादयः संस्तुताः परिचितीकृता दर्शनभाषणादिभिः ततः एतेषां पदानां द्वन्द्वः तत एते सर्वे श्रमणेन अनभिलष
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चतुर्थ
संवरद्वारे
ब्रह्मचर्य
भावना
वसिंगारागारचारुवेसाहिं हावभावपललियविक्खेवविलासगतिसालिणीहिं अणुकूलपेम्मिकाहिं सद्धिं अणुभूया है ज्ञान०वि० सयणसंपओगा उदुसुहवरकुसुमसुरभिचंदणसुगंधिवरवासधूवसुहफरिसवत्थभूसणगुणोववेया रमणिजाउजप्रश्न०व्या०
णीया अलक्ष्याः द्रष्टुं कथयितुं स्मर्तु नाऽपि योग्याः इति सम्बन्धः । के ते? वा वक्ष्यमाणाः इत्याह आवाहः-वधूवरानयन, वृति कामावर
विवाहः पाणिग्रहणं, बालकर्म बालानां नामकरणं, यत्चूडाकरणमुण्डनं, अन्नप्रासनादिकं सर्व ततस्तेषु चशब्दस्य पूर्ववाक्यापेक्षया समु
चयार्थः, तिथिषु अनंगत्रयोदशीप्रभृतिषु, यज्ञेषु, नागपूजासु उत्सवेषु, यात्रासु जनसमुदायेषु, स्त्रीभिः सार्द्ध शयनासनसंप्रयोगास्ते न ॥७६॥
लभ्याः द्रष्टुमिति योगः किंभूताभिः ? शृंगारागारचारुवेषाभिः-शृंगाररसागारभूताभिः शोभननेपथ्याभिः स्त्रीभिरिति गम्यं । किं भू-| ताभिः स्त्रीभिः ? हावभावप्रललितविक्षेपविलामशालिनीभिः, तत्र हावभावलक्षणं पूर्वोक्तं प्रललितलक्षणं चेदं
हस्तपादाङ्गविन्यासो भ्रनेत्रोष्ठप्रयोजितः । सुकुमारो विधानेन ललितं तत्प्रकीर्तितं ॥१॥
अप्रयत्नरचितो धम्मिल्लः श्लथबन्धनः, असमंजसविन्यस्तमंजनं नयनाब्जयोः तथा अनादरबद्धग्रन्थिर्जघनवाससः वसुधालम्बिकेशपाश स्रस्तांशुका जघने हारविन्यासो रसनायास्तथोरसि यतः स्त्रीकांतं वीक्ष्य नाभि प्रकटयति दोमूलं दर्शयंती न्यस्तमंडनादिकं वितनोति इत्यादिलक्षणैविक्षेपो ज्ञेयः। विलासगतिर्विलासेन गमनं एतैः या शोभन्ते शालन्ते तथा ताभिः। तथा अनुकूलमप्रतिकूलं प्रेम-प्रीतिर्यासां तास्ताभिः स्त्रीभिः साई-सह अनुभूता-वेदिता शयनानि शय्यायामेकत्र वसनं तथा सम्प्रयोगाश्च-संपर्काः शयनसंयोगाः । कथंभूताः ऋतुसुखानि कालोचितानि षड्ऋतुसुखानि यानि वरकुसुमानि वरसुरभिचन्दनं च सुगन्धा वरचूर्णरूपा वासश्च धूपश्च शुभस्पर्शानि वा वस्त्राणि च भूषणानि च तालवृन्तादीनि भोगोपष्टम्भदायकानि वा एतेषां पदानां द्वन्द्वः तेषां ये गुणा
१ अप्रयत्नेन रचितो धम्मिल्लः.......इत्यादिश्लोकचतुष्टयो अभयदेवीयावृत्तौ अत्र तु तद्भावार्थों संगृहीतः
PRASHASEEBACCASIAN
SHREWALAESARGICALAMROES
॥७६॥
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COOOKSACARE
गेयपउरनड-नहक-जल्ल-मल्ल-मुट्ठिक-वेलंवग-कहग-पवग-लासग-आइक्खग-लंख-मंख-तृणइल्ल-तुंबवीणि| य-तालायर-पकरणाणि य बहणि महुरसरगीतसुस्सराई अन्नाणि य एवमादियाणि तवसंजमबंभचेरघातोव|घातियाइं अणुचरमाणेणं बंभचेरं न तातिं समणेण लब्भा दटुं न कहेउं नवि सुमरिउं जे, एवं पुवरयपुवकी. लियविरतिसमितिजोगेण स्तैरुपपेता युक्तास्तथा ताः, तथा रमणीयातोद्यगेयप्रचुरनटोदिप्रकरणानि तद् द्रष्टुं नलभ्यानीति सम्बन्धः । ते के इत्याह ? तथा नटाः
नाटयितारः अन्यान् प्रति, नर्तका:-ये नृत्यन्ति स्वयं, जल्ला-वरत्रखेलकाः, मल्ला प्रतीता, मौष्टिका:-ये मुष्टिभिः प्रहरन्ति रमन्ते वा, || विडंबकाः-वैहासिकाः, कथका:-कथाप्रबन्धाख्यायिकाः पाठका अध्येतारः, प्लवका ये उत्प्लुत्य नद्यादिकं तरन्ति, लासका ये रासकान् | | गायन्ति जयशब्दप्रयोक्तारो भाडा वा मङ्गलपाठका इति, आख्यायिका ये शुभाशुभं कथयन्ति, लंखा-वंशानखेलकाः, मंखाचित्रफ-13 | लकहस्ता भिक्षाकाः, तृणइल्ला:-तूणाभिधानवाद्यवादकाः मुखचङ्गेरिका तुम्बवीणिका-वीणावादकाः,तालाचरास्तालवादकाः प्रेक्षाकारिणो
वा एतेषां पदानां द्वन्द्वः तेषां प्रकरणानि क्रिया पुनः बहुविधानि-अनेकविधानि, मधुरखराणां-कलध्वनीनां गायकानां यानि गीतानि४ गेयानि शोभनषड्जादिखरविशेषाणि तानि तथा,किंबहुना ? अन्यान्यपि एवमादिकानि उक्तप्रकारव्यतिरिक्तान्यपि तपःसंयमब्रह्मचर्य
घातोपघातकानि अनुचरता-आसेवमानेन एतावता ब्रह्मचारिणा न-नैव श्रमणेन-साधुना,लम्यानि-उचितानि द्रष्टुं-प्रेक्षितुं नयनाभ्यां, न कथयितुं नाऽपि वचसा सुन्दरा एते, नाऽपि स्मत्तुं चिन्तयितुं मनसाऽपि । अथ निगमयन्नाह-एवमुक्तमकारेण पूर्वरतं-पूर्वपरिचिः |
१ भारती सात्विकी कौशिक्यारभट्यादिवृत्तयश्चतम्रो याद्यानि वाद्यादीनि प्रकरणावि कथ्यन्ते ।
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|भावितो भवति अंतरप्पा आरयमणविरतगामधम्मे जिइंदिए वंभचेरगुत्ते ४। शान०वि० | प्रभ०व्या० | पंचमगं आहारपणीयनिद्धभोयणविवजते संजते सुसाह ववगयखीर-दहि-सप्पि-नवनीय-तेल्ल-गुल
संवरद्वारे वृत्ति खंड-मच्छंडिक--महु-मज-मंस-खजक-विगतिपरिचत्तकयाहारे ण दप्पणं, न बहुसो, न नितिक, न सायसू. ब्रह्मचर्य पाहिकं, न खद्धं, तहा भोत्तव्वं जह से जायामाता य भवति,
भावना ॥७ ॥ | तरत-सम्भोगादिकं पूर्वक्रीडितं द्युतादिकं तेन-विरतिनिवृत्तिसमितियोगेन भावितो वासितो भवति अन्तरात्मा-जीवः आरतमना
विरतग्रामधर्मा जितेन्द्रियः ब्रह्मचर्यगुप्तो भवति, इति चतुर्थी भावना ४ ।
अथ पश्चमभावनावस्तु प्रणीतभोजनवर्जननाम तदाऽऽह-आहारोऽशनादिः स एवंविधस्त्याज्य इति योगः कीदृशः १ प्रणीतो गलत्स्नेहबिन्दुः स च स्निग्धभोजनं तस्य विवर्जको यः स तथा स एवंविधः संयतः-संयमवान् षद्कायरक्षावान् , सुसाधुः-निर्वाणयोग्यसाधनतत्परः, पुनः कीदृशः ? व्यपगता-अपगता क्षीरं-दुग्धं दधि तदेव स्त्यानीभूतं सर्पितं नवनीतं म्रक्षणं तैलं गुलखण्डं || मत्स्यंडिका पायखण्डा शर्करा वा मधु-मिष्टद्रव्यं क्षौद्रं वा, मद्य-मदिरा मांस-पिशित खाद्यकलक्षणं अवगाहिमादिभेदं यद्यपि | अमज्झमंसासिणो इति पाठात् साधुनामभक्षविकृतीनां त्याग एवमुक्तः, तथापि विकृतिसूत्रपाठत्वात् मद्यमांसायुक्तम् , अथवा पूर्व-८ भक्तानुस्मरणमपि भवति अतस्तत्परिहारार्थ सूत्रपाठानुक्रमो ज्ञेयः, एतेषां पदानां कर्मधारयः एतादृशो विकृतिकारि-विकारकारि ।
त्यक्त आहारो येन स तथा, न-नैव निषेधे दर्पणं-दर्पकारकं नैव भुञ्जते, उक्तव्यतिरेकादन्यदपि मदकारि नैव भुञ्जते, पुनः न बहुशो८ दिनमध्ये न बहुवारं, न नैत्यिक, न प्रतिदिनं, न च शाक-वनस्पत्यादि भवन्ति, न-पाधिकं शालनकं दालिप्रचुर नेत्यर्थः, तदपि
मभक्षविकृतीनां त्याग एवमुक्त, ना कर्मधारयः एतादृशो विकृतिकारिबी -12 ॥७॥
PARHOES
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4%AGHAGARA
न य भवति विन्भमो न भंसणा य धम्मस्स, एवं पणीयाहारविरतिसमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा | आरतमणविरतगामधम्मे जिइंदिए बंभचेरगुत्ते ५। एवमिणं संवरस्स दारं सम्म संवरियं होइ सुपणिहितं इमेहिं पञ्चहिवि कारणेहिं मणवयणकायपरिरक्खिएहिं णिचं आमरणंतं च एसो जोगो णेयव्वो घितिमया मतिमया न खर्बु-न प्रभुतं उनोदर्यापेक्षया तथा भोक्तव्यं, यथा से तस्य ब्रह्मचारिणः, यात्रा-संयमयात्रानिर्वाहः मात्रापरिमाणतः भवति संयमनिहाय भवन्ति, तथा भोक्तव्यं परं न-नैव भवति धर्मस्य विभ्रमो भ्रंशना वा धर्मस्य । यदुक्तं
जहा दवग्गी पउरिंधणो वणे समारुओ नोवसमं उवेइ।
एवेदियग्गी वि पगामभोईणो, न बंभयारिस्स हियाय कस्स वि ॥१॥ तथा दृश्यतेजह अन्भंगण१लेवो२, सगडक्खवणाण जत्तिओ होइ । इय संजमभरवहणट्ठयाए साहणमाहारो॥१॥
न च नैव भवति धातूपचयेन मोहोदयान्मनसो धर्म प्रति अस्थिरत्वं भ्रंशनं वा चलनधर्म ब्रह्मचर्यलक्षणात् । अथ निगमय| बाह-एवं प्रणीताहारविरतिसमितियोगेन भावितो-वासितो भवति अन्तरात्मा-जीवः तादृशः साधुः आरतमनाः-विरतिग्रामघाटू | जितेन्द्रियः ब्रह्मचर्येण गुप्तो भवति साधुः इति पञ्चमी भावना ५।
एवमुक्तप्रकारेण इदं संवरद्वारं संवृतं रक्षितं भवति सुष्टु-शोभनतया प्रणिहितं-स्थापितं मनसा इत्येतैः पञ्चभिः कारणैः भवना१ यथा दवाग्निः प्रचुरेन्धने बने समारुतो नोपशममुपैति । पवमिन्द्रियाग्निरपि प्रकामभोजिनो न ब्रह्मचारिणो हिताय कस्यचित् ॥१॥ २ यथा अभ्यङ्गनलेपौ शकटाक्षवणयोर्यावन्तौ भवतः पवं संयमबहनार्थ साधूनामाहारः ॥१॥
SAMASTERNAGABASSA-ARATE
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चतुर्थ
शान०वि० प्रभ०व्या०
वृत्ति
संवरद्वारे
ब्रह्मचर्य
भावनाः
||७८॥
अणासवो अकलुसो अच्छिदो अपरिस्सावी असंकिलिट्ठोसुद्धोसव्वजिणमणुन्नातो, एवं चउत्थं संवरदारं फासियं पालितं सोहितं तीरितं किहितं आणाए अणुगालियं भवति, एवं नायमुणिणा भगवया परूवियं पसिद्धं सिद्धवरसासणमिणं आघविर्य सुदेसितं पसत्थं [सू० २७] चउत्थं संवरद्वारं समत्तं त्तिबेमि ॥४॥ भिः कृत्वा, मनोवाकायपरिरक्षितैः नित्यं-सदा आमरणान्तं-यावजीवमित्यर्थः, एषः कथ्यमानो योगः संवररूपो ज्ञातव्यः धृतिमता| धैर्यवता मतिमता-बुद्धिमता कीदृशो योगः अनाश्रवो, विरतिरूपः, अकलुषः-शुद्धाशयः, अच्छिद्रो निदोषत्वात् , अपरिस्रावी-अनिदानरूपः, असंक्लिष्टो-दुर्व्यानरहितत्वात् , अतएव शुद्धो निर्दोषः सर्वजिनैः-सर्वतीर्थकरैः अनुज्ञातः एवमुक्तरीत्या चतुर्थ ब्रह्मचर्यलक्षणं संवरद्वार संवरस्य मुखमिव मुख-द्वारं स्पर्शितं कायेन, पालितं पुनर्निरतिचारत्वेन, शोधित-गुर्वाज्ञानुसारेण, तीरितं अधिकाधिकोसाहेन, कीर्तितं पुनः पुनः स्मरणादिना, आज्ञया अनुपालित एभिः विशेषणैर्मर्यादा प्राप्तं भवति एवममुना प्रकारेण, ज्ञातमुनिनाज्ञातपुत्रेण भगवता प्रज्ञापित, प्ररूपित, प्रसिद्धं-विख्यातं प्रधानशासनमिदं आख्यातं, सुष्टु-देशितं कथितं, प्रशस्तं प्रधान, चतुर्थसंवरद्वारं समाप्तं नवमाध्ययनविवरणमिदं इति शब्दः-परिसमाप्तौ पूर्ववदेव वाच्यः। श्री प्रश्नव्याकरणांगस्य दशमस्य नवमाध्ययनम् व्याख्यातं च सदर्थं तुर्यं ब्रह्मवतद्वारं ॥१॥
इति श्रीमद् ज्ञानविमलसूरीश्वरविरचिते प्रश्नव्याकरणे चतुर्थ संवरद्वारं समाप्तं
5456565456-MA5%
॥७८N
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॥ अथ पंचमं संवरद्वारात्मकं दशमाध्ययनम् ॥
BARAGAR
अथ पंचमं परिग्रहविरमणं संवरद्वारं व्याख्यायते, अस्य चाऽयमनुक्रमः पूर्व मैथुनविरमणमुक्तं तत्तु सर्वथा परिग्रहविरमणे कृते एव भवति तदभिधायकं पचमं द्वारमारभ्यते तस्येदमादिमं सूत्रम्-जंबू इत्यादि सूत्रानुक्रमो यथा| जंबू! अपरिग्गहसंवुडे य समणे आरंभपरिग्गहातो विरते विरते कोहमाणमायालोभा
जम्यूरिति शिष्यस्यामंत्रणम् , अपरिग्रहो-धर्मोपकरणवर्जनोपकरणमूर्छावर्जितः तथा संवृतश्च इन्द्रियकषायसंवरणेन संवृतः तथा यः सः तादृशः श्रमणो भवति चकाराद्ब्रह्मचर्यादिगुणयुक्तः, एतदेव प्रपश्चयन्नाह स च कीशः ? आरंभ:-पृथिव्याधुपमर्दः, परिग्रहो बाह्याभ्यन्तरमेदाद्विधा, कोऽसौ बाह्यो ?-धर्मसाधनवजों धर्मोपकरणमूर्छा वा, इतरस्तु मिथ्यात्वाविरतिकषायप्रमाददुष्टयोगावलंबनरूपः, आह च
"पुत्वाइसु आरंभो परिग्गहो धम्मसाहणं मोत्तुं । मुच्छा य तत्थ बज्झो इयरो मिच्छत्तमाइओ॥१॥" अनयोः समाहारद्वन्द्वस्तस्माद्विरतो निवृत्तो यः स श्रमणः। तथा क्रोध-मान-माया लोभाद्विरतः। १ पृथिव्यादिष्यारम्भः परिग्रहो धर्मसाधनं मुक्त्वा मुर्छा च तत्र बायः इतरो मिथ्यात्वादिकः ॥१॥
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ज्ञान०वि० प्रश्न०व्या० वृत्ति
॥७९॥
एगे असंजमे १ दो चैव रागदोसा २ तिनि य दंडगारवा य गुत्तीओ तिन्नि तिन्नि य विराहणाओ ३ चत्तारि कसाया झाण-सन्ना-विकहा तहा य हुंति चउरो ४ पंच य किरियाओ समितिइंदियमहव्वयाई च ५
अथ मिथ्यात्वलक्षणांतरपरिग्रहविरतत्वं प्रपश्चयन्नाह
एकोऽविवक्षित मेदत्वादविरतिलक्षणैकखभावत्वात्, असंयमो ऽसंयतत्वम् १
द्वावेव रागद्वेषौ बंधने इति शेषः । २
त्रयश्च दंडा - आत्मनो दण्डत्वात् दुष्प्रणिहितमनोवाक्कायलक्षणाः, गारवाणि गौरवाणि च गृद्ध्यभिमानाभ्यां आत्मनः कर्मणो गौरव हेतवः ऋद्धिरससातविषयाः परिणामविशेषाः त्रीणि इति प्रकृतमेव, तथा गुत्तीओ तिणित्ति गुप्तयो मनोवाक्कायलक्षणाअनवद्यप्रवीचाराsप्रवीचाररूपाः ३, तिस्रश्च विराधना ज्ञानादीनां सम्यगननुपालनाः ॥३॥
चत्वारः कषायाः-क्रोधादयः, ध्यानानि - एकाग्रतालक्षणानि आर्त्तरौद्रधर्मशुक्लध्यानानि संज्ञानं अनादिचेतनोद्भूतं विज्ञानं | संज्ञा:- आहार १ भय २ मैथुन ३ परिग्रह४ संज्ञाभिधानाः, विकथा-विरूद्धवाक्-प्रपंचरचना कथा स्त्री-भक्त- देश - राजकथादिलक्षणाः एताश्च भवन्ति ॥ ४ ॥
पंचक्रियाः - जीवव्यापारात्मिकाः कायिक्यधिकरणिकी - प्राद्वेषिकी - पारितापनिकी - प्राणातिपातक्रियालक्षणा भवन्ति, सर्वत्र क्रियापदं योज्यम्, तथा निरवद्यप्रवृत्तिरूपाः समितयः ईर्ष्या - भाषैषणादाननिक्षेपपरिष्टापनि काख्याः, तथा इन्द्रियाणि स्पर्शन-रसनघाण - नेत्र - श्रोत्रादीनि, महाव्रतानि अहिंसा-सूनृतास्तेय-ब्रह्माकिञ्चनरूपाणि प्रतीतान्यत्रैव वर्णितानीति ५ ।
पश्चम
संवरद्वारे
रागादि
आशातना
न्तानां
वर्णनं
॥७९॥
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छज्जीवनिकाया छच लेसाओ ६ सत्त भया ७ अट्ठ य मया ८ नव चैव य बंभवेरवयगुत्ती ९ दसप्पकारे य समधम्मे १० एक्कारस य उवासकाणं १९
पृथव्यप्तेजोवायुवनस्पत्यादयः षट् जीवनिकायाः, षड् लेश्याः कृष्ण-नील- कापोत- तेजः - पद्म - शुक्लाख्याः ॥ ६ ॥
तथा सप्तभयानि - इहलोकभयं खजातीयान्मनुष्यादेः परलोकभयं - विजातीयात्तिर्यगादेः, तथा इहलोकभयं अत्रभवे, परलोकमयं परभवे, आदानभयं द्रव्याश्रितं भयम, अकस्माद्भयं बाह्यनिमित्तानपेक्षं, आजीविकाभयं - वृत्तिभयमित्यर्थः, मरणभयं, अश्लोकभयमिति - अपयशः भयमिति सप्तभयाः ॥७॥
अष्टौ च मदाः- मदस्थानानि, जाई १ कुल २ बल ३ रूये ४ तब ५ ईसरिए ६ सुए ७ लाभे ८ ॥८॥
"वसहि १ कह २ निसिद्धिं ३ दिय ४ कुड़ंतर ५ पुव्वकीलिए ६ पणीए ७ । अइमायाहार ८ विभूषणाय ९ नव बंभगुत्तीओति ॥ १॥" एवं लक्षणा नव ब्रह्मचर्यगुप्तयः ॥ ९ ॥
दशप्रकारच श्रमणधर्मः यथा - " खंत्ती १ मद्दव २ अज्जव ३ मुत्ति ४ तव ५ संयमे य ६ बोधव्वे । सचं ७ सोयं ८ अकिंचणं ९ च बंभं १० च जहधम्मो १ " ॥१०॥
ऐकादश चोपासकानां - श्रमणोपासकानां प्रतिमा यथा-दंसण १ वय २ सामाइय ३ पोसह ४ पडिमा ५ अबंभ ६ सचित्ते ७ आरंभ ८ पेस ९ उद्दिट्ठ वज्जए १० समणभूए य ११ ॥
१ प्रवचनसारोद्धार गाथा ९८० - ९९४ गत प्रतिपादितश्रावकप्रतिमास्वरूपादुद्धृतमशेषं प्रतिभाति ॥ २ प्रवचनसारोद्धारगाथा ९८० ॥
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ज्ञान०वि०
प्रश्न० व्या० वृति
॥८०॥
अत्र च गाथायां प्रतिमेति उक्तः सः कायोत्सर्गः तत्र दर्शनं सम्यक्त्वं १ व्रतानि अणुव्रतादीनि २ सामायिकं च सावद्यानवयोग परिवर्जनासेवनखरूपम् ३, पौषधं चाष्टमीचतुर्दशीप्रमुखेषु पर्वदिनानुष्ठेयोऽनुष्ठानविशेषः ४ प्रतिमा च कायोत्सर्ग: ५ अब्रह्ममब्रह्मचर्य ६ [सचित्तं चसचेतनद्रव्यं ७ इति समाहार द्वन्द्रः ] दर्शनादिषु पञ्चसु पदेषु प्रतिमा शब्दो योज्यः, अब्रह्मादिषु पञ्चसु पदेषु (अंत्रा सचित्तयोस्तु) वर्ज कशब्दो योज्यः, आरम्भश्च स्वयं कृष्यादिकरणं ८ प्रेषणं परेषां पापकर्मसु व्यापारणं ९ उद्दिष्टं च तमेव श्रावकमुद्दिश्य सचेतनं सदचेतनीकृत्य पक्कं तदेव वर्जयति परिहरति स आरंभ - प्रेषोद्दिष्टवर्जकः, प्रतिमेति शब्दः प्रकृतं १० । इह च प्रतिमाप्रतिमावतोरभेदोपचारात् प्रतिमावतो निर्देशः कृतः । तथा श्रमणः साधुः इव यः स श्रमणभूतो भूतशब्दस्योपमानार्थत्वात् न तु तदेवेति, चशब्द:- समुच्चये एतावता एकादश श्राद्धानामुपासकानां प्रतिमाः - प्रतिज्ञा अभिग्रहाः,
एतासाम् कालमानं यथा-प्रतिमायां प्रथमायां एको मासः कालमानं, द्वितीयायां द्वौ मासौ, तृतीयां त्रयो मासाः, चतुर्थायां चतुर्मासाः, यावदेकादृश्यामेकादश मासाः, एतच्च कालमानं यद्यपि दशाश्रुतस्कन्धादिषु साक्षानोपलभ्यते तथाप्युपासकदशासु प्रतिमाप्रतिपन्नानां आनन्दादिश्रमणोपासकानां सार्द्धवर्षपंचकलक्षणं [प्रतिमैकादश] प्रमाणं प्रतिपादितम्, प्रवचनसारोद्धारादिषु तथैव भणितम्, तथा उत्तरोत्तरास्खपि तासु प्रतिमासु क्रियमाणासु पूर्वपूर्वप्रतिमाः प्रतिपादिताः सर्वा अपि क्रिया- अनुष्ठानविशेषरूपाः कर्त्तव्या एव । इयमत्र तात्पर्य द्वितीयायां प्रतिमायां प्रथमप्रतिमोक्तमनुष्ठानं निरवशेषं कर्तव्यमिति । तृतीयायां तु प्रथमद्वितीयप्रति) पतचिन्हं न्यस्तम
१ प्रवचनसारोद्धारे पृ० २९३ तमे पतदधिकं योग्यमपि अत्र स्खलितं प्रतिभाति । २ यत्र ( शुद्धस्थले शुद्ध [ ] पतचिन्हं तु अधिक पाठाय ॥ ३ प्रवचनसारोद्धार पृष्ठ २९३-२११ पंक्ती
पश्चम
संवरद्वारे
रागादि
अशातना.
न्तानां वर्णनं
॥८॥
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माद्वयोक्तमप्यनुष्ठानं विधेयं एवं यावदेकादश्यां प्रतिमायां पूर्वप्रतिमादशकोक्तं सर्वमप्यनुष्ठानं कार्यमिति
अथ दर्शनप्रतिमाखरूपनिरूपणायाह, सम्यग्दर्शनं सम्यक्त्वं प्रथमा दर्शनप्रतिमा भवति इति कीदृशं सम्यक्त्वं-प्रशम-संवेगनिर्वेदानुकंपाऽऽस्तिक्य लक्षणैः पंचगुणविशिष्टं तथा कुग्रहः - कुशास्त्राभिनिवेशः शंका- कांक्षा - विचिकित्सा-मिध्यादृष्टिप्रशंसा-तत्संस्तवरूपाः पंच सम्यक्त्वातिचारशल्यरहितम्, अणुव्रत्तादिगुणविकलस्य योऽभ्युपगमः सा दर्शनप्रतिमा, सम्यग्दर्शनप्रतिपत्तिः तत्र पूर्व यदि केवलं आसीत् तथापि शंकादिदोषराजाभियोगाद्याकारषट्वर्जितत्वेन यथावत् सम्यग्दर्शनाचारविशेषपरिपालनाभ्युपगमेन च प्रतिमात्वं संभाव्यते, कथमन्यथा उपासकदशासु एकमासं प्रथमायाः प्रतिमायाः पालनेन व्यवहारः प्रतिपादितः इत्यादि ज्ञेयम् १
अथ द्वितीया - अणुव्रतानि स्थूलप्राणातिपातविरमणादीनि गुणव्रतानि शिक्षाव्रतानि वधबंधाद्यतिचाररहितानि निरपवादानि च धारयतः सम्यक् परिपालयतो द्वितीया २ तृतीयायां सामायिकप्रतिमायां सामायिकं - सावद्ययोगपरिवर्जननिरवद्ययोगसेवनस्खभावं कृतं विहितं देशतो येन सामायिककृतः, इदं तात्पर्य अप्रतिपन्नपौषधस्य दर्शनव्रतोपेतस्य प्रतिदिनं उभय - (काल) सम्बन्धि सामायिककरणं तृतीया ३ ।
चतुर्थी पौषधप्रतिमा यस्यां चतुर्दश्यष्टमीप्रभृतिदिवसेषु अमावस्यापौर्णिमादिषु पर्वतिथिषु चतुर्विधमप्याहारशरीरसत्काराब्रह्मचर्या (र्य) व्यापारपरिवर्जित (जैन) रूपं परिपूर्ण पौषधम्, न पुनरन्यतरेणापि प्रकारेण हीनं सम्यक् विधिनाऽनुपालयति आसेवते । | एतासु चतसृष्वपि व्रतादिप्रतिमासु बंधादीन् - बंधवधच्छेदप्रभृतीन् षष्ठिसंख्याकान् द्वादशव्रतविषयान् ( अतिचारान् ) प्रयत्नतो वर्जयति - परिहरतीति ४ ।
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8%AR
पञ्चम संवरद्वारे | रागादिआशातनान्तानां वर्णनं
शान०वि०
__अथ प्रतिमाप्रतिमास्वरूपं सम्यक्त्वं अणुव्रत-गुणवत-शिक्षाव्रतप्रतिमाचतुष्टयवान् स्थिरचित्त आराधकः [इतरो हि विराधको प्रश्न०व्या
भवति, यतोऽस्यां प्रतिमायां] निशि च चतुष्पथादौ कायोत्सर्गः क्रियते पौषधदिनेष्वपि द्रष्टव्यः प्रतिमाकायोत्सर्गः किं प्रमाणं ? एक वृत्ति | रात्रिप्रमाणं वा सर्वरात्रिप्रमाणो वा अस्नानः स्नानवर्जकः विकटे प्रकाशदेशे भुक्ते एवं दिवा न रात्रौ इत्यर्थः, दिवापि प्रकाशदेशे |
दिवापि अबद्धपरिधानकच्छ: दिवा ब्रह्मचारी रात्रौ परिमाणकृत् प्रतिमाकायोत्सर्गरहितेषु दिवसेषु इत्यर्थः, कायोत्सर्गस्थितः किं ॥८॥ & चिन्तयति इत्याह जिनगुणान् कामक्रोधादिनिजदोषान् तत्पतिपक्षभूतान् क्षात्यादिगुणान् धारयति पंचमासान् यावत् इति पंचमी।
अथ षष्ठी प्रतिमामाह-शृंगारादिकथा-स्त्रीकथावजं शरीरमात्रविभूषादिकं कुर्वन् रात्रावपि मैथुनं वर्जयन् चित्तक्षोभविधायकं यत् हा किश्चिदपि तत्सर्व वर्जयन् षट् मासान् यावत् विचरति इति षष्ठी।
अथ सप्तमी-सप्तमासान् यावत् पूर्वोक्तक्रियायुक्तः सचित्तं सचेतनं आहारं-अशन-पान-खादिम-खादिमरूपं नैव आहारयति इति सप्तमी ।
अथाष्टमी पूर्वोक्तक्रियायुक्तं अष्टमासान यावत् आरंभस्य पृथिव्याधुपमर्दनलक्षणस्य खयमात्मना करणं विधानं वर्जयति इत्यष्टमीट।
नवमी पुनः पूर्वोक्तसकलक्रियावान् नवमासान् यावत् पुत्रमित्रभ्रातृप्रेष्यादिपरैरपि न कारापयति उभयजन्या हिंसा स्वयं कर| णेऽपि कारापणेऽपि कृष्यादीनामपि इति ज्ञेयं नवमी ९।
अथ दशमी-पूर्वोक्तक्रियायुक्तो दशमासान् यावत् तदर्थ कृतं भक्तमोदनादि नैव भुजीत रे त्वन्यत् सावधकरणं तत्र क्षुरमु१ एतद्धिकं प्रवचनसारोद्धारे पृष्ठ २९४ तमे
CARISHABHASH A
॥८
॥
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- ভ-
बारस य
ण्डितमस्तकः शिखां धारयति केवलस्तादृशश्रावकः दशमप्रतिमःस्थो यदि भूम्यादौ स्थापितं निधानादिकं जानाति तदा तत्पृच्छतां सुतादीनां च कथयति अकथिते सति वृत्तिच्छेदप्राप्तेः अथ नैव जानाति तदा कथयति अहं न जानामि एतावन्मुक्त्वा नान्यत् किमपि | जल्पितुं कल्पते इति तात्पर्यार्थः, इति दशमी १० ।
अथैकादशीमाह- क्षुरमुण्डः कृतलोचो वा रजोहरणपतद्गृहधारी साधूपकरणं गृहीत्वा श्रमणो निर्ग्रन्थस्तद्वदनुष्ठान करणात् श्रमणभूतः साधुकल्पः गृहान्निर्गत्य निखिलसाधुसमाचारीचरणचतुरः समितिगुप्त्यादिसम्यगनुपालयन् भिक्षार्थ गृहकुलप्रवेशे प्रतिमाप्रतिपन्नाय श्रमणोपासकाय भिक्षां दत्तेति भाषमाणः कश्चित्पृच्छति कस्त्वं तदा प्रतिमाप्रतिपन्नः श्रमणोपासकोऽहमिति ब्रुवाणो ग्रामनगरादिषु अनगार इव मासकल्पादिना विचरत्येकादश मासान् यावदिति एतच्च उत्कृष्टतः कालमानमुक्तम् । जघन्यतः पुनरेका [दशा ]पि प्रत्येकमन्तर्मुहूर्त्तादिमाना एव तच्च मरणे वा प्रव्रजितत्वे वा सम्भवति नान्यथेति । तथा एकादशमासान् यावदित्येकादशी ११ । अथ उत्तरासु सप्तखपि प्रतिमासु आवश्यकचूया प्रकारान्तरमपि दृश्यते तथाहि - "राइभत्तपरिण्णाए पंचमी सचित्ताहारपरिण्णाए छट्ठी दिया बंभचारी परिमाण कडा सत्तमी दिया वि राओ वि बंभयारी असिणाणए वियडभोइ वोस केशमंसु रोम नहत्ति अहमी सारंभपरिष्णाए नवमी पेस [सारंभ] परिण्णाए दशमी उद्दिभत्तपाणवज्जए समणभूएत्ति एकादशी” इति दृश्यते इत्यादि भूयान् विचारस्तु ग्रन्थान्तरादवसेयः इति ।
१ प्रवचनसारोद्धार पृष्ठ २९६ तमे एतदालापको न्यस्तो
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ज्ञान०वि०
प्रश्न०व्या०
वृत्ति
॥८२॥
भिक्खुपडिमा १२ किरियठाणा य १३
वारसय भिक्खुपडिमा - तथा द्वादश साधूनां भिक्षूणां प्रतिमा अभिग्रहविशेषास्ताश्चेमा :- मासाइ सत्तंता पढमा बीयाय तईय सप्त राइदिणा अहोराई ११ एगराई १२ भिक्खुपडिमाण बारसगं ॥ १॥ तत्रैकमासिकी द्विमासिकी, त्रिमासिकी सप्तमी सप्तमासिकी एवं सप्त अष्टमी-नवमी-दशमी प्रत्येकं सप्तरात्रिदिवसमानाः, एकादशी अहोरात्रिदिवसमाना, द्वादशी एकरात्रिमाना तद्वयाख्यानं तु पूर्वलिखितमस्ति ततो ज्ञेयम् ।
“तेरसकिरियाडाणा" त्रयोदश क्रियास्थानानि आत्मनो व्यापाररूपाः यथा
अट्ठा १ - ट्ठा २ - हिंसा ३ कम्हा ४ दिट्ठीय ५ मोस ६ दिनेय ७ अज्जप्प ८ माण ९ मित्ते १० माया ११ लोभे १२ रियावहिया १३ ॥ १ ॥
व्याख्या करणं क्रिया कर्मबन्धनिबन्धना चेष्टा तस्याः स्थानानि - मेदाः क्रियास्थानानि तानि च त्रयोदश तत्र अट्ठा गट्ठा हिंसत्ति अत्र त्रिषु पदेषु प्राकृत्वात् चतुर्थ्येकवचनस्य लोपो दृष्टव्यः ततो अर्थाय खपरप्रयोजनाय क्रिया अर्थक्रिया, अनर्थाय - स्वपर प्रयोजनाभावेन क्रिया अनर्थक्रिया, हिंसाथै क्रिया हिंसाक्रिया, तथा अकस्मात् क्रिया, तथा दृष्टिविपर्यासाऽदत्तादानक्रिया, अध्यात्मक्रिया, मानक्रिया, अमित्रक्रिया मायाक्रिया, लोभक्रिया, ईर्यापथिकीक्रिया, इति, एतानि व्याचिख्यासुः प्रथमस्थानमाह सस्थावरप्राणिषु यः कश्चित् दण्डयं दण्डयते आत्मनोऽन्यो वा प्राणी येन, तथा [ स्वशरीरादेः] खजनाद्यर्थं वा राजनियोगाद्यर्थं वा
१ प्रवचनसारोद्धार गाथा ८१८
पश्चम संवरद्वारे
रागादिअशातना
न्तानां
वर्णनं
॥८२॥
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BARAGAVA-90-%AR
| येन स अर्थदण्डः १ यः पुनः कश्चित् सरटादिकं [ककलास] मृषकादिकं वा वनलतादिकं वा प्रयोजनं विनैव मारयित्वा छित्त्वा, त्यजति सा अनर्थक्रिया, २ । अयं सर्पादिवैरी वा अस्मान् हिंसितवान् हिनस्ति, हिसिष्यति वा मनसि विचार्य सादेवैरिणो वा यो | दण्डं आरभते स हिंसादण्डः ३ अन्याथै मृगपक्षिसरीसृपप्रभृतीनां मारणाय शरलोष्ठ्वादिकं क्षिपति अन्यं पुनर्हन्यात् अन्तराले स दण्डोऽकस्माइंडः एवं शाल्यादिकं अन्यस्मिन् छिंद्यमाने अन्यं छिंद्यादिति अकस्माद्दण्डः ४ दृष्टेवुद्धेः विभ्रमो विपर्यासो मतिविभ्रमः मित्रमपि सत् अमित्रं कृत्वा घातयेत् स दृष्टिविपर्यासो दृष्टिक्रिया, ५ आत्मार्थ परेषां वा अर्थाय यो मृषा वदति स मृषादण्डः, ६ मृषावादवत् आत्मार्थ नायकादीनां परार्थे वा अदत्तादानं कुरुते स अदत्तादानदंडकः ७ अध्यात्म मनः तत्र भवो वा बाह्यनिमित्तान-2 पेक्षः शोकादि अभिभव एतावता यस्य संमुखं न कोऽपि किञ्चिदनिष्टं जल्पति न कोऽपि विरूपं कुरुते तथापि हृदयेन किश्चिदतिशयेन में या दुर्मनाः भवति तस्याध्यात्मिकी क्रिया भवति, तस्य चत्वारि कारणानि क्रोध-मान-माया-लोभाश्चेत्यादीनि कारणानि अध्यात्मक्रि. यायां भवन्ति बाह्यनिमित्तमनपेक्षमाभ्यंतरनिष्कारणमन्तरेण क्रोधादिसमुद्भुतं दौर्मनस्यं भवति तस्याध्यात्मिकक्रियेति तात्पर्यार्थः ८६ यः पुनर्जातिमदादिना जाति-कुल-रूप-बल-श्रुत-तपो-लाभैश्वर्यमदाष्टविधलक्षणेन मानेन मत्तः सन् परं हीलेइ खिसइ गरहइ एषा| क्रिया मानक्रिया ९ तथा यः पुनर्मातापितृस्वजनादीनां अल्पेऽप्यपराधे तीव्र दण्डं कुरुते दहनांकनवधताडनादिकं तन्मित्रद्वेषवति । र अमित्रक्रियास्थानं सा अमित्रक्रिया १० मायाक्रियास्थानं यथा-मनसि अन्यत् वाचि अन्यत् आचरति अपि अन्यत् विसंवादि गुप्त- |
सामर्थ्यः सन् करोति एषा क्रिया मायाक्रिया ११ इतः उर्ध्व पुनर्लोभप्रत्ययिकी क्रिया सावद्यारंभा-पापव्यापारा परिग्रहेषु गाढतराकांक्षायुक्तः, स्त्रीषु कामभोगेषु अत्यंताशक्तः, आत्मानं गाढादरेण रक्षन् अन्यसत्त्वानां वधबंधनमारणादिलक्षणानि करोति एषा
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ANG
मान वि० प्रभ०व्या०
प्रति
॥८
॥
| भूयगामा १४ परमाधम्मिया १५ लोभप्रत्ययिकी क्रिया १२ ईरणं ईर्या-गमनं तद्विशेषः पंथा ईर्यापथस्तत्रभवा ऐर्यापथिकी, इति व्युत्पत्तिमात्र प्रवृत्तिनिमित्तं तु केवल संवरद्वारे | योगप्रत्यय उपशांतमोहादिगुणत्रयस्य सातवेदनीयकर्मस्य (णः) बंधः सा ईर्यापथिकी, यथा साधोः समितिगुप्तिसंवृतस्य उपशांतमोह
रागादिक्षीणमोहसयोगिकेवलिलक्षणगुणस्थानत्रयवर्तिनः अप्रमत्तस्य अत्राप्रमत्तग्रहणेनान्येषां कषायप्रत्ययानां केवलं योगनिमित्तकर्मबंधोदया
| आशातना
न्तानां संभवात् अप्रमत्तशब्देनार्थः । भगवतः यावच्चक्षुःपक्ष्मांकवर्तिनः यावत् चक्षुनिमेषोन्मेषमात्रोऽपि योगः संभवति तावत् सूक्ष्मा-एक
वर्णनं सामायिकबंधत्वेनेत्यलं सातबंधलक्षणा क्रिया भवति सा ईर्यापथिकीक्रिया त्रयोदशक्रियास्थानमिति
भूयग्गामाणय १४ तथा चतुर्दशभूतग्रामाः जीवसमूहाः तत्रैकेन्द्रियाः सूक्ष्माबादराश्च, द्वीन्द्रियाः त्रीन्द्रियाः चतुरिन्द्रियाः | पंचेन्द्रियाः संझिनः असंज्ञिनश्चेति सप्त ता(ते) पर्याप्ताऽपर्याप्तमेदाद्विधेति १४
पंचदश परमाधार्मिका नारकाणां दुःखोत्पादकाः असुरकुमारविशेषाः ते चामी-अंबे १ अंबरिसी२ चेव सामेय सबले विय ४ रूद्द ५ उवरुद्द ६ काले ७ महाकालेत्ति ८ आवरे १, असिपत्ते ९ घणु १० कुम्भे ११ बालू १२ वेयरणी ४ इय १३ खरस्सरे १४ महाघोसे १५ एए पन्नरस परमाहम्मिया त्ति गाथा ।। व्याख्या-परमाश्च ते अधार्मिकाश्च संक्लिष्टपरि-ल णामत्वात् परमाधार्मिका-असुरविशेषास्ते च व्यापारमेदेन पंचदश भवंति तत्र यः परमाधार्मिकदेवो नारकान अंबरतले नीत्वा निःशंक
१ प्रवचनसारोद्धार गाथा ८१८-८३५ वृत्तौ पृष्ठ २३७-२३९ तमे वर्णितत्रयोदशक्रियास्थान-निरूपणादत्रोद्धृतं प्रतिभाति ॥ २ प्रयचनसारोद्धार गाथा ८५-८६ वृत्तौ पृष्ठ ३२१-३२२ तमे पंचदशपरमाधार्मिकस्वरूपात्रोद्धृतं प्रतिभाति अक्षरशः॥
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BA0%
मुञ्चति स अंबः१ यस्तु नारकान् निहत्य कल्पनिकाभिः खंडशः कृत्वा भ्राष्ट्रपाकयोग्यान् करोति स अंबरीषा२ यस्तु रज्जुपाणिग्रहा* रादिना शातनपातनादि करोति वर्णतोऽपि श्यामः स श्यामः ३ यश्च अंत्रवसाहृदयकालेज्यकादीनि उत्पाटयति वर्णतोऽपि शबलः स | शबलः ४ यः कुन्तादिषु नारकान् प्रोतयति स रौद्रत्वाद्रौद्रः ५, यस्तु तेषां नारकाणां मुद्गरादिना अंगोपांग विभनक्ति अतिरौद्रत्वात् स महारौद्रः ६ यः पुनः चुल्ल्यादिकं कण्ड्वादिषु पचति वर्णतोऽपि कालः स कालः ७ यश्च नारकाणां तीक्ष्णमांसानि खंडयित्वा | खादति वर्णतश्च महाकालः स महाकाल:८ असिः-खड्गस्तदाकारपत्रवद्वनं विकुळ यस्तदाश्रितनारकान् असिपत्रपातनेन तिलशः छिनत्ति सोऽसिपत्रः९ यो धनुर्मुक्ताधचन्द्रादिभिर्वाणैः कर्णादीनां छेदनमेदनादि करोति स धनुपत्रः १० भगवत्यां तु महाकालानन्तरमसिः ततोऽसिपत्रः ततः कुंभिरिति पठयते, तत्र योऽसिना नारकान् छिनत्ति सोऽसिः शेषं तथैव, यः कुम्भ्यादिषु तान् पचति स कुंभः ११ | यः कदंबपुष्पाकारासु वज्राकारासु वैक्रियवालुकासु तप्तासु चनकानिव तान् पचति स वालुकः १२ विरूपं तरणं अस्याः प्रयोजनं सा
वैतरणी यथार्था पूयरुधिरत्रपुताम्रादिभिरतितापात् कलकलायमानैः भृतां नदी विकुळ तत्चारणार्थ यः नारकान् कदर्थयति स वैतरणिकः १३ यो वजकंटकाकुलं शाल्मलीवृक्षं नारकमारोप्य खरखरं कुर्वन्तं कुर्वन् वा कर्षति स खरस्वरः १४ यस्तु भीतान् अबलायमा. | नान् नारकान् पशूनिव वाटेषु महाघोष कुर्वनिरुणद्धि स महाघोषः१५ एवमेते पंचदश परमाधार्मिकाः प्राग्जन्मनिबद्धसंक्लिष्टक्रूरक्रियाः पापाभिरताः पंचाग्न्यादिरूपं मिथ्याकष्टतपः कृत्वा रौद्रीमासुरगतिमनुप्राप्ताः संतो नारकाणामाद्यासु तिसृषु पृथिवीषु विविधवेदनाः | समुदीरयन्ति तथा कदीमानांश्च नारकान् दृष्ट्वा इहत्यमेषमहिषकुकुटादियुद्धप्रेक्षकनरा इव हृष्यन्ते हृष्टाश्चाट्टाट्टहासं चेलोत्क्षेपं त्रिपकावास्फालनादिकं च कुर्वन्ति किं बहुना ? यथैषामित्थ प्रीतिन तथा नितान्तकान्ते प्रेक्षणकादाविति ज्ञेयं इति पंचदशाऽपि परमाधार्मि
AONॐ4%AUSA
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शान०वि०
प्रश्न०व्या०
॥८४||
माता
SARIES कसर
गाहासोलसया १६ असंजम १७ अबंभ १८ णाय १९
पश्चम | कखरूपम् ।
संवरद्वारे गाहा सोलसा य १६ गाहा सोलसयति गाथा षोडशानि गाथाभिधानं षोडशमध्ययनं येषां तानि गाथा षोडशकानि-सूत्रक. रागादितांगस्य प्रथमश्रुतस्कन्धाध्ययनानि तानि चैतानि समओ वेयालियं २ उवसग्गपरिणाय ३ थीपरिणाय ४ निरयवि
|आशातना.
न्तानां भत्ति ५ वीरत्थओ य ६ कुसीलाण परिभासा ७॥१२॥ वीरिय ८ धम्मो९ समाही १० मग्ग११ समोसरणाणि१२
वणन अहा तहं १३ गंथो १४ जमईयं १५ तह गाहा १६ सोलसमं चेव अज्झयणमिति।
असंजमो१७ सप्तदशविधः असंयमः, स चाऽयं-पुढवि१ दग २ अगणि ३ मारुय ४ वणप्फई ५ बि ६ ति ७ चउ ८ पणिदि ९ अजीवे १०, पेह ११ उवेह १२ पमन्जण १३ खेवण १४ मणो १५ वइ १६ काय १७ जोगेहिं १ इति | सप्तदश योगाः, अन्यत्राप्युक्तं पंचाश्रवाद्विरमणः पंचेन्द्रियनिग्रहः कषायजयः दण्डत्रयविरतिश्चति संयमः सप्तदशभेदः। तथा द्वादशाविरतिः प्रमादपंचकं वा, इति असंयमः तथा संयमादन्यः असंयम इति व्युत्पत्तिमात्रव्याख्यानं ज्ञेयं ।
अभं १८ अष्टादशविधं अब्रह्म तच्चैवं ओरालियं च १ दिव्वं २ मण १ वय २ कायाण ३ करण जोगेहिं । अणुमोयण १ करावण २ करणेण ३ हारसाबंभंति १। औदारिकं मनाप्रभृतिकरणानामनुमोदनादियोगैर्नवधा एवं दिव्यवैक्रियमपीत्यष्टादशधाब्रह्ममेदं ज्ञेयं
॥८ ॥ एगुणविसाए णाए १९ एकोनविंशतिव्रताध्ययनानि तानि चामूनि उक्खित्तणाए१ संघाडेर अंडे३ कम्मेय ४ सेलए।
SAHASRAECANCEROES
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असमाहिठाणा २० सबला २१
तुम्बे य ६ रोहिणी ७ मल्लि ८ मायंदी ९ चंदिमा उ य १० ॥ १॥ दावहवे ११ उदगणाए १२ मंडुक्के १३ तेयलीह य १४ मंदिफले १५ वरकंका १६ आइन्ने १७ सुसमा १८ पुंडरीए य १९ ॥ २॥ इति ज्ञाताध्ययनानि,
असमाहिठाणा २० अस्रमाहिठाणा विंशतिरसमाधिस्थानानि - चित्तस्वास्थ्याश्रयाः, तानि चामूनि द्रुतचारिता १ अप्रमार्जितचारित्ता २ दुःप्रमार्जित चारित्ता ३ अतिरिक्तशय्यासनिकत्वं ४ आचार्याभिमुखभाषित्वं ५ स्थविरोपघातित्वं ६ भूतोपघातित्वं ७ संज्वलनत्वं प्रतिक्षणरोपणत्वं ८ क्रोधनत्वं - अत्यंत क्रोधशीलता ९ पृष्टमांसिकत्वं - परोक्षस्यावर्णवादित्वं १० अभीक्ष्णमवधारकत्वं शंकितस्यापि अर्थस्याप्यवधारकत्वं ११ नवानामधिकरणानां क्रोधादीनामुत्पादनं १२ पुराणानाम् तेषामुदीरकत्वं १३ सरजस्कपाणिपादत्वं १४ अकालस्वाध्यायकरणं १५ कलहत्वं - कलहहेतुभूत कर्त्तव्यकारित्वं १६ रात्रौ महच्छब्देन उल्लापितत्वं शब्दकरणत्वं १७ झंझाकारित्वं गणस्य चित्तभेदकारित्वं मनोदुःखकारिवचनभाषकत्वं वा १९ सूर्यप्रमाणभोजित्वमुदयास्तमनं यावद्भोजित्वं १९ एषणायां गोचर्यां असमितत्वं चेति २० इति विंशतिरसमाधिस्थानानि ज्ञातव्यानि ॥ २०॥
एकविंशतिः शबलाश्चारित्रमालिन्यहेतवः ते चामी - हस्तकर्म करणं १ मैथुनमतिक्रमादिना २ रात्रिभोजनं ३ आधाकर्मणः ४ शय्यातरपिंडग्रहणं ५ उद्देसिकक्रीतापमित्यकाछेद्यानि सृष्टादेव भोजनं ६ प्रत्यख्याताशनादिभोजनं ७ षण्मासान्तर्गणाद्गणान्तरसंक्रमणं वा अनिष्टया विचरणं वा ८ मासस्यान्तस्त्रिकृत्वो नाभिप्रमाणजलावगाहनं ९ मासस्यान्तस्त्रिर्मायायाः करणं १० राजपिंडादिना भोजनं ११ आकुट्या प्राणातिपातकरणं १२ एवं मृषा वादनं १३ अदत्तग्रहणं १४ तथैवात्यंतस चित्तपृथिव्यां कायोत्सर्गादिकरणं १५ एवं
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RECA-
वर्णन
शान०वि० | परिसहा २२ सूयगडझयण २३ देव २४ भावण २५ उद्देस २६
पञ्चम प्रश्न०व्या०| सस्नेहं सरजस्कायिकायां कायोत्सर्गादिकरणं १६ अन्यत्रापि प्राणिवीजादियुक्ते कायोत्सर्गकरणं १७ आकुट्या मूलकंदादिकभोजनं१८| | संवरद्वारे वृति Fol संवत्सरस्यांन्तर्दशकृत्वो नाभिप्रमाणजलावगाहना १९ संवत्सरस्यान्तर्दशमायास्थानकरणं २० अभीक्ष्णं शीतोदकप्लुतहस्तादिनाऽशना- रागादिदेग्रहणं भोजनं २१ चेत्येकविंशतिः शबलाः अतिक्रमव्यतिक्रमादेर्यावत् सर्वत्र पदे शेयमिति ॥२१॥
आशातना ॥८५|| परीसहाय २२-खुहा १ पिवासा २ सी उण्हं ३-४ दंसा ५ चेला ६ ऽरई ७त्थीओ ८।चरिया ९ निसहिया
न्तानां १० सिज्जा ११ अकोस १२ वह १३ जायणा १४ ॥१॥ अलाभ१५रोग१६तणफासा १७ मलसकारपरिसहा १८४ १९ पन्ना २० अन्नाण२१ समत्तं २२ इय बावीसपरिसहा ॥२॥ इति परीषहाः॥२२॥ * सूयगडज्झयणा २३-त्रयोविंशतिः सूत्रकृताऽध्ययनानि तत्र समयादीनि प्रथमश्रुतस्कंधभवानि पूर्वोक्तानि षोडश द्वितीयश्रुत-1*
स्कंधभवान्यध्ययनानि सप्त तद्यथा "पुंडरिय १ किरियट्ठाणं २ आहारपरिण ३ पच्चक्खाण किरियाय ४ अणयार ४५ अ६ ६ नालंद एय ७ सोलसाई तेवीसं ॥१॥” इति त्रयोविंशतिः अध्ययनानि ॥२३॥
देवा २४-चतुर्विशतिर्देवाः तत्र गाथा "भवण १ व २ जोइ ३ वेमाणियाय४ दश अट्ठ पंचेगविहा इति "चउवीसं देवा केइ पुण विंति अरिहंता" । इति ॥२४॥ तथा भावणत्ति पंचविशतिर्भावनाः ताश्च प्रवचने प्रतिमहाव्रतं पंच पंचाभिहिताः स्वयमेवेति ज्ञेयाः ॥२५॥
॥८५॥ उद्देसणकाला २६ तथा पइिंशतिः उद्देशनकालाः दशाकल्पव्यवहाराणां तत्र गाथा-दस उद्देसणकाला दसाण छच्चेव हुति
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AGARIOR
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गुण २७ पकप्प २८
कप्परस दस चैव य ववहारस्स हुंति सव्वैवि छन्वीसं१ दशाकल्पानां दश उद्देशनकालाः दश व्यवहारकल्पानां षट् उद्देशनकालाः कल्पस्य जीतव्यवहारकल्पस्येति एवं षड्विशतिज्ञेयाः ॥ २६ ॥
गुणति सप्तविंशतिरनगारगुणाः तत्र महाव्रतानि पंच, ५ इन्द्रियनिग्रहाः पंच ५ क्रोधादिविवेकाश्चत्वारः ४ सत्यानि त्रीणि ३ तत्र भावना सत्यं शुद्धान्तरात्मा करणसत्यं यथोक्तक्रियाप्रतिलेखनादिकरणं योगसत्यं - मनःप्रभृतीनामविचलनं १७ क्षमा १८ विरागता १९ मनःप्रभृतिनिरोधाश्च ३ एवं २२ ज्ञानादि संपन्नता २५ वेदनादि सहनं २६ मरणांतिकोपसर्गसहनं चेति२७ अहवा "वय छक्क ६ मिंदियाणं च निग्गहो ११ भावकरणसचं च १३ खमया १४ विरागया विय १५ मनमाईणं निरोहो य | ॥ १८ ॥ १ ॥ एवं कायाण छक्क २४ जोगंमि जुत्तया २५ वेयणाइ पीडणया सहणे २६ तहा मरणंते संलेहणाय २७ एए अणगार गुणा ||२||" ति ज्ञेयं ॥ २७॥
पकप्पा २८ - पकप्पत्ति अष्टाविंशतिविधः आचारप्रकल्पः निशीथांतमाचारांगमित्यर्थः स चैवं "सत्थपरिण्णा १ लोकविजओ २ सीओसणिज्जं ३ सम्मत्तं ४ आवंति ५ ध्रुव ६ विमोहो ७ उवहाणसुयं ८ महपरिण्णा ९ ॥१॥ प्रथमस्य श्रुतस्कन्धस्याध्ययनानि द्वितीयस्य तु “पिंडेसण १ से २ इरिया ३ भासजायाय ४ वत्थेसणा ५ पाएसणा ६ उग्गहपडिमा ७ सत्त सत्तिया ८ एवं १४ भावणा १५ विमुत्ती १६ इत्याचारांगस्य उग्धाई १ अणुग्धाई २ आरोवण ३ तिविहमो निसीहं तु इइ अट्ठावीसविहो आयारपकप्प नामो ति ||३||" तत्र उद्घातिकं यत्र लघुमासादिकं प्रायश्चित
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ज्ञान०वि०
प्रश्न०व्या०
वृत्ति
॥८६॥
पावसुत २९ मोहणिजे ३०
अनुद्घातिकं यत्र गुरुमासादि कल्पते २ आरोपणा च यत्र कस्मिश्चिद् प्रायश्चिते अन्यदप्यारोप्यते पर्यायछेदादिना वा इत्यष्टाविंशतिः
आचारप्रकल्पाः ॥२८॥
पावसुय २९ पावसुयति एकोनत्रिंशत् पापश्रुतप्रसंगास्ते चामी अट्ठनिमित्तंगाई दिव्वु १ प्पायं २ तलिक्ख ३ भोमं ४ च ५ सर ६ वंजण ७ लक्खणे ८ एकिकं पुण तिविहं सुत्तं वृत्ति वार्तिकं १ एवं २४ गंधव्व २५ नह २६ वत्युं २७ तिमिच्छ २८ घणुवेयसंजुत्तं २९ इत्येकोनत्रिंशत्पापश्रुतानि ॥ २९ ॥
मोहणिज ३० त्रिंशत् मोहनीयस्थानानि - महामोहबंधहेतवः, तानि चामूनि जलान्तर्बोलनेन त्रसजीवानां हिंसनं १ एवं इस्तादिना मुखादिश्रोतः पिहननं २ वर्धादिना शिरोवेष्टनं ३ मुद्गरादिना शिरोभिघातेन हननं ४ भवोदधिपतितजंतूनां द्वीपकल्पस्य प्राणिनो हननं ५ सामयै सत्यपि घोरपरिणामात् ग्लानस्यौषधादिभिरप्रतिचरणं ६ तपस्विनो बलात्कारेण धर्मासनं ७ सम्यग्दशनादि मोक्षमार्गस्य परेषां विपरिणामकरणेनापकारकरणं ८ जिनानां निंदाकरणं ९ आचार्यादेः खिंसनं १० आचार्यादीनां ज्ञानदानादिभिरूपकारिणां कार्येष्वपि अप्रतितर्पणं ११ पुनः पुनरधिकरणस्य- नृपप्रयाणकादिनादेः कथनं १२ वशीकरणादिकरणं १३ प्रत्याख्यात भोगप्रार्थनं १४ अभीक्ष्णमबहुश्रुतत्वेप्यात्मनो बहुश्रुतत्व प्रकाशनं १५ एवमतपस्विनोऽपि तपस्विताप्रकाशनं १६ बहुप्राणिनां अन्तर्धूमेनाग्निना हिंसनं १७ अकृत्यं स्वयंकृतस्याऽन्यशिरस्याविर्भावनं १८ विविधप्रकारै मायया परवचनं १९ अशुभाशयात् सत्यस्यापि समायां मृषेति प्रशंसनं २० अक्षीणकलहत्वं २१ विश्रंभोत्पादनेन परधनापहरणं २२ एवं परदारलोभनं २३ अकुमारत्वेनाप्यात्मनः
पश्चम
संवरद्वारे रागादि
आशातना
न्तानां
वर्णनं
॥८६॥
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सिद्धातिगुणा य ३१ जोगसंगहे ३२
कुमारत्वभणनं २४ एवमब्रह्मचारित्वेऽपि ब्रह्मचारित्वप्रकाशनम् २५ येनैश्वर्यत्वं प्रापितस्तस्यैव परोक्षे द्रव्यस्य लोभकरणं २६ यत्प्रभावेन ख्यातिं गतस्तस्य कथञ्चित् अन्तरायकरणं २७ राजासेनाधिपराष्ट्रचिंतकादेर्बहुजननायकस्य हिंसनं २८ अपश्यतोऽपि पश्यामीति मायया देवादिकमिति भणनं २९ अवज्ञया देवेषु अहमेव देव इति प्रख्यापनं ३० इति त्रिंशन्मोहनीयस्थानानि
सिद्धातिगुणा य ३१ सिद्धातिगुणाश्चेति एकत्रिंशत् सिद्धानामादित एव गुणाः सिद्धगुणाः सिद्धानां वा आत्यंतिकाः गुणाः सिद्धगुणाः ते चामी -" से ण तंसे न चउरंसे ण वट्टे ण परिमंडले ण आयते " इति संस्थानपञ्चकस्य निषेधतः वर्णपञ्चकस्य गंधद्र| यस्य रसपञ्चकस्य स्पर्शाष्टकस्य वेदत्रयस्य एवं २८ अकाय: २९ असंग: ३० अरूह ३१ श्रेति यदुक्तं "पडिसेहणसंहाणे ५ वण्ण | ५ गंध २ रस ५ फास ८ वेदे य ३ पणपण दु पणट्ट तिहा इगतीसाकाय असंगऽरुहा || १ ||" अथवा क्षीणाभिनिबोधिकज्ञानावरणः क्षीणश्रुतज्ञानावरण इत्यष्टकर्मभेदानाश्रित्य एकत्रिंशद्भेदा आह च पंचणाणावरणे णव दंसणावरणे चत्तारि आउए अन्तो पंच सेसे दो दो भैया खीणाभिलावेण भणियव्वा इगतीसं ||१|| सिद्धगुणाः । ज्ञानाव (रण) ५ दर्शनाव० १९ वेदनीय २ मोहनीय २ आयुः ४ नामक० २ गोत्रक० २ अन्तराय ५ प्रकृतयः क्षीणाः इति वाच्यम् ।
जोगसंग ३२ अथ द्वात्रिंशत् योगसंग्रहाः - युज्यन्ते इति योगाः मनोवाक्कायव्यापारास्ते चेह प्रशस्ता विवक्षितास्तेषां शिक्षाचार्यगतानां आलोचनादिभिरपलापादिना प्रकारेण संग्रहणानि संग्रहाः प्रशस्तयोगसंग्रहत्वात् आलोचना अत एव तथोच्यते ते च १ आलोयणा णिरवलावे... बत्तीसं संगद्दा इति गाथापञ्चकम्
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भ345615
ज्ञान०वि०
वृत्ति
| द्वात्रिंशत् भवन्ति, तानाह-आलोयणत्ति तत्र प्रथमं मोक्षसाधकयोगसंग्रहाय शिष्येण आचार्याय आलोचना दातव्या, इति कोऽर्थः?
पश्चम | शिष्येण स्वकीयापराधालोचना आचार्याय सम्यग् निर्मायतया कथयितव्या इत्यर्थः१, निरवलावे त्ति आचार्योऽपि मोक्षसाधकयोप्रश्न०व्या०
संवरद्वारे गसंग्रहायैव दत्तसमालोचनायां निरपलापत्वं, अपरिश्रावित्वं नाऽन्यस्मै कथयितव्यमित्यर्थः २ आवत्तीसु दढधम्मयात्ति प्रशस्त
रागादिटू योग-संग्रहाय साधुना आपत्सु द्रव्यादिभेदात् सुदृढधर्मता कार्या सुतरां सुदृढधर्मणा भाव्यम् ३, अणिस्सिओवहाणेत्ति शुभयोग आशातना
संग्रहायैव अनिश्रितत्वं च तदन्यनिरपेक्षमुपधानं च तपोऽनिश्रितोपधानं परसाहायाऽनपेक्षं तपो विधेयमित्यर्थः ४ सिक्खत्ति ॥८७॥
न्तानां योगसंग्रहाय शिक्षा सेवितव्या सा च सूत्रार्थग्रहणरूपा, प्रत्युपेक्षाद्यासेवना चेति द्विविधा ५ णिप्पडिकम्मयत्ति तथैव निपति
वर्णनं ६ कर्मता शरीरस्य विधेया ६ अण्णाययत्ति तपसि अज्ञानता अप्रकटता कार्या यशः पूजाद्यर्थत्वेनाप्रकाशयद्भिस्तपः कार्यमित्यर्थः ७
अलोभयत्ति अलोभता विधेया ८ तितिक्खत्ति तितिक्षा-परीषहादिजयः ९ अञ्जवत्ति-धर्म ऋजुता भावः १० सुइत्ति सत्यं हैं संयमः इत्यर्थः ११ सम्मदिहित्ति सम्यग्दर्शनशुद्धिः १२ समाहियत्ति समाधिः चेतःस्वास्थ्यम् १३ आयारे विणओवएत्ति
द्वारद्वयं तत्राचारोपगतः स्यात् मौनं कुर्यात् इत्यर्थः १४ विनयोपगतो भवेन्न मानं कुर्यादित्यर्थः १५ धिइमइयत्ति धृतिप्रधानामहतिधृतिमतिरदैन्यं धर्म १६ संवेगत्ति संवेगः संसारभयं मोक्षाभिलाषो वा १७ पणिहित्ति प्रणिधिर्माया सा न कार्या इत्यर्थः १८
सुविधिस्सदनुष्ठानं १९ संवरत्ति आश्रवनिरोधः २० अत्तदोसोवसंहारेत्ति खकीयदोषस्य निषेधः २१ सब्वकामविरयत्ति | | समस्तविषयबैमुख्यं २२ पञ्चक्खाणेत्ति प्रत्याख्यानं मूलगुणविषयं २३ उत्तरगुणविषयं च २४ विउस्सगत्ति व्युत्सर्गो द्रव्य
॥८७|| | भावभेदभिन्नः २५ अप्पमाएत्ति प्रमादवर्जनं २६ लवालवेत्ति कालोपलक्षणं तेन क्षणे क्षणे समाचार्यनुष्ठानं कार्य २७ संवर
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4৬64
तित्तीसा आसातणा सुरिंदा आदि
जोगेत्ति ध्यानमेव संवरयोगो ध्यानसंवरयोगः २८ उदए मारणंतिएचि मारणांतिकेऽपि वेदनोदये न क्षोभः कार्यः २९ संगाणं परिणत्ति संगाणां विषयाभिष्वंगानां ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञा कार्या ३० पायच्छित्त करणे इयत्ति प्रायश्चितकरणं कार्ये ३१ आराहणयाय मरणंतेत्ति मरणरूपोऽन्तो मरणान्तस्तत्र सम्यगाराधना संयमः कार्यः ३२ इति द्वात्रिंशत् योगसंग्रहाः सदृष्टान्ता आवश्यक नियुक्तिवृत्तितोऽवसेया विस्तरार्थिभिः तत्र द्रष्टव्यमिति
तिचीसासायणा ३३ अथ त्रयस्त्रिंशदाशातना आयो- ज्ञानादीनां लाभस्तस्य शातना खंडना यथा भवति सा अशातनास्तामाः रायणियस्स सेहो पुरओ गंता भवइ आसायणा सेहस्स इत्येवमालापो दृश्यते तत्र रत्नाधिकस्य पुरओति अग्रतः १ सपक्खे समानपक्षं समपार्श्व यथा भवति तथा समश्रेण्या गच्छति इत्यर्थः । चंक्रमणे स्थिते उपविष्टे गुरोरग्रे उभयोः पार्श्वे [आसने] गंता स्थाता निषीदन् एवं ९ शिष्यस्याशातना भवंति विचारभूमौ गतयोः द्वयोः पूर्वमाचमनं शैक्षस्याशातना १० एवं पूर्व गमनागमनालोचयतः ११ तथा रात्रौ रत्नाधिकेन को जागर्त्ति इति पृष्टे तद्वचनमप्रतिशृण्वतः १२ तथा रात्निकस्य आलपनीयस्य पूर्वमालापयत आशातना १३ लब्धमशनादि पूर्वं परमालोचयतः १४ एवमन्यस्योपदर्शयतः १५ एवं निमंत्रयतः १६ रात्निकमनापृच्छ्य अन्यस्मै भक्तादि ददतः १७ स्वयं प्रधानतरं भुंजानस्य १८ क्वचित्प्रयोजने दिवापि रात्निकवाचाऽप्रतिशृण्वतः १९ रात्निकं प्रति तत्समक्षं वा बृहता शब्देन बहुभाषमाणस्य २० व्याहृतेन मस्तकेन वंदे इति वक्तव्ये किं भणसि इत्यादि ब्रुवाणस्य २१ रात्निके प्रेरयति कस्त्वं प्रेरणाया१ प्रवचनसारोद्धारवृत्ति गाथा १२९-१४९ यावदाशातना स्वरूपम्
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ॐ
प्रश्नच्या वृत्ति
*SUS
पश्चम संवरद्वारे रागादिआशातना न्तानां वर्णन
॥८८॥
A STUSPUSISAHAUS
द एकातियं करेसा एक्कुत्तरियाए वड्डिए तीसातो जाव उ मवे एकाहिका विरतीपणिहीसु, अविरतीसु य एवमादि
सु बहूसु ठाणेसु, जिणपसाहिएसु, अवितहेसु, सासयभावेसु, अवट्ठिएसु संकं कंखं निराकरेत्ता सद्दहते सासणं मवदतः २२ हे आर्य ग्लानं किं न प्रतिचरसीत्याद्युक्ते त्वमेव किं न तं प्रतिचरसीत्यादि भणतः २३ गुरौः धर्म कथयति सति अन्य मनस्कतां भजतो नानुमोदयतः २४ कथयति गुरौ न सरसीति वदतः २५ धर्मकथामाछिंदतः २६ भिक्षावेला वर्तते इत्यादि वचनतः पर्षदां भिंदानस्य २७ गुरोः पर्षदोऽनुत्थितायास्तथैव व्यवस्थितायाः खदक्षत्वं जनयतो धर्म कथयतः २८ गुरोः संस्तारके निषीदतः
२९ गुरोः संस्तारके पादघट्टनं कुर्वतः ३० उच्चासने निषीदतः ३१ समासने निषीदतः ३२ गुरौ किश्चित्पृच्छति तत्र स्थितस्यैवोत्तरं 50 ददतः३३ इति त्रयस्त्रिंशदाशातना उक्ताः त्रयस्त्रिंशत्सुरेन्द्राः विंशतिभवनपतिषु दश वैमानिकेषु द्वौ ज्योतिष्केषु, चंद्रसूर्याणाम६ संख्येयत्वेऽपि जातिग्रहणात् द्वावेव विवक्षितौ, एको नृदेवश्चक्रवर्ती जात्यापेक्षया इति त्रयस्त्रिंशत् इयं सङ्ख्या वक्ष्यमाणसूत्रगत्या न |
प्रतीयते तथापि ग्रन्थान्तरादवसेयेति. । एवमेकत्वादिसंख्योपेता असंयमादयो भावा भवन्ति, किंभूतेषु ? एतेषु आदिम-प्रथमं एकादिक-एकद्वित्र्यादिकं
किं कृत्वा सङ्ख्या-सङ्खयाविशेषत्वं विधाय एकोत्तरिकया वृद्ध्या इति गम्यते वर्द्धितेषु संख्याधिक्यं प्राप्तेषु कियन्ती संख्यां यावदहै द्धितेषु इत्याह-तेत्तीसेत्ति यावत्रयस्त्रिंशद्भवति तावद्वक्तव्यम् , एकाधिकासु संख्यासु शंकादि निराकृत्यः शासनं श्रद्दधते स श्रमण इति
संबंधः। तथा विरतयः प्राणातिपातादिविरमणानि प्रणिधानानि विशिष्टैकाग्रत्वानि तेषु, अविरतेषु अविरमणेषु, अन्येषु च उक्त व्यतिरिक्तेषु एवमादिकेषु एवं प्रकारेषु बहुषु स्थानेषु पदार्थेषु संख्येयेषु चतुस्त्रिंशदादि यावद्वहुसंख्येयेषु, जिनशासितेषु-जिनप्रणीतेषु
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
॥८८॥
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|| भगवतो अणियाणे, अगारवे, अलुद्धे, अमूहमणवयणकायगुत्ते (सू० २८)
जो सो वीरवरवयण-विरतिपवित्थर-बहुविहप्पकारो, सम्मत्तविसुद्धमूलो, घितिकदो, विणयवेतितो, निग्गततिलोक-विपुलजसनिविडपीणपवरसुजातखधो, पंचमहव्वयविसालसालो, भावणतयंतज्झाणसुभजोगनाणपसमवायांगादिषु केषु केषु प्रोक्तेषु, अवितथेषु-सत्येषु आप्तप्रणीतं सत्यमेवेति वचनात् , शाश्वतभावेषु तथाऽक्षयस्वभावेषु अतएवाव| स्थितेषु सर्वदा द्रव्यतया भावेषु, शङ्का-संदेहं कांक्षा-अन्यमतग्रहरूपां तां निराकृत्य-अपनीय सद्गुरुपर्युपासनादिमिः, श्रद्धा द श्रद्दद्धानं तमेव सच्चं निःशंकं जं जिणेहिं पवेइयमिति प्रतीतिरूपं, शासन-प्रवचनं जिनस्य भगवतः स एव श्रमणः स है
कीरशः१ अनिदान:-देवेन्द्राधेश्वर्याद्यप्रार्थकः, अगौरव:-ऋक्ष्यादिगौरववर्जितः, अलुब्धो-अलम्पटः, अमूढो-दक्षः, मनोवचनकायगुप्तश्च यः स तथा अपरिग्रहसंवृतः श्रमणः इत्यर्थः ।
अधुना अपरिग्रहत्वमेव वर्णयन्नाह
योऽयं वक्ष्यमाणविशेषणः संवरपादपः चरमं संवरद्वारमिति संबंधः कीदृशः ? संवरपादपः, वीरवरस्य श्रीमन्महावीरस्य यदचनानाजाता या विरतिः परिग्रहानिवृतिः सैव प्रविस्तरो-विस्तारो यस्य स तथा, तत्र संवरपक्षे बहुविधप्रकारत्वं विचित्रविषयापेक्षया
क्षयोपशमाद्यपेक्षया च पादपपक्षे मूलकन्दादिविशेषापेक्षयेति ततः कर्मधारयः । तथा सम्यक्त्वमेव सम्यग्दर्शनमेव विशुद्ध निर्दोष मुलं-कन्दस्याऽधोवत्तिं यस्य स तथा, धृतिः-चित्तस्वास्थ्यं सैव कन्दः-स्कन्धाऽधोभागरूपो यस्य स तथा । विनय एव वेदिका | पार्श्वतः परिकररूपा यस्य स तथा पुनः कीदृशः ? प्राकृतत्वात् शब्दव्यत्ययः निर्गत-त्रैलोक्यगतं-भुवनत्रयव्यापकं अतएव विपुलं
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ज्ञान०वि०
प्रश्न०व्या० वृचि
॥८९॥
ल्लववरंकुरधरो, बहुगुणकुसुमसमिद्धो, सीलसुगंधो, अणण्हवफलो, पुणो य मोक्खवरबीजसारो, मंदरगिरिसिहरचूलिका इव इमस्स मोक्खवरमुत्तिमग्गस्स सिहरभूओ, संवरवरपादपो चरिमं संवरदारं ।
जत्थ न कप्पर गामागर - नगर - खेड - कब्बड - मडंब - दोण - मुह-पट्टणा - समगयं च किंचि अप्पं व बहुं व विस्तीर्ण यद्यशः - ख्यातिस्तदेव निचितो - निविडः पीनः- पीवरो महान् सुजातः - सुनिष्पन्नः स्वन्धो यस्य सः तथा पुनः कीदृशः ? पंचमहाव्रतान्येव विशालाः - विस्तीर्णाः शाला:- स्कन्धशाखाः यस्य स तथा । पुनः कीदृशः ? भावना एवानित्यत्वादि त्वक् यस्य सः | तथा, पुनः कीदृशः ९ ध्यानं च शुभयोगाश्च धर्मध्यानादि सद्वधापाराः ज्ञानं च - बोधविशेषः तान्येव पल्लववरांकुराः - प्रवालप्रवरप्ररोहांस्तान् धारयतीति यः स तथा सर्वत्र कर्मधारयः । बहवो ये गुणाः शुभफलरूपा वाऽतएव कुसुमानि तैः समृद्धो जातसमृद्धियः स | तथा, शीलं - ब्रह्म तथा ऐहिकफलानपेक्षप्रवृत्तिरेव वा सदाचारं समाधानं वा तदेव सुगन्धः -सद्गन्धो यत्र स तथा, अनाश्रवः नवकर्मानुपादानं स एव फलं यस्य स तथा, अथवा अनाश्रवो वचनस्थितत्वं तदेव फलं यस्य आज्ञाफल इत्यर्थः
पुनः कीदृशः १ पुनः पुनर्वरबीजं - बोधिस्तदेव सारं मिंजालक्षणो यस्य स तथा, मंदरगिरिः - मेरुधराधरस्तस्य शिखरे या चूलिका चूडा तथा इव सा इव, अस्य - प्रत्यक्षस्य मोक्षवरे - भावमोक्षे सकलकर्मक्षयलक्षणे गंतव्ये मुक्तिरेव निर्लोभता यो मार्गः तस्य शिख| रभूतः - शेखरकल्पः कोऽसौ इत्याह संवर एव-आश्रवनिरोध एव वरपादपः पंचप्रकारस्याऽपि संवरस्य उक्तरूपस्येति ज्ञेयं
अथ चरिमं संवरद्वारं उपसंहरन्नाह - चरमं संवरद्वारं- आश्रवनिरोधमुखं इति पुनर्विशेषयति यत्र संवरद्वारे - परिग्रहविरमणलक्षणे | सति न कल्पते- न युज्यते परिगृहीतुं इति संबंधः किं तत् इत्याह- प्रामागारनगरखेटक कर्बट मडंबद्रोणमुखपत्तनाश्रमगतं वा एतेषां
*
पश्चम
संवरद्वारे परिग्रह
विरतौ
संवरपादपः
॥८९॥
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अणुं व थूलं व तसथावरकायदव्वजाय मणसावि परिघेत्तुं ण हिरन्नसुवन्नखेत्तवत्थु, न दासीदासभयकपेसहहै यगयगवेलगं च, न जाणजुग्गसयणाइ, ण छत्तकं, न कुंडिया, न उवाणहा, न पेहुणवीयणतालियंटका, ण यावि
अय-तउय-तंब-सीसक-कंस-रयत-जातरूव-मणि-मुत्ताधार-पुडक-संख-दंत-मणि-सिंगसेल-काय-वरचेलपदानां व्याख्यानं पूर्व व्याख्यातमस्ति किश्चित् इति अनिर्दिष्टवरूपं सामान्यं सर्वमेव इत्यर्थः अल्पं वा मूल्यतः बहुं वा मूल्यतः, | एवं अणुं वा-स्तोकप्रमाणं, स्थुलं वा-महत्यमाणं, त्रसकायरूपं शंखादि सचेतनं अचेतनं वा, एवं स्थावरकायरूपं रत्नादिद्रव्यजातं
वा चेतसापि आस्तां कायेन परिगृहीतुं न कल्पते । एतदेवाह-न-निषेधे हिरण्यं अघटितसुवर्ण रूप्यं सुवर्ण खर्ण क्षेत्र सेतुकेतूभया| मकस्त्रयं, वास्तु-गृहं खातोच्छ्रितोभयात्मकं गृहीतुं, न निषेधे दास:-कर्मकरः, दासी-कर्मकरी, भृतको-मूल्यक्रीतो दासः, प्रेष्यो -प्रामादौमोचनयोग्यः, हया:-अश्वाः, गजाः-हस्तिनः, गव्याः-गोधनम् , एलकं-अजादयो न कल्पते । न-निषेधे यानं-शकटं | रथादि, युग्यं आसनानि गोल्लदेशप्रसिद्धानि यानयुग्यासनानि, न-निषेधे छत्रक-आतपवारणं, न कुण्डिका-कमंडलूः, न उपानहः
पादरक्षणानि, न पेहुणानि-मयूरपिच्छव्यंजनानि,न तालवृन्तकं व्यंजनादीनि, अन्यनिष्पन्नानि, न चापि निषेधे अन्यदपि अयो-लोहं, | तानं त्रपु-वंगं सीसकं काश्यं प्रतीतं, रजतं-रूप्यं, जातरूपं सुवर्ण, मणयश्चन्द्रकान्ताद्याः, मुक्ताधारपुटकं-शुक्तिसंपुटं शङ्खस्त्रिरेखः, | दंताः प्रतीतास्तदेवमणिः प्रधानगजदंताः, अथवा दंतजो मणिः, नरमादादिमुक्तारूपं शृङ्ग-विषाणं, शैलाः पाषाणाः, काचवरः, -प्रधानकाचः, पाठान्तरे 'लेसेत्ति इति पाठः तत्र श्लेषद्रव्यं कचवरानिष्पन्न प्रधानवस्तु चेलं-वस्त्रं, चर्म-अजिनं, एतेषां द्वन्द्वः एतानि
१ त इति भाषा।
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शान०वि०
*
प्रश्न०व्या०
परिग्रह
*
॥९
॥
चम्मपत्ताई महरिहाई परस्स अज्झोववायलोभजणणाई परियड्डेउं गुणवओ न यावि पुप्फफलकंदमूलादियाई सणसत्तरसाई सव्वधन्नाइं तिहिवि जोगेहिं परिघेत्तुं ओसहभेसजभोयणट्टयाए संजएणं, किं कारणं?, अप
पञ्चम
संवरद्वारे रिमितणाणदंसणधरेहिं, सीलगुणविणयतवसंजमनायकेहिं, तित्थयरेहिं, सव्वजगज्जीववच्छलेहिं, तिलोयमहिएहिं,
विरतौ अथवा एतेषां सत्कानि यानि पात्राणि-भाजनानि तानि, तथा महार्हाणि-महाया॑णि अन्यान्यपि इत्यर्थः, परस्य-अन्यस्य, अध्युप- 15
भिक्षा पातः-ग्रहणैकाग्रचित्तता लोभ-मूर्छाजनकानि यानि तानि परिकर्षयितुं-परिवर्द्धयितुं परिपालयितुं कस्य गुणवता (तो) मूल गुणा
| असन्निधिः दिसंपन्नस्य भिक्षोरिति शेषः। न चापि गृहीतुं कल्पते, पुष्पफलकंदमूलादिकानि-वनस्पत्यादिशाकजातानि सनः सप्तदशो वीह्यादीनां तानि सनसप्तदशकानि सर्वधान्यानि गृहीतुंन कल्पते, जव १ गोधूम २ व्रीहि ३ कंगू ४ मग ५ मास ६ निष्पाव७ आढकी ८ कुलत्थ ९ राजमाष १० कलाद ११ त्रिपुटक १२ चनक १३ राल १४ लद्दा १५ अलसी १६ शण १७ इत्यादीनि | | धान्यानि त्रिभिरपि योगैः मनःप्रभृतिभिः न कल्पते गृहीतुं, किमर्थ तदाह औषधभैषज्यभोजनार्थाय, तत्र औषधं एकजात्यादि| एकजातीयं झूठयादि भैषज्यं चूर्णादि, तथा औषधं एकांग, भैषज्यं द्रव्यसंयोगरूपं संयतेन-साधुना इति तृतीयार्थे षष्ठी संयतस्यसाधोः को हेतुः-किं कारणं, कैरुच्यते न कल्पनीयं, तदाह-अपरिमितज्ञानदर्शनधरैः सर्वविद्भिः, शीलं-समाधानं चित्तस्य गुणाःमूलगुणादयः, विनयोऽभ्युत्थानादिकः, तपःसंयमौ प्रतीतौ तान्नयति-वृद्धि प्रापयति ये ते तथा तैः, तीर्थकरैः-शासनप्रवर्तकः,
॥९ ॥ सर्वजगजीव(वानां)-त्रैलोक्यजीवानां वात्सल्यभूता (तैः)-हितचिंतकत्वात् बन्धुकल्पैरित्यर्थः, त्रैलोक्यमहितैः-त्रिभुवनपूज्यैः
SHAIR
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5
जिणवरिंदेहिं एस जोणी जंगमाणं दिट्ठान कप्पड़, जोणिसमुच्छेदोत्ति तेण वजंति समणसीहा, जंपिय ओदण कुम्मास-गंज-तप्पण-मथु-भुजिय-पलल-सूप-सक्कुलि-बेढिम-वरसरक-चुन्न-कोसग-पिंड-सिहरिणि-वमोयग-खीर-दहि-सप्पि-नवनीत-तेल्ल-गुल-खंड-मच्छंडिय-मधु-मन-मंस-खजक-वंजण-विधिमादिकं पणीयं जिना:-छद्मस्थवीतरागास्तेषां वरा:-केवलिनः तेषां इन्द्राः तीर्थकरनामकर्मोदयवर्तित्वात् येते तथा तैः, एषा-पुष्पफलधान्यरूपा, योनिः-उत्पत्तिः जङ्गमानां-त्रसानां इत्यों दृष्टा-उपलब्धा केवलज्ञानेन ततश्च न कल्पते, कस्माद्धेतोरित्याह
योनिसमुच्छेदो-योनिविध्वंसः कत्तुं इति गम्यते, परिग्रहे औषध्याधुपयोगे च तेषां अवश्यं ध्वंसो भावीति ज्ञेयं, तेनैव कारणेन वर्जयन्ति-परिहरंति पुष्पफलादिकं सर्व पूर्वोक्तं, क इत्याह श्रमणसिंहाः-मुनिपुङ्गवाः । यदपि च ओदनादि तदपि च न कल्पते । ४ संनिधीकर्तुं सुविहितानामिति गम्य, तत्र ओदनं-कूरः, कुल्माषाः-माषाः, ईपत्खिन्ना मुद्गादय इत्यन्ये गंजो-भोज्यविशेषः, तर्पणः ६
सत्यु मंथुत्ति-बदरादिचूर्णः, भुजियत्ति-भ्रष्टं धान्यम् , पललंत्ति-तिलपिष्टम् सूर्पा-मुद्गादिदालिजन्यो विकारः, शष्कुली-तिलपर्पटिकाविकारः वेष्टिमाः-कुङ्कणदेशपसिद्धाः, वरसारकाणि-चूर्णकोशकानि च रूढिगम्यानि तत्र फलपत्रादिविकारजन्यं भक्ष्यं वरसारकाणि, पिष्टप्रमुखविकारजन्यानि चूर्णकोशान्यपि इति वृद्धवाः, पिंडा-गुडादिपिण्डाः, शिखरणी-गुडमिश्रदधि वट्टत्ति-घनतीमनं दहीवडादि, मोदकं प्रतीतम् , क्षीरं-दुग्धम् , दधि, सर्पि-धृतम् , नवनीतं-म्रक्षणं, तेलं, गुर्ड, खंडं च प्रतीतम् मत्स्यंडिका-खंडविशेषः, मधुमद्यमांसकानि प्रतीतानि, तत्र मधु त्रिधा कुत्तिमाक्षिकभ्रामरीकं, मद्यं विधा काष्टपिष्टोद्धवं, मांसं त्रिधा जलस्थलखचरोद्भवं, चर्म वा,
१ जोष इति भाषा
दिक सर्व पूर्वोक्त पूरा, कुस्मापन-तिलपिष्टम् प्रत्ययानि तत्र फलपत्राव बत्ति घनती विशेषा, मधु,
5555
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ज्ञान०वि०
प्रश्न०व्या०
वृत्ति
॥९१॥
৬%%%%
उवस्सए परघरे व रन्ने न कप्पती तंपि सन्निहिं काउं सुविहियाणं, जंपिय उद्दिठवियरचियगपज्जवजातं पकिपण - पाउकरण- पामिचं, मीसकजायं, कीयकडपाहुडं च दाणट्ठपुन्नपगडं समणवणीमगट्टयाए वा कयं, पच्छाकम्मै, खाद्यानि - अशोकवर्त्तयः व्यञ्जनानि - तक्रादीनि शालनकादीनि वा एतेषां द्वन्द्वः एतेषां विहिमाइयं-विधिरचना - पाकविशेषरचनाप्रणीतं प्रापितं स्त्रिग्धं वा उपाश्रये - वसतौ परगृहे वा अरण्ये-अटव्यां न कल्पते-न संगच्छते, तदपि संनिधीकर्तुं यदुक्तं
बिडमुब्भेइम लोणं तिल्लं सपि च फाणियं ण ते संनिहिमिच्छन्ति नायपुत्तवओरया || १|| इति चह भावं कर्तुं इति शेषः, सुविहितानां परिग्रहवर्जने शोभनानुष्ठानानां सुसाधूनां यदपि च उद्दिष्टादिरूपं ओदनादि न कल्पते तदपि परिगृहीतुं सम्बन्धः | इत्याह-उद्दिष्टं नाम यावदर्थिकान् पाखण्डिनः श्रमणान् - साधून चोद्दिश्य दुर्भिक्षापगमादौ यद्भिक्षावितरणं तदुद्देशिकमुद्दिष्टं, स्थापितं प्रयोजने याचिंतं गृहस्थेन तदर्थं स्थापितं यत्तत् एवं रचितकं मोदकचूर्णादि साध्याद्यर्थ प्रताप्य पुनर्मोदकतया रचितं पर्यवोSवस्थान्तरं जातो यत्र तत् पर्यवजातं अयमुद्देशिकभेदः कूरादिकं उद्धरितं दध्यादिना विमिश्र करंबादिकं पर्यायान्तरमापादितमित्यर्थः कृताभिधानः । प्रकीर्ण-विक्षिप्तं छर्दितपरिशाटीत्यर्थः अनेन छर्दिताभिधानदोष उक्तः । पाउकरणंति - प्रादुष्क्रियते अंधकारापवरकादेः साध्यर्थं बहिःकरणेन दीपमण्यादिधरणेन वा प्रकाश्यते यत्तत्प्रादुष्करणं, प्रामित्यकं - अन्योन्यं पालयित्वा यद्दीयते तत्, मिश्रजातंसाध्वर्थ गृहस्थार्थं वाssदित उपस्कृतं क्रयेण मूल्येन क्रीतं साधुदानायेति क्रीतकृतं प्रभूतप्राभृतकं साधुदानार्थ सङ्घडीपूर्व घा पश्चात् ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः, वा शब्दः पूर्ववाक्यापेक्षया विकल्पार्थः, तथा दानमर्थो यस्य तद्दानमर्थ, पुण्यमेव अर्थो यस्य तत् १ खाजां इति भाषा
4646
पश्चम
संवरद्वारे परिग्रह
विरतौ
भिक्षा असन्निधिः
॥९१॥
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पुरेकम्मं, नितिकम्मं, मक्खियं, अतिरिक्तं, मोहरं चैव सयग्गहमाहडं, महिउवलित्तं, अच्छेजं चेव अणीस जं तं तिहीसु जन्नेसु ऊसवेसु य अंतो वा बहिं व होज समणट्टयाए ठवियं हिंसासावज्जसंपत्तं न कप्पती | तंपिय परिघेत्तुं ।
पुण्यार्थ श्रमणाः - पंचविधा निर्ग्रन्थशाक्यतापसगैरिकाजीविका स एव अर्थः प्रयोजनं यस्य तत्तथा तदर्थं कृतं - निष्पादितं, वनीपका:याचकाः तदर्थं कृतं एते चत्वारोऽपि उद्देशिकभेदाः, पश्चा-दानानन्तरं भाजनधावनादिकर्म यत्राशनादौ तत्पश्चात्कर्म, पुरो दानात्पूर्व हस्तधावनादिकर्म पूर्वकर्म, नैत्यिक- नित्यमवस्थितमेतत् प्रमाणं दातव्यमिति, प्रक्षितं उदकादिना संसृष्टं अयमेषणादोषः ।
अतिरित्तंति - " बत्तीस किरकवला आहारो कुच्छिपूरओ भणिओ पुरिसस्स महिलयाए अठ्ठावीसं भवे कवला " || १॥ एतत्प्रमाणातिक्रान्तमयं च मंडलीदोषः, मोहरं त्ति- मौखर्येण पूर्वसंस्तव पश्चात्संस्तवादिना बहुभाषितत्वेन यल्लभ्यते तत् मोहरं अयमुत्पादनादोषः, स्वयं-आत्मनाऽदत्तं गृह्यते यत् तत्स्वयं ग्राह्यं दातॄणामभावेऽपि संलापादिना स्वयमेव धर्माशीः पूर्वकं गृह्यते अयं अपरिणताख्यदोषांतर्भवति,
आहडत्ति-स्वग्रामादेः साध्वर्थमानीतं - आहतं, मट्टिओ वलितं त्ति - मृत्तिकाज तुगोमयादिना उपलिप्तं, आच्छेद्यं यदाच्छिद्य-उद्दाल्य भृत्यादिभ्यः खामी ददाति चेव निश्चितं, अनिसृष्टं - यद्बहुसाधारणं सत् यत् एक एव ददाति एतादृशं पत्, तिथिषु मदनत्रयोदश्यादिषु, यज्ञेषु यज्ञपाटकेषु, उत्सवेषु - इन्द्र महोत्सवादिषु, यात्रासु - जनसमुदायेषु, अन्तर्बहिर्वा उपाश्रयात् श्रमणार्थं स्थापितं - दानादौ प्रस्थापितं, पुनः कीदृशं : हिंसालक्षणं यत् सावद्यं तत्सम्प्रयुक्तं न कल्पते तत् किमपि पूर्वोक्तं सर्वं परिगृहीतुं - लां
१ पिण्डनियुक्ति गाथा ६४२ पृष्ठ १७३
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पनाम संवरद्वारे परिग्रह विरतौ भिक्षा असन्निधिः
शान०वि०
अह केरिसयं पुणाइ कप्पति?, जंतं एक्कारसपिंडवायसुद्धं, किणण-हणण-पयण-कयकारियाणुमोयणप्रश्न०व्या है
| तवकोडीहिं सुपरिसुद्धं, दसहि य दोसेहिं विप्पमुक्कं, उग्गमउप्पायणेसणाए सुद्धं, ववगयचुयचवियचत्तदेह, प्रति काच फासुयं ववगयसंजोगमणिंगालं, विगयधूम, छट्ठाणनिमित्तं, छकायपरिरक्खणट्ठा हणि हणिं फासुकेण
___अथ-पुनः कीदृशं किंविधं सत् पुनः कल्पते-संगच्छते साधूनामिति यत् तत् पिण्डं तदाह-एकादशोत्तरपिंडपातशुद्ध-आचारस्य ॥९२॥ द्वितीयश्रुतस्कन्धस्य प्रथमपिण्डेषणाध्ययने एकादश उद्देशादिभिः पिण्डपातेस्तैः शुद्धं-निर्दोषम् , पुनः कीदृशं ? किणण-मूल्यादिना, है
हननं-शस्त्रादिच्छेदनेन, पचनं-पाकादिना, तथा कृतकारितानुमोदनानि स्वयं करणकारणानुमतयः तानि तथा त एव नव कोव्यो |विभागैः कृत्वा सम्यग् परिशुद्धं-निर्दोष, दशभिश्च-शङ्कितादिदोषः विप्रमुक्तं-रहितं, आधाकर्मादय उद्गमदोषाः षोडश दायकादुत्प| यंते, धात्र्यादय उत्पादना दोषा षोडश ग्राहकादुत्पद्यन्ते, एषणा गवेषणाभिधाना दोषा दश उद्गमोत्पादनैषणा तया शुद्धं, पुनः कीदृशं ? | व्यपगतो-गतः चेतनपर्यायादचेनत्वं प्राप्त, च्युतं-जीवनादिक्रियया विच्युतं-तेभ्य एव आयुःक्षयेण, भ्रंशित-त्यक्तदेहं परित्यक्तसंसर्गसमुत्थशक्तिजनिताशनादिपरिणामा एवं यत्तत् तथा, चः-समुच्चये, प्रासुकं-निर्जीवं पूर्वोक्तं कल्पत इति ग्रहीतुं, व्यपगतसंयोगमनंगारं विगतधूमं चेति पूर्वव्याख्यातमेव षट्स्थानकनिमित्तं यस्य भक्ष्यस्य तत्तथा, तानि चामूनि
'वेयण १ वेयावच्चे २ इरियट्ठाएय ३ संजमट्ठाए ४ तह पाणिवित्तीयाए ५ छटुं पुण धम्मचिंताए ६१, तथा षटकायपरिरक्षणार्थ इति व्यक्तं, अहनि अहनि-प्रतिदिनं सदापीत्यर्थः, प्रकर्षण गताः असवः-प्राणाः यस्मिबिति प्रासुकं १ पिंडनियुक्ति गाथा ६६२
4 445 455 %%%%%
RRRRRRR
॥९२॥
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SOURCESASARASA
द्र भिक्खेण वटियव्वं, जंपिय समणस्स सुविहियस्स उ रोगायंके बहुप्पकारंमि समुप्पन्न वाताहिकपि |
त्तसिंभअतिरित्तकुविय तह सन्निवातजाते, व उदयपत्ते, उज्जलबलविउलकवडपगाढदुक्खे, असुभकडुयफरुसे, चंडफलविवागे, महन्भए, जीवियंतकरणे, सबसरीरपरितावणकरे, न कप्पती तारिसेवि तह अप्पणो व्युत्पत्या तादृशेन भैक्ष्येण वर्तितव्यम , यदपि च औषधादि तदपि संनिधीकर्तुं न कल्पते, यस्य साधोः-श्रमणस्य सुविहितस्यअपार्श्वस्थस्य, "तु" क्यिालङ्कारे कदेत्याह-गो-ज्वरादिः स चासौ आतङ्को-भयं-कृच्छ्रजीवितकारी तत्र, बहुप्रकारे-विविधे, | समुत्पन्ने-जाते, तथा वातादिकं तदादिकं पित्तसिंभयोर्वायुश्लेष्मणोः अतिरिक्तेन-आधिक्येन कुपितकोपस्तं तथा महान् यः सन्नि
पात:-त्रिदोषजः तज्जाते-सत्यपि एतेषां द्वन्द्वः, तथा उदयप्राप्ते-उदिते प्रकटिते सति, उज्ज्वल-सुखलेशवजितं बलवत् कष्टेनापसर४ाणीयं विपुलं-बहुकालवेद्यं, त्रितुलं वा-ग्रीन-मनःप्रभृतीन तुलां आरोपयति कष्टावस्थीकरोति इति त्रिकुलमित्यपि पाठः। अतएव
कर्कशद्रव्यमिवाऽनिष्टं प्रगाढं-प्रकर्षवत् यत्पुनरेवमसुख यत्र तत्तथा तत्र, किंभूतेत्याह, अत एव अशुभः-असुखो वा कटुकः-कटुकद्रव्यवत् अनिष्टः परुषो यत्र दारुणश्चण्डः फलं-विपाको दुःखानुबंधिलक्षणो यस्य तत्तथा-तत्र, महद्भयं-इह लोकादियस्य तत्तथा तत्र, किं बहूत्या, जीवितांतकरः, सर्वशरीरपरितापनकारक, न कल्पते-न युज्यते, तादृशेऽपि-रोगातकादौ सोढुं न शक्यते तेन कारणेन पुष्टालम्बनं विना ज्ञानाचाराधनाथं सालंबनस्य कल्पतेऽपि यतः___काहं अछित्तिं अदुवा अहीहं तवोवहाणेसु य उज्जमिस्सं । गण वणीइए सारविस्सं सालंयसेवी समुवेई मोक्व म् १ इति वचनात् ।
HA9+USHAHISHOULOUS
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ज्ञान०वि०
प्रश्न० व्या० वृत्ति
॥९३॥
परस्स वा ओसहभेसज्जं भत्तपाणं च तंपि संनिहिकयं, जंपिय समणस्स सुविहियस्स तु पडिग्गहधारिस्स भवति भायणभंडोवहिउवकरणं पडिग्गहो पादबंधणं पादकेसरिया पाठवणं च पडलाई तिन्नेव रत्ताणं च गोच्छओ तिनव य पञ्चवा रयोहरण-चोलपट्टक-मुहणंतकमादीयं एयंपिय संजमस्स उववूहणट्टयाए वायायव
आत्मनेपरस्मैपदनिमित्तं औषधं, भैषज्यं, भक्तपानं च तदपि संनिधीकृतं - संचयीकृतं परिग्रहविरतत्वात् यद्यपि श्रमणस्य - साधोः सुविहितस्य " तु" शब्दो भाषामात्रसूचकार्थः, पतद्गृहधारिणः सपात्रस्य भवति । भाजनं पात्रं, भाण्डं मृण्मयं तदेव उपधिकःऔधिक उपकरणादि - औपग्रहिकं अथवा भाजनं भांडं उपधिश्च इत्येवंरूपं उपकरणं एतदेवाह, पतद्गृहशब्देन पात्राणि उपलक्ष्यते १ पात्र बन्धनं - डोलिकारूपं २ पात्रकेसरिका या पात्रप्रमार्जिनी पोत्तिका ३ पात्रस्थापनं यत्र कंबलखंडे पात्रं निधीयते, पडलकानि च - भिक्षावसरे पात्रप्रच्छादनकानि वत्रखण्डानि, तिनेवत्ति तानि च यदि सर्वस्तोकानि तदा त्रीणि भवन्त्येव अन्यथा पञ्च सप्तापि भवन्ति । रजस्त्राणं पात्र वेष्टनवस्त्रं, गोच्छकः - पात्र वस्त्र आच्छादनरूपः श्रय एव प्रच्छादाः द्वौ सौत्रिकौ तृतीय और्णिकः, रजोहरणंप्रतीतं धर्मध्वजं ऋषिचिह्नं तं चोलपट्ट:-परिधानवस्त्रं, मुखानन्तर्क- मुखवस्त्रिका एतेषां द्वन्द्वः तत एतानि आदिर्यस्य तत्तथा एत. सर्व अपि संयमस्य उपबृंहणत्वात् उपष्टंभार्थं न परिग्रहसंज्ञया यतः -
जं पिवत्थं च पायं वा, कंबलं पायपुच्छणं, तंपि संजमलज्जट्टा, धारंति परिहरति य १
न सो परिग्गहो बुत्तो नायपुत्त्रेण ताइणा, मुच्छा परिग्गहो वृत्तो इइ वृत्तं महेसिणा २ इत्यादि
1919
पश्चम
संवरद्वारे
परिग्रह
विरतौ
भिक्षा
असन्निधिः
॥९३॥
Page #223
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CHOREOGRESCRROCROCHURES
दंस-मसग-सीय-परिरवणट्ठयाए उवगरणं रागदोसरहियं परिहरियव्वं संजएण णिचं पडिलेहणपष्फोडणप. | मजणाए अहो य राओ य अप्पमत्तण होइ सततं निक्खिवियव्वं च गिण्हियव्वं च भायणभंडोवहि उवकरणं, है
___एवं से संजते, विमुत्ते, निस्संगे, निप्परिग्गहराई, निम्ममे, निन्नेहबंधणे, सव्वपावविरते, वासीचंदणसमा. ४ णकप्पे, समतिणमणिमुत्तालट्टकंचणे समे, य माणावमाणणाए समियरते, समितरागदोसे, समिए, समितीसु
तथा वातातपदंशमशकशीतपरिरक्षणार्थ तथा उपकरणं-रजोहरणादिकं रागद्वेषरहितं यथा भवति तथा परिहर्तव्यं-मोक्तव्यमिहै त्यर्थः । तथा एतेषां-पात्रादीनां उपकरणानां रक्षणहेतुपरिमाणादिकं बृहत्कल्पवृत्ति-प्रवचनसारोद्धार-पिण्डनियुक्तिवृत्यादिभ्योऽवसेयं,
संयतेन-साधुना नित्यं-सदा तथा प्रतिलेखना-प्रत्युपेक्षा निरीक्षणं, प्रस्फोटनं धूननं उभाभ्यां सह प्रमार्जना-रजोहरणादिक्रिया सा ४ तथा तस्या, अहोरात्रिदिन अप्रमत्तेन-अप्रमादिना भवितव्यं सततं-निरन्तरं यतः
"अम्भस्थ विसोहिए उवगरणं बाहिरं परिहरंतो। अपरिग्गहोत्ति भणिओ जिणेहिं तिलुकदंसीहिं" १, निक्षिप्तव्यं-भूमादौ मोक्तव्यम् , गृहीतव्यं चेति किं तदित्याह भाजन-मांड-उपधि-उपकरणं
एवमनेन प्रकारेण संयतः-संयमी, विमुक्तः-त्यक्तधनादिः निःसंगोऽभिष्वङ्गवर्जितः, निर्गतपरिग्रहरुचिर्यस्य स तथा, निर्ममो | "ममेति" शब्दवर्जितः ममत्वरहितः, निर्गतस्नेहबन्धनः, सर्वपापविरतः, वास्या-छेदनोपकरणायां अपकारिणि चंदने उपकारके च समानस्तुल्यः कल्पः-समाचारो-मानसिकविकल्पो यस्य स तथा द्वेषरागविरहित इत्यर्थः, समा-उपेक्षणीयत्वेन तुल्या सृणमणिमुक्ता यस्य स तथा, लेष्टुः-दृषत् प्रस्तरः काञ्चनं-सुवर्ण तत्रापि समभावः, समश्च हर्षदैन्याभावात् , मानेन पूजया सहापमानेन न्यकारो
%20MATAASSURA
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ज्ञान०वि० प्रश्नाव्या
संवरद्वारे
वृत्ति
॥९४॥
110t
सम्मट्ठिी समेय जे सव्वपाणभूतेसु से हु समणे, सुयधारते, उज्जुते, स साह, सरण सव्वभूयाणं, सव्व
पञ्चम | जगवच्छले, सञ्चभासके, य संसारंतट्टिते, य संसारसमुच्छिन्ने, सततं मरणाणुपारते, पारगे य सव्वेसिं संसयाणं, पवयणमायाहिं अट्ठहिं अट्ठकम्मगंठीविमोयके, अट्ठमयमहणे, ससमयकुसले य भवति । सुहदुक्खनि
परिग्रह व्विसेसे, अभितरबाहिरंमि सया तवोवहाणंमि य सुट्टज्जुते, खते, दंते, य हियनिरते, ईरियासमिते, भासा. विरत मानापमानता यस्य सः (समः मानापमानौ यस्य स तथा) शमितं-उपशमित रजा-पापं रतिर्विषयेषु स्यौत्सुक्यं येन सः शमितराग
IN विशेषणानि द्वेषः, समितः सम्यक् भावप्राप्तिः समितिषु ईर्यादिषु, सम्यग्दृष्टिः-सम्यग्दर्शनी, समः सम्यग्दर्शी यः सर्वप्राणभूतेषु प्राणा द्वीन्द्रियादिवसाः भूतानि-स्थावराः स एव श्रमणः इति वाक्यनिष्ठा । श्रुतधारकः, ऋजुकोऽवक्रः, उद्यतो वाऽनलसः, संयमी सुसाधुः-सुष्ठुनिर्वाणसाधकः, शरणं-त्राणं सर्वभूतानां पृथिवीप्रमुखाणां, सर्वजगदात्सल्यकर्ता हित इत्यर्थः, सत्यभाषकश्च, संसारान्ते स्थितश्च-भवप्रान्ते स्थितः, संसारसमुच्छिन्नः-संसारोच्छेदकर्ता, सततं-निरन्तरं मरणानां पारगः-बहुत्वं अनन्तमरणापेक्षया सर्वदैव तस्य बालादिमरणानि भविष्यन्तीत्यर्थः, पारगश्च-सर्वेषां संशयानां छेदक इत्यर्थः, प्रवचनप्रवरमातृभिः अष्टाभिः-समितिपश्चकगुप्तित्रयरूपाभिः करणभूताभिः, पुनः कीदृशः ? अष्टकर्मरूपो यो ग्रन्थितस्य विमोचको यः स तथा, अष्टमदमथनः-अष्टमदस्थाननाशकः, पुनः स्वसमयःसिद्धान्तः तस्मिन् कुशल:-चतुरो निपुणश्च भवति, सुखदुःखनिर्विशेषो-हर्षादिरहितश्च, अभ्यन्तरस्यैव-शरीरस्य कार्मणलक्षणस्य शोपकत्वात् अभ्यन्तरः प्रायश्चित्तादिः पड्निधस्य बाह्यस्यापि औदारिकलक्षणस्य तापकत्वात् बाह्यं अशनादि षड्विध अनयोश्च द्वन्दः तत ॥१४॥ अभ्यन्तरवाये सदा-नित्यं तप एव उपधान-गुणोपष्टम्भकारितया उपधानं तत्र च, सुष्टु युक्तः-अतिशयेन उद्यतः, क्षांत:-क्षमावान् ,
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सभिते एसणासभिते, आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिते, उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपारिद्यावणियासमिते, | मणगुत्ते वयगुत्ते, कायगुत्ते, गुत्तिदिए, गुत्तबंभयारी, चाई, लज्जू, धन्ने, तवस्सी, खंतिखमे, जितिदिए, सो. धिए अणियाणे, अवहिल्लसे, अममे, अकिंचणे, छिन्नग्गंथे, निरुवलेवे, सुविमलवरकंसभायणं व मुछतोए, | दान्त इन्द्रियविकारदमनात् , पुनः कीदृशः? आत्मनः परेषां वा हिते निस्तस्तत्परो हितकारीत्यर्थः, | अथ ईर्येत्यादिदशपदानि पूर्वोक्तार्थानि तथापि लेशार्थः (कथ्यते) ईर्यायां-द्रव्यभावगमने यतनावान् , भाषायां यतवान् , एषणायां गोचर्या यतनावान , आदाननिक्षेपणायां यतनावान् , वस्तु मात्रग्रहणनिक्षेपणयां समिती यतनावान् , उच्चार-पुरीयं, प्रश्रवणंमूत्रं, खेल:-श्लेष्मा, सिंधानकः घ्राणसंभवो मलः, जल्लः-शरीरमलः एतेषां द्वन्द्वः तेषां या पारिष्ठापनिका-उन्सर्जनं तस्यां यतनावान् , | निर्विकल्पादिना मनसा गुप्तः, संज्ञादिपरिहारेण यन्मौनावलम्बनं वाग्गुप्तः, उपसर्गादिप्रसंगेऽपि यस्तनोः स्थिरीभावः कायगुप्तः, अतएव
गुप्तेन्द्रियः त्रिधा निर्विकारत्वात् , गुप्तं-रक्षितं ब्रह्मचर्यशीलं विधा येन सः गुप्तब्रह्मचारी, त्यागी अतएव अतिशयेन लजालुः-लजावान् | P"च" पादपूरणे "लज्जादयासंयम बंभचेरं कल्लाणभागिस्स विसोही ठाणमिति वचनात्" धन्यः-श्लाघ्यः संयमधनयोग्यो
वा, तपस्वी प्रशस्ततपोयुक्तत्वात् , क्षान्त्या-उपशमेन क्षमः-समर्थः, जितेन्द्रियः, शोभितो गुणयोगात् शोधितो वा शुद्धकारीत्यर्थः, & अनिदानो-निदानरहितः, संयमान बहिःचारी, लेश्या अन्तःकरणं यस्य सोऽवहिर्लेश्यः, ममकारवर्जितोऽममः, अशिश्चिनो-निद्रव्या, है छिन्नग्रन्थः-त्रुटितस्नेहपाशः, पाठान्तरे छिन्नसोएत्ति-छिन्नशोकः, अथवा छिन्नश्रोतस्तत्र श्रोतो द्विया, द्रव्यश्रोतो भावनोतच, तत्र | द्रव्यश्रोतो नद्यादिप्रवाहः, भावश्रोतश्च संसारसमुद्रपात्य शुभोलोकव्यवहारः, स छिन्नो येन स तथा ! पुनः कीदृशो ? निरुपलेपः-अवि
२०8050300-345
SARS550
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ज्ञान०वि०
प्रश्न० व्या० वृचि
॥९५॥
संखेविव निरंजणे, विगयरागदोसमोहे, कुम्मो इव इंदिएस गुत्ते, जञ्चकंचणगं जायरूवे, पोक्खरपत्तं व निरु वलेवे, चंदो इव सोमभावयाए, सूरो व्व दित्ततेए, अचले जह मंदरे गिरिवरे, अक्खोभे सागरो व्व थिमि, पुढवी व सव्वफाससहे, तवसा चित्र भासरासिछन्निन्व जाततेए, जलियहुयासणो विव तेयसा जलंते, गोसीस चंदणंपिव सीयले, सुगंधे य, हरयो विव समियभावे, उग्घोसियसु निम्मलं व आयंसमंडलतलं व पागडभावेण द्यमान कर्मानुलेपः एतच्च विशेषणं भाविनि भूतोपचारवद्भाव्यते, सुविमलवरकांसस्य भाजनमिव विमुक्ततोयः श्रमणपक्षे तोयं संबंध हेतुस्नेहः, शंखवन्निरञ्जनः श्रमणपक्षे रञ्जनं जीवस्वरूपोपरंजनकारी (रि) रागादिकं वस्तु यस्य, अतएव विगतरागद्वेषमोहः, पुनः कीदृश: ? कूर्म इव इन्द्रियेषु गुप्तः यथा कच्छपः चतुर्भिः पादैः ग्रीवापं चमैश्च कदाचिगुप्तो भवति, एवं साधुरपि इन्द्रियाण्याश्रित्य गुप्तो भवति । जात्य काश्चनमिव जातरूपो रागादिद्रव्यनाशात् लब्धस्वरूप इत्यर्थः, पद्मदलमित्र निरुपलेपः - भोगगृद्धि - लेपरहितः, चन्द्र इव सौम्य - तया पाठान्तरे सौम्यभावतया अनुपतापकत्वेन खपरेषामपि शीतत्वात्, सूर्य इव दीप्ततेजास्तपस्तेजोयुक्तत्वात्, अचलो - निश्चलः परीषहादिभिः यथा मंदिरगिरिवरो मेरुरित्यर्थः, अक्षोभः क्षोभवर्जितः औत्सुक्याभावात् सागर इव स्तिमितः लोलता कल्लोलरहितत्वात् पृथिवीवत्सर्वस्पर्शसह :- शुभाशुभस्पर्शेषु समचित्त इत्यर्थः, तपसाऽपि च हेतुभूतेन भस्मराशिवत् यथा भस्मच्छन्नो वह्निरंतलति बहिः छन्नो भवति तथा (थैव ) श्रमणशरीरं तु बहिस्तु म्लानं अन्तस्तु शुभलेश्यया दीप्यमानं भवति, ज्वलितहुताशन इव तेजसा | ज्वलन् भाति, श्रमणपक्षे तेजो-ज्ञानं भावतमोनाशकत्वात्, गोशीर्षचन्दनमिव शीतलो मनःसन्तापोपशमकत्वात्, सुगन्धिश्व शीलसौगन्ध्यात्, उदकतट इव-द्रह इव सम एव समिकः स्वभावो यस्य स तथा यथा वाताभावे द्रहः समो भवति अभितस्त उन्नत जलोपरि
पश्चम
संवरद्वारे परिग्रह विरत विशेषणानि
॥९५॥
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सुद्धभावे, सोंडीरे कुंजरोव्व, वसभेव्व जायथामे, सीहे वा जहा भिगाहिवे होति दुप्पधरिसे, सारयसलिलं व सुद्धहियये, भारंडे चेव अप्पमत्ते, खग्गिविसाणं व एगजाते, खाणुं चेव उड्डकाए, सुन्नागारेव्व अप्पडिकम्मे, सुन्नागारावणस्संतो निवायसरणप्पदीपज्झाणमिव निप्पकंपे, जहा खुरो चेव एगधारे, जहा अही चेव एगदिट्टी,
आगासं चेव निरालंबे, | भाग इत्यर्थः, उद्धृष्टं सुनिर्मलं आदर्शमंडलमिव प्रगटभावेन निर्मायतया-अनिगूहितभावेन सुस्वभावः-शोभनस्वरूपः शुद्धभावश्चेति,
शौण्डीर:-शूरः कुञ्जर इव पराभवसैन्यापेक्षया परीषहसहने आरंभटगतः, वृषभवत् जातस्थामा अंगीकृते महान् जातसामर्थ्यः, सिंह| वत् यथा मृगाणां दुःप्रधयः तथा साधुः परीपहमृगाणां दुर्द्धर्यः मृगाधिप इति विशेषणं स्वरूपप्रतिपादनार्थ मृगाणां दुष्पर्ण्यत्वं | तथा भृगाला परीषहास्तेषां दुष्पधय साधुनामेवेति गम्यं, शारदसलिलवत् शुद्धहृदयः, यथा शारदं जलं निर्मलं तथा साधुरपि शुद्धहृदयः, यथा भारण्डाभिधानः पक्षी अप्रमत्तश्चकितो भवति, खड्गी-आटव्यपशुविशेषः तस्य मस्तके एकशृङ्गो भवति तद्वद्रागादिसहायवैकल्यादेकीभूतः,स्थाणुरिव उर्ध्वकायः कायोत्सर्गवेलायां,शून्यागारं यथा केनापि यथान समाज्यंते न समरी इति भावः तद्वत् शरीरे अप्रतिकर्मा,पुनः कीदृशः१ शून्यापणस्य चांतर्मध्ये वर्तमानं किमिव किंविध इत्याह-निर्वातशरणं प्रदीपध्यानमिव-वातवर्जितं गृहदीपज्वल
नमिव निष्प्रकंपः-दिव्याद्युपसर्गेऽपि शुभध्याननिश्चलः, यथा क्षुरेः एकधारो भवति एवं मुनिरपि उत्सर्गलक्षणे एकधारो चरति,यद्यप्यपहै वादमार्गः सेव्यते तथाप्युत्सर्गप्राप्त्यर्थमेवेति कृत्वा, अथवा मूलगुणसाधनमुत्सर्गः उत्तरगुणावलंबनमपवादः इत्यपि, यथा अहिः एक| दृष्टिः बद्धलक्षः एवं साधुर्मोक्षसाधने चैकदृष्टिः, यथा आकाशं निरालंबनं न किञ्चिदालंबनं एवं साधुामनगरदेशकुलाद्यालंबनरहित
ACCURREARCSCR।
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ज्ञान०वि० प्रश्न०व्या० वृत्ति
॥९६॥
विहगे विव सव्वओ बिप्यमुक्के, कयपरनिलए जहा चैव उरए, अप्पडिबद्धे अनिलोय, जीवोव्व अप्पडिय गती, गामे गामे एकरायं नगरे नगरे व पंचरायं दूइजंते य जितिदिए, जितपरीसहे, निभओ विक सचित्ताचित्तमीस केहि दव्बेहिं विरायं गते, संचयातो विरए, मुत्ते, लहुके, निरवकखे, जीविय मरणास विषयमुक्के निस्संधं निव्वणं चरितं धीरे कारण फासघंते, अज्झप्पज्झाणजुत्ते, निहुए, एगे चरेज धम्मं ।
इत्यर्थः, यथा विहगः - पक्षी सर्वतो विप्रमुक्तः एवं साधुरपि परिग्रहनिर्मुक्तः तथा परकृतनिलयः, तथा उरगः - सर्पः परकृते बिले वसति तथा साधुरपि परकृता वसतिराश्रयते, तथा वायुरिव यथा अनिलो वायुः प्रतिबंधरहितो भवति तथा साधुरपि प्रतिबंधरहितः, यथा जीवः अप्रतिहतगतिः - अवारितगमनागमनस्तथा साधुरपि अप्रतिबंधविहारः, कया रीत्या तदाह-ग्रामे ग्रामे एकरात्रं यावत् नगरे नगरे च पंचरात्रं दुइअंतेत्ति- विचरन् इत्यर्थः एतच भिक्षाप्रतिमापन्न माध्यपेक्षया सूत्रं ज्ञेयं कृत एवंविधोऽसौ ? इत्याह
जितेन्द्रिय:- वशीकृतइन्द्रियग्रामः, जितपरीपहः, निर्भयो-भयरहितः, विद्वान्-गीतार्थः पाठान्तरे विशुद्धो-निरतिचारः, पुनः कीदृशः १ सचित्ताचित्तमिश्रद्रव्येषु विरागतां गतः संचयात् विरतः, मुक्त इव मुक्तः निर्लोभ इत्यर्थः, लघुरुः गौरवत्रयत्यागात् निर्गतकांक्ष:- कांक्षावर्जितः, जीवितमरणयोः आशंसा वांच्छा तथा विप्रमुक्तः, निःसंधिः चारित्रपरिणामव्यवच्छेदाभावात् दिःसन्निधानम्, निवेगं निरतिचारं चारित्रं यस्य स तथा धीरो-बुद्धिमान् धियं ईश्यति इति धीरः - अक्षोभ्यो वा कायेन कायक्रियया न मनोरथमात्रेण स्पृशन् सततं - निरन्तरं अध्ययनेन आत्मध्यानयुक्तः यः स तथा निर्मृतः उपशांतः निश्चलो वा, एको-रागादिसहाया
पचम
संवरद्वारे
परिग्रह विरत विशेषणानि
॥९६॥
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CAUSESE
इमं च अपरिग्गहवेरमणपरिरक्खणट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं, अत्तहियं, पेचाभाविकं, आगमेसि
सुद्धं, नेयाउयं, अकुडिलं, अणुत्तरं, सव्वदुक्खपावाण विओसमणं, है तस्स इमा पंच भावणाओ चरिमस्स वयस्स होंति परिग्गहवेरमणरक्खणट्ठयाए-पढमं सोइंदिएण सोचा
सद्दाइं मणुनभद्दगाई, किं ते ?,वरमुरय-मुइंग-पणव-दहर-कच्छभि-वीणा-विपंची-वल्लयि-वद्धीसक-सुघोसभावाद , चरेत्-अनुपालयेत् , धर्म-चारित्रलक्षणमिति, इमं पूर्वोक्तं सर्व परिग्रहविरमणव्रतपरिरक्षणार्थ, प्रवचनमार्ग-प्रावचनिकं,
भगवता-श्रीमहावीरेण सुष्ठु-शोभनतया कथितं उपदेशितम् , आत्मने हितं-पथ्यमिव, प्रेत्य-परलोके परमभावोपेतं, आगामिकाले |5| ६ भद्रमिव कल्याणकारी, शुद्धं-निर्दोष, न्यायोपपत्रम् , अकुटिलं-ऋजु, अनुत्तरं-प्रधानं, सर्वदुःखपापानाम् उपशमनम् । | तस्य-परिग्रहविरमणव्रतस्य इमा-अग्रे वक्ष्यमाणाः पंचसंख्याका भावनाः-वासनारूपाः परिमं-अन्तिमं यद्बतं तस्य भवन्ति परिग्रहविरमणरक्षणार्थम् पञ्चानां मध्ये प्रथम-भावनावस्तु शब्दनिःस्पृहत्वं नाम, तञ्चैवं श्रोत्रेन्द्रियेण-कर्णेन कृत्वा[श्रुत्वा] शब्दान-भाषापर्याप्तिनिर्गतवर्णान् , मनोज्ञाः-मनोरमाः संतो ये तद्भद्रकास्तान के ते शब्दास्तानाऽऽह-वरा-प्रधानाः ये मुरजाः-महामर्दलाः अङ्कयआलिंग्यमेदात् , मृदंगा:-लघुमर्दलाः हरीतक्याकाराः,पणवाः-लघुपटहाः, दर्दुरा:-मृण्मयाः पटहा। चौवनद्धमुखकलशीकाः,कच्छभीवाद्यविशेषः, वीणा विपंची वल्लकी सर्वेऽपि वीणामेदाः, परं तत्रीणां विशेषाः, बद्धीसक-वाद्यविशेष, सुघोषा-घंटाविशेषः, नंदिकाद्वादशतूर्यनिर्घोषः,तानि चामूनि-भंभा मउंद महल हुडक्क तिलमा य कुरड कांसाला काहल वीणा वंसो शंखो पणवो
CHECOMMUVARICORDCRG
ग्रहविरमणरक्षणार्थ पचनाजा: मनोरमाः संतो ये तन्द्रकापता लघुपटहाः, दर्दुराः-मृण्मयाः पटावरुष, सुघोषा-घंटाविशेषः
A RCE
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A
संवरद्वारे प्रथम भावना
नंदि-सूसरपरिवादिणि-वंस-तृणक-पव्वक-तंती-तल-ताल-तुडिय-निग्घोसगीयवाइयाई। नड-नट्टक-जल्ल-मल्लशान०वि० प्रमण्या मुट्ठिक-वेलंबक-कहक-पवक-लासग-आइक्खक-लंख-मख-तृणइल्ल-तुंबवीणिय-तालायर-पकरणाणि य बह
जणि महुरसरगीतसुस्सराति। कंची-मेहला-कलाव-पत्तरक-पहेरक-पायजालग-घंटिय-खिखिणि-रयणोरुजा
लिय, छुडिय-नेउर-चलणमालिय-कणगनियलजालभूसणसहाणि । लीलचकम्ममाणाणूदीरियाई तरुणीजण॥९७॥ य बारसमोर इति, सरपरिवादिनी-वीणाविशेषः, वंशो-वेणुः, तूणको-वाद्यविशेषः, पर्वकोप्येवमेव तत्री-वीणाविशेषः, तला-हस्त
तालाः, ताला:-कांसिकाः, एतान्येव त्रुटितानि वाद्यानि तेषां यो निर्घोषः शब्दः, तथा गीत-गेयं, वादितं च-वायं सामान्यमिति द्वन्द्वः ततस्तान् श्रुत्वा इति योगः, तथा नट-नर्तक-जल्ल-मल-मौष्टिक-वैडंबक-कथक-प्लवक-लासग-आइक्खग[आख्यायक] -लंख-मंख-तूणइल्ल-तुबवीणिक-तलचराद्याः पूर्व व्याख्यातार्थाः, तैः प्रक्रियन्ते-क्रियन्ते यानि नटादिप्रकर्षण करणानि-अंगविक्षेपादीनि, बहूनि-अनेकानि, मधुरस्वराणां-कलध्वनीनां गायकानां यानि गीतानि सुखराणि तानि श्रुत्वा श्रमणेन न सक्तव्यमिति | योगः । केषां केषां शब्दास्तेषां नामान्याह-काश्ची-कट्याभरणविशेषः, मेखलापि तस्यैव भेदः, कलापको-ग्रीवाभरणं,प्रतरकाणि-आभर
णविशेषानि, पहेरकश्च-आभरणविशेषः, पादजालक-पादाभरणं, घंटिका-महत्तमघुघुर्यः, किंकिण्य:-क्षुद्रघंटिकाः, रयणत्ति-रत्नसंबंधी | उवोः बृहजंघयोः जालं यत्तत्तथा, छुड्डियत्ति-लघुकिंकणीरूपं, नूपुरं-पादाभरणम् , चालनकमालनकमपि तथैव पादाभरणं लोके | | "अंगूथली" इत्यादि भाषारूपं वा, कनक-वर्ण. तन्मयनियल[डः)-पादाभरणविशेषः तस्य जालकं-समूहः, एतान्येव भूषणानि तेषां ये
१ पिण्याक इति भाषा
RESUCCESSONG
GARIES
॥९७॥
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| हसिय भणियकलरिभितमंजुलाई गुणवयणाणि व बहूणि महुरजण भासियाई अन्नेसु य एवमादिसु ससु | मणुन्नभद्दएसु ण तेसु समणेण सज्जियव्वं, न रजियव्वं, न गिज्झियव्वं, न हसियव्वं, न मुज्झियव्वं, न विनिग्घायं, आवज्जियव्वं, न लुभियव्वं, न तुसियव्वं, न सई च महं च तत्थ कुजा, पुणरवि सोइंदिएण सोचा सद्दाई अमणुन्नपावकाई, किं ते १, अक्कोस- फरुस - खिंसण - अवमाणण-तज्जण-निब्भंछण
| शब्दाः ते तथा तत्किंभूतानि इत्याह । लीलया चंक्रम्यमाणानां - हेलया कुटिलगमनं कुर्वाणानां उदीरितान् -संजातान् लीलामंथरगमन जनितान् इत्यर्थः, पुनस्तरुणीजनस्त्रीजनः तेषां हसितानि स्मितानि भणितानि माधुर्यविशिष्टध्वनिविशेषरूपाणि, कलरिभितानि - कलरतिखरघोलनावंति, मंजुलानि - मनोहराणि तानि, तथा गुणवचनानि - स्तुतिवादाँच, बहूनि प्रचुराणि, मधुरजनभाषितानि दृष्टजनभणितानि, अन्यान्यपि उक्तव्यतिरिक्तानि अपि इष्टानि, इत्यादि बहुप्रकारास्तेषु - शब्देषु, मनोज्ञभद्रकेषु, न- निषेधे, तेषु शब्देषु श्रमणेन - साधुना | न सतितव्यं- आसंगतया न भाव्यम् - न भवितव्यम्, तेषु रागो न कार्यः न रंजितव्यं, न गर्द्धितव्यं- अप्राप्तेषु वाञ्छा न कार्या, न हासो विधेयः - विस्मयेनेति कृत्वा, न मोहितव्यं तद्विपाकविचारे मूढतया न भवितव्यम्, तदर्थं आत्मनः परेषां वा विनिघातो न विधेयः तदर्थं न केषाञ्चिदप्यावर्जनं कार्य, तल्लामे लोभो - मूर्च्छा नो विधेयः, न तोष्टव्यं तत्प्राप्तौ तोषो न विधेयः, न स्पर्शति वा स्मरणं तद्विषये मतिं च तत्र - शब्देषु शुभेषु कुर्यात् । पुनरपि प्रकारान्तरेणाह - अन्यदप्युच्यते इत्यर्थः, श्रोत्रेन्द्रियेण श्रुत्वा शब्दान् अमनोज्ञान् | पापकान् अशुभान् के ते इत्याह ? तद्यथा आक्रोशो- प्रियतां स्तेय (न) स्त्वमित्यादिरूपः परुषः - रे मुण्ड इत्यादिरूपः, खिंसनं - निन्दनं अशीलोऽसीत्यादिरूपं, अवमानना - अपूजा वचनं गूथादिमया मलिना तथा तर्जना - ज्ञास्यसि रे अग्रे इति, निर्भर्त्सनं मे दृष्टिपथादपसर,
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दित्तवयण-तासण-उक्कूजिय-रुन्न-रडिय-कंदिय-निग्घुट्ठरसिय-कलुण-विलवियाई अन्नेसु य एवमादिएसु शान०वि०
पश्चम प्रश्न०व्या सद्देसु अमणुण्णपावएसु न तेसु समणेण रूसियवं, न हीलियव्वं, न निंदियव्वं, न खिसियव्वं, न छिदियव्वं,
संवरद्वारे वृत्ति न भिदियव्वं, न वहेयव्वं, न दुगुंछावत्तियाए लब्भा उप्पाएउ, एवं सोतिंदियभावणाभावितो भवति अंतरप्पा
प्रथम टू मणुन्नाऽमणुनसुभिदुन्भिरागदोसप्पणिहियप्पा साहू मणवयणकायगुत्ते संबुडे पणिहितिदिए चरेज धम्भ १। भावना ॥९८॥ है दीप्तवचनं-रुसणवचन-कोपवाक्यं, त्रासनं-भयकारिवाक्यम् , उत्कूजितं-अव्यक्तमहाध्वनिकरणम् , रुदितं-अश्रुविमोचनेन "रुन्न"
|| रोदनं मय(ह)च्छब्देन, ऋन्दितं-आक्रन्दनं-इष्टवियोगादौ, निघुष्टरसितम्-निर्घोषरूपं शृगालसूकरादिवत् फूत्कारः, कलुणम्-करुणोत्पा४. दकम् , विलपितम्-आर्तस्वररूपम् , एतेषां द्वन्द्वस्ततस्तानि श्रुत्वा, अन्येषु इत्येवमादिकेषु शब्देषु अमनोज्ञेषु अतएव पापकेषु-अशुभेषु ||
श्रमणेन-साधुना"न"-निषेधे रोषितव्यं-क्रोधो न उत्पादनीयः,न हीलितव्यं-नावज्ञा कार्या,न निंदना(दितव्यं)-न निंदा कार्या खचित्ते | न गर्दा कार्या लोकसमक्षम् , न खिसा अमनोज्ञा एते इत्यादिरूपा(कार्या),न छिंदितव्यं न द्रव्यच्छेदकार्यः,न भेदो विधेयः, अथवा न | भेत्तव्यम् ,न वधस्तन्नाशः कार्यः,अथवा तेभ्यो भयं प्राप्य ते न हातव्याः, न जुगुप्सावृत्तिका लभ्या-उत्पादयितुं जनयितुं वा संज्ञादि| नाऽपि इत्यर्थः,निगमयन्नाह प्रथमां भावनामिति, एवं श्रोत्रेन्द्रियविषया भावना भावितो भवति अंतरात्मा-जीवः मनोज्ञाऽमनोज्ञाभ्यां ये सुप्राप्तिशुभाऽशुभाः शब्दाः इति गम्यते तेषु क्रमेण यो रागद्वेषः तयोर्विषये प्रणिहितः-संवृत्तः आत्मा यस्य स तथा साधुः
निर्वाणसाधनपरः, मनोवचनकायगुप्तः, संवृत्तः-संवरवान्, पिहितेन्द्रियः-निरुद्धहषीका, प्रणिहितेन्द्रियो निश्चलेन्द्रियः संयमविषये, ॥९८॥ 18| एतादृशः सन् धर्म-संवरधर्म चरेत् साधुः-मुनिः॥ इति प्रथमा भावना ॥१॥
RUARHARMACES.
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5
555445%
बितियं चक्खिदिएण पासिय रूवाणि मणुनाई भद्दकाई सचित्ताचित्तमीसकाई कडे, पोत्थे य, चित्तकम्मे | लेप्पकम्ने, सेले य, दंतकम्मे य. पंचहिं वण्णेहिं अणेगसंठाणसंथियाइं,गंठिमवेढिमपूरिमसंघातिमाणि,य मल्लाई | बहुविहाणि य अहियं नयणमणमुहकराई, वणसंडे पव्वते य गामागरनगराणि य खुद्दिय-पुक्खरिणि-वावी| दीहिय-गुंजालिय-सरसर पंतिय-सागर-बिल पंतिय-खादिय-नदी-सर-तलाग-वप्पिणीफुल्लुप्पलपउम
द्वितीय भावनावस्तु चक्षुरिन्द्रियसंवरो नाम तच्चैवं-चक्षुरिन्द्रियेण दृष्ट्वा रूपाणि नरयुग्मादीनि मनोज्ञभद्रकाणि-मनोहरशुभकानि है सचिचाचित्तमिश्रकानि तेषु इत्याह क क्व स्थाने काष्टे-पुत्तलिकादौ,पुस्तिका-पुस्तके, चित्रकर्म प्रतीतम् तस्मिन्, लेप्यकर्मणि-मृत्तिका
(यां) भित्यादौ वा, शैले-पापाणे, दंतकर्मणि तत्र किंभूते इत्याह, रूपनिर्माणक्रियायां पंचभिवर्णैः युक्तानीति गम्यम् , तथाऽनेकसं-12 स्थानसंस्थितानि,ग्रन्थिम-ग्रथनेन निष्पन्नम् मालावत् , वेष्टिम-वेष्टनेन जातं निभृतकुसुमं गेन्दुकवत,पूरिमं-वंशपूरितं प्रोतकुसुमनालवत् | संघातिम-समूहेन निष्पन्नं इतरेतरनिवेशितमालावत् एतेषां द्वन्द्वः, एभिः प्रकारैः निर्मितानि यानि माल्यानि मालासु साधितानि पु. पाणि बहुविधानि-अनेकप्रकाराणि अधिकतराणि नयनमनसां सुखकराणि यानि तथा तानि, वनखंडानि पर्वताच[तान्] ग्रामाकर नगराणि प्रतीतानि. क्षुद्रिका-जलाशयविशेषः परं लघुको, पुष्करिणी-पुष्करवती चतु:कोणा वा,वापी-वर्तुला चतुःकोणाऽपि, दीपिका कूपाकारा ऋजुसारिणी, गुंजालिका-वक्रायतसारिणी वा, सरः खात-अखात-सरोवरादि सरसरपतिका एकस्मात् सरसः अन्यत् सरः सरःसरम्पशिका, सागरः-समुद्रः, धातुखानिपद्धतिः-पिलपतिका-खातिका-चप्रगर्ता, नदी-निम्नगा, सर:-खभावजो जलाशयविशेषः, तडागः कृतकं कासारं, वप्पिणीत्ति केदारः एतेषां पदानां द्वन्द्वः,किंभृतान् , फुल्ल-विकसितैः उत्पलैः-नीलोत्पलादिभिः पद्यैः-सामान्यैः
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वृत्ति
परिमंडियाभिरामे, अणेगसउणगणमिणविचरिए, वरमंडव-विविहभवण-तोरण-चेतिय-देवकुल-सभज्ञान वि० प्रश्न०व्या०
प्पवा-वसह-सुकयसयणासण-सीय-रह-सयड-जाण-जुग्ग-संदण-नरनारिगणे, य सोमपडिरूवदरिसणिज्जे, संसार अलंकितविभूसिते, पुवकयतवप्पभावसोहग्गसंपउत्ते, नड-नदृग-जल्ल-मल्ल-मुट्ठिय-वेलंवग-कहग-पवग- द्वितीय
लासग-आइक्खग-लंख-मंख-तूणइल्ल-तुंबवीणिय-तालायरकरणाणि य बहूणि सुकरणाणि अनेसु य एवमा- भावना ॥१९॥
दिएसु रूवेसु मणुनभद्दएसु | पुण्डरीकादिभिः परिमण्डिताः-अभिरम्यास्ते तथा तान् , अनेकशकुनिगणानां मिथुनानि विचरितानि-संचरितानि येषु ते तान् , तथा2 वरमंडपाः: प्रतीताः, विविधानि भवनानि गृहाणि, तोरणानि प्रतीतानि, चैत्यानि-प्रतिमा यक्षादीनां, देवकुलानि प्रतीतानि, सभा-1 | बहुजनोपवेशनस्थानं, प्रपा-जलदानस्थानं, आवसथः-परिव्राजकवसतिः, सुकृतानि-शोभनकृतानि, शयनानि-शय्या,आसनानि-सिंहासनादीनि शिबिका-जपानकविशेषः पार्श्वतो वेदिका च उपरि शिखराकारा, रथाः प्रतीताः,शकट:-गत्रीविशेषः,यानयुग्यं-वाहनं गोल्लदेशप्रसिद्ध वा, जंपानस्यन्दनो-रथविशेषः, घंटायुक्तश्च-नरनारीगणश्च इत्येतेषां पदानां द्वन्द्वः ततस्तान् , किंभूतान् ? सौम्यान्-अरौद्रान् | प्रतिरूपा येते तथा दर्शनीयान्-द्रष्टुं योग्यान् , अलंकृतविभूषितान्-क्रमेण मुकुटादिभिः समारचितान् , च पूर्वकृततपसः प्रभावेन यत् । सौभाग्यं-सुभगभावत्वं तेन संप्रयुक्ताः सदा ये ते तान् , तथा पुनः कीदृशान् ? नट-नर्तक-जल्ल-मल्ल-मौष्टिक-विडम्बक-विहासिकपाठक-पठक एतेषां पदानां पर्याया पूर्व व्याख्याता इति लासग-आइक्खग-लंख-मंख-सतूणहल्ल-तुंबवीणिय-तालचरास्तैः प्रक्रियन्ते ।
13/॥१९॥ यानि तानि तानि च कानीत्याह-बहुप्रकाराणि सुकरणानि-शोभनकर्माणि दृष्ट्वा तेषु तथा अन्येष्वपि-अनुक्तादपि व्यतिरिक्तेषु एवं प्रकारेषु
SPREARS
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न तेसु समणेण सजियव्वं, न रज्जियव्वं, जाव न सइंच मई च तत्थ कुज्जा, पुणरवि चक्खिदिएण पासिय है रूवाई अमणुनपावकाई, किं ते ?, गंडि-कोढि-ककुणि-उदरि-कच्छुल्ल
रूपेषु-चक्षुह्येषु मनोज्ञेषु-सारतरेषु भद्रकेषु-प्रधानेषु न-निषेधे श्रमणेन-साधुना न सजित्तव्यं, न रक्तव्यं-रागस्नेहतया न भवितव्यं, यावत् करणात् न निर्विघातव्यं, "न" निषेधे श्रुतिं वा मतिं वा तत्र-तेषु कुर्यात् , पुनरपि चक्षुरिन्द्रियेण स्पर्शितानि स्पर्शानि अमनोज्ञपापकानि कानि तानीत्याह तद्यथा गंडीत्यादि वातपित्तकफश्लेष्मजं संनिपातजं चतुर्थगंडमस्यास्तीति गंडी गंडमालावान् कुष्ठमष्टादशमेदमस्यास्तीति कुष्ठी तत्र सप्त महाकुष्ठानि तद्यथा-अरुणो १दुंबर २ स्पर्शजिह्न ३ कर कपाल ४ काकन ५ पौण्डरीक ६ ददु ७ कुष्टानामतिमहत्त्वं चैषां सर्वथात्वनुप्रवेशादसाध्यत्वाचेति, एकादश क्षुद्राणि तद्यथा-स्थूल मारुक१ महाकुलै२ ककुष्ठा ३ |
चर्मदल विसर्प५परीसर्पविचर्चिकासिमकिद्दिभि९पामा१०शतारुक ११ संज्ञानि सर्वाण्यप्यष्टादश, सामान्यतः कुष्ठं | सर्व सन्निपातजमपि चात्मनि दोषोत्कटे तथा भेदभाग् भवति इति । कुणित्ति गर्भाधीन (धान) दोषात् अथवा इस्वैकपादो न्यूनैकपाणिर्वा | BI कुणिः कुंट इत्यर्थः, औदरिको-जलोदरी तत्राष्टौ
पृथक् १ समस्तै २ रपिचानिलोधैः३ प्लीहोदरं ४ बद्धगुदं५ तथैव । आगंतुकं ६ वेसर ७ मष्टमं तु जलोदरं चेति भवंति तानि ॥१॥
एतान्यष्टावुदरिकाणि तेषां मध्ये जलोदरमसाध्यं शेषानि साध्यानीति यानि । कच्छुल्ल:-कंडुतिमान् , पइल्लत्ति पदं स्लीपदं
चात्मनि दोषोत्करबकासिध्मकिन, एकादश क्षुद्राणि
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ज्ञान०वि० प्रश्नव्या
प्रति
॥१०॥
ॐॐRE
पडल्ल-कुज्ज-पंगुल-वामण-अंघिल्लग-एगचक्खु-विणिहय-सप्पिसल्लग-वाहिरोगपीलियं विगयाणि य मयकक
पञ्चम & पादादौ काठिन्यं यदुक्तं "प्रकुपिता वातपित्तश्लेष्माऽधोऽधः प्रपन्नाः, वक्षोरुजंघाखवतिष्ठमानाः कालान्तरे पादमाश्रित्य शनैः शनैः | | संवरद्वारे शोफमुपजनयति(न्ति) यत्तत् श्लीपदमेव वक्ष्यते"।
द्वितीय पुराणोदकभूयिष्टाः सर्वर्तुषु च शीतलाः । ये देशास्तेषु जायन्ते, श्लीपदानि विशेषतः॥१॥
भावना पादयोहस्तयोर्वापि जायते श्लीपदं नृणाम् । कर्णोष्ठनासाखपि च, क्वचिदिच्छन्ति तद्विदः ॥२॥
कुब्जः पृष्ठादौ पंगुल:-चंक्रमणाऽसमर्थः, वामनः-हस्वखर्वशरीरः एते च मातापितृशुक्रशोणितदोषोद्भवाः कुजवामनकादयो | भवन्ति । उक्तं च-गर्भवातप्रकोपेण दोहदे वाऽपमानिते। भवेत् कुब्जः कूणिः पंगुर्मूको मन्मन एव यः॥१॥ इति ।
तथा अंधेल्लगत्ति-अंध एव अंधिलको जात्यंधः, एकचखुत्ति-काणः, एतच्च दोषद्वयं गर्भगतस्योत्पद्यते जातस्य च, तत्तु गर्भ| स्थस्य दृष्टिभागमप्रतिपन्न तेजो जात्यन्धकत्वं कुरुते तदेकाक्षिगतं काणत्वं विधत्ते तदेव रक्तानुगतं रक्ताक्षं, पित्तानुगतं पिङ्गाक्षं, श्लेष्मा
नुगतश्च(तं च) शुक्लाक्षमित्यादि ज्ञेयम् । विणियत्ति-विनिहतचक्षुरित्यर्थः तत्र यजातस्य चक्षुर्विहनेन अंधत्व काणत्वं वा दर्शितम् । ४|| सप्पिसल्लगत्ति-सह पिसल्लकेन-पिशाचेन वर्तते यः स तथा ग्रहगृहीत इत्यर्थः, अथवा सर्पतीति सी पीठसी स च गर्भदोषात्कमंदोषाद्भवति, स किल पाणिगृहीतकाष्ठः सर्वत्रातिशल्यकस्तब्धपुरुषाकार इत्यर्थः शल्यवान् शूलादिभिन्न इत्यर्थ । व्याधिना-विशिष्ट
॥१०॥ पीडया चिरस्थायी(यि) गदेन वा, रोगेण वा सद्योघातिगदेन वा पीडितो यः स तथा। विगतानि मृतककलेवराणि, सकिमिण-2 ____ "राफो” इति भाषा
RSSHRA
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+4+4+4+4+4+4+4+4+4+
3
लेवराणि सकिमिणकुहियं च दव्वरासिं अन्नेसु य एवमादिएसु अमणुन्नपावकेसु न तेसु समणेण रूसियब्वं जाव न दुगुंछावत्तियावि लब्भा उप्पातेउं, एवं चक्खिदियभावणाभावितो भवति अंतरप्पा जाव चरेज धम्म ।
ततियं घाणिदिएण अग्घाइय गंधातिं मणुनभद्दगाई, किं ते?, जलयर-थलयर-सरस-पुप्फफल-पाणभोयण-कुट्ठ-तगर-पत्त-चोददमणक-मरुय-एलारस-पक्कमंसि-गोसीस-सरसचंदण-कप्पूर-लवंग-अगर-कुं. कुहियत्ति-सहकृमिभिर्यः कुथितश्च, तथा द्रव्यराशिं पुरीषादिदुगंछितद्रव्यसमूहं दृष्ट्वा तेषु-गंड्यादिपदसमुदायेषु, अन्येषु-एवमादिरूपेषु
अमनोज्ञपापकेषु तेषु श्रमणेन न रोषितव्यं यावत् करणात् न हीलितव्यमित्यादीनि षट्पदानि न जुगुप्सावृत्तिकाऽपि लभ्या उत्पा-2 | दयितुं शुचिना योगेनेत्यर्थः, एवममुनाप्रकारेण चक्षुरिन्द्रियभावनाभावितो भवति । अंतरात्मा जीवः यावत् स साधुर्धर्म चरेत्
आसेवते इति द्वितीया भावना २॥ __ अथ तृतीयामाह-घ्राणेन्द्रियेण आघातुं योग्यानि यानि द्रव्याणि मनोज्ञानि भद्रकाणि-घ्राणमनोनिवृतिकराणि कानि तानि तद्यथा-- जले जातानि जलजानि, स्थले जातानि-स्थलजानि, सरसानि-आर्द्राणि, पुष्पफलपानभोजनानि प्रतीतानि, कुष्ठ-गंधद्रव्यं, तगर(क) गन्धद्रव्यविशेषः, पत्रं-तमालपत्रम्, चूयत्ति-सर्वसुगंधद्रव्यविशेषः, दमणकः पुष्पजातिविशेषः, मरूकः प्रतीतः, एलारसः-सुगन्धिफल विशेषरसः,पक्कमंसी-असंस्कृता मांसी-गन्धद्रव्यविशेषः, गोशीर्षाभिधानं यत् चन्दनं सरसं-आर्द्र यत् चंदनं-श्रीखण्डं, कर्पूर:-धनसारः
१ 'कोड' इति भाषा। २ 'चूया' इति भाषा । ३ 'भरुओ इति भाषा ।
9
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पश्चम संवरद्वारे तृतीया भावना
ज्ञान०वि०
म-कक्कोल-उसीर-सेयचंदण-सुगन्धसारंग-जुत्तिवरधूववासे उउयपिंडिम-णिहारिमगंधिएसु अन्नेसु य एवप्रश्न०व्या०
मादिसु गंधेसु मणुन्नभद्दएसु न तेसु समणेण सज्जियव्वं जाव न सतिं च मइं च तत्थ कुज्जा, पुणरवि घाणिवृत्ति | दिएण अग्घातिय गंधाणि अमणुन्नपावकाई किं ते?, अहिमड-अस्समड-हत्थिमड-गोमड-विग-सुणग-सियाल
-मणुय-मजार-सीह-दीविय-मयकुहिय-विणहकिविण-बहुदुरभिगंधेसु अन्नेसु य एवमादिसु गंधेसु अम॥१०॥ लवंगानि प्रतीतानि, अगुरु-दारुविशेषः कृष्णादिबहुभेदतः, कुंकुम-काश्मीरज केशरं, ककोलत्ति-फलविशेषः, ओशीरं-बीरणीमूलं, श्वेत
चंदनं-चूर्णवासादिस्रक्षडां वास्पंदघट्टनं मलयज, सुगंधानां-सद्गन्धानां सारंगानां युक्तिः-योजनं येषु ते तथा वरधूपवासेषु ततस्तान् आघ्राय तेषु योगात् , तथा ऋतुजः-स्वस्वकालान्वितः पिण्डिमो-बहुपरिमलत्वेन दूरनिर्यायी-दरतरादागमनशीलो यो गंधः स विद्यते | | येषु ते तथा तेषु, अन्येष्वपि च एवमादिकेषु गन्धेषु उक्तानुक्तेषु शुभेषु मनोज्ञेषु भद्रकेषु-प्रधानेषु, रमणीयेषु तेषु-द्रव्यादिकेषु, श्रम| णेन साधुना न सक्तव्यं-आसक्तेन न भाव्यम् । यावत् शब्देन सर्वे पूर्वशब्दा ग्राह्या खकीयां मतिं च पुनरर्थे तत्र-विषयेषु न कुर्यात् , पुनरपि घाणेन्द्रियेण आघ्रातुं योग्यानि यानि गंधानि अमनोज्ञानि-पापकानि कानि तानीत्याह-मृतकानि-जीवनिमुक्तानि अहीनां
सर्पाणां मृतकानि, अश्वानां-हयानां मृतकानि, हस्तिनां मृतकानि, गवां मृतकानि, बृका (तेषां) श्वानानां-कुकुराणाम् भृगालानां M] मनुजाना-मनुष्याणां मार्जाराणां सिंहानां द्वीपिनश्चित्रकास्तेषां मृतकानि-जीवरहितानि कुथितानि-द्वीन्द्रियादिजीवोपगतानि है. विनष्टानि-पूर्वाकारविनाशेन (उत्तराकारं प्राप्तानि), कृमिवति बहुदुरभिगंधानि वा अत्यंत(त) अमनोज्ञगंधानि यानि तानि तादृशेषु |
१ वरगडा इति भाषा ॥
SAHARASHIRSIGTIPRIAUX
॥१०॥
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गुन्नपावएसुन तेसु समणेण रूसियव्वं न हीलियव्वं जाब पिहियघाणिदिय चरेज धम्म ३ । | चउत्थं जिभिदिएण साइय रसाणि उ मणुन्नभद्दकाई, किं ते ?, उग्गाहिमविविहपाण-भोयण-गुलकय
खंडकय-तेल्लघयकयभक्खेसु बहुविहेसु लवणरससंजुत्तेसु महुमंसबहुप्पगारमजिय-निट्ठाणगदालियंब-सेहंबभाजनेषु अन्येष्वपि-एवमादिकेषु-उक्तानुक्तेषु गंधेषु अमनोज्ञपापकेषु न तेषु श्रमणेन रोषितव्यम्-कोपो न कर्तव्यः, न हीलितव्यः-नक्रादिमोटनेन यावत्करणेन न पिहितघ्राणेनापि भवितव्यम् किन्तु धर्म चरेत् साम्यभावं चरेत् । इति तृतीया भावना ॥३॥ | अथ चतुर्थीभावनामाह-जिह्वेन्द्रियसंवरः एतद्वक्ष्यमाणः जिह्वेन्द्रियेण आखाद्य खाद्यरसान् सुमनोज्ञभद्रकान्-स्वादुस्वादुवतः कान है
तान् इत्याह तद्यथा-अवगाहा-स्नेहबोलनं तेन पाकतो जातं अवगाहिम-पक्वान्नं-खंडखाद्यादि, विविधं पानं-द्राक्षापानकादि, भोजनं४ ओदनं, गुडकयं-गुडसंस्कृतं, खंडकृतं-खंडसंस्कृतं लड्डुकादि, तैलघृतकृतं-अपूपादि भक्ष्य-भोज्यं आस्वाद्येति संबंधः । तेषु भक्ष्येषु | सक्कु(शष्कु)लिकाप्रभृतिषु बहुविधेषु-विचित्रेषु लवणरससंयुक्तेषु "निर्लवणमस्वादु" इति वचनात् मधुमासे प्रतीते बहुप्रकारा मजिका रसाद्वैततया प्रकृष्टमूल्यनिष्पादितं यत् "निट्ठाणंति जा सयसहस्स"लक्षमूल्य(ल्यं)श्चेति यद्भवति तन्निट्ठाणगं, दालिकाम्लं मरीचराजिकादिना निष्पन्नं, सैन्धाम्लं संधानेन-आम्लिकादिना आम्लीकृतं, तथा दुग्धं दधि च प्रतीतम् , सरको-गुडघातकीपुष्पादिना सिद्धः, मद्यवर:-पिष्टोद्भवः, वारुणी-मदिरापान(नं) सीधुकापिशायनं-संयोजितविशेषद्रव्यमयं तथा शाकं-अष्टादशरसशाकं ततस्तथा ते बहुप्रकारा यस्मिन् एतेषां सर्वत्र कर्मधारयः तेषु शाकाऽष्टादशता तच्चैवंसुयो१ दणो२ जवनं३ तिनि य मंसाइ६ गोरसो७ जूसो८ भक्खा९ गुललावणिया१० मूलफला११ हरिययं१२ डागो१३
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ज्ञान०वि०
प्रश्न० व्या०
वृत्ति
॥१०२॥
दुद्ध-दहि-सरयमज्जवरवारुणीसीहुकाविसायणसायट्ठारसबहुप्पगारेसु भोयणेसु य मणुन्न-वन्नगंधरसफासबहुद व्वभितेसु अन्नेसु य एवमादिएस रसेसु मणुन्नभद्दएसु न तेसु समणेण सज्जियव्वं जाव न सई च मतिं च तत्थ कुज्जा, पुणरवि जिभिदिएण साथिय रसातिं अमणुन्नपावगाई, किं ते १, अरसविरससी लुक्खणिजपपाणभोयणाई
| होइ रसालू य१४ तहा पाण१५ पाणीय १६ पाणगं १७ चेव । अट्ठारसमो सागो१८ निरुवहओ लोइओ पिण्डो ॥ २ ॥ तिन्नेव साईति - जलचरादिसत्कानि, जूसोत्ति- शुंढी- तंदुल - जीरकडुभांडादिरसः भक्खत्ति - खंडखाद्यादीनि, गुललापनिकागुलपपेटिका लोकप्रसिद्धा गुडधाना वा, सूपो-मुद्गादिः, तंदुलजवान्नं, मूलफलमित्येकपदं, हरितकं ति-जीरकादिसंस्कृतं, डागो व स्तुलादिभर्जिकाविशेषः, रसालु ति - आम्लमधुरफलादि, मञ्जिका देशे आहारविशेषः, पानं मद्यं, पानीयं जलं पानकं- द्राक्षा| पानकादि, सागोत्ति तत्र प्रसिद्धशाकं, तथा भोजनेषु विविधशालनकेषु च मनोज्ञवर्णगंधरसस्पर्श निवृतानि, बहुद्रव्यैः संभृतानि - उपस्कृतानि तथा तेषु अन्येष्वपि एवमादिकेषु रसेषु, मनोज्ञभद्रकेषु "न" निषेधे तेषु श्रमणेन साधुना न सक्तव्यं इति पूर्ववत् योज्यं, तत्र स्वीयां मतिं न कुर्यात् । तथा पुनरपि जिह्वेन्द्रियेण आखाद्य रसान् तथाविधान् - अमनोज्ञान् पापकान् कान् तान् इत्याह| अरसानि - अहार्यरसानि हिंग्वादिभिरसंस्कृतानि इत्यर्थः, विरसानि पुराणत्वेन विगतरसानि शीतानि - अनौचित्येन शीतलानि, रूक्षाणि निःस्नेहानि, निजप्पित्ति-निर्याप्यानि निर्बलानि यानि पानभोजनानि तानि तथा दोसीणत्ति - दोषानं - रात्रिपर्युषितं तदपि १ पलवेति भाषा
पश्चम संवरद्वारे
चतुर्थी
भावना
॥ १०२ ॥
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ॐिॐॐॐॐॐॐॐॐ
४ दोसीणवावन्न-कुहिय-पूइय-अमणुन्न-विणट्ठससूय-बहुदुन्भिगंधियाइं तित्तकडुयकसायअंबिलरसलिंडनीरसा. &ाई अन्नेसु य एमातिएसु रसेसु अमणुन्नपावएसु न तेसु समणेण रूसियव्वं जाव चरेज धम्म ४।
पंचमगं पुण फासिदिएण फासिय फासाई मणुनभद्दकाई, कि ते?, दग-मंडव-हीरसेयचंदणसीयलविमलजलविविहकुसुमसत्थर-ओसीरमुत्तिय-मुणालदोसिणापेहुणउक्खेवगतालियंटवीयणगजणिय-सुहसीयले य व्यापन-विनष्टवर्ण, कुथितं-कोथवत्पूतिक-अपवित्रं गंधतो वा कुथितपूतिकं अन्यानपि कुथितकारकं अतएव अमनो-असुन्दरं, विनष्ट-अत्यन्तविकृतावस्थाप्राप्तस्तम् , ससूयत्ति-जीवानां सप्तमतिर्यत्र, बहुत एतावता त्रसजीव-नीलफूल्यादिसंसक्तं, बहुदुरमिगंधो येन तत्तथा, तिक्तं च निम्बवत् , कटुकं च झूठयादिवत् , [कषाय-विभीतक्वत् ] आम्लरसं तक्रादिवत् , लिंद्रवत्-सशैवलपुराणजलवत् , नीरसं च विगतरसं एतेषां द्वन्द्वः अतस्तानि आखाद्य तेष्विति योगः। अन्येष्वपि एवमादिकेषु रसेषु अमनोज्ञेषु पापकेषु एतेषु "न" इति निषेधे श्रमणेन-साधुना न रोषितव्यं पूर्ववत् । यावत् करणादिदं दृश्यं समताभावतया धर्म चरेत् वस्तुस्वभाव-| मवगत्य न रोषतोषं कुर्यात् इति चतुर्थी भावना ॥४॥
अथ पंचमकं भावनावस्तु स्पर्शनेन्द्रियसंवरस्तञ्चवं-स्पर्शनेन्द्रियेण यानि स्पर्शयितुं योग्यानि स्पर्शानि तानिस्पृष्ट्वा इति योगः, मनोज्ञानि भद्रकाणि-मनोहराणि कल्याणकारीणि, कानि तानीत्याह-दंकमंडपा:-उदकमंडपा:-जलयंत्रस्थानानि,उक्तक्षरणयुक्ताः हीराः निर्जरणाः प्रतीताः, श्वेतचन्दन-श्रीखंडं, शीतलं-विमलं, निर्मलं जलं-पानीयं, विविधाः-विचित्रप्रकाराः कुसुमानां सस्तरा:-शयनानि, ओसीरं-बीरणीमूलं, मौक्तिक-मुक्ताफलानि,मृणालं-पानीलं, दोषायां-रात्रौ भवा दोषीणा(णा)-चन्द्रज्योत्स्ना एतेषां पदानां
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ज्ञान०वि०
प्रश्न० व्या० वृत्ति
॥१०३॥
पवणे गिम्हकाले सुहफासाणि य बहूणि सयणाणि आसणाणि य पाउरणगुणे य सिसिरकाले अंगारपतावणा य आयवनिद्धमउय - सीयउसिणलहुया य जे उउसुहफासा अंगसुहनिव्वुइकरा ते अन्नेसु य एवमादितेसु | फासेसु मणुन्नभद्दएसु न तेसु समणेण सज्जियव्वं [न रज्जियव्वं ] न गिज्झियव्वं, न मुज्झियव्वं, न विणिग्धायं आवज्जियव्वं, न लुभियव्वं, न अज्झोववज्जियव्वं, न तूसियव्वं, न हसियव्वं, न सतिं च मतिं तत्थ कुजा,
द्वन्द्वः, पेहुणानां मयूरकानां ये उत्क्षेपका - चंद्रकास्तेषां तालवृन्तं -वीजनकं एतानि पवनोदीरकानि वस्तुनि ( वस्तूनि ) तैर्जनिताः - उत्पादिताः सुखाः- सुखहेतवः, शीतलाच - शीताः ये ते तथा, तान् पवनान् स्पर्शति क्व ? ग्रीष्मकाले - उष्णकाले, अन्यान्यपि सुखस्पर्शानि बहूनि संति तान्याह - शयनानि - शय्यासंस्तराणि, आसनानि-सिंहासनादीनि प्रावरणगुणाश्च - शीतापहारकादीन् क शिशि| रकाले - शीतकाले, अंगारप्रतापनाः - शरीरस्यांगारप्रतापनाः ताव, आतपः सूर्यतापः पुनः स्निग्धमृदु शीतल उष्णलघुकाः, आश्रये | ऋतुसुखा:- हेमन्तादिकालविशेषे सुखकाराः सुखस्पर्शाः अंगसुखं - शरीरसुखं, निर्वृतिः - मनःखास्थ्यम् कुर्वन्ति ये ते तथा तान्, अन्येष्वपि एवमादिकेषु स्पर्शेषु मनोज्ञभद्रकेषु "न" निषेधे तेषु स्पर्शेषु श्रमणेन - साधुना न सक्तव्यं आसक्ततया न भाव्यं, न गृद्धि: - नित्यं प्राप्त (प्तिः) वांछा कार्या, न मूर्च्छा-लब्धेऽपि लोभो न कार्यः, “न” निषेधे तस्मिन्नर्थविशेषे निर्घातं - निर्दयत्वं नाव - जितव्यम्, न लोग्धव्यं - आशंसया न अध्यात्मनि तमेवार्थ उत्पादयितव्यं (न अध्यात्मनि स एवार्थ उत्पादयितव्यः ) न तोषितव्यं -संतोष्टव्यं सम्यग्ज्ञातमिति, हास्यो न कार्यः विस्मयतया, न स्वकीयां मतिं तत्र कुर्यात्, तथा पुनरपि स्पर्शनेन्द्रियेण स्पर्शितस्पर्शान् प्रति अमनोज्ञपापकानि कानि तानीत्याह - अनेको - बहुविधो वधो-यष्टयादिभिः, बंधो-रज्ज्वादिभिः, ताडनं-चपेटादिना, संयमनं
पश्चम
संवरद्वारे
पञ्चमी
भावना
॥ १०३ ॥
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SASSSSS
पुणरवि फासिदिएण फासिय फासातिं अमणुन्नपावकाई, किं ते ?,अणेगवध-बंध-तालणकण-अतिभारारोवणए अंगभंजण-सूतीनखप्पवेस-गायपच्छण-लक्खारसखारतेल्लकलकलंत-तउअसीसककाललोहसिंचण-हडिबंधण रज्जुनिगल-संकलहत्थंडुय-कुंभिपाकदहण-सीहपुच्छण-उबंधण-सूलभेय-गयचलणमलण-करचरणकन्ननासोहसीसछेयण-जिब्भछेयणवसणनयणहिययदंतमंजण-जोत्तलयकसप्पहार-पादपण्हिजाणुपत्थरनिवायपील-13
कविकच्छुअगाणि विच्छुयडक्कवायातवदंसमसकनिवाते दुट्टणिसज्ज-दुन्निहिया-दुन्भिकक्खड-गुरुसीयउसि| संयमनं वधो-विनाशः, अंकन-तप्तायःशलाकया अंककरणं,अतिभारारोपणं-शक्तिमनपेक्ष्य भारक्षेपणं, अंगभंजनम्-शरीरावयवमोटनम् , | नखेषु सूचीनां प्रवेशो यः स तथा, तथा गात्रस्य-शरीरस्य प्रक्षरणं केन कृत्वेत्याह ? त्वक् छेदादिना लाक्षारसेन, क्षारेण, तैलादिना, | कलकलशब्दं यत् करोति तत्कलकलं-अतितप्तमित्यर्थः तेन त्रपुणा, सीसकेन-काललोहेन यत् सिंचित-निषेवनं तत्तथा, हडिबंधनखोडकक्षेपः, रज्ज्वा निगडैः सङ्कलनं हस्तांडुकेन यानि बन्धनानि तथा कुंभ्यां-भाजनविशेषे पाकः-पचन, दहनं अग्निना, सिंहपुच्छने बद्धा उत्पाटन, उद्वन्धनं वृक्षादौ, शूलिका शूलपोतनं, गजचरणेषु लोलनं-मलनम्, कर्णनासौष्ठशीर्षच्छेदनं च प्रतीतम् , | जिह्वाच्छेदनं-जिह्वाकर्षणम् , वृषणकर्षणम् , नयनोत्पाटनम् , हृदयकर्षणम् , दंतानां यद्भजनमामर्दनम् , योत्रे-युपे वृषभाणां संयमनं, | लता-कंबा-कसा(शा)-वाघ्रमयी रज्जुः तस्याः येषां ये प्रहाराः, पादपाणिः-छुटिकाधः, जानुः, प्रस्तरा:-पाषाणाः येषां यो निपातः पतनं स तथा, (यत्रैः) पीडनं-यत्रपीडन, कपिकच्छु:-तीव्रकंडुतिकारकः फलविशेषः, अग्निः-वह्निः, वृश्चिकदंशो वा, वातातपदंशम
१ दशकला इति भाषा
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पञ्चम संवरद्वारे पञ्चमी भावना
वृत्ति
णलुक्खेसु बहुविहेसु अन्नेसु य एवमाइएसु फासेसु अमणुन्नपावकेसु न तेसु समणेण रूसियव्वं, न हीलियब्वं, | ज्ञान०वि० प्रश्न०व्या०
न निंदियव्वं, न गरहियव्वं, न खिसियव्वं, न किंदियव्वं, न भिदियव्वं, न वहेयव्वं, न दुगुंछावत्तियव्वं Bाच लन्भा उप्पाएउं, एवं फासिंदियभावणाभावितो भवति अंतरप्पा । मणुन्नामणुनसुन्भिदुन्भिरागदोसपणि
|हियप्पा साह मणवयणकायगुत्ते संवुडेणं पणिहितिदिए चरेज धम्म ५। ॥१०४॥
| एवमिणं संवरस्स दारं सम्मं संवरियं होइ सुप्पणिहियं इमेहिं पंचहिंवि कारणेहिं, मणवयकायपरिरक्खिएहिं| | सकनिपातश्चेति द्वन्द्वस्ततस्तान् स्पृष्ट्वा, दुष्टनिषद्या-क्षुद्रासनानि, दुर्निपीधिकाः-कष्टस्वाध्यायभूमिः ताः स्पृष्ट्वा तेषु, कर्कश-गुरु| शीतोष्ण-रूक्षेषु बहुप्रकारेषु अन्येष्वपि एवमादिकेषु प्रकारेषु अमनोहरपापकारिषु श्रमणेन-मुनिना "न" निषेधे तेषु रोषितव्यं क्रोधात्मना वाच्यं, न हीलितव्यं, न निंदितव्यं, न गर्हितव्यं, न खिसितव्यं, न छेदितव्यं, "न" निषेधे तान् वघेतव्यं (हन्तव्यम्) न दुगंछावृत्तिर्जुगुप्सा उत्पादयितुं (न दुगंछावृत्तिर्जुगुप्सा उत्पादयितव्या) लभ्या, एतेषामष्टानां पदानामर्थः पूर्वभावनया व्याख्यातः, एवमुक्तरीत्या स्पर्शनेन्द्रियभावनाभाविता वासिता भवति । | अन्तरात्मा जीवः मनोज्ञ(ञ) अमनोज्ञ(ञ) सुष्ठुतया दुष्ठुतया रागद्वेषप्रणिधिनः(ना) अस्थापित आत्मा यस्य स एतादृशः साधुरनागारः मन(नो)वचनकायगुप्तेन-गुप्तित्रयतत्परेण सुसंवृतेन-शान्तिभूतेन्द्रियेण,पिहिताश्रवद्वारेण धर्म-संयतधर्म चरेत् पंचमी मावना ॥५
अथ पंचमभावनानिगमनं इह पंचमसंवरः। शब्दादिषु रागद्वेषनिरोधनं यद्भावभावित्वेनोक्तं तत्तेषु तदनिरोधः परिग्रहः स्यादिति | ज्ञेयं अतएव परिग्रह एव विरमणं व्रतं तस्य रक्षणार्थ इति सर्वत्र भाव्यं यदाह जे सद्दरूवरसगंधमागए फासे य संपप्प मणुण्ण
55ॐॐॐE
॥१०४॥
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निचं आमरणतं च एस जोगो नेयव्वो धितिमया मतिमया । अणासवो, अकलुसो, अच्छिद्दो, अपरिस्सावी, असंकङोलि, सुद्धो, सव्वजिणमणुन्नातो, एवं पचमं संवरदारं फासियं पालियं सोहियं तीरियं किट्टियं अणुपालियं आणाए आराहियं भवति, वायणंतरे पुण एयाणि पंचावि सुब्वय महव्वयाणि लोकधिकराणि, सुयसागरदे सियाणि संयमसीलव्वयसच्चज्जवमयाणि, नरयतिरियदेवमणुयगइविवज्जयाणि, सव्वजिणसासणाणि, कम्मरयवियारकाणि, भवसयविमोयगाणि, दुःक्खसयविणासकाणि, सुक्खसयपवत्तयाणिकापुरुषसुदुरुत्तराणि सप्पुरिसजणतीरियाणि, निव्वाणगमणजाणाणि कहियाणि सग्गपवायकाणि पंचावि महव्वयाणि कहियाणि । पावए । गेही पओलं न करेज्ज पडिए स होति दंते विरते अकिंचणे त्ति एवमिदं पंचमसंवरद्वारं सम्यक् प्रकारेण संवृतं भवति, सुष्ठु - शोभनतया प्रणिहितं स्थापितं एभिः पंचभिः कारणैः- भावनाकरणभृतैः मनोवाक्कायपरिरक्षितेन आत्मना नित्यं - सदा आमरणान्तं - जन्मावधि यावत् एषः योगो नेतव्यः - प्राप्तव्यः केनेत्याह- धृतिमता मतिमता मुनिना पुनर्धृतिमता - धैर्यवतैव अनाश्रवः- संवर (रः) कथितः इति गम्यं । अकलुषः-निर्मल (लः) रजोरहितः, अच्छिद्रः- न कोऽपि दोषावकाशः, अपरिस्रावी सकलगुणधारकस्वात् सदाशयविशुद्धः अतएव असंक्लिष्टपरिणामः, ततः शुद्धः - निर्दोषः, सर्वजिनैः - सर्वतीर्थकरैः, अनुज्ञातः - आसेवितः कथितच, एवम्अमुना प्रकारेण पंचमं संवरद्वारं - परिग्रहविरमणलक्षणं "पंचमेति संख्यापूरणे मद्" इति पश्चापि संवरद्वारं " जातावेकवचनं इति न्यायात्" स्पर्शितं कायेन पालितं- पुनः पुनः स्मरणेन, शोधितं गुर्वनुज्ञया, तीरितं भावोन्नत्या यथा कालावधि साऽवशेषत्वेन कीर्तितं चेतसोऽविस्मरणात्, अनुपालितं पूर्वमुनि आ (न्या) सेवितमार्गेण, आज्ञया आराधितं भवति, वाचनान्तरे पुनः एतानि पंचाऽपि हे सुव्रत !
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ज्ञान०वि० पश्न० व्या० वृति
॥१०५॥
एवं नायमुणिणा भगवया महावीरेण पन्नवियं, परूवियं, पसिद्धं, सिद्धं, सिद्धवरसासणमिणं आघबियं, सुदेसियं, पसत्थं, पंचमं संवरदारं सम्मत्तं ति बेमि । एयातिं वयाइं पंचवि सुव्वय महाव्वयाइ हेउसयविचित्तपुक्खलाई कहियाई अरिहंतसासणे पंच समासेण संवरा वित्थरेण उ पणवीसतिसमियसहियसंवुडे सया जयणघडण - सुविसुद्धदंसणे एए अणुचरिय संजते चरमसरीरधरे भविस्सतीति (सू० २९) पण्हावागरणे णं एगो सुय| शोभननियम ? महाव्रतानि कीदृशानि १ लोके धृतिदानि, श्रुतसागरे-आगमे देशितानि संयमशीलवतसत्यार्जवाद्यने कगुणमयानि, नरक| तिर्यग्- देव - मनुजचतुर्गतिविवर्जकानि, सर्वेषां जिनानां आसनानि आज्ञारूपाणि, कर्मरजोविदारकाणि, भवशतविमोचकानि दु( दु:)| खशतविनाशकानि, सुखशत प्रवर्त्तकानि, कापुरुषजनैः दुस्तराणि - कातरजन दुष्प्रधर्ष्यानि, सत्पुरुषजनतीरितानि - पालितानि, निर्वाणगमनयानानि, स्वर्गप्रापकानि नियमतः पंचापि महाव्रतानि कथितानि - उपदेशितानि केनेत्याह
एवम् - अनुना प्रकारेण, ज्ञातमुनिना भगवता श्रीमहावीरेण प्रज्ञापितं हितोपदेशतः, प्ररूपितं अर्थतः भव्यानां पुरतः, प्रसिद्धंविख्यातं सिद्धं निष्ठां प्राप्तम् वर (रं) - प्रधानं इदं शासनं - आज्ञारूपं, आख्यातं मर्यादया रक्षितं, सुदर्शितं सुष्ठु सम्यक्तया दर्शितम्, प्रशस्तं निर्मलाशयत्वात्, पंचमं संवरद्वारं समाप्तम् इति परिसमाप्तौ त्रवीमि इति - पूर्ववत् श्रीसुधर्मस्वामी जंबू (ं) प्रत्याह भगवदाज्ञया न तु स्वमनीषिकया इति अत्र निगमनार्थं इदं वाच्यम् ।
एतानि पंचापि हे सुव्रत ! - शोभननियम ! महाव्रतानि - संवररूपाणि हेतुशतैः- उपपत्तिशतैः, विविक्तैः - निर्दोषाः (षैः ) | [ विविच्य - विस्तारं कृत्वा इति) पुष्कलानि - विस्तीर्णानि यानि तानि कथितानि, तथा ये अनेके अर्हच्छासने-जिनागमे पंच समा
प्रश्नव्याक
| रणाङ्गस्योपसंहारः
॥१०५॥
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क्खंधो दस अज्झयणा एकसरगा दससु चेव दिवसेसु उद्दिसिज्जंति एगंतरेसु आयंबिलेसु निरुद्धेसु आउत्तभत्त पाएणं अंगं जहा आयारस्स (सू. ३०)॥ इति प्रश्नव्याकरणाख्यं दशमाङ्गं सूत्रतः समाप्तम् । ग्रन्थानम् १३००] | सेन-संक्षेपेन (ण) संवराऽसंवरद्वाराणि, विस्तारेण तु पंचविंशतिः प्रतिव्रतं भावनापंचकस्य संवरतया प्रतिपादितानि । अथ संवरा४ सेविनो भविष्यति भाविनी (नी) फलभृतामवस्था दर्शयति, समितः-ईर्यासमित्यादिभिः पंचविंशतिसंख्याभिरनंतरोदिताभिर्भावनाभिः & सहितो ज्ञानदर्शनाम्यां मन (नो)वचनकायैः सुसंवृत्तः-सुविहितो वा कषायेन्द्रियसंवरेण यः स तथा सदा-सर्वदा यतनेन प्राप्तः
संयमयोगेषु प्रयत्नेन घटनेन-अप्राप्त संयमयोगप्राप्त्यर्थघटनया सुविशुद्धरूपं दर्शनं-श्रद्धानरूपं यस्य स तथा, एतान्-उक्तरूपान् संवरान् । | अनुचर्य-आसेव्य सत्यं संयतः-साधुः चरमशरीरधरो भविष्यति इति भावः, वाचनान्तरे पुनः निगमनं यथा कार्मणशरीरस्य अग्रही| तव्यो भविष्यति इति भावः।
इति श्री पंचम संवरद्वारं समाप्तं दशमाध्ययनविवरणम् । इतिशब्दः-परिसमाप्तौ पूर्ववद्वाच्यः श्रीप्रश्नव्याकरणांगस्य दशमस्य दशममध्ययनम् व्याख्यातं च सदर्थ पंचमाकिञ्चनस्येदम् ॥१॥
प्रशस्तिः । । नमः श्रीवर्धमानाय, नमः श्रीपार्श्वसंभवे । नमः श्रीभगवद्वाण्यै, नमो गुर्वडये सदा ॥१॥[अनुष्टुवृत्तम्] कुमततमोजलपतितं, येन क्रियोद्धारयानपात्रेण । उद्धृतमिह जगतीतलं, दत्वा श्रद्धाननव्यजलम् ॥२॥ १ घनं प्रत्यन्तरे
PornRRRRRRR
ॐॐॐॐॐॐ
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ज्ञान०वि० प्रश्न व्या० वृत्ति
वृत्तिकारप्रशस्ति
॥१०६॥
श्रीमदानन्दविमलाख्याः, सूरीन्द्रा जयन्तु ते विश्वे । श्रीमत्तपागणोदधि-प्रोल्लसनशारदेन्दुनिभाः॥३॥ तेषां पट्टे जाताः, गुणाधिका विजयदानसूरीन्द्राः।श्रीहीरविजयसूरिस्तत्पद्वेऽभूदमेयगुणः ॥४॥ येनाऽकब्बरभूपस्वान्ते, करुणा निवेशिता जंतोः। अद्यापि तस्य कीर्ति-र्जागर्ति तदीयतंत्रेषु ॥५॥ कूर्चालसरस्वतीति, विरुदं प्राप्तं च साहिना पुरतः। श्रीविजयसेनसूरि-जीतस्तत्पट्टमाणिक्यम् ॥६॥ तत्पद्रोदयशैले, तरणिनिभा विजयदेवसूरीन्द्राः । सविजयसिंहयुक्ताः, प्रवचनवेशद्यकृद्वाचः॥७॥ तत्पप्रभुताया-स्तिलकसमो धन्यपुण्यजनसेव्यः । श्रीविजयप्रभसूरि-स्संजातो भव्यहर्षकरः॥८॥ तद्गच्छरत्नकल्पाः, क्रियाकलापेन शुद्धचरणभृतः। श्रीविनयविमलसुधियः, श्रीमत्सत्कीर्तिविमलयुजः।९॥ तच्छिष्याश्चरणधरा, कवयः श्रीधीरविमलनामानः। तच्छिष्यो नयविमलो, नयगमभंगप्रमाणपटुः॥१०॥ श्रीविजयप्रभसूरेः, प्रसत्तिमासाद्य हृद्यवैराग्यात् । प्राप्तानूचानपद, उपसंपदया विरागमनाः॥१॥ सदज्ञानविमलसूरि-रवाप्तनामा तपागणे ख्यातः । तेनेदं शिशुचेष्टितमिव, विहितं विवरणं सम्यक् ॥१२॥ उपजीव्यपूर्ववृत्ति, यवत्र मतिमान्द्यतो मया रचितम् । समयविहीनं सदभिस्तच्छोध्यं मयि कृपां कृत्वा ॥१३॥ यस्मात् सतां विधेया, नोपेक्षाः सर्वथा भवन्ति कदा । जगदुपकृतिनिपुणानामभ्यर्थनयाऽनया किं स्यात् ?॥१४॥ आर्यैः सुपरिगृहीतं, यत्किञ्चिदपि प्रकाशतामापत् । पूर्णेन्दुना गृहीतो, हरिणोऽपि जगत्प्रकाशकरः ॥१५॥ अबार्थे खलु साहाय्य-कारिणः शांतिशालिनः कवयः। सुखसागरनामानः, कृतावधानास्तथा जाताः ॥१६॥
ञ्चिदपि भवन्ति कदा समयविहीनं सही
॥१०६॥
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प्रथमादर्श लिखिता-स्तैरेव हि तरणिपुरवरे रम्ये। विद्वदभिर्वाच्यमाना, जयतु चिरं तत्त्वबोधफला ॥१७॥ यावन्महीमहेलार्केन्दू दिशति कुंडले मेरुं । ललामवद्धत्ते, लोकाग्रे शेखरोपमम् ॥१८॥ तावनंदत्वियं वृत्ति-नव्या भव्यावबोधदा। एतद्वाचनपुण्याद, भवतु जनो बोधिरनयुतः॥१९॥ सप्तसहस्री सार्दा, संजाता सूत्रसंयुता चात्र । ग्रन्थाग्रमानमेतत्, निर्णीतं श्लोकमानेन ॥२०॥ येन कृतेयं वृत्तिः, सदर्थरम्या विबुधजनगम्या । स ज्ञानविमलसूरिजयतु चिरं भव्यबोधकरः ॥२१॥ यन्माहात्म्यानागा, ज्वलनविधुरो बभूव धरणेन्द्रः । पुण्यादिविजयमहर्षे-स्स ददातु शिवं श्रीवामेयः॥२२॥
कृत्वा कृपां मम पोधाञ्जनेन यच्चक्षुरञ्जनं चक्रे । स श्रीमान् मदीयगुरुः, सद्बोधैकनिधिश्चिरं जीयात् ॥२३॥ | इति श्रेयः संवत् १७९३ वर्षे फाल्गुनमासे कृष्णपक्षे तृतीयातिथौ कुजवासरे सिद्धियोगे सकलभट्टारक पुरन्दरभट्टारक श्री श्री श्री (१०८ श्रीविजयप्रमसूरिः तच्छिष्यसकलवाचकचक्रचक्रवति महोपाध्याय श्री श्री १०८ श्री विमलविजयगणितच्छिष्य महोपाध्याय
श्री श्री १९ श्री शुमविजयगणि तच्छिष्य सकलपण्डितश्री ५ श्री गंगविजयगणि तच्छिम्य पं. श्री नयविजयेन लिपीकता आत्मार्थ | या श्री धर्मधरानगरे पार्श्वनाथप्रसादात् श्रीरस्तु श्रेयोऽस्तु कल्याणमस्तु ।श्री।
इति श्रीमत्सुधर्मस्वामिसुविहितपरंपरायातद्वादशशरदाचाम्लतपोविधान-तपाविरुदश्रीमजगचंद्रसूरि-पट्टा| लंकार-श्रीदेवेन्द्रसूरि-पट्टभूषण-श्रीमद्धर्मघोषसूरि-शिष्यश्रीसोमप्रभसूरि-पद्दतिलक-श्रीसोमतिलकसूरि
पट्टोदयाचल-दिनमणिश्रीदेवसुन्दरसूरि-शिष्यश्रीसोमसुन्दरसूरि-शिष्य-तपागच्छभट्टारक-श्रीसुन्दर
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ज्ञान०वि० प्रश्न०व्या० वृति
॥१०७॥
सूरि-शिष्य श्रीरत्नशेखरसूरि-शिष्य सद्गुणश्रीलक्ष्मीसागरसमान- श्रीलक्ष्मीसागरसूरि - शिष्य सुमतिसाधुसूरि पट्टभामिनी भालस्थ-तिलकायमानस्वष्टादश- शतश्रमणपरिवारपरिकलित-श्री हेमविमलसूरि-पट्टकमलापतिपराजितानेककुपाक्षिकपक्ष संक्षेपश्रीमत्तपागणसुविहित-साधुस भाचकोर समुदायरंजनसकलकला परिकलितकलाधर श्री आनंदविमलसूरि-पट्टोदयशैलचूलालंकारगगनतिलक भट्टारक श्रीविजयदानसूरि-पट्टभूषणश्रीमंदकब्बर पातिसाहिहृदयकमलविकस्वरतिपतिश्रीहीरविजयसूरि-पट्टभूषणसवाईबिरुदधारक-श्रीविजय सेनसूरि-पट्टसुवर्णाचल चूलायमानश्रीविजयदेवसूरि-शिष्यविजयसिंहसूरि-पट्टनंदनवन पारिजाताय. मानभट्टारकश्रीविजयप्रभसूरि-पादपद्मोपासनसंप्राप्तोपसंपद्भिस्तथा श्रीमत्तपागणगगनांगणदिनमणि-भट्टारक भट्टारक- श्रीमदानंद विमलसूरीश्वर मुख्य शिष्य श्रीमद्धर्मसिंहगणि शिष्य-श्रीजयविमलगणिविनेय-श्रीकीर्त्तिविमलगणिपादपद्मोपसेवि श्रीविनयविमलगणिपट्टालंकृतिसमानश्री धीरविमलगणिविनयशिष्यैः संविज्ञपक्षीयनयविमलगणिभिरपरनामश्रीज्ञानविमलसूरिभिविचिरतायां प्रश्नव्याकरणसूत्र वृत्तौ दशमाध्ययनं संपूर्णम् ।
वृत्तिकारप्रशस्तिः
॥१०७॥
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nnnnnnnnnnn
-x+4
+359454 355 35 x
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________________ ROSSONONO SONOCESSENS_ / इति प्रश्नव्याकरणसूत्रम्॥ 樂蘇樂蘇樂蘇樂蘇樂隊蘇