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________________ पन | रचनाकाळ १७७३ सुधी छे. 'ज्यारे आ प्रतिनो लेखनकाळ संवत १७९३ फागण वद ३ मंगळवार छ, अर्थात् तेओना काळधर्म पछी आ ग्रंथ | व्याक० वीस वर्ष बाद लखायो छे. आ वृत्तिमां प्रासंगिक श्लोको खुबज छे ने ते कर्त्तानी विद्वत्ता सचवे छे. खुब श्लोकोने लइमे अथवा लेखकदोष वगैरेने लइ केटलीक जग्याए तो जे ग्रन्थनु नाम सूचव्यु होय ते ग्रन्थने बदले कोइ जुदोज ग्रन्थ होय तेवु बन्या छतां तेमज केटलाक अधिकारोनी मिश्रणता होवा छतां यथाशक्य पयोनां स्थळो अने अधिकारोनां मूळस्थानो तपासी तेने शुद्ध करवा प्रयत्न कयों छे.. आ ग्रन्थमा लम्धिस्तोत्र तेमज पिंडनियुक्ति जेवा संपूर्ण ग्रन्थो संक्षिप्तपणे दाखल कर्या छे, तेमज मूळ वृत्तिमा जे न होय तेवा घणा अधिकारो अन्य अन्य ग्रन्थोना आ ग्रन्थमा दाखल कर्या छतां प्रन्थने त्रुटक के क्षत न थाय तेवी श्रीमद् ज्ञानविमळसूरिजीए आ वृत्तिमां खुबज काळजी सेवी छे. अमने प्रकाशनमा ज्या ज्यां त्रुटक अशुद्ध के अपूर्ण लाग्यं त्यां अमे [ ] मां मूक्यु छे जेथी मूळकारना आशयनो ख्याल भावे. आ ग्रन्थना प्रकाशनमा प्रतिपत्रे जेटलं मूळ तेटली व्याख्या राखवाथी मूळ अने व्याख्यानी संगतता द्वारा स्हेजे अर्थ समजी शकाय तेवी ति प्रकाशन करवामां आव्यु छे, कोइ पण जिज्ञासु आ ग्रन्थना पठन पाठननो लाभ लेशे तो मा प्रकाशन सफळ थयुमानीश, प्रेसदोष, दृष्टिदोष के स्खलनाने अंगे थयेली भूलोनी क्षमा मागी विर, छ. सं. १९९५ भा. सु.५ एज ली. .. _ व्याख्यानवाचस्पति विद्वद्वर्य परमपूज्य श्रीमत् पंन्यास रंगविमलगणिवर विनेयाणु कनकविमल १. संवत् १७९३ वर्षे फाल्गुनमासे कृष्णपक्षे तृतीयायां तिथौ कुजवारे सिद्धियोगे सकलभट्टारक श्री श्री श्री १०८ विजयप्रभसूरिः तत्शिष्यसकलवाचकचक्रचक्रवति महोपाध्याय श्री श्री १०८ विमलषिजयगणि तशिष्य महोपाध्याय श्री श्री १९ श्री । शुभविजयगणि तत्शिष्यसकलपंहितश्रीगंगविजयगणि तत्शिष्य पं. श्री नयविजयेन लिपीकता आत्मार्थे..
SR No.600391
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanvimalsuri, Mafatlal Zaverchand Pt
PublisherMuktivimal Jain Granthmala
Publication Year1939
Total Pages252
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_prashnavyakaran
File Size24 MB
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