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सर्वाधिकार सुरक्षित
श्री सहजानन्द शास्त्रमाल:
परमपूज्य 108 आचार्य पूज्यपाद विरचित
इष्टोपदेश
पर
पूज्य 105 सहजानन्द वर्णो जी के प्रवचन
सम्पादक
डा0 नानक चन्द जैन एम0 डी0 एच0
सान्तौल हाऊस, मौ0 ठटेरवाड़ा
मेरठ शहर
प्रकाशक
श्री सहजानन्द शास्त्रमाला 185 ए, रनजीतपुरी सदर मेरठ (उत्तर प्रदेश)
द्वितीय संस्करण
सन्
लागत मूल्य
1100
1994
20)
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प्रस्तावना
आध्यात्म योगी परम पूज्य गुरूवर्य 105 श्रीमद् सहजानन्द वर्णी जी ने अनेकों ग्रन्थो की रचना व टीकाएं की है। तथा उन्होनें महान आचार्यों की रचनाओं पर समय-समय पर अत्यन्त सरल भाषा में प्रवचन किए व लिखे है। उनकी सभी रचनाएँ अपूर्व व अनुपम है। उनकी प्रत्येक रचना से यह झलक मिलती है कि मुमुक्षुवृद आत्महित हेतु इन सूक्तियों को किस प्रकार आत्मसात करके उनाके प्रयोगात्मक विधि से अपने जीवन के क्षणों में प्रयोग करे। और अनन्त काल तक के लिए सुखी होवे। यह विशेषता सहजानन्द जी की कृतियो में ही है। वे प्रति समय अपने उपयोग को स्थिर रखते थे और निरन्तर लिखने में ही संलग्न रहते थे। यहाँ तक की जीवन के अन्तिम क्षण में भी कलम उनके हाथ में ही था। 62 वर्ष की अल्प आयु में उनका स्वर्गवास होना एक ऐसी क्षति है जो पूरी नही हो सकती।
इष्टोपदेश ग्रन्थ सर्वार्थ सिद्धि के रचियता परमपूज्य 108 आर्चाय पूज्यपाद स्वामी की 51 श्लोको की एक छोटी सी अत्यन्त उपयोगी आध्यात्मिक कृति है। इसका अंग्रेजी अनुवाद स्वर्गीय बैरिस्टर चम्पतराय जी ने किया है। जो विदेशो में काफी प्रचलित है। इन्ही पर वर्णी जी के प्रवचनों का यह द्वितीय संस्करण आपके सामने है आशा है आप इनका उपयोग करके धर्म लाभ उठावेगें।
मल में शिष्य ने आचार्य प्रभु से प्रश्न किया कि प्रभु यदि अनुकूल चतुष्टय से ही साध्य की सिद्वि हो जायेगी तो व्रत समीति आदि का पालन निरर्थक हो जायेगा। आचार्य कहते है हे वत्स! व्रत समीति अदि नवीन शुभ कर्मो के बंध का कारण होने से तथा पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मो का एक देश क्षय होने से पुण्य की उत्पत्ति होती है जो स्वर्गादि का कारण होता है अतः व्रतो के द्वारा देवपद प्राप्त करना अच्छा है अव्रतों के द्वारा नारक प्राप्त करने में तो कोई बुद्धिमानी है नही।
शिष्य के पुनः पुनः प्रश्न करने पर आचार्य समझाते है कि यदि आत्मा चरम शरीरी नहीं हो तो उसे स्वर्ग व चकवादि के पद आत्मध्यान से उपर्जित पुण्य की सहायता से प्राप्त होते है जो परम्परा से मोक्ष ले जाने वाले है। अर्थात् चरम शरीरी न होने पर मोक्ष पुरूषार्थ भी स्वर्गादि सुखो का ही कारण है।
आचार्य कहते है कि शरीर से भिड़कर शुचि पदार्थ भी अशुचि हो जाते है फिर अशुचि से अशुचि के सेवन में क्या चतुराई है।
इस प्रकार पूज्य वर्णी जी ने इसका खुलासा करके सरल शब्दों में प्रशस्त प्रवृत्ति का बोध कराया है। अनेक विद्वानों व प्रवचनकारो ने इनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है हम उन सबके आभारी है।
आप भी शास्त्रमाला के स्थायी ग्राहक 1000) में बन सकते है जो ग्रन्थ अब तक छपे है। या जो आइन्दा छपेंगे वे सब उनको निःशुल्क भेजे जाते है।
भवदीय 16-10-94
डा0 नानकचन्द जैन सान्तौल हाऊस, मौ0 ठटेरवाड़ा
मेरठ शहर
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इष्टोपदेश प्रवचन प्रथम भाग
यस्य स्वयं स्वभावाप्तिरभावे कृत्स्नकर्मणः ।
तस्मै संज्ञानरूपाय नमोऽस्तु परमात्मने।।1।। स्वभावप्राप्तिः - समस्त कर्मो का अभाव होने पर जिसको स्वयं स्वभाव की प्राप्ति हो जाती है उस सम्यग्ज्ञानस्वरूप परमात्मा के लिए मेरा नमस्कार हो। इस मंगलाचरण में पूज्यपाद स्वामी ने अपने आशय के अनुकूल प्रयोजन से नमस्कार किया है। वे थे सम्यग्ज्ञान के पूर्ण विकास के इच्छुक, अतः नमस्कार करने के प्रसंग में सम्यग्ज्ञानस्वरूप परमात्मा पर दृष्टि गयी है। यह सम्यग्ज्ञानस्वरूपपना अन्य और कुछ बात नही है। जैसा स्वभाव है उस स्वभाव की प्राप्तिरूप है। जीव को ज्ञान कहीं कमाना नही पड़ता है कि ज्ञान कोई परतत्व हो और उस ज्ञान का यह उपार्जन करे, किन्तु ज्ञानमय ही स्वयं है इसके विकास का बाधक कर्मो का आवरण है। कर्मो का आवरण दूर होने पर स्वंय ही स्वभाव की प्राप्ति होती
है।
प्रभु की स्वयंभुता - प्रभु के जो परमात्मत्व का विकास है वह स्वंय हुआ है, इसीलिए व स्वंयभू कहलाते है। जो स्वयं हो उसे स्वयंभू कहते है। स्वंय की परणति से ही यह विकास हुआ है, किसी दूसरे पदार्थ के परिणमन को लेकर यह आत्मविकास नही हुआ है और न किसी परद्रव्य का निमित्त पाकर यह विकास हुआ है। यह विकास सहज सत्व के कारण बाधक कारणो के अभाव होने पर स्वयं प्रकट हुआ है। इस ग्रन्थ के रचयिता पूज्य पाद स्वामी है। भक्तियो के सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि जितनी भक्तियाँ प्राकृत भाषा में है उन भक्तियो के रचियता तो पूज्य कुन्दकुन्द स्वामी है और जितनी भक्तियाँ संस्कृत में है उनके रचयिता पूज्यपाद स्वामी है। ये सर्व विषयो में निपुण आचार्य थे। इनके रचे गए वेद्यक ग्रन्थ, ज्योतिषग्रन्थ, व्याकरण ग्रन्थ आदि भी अनूठे रहस्य को प्रकट करने वाले है। इस ग्रन्थ का नाम इष्टोपदेश कहा गया है। इस ग्रन्थ के अंत में स्वंय ही आचार्य देव ने "इष्टोपदेश इति" ऐसा कहकर इस ग्रन्थ का नाम स्वयं इष्टोपदेश माना है।
इष्ट का उपदेशः - इस ग्रन्थ में इष्ट तत्व का उपदेश है। समस्त जीवों को इष्ट क्या है? आनन्द। उस आनन्द की प्राप्ति यथार्थ में कहाँ होती है और उस आनन्द का स्वरूप क्या है? इन सब इष्टों के सम्बन्ध में ये समस्त उपदेश है। आनन्द का सम्बंध ज्ञान के साथ है, धन वैभव आदि के साथ नही है। ज्ञान का भला बना रहना, ज्ञान में कोई दाष और विकार न आ सके, ऐसी स्थिति होना इससे बढ़कर कुछ भी वैभव नही है, जड़ विभूति तो एक अंधकार है। उस इष्ट आनन्द की प्राप्ति ज्ञान की प्राप्ति में निहित है और इस ज्ञान की प्राप्ति का उद्देश्य लेकर यहाँ ज्ञानमय परमात्मा को नमस्कार किया है। स्वभाव ही ज्ञान है। आत्मा का जो शुद्ध चैतन्यरूप निश्चल परिणाम है, जो स्वतंत्र है, निष्काम है, रागद्वेष रहित है, उस स्वभाव की प्राप्ति स्वयं ही होती है, ऐसा कहा है।
उपयोग से स्वभाव की प्राप्ति - भैया । स्वभाव तो शाश्वत है किन्तु स्वभाव की दृष्टि न थी पहिले और अब हुई है, इस कारण स्वभाव की प्रसिद्धि को स्वभाव की प्राप्ति
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कहते है। स्वभाव की प्राप्ति में कारण कुछ नही है, एक कर्मो का अभाव ही कारण है, विधिरूप कारण कुछ नही है किन्तु स्वभाव की दृष्टि न हो सकने में कारण था कर्मो का उदय इस कारण कर्मो के अभाव को स्वभाव की प्राप्ति का कारण कहा है। स्वभाव की प्राप्ति होने के बाद अनन्तकाल तक स्वभाव बना रहता है, विकसित रहता है, प्राप्त रहता है। वहाँ कौन सा कारण है, न कोई विधिरूप और न कोई निषेधरूप। वहाँ तो धर्म आदि द्रव्य जैसे स्वभाव से अपने गुणो में परिणते रहते है। ऐसे ही ये सिद्ध संत भगवंत अपने ही गुणों में स्वभावतः अपने सत्व के कारण शुद्वरूप से परिणमते रहते है पर प्रथम बार की प्राप्ति कर्मो के अभाव को निर्मित पाकर हुई है। जिस समय तपश्चरण आदि योग्य स्थितियों के धारणा से ज्ञानावरणादिक द्रव्यकर्मो का क्षय हो जाता है और रागद्वेषादिक भाव कर्मो का क्षय हो जाता है तब यह आत्मा सम्यग्ज्ञानस्वरूप इस चिदानन्द ज्ञानघन निश्चल टंकोत्कीर्ण ज्ञायकस्वभाव को प्राप्त कर लेता है।
स्वभाव की सहजसिद्वता का एक दृष्टान्त - स्वभाव कही से लाकर नही पाना है वह तो टंकोत्कीर्णवत् निश्चल है। जैसे पाषाण की प्रतिमा पहिले एक मोटा पाषाण ही था। किसी धर्मात्मा को कारीगर से उस पाषाण में से प्रतिमा निकलवानी है। कारीगर बड़ी गौर से उस पाषाण को देखकर ज्ञानबल से उस पाषाण में प्रतिबिम्ब का दर्शन कर लिया है, उसने आँखो से नही उस प्रतिमा के दर्शन कर लिया, किन्तु ज्ञान से। अब उस प्रतिमा को अनुरागवश प्रकट करने के लिए कारीगर अलग करता है, जिन पत्थरो के टुकडो के कारण वह प्रतिमा किसी को नजर नही आ रही है उन टुकड़ो को यह कारीगर अलग करता हे, कारीगर को सब विदित है।
आवरकों के अभाव में अन्तःस्वरूप के विकास का दृष्टान्तमर्म - यह कारीगर उन खण्डो को पहिले साधारण सावधानी के साथ अलग करता है। सावधानी तो उसके अन्दर में बहुत बड़ी है, किन्तु वहाँ इतनी आवश्यक नही समझी सो बडी हथौडा से उन खण्ड को जुदा करता है। मोटे-मोटे खण्ड जुदे होने पर अब उसकी अपेक्षा विशेष सावधानी बर्तता है, उससे कुछ पतली छेनी और कुछ हल्की हथौड़ी लेकर कुछ सावधानी के साथ उन पाषाण खण्डों को निकालता है। तीसरी बार में अत्यन्त अधिक सावधानी से और बड़े सूक्ष्म यत्न से बहुत महीन छेनी को लेकर और बहुत छोटे हथौड़े को लेकर अब उन सूक्ष्म खण्डो को भी अलग करता है, अलग हो जाते है ये सब आवरक पाषाण,खण्ड तो वे अवयव प्रकट हो जाते है जिन अवयवो में मूर्ति का दर्शन हुआ है। कारीगर ने मूर्ति बनाने के लिए नई चीज नहीं लाई, न वहाँ के किन्ही तत्वों को उसने जोड़ा है, केवल जो प्रतिमा निकली है उस अवयवो के आवरक या खण्डो को ही उसने अलग किया है। वह प्रतिमा तो स्वयंभू है, किसी अन्य चीज से बनी हई नही है।
आवरको के अभाव में अन्तःस्वरूप का विकास - ऐसे ही जो सम्यग्दृष्टि इस चैतन्यपदार्थ में अतः स्वभाव के दर्शन कर लेते है उनके यह साहस होता है कि इस स्वभाव को वे प्रकट कर लें। इस स्वभाव के प्रकट होने का ही नाम परमात्मस्वरूप का प्रकट होना है। स्वभाव प्रकट करने के लिए किन्ही परतत्वों को नहीं जोड़ना है, किन्तु उस स्वभाव को
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आवरण करने वाले जो विभाव है, रागद्वेष विषयकषाय शल्य आदि जितने विभाव है। उन सबको वह दूर करता है। कैसे वह दूर करता है? स्वभाव में और उन पर भावो में भेदज्ञान का उपयोग करके करता है।
ज्ञानी की सावधानी सहित वर्तना भेदविज्ञान के यत्न में इस ज्ञाता के पहिले तो एक साधारण सावधानी होती है जिसमें यह इस शरीर से भिन्न आत्मा को परखता है। यद्यपि अन्तर में सावधानी का माद्दा वही पूर्णरूपेण पड़ा हुआ है लेकिन अत्यन्त अधिक सावधानी की आवश्यकता नही रहती है किन्तु उसकी आंतरिक सावधानी का सम्बंध रखकर जो साधारण सावधानी चलती है उससे ही शरीर और आत्मा में भेद की परख हो जाती है, यह पहिली सावधानी है। इसके पश्चात् अंतरंग में एक क्षेत्रावगाह से पड़े हुए जो अन्य सूक्ष्म कार्माण आदि पुद्गल द्रव्य है, जिनका इस आत्मा के साथ निमित्तनैमित्तिक बंधन है उन कार्माण द्रव्यो से भी अपने को जुदा कर लेता है। इसके पश्चात् तिसरी सावधानी में कुछ विशेष ज्ञानबल लगाना है। प्रवर्तते हुए रागद्वेषादिक भावो से यह पृथक हैं, इनसे भिन्न यह मैं ज्ञानमात्र आत्मा हूं ऐसा भेद डालना निरखना यह सूक्ष्म सावधानी का काम है। जहाँ रागद्वेष विषय कषायो की कल्पनाए ये दूर हुई कि अपने आप में बसा हुआ यह ज्ञायकस्वरूप स्वयं विकसित हो जाता है। इसी कारण यह तत्त्वप्रभु परमात्मा स्वयंभू कहलाता है ।
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परमात्मा की प्रभुता और विभुता इस परमात्मा का नाम प्रभु भी है। जो प्रकृष्ट रूप से हो उसे प्रभु कहते है संसार अवस्था में किसी विशिष्ट रूप रह रहा था, अब वह विशिष्ष्ट दशा को त्याग कर ज्ञानोपयोग में बसने रूप उत्कृष्ट अवस्था को प्राप्त हो रहा है। यह प्रभु कहलाता है यह परमात्मा विभु भी कहलाता है। जो व्यापकरूप से हो उसे विभु कहते है। यह ज्ञानस्वरूप परमात्मा ज्ञान द्वारा समस्त लोक और अलोक में व्यापक है, इसी कारण इस परमात्मा का नाम विभु है और इस ही परमात्मा को स्वयंभू कहते है। जो यह विकास स्वयं प्रकट हुआ है। परमात्मा का दर्शन ज्ञानरूप में ही किया जा सकता हे और परमात्मा के दर्शन में ही वास्तविक शान्ति मिलती है। अधिक से अधिक समय इस ज्ञानमय परमात्मतत्व के दर्शन के लिए लगाएँ, इस ही को व्यवहार धर्म की उन्नति कहते है।
ज्ञानस्वरूप के दर्शन से जीवन की सफलता भैया ! साधुजन तो चौबीस घंटा इस ही परमात्मतत्व के दर्शन के लिए लगाते है और फिर श्रावको में भी उत्कृष्ट श्रावकजन अपना बहुत समय इस परमात्मतत्व के दर्शन में लगाते है। और उससे भी कुछ नीचे श्रावकजन भी और विशेष नही तो 5-5 घंटे बाद समझिये सामायिक के रूप में अपने परमात्मा दर्शन के लिये सावधान बनाते है। इस मनुष्य भव को पाकर करने योग्य काम एक यही है। अन्य - अन्य कार्यो में व्यस्त होने से तत्व की बात क्या मिल जायगी? इसकी प्रगति तो रत्नत्रय की प्रगति में है जितना अधिक काल ज्ञानस्वरूप अपने आपको निरखने में जाय उतना काल इसका सफल है। ज्ञान के रूप में परमात्मा का दर्शन होता है, ज्ञान के रूप में अपने आत्मा का अनुभव होता है और विशुद्ध ज्ञान की परिणति के साथ आनन्द का विकास चलता है, इसी कारण परमात्मा को सम्यग्ज्ञान स्वरूप की मुद्रा में निरखा जा रहा है।
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आर्दश - जो जिसका रूचिया होता है वह उसका संग करता है, वह उसकी धुन बनाता है, उसको उस ही मार्ग का आप्त अर्थात् पहुँचा हुआ पुरूष आदर्श है, खोटे कार्यो में लगने वाले पुरूष को खोटे कार्यो में निपुण लोग आदर्श हैं और आत्महित की अभिलाषा करने वाले मनुष्य के आत्महित में पूर्ण सफल हुए शुद्ध आत्मा आदर्श है। जो जिस तत्व का अभिलाषी होता है वह उस तत्व का ही यत्न करता है। अपने आपके ज्ञानस्वरूप निरखे बिना न तो परमात्मदर्शन में सफलता हो सकती है और न आत्मानुभव में सफलता हो सकती है। ये कषाय भी इस ही शुद्व ज्ञानस्वरूप की दृष्टि के बल से मंद होती है। कषायो का विनाश भी इस ही स्वभाव के अवलम्बन से होता है क्योकि यह स्वभाव स्वंय निष्कषाय है, निर्दोष है। इस स्वभाव की उपासना करने वाले संतजन सदा प्रसन्न रहते है। वे परपदार्थो के किसी भी परिणमन से अपना सुधार और बिगाड़ नही समझते हैं। वे सदा अनाकुल रहते है, परम विश्राम का साधन जो स्वतंत्र अकर्ता अभोक्ता प्रतिभात्मक तत्व है उसकी दष्टि हो, न हो तो अनाकुलता वहाँ कैसे प्रकट हो? जो अपने को अन्य किसी रूप मान लेते हैं वे जिस रूप मानते हैं उसकी और उनकी प्रगति हो जाती है।
स्वभावप्राप्ति के अन्तर्बाहा साधन - द्रव्यकर्मो का अभाव होने पर स्वभाव की प्राप्ति कहना एक निमित नैमित्तिक सम्बन्ध की बात बताना है और रोगद्वेष आदि भावकर्मो का अभाव होने पर स्वभाव के प्रकट होने की बात कहना यह प्रागभाव प्रध्वंसाभावरूप में कथन है अर्थात हमारे विकास का साक्षात् बाधक भावकर्म है, द्रव्यकर्मो तो हमारे बाधको का निमित्त कारण है। स्वभाव की प्राप्ति इन समस्त कर्मो का अभाव होने पर होती है। जब स्वभाव की प्राप्ति हो लेती है तब उनका स्वरूप विशुद्ध सम्यग्ज्ञानमय होता है, ऐसे ज्ञानात्मक परमात्मा को हमारा नमस्कार हो, वे सदा जयवंत रहें और उनके ध्यान के प्रसाद से मुझमें अत: विराजमान परमात्मतत्व जयवंत होओ। अन्तः प्रकाशमान यह परमात्मतत्व व्यक्तरूप से प्रकाशमान हो जावे – यही स्वभाव की परिपूर्ण प्राप्ति है। इस स्वसमयसार को मेरा उपासनात्मक नमस्कार होओ।
योग्योपादानयोगेन दृषदः स्वर्णता मता ।
द्रव्यादिस्वादिसम्पत्तावात्मनोऽप्यात्मता मता।। स्वभावावाप्तिका विधिरूप अन्तरंग कारण – पहिले श्लोक में आत्मा के स्वभाव की प्राप्ति का उपाय निषेध रूप कारण से बताया गया था अर्थात् समस्त कर्मो का अभाव होने पर स्वभाव की स्वयं प्राप्ति हो जाती है, इस तरह निषेध रूप कारण बताकर अमेद स्वभाव की प्राप्ति कही गयी थी, अब इस श्लोक मकें विधिरूप कारण बताते है। जैसे योग्य अपादान के योग से एक पाषाण में जो कि स्वर्ण के योग्य है जिसे स्वर्णपाषाण कहते हे। उसमें स्वर्णपना माना गया है अर्थात् प्रकट होता है, इस ही प्रकार जब द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के योग्य सामग्री विद्यमान हो जाती है तो इस आत्मा में निर्मल चैतन्यस्वरूप आत्मा की उपलब्धि होती है।
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स्वभावावाप्ति के अन्तरंग कारण का दृष्टान्तपूर्वक समर्थन - दृष्टान्त में यह कहा गया है कि जैसे खान से निकलने वाले स्वर्णपाषाण में स्वर्णरूप परिणमन का कारण भूत जब वह सुर्योग्य होता है तो बाहा में कारीगरों द्वारा ताड़ना, तापना, पिटना, आदि प्रयोगो से वह स्वर्णपाषाण से अलग होकर केवल स्वर्ण कहलाने लगता है। अब उस स्वर्ण में स्वर्णपाषाण का व्यवहार नही रहता। वह तो सोना हो गया है, इस ही प्रकार अनादिकाल से कर्ममल से मलिन हुआ संसारी आत्मा के जब योग्य द्रव्य, योग्य क्षेत्र, योग्य काल और योग्य भावरूप साधनों की उपलब्धि होती है तो बाहरी तपस्या, धर्म पालन आदि जो बाहा विशुद्वि के साधन कहे गए है, उन साधनो के अनुष्ठान से, आत्मध्यान के प्रयोग से कर्मईधन भस्म हो जाते है और स्वात्मा की उपलब्धि हो जाती है। अपने आत्मा के लिए अपना आत्मा योग्यद्रव्य कैसा होता है जिसमें शुद्व परिणमने के योग्य परणिमन शक्ति आने लगती है।
उपादानभूत द्रव्य की योग्यता - इसे सुनिये द्रव्य में 2 प्रकार की शक्ति है - एक ध्रव शक्ति और एक अध्रव शक्ति। द्रव्य में शाश्वत सामान्य परिणमनरूप शक्ति तो ध्रुव शक्ति है और वह द्रव्य कब किस प्रकार परिणमने की योग्यता रखता है ऐसी शक्ति को पर्यायशक्ति कहते है। जैसे जीव में ज्ञान दर्शन आदि सामान्यशक्ति ध्रुवशक्ति है और मनुष्य के योग्य काम कर सके ऐसा बोले चाले खाये पिये व्यवहार करे, इस तरह के रागदिक भाव हो इस पद्वति की जैसी मनुष्यों के शक्ति होती है यह सब पर्यायशक्ति है। यह अध्रुव है, इस तरह की योग्यता मनुष्य के रहना ठीक ही है, मनुष्य मिट गया फिर यह प्रकृति नही रहती। तो जब कल्याणरूप परिणमन की योग्यता आती है तो वह है योग्य पर्यायशक्ति वाला द्रव्य । यह तो आंतरिक बात है। बाहा में योग्य गुरूजन, योग्य उपदेशक इत्यादि पदार्थो का समागम मिलता है और उस वातावरण मे, उस समागम में जो विशुद्वि हो सकती है उस विशुद्वि के लिए वे योग्य द्रव्य कारण पड़ते है। बाहा में भी योग्य द्रव्य मिल जायें
और अंतरग योग्य होने की पर्यायशक्ति प्रकट हो जाय ऐसे योग्यद्रव्य का उपादान होने पर अपने आप में स्वभाव की प्राप्ति स्वयं हो जाती है।
कल्याण योग्य क्षेत्र काल भाव की प्राप्ति - योग्य क्षेत्र अपने आप में उस प्रकार की विशुद्वि के योग्य यह आत्म पदार्थ हुआ, तो इस ही को एक आधार की प्रमुखता से निरखा जाय तो उसे योग्य क्षेत्र कहते है और बाहर में योग्य स्थान - जैसे समवशरण का स्थान या अन्य कोई धर्म प्रभावक स्थान है। ऐसा योग्य क्षेत्र मिलने पर इसकी दृष्टि इस स्वभाव के निरखने की हो जाती है और वहां स्वभाव की प्राप्ति मानी गयी है। योग्य काल क्या है? अपने आपके शुद्ध परिणमन होने के लिए जो प्रथम पर्याय है, परिणमन है वह निजका योग्य काल है, और बाहर में धर्म समागम वाले काल, चतुर्थकाल तीर्थकरों के वर्तने का काल, ये सब योग्य काल कहलाते है, योग्यकाल की प्राप्ति होने पर इस आत्मा के स्वभाव की उपलब्धि होती है। इस ही प्रकार योग्यभाव अंतरंग में जो स्वभाव भाव है वह तो शाश्वत योग्यभाव है, उस स्वभाव भाव के विकास होने रूप जो कुछ पर्याय योग्यता है, भव्यत्व भाव है, भव्यत्वभाव के विपाक होने के काल में जो योग्य विशुद्ध परिणाम है वह शुद्ध विशुद्ध परिणाम योग्य भाव कहलाता है।
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शुद्ध दृष्टि में आम्ता की व्यक्ति – उक्त प्रकार से योग्य निज द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की प्राप्ति होने पर आत्मा में आत्मता प्राप्त होती है। जैसे लोग कहते है कि इन्सान वही है जिसमें इन्सानियत है। भला, इन्सानियत बिना भी कोई इन्सान होता है? नही होता है यहाँ इन्सानियत को केवल ईमान की चीज इतना ही अर्थ न किया जाय अर्थात् जिन परिणामों से इन्सान की शोभा है, इंसानियत की प्रगति है उन परिणामो का नाम इंसानियत कह लीजिए तो यह वाक्य प्रयोग में आने लगेगा कि जिसमें इंसानियत नही है, वह इन्सान ही नही है। इस इन्सान में इन्सानियत प्रकट हुई है तो क्या पहिले कभी इन्सानियत न थी? थी, किन्तु इन्सानियत का अर्थ भले प्रकार के आचार विचार वाले परिणाम है, वे अब प्रकट हुए है। ऐसे ही यहाँ यह कहा जा रहा है कि आत्मा से आत्मता प्रकट होती है। तो क्या यह आत्मता आत्मा से भिन्न थी? न थी, फिर भी आत्मा उसको माना गया है आदर दृष्टि में आ करके जो शुद्ध स्वभाव की दृष्टि करता है, मोक्षमार्ग में अपना कदम रखता है, ऐसे मोक्षमार्गी जीव को आत्मा शब्द से पुकारे और मोक्षमार्ग में चलने की जो पद्वति है उसको आत्मता माने तो यह आत्मता आत्मा से प्रकट होती है अर्थात् बहिरात्मत्व से निवृत्त होकर यह अन्तरात्मत्व प्रकट होता है। बहिरात्मत्व का परिहार होकर यह विवेक, उपयोग प्रकट होता है। अहिंसा आदि व्रतों का भली प्रकार पालन करने से स्वरूप की प्राप्ति होती है, यह सिद्वान्त सम्मत है।
एक जिज्ञासा - यदि उत्तम द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की सामग्री मिलने से ही स्वरूप की उपलब्धि हो जाय तो अहिसा आदि व्रतो का करना व्यर्थ हो जायगा। एक यहाँ जिज्ञासा उत्पन्न हो रही है कि ऐसा सिद्वान्त बनाने में कि जब योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की, सामग्री मिलेगी तो स्वयं ही स्वरूप की प्राप्ति होगी, तब क्या तप करना, व्रत संयम करना, ये सब व्यर्थ की चीजें किसलिए की जाती है? समाधान में यह कह रहे है कि यहाँ यह नही समझना कि बाहा व्रत तप संयम और अंतरंग व्रत, तप, संयम को निरर्थक कहा गया है। स्वरूप की प्राप्ति के उद्यम में व्रत आदि का पालना निरर्थक नही है। उनके यथायोग्य पालन करने से पापकर्मो का निरोध हो जाता है और पहिले बंधे हुए कर्म निर्जरा को प्राप्त होते है। उनके और शुभोपयोगरूप परिणमते हुए के पुण्यकर्म का संचय होता है। जिसके उदयकाल में इष्ट सुखों की प्राप्ति अनायास हो जाती है इसी तरह योग्य चतुष्टयरूप उपादान के रहते हुए भी व्रतो का पालना निरर्थक नही है, इस बात को और स्पष्ट रूप से कह रहे है।
वरं वृतैः पदं दैवं नाब्रतैवर्त नारकम् ।
छायातपस्थयोभेदः प्रतिपालयतोर्महान् ।।३।। अव्रतभाव से व्रतभाव की श्रेष्ठता - जैसे कोई पुरूष छाया में बैठकर अपने किसी दसरे साथी की बाट जोहे और कोई अन्य पुरूष गर्मी की धूप में बैठकर अपने साथी की बाट जोहें, उन दोनो बाट जोहने वालो में कुछ फर्क भी है कि नहीं? फर्क है वह फर्क यही है कि छाया में बैठकर जो अपने दूसरे साथी की राह देखता है वह पुरूष छाया में तो है, उसे छाया शान्ति तो दे रही है, और जो धूप में बैठा हुआ साथी की बाट जोह रहा है उसे
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धूप से कष्ट हो रहा है। इसी तरह व्रत के अनुष्ठान से स्वर्ग आदि सुखों की वर्तना के बाद मोक्ष प्राप्त होता है और अव्रत से पहिले नरक के दुःख भोगने पड़ते है, फिर बात ठीके बने तो वर्तना के बाद मोक्ष प्राप्त होता है और अव्रत से पहिले नरक के दुःख भोगने पड़ते है, फिर बात ठीक बने तो मुक्ति प्राप्त होती हे। मुक्ति जाने वाले मानों दो जीव है, जायेंगें वे मुक्त, पर एक व्रताचरण में रह रहा है तो वह स्वर्ग आदि के सुख भोगकर बहुत काल तक रहकर मनुष्य बनकर योग्य करनी से मोक्ष जायगा । और कोई पुरूष पाप कर रहा है, अव्रतभाव में है। तो पहिले नरक के कष्ट भोगेगा, नरक के दुःखो को भोगकर फिर मनुष्य अपनी योग्य करनी से मोक्ष जा सकेगा। सो व्रत आदि करना निरर्थक नही है, वह जितने काल संसार में रह रहा है उतने काल सुख और शान्ति का किसी हद तक कारण तो यह व्रत बन रहा है ।
व्रत की सार्थकता यहाँ यह शंका की गई थी कि द्रव्य आदि चतुष्टय रूप सामग्री के मेल से आत्मस्वरूप की उपलब्धि हो जायगी तब ऐसे तो व्रत आदि का पालन करना व्यर्थ ही ठहरेगा। इस पर यह समाधान दिया गया है कि व्रतो का आचरण करना व्यर्थ नही जाता क्याकि अव्रत रहने से अनेक तरह के पापो का उर्पाजन होता है, और उस स्थिति में यह हित और अहित में विवेक से शून्य हो जाता है । पाप परिणामो में हित और अहित का विवेक नही रहता, तब फिर यह बढ़कर मिथ्यात्व आदि पापो में भी प्रवृत्ति करने लगता है, तब होगा इसके अशुभकर्म का बंध। उसके फल में क्या बीतेगी? उस पर नारकादिक की दुर्गतियां आयेंगी, घारे दुःख उठाना पड़ेगा, अव्रत परिणाम में यह अलाभ है किन्तु व्रत परिणाम में अहिंसा सत्य, अचौर्य, ब्रहाचर्य, परिग्रह त्याग की विशुद्धि प्राप्त होने से नारकादिक दुर्गतियो के घोर नष्ट नही सहने पड़ते है । क्योकि जो व्रतो के वातावरण में रहता है उसे हित और अहित का विवेक बना रहता है, पापो से वह भयभीत बना रहता है और आत्मस्वरूप की प्राप्ति के लिए वह सावधान बना रहता है। होता क्या है कि व्रती पुरूष परलोक में स्वर्ग आदि के सुखो को चिरकाल भोगते हे । चिरकाल सुख भोगने के बाद क्षय होने पर ये मनुष्य बनते है और यहाँ भी योग्य जीवन व्यतीत करते हुए ये कर्मो का क्षय कर देते है और भावातीत बन जाते है व्रत और अव्रत में तो शान्ति अशान्ति तत्काल का भी फर्क है।
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व्रत कभी व्यर्थ नही जाता भैया ! जो वास्तविक पद्वति से व्रती होता है वह अशांत नही होता है किन्तु जो व्रती का बाना तो रख ले, पर अंतरंग में व्रत की पद्वति नही है, संसार शरीर और भोगो से विरक्ति नही है तो उस पुरूष को इन व्रतो से लाभ नही पहुंचता। वह व्रती हीं कहाँ है? वह तो अपने अंतरंग में अज्ञान का अंधेरा लादे है, इसी से वह दुःखी है, अशान्त है, व्रत करना तो कभी व्यर्थ नही जाता ।
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सदाचार से दोनो लोक में लाभ एक बार किसी पुरूष ने एक शंका की कि परभव को कौन देख आया है कि परभव होता है या नही, उस परभव का ख्याल कर करके वर्तमान में क्यो कष्ट भोगा जाय? कम खावो, गम खावो, व्रत करो, अनेक कष्ट भोगे जायें इनसे क्या लाभ है? तो दूसरा पुरूष जो परभव को मानने वाला था वह कहता है कि
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भाई तुम्हारा कहना ठीक है कि परभव नही है किन्तु अब हम लोगो को करना क्या है? सत्य बोलें, कुशील से बचे, परिग्रह का संचय न करे, अहिंसा का पालन करे, किसी जीव को न सताये, यह करना है ना, तो देखो ऐसा योग्य व्यवहार जो करता है उस पर क्या दुनिया ने कोई आफत डाली है? जो चोर होते है झूठे व दगाबाज होते है, कुशील परिणामी होते है, परिग्रह के संचय का भाव रखते है ऐसे पुरूष पिटते है, दंड पाते है। तो अच्छे कामों के करने से इस जीवन में सुख है। यह तो केवल कहने कहने की बात है कि खूब आराम से स्वच्छन्द रहे, जब मन आये खाये, जब जो मन आये सो करे। मनुष्य जन्म पाया है तो खूब भोग भोगे, वे इनमें सुख की बात बताते है किन्तु सुख उन्हे है नही। आनन्द जिसे होता है वह अक्षुब्ध रहता है। वेषयिक सुखो की प्राप्ति के लिए तो बड़े क्षोभ करने पड़ते है और जब कभी सुख मिल भी जाय तो उस सुख का भोगना क्षोभ के बिना नही होता। उस सुख में भी इस जीव ने क्षोभ को भोगा, शान्ति को नही भोगा। तो उत्तम ब्रत आचरण करने से वर्तमान में भी सुख शान्ति रहती है और यदि परभव निकल आये तो परभव के लिये वह योग्य काम होता ही है, किन्तु पाप दुराचार के बर्ताव से इस जीवन में भी कुछ सुख-शान्ति नही मिलती और परभव होने पर परभव में जाना पड़े तो वहाँ पर भी अशान्ति के ही समागम मिलेगें, इस तरह व्रतो का अनुष्ठान करना व्यर्थ नही है।
सुविधासमागम से अपूर्व लेने का अनुरोध - अरे भैया ! भली स्थिति में रहकर मोक्षमार्ग का काम निकाल लो। पापप्रवृत्ति में रहने से प्रथम तो मोक्षमार्ग में अन्तर पड़ जाता है और दूसरे तत्काल भी अशान्ति रहती है इस कारण ये व्रत आदि परिणाम मोक्षमार्ग के किसी रूप में सहायक ही है, ये व्यर्थ नही होते है, लेकिन यह बात अवश्य है कि मोक्षमार्ग शुद्ध दृष्टि से ही प्रकट होता है, अर्थात सम्यक्त्व हो, आत्मस्वभाव का आलम्बन हो तो मोक्षमार्ग प्रकट होता है। जिस आत्मा के आलम्बन से मोक्षमार्ग मिलता है वह आत्मा पाप पुण्य सर्व प्रकार के शुभ-अशुभ उपयोगो से रहित है, ऐसे अविकारी आत्मा में उपयोग लगाने से यह अविकार परिणमन प्रकट होता है। आनन्द है अविकार रहने में। ममता मे, कषाय में, इच्छा में, तृष्णा में शान्ति नही है। ऐसे इस शुद्ध ज्ञायकस्वरूप आत्मा का आलम्बन हो और बाहा में योग्य व्रत आदि हो, ऐसे जीवों को स्वभाव की प्राप्ति होती है। यत्र भावः शिवं दत्ते द्यौः कियदूदरवर्तिनी। यो नयत्याशु गव्यूतिं क्रोशार्दु किं स सीदति ।।4।।
___ शान्तिबललाभ के लिये क्लेशो के सिलसिला की सुध – संसार में नाना प्रकार के क्लेश भरे हुए है। किसी भव मं जावो, किसी पद में रहो, संसार के सभी स्थानो में क्लेश ही क्लेश है। कोई धनी हो तो वह भी जानता है कि मुझे सारे क्लेश ही क्लेश है, बाहा पदार्थो की रक्षा, चिन्ता जो अपने वश की बात नही है उसे अपने वश की बात बनाने का संकल्प, इस मिथ्याश्रय मं क्लेश ही क्लेश है। कोई धनी न हो, निर्धन हो तो वह भी ऐसा जानता है कि मुझे क्लेश ही क्लेश है। कोई संतानवाला है तो वह भी कुछ समय बाद समझ लेता है कि इन समागमों में भी क्लेश ही क्लेश है। ने हो कोई संतान तो वह भी अपने में दुख मानता है कि मुझे बहुत क्लेश है। तब और कौन सी स्थिति ऐसी है जहाँ
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क्लेश न हो? संसार में है कुछ ऐसा जो लोग देश के नेता हो जाते है अथव ऊँचे अधिकारी हो जाते है उनके भी संकटो को देख लो, वे कितनी बेचैनी मं रहते है । सेसार की किसी भी दश्ज्ञा में चैन नही है। ऐसा जानकर अपने को यों ही समझो कि जब यह संसार की दशा है तो इसमें ऐसा होना ही है । दुःख आयें तो उनमें क्या घबडाना ?
कष्ट में यथार्थ सुध से कष्ट सहिष्णुता का लाभ - एक कोई सेठ था, उसे किसी अपराध में जेल कर दी गयी। अब जेल में तो चक्की पीसनी पड़ती है। जेल में उस सेठ को सब कुछ करना पड़े तो सेठ सोचता है कि कहाँ तो मै गद्दा तक्की पर बैठा रहा करता था, आज इतने काम करने पडते है । वह बहुत दुःखी हो रहे। इसी तरह सोच-सोचकर वह सदा दुःखी रहा करे। तो एक कोई समझदार कैदी था, उसने समझाया कि सेठ जी यह बतावो कि इस समय तुम कहाँ हो? बोला जेल मे । तो जेल में और घर में कुछ अन्तर है क्या ? हाँ अन्तर है। यहाँ जेल में सब कुछ करना पड़ता है और वहाँ आराम भोगना होता है। तो सेठ जी अब वहाँ का नाता न समझो, अब अपने को यहाँ सेठ न समझो। यह तो जेल है, ससुराल नही है। जेल में तो ऐसा ही काम करना होता है। समझ में कुछ लगा और उसे दुःख कम हो गया। ऐसे ही कितने ही संकट आये, यह समझो कि यह संसार तो संकट से भरा हुआ है। यहाँ तो संकट मिला ही करते है। इतनी भर समझ होने पर सब संकट हल्के हो जाते है । और जहाँ यह जाना कि यह आया मुझ पर संकट तो इस प्रकार की अनुभूति से संकट बढ़ जाते है ।
संकट मुक्ति का उपाय - समस्त संकटो के मेटने का उपाय क्या है? लोग बहुत उपाय कर रहे हैं संकट मेटने का कोई धन कमाकर कोई परिवार जोड़कर, कोई कुछ करके, किन्तु जैसे ये प्रयत्न बढ़ रहे है वैसे ही दुःख और बढ़ते जा रहे है। सच बात तो यह है कि संकट मेटने का उपाय बाह्रा वस्तु का उपयोग नही है । अपना मुख्य काम है अपने को ज्ञान और आनन्दस्वरूप मानना । यह शरीर भी मै नही हूँ-ये विचार विकल्प जो कुछ मन में भरे हुए है। ये भी मै नही हूं मैं केवल ज्ञानानन्दस्वरूप हूं। इस प्रकार अपने आपकी प्रतीति हो तो शान्ति का मार्ग मिलेगा। बाह्रा पदार्थो का उपयोग होने से आनन्द नही मिल सकता है।
आनन्द विकास के पथ में व्यवहार और निश्चय पद्वति उस यथार्थ आनन्द को प्रकट करने के लिए दो पद्वतियो को लिया जाना चाहिए- एक व्यवहार पद्वति और एक निश्चय पद्वति। जैसे हिंसा झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह का त्याग कर देते है, और भी मन, वचन, कायकी शुभ प्रवृत्तियाँ कर रहे है ये सब व्यवहार पद्वति की बातें है । निश्चय पद्वति में अपने आपके सहजस्वरूप का ही अवलोकन है। इन दो बातो में से उत्कृष्ट बात अपने आत्मा के सहज स्वभाव के परख की है, इसमें जो अपना परिणाम लगाते है। उन्हे जब मोक्ष मिल जाता है इन परिणामो से तो इससे स्वर्ग मिल जाय तो यह आश्चर्य की बात नही है। जो मनुष्य किसी भार को अपनी इच्छा से, बहुत ही सुगमता और शीघ्रता से दो कोश तक ले जाता है वह उस भार को आधा कोश ले जाने में क्या खेद मानता है? वह तो उस आधा कोश को गिनती में ही नहीं लेता है, शीघ्र उस भार को ले जाता है। यों ही
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जिस भाव में मोक्ष प्राप्त करा देने की सामर्थ्य है वह कौन सा भाव है जिस भाव पर दृष्टि देने से स्वर्ग भी मिल जाता है। यों ही जिस भाव में मोक्ष प्राप्त करा देने की सामर्थ्य है वह कौन सा भाव है जिस भाव पर दृष्टि देने से स्वर्ग भी मिल जाता है और मोक्ष भी मिलता है? अपने-अपने पद और योग्यता के अनुरूप वह भाव है अपने आपकी सच्ची परख। जो पुरूष अपनी परख नही कर पाते वे कितनी ही लोक चतुराई कर लें पर शांति नही मिल सकती। इस तरह सबसे पहिले अपनी सच्ची श्रद्वा करना जरूरी है मै पुरूष हूं, मै स्त्री हूं, मैं अमुक की चाची हूं, अमुक की मां हूं, अमुक का चाचा हूं, इत्यादि किसी भी प्रकार की अपने में जो श्रद्वा बसा रक्खी है उसका फल क्लेश ही है। कहाँ तो अपने भगवान तक पहुंचना था और कहाँ इस शरीर पर ही दृष्टि रख रहे है।
दृष्टिकी परख – एक राजसभा में बड़े-बड़े विद्वान आये थे। वहाँ एक ऋषि पहुंचा जिसके हाथ पैर, पीठ, कमर सभी टेढ़े थे और कुरूप भी था। वह व्याख्यान देने खड़ा हुआ तो वहाँ बैठे हुए जो पंडित लोग थे वे कुछ हँसने लगे क्योंकि सारा अंग टेढा था। वह विद्वान ऋषि उन पंडितो को सम्बोधन करके बोला-हे चमारो! सब लोग सुनकर दंग रह गये कि यह तो हम सभी लोगों को चमार कहते है। खैर, वह स्वंय ही विवरण करने लगा। चमार उसे कहते है जो चमड़े की अच्छी परख कर लेता है, तो यहाँ आप जितने लोग मौजूद हैं सब लोग हमारे चमड़े की परख कर रहे है। आप लोग हमारे शरीर का चमड़ा निरख कर हंस रहे है, तो जो चमड़े की परख करना जाने कि कौनसा अच्छा चमड़ा है और कौन सा खराब चमड़ा है उसका ही तो नाम चमार है। तो सभी लोग लज्जित हुए? अब अपनी अपनी बात देखो कि हम चमड़े की कितनी परख करते है और आत्मा की कितनी परख करते है? इसमें कुछ डरकी बात नही है, अगर चमड़े की हम ज्यादा परख करते हैं तो हम कौन है? कह डालो अपने आपको कुछ हर्ज नही है। खुद ही कहने कहने वाले और खुद को ही कहने जा रहे है, खूब दष्टि पसारकर देखो कि हम कितना चमड़े की परख में रहा करते है? यह मैं हूं, यह स्त्री है, यह पुत्र है, इस चाम की चामको देखकर व्यवहार में बसे हुए जो जीव हैं उन्हे ही सब कुछ माना करते है, उस जानने देखने, चेतने वाले को दष्टि में लेकर कोई नही कहता है। जो मिल गया झट पहिचान गये कि यह मेरे चाचा का लड़का है। इस तरह से सभी जीव इस चमडे की परख करते रहते है, इसका ही तो इन्हे दुःख है।
शुद्ध परिणाम की सामर्थ्य - भैया ! हम आप सभी इसी बात में आनन्द मानते हैं कि खूब धन बढ़ गया, खूब परिवार बढ़ गया पर जिस भाव में आनन्द है उसका अज्ञानियों को पता ही नही है। ज्ञानियो को स्पष्ट दीखता है कि सच्चा आनन्द तो इससे ही मिलेगा। वह भाव है एक ज्ञान प्रकाश अमूर्त किसी भी दूसरे जीव से जिसका रंच सम्बन्ध नहीं, ऐसा यह मैं केवल शुद्ध प्रकाशात्मक हूं, ऐसे ज्ञानस्वभाव में परिणाम जाय तो यह परिणाम मोक्ष को देता है, फिर स्वर्ग तो कितनी दूर की बात रही, अर्थात वह तो निकट और अवश्यभावी है। जो मनुष्य बलशाली होता है वह सब कुछ कर सकता है। सुगम और दुर्गम सभी कार्यो को सहज ही सम्पन्न कर सकता है। कौन पुरूष ऐसा है जो कठिन कार्यो के करने की तो
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सामर्थ्य रखता हो और सुगम कार्यो के करने की सामर्थ्य न रखता हो। वह अपने आपमें अपनी शक्ति को खूब समझता है। उसके लिए सभी कार्य दुर्गम अथवा सुगम हो, सरल होते है।
महती निधि से अल्पलाभ की अतिसुगमता - जैसे कोई बोझा उठाने में बलशाली है तो वह छोटा बोझा उठाने में कुछ असुविधा नही मानता है, ऐसे ही जिस शुद्ध आत्मा के भाव में भव-भवके बांधे हुए कर्म कालिमा को भी जलाने की सामर्थ्य है, स्वात्मा की प्राप्ति करने की सामर्थ्य है उससे स्वर्ग आदिक सुख प्राप्त हो जायें इसमें कौन सी कठिनाई है? किसान लोग अनाज पैदा करने के लिए खेती करते हैं तो उद्यम तो कर रहे हैं धान और अनाज को पैदा करने का और भुसा उन्हे अनायास ही मिल जाता है। कोई खाली भुसा के लिए खेती करता है क्या? अरे भुस तो स्वयं ही मिल जाता है। तो जिसका जो मुख्य प्रयोजन है वह अपने कार्य में उसी का ही ध्यान रखता है, बाकी सब कुछ तो अनायास ही होता है, इसी तरह जिसके भेदाभ्यास में इतना बल है कि उसकी तपस्या से भव-भव के संचित कर्म क्षणमात्र में ध्वस्त हो जाते है, तो उस तपस्या के प्रसाद से ये संसार के सुख मिल जाना यह तो कुछ दुर्लभ ही नही है।
व्रत का लाभ- आत्मीय जो सत्य आनन्द है उसकी प्राप्ति में उत्तम द्रव्य मिलना, उत्तम क्षेत्र, उत्तम काल और उत्तम भाव मिलना, जब ऐसी योग्य सामग्री मिलती है तो उसकी उस शक्ति से मोक्ष रूप महान् कार्य उत्पन्न हो जाता है फिर उससे स्वर्ग मिल जाये तो कौनसा आश्चर्य है, किन्तु अल्प शक्ति वाले व्रत का आचरण करें तो उसे स्वर्ग सुख ही मिल सकता है मोक्ष का आनन्द नही। इससे ज्ञानी पुरूषो को आत्मा की भक्ति, प्रभु की भक्ति करनी चाहिऐ, समस्त धर्म कार्यों में कभी प्रमाद न करना चाहिए और न कभी पापों में परिणति करना चाहिए, क्योकि पाप के कारण नरक आदिके दुःख मिलेंगे औश्र कदाचित् उसके बाद मोक्ष भी प्राप्त होगा, तो होगा पर दुःख भोग-भोगकर पश्चात् मोक्ष की विधि उसे लग सकेगी। और कोई व्रत करता है तो व्रत के आचरण के प्रसाद से लोक सुख के उसे आत्मा की भी प्राप्ति होगी, स्वर्ग भी मिलेगा। तो व्रत करना हमेशा ही लाभदायक है।
मन के जीते जीते- भैया! व्रत में कठिनाई कुछ नही है, केवल भाव की बात है। अपने भावो को सम्हाल लें तो काम ठीक बैठता है। मानो जाड़े के दिन है, रात्रि को प्यास न लगती होगी पर जरासी भी कुछ बात हो तो रात को भी प्यास की वेदनासी अनुभव करते और थोडी हिम्मत बनायी तो गर्मी के दिनों में भी रात को पानी की वेदना नही सताती। मन के हारे हार है मनके जीते जीत। जो योगी पुरूष गुरू के उपदेशानुसार आत्मा का ध्यान करते हैं उनके अनन्त शक्तिवाला आनन्द तो उत्पन्न होगा ही, पर स्वर्ग सुख भी बहुत प्राप्त होता है। जिसको उस ही भव से मोक्ष जाना है ऐसा मनुष्य जिस समय आत्मा का अरहंत और सिद्व के रूप से ध्यान करता है उसे इस आत्मध्यान के प्रताप से मोक्ष मिलता है। न हो कोई चरम शरीरी और फिर भी वह अरहंत सिद्ध के रूप से आत्मा का ध्यान करता है उसे भी स्वादिक के तो सुख मिलते ही है।
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अपने आपको जो लोग यह समझते है कि मैं अमुक लाल
आत्मा की प्रभुस्वरूपता अमुकचंद हूँ, ऐसे बाल बच्चे वाला हूँ, अमुक का अमुक हूं, ऐसी पोजीशन का हूं उनका संसार बढ़ता रहता है। अरे इस ही आत्मा में जो हम आप हैं वह शक्ति है कि अरहंत और सिद्व बन सकते है । तो जैसी पवित्र परिणति इसकी हो सकती है उस रूप मं हम ध्यान किया करें तो उत्तम परिणति हो सकती है। मैं अरंहत हूँ, वर्तमान परिणति को निरखकर न बोलो, किन्तु अपने स्वभाव पर बल देकर जिस स्वभाव का पूर्ण विकास अरहंत कहलाता है उस स्वभाव पर बल देकर अनुभव करिये मै अरहत हूं अरहंत कुछ चेतन जाति को छोड़कर अन्य जाति में नही होता है। यह ही मैं चेतन हूं और अरहंत जों हुए हैं वे भी ऐसे ही चेतन है, केवल दृष्टि के फर्क से यह इतना बड़ा फर्क हो गया। सारभूत यह है कि जिसे धर्म करना हो तो पहिले यह समझना होगा कि मैं न मनुष्य हूं न स्त्री हूँ, न इस शरीरवाला हूँ किन्तु एक ज्ञानस्वरूप आत्मा हूं, ऐसी समझ के बिना धर्म हो ही नही सकता।
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अपनी तीन जिज्ञासाये - भैया! एक सीधी सी बात है कि जिसका मन मोह में फंसा है उसे अन्तर्ज्ञान की यह बात समझ में नही आ सकती है। वह इस बात पर ध्यान नही दे सकता है, और जिसे व्यामोह नही है, सुनते ही के साथ उसकी समझ में आ जायगा कि यह ठीक मार्ग है। ऐसे इस आत्मा के ज्ञान को बढाये, उसकी ही दृष्टि रखें और उसकी ही दृष्टि के प्रसाद से पाप आदिक अवस्थावो को त्याग व्रत आदिक तपश्चरण आदिक धर्म की क्रियावो में लग जाय तो ऐसी निर्मलता पैदा होती है कि यह आत्मा भगवान हो जाता है। हम क्या है? हमें क्या बनना है और उसके लिये हमें क्या करना चाहिए, इन तीनो बातो का सही उत्तर ले लो तब धर्म आगे बनेगा। हम क्या है सोच लो । हम वह है जो सदा रहता है। जो नष्ट हो वह मै नही हूं। अब यह निर्णय कर लो कि हमें क्या बनना है? हमें बनना है सहज शुद्ध ज्ञानानन्दस्वरूप एतदर्थ में हमें क्या करना चाहिए? कौनसा ऐसा काम है जिसके कर लोने पर फिर काम करने को बाकी न रहे। भला काम तो वही है जिसके कर लेने पर फिर वह पूर्ण हो ही गया। अब आगे कुछ भी करने की जरूरत न रही ऐसा कौनसा काम है? पंचेन्द्रिय के विषयो के साधन जुटाना, यह तो आकुलता को बढ़ाने वाला है। करने योग्य काम तो केवल ज्ञाताद्रष्टा रहने का है।
मिथ्या आशय से कर्तव्य में बाधा - दो भाई थे। वे परस्पर में एक दूसरे को चाहने वाले थे। उनमें से बडा भाई एक दिन बाजार से दो अमरूद खरीद लाया । दाहिने हाथमें बड़ा अमरूद था और बायें हाथ में छोटा अमरूद था। सामने से एक उसका लड़का और एक भाई का लड़का आ गया जो दाहिनी और था छोटे भाई का लड़का बाँई ओर था उसका लड़का । तो उसने बड़ा अमरूद अपने लड़के को देने के लिए यों हाथो का क्रास बनाकर अमरूद दिया। छोटे भाई ने इस घटना को देख लिया। उसके हृदय पर इस बात से बड़ा धक्का पहुंचा। वह कहाँ गम खाने वाला था। देखो इतनी छोटी सी बात पर छोटा भाई कहता है बड़े भाई से कि भाई अब हम अलग होना चाहते है, एक में नही रहेंगे। बड़े भाई ने बहुत कहा कि भैया अलग न हो, तुम चाहे हमारी सारी जायदाद ले लो। कहा -
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नही, हमें अलग हो जाने दो। तो यह मोह और पक्ष की बातें अच्छी नहीं होती है। अपनी आत्मा को पहिचानो और सबको एक समान मानो ।
हृषीकजमनाततंकं दीर्घकालोपलालितम् ।
नाके नाकौकसां सोख्यं नाके नाकौकसामिव | 15 ||
व्रत के फल में स्वर्गीय सुख इससे पहिले श्लोक में यह बताया था कि जिस तत्व में दिया हुआ भाव मोक्ष को भी दे देता है तब उससे स्वर्ग कितना दूर रहा अर्थात् स्वर्ग तो बिल्कुल ही प्रसिद्ध है, ऐसी बात सुनकर कोई जिज्ञासु यह प्रश्न करता है कि उस स्वर्ग में बात है क्या? लोग स्वर्ग की बात ज्यादा पसंद करते है। कभी धर्म की भावना होती है तो स्वर्ग तक ही उनकी दौड़ होती है। धर्म करो स्वर्ग मिलेगा, उस स्वर्गकी बात उपसर्ग के सुख इस श्लाके में संकेत रूप के कहे जा रहे है । अध्यात्म में तो स्वर्गसुख हेय बताये गए है, किन्तु व्रत का आचरण करने वाले पुरूष मोक्ष न जायें तो फिर जायेगें कहाँ, उसे भी तो बताना चाहिए। मोक्ष न जा सके, थोड़ी कसर रह गयी भावो में तो उसकी फिर क्या गति है, उसका भी बनना आवश्यक है। जो मोक्ष न जा सका, थोड़ी कसर रह जाय शुद्वि में तो सर्वार्थसिद्वि है । विजय, वैजयतं, जयंत व अपराजित ये तो सर्वार्थ सिद्धि है, अनुत्तर है, अनुदिश है, ग्रैवेयक हैं और नही तो स्वर्ग तो छुड़ाया ही किसने है ?
व्रत की नियामकता जो व्रत धारण करता है, चाहे श्रावक के भी व्रत ग्रहण करे, मुनि व्रत ग्रहण करे, व्रत ग्रहण करने के बाद देव आयु ही बँधती है दूसरी आयु नही बधंती। व्रती पुरूष मोक्ष जाय या देव में उत्पन्न हो । और व्रत ग्रहण करने के पहिले यदि अन्य आयु बंध गयी है नरक, तिर्यच मनुष्य तो उसके व्रत ग्रहण करने का परिणाम भी नही हो सकता है। अन्य आयु के बँधने पर सम्यक्त्व तो हो सकता है पर व्रत नही हो सकता है। अणुव्रत भी और महाव्रत भी उसके नही हो सकते जिसने नरक आयु, तिर्यच आयु या मनुष्य आयु में से कोई सी भी आयु बाँध ली है। और जिसने देव आयु बांध ली है या तो उसके व्रत होगा या जिसने कोई आयु नही बाँधी है परभाव के लिए, उसके व्रत होगा। व्रत धारण कितनी ऊंची एक कसौटी है कि जिससे यह परख हो जाय कि देव ही होगा या मोक्ष जायगा । तो ऐसी व्रत की वृत्ति हो तो उसके फल में क्या होता है, उसका वर्णन इस श्लोक में है ।
स्वर्गीय सुख का निर्देशन- स्वर्गो में क्या मिलता है, कैसा सुख है? उसके लिए कह रहे है कि देवों का सुख इन्द्रियजन्य है। ऐसा कहने में कुछ विशेषता नही जाहिर हुई, कुछ बड़प्पनसा नही आ पाया, इन्द्रियजन्य है, लेकिन जो इन्द्रियजन्य सुखके लोभी है उनको कुछ खटकनेवाली बात भी नही होती है । देवो का सुख आतंकरहित है। बाधा, आपदा, वेदना ये सब नही है, उन देवो को न भूख की बाधा होती है, न प्यास की बाधा होती है । हजारो वर्षो में जब कभी भूख लगती है तो कंठ से अमृत झर जाता है और उनकी तृप्ति हो जाती है। अमृत क्या चीज है, जैसे अपन लोग अपने मुँह का थूक गटक लेते है, इससे कुछ बढ़कर है, मगर जाति ऐसी ही होगी, हमारा ऐसा ध्यान है । जब कभी अपन बड़े सुख
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से यहाँ वहाँ की चिंता नही है। ध्यान भी बड़ा भी बड़ा अच्छा जग गया हो ऐसी विशुद्ध स्थिति में कभी मुंह बंद हुए में एक गुटका आ जाता है तो बड़ी शान्ति और संतोषको व्यक्त करता है। और क्या होगा जो उनके कंट में से झरता है। उन्हे प्यासकी भी वेदना नही, ठंड गर्मी की वंदना नही । जो इस औदारिक शरीर में रोग होता है, वेदना होती यह कुछ भी देवों के शरीर में नही है।
स्वर्गसुख से आत्मबाधा भैया ! स्वर्गसुख का यह विश्लेषण सुनकर तो कुछ अच्छा लग रहा होगा पहिले विश्लेषण की अपेक्षा, लेकिन एक कानून और बताता दें, जहाँ क्षुधा, तृषा, ठंड, गर्मी की वेदना न हो वहाँ मुक्ति असम्भव है। जहाँ यं वेदनाएँ चलती है उस मनुष्य पर्याय से मुक्ति सम्भव है। इससे भी क्या कारण है? जहाँ इन्द्रियजन्य सुख की प्रचुरता है वहाँ वैराग्य की प्रचुरता नही होती है। जैसे यहाँ हम मनुष्यो में भी देखते है ना, जो बड़े आराम में है, समृद्धि में है, वैभव में है ऐसे पुरूषो के वैराग्य की वृत्ति कम जगती
। वह नियम यहाँ तो नही है क्योकि मनुष्य जाति का मन विशिष्ट ही प्रकार का हैं। वह सुख भोगते हुए में भी विरक्त रह सकता है, उसे परित्याग करके आत्ममग्न हो सकता है। ये देव दुःखी भी नही है और उनके सुख का जो साधन है उसका परित्याग करने में समर्थ भी नही है ।
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स्वर्ग सुखमे लौकिक विशेषता स्वर्ग के देवों के एक आफत यह भी लगी है कि जो बहुत छोटे देव है, उन देवो के, उनकी अपेक्षा में जो पापी देव है मान लो तो, उनके भी कम से कम 32 देवांगनाएँ होती है। यहाँ तो एक स्त्री का दिल राजी रखने में बड़ी हैरानी पड़ती है, साड़ी, साड़ी ही खरीदने में पूरी समस्या नही सुलझ पाती है। वहाँ 32 देवाँगनावो का मन रखने के लिए कितनी तकलीफ उठाने की बात है ? यहाँ तो स्त्री मनुष्य ही है ना, सो वे संतोष कर सकती है पर उन देवांगनावो के कहाँ संतोष की बात है? जब बहुत छोटे देवों का यह हाल है तो जो बड़े देव है, इन्द्रादिक है उनके तो हजारो का नम्बर है। एक बात और है कि जहाँ एक देवी मरी उसी समय उसी स्थान पर कुछ समय बाद दूसरी देवी उत्पन्न होती है और वह अन्तर्मुहूर्त में ही पूर्ण जवान हो जाती है। देवोंमे ऐसा नियम है। तो छुटकारा होने में बड़ी कठिनाई है, लेकिन यहाँ सुखकी बात बता रहे है कि उनके ऐसा सुख है। स्वर्ग सुखों में एक विशेषता यह भी है कि सागरों पर्यन्त, करोड़ो वर्षो पर्यन्त, दीर्घ काल तक वे सुख भोग करते है । वे कभी बूढे होते नही, सदा जवान ही रहते है। इन्द्रिय विषयो का सुख सदा उन देवो के प्रबल रहता है और वे सागरो पर्यन्त ऐसा ही सुख पाते है। देवो का युख साधारणजनों के लिए उपादेय बन जाता है किन्तु जो तत्वज्ञानी पुरूष है, जो शुद्ध आनन्द का अनुभवन कर चुके है उनमें विषयो की प्रीति नही हो सकती है।
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देवो के सुख की उपमा - उन देवो का सुख किस तरह का है कुछ नाम बतावो । कोई मनुष्य उस तरह का सुखी हो तो उसका नाम लेकर बतावो । है नही ना कोई? तो यह कहना चाहिए कि देवो का सुख देवो की ही तरह है। जैसे साहित्य में एक जगह कहते है। कि राम रावण का युद्ध कैसा हुआ, कुछ दृष्टान्त बतावो । तो बताया है कि राम
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रावण का युद्व राम रावण की ही तरह हुआ है। अभी किसी मनुष्य की तारीफ करना हो और थोड़े शब्दो में कहना हो और बहुत बात कहना हो तो यह ही कह देते है कि यह साहब तो यह ही है, बस हो गयी तारीफ। इससे बढ़कर और क्या शब्द हो सकते है? इस प्रकार देवो के सुख की बात यहाँ बता रहे है कि स्वर्गो में देवों का सुख स्वर्गो में देवो की ही तरह है। उसकी उपमा यहां अन्य गतियों में नही मिल सकती है। यहां यह बताया जा रहा है कि व्रत पालन करने वाले पुरूष परभव में कैसा सुख भोगा करते है।
इस काल के पुराण पुरूषो की परिस्थिति - भैया! न दो स्वर्ग सुखों में दृष्टि व्रत धारण करो तो यह मिलेगा। इस पंचमकाल में जो मुनीश्वर हो चुके है - अकलंकदेव, समंतभद्र, कुन्दकुन्द आदि अनेक जो आचार्य हुए है वे बड़े विरक्त थे, तपस्वी थे और ज्ञान की तो प्रशंसा ही कौन करे? हम लोग जब उनके रचित ग्रन्थों के हृदय में प्रवेश करे तो अनुमान कर सकते है, अन्यथा जैसे कहते है कि ऊंट अपने को तब तक बड़ा मानता है जब तक पहाड़ के नीचे न पहुंचे, ऐसे ही हम लोग अपने को तब तक ही चतुर समझते है और उत्कृष्ट वक्ता तब तक जानते है जब तक इन आचार्यो की जो रचनांए है उन रचनाओं में प्रवेश न पाया जाय। ऐसे ज्ञानवान, चारित्रवान्, तपस्वी साधुजन बतावो अच्छा कहां होगे इस समय? गुजर तो गये है ना, अब तो यहां हे नही वे गुरूजन, तो इस समय वे काहं होगे कुठ अंदाजा बतावो, यही अंदाज बतावोगे कि स्वर्ग में होगे। और स्वर्ग में क्या कर रहे होगे, मंडप भरा होगा, देवांगनाएं नृत्य कर रही होगी और ये कुन्दकुन्द, समन्त भद्र आदि के जीव बने हुए देव सिर भी मटका रहे होगं । क्या करे, व्रत धारण करने पर या तो मोक्ष होगा या स्वर्ग मिलेगा, तीसरी बात नही होती। कोई पूर्वकाल में स्वर्ग से ऊपर भी उत्पन्न हो लेते थे। हां एक बात है कि भले ही ये आचार्य वहां देव बनकर रह रहे है, पर वहाँ भी वे सम्यग्दृष्टि होगे तो उनमे आशक्ति न हो रही होगी, पर होगें वहां।
सम्यक्त्व सहित मरण की नियामकता - कर्म भूमि का मनुष्य मरकर, कर्मभूमि का मनुष्य बने तो उसके मरण समय में सम्यक्त्व नही रहता है। मरण समय में जिस मनुष्य के सम्यक्त्व है, उस सम्यक्त्व में मरेगा तो वहाँ सम्यग्दर्शन के रहते हुए मरण होगा तो देव ही होगा, हाँ एक क्षायिक सम्यक्त्व अवश्य ऐसा है कि उससे पहिले नरक आयु बाँध ली हो, तिर्यञच आयु बाँध ली हो या मनुष्य आयु बाँध ली हो, और फिर क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न कर लिया तो नारक, तिर्यच, मनुष्य गति में जाना पड़ेगा, लेकिन नरक में जायगा तो पहिले नरक में, तिर्यच में जायगा तो भोगभूमिया में और जायगा तो भोगभूमियों में। सम्यग्दृष्टि जीव मरकर भोगभूमिया, तिर्यच व मनुष्य भोग भूमिया में भी इन्द्रियजन्य सुख बहुत है।
दृष्टियोग का विशेष संकट - यहाँ सबसे बड़ा कष्ट एक यह भी है कि पुरूष स्त्री है अब उनमें काई मरेगा जरूर पहिले, मरेगे सभी हम आप, जो भी जन्मे हैं सबका मरण होगा, पर एक प्रसंग की बात यह देखो कि पति पत्नी में आधारभूत प्रेम है, किन्तु उनमें से एक कोई पहिले तो मरेगा ही ना? अब कल्पना करो कि पति पहिले मरता तो पत्नि कितना बिलखती और पत्नी पहिले मरती तो पति कितना विलखता, अर्थात् पति भी अपने को शून्य समझता। अब और क्या गति होगी सो बतावो? ऐसा यहाँ बहुत कठिनाई से हो पाता है कि
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पति पत्नी दोनो संग ही गुजरें, पर भोगभूमिया में ऐसा ही होता हे, पति पत्नी दोनो एक साथ मरते है। अब कुछ अंदाज हो गया ना कि यह लौकिक सुखों की बात है कि दोनो मरें तो एक साथ मरे।
मरण में हानि किसकी - भैया ! एक बात और विचारो कि किसी के मरने पर ज्यादा नुकसान मरने वाले का होता है कि जो जिन्दा रहने वाले है उनका होता है? इस पर जरा कुछ तर्कणा कीजिए। परिवार का कोई एक गुजर गया और परिवार के दो चार लोग अभी जिन्दा है तो यह बताओ कि मरने वाला टोटे में रहा कि जिन्दा रहने वाले टोटे में रहे? टोटे में तो जिन्दा रहने वाले रहे क्योकि मरने वाला तो दूसरे भव में गया, अच्छा, नया, रगा, चंगा, शरीर पाया और जो बचे हुऐ लोग है अथवा नाते रिश्तेदारजन है वे रोते है, विलखते है। तो टोटे में तो जिन्दा रहने वाले रहे। भोगभूमि में पति पत्नी दोनो का एक साथ मरण होता है।
व्रत परिणाम के परिणाम का प्रतिपादन- व्रती पुरूष मरने के बाद स्वर्ग के सुख भोगते है, व्रत धारण करना बहुत अच्छी बात है, लेकिन कोई पुरूष उस कहानी को सुनकर सोचे कि मै व्रत ग्रहण कर लँ, इससे स्वर्ग के सुख मिलते है, तो ऐसे स्वर्ग का सुख नही मिलता है क्योकि उसके अंतरंग में ममता बसी हुई है। वह अपने आत्मकल्याण के लिए व्रत नही ले रहा है, वह तो स्वर्ग सुख पाने की धुन बनाये हुए है सो व्रत ले रहा है। वह व्रत नही है। जो ज्ञानी संत वैराग्य के कारण व्रत ग्रहण करते है, जिनके सहज वैराग्य बनता है, ऐसे पुरूषो की कहानी है कि वे तो मोक्ष में जायेगे या स्वर्ग में जायेंगे। स्वर्ग में कैसा सुख है, उसकी बात इस श्लोक में चल रही है।
व्रतजनित पुण्य का फल – सुख तो एक आत्मा का गुण है। जब रागादिक होते है तो सुख की दशा बदल जाती है या तो हर्षरूप संकटो का परिणमन होगा या दुःखरूप परिणमन होगा। जब तक यह आत्मा सांसरिक सुख और परतंत्रता का अनुभव करता है तब तक उसे बाधारहित आत्मीय आनन्द नही प्राप्त हो सकता है। हाँ कभी सातावेदनीय के उदय में कुछ इन्द्रिय सुख की प्राप्ति हुई, सातारूप परिणमन हुआ, अर्थात् कुछ दुःख कम हो गया तो उस दुःख के कम होने का नाम संसारी जीवो ने सुख रख लिया है। व्रत आदि करने से जो कषाय मदं होता है और मंद कषाय होने से पुण्य का संचय होता है तो उससे स्वर्ग आदि के सुख बहुत काल तक भोगने में आते है, लेकिन वास्तविक जो आनन्द है अनाकुलता का वह तो आत्मदृष्टि में ही है।
सांसारिक सुख की उलझन - ये सांसारिक सुख तो उलझन है, वे देव सुख में मस्त रहते है तो वे मरकर एकेन्द्रिय भी बन सकते है। उनमें नियम है कि दूसरे स्वर्ग तक के देव एकेन्द्रिय बन सकते है, उससे ऊपर 12 वे स्वर्ग तक के देव पशु पक्षी आदि तिर्यञच बन सकते है, उससे ऊपर के देव मनुष्य ही बन सकते है। देखो देवगति के देव कोई पेड़ तक बन जाते है, मरने के बाद ऐसी उनकी दुर्गति हो सकती है, और इतना तो समझना ही है कि वे मरकर नीचे ही गिरेंगे। आगम में देवों के मरने का नाम च्युत होना कहा गया है। देव च्युत होते है अर्थात् नीचे गिरते है और नारकी मरकर ऊपर आते है।
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उन देवों में ऐसा हृषीकत, अनातंक व दीर्घकालोपलालिक सुख है, पर वास्तविक आनन्द नही है।
वास्तविक आनन्द - जो वास्तविक आनन्द है उसमें इन्द्रिय की आधीनता नहीं है, समय की सीमा नहीं है, क्षण भंगुर नही है, न किसी के प्रति चिंता है। इस आनन्द के जानने वाले पुरूष भी स्वर्ग के सुख को हेय मानते है और स्वानन्द के आनन्द को उपादेय मानते है। देवो का सुख देवों की ही तरह है, ऐसा कहने में ज्ञानियो को समाधान मिलेगा
और अज्ञानियो को भी समाधान मिलेगा। अज्ञानी तो उन शब्दो में सुख का बड़प्पन समझ लेगें और ज्ञानी उन्ही शब्दो में सुख को हेय समझ लेंगे। खैर, कैसा ही सुख ही, व्रतधारण के फल में स्वर्ग आदि के सुख मिलते है, इस बात का इस श्लाके में वर्णन है।
___ वासनामात्रमेवैतत् सुखं दुःखं च देंहिनाम् ।
तथा [ द्वेजयन्त्येते भोगा रोगा इवापदि।।6।। सुख की क्षुब्ध रूपता के वर्णन का संकल्प - इससे पहिले श्लोक में देवो का सुख बताया गया था। उस सुख के सम्बंध में अब यहाँ यह कह रहे है कि यह सुख संसारी जीवों का जो इन्द्रिय जनित सुख है वह सुख केवल वासनामात्र से ही सुख मालूम होता है किन्तु वास्तव में यह सुख दुःखरूप ही है। भ्रम से जीव इसको आनन्द समझते है। ये भोग जिनको कि सुख माना है वे चित्त मं उद्वेग उत्पन्न करते है। कोई भी सुख ऐसा नही है जो सुख शान्ति से भोगो जाता हो। खुद भी इसका अनुभव कर लो। ये संसार के सुख क्षोभपूर्वक ही भोगे जाते है। भोगने से पहिले क्षोभ, भोगते समय क्षोभ और भोगने के बाद भी क्षोभ । केवल कल्पना से मोही जीव से सुख समझते है। आत्मा में एक आनन्द नाम का गुण है जिसके कारण यह आत्मा सच्चिदानन्दस्वरूप कहलाता है। उस आनन्द शक्ति के तीन परिणमन है – सुख, दुःख और आनन्द। सुख वह कहलाता है जो इन्द्रियो को सुहावना लगे, दुःख वह कहलाता जो इन्द्रियों को असुहावना लगे और आनन्द उसका नाम है जिस भाव में आत्मा में सर्व ओर से समृद्वि उत्पन्न हो।
सुख और आनन्द में अन्तर - यद्यपि सुख, दुःख और आनन्द, ये आनन्द गुण के परिणमन है, तथापि इन तीना में आनन्द तो है शुद्ध तत्व, सुख और दुःख ये दोनो है अशुद्ध तत्व। यह इन्द्रिय जन्य सुख आत्मीन आनन्द की होड़ नही कर सकता है। स्वानुभव में जो आनन्द उत्पन्न होता है अथवा प्रभु के जो आनन्द है उस आनन्द की होड़ तीन लोक तीन काल के समस्त संसारी जीवो का सारा सुख भी जोड़ लीजिए तो भी वह समस्त सुख भी उस आनन्द को नही पा सकता है। यह सांसारिक सुख आकुलता सहित है और शुद्ध आनन्द अनाकुलतारूप है। सांसारिक सुख में इन्द्रिय की आधीनता है। इन्द्रियां भली प्रकार है तो सुख है और इन्द्रियों में कोई फर्क आया, बिगाड़ हुआ तो सुख नही रहा, किन्तु आत्मीय आनन्द में इन्द्रिय की आवश्यकता ही नही है। हृषीकज सुख पराधीन है, नाना प्रकार के विषयो के साधन जुटें तो यह सुख मिलता है, परन्तु आत्मीय आनन्द पराधीन नही है, अत्यन्त स्वाधीन है। समस्त परपदार्थो का विकल्प न रहे, केवल स्वात्मा ही दृष्टि में
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रहे तो ससे यह आनन्द उत्पन्न होता है। इस इन्द्रियज सुख में दुःख का सम्मिश्रण है किन्तु आत्मीय आनन्द में दुःख की पहुँच भी नही। संसार का कोई भी सुख ऐसा नही है जिसमें दुःख न मिला हुआ है। धनी होने में सुख है। तो उसे भी कितने ही दुःख है। संतानवान होने का सुख है तो उस प्रसंग में भी कितने ही दुःख भोगने पड़ते है। संसार को कोई भी सुख दुःख कि मिश्रण बिना नही है ।सांसारिक सुख इस आनन्द के अंश भी नही प्राप्त कर सकता है।
वासनामात्र कल्पित सुख में बाधा और विषमता - भैया! सुख और दुःख की कल्पना उस ही पुरूष के होती है जिसमें ऐसी वासना बनी हुई है कि यह पदार्थ मेरा उपकारी है इसलिए इष्ट है और यह पदार्थ मेंरा अनुपकारी है इसलिए अनिष्ट है। ऐसा जब भ्रम उत्पन्न होता है तो उस भ्रम में आत्मा में जो भी संस्कार बन जाता है उसका नाम वासना है। ऐसा जब भ्रम उत्पन्न होता है तो उस भ्रम में आत्मा में जो भी संस्कार बन जाता है उसका नाम वासना है। संसारी जीव इन्ही वासनावों के कारण इन्द्रियसुख में वास्तविक सुख की कल्पना कर लेते है। यह भोगो से उत्पन्न हुआ सुख अनेक बाधावो से भरा हुआ है, पर आत्मा के अनुभव से उत्पन्न होने वाला आनन्द बाधावो से रहित है। यह इन्द्रिय जन्य सुख विषम है। कभी सुख बढ़ गया, कभी सुख घट गया, कभी सुख न रहा ऐसी इन भोगो के सुख में विषमता है, पंरतु स्व के अनुभव से उत्पन्न होने वाला आनन्द विषम नही है, वह एक स्वरूप है और समान है। सुख और दुःख में महान् अन्तर है। इस इन्द्रिय जनित सुख में मोहीजन भ्रम से वास्तविक सुख की कल्पना करते है।
सांसारिक सुखो की उद्वेगरूपता - यह हृषीकज सुख उद्वेग ही करता है। जैसे ज्वर आदि रोग चित्त को दुःखी कर देते है। ऐसे ही ये भोग भी चित्त को दुःखी कर देते है। मोही जन दुःखी हो जाते है और दुःख नही समझते है। जैसे चरचरी मिर्च खाने में सुख नही होता है, दुःख होता है, पर जिसे चटपटी मिर्च से मोह है वह दुःखी भी हो जाता है
और मिर्च भी मांगता जाता है, और लावो मिर्च। किस तरह का उनके मिर्च का भाव लगा है? क्या करण है कि उस मिर्च से सी-सी करते जाते, आंसू भी गिरते जाते, कौर भी मुश्किल से गुटका जाता, फिश्र भी मांगते है कि लाल मिर्च और चाहिए। ऐसे ही भोग के दुःख होते है, इन भोगो से कुछ भी आनन्द नही मिलता है, लेकिन मोहवश भोगो में ही यह आनन्द मानता है और उन्ही भोग के साधनो को जुटाने में श्रम करता है।
__परमतत्व के लाभ बिना कोरी दरिद्रता - जो मनुष्य भूख प्यास से पीड़ित है उन्हे सुन्दर महल या संगीत साज या कुछ भी चीज उनके सामने रख दो तो उन्हे रमणीक नही मालूम होती है। किसी भूख लगी हो उसका स्वागत खूब किया जाय और खाने को न पूछा जाये तो क्या उसे वे स्वागत के साधन रमणीक लगते है? नही रमणीक लगते है। जीव के जितने आरम्भ है वे सब आरम्भ तब सुन्दर लगते है जब खाने पीने का अच्छा साधन हो। कोई लोग ऐसे भी है कि घर में तो खाने-पीने का कलका भी साधन नही है और अपनी चटकमटक नेकटाई औश्र बड़ी सज धज, शान की बातें मारते, तो जैसे इस तरह के लोग कोरे पोले है, उनमें ठोस बात कुछ नही है। ऐसे ही समझिये कि जिस पुरूष में ज्ञान विवके
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नही है, जिस तत्व की दृष्टि से आनन्द प्रकट होता है उस तत्व की जरा भी खबर नही है और वे भोग के साधन, भारी चेष्टाएँ आदि करे तो वे अपने में पोले है, उन्हें शान्ति संतोष नही प्राप्त हो सकता ।
सांसारिक सुखो की वासनामात्र रम्यता यह सारा इन्द्रियसुख केवल वासनामात्र रम्य है, उस और मेह लगा है इसलिए सुखद मालूम होता है। जो पक्षी बड़ी गर्मी में अपनी स्त्री के साथ याने (पक्षिणी के साथ) भोगो में उलझ जाता है उसे घूप का कष्ट नही मालूम होता है। जब रात्रि को उस पक्षी का वियोग हो जाता है जैसे एक चकवा चकवी होते है उनके रात का वियोग हो जाता है, क्या कारण है, कैसी उनकी बुद्धि हो जाती है कि वे विमुख हो जाते है? तब उन पक्षियों को चन्द्रमा की शीतल किरणें भी अच्छी नही लगती । जब उनका मन रम रहा है, वासना में उलझे है तब घूप भी कष्टदायी नही मालूम होती और जब उनका वियोग हो जाय तो उस समय चन्द्रमा की शीतल किरणे भी अच्छी नही लगती। पक्षियो की क्या बात कहे- खुद की ही बात देख लो - जिसे धन संचय प्रिय है वह पुरूष धन संचय का कोई प्रसगं हो, धन आने की उम्मीद हो, कुछ आ रहा तो ऐसे समय में वह भूखा प्यासा भी रह सकेगा, धूप का भी कष्ट उठा सकेगा और भी दुःख सहन कर लेगा। और यदि कोई बड़ा नुक्सान हो जाय, टोटा पड़ जाये तो ऐसे समय में उसे बढिया भोजन खिलावो, और भी उसका मन बहलाने की सारी बातें करो तो भी वे सारी बातें नीरस लगती है। उनमें चित नही रमता है। तो अब बतलावो सुख क्या है? केवल वासनावश यह जीव अपने को सुखी मानता है ।
इस इंद्रियजन्य सुख में वासनाएँ
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परसमागम में कल्पित सुख की भी अनियतता बनाना, सुख की कल्पनाएँ बनाना बिल्कुल व्यर्थ है वह महाभाग धन्य है जिसकी धुन आत्मीय आनंद को प्राप्त करने की हुई है। संसार के समागत समस्त पदार्थो को जो हेय मानता है, उनमें उपयोग नही फंसाता है वह माहभाग धन्य है । सेसार में तो मोही, भोगी रोगी लोग ही बहुत पड़े हुए है । वे इन ही असार सुखो को सुख समझते है। क्या सुख है? गर्मी के दिनो में पतले कपडे बहुत सुखदाई मालूम होते है, वे ही महीन कपड़े जाड़े के दिनो में क्या सुखकारी मालूम होते है? सुख किस में रहा? फिर बतलावो जो जाड़े के दिनों मे मोटे कपड़े सुहावने लगते है, वे कपड़े क्या गर्मी के दिनो में सुखकर मालूम होते है ? सुख किसमें है सो बतलावो । जिनमें कषाय मिला हुआ है, मन मिला हुआ है ऐसे मित्र अभी सुखदाई मालूम होते है, किसी कारण से मन न मिले, दिल बिगड़ जाय तो उनका मुख भी नही देखना चाहते है ।
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सुख के नियत विषय का अभाव भैया ! सुख का नियत विषय क्या है? किसको मानते हो कि यह सुख है। जो मिष्ट पदार्थ लड्डू वगैरह भूख में सुहावने लग रहे है, पेट भरने पर क्या वे कुछ भी सुहावने लगते है ? कौन से पदार्थ का समागम ऐसा है जिससे हम नियम बना सकें कि यह सुखदायी है? मनुष्यो को नीम कडुवी लगती है, पर ऊट का तो वही भोजन है। ऊट को नीम बड़ी अच्छी लगती है । कहाँ सुख मानते हो ? गृहस्थो को गृहस्थावस्था में सुख मालूम होता है, पर ज्ञान और वैराग्य जग जाय तो उसे ये सब अनिष्ट
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और दुःखकारी मालूम होते है। कौनसी चीज ऐसी है जिसमें नियमरूप से सुख की मान्यता ला सके? ये सांसारिक भोग उपभोग, सांसारिक सुख सुखरूप से बन रहे थे, वे ही सब कुछ थोडे समय बाद दुःखरूप में परिणत हो जाते है। बहुतसी ऐसी घटनाएँ होती है। कि शादी विवाह हुआ, दो चार साल तक बड़े आराम से रहे, मानो एक के बिना दूसरा जिन्दा नही रह सकता, कुछ साल गुजर जाते है तो लडाई होने लगती है, आमना सामना नही होता है, माना तलाकसी दे देते है। तो कौन सी ऐसी स्थिति है जिसमें यह नियम बन सके कि यह सुखदायी स्थिति है? सब केवल वासनामात्र से सुखरूप मालूम होता है।
सुख का दुःखरूप में परिणमन - यह सुख थोडे ही समय बाद दुःखरूप परिणत हो जाता है। मान लो पति पत्नी 50-60-70 वर्ष तक एक साथ रहे, खूब आनन्द से समय गुजरा, पर वह समय तो आयगा ही कि या तो पति पहिले गुजरे या पत्नी पहिले गुजरे। उस ही समय वह सोचता है कि सारी जिन्दगी में जितना सुख भोगा है उतना दुःख एक दिन में मिल गया । ये सभी सुख कुछ ही समय बाद दुःखरूप मालूम होते है। भोजन करना बड़ा सुखदायी मालूम होता है, करते जावो डटकर भोजन तो फिर वही दुःखका कारण बन जाता है। रोग पैदा हो जाता है पेट दर्द करता है, विहलता बनी रहती है। संसार में भी सुख के भोगने का हिसाब सबके एकसा ही बैठ जाता है। जैसे खाने को हिसाब सबका एकसा बैठ जाता है। चाहे चार दिन खूब डटकर बढिया मिष्ट भोजन करलो
और फिर 10 दिन केवल मूंग की ही दाल खाने को मिलेगी। तो अब हिसाब में 14 दिनका एवरेज लगालो और कोई आदमी 14 दिन रोज सात्विक भोजन करे और साधारण अल्प भोजन करे तो वह भी एवरेज एकसा ही बैठ गया। इन भोगविषयोको कोई बहुत भोग भोगले तो अंत में दुर्गति होती है और कोई मनुष्य इन भोगो को विवकेपूर्वक थोडा ही भोगता है।
वास्तविक आनन्द के लाभ का उपाय - इन भोगो में वास्तविक सुख नही है। वास्तविक आनन्द तो निराकुल परिणति में है। वह कैसे मिले? अपना स्वरूप ही निराकुल है ऐसे भान बिना निराकुलता प्राप्त नही हो सकती। अपने आपको तो गरीब समझ रहा है यह जीव और निराकुलता की आशा करे तो कैसे हो सकता है? उसे कुछ पता ही नही है कि ये जगत के बाहा पदार्थ है, ये जैसे परिणमते हों परिणमें, उनसे मेरा कोई बिगाड़ नही है यह मैं तो स्वभाव से शुद्ध सच्चिदानन्दरूप हूं| ऐसे निज निराकुल स्वरूप का भान हो तो इस ही स्वरूप का आलम्बन करके यह निराकुलता प्राप्त कर सकता है। और यह निराकुल पद मिले तो फिर उस ही स्वरूप में स्थित रहता है। उस पद में न बुढापा है, न मरण है, न इष्ट का वियोग है, न अनिष्ट का संयोग है, न ज्वर आदिक कोई रोग है, सब संकटो का वहाँ विनाश है।
करणीय आशा - भैया ! ऐसे सुख की क्या लालसा करें जिस सुख में सुख का भरोसा ही नही है। थोडा सुख मिला, फिर दुःख आ गया, और इस ही सुख के पीछे दुःख आता रहता है, तो ऐसे सुख की क्यों आशा करे, तो उस आनन्दकी आशा करें जिसके प्रकट होने पर फिर कभी संकट नही आता है। वह सुख कर्मो के सर्वथा क्षय से उत्पन्न
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होता है आत्मा से उत्पन्न होता है, उसमें किसी भी प्रकार की बाधा नही न उसमें कोई दुःख का संदेह है, ऐसा जो आत्मीय आनन्द है उसका किसी समय तो अनुभव कर लो। घर मे, दुकान में, मन्दिर में किसी जगह हो किसी क्षण सर्वसे भिन्न अपने को निरखकर अपने आपको निर्विकल्प अनुभव का कुठ स्वाद तो ले लो। इस अनुभ्ज्ञव का स्वपाद आने पर यह जीव कृतार्थ हो जायगा, इसे फिर आपत्ति न रहेगी। आपत्ति तो मोह में थी। अमुक पदार्थ यों नही परिणमा तो आपत्ति मान ली। अब जब कि तत्व विज्ञान हो गया है तो उसमें यह साहस है कि अमुक पदार्थ यों नही परिणमा तो बलासे, वह उस ही पदार्थ का तो परिणमन है। मै तो सच्चिदानन्द स्वरूप आत्मा स्वभावतः कृतार्थ हूं मुझको परपदार्थ में करने योग्य काम कुछ भी नही है। यह परमें कुछ कर भी नही सकता है, ऐसा तत्वज्ञान हो जाने पर, आत्मीय रस का अनुभव हो जाने पर फिर इसे कहाँ संकट रहा? संकट तो केवल अपनी भ्रमभरी कल्पना में है।
सांसारिक सुख में आस्था की अकरणीयता - इस श्लोक से पहिले श्लोक में व्रतो का फल बताने के लिए देवो के सुख की प्रशंसा की गयी थी, लेकिन प्रयोजन प्रदर्शनवश भी की गई झूठी प्रशंसा कब तक टिक सकती है? इसके बाद के श्लोक में यह कहना ही पड़ा कि वह सारा सुख केवल वासनाभरका है, वास्तव में वह चित्त को उद्वेग ही करने वाला है। ऐसे सुख मे आस्था न रखकर एक सच्चिदानन्दस्वरूप निज आत्मतत्व में उपयोग को लगाना ही श्रेयस्कर है।
मोहेन संवृतं ज्ञानं स्वभावं लभते न हि।
मत्तः पुमान पदार्थानां यथा मदनकोद्रवैः ।।7।। मोहीका अविवेक - मोह से ढका हुआ ज्ञान पदार्थो के यर्थाथ स्वभाव को प्राप्त नही कर पाता है अर्थात् स्वभाव को नही जान सकता है, जैस कि मादक कोदो के खाने से उन्मत्त हुआ पुरूष पदार्थ का यथावत भाग नही कर पाता है जैसे मादक पदार्थो पान करने से मनुष्य का हेयका और उपादेयका विवेक नष्ट हो जाता है, उसे फिर पदार्थ का सही ज्ञान नही रहता। जैसे पागल पुरूष कभी स्त्री को माँ और स्त्री भी कहता है और किसी समय माँ को माँ भी कह दे तो भी वह पागल की ही बात है, इसी तरह मोहनीय कर्म के उदयवश यह जीव भी अपने शुद्ध स्वरूप को भूल जाता है, उसे हेय और उपादेय का सच्चा विवेक नही रहता है। जो अपनी चीज है उसको उपादेय नही समझ पाता, जो परवस्तु है उसको यह हेय नही समझ पाता। उपादेय को हेय किए हुए है और हेय को उपादेय किए हुए है।
अमीरी और गरीबी - भैया !अपने स्वरूप का यथावत भान रहे, उसकी तरह जगत में अमीर कौन है? जिसको अपने स्वरूप का भान नही है उसके समान लाके में गरीब कौन है। गरीब वह है जिसके अशांति बसी हुई है और अमीर वह है जिसके शान्ति बसी हुई है। धन सम्पदा पाकर यदि अशान्ति ही बस रही है, उस सम्पदा के अर्जन मे, रक्षण में या उस सम्पदा के कारण गर्व बढाने में अशान्ति बनी हुई है तो उस अशान्ति से तो वह गरीब ही
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है । अमीर वह है जिसे शान्ति रहती है । शान्ति उसे ही रह सकती है जो पदार्थो का यथावत ज्ञान करता है। जो पुरूष अपने से सर्वथा भिन्न धन वैभव सम्पदा के स्त्री पुत्र मित्र आदिक में आत्मीयत्व की कल्पना कर लेता है, यह मै हूं यह मेरा है, इस तरह का भ्रम बना लेता है, दुखःकारी सुखो को भोगो को भी सुखकारी मान लेता है तो उसे फिर यह अपना आत्मा भी यथावत् नही मालूम हो सकता। यह मोही जीव को अपना आत्मा नाना रूपों प्रतिभासित होता है मै अमुक का दादा हूं, पिता हूँ, पिता हूँ, पुत्र हूँ, इस कल्पना में उलझकर अपने स्वरूप को भुला देता है।
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मोह में विचित्ररूपता यह मोही जीव अपने को यथार्थ एकस्वरूप निरख नही पाता । मोहवश यह अपने को न जाने किन-किन रूप मानता है? जब जैसी कल्पना उठी तैसा मानने लगता है जैसे डाक के सम्बन्ध से दर्पण में अनकेरूप दिखने लगते है, लाल कागज लगावो तो वह मणि लाल दिखती है, उसके पीछे लाल-हरा जैसा कागज लगावो तैसा ही दिखने लगता है। ऐसे ही नाना विभिन्न कर्मो का सम्बंध आत्मा के साथ है। सो जिस-जिस प्रकार का सम्बंध है उससे आत्मा नाना तरह का दिखता है, लेकिन जैसे उस स्फटिक मणि से उपाधि हटा दी जाय तो जैसा वह स्वच्छ है तेसा ही व्यक्त प्रतिभास में आता है। ऐसे ही जब आत्मा से द्रव्यकर्म का भावकर्म का सम्बंध छूटता है तो वह अपने इस शुद्ध ज्ञानानन्दस्वरूप आत्मातत्य को प्राप्त कर लेता है, फिर उसे यह चैतन्यस्वरूप अखण्डस्वरूप अनुभव में आता है।
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अचरजभरा बन्धन देखो भैया कितनी विचित्र बात है कि यह आत्मा तो आकाशवत् अमूर्त है। इस आत्मा में किसी परद्रव्य का सम्बन्ध ही नही होता, लेकिन कर्मों का बन्धन ऐसा विकट लगा हुआ है ऐसा एक क्षेत्रावगाह है, निमित्तनैमित्तिक रूपतन्त्रता है कि आत्मा एकभव छोड़कर दूसरे भरव में भी जाय तो वहाँ भी साथ ये कर्म जाते है। यह क्यों हो गया कर्मबन्धन इस अमूर्त आत्मा के साथ? देख तो रहा है, अनुभव में आ तो रहा है यह सब कुछ, यही सीधा प्रबल उत्तर है इसका। मै ज्ञानमय हूँ इसमें तो कोई संदेह ही नही, जो जाननहार है वह ही मै हूं । अब कल्पना करो कि जाननहार पदार्थ रूपी तो हो नही सकता। पदार्थ को किस विधि से जाने कुछ समझ ही नही बन सकती है। पुद्गल अथवा रूपी जानन का काम नही कर सकता है वह तो मूर्तिक है, रूप, रस, गंध, स्पर्श का पिंड है, उसमें जानने की कला नही है, जाननहार यह मैं आत्मा अमूर्त हूं। इसमें ही स्वंय ऐसी विभावशक्ति पड़ी हुई है कि पर उपाधिका निमित्त पाये तो यह विभावरूप परिणमने लगता है और विभाव का निमित्त पाये तो कार्माणवर्गणा भी कर्मरूप हो जाती है, ऐसी इसमें निमित्तनैमित्तिक बन्धन है।
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मूर्च्छा की पति यह ज्ञान मोह से मूर्छित हो जाता है। कैसे हो जाता है मूर्छित ? तो क्या बताए उसकी तो नजीर ही देख लो काई पुरुष मदिरा पी लेता है तो वह क्यों बेहोश हो जाता है? उसका ज्ञान क्यों मूर्छित हो जाता है? क्या सीसीकी मदिरा ज्ञान के स्वरूप में घुस गयी है? कैसे वह ज्ञान मूर्च्छित हो गया है, कुछ कल्पना तो करो। यह कल्पना निमित्तनैमित्तिक बंधन है, वहां यह कहा जा सकता है कि उस मदिरा के पीने के
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निमित्त से ज्ञान मूर्छित नही होता है किन्तु पौद्गलिक जो द्रव्येन्द्रियाँ है वे द्रव्येन्द्रियाँ मूर्छित हो गयी है। जैसे डाक्टर लोग चमड़ी पर एक दवा लगा देते है जिससे उतनी जगह शून्य कर दे, ऐसे ही मदिरा आदि का पान इन्द्रियों को शून्य कर देने में निमित्त है, वह ज्ञान को बिगाड़ने मे निमित्त नही है। अच्छा न सही ऐसा, वह मदिरा द्रव्येन्द्रिय के बिगाड़ने में ही निमित्त सही, पर द्रव्येन्द्रिय बिगड़ गयी तो वह तो निमित्त है ना ज्ञान के ढकने का, मूर्छित होने का और बिगड़ने का। ऐसे ही सही, पर मदिरापान होने से यह ज्ञान मूर्छित हो गया है। फिर यह मोहनीय कर्म तो बहुत सूक्ष्म और प्रबल शक्ति रखने वाला है। उसके उदय का निमित्त पाकर यह ज्ञान मूर्छित हो जाय तो इसमें कोई आश्चर्य नही है । ऐसा निमित्त नैमित्तिक सम्बंध है। मदिरा जैसे बोतल में रक्खी हुई है तो उसे पीने वाले पुरूष के ज्ञान को मूर्छित करने में वह मदिरा निमित्त है, बोतल को मूर्छित कर देने में निमित्त नही है। उस काँच में मूर्छित होने के शक्ति, कला व योग्यता नही है। तो वहाँ भी यह देखा जाता कि जो मूर्छित हो सकता है वह मदिरा के निमित्त से मूर्छित हो सकता है। इसी तरह कर्मो के उदय के निमित्त से मूर्छित हो सकने वाले पदार्थ ही मूर्छित हो सकते है। शराब पीने से ज्ञान की मूर्छित हुई दशा में मस्त पुरूष को जैसे हेय और उपादेय का विवेक नही रहता है ठीक इसी तरह जो आत्मा मोह में ग्रस्त है वह अपने स्वरूप से गिर जाता है और नाना प्रकार के विकारी भावो में घिर जाता है, कर्मो से बँध जाता है।
विडम्बनाओ के विनाश का सुगम उपाय - जैसे बहुत बड़ी मशीन के चलाने और रोकने का पेंच एक ही जगह मामूली सा लगा है, कमजोर पुरूष भी दबा और उठा सकते है, चला सकते है, बन्द कर सकते है, ऐसे इतनी बड़ी विडम्बना संसारमें हो रही है, जन्म हो, मरण हो, जीवनभर अनके कल्पनाएँ की, अनके कष्टो का अनुभव किया, इतनी सारी विडम्बनाएँ है किन्तु उन सब विडम्बनावों के विनाश का उपाय केवल एक अपने आपके सहज स्वरूप का अनुभवन है, दर्शन है। इसके प्रताप से भावकर्म भी हटते है, द्रव्य कर्म भी हटते है, और यह शरीर भी सदा के लिए पृथक हो जाता है। सर्व प्रकार का उद्यम करके अपन सबको करने योग्य काम एक यह ही है कि अपने सहजस्वरूप का अवलोकन करे, दर्शन करे, अनुभवन करे, उसमें ही अपने उपयोग को लीन करके सारे संकटो से छुटकारा पाये।
कर्मबन्धन की अनादिता - यह आत्मा परमार्थतः अपने स्वरूपमात्र है, लेकिन अनादिकाल से यह कर्मबधनं से ग्रस्त है, विषय कषाय के विभावों से मलिन है, इस कारण इन मूर्त कर्मो से वह बंधन को प्राप्त हो रहा है। कब से इस जीव के साथ कर्म लगे है और कब से इस जीव के साथ रागद्वेष लगे है इसका कोई दिन मुकर्रर किया ही नही जा सकता है, क्योकि रागद्वेष जो आते है वे कर्मो के उदय का निमित्त पाकर आते है। कर्मो का उदय तब हो जब कर्म सत्ता में हो। कर्म सत्ता में तब हो जब कर्म बँधे, कर्म तब बधे जब रोगद्वेष भाव हो तो अब किसको पहिले कहोगे? इस जीव के साथ पहिले कर्म हैं पीछे रोगद्वेष हुए? ऐसा कहोगे क्या? अथवा इस जीव के साथ रागद्वेष तो पहिले थे पीछे कर्म बधे? ऐसा कहोगे क्या? दोनो में से कुछ भी नही कह सकते।
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द्रव्यकर्म व भावकर्म में किसी की आदि मानने में आपत्ति यदि जीव में रागद्वेष पहिले थे, कर्म पीछे बँधे तो यह बतावो कि वे रागद्वेष जो सबसे पहिले थे वे हुए कैसे? यदि जीव में अपने आप सहज हो गए तो यह जीव कर्मो से छूटने के बाद एक बार वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा होने के बाद भी अगर यो ही सहज रागद्वेष आ गए तो ऐसी मुक्ति का क्या करें कि जिसमें किसी प्रकार एक बार संकट से छूट पाये थे और अब संकट से घिर गये, इस कारण यह बात नही है कि जीव में रागद्वेष पहिले थे, कर्मबधं न था, रागद्वेषके कारण फिर कर्म बंधना शुरू हुआ, यह नही कहा जा सकता । यदि ऐसा कहेगे कि जीव के साथ कर्म बंध पहिले था, उसके उदय में ये रागद्वेष हुए है। तो वह बतलावो कि जब जीव में सबसे पहिले कर्म बधं था, तो वह कर्म बंध हो कैसे गया ? रागद्वेष हुए है। तो वह बतलावो कि जब जीव में सबसे पहिले कर्म बंध था, तो वह कर्म बंध हो कैसे गया? किस कारण से हुआ या बिना कारण के हुआ । किस कारणसे हुआ यह तो कह न सकेगें इस प्रसंग में क्योकि सबसे पहिले कर्म बंध जायेगे तो फिर इससे संसार में रूलना होगा, फिर मुक्ति का स्वरूप ही क्या रहा, इससे न भाव - कर्म ही सर्वप्रथम हुआ कह सकते और न द्रव्य कर्म को ही सर्वप्रथम हुआ कह सकते ।
द्रव्यकर्म व भावकर्म की अनादित पर दृष्टान्त द्रव्यकर्म, भावकर्म की अनादिता समझने के लिये एक दृष्टान्त लो - आम के बीज से आम का पेड़ उगता है, आप सब जानते है और आम के पेड़ से आम का बीज उत्पन्न होता है। आम के फल के बीज से आम वृक्ष हुआ, आम वृक्ष से आम का फल हुआ तो आप अब यह बतलावो कि वह लगा हुआ फल कहाँ से आया? आम के पेड़ से और वह आम का पेड़ कहाँ से आया? आम के फल से और वह आम का फल कहाँ से आया? आम के वृक्ष से, इस तरह बोलते जावो, कहानी पूरी हो ही नही सकती। कोई फल ऐसा नही था जो कभी पेड़ से न हुआ था और कोई पेड़ ऐसा नही था जो कभी बीज से न हुआ था। तो जैसे बीज और वृक्ष इन दोनों की परम्परा अनादि से चली आ रही है उसमें किसे पहिले रक्खोगे, ऐसे ही जीव और कर्म का एक सम्बधं कि कर्म से रागद्वेष हुए, रागद्वेष से कर्म बँधे, यह सम्बधं अनादि से चल रहा है। अच्छा बतावो आज जो बेटा है वह किसी पिता से हुआ ना, और वह पिता अपने पिता से हुआ। क्या कोई ऐसा भी पिता किसी समय हुआ होगा जो बिना पिता के से टपककर आया हो या यह किसी और तरह पिता हुआ हो, बुद्धि में नही आता ना। तो जैसे यह संतान अनादि है इसी प्रकार यह जीव और कर्म का संम्बध भी अनादि है।
द्रव्यकर्म व भावकर्म के अनादि सम्बन्ध होने पर भी विविक्ता
भैया ! जीव और
कर्म का बन्धन अनादि फिर भी ये दोनों तत्व भिन्न भिन्न है, और ऐसा उपयोग बन जाय सही तो कर्म जुदा हो सकते है । और आत्मा केवल विविक्त हो सकता है। जैसे खान में जो सोने की खान है वहाँ स्वर्ण पाषाण निकलता है उसमे वह स्वर्ण किस समय से बना हुआ है? ऐसा तो नही है कि पलि वहाँ अन्य किस्म का कोरा पत्थर था, पीछे स्वर्ण उसमें जड़ाया गया हो? वह पाषाण तो ऐसा ही स्वर्णपाषाण रहा आया है, उस पाषाण में स्वर्ण का संम्बध चिरकाल से है, जबसे पाषाण है तब से ही है, लेकिन उसे तपाया जाय या जो
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प्रक्रिया की जाती है वह की जाय तो वह स्वर्ण उस पाषाण स े अलग हो जाता है । जैसे तिल में तैल बतावो किस दिन से आया है, क्या कोई नियम बना सकते हो कि कबसे आया? वह तो व्यक्तरूप से जब से तिलका दाना शुरू हुआ है, बना है तबसे ही उसमें तैल है। तो जब से तिल है तबसे उस दाने में तैल है। रहे आवो शुरू से दोनो एकमेंक, लेकिन कोल्हू में पेले जाने के निमित्त से तिल अलग नजर आता है और तेल अलग नजर आता है, ऐसे ही ये जीव और कर्म दोनो अनादि से बद्ध है लेकिन सम्यदर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र के प्रताप से यह जीव विविक्त हो जाता है और ये सब कर्म और नोकर्म जुदे हो जाते है। जब यह जीव द्रव्यकर्म और भावकर्म दोनो से मुक्त हो जाता है, फिर कभी भी कर्मों से नही बँधता ।
परिस्थिति और कर्तव्यशिक्षा
यहां यह बतला रहे है कि जब यह कहा गया था कि
ये
सुख केवल वासना मात्र है, ये है नही, परमार्थतः तो स्वभाव ही अपना है। तो फिर यह जीव इस परमार्थ भूत स्वभाव को क्यों नही प्राप्त कर लेता है, इस आंशका के समाधान में यह बताया गया है कि मोह के उदय से यह आत्मा अपने स्वरूप से च्युत हो जाता है, विवेक फिर नही रहता । विवेक न रहने के कारण पदार्थ का स्वरूप यथार्थ परिज्ञान नही हो पाता है। जब अपना अंतस्तत्व न जान पया जो यह बाह्रा उपयोगी रहा, बहिरात्मा रहा, वहाँ य परपदार्थ में यह मेरा है, यह मै हूँ, ऐसी विधि से कल्पना बनाता रहा। अज्ञान दशा में यह बहिरात्मा दशा जब तक रहती है तब तक यह ज्ञानी अंतस्तत्व का ज्ञान नही कर पाता, इस कारण मिथ्यात्व त्यागकर ज्ञानी होकर परमात्मपद का साधन करना चाहिए । इससे इस मिथ्या सुख दुःख से परे शुद्ध आनन्द प्रकट हो जायेगा ।
वपुर्गृहं धनं दाराः पुत्रा मित्राणि शत्रवः ।
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सर्वथान्यस्वभावानि मूढः स्वानि प्रपद्यते ।। 8 ।।
मूढमान्यता
मोह से मूर्छित हुआ यह अज्ञानी प्राणी कैसा बाह्रा में भटकता है कि जो जो पदार्थ सर्वथा अपने से भिन्न स्वभाव वाले है उन परपदार्थों को यह मैं हूं इस प्रकार मानता फिरता है। शरीर घर, धन, स्त्री, पुत्र मित्र और कहां तक कहा जाय, शत्रु को भी मोही जीव अपना मानता है । कहते है कि यह मेरा शुत्र है, उसे अपना माना है ।
शरीर क्या - जो शीर्ण हो, जीर्ण हो, गले उसका नाम शरीर है, यह तो सस्कृतं का शब्द है, उर्द में भी शरीर कहते है। जिसका प्रतिकूल शब्द शरीफ का है अर्थ सज्जन जिससे उल्टे शरीर का दुर्जन, बदमाश । तो यह शरीर शरीर है, दुर्जन है, बदमाश है, इससे कितना ही प्रेम करो, कितना ही खिलावो, कितना ही तेल फुलेल लगावो, कितनी ही सेवा करो, यह जब फल देता हे। तो बदबू पसीना आदि ऐब देता है। ये जितनी मूतियाँ दिखती है हम आपको ये सब बड़ी अच्छी देवतासी साफ सुथरी दिख रही है, सिर में तेल लगा है, बड़ा श्रंगार है, कपडे भी चमकीले है, किसी का चद्दर श्रंगार है, किसी का कोट । सजे-धजे देवता से सब बैठे है, पर ये सब भरे पूरे किस चीज से है उसका भी दर्शन कर
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लो। अपनी ग्लानि अपने को जल्दी मालूम हो सकती है और दूसरे की भी। मोही जीव इस शरीर को अपना मानते है।
शरीर सेवा का कारण - जो बुद्विमान पुरूष होते है वे भी इस शरीर की सेवा करते है, वे भी स्वस्थ रहने के उपाय बनाते है, सयंत भोजन करते, संयमित दिनचर्या करते, सब कुछ स्वास्थ्य ठीक रखने का प्रोग्राम रखते है लेकिन शरीर की यह सेवा अपना मोह पुष्ट करने के लिए नहीं करते किन्तु इस शरीर को सेवक समझ कर इस शरीर से कुछ अपने आत्मा की नौकरी लेना है, कुछ आत्मा का हित करना है, केवल इस हितभाव से शरीर की सेवा करते है।
शरीर की अस्वस्थता - यह शरीर ममत्व के लायक नही है, यह अपने से अत्यन्त भिन्न स्वभाव वाला है। मै चेतन हूं, यह शरीर अचेतन है, इसको जो आपा मानता है उसी को तो बहिरात्मा कहते है। जो पुरूष इस शरीर को और आत्मा को एक मानता हे वह अज्ञानी है। कितने शरीर पाये इस जीव ने ? अनन्त। सबको छोड़कर आना पड़ा। उसी तरह का तो यह शरीर हैं। कितने समय तक रहेगा शरीर? आखिर इसे भी छोड़कर जाना होगा। जिसका इतना मोह कर रहे है यह शरीर कुटुम्बियो द्वारा, मित्रजनों द्वारा जला दिया जायगा। इसको क्या अपना मानना? क्या इस शरीर की सेवा करना? अपने अंतर में सावधानी बनाये रहो कि मै शरीर नही हूँ यह मूढ जीव ही इस शरीर को अपना बनाए फिरता है।
मूढ का गृह - घर का नाम है गृह । गृह उसे कहते है जो ग्रह ले, पकडले या जो ग्रहा जाय पकड़ा जाये। यह मोही जीव जिसको पकड़कर रह उसका नाम गृह हे। आप जिस घर के है कुछ कामवश घर छोडकर 10 साल भी बाहर रहे तो भी जब सुध आती है तो आप फिर अपने घर आ जायेंगे उसी का नाम घर है। ऐसे ही गृहणी है। गृह और गृहणी ये दानो जकड़ी जाने वाली चीजें है। प्रयोजनवश कितना भी दूर रह जायें पर गृह और गृहिणी यें दोनो नही छूटते है। किन्तु विरक्त ज्ञानी हो तो ये छूटते है, इस जीव का ज्ञानानन्दस्वरूप है, किन्तु मोही जीव विकट जकड़ा हुआ है इस गृह से। इस गृह को मूर्ख जीव मानते है कि यह मेरा है। घर तो इस आत्मा के साथ एक क्षेत्रावगाही भी नही है घर तो प्रकट अचेतन घर को भी यह मोही जीव अपना मानता है। कभी यह जिज्ञासा हो सकती है तो फिर क्या करे। क्या घर छोड़ दे। अरे भैया। छोडो अथवा न छोडा - छोड दो तो भी कुछ संकट नही है और न छोड़ सको कुछ काल तो भी कुछ मिथ्यात्व नही आ गया है, लेकिन सत्य बात जो है उसका प्रकाश तो रहना चाहिए। यह घर मेरा कुछ नही है।
धन - धन की भी निराली बात है। धन में परिजन को छोड़कर सब कुछ आ गये। सोना चाँदी, रूपया पैसा, गाय-भैस सभी चीजें आ गयी। ये सब भी प्रकट जुदे है। लेकिन कल्पना में ऐसे बसे हुए है कि ज्ञानप्रकाश के लिए भी कुछ ख्याल नही आता । छोडने की बात तो दूर रहो, पर किसी समय कुछ हिचकता भी नही धन की कल्पना करने मे, इस धन से भिन्न अपने को यह मोही नही मान पाता है।
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स्त्री - यह भी एक भिन्न जीव है, सबके अपने-अपने कर्म है सबके अपने-अपने कषाय है! कषाय से कषाय मिल रही है इस कारण परस्पर में प्रेम है। जिस घर को पुरूष आबाद रखना चाहता है उस ही घर को स्त्री भी आबाद रखना चाहती है, एक सी कषाय मिल गयी और उसके प्रसंग में प्रत्येक बात में भी प्रायः एक सी कषाय मिल गयी है। जब दोनो उद्देश्य एक हो जाते है तो कषाय अनुकूल हो ही जाती है। किसी एक काम को मिलजुल कर करने की धुन बन जाय 5 आदमियो की भी तो उन पाँचो की इच्छा कषाय एक सी अनुकूल हो जायगी और फिर उस अनुकूलता में एक दूसरे के लिए श्रम करते रहेगे।
दार, भार्या, कलत्र - यहाँ स्त्री को दारा शब्द से कहा गया है। हिदीं में लोग दारीदारी कहा करते है। गाली के रूप में यह शब्द बोला जाता है। यह रिवाज यहाँ चाहे न हो पर देहातो में अधिक है। दारा का अर्थ है दारयति भ्रातृन् इति दारा, जो भाई-भाई को लड़ाकर जुदा कर दे। स्त्री का नाम दारा भी है। उस शब्द में ही यह अर्थ भरा है। यद्यपि यह रिवाज हो गया है कि बड़े हो गए तो अब जुदे-जुदे होना चाहिए, मगर बड़े हो जाने से जुदा कोई नही होता। विवाह होने से स्त्री होने से फिर जुदेपन की बात मन में आती है तो उस जुदेपन के होने का कारण स्त्री है ना इसलिए उसका नाम दारा रक्खा गया है। स्त्री का भार्या भी नाम है। जो अपनी जिम्मेदारी समझकर घर को निभाये उसे भार्या कहते है। कलत्र भी कहते है। कल कहते है शरीर को और त्र मायने है रक्षा करने वाला। पति के शरीर की रक्षा करे, पुत्र के शरीर की रक्षा करे और खाना देकर सभी के शरीर की रक्षा करती है इसलिए उसका नाम कलत्र है, इसे यह मूढ जीव अपना मानता है।
स्त्री की पति से विविक्ता - स्त्रीजन पुरूषो के विषय में सोच लों कि वे पति को अपना समझती है व्यवहार में चूँकि एक उद्देश्य बना है और कषाये मिल रही है इस कारण मिल जुलकर रहा करती है तिस पर भी ऐसा नही है कि पुरूष की इच्छा से स्त्री काम करती हो, स्त्री की इच्छा से पुरूष काम करता हो, यह त्रिकाल हो ही नही सकता है। सब अपनी-अपनी अच्छाव से अपना अपना काम करते है। मिलजुल गयी इच्छा और कषाय, पर प्रेरणा सबको अपनी-अपनी इच्छा की ही मिली हुई है, ये मोही जीव ऐसे परजनो को अपना मानते है।
पुत्र - व्यामोही पुरुष को अपना मानते है। पुत्र किसे कहते है? जो कुल को बढ़ाये पवित्र करे। इस आत्मा का वंश है चैतन्यस्वरूप। इस चैतन्यस्वरूप को पवित्र करने वाला, वृद्विगंत करने वाला तो यह ज्ञानपरिणत स्वंय का आत्मा हे इसलिए यह मेरा तत्व ज्ञान ही वस्तुः मेरा पुत्र है जो चैतन्य कुल को पवित्र करे। यहाँ कौन सा कुल अपना है? आज इस घर में पैदा हुए है तो इस घर के उत्तरोतर अधिकारी बनते जायें ऐसा कुल मान लेते है पर यहाँ के मरे कहाँ पहुँचे 343 घनराजू प्रमाण लोक में न जाने कहाँ-कहाँ जन्म हो जाय, क्या रहा फिर यहाँ का समागम? सब मोह की बातें है। पुत्र का दूसरा नाम है सुत। सुत उसे कहते है जो उत्पन्न हो, इसी से सूतक शब्द बना है। कही ऐसी प्रथा है कि जन्म के
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10 दिनो को सौर कहते है और मरे के 12 दिनो को सूतक के दिन कहते है, मगर सूतक नाम उत्पन्न होने का है, जन्म में कहते है सूतक और मरने में कहते पातक। किसी के यहाँ बच्चा पैदा हुआ हो और जाकर कह दो कि अभी इनके यहाँ सूतक है तो वह बुरा मान जाता है, वह सोचेगा कि हमारे घर में किसी का मरना सोचते है क्योकि मरे पर सूतक कहने का रिवाज हो गया है। पर ऐसा नही मरे को पातक और पैदा होने को सूतक कहते हे। चाहे कुपूत हो, चाहे सुपूत हो सब सुत कहलाते है।
लौकिक मित्र संसार के दोस्तों की बात देख लो एक कहावत है कि आप डूबते पाड़े तो डूबैं जजमान । गिरते हुए को एक धक्का लगा देते है ऐसी परिभाषा है दोस्तो की। कोई यह घटाते है कि जो दोस्त होते है वे अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए दोस्त होते है, ठीक है, यह भी अर्थ है पर अध्यात्म में यह अर्थ लेना कि जो जिगड़ी मित्र है, हार्दिक मित्र है, निष्कपट है, संसार की दृष्टि में वह बिल्कुल स्वच्छ हृदय का है तो भी सिवाय मोहर्गत में गिराने के और करेगा क्या वह ? मित्र लोग विषयो के साधन जुटाने के लिए, संसार के गुड्ढो में गिराने के लिए, संसार के संकटो में भटकाने के लिए होते है । परमाथ से तो अपने मित्र है देव शास्त्र और गुरू । देव, शास्त्र, गुरू के सिवाय दुनिया में कुछ मित्र नही है। जैसे मित्र जन प्रसन्न हो गए तो क्या करा देगे? ज्यादा से ज्यादा दुकान करा देगे, विवाह करा देगें, तृष्णा की बाते लगा देगे । चाहिए तो वही पाव डेढ पाव अन्न और दो मोटे कपडे और तृष्णा ऐसी बढ जायगी कि जिसका अंत ही नही आता । कितने ही मकान बन जाये, कितना ही धन जुड़ जाय, कितने ही धन आने के जरिये ठीक हो जाये तिसपर भी तृष्णा का अंत नही आता । कभी यह नही ख्याल आता कि जो भी मिला है वही आवश्यकता से अधिक है। तो मोह में मित्र जन क्या करेगे; तृष्णा बढाने का काम करते है और संसार के गड्ढे में गिराते है । यह मूढ जीव मित्र को भी अपना मानता
है ।
शत्रु यह व्यामोही शत्रु को भी अपना मानता है । दखिये विचित्रता कि यह अज्ञानी प्राणी शत्रु का ध्वंस करना चाहता है। शत्रु इसके लिये अनिष्ट बन रहा है, किन्तु मिथ्यात्व भाव की परिणति कैसी है कि शत्रु के प्रति भी यह मेरा शत्रु है, इस प्रकार अपनत्व को जोडता है। शत्रु को मिटाने के लिये अपनत्व को जोड़ रहा है। हद हो गई मिथ्यात्व की । यह मोही जीव मोह की बेहोशी में यह मेरा शत्रु है ऐसा मानता है ।
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मोह में भूल भैया ! मोह के उदय में यही होता है। अपने स्वरूप को भूलकर अपने भले बुरे का कुछ भी विवेक न रखकर बाहरी पदाथो मे अपनी तलाश करते है, मै कौन हूं, मेरा क्या स्वरूप है, मुझे क्या करना चाहिए? जिन समागमो में पड़े हुए हो उन समागमो से, परपदार्थों से तुम्हारा कुछ सम्बधं भी है क्या ? किसी की भी चिंता नही करता है। ये सभी पदार्थ मेरी आत्मा से भिन्न है। इन पदार्थो में से किस पदार्थ में झुककर शांति हासिल कर ली तो बतावो ? पर के झुकाव में शान्ति हो ही नही सकती, क्योकि परकी और झुकाव होना यह साक्षात् अशान्ति का कारण है। ये सर्व भिन्न स्वभाव वाले है फिर इन्हे मै क्यो अपना मान रहा हूं ऐसी चित्त में ठेस इस जीव के मोह में हो नही पाती है। क्योकि
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इसने अपने इस शरीर पर्याय को ही आपा मान लिया है। जब मूल में ही भूल हो गयी तो अब जितना भी यह अपने गुजारे का विस्तार बनायेगा वह सब उल्टा ही विस्तार बनेगा। भूल पर भूल देह को ही जीव आत्मा समझते है, उनके उपयोग का जितना विस्तार बढ़ेगा वह सब कुमार्ग का विस्तार बढेगा। घर मे रसोई में चावल शाक आदि बनाने की जो भगोनी है, पतेली है वे किसी कोने मे दस पाँच इकट्ठी लगानी है तो चूँकि जगह कम घिरे इसलिए एक के ऊपर एक क्रम से लगाते है । तो नीचे की पतेली यदि औंधी कर दी है तो ऊपर जितनी भी पतेली रखी जावेंगी वे सब औंधी ही रखी जा सकेगी, सीधी नही, और नीचे की पतेली यदि सीधी रखी है तो ऊपर की सभी पतेली सीधी ही रखी जा सकेगी, औधी नही । यो ही प्रारम्भ में उपयोग यदि सही है तो विकार विस्तार भी सही रहेगा और मेल मे ही यदि भूल कर दी तो अब जितने भी विकार होगे, श्रम होगे वे सब उल्टे ही उल्टे हो जायेगे। यह मूढ पर्याय व्यामोह के वश हुआ इन समस्त पदार्थो को अपना मानता है। ये सब विडम्बनाएँ इस निज आत्मास्वरूप को न जानने के कारण I
दिग्देशेभ्यः खगा एत्य संवसंति नगे नगे ।
स्वस्वकार्य वशाद्यांति देशे दिक्षु प्रगे प्रगे | 19 ।।
क्षण संयोग का पक्षियो के दृष्टान्तपूर्वक समर्थन - जैसे पक्षीगण नाना देशो से उड़ करके शाम के समय पेड़ पर बैठ जाते है, रात्रिभर वहाँ बसते है, फिर वे अपने-अपने कार्य के वश से अपने कार्य के लिए प्रभात होते ही चले जाते है इस ही प्रकार ये संसार के प्राणी, हम और आप अपने-अपने कर्मोदय के वश से नाना गतियो से आकर एक स्थान पर, एक स्थान पर, एक घर में इकट्ठे हुए है, कुछ समय को इकट्ठे होकर रहते है, पश्चात् जैसी करनी है, जैसा उदय है उसके अनुसार भिन्न भिन्न गतियो में चले जाते है।
क्षण संयोग पर यात्रियो पर यात्रियो का दृष्टान्त ऐसी स्थिति है इस संसार की जैसे यात्रीगण किसी चौराहे पर को किसी दिशा से आकर कोई किसी दिशा से आकर मेले हो जायें तो वे कितने समय को मेले रहते है। बस थोडी कुशल-क्षेम पूछी, राम-राम किया, फिर तुरन्त ही अपना रास्ता नाप लेते है। ऐसे ही भिन्न भिन्न गतियो से हम और आप आये है, एक महल में जुड़ गये है, कोई कही से आया कोई कही से, कुछ समय को इकट्ठे है जितने समय का संयोग है उतना समय भी क्या समय है? इस अतन्तकाल के सामने इतना समय न कुछ समय है। ऐसे कुछ समय रहकर फिर बिछुड जाना है फिर किसी से राग करने में क्या हित है?
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क्षण भंगुर जीवन में वास्तविक कर्तव्य भैया ! थोड़े अपने जीवन में भी देख लो । जो समय अब तक गुजर गया है सुख में, मौज में वह समय आज भी ऐसा लग रहा कि कैसे गुजर गया? सारा समय यों निकल गया कि कुछ पता ही नही पड़ा। तो रही सही जिन्दगी यों ही निकल जायगी कि कुछ पता ही न रहेगा। ऐसी परिस्थिति में हम औश्र आपका कर्तव्य क्या है? क्या धन के मोह मे; परिवार के मोह में पड़े रहना ही अपने मोह रखत है कि यह बहुत जुड़ जाय तो हम दुनिया के बीच में कुछ बड़े कहलाएं। अरे पर
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वस्तु के संचय कोई बड़ा नहीं कहलाता है। मान लो क इस अज्ञानमय दुनिया ने थोड़ा बड़ा कह दिया, पर करनी है खोटी कर्म बंध होता है खोटा, तो मरने के बाद एकदम कीड़ा हो गया, पेड़ बन गया तो अब कहां बड़पप्न रहा अथवा बड़प्पन तो इस जीवन में भी नही है । काहे के लिए धन का मोह करना, उससे शान्ति और संतोष नही मिलता और किसलिए परिजन से मोह करना? कौन सा पुरूष अथवा स्त्री कुटुम्बी हमारा सहायक हो सकता है? सबका अपना अपना भाग्य है, सबकी अपनी अपनी करनी है, जुदी जुदी कषाये है, सब अपने ही सुख तन्मय रहते है। परिजन में भी क्या मोह करना? ठीक स्वरूप का भान करलें यही वास्तविक कर्तव्य है ।
संसार में संयोग वियोग की रीति गृहस्थी में जो कर्तव्य है ऐसे गृहस्थी के कार्य करे, पर ज्ञानप्रकाश तो यथार्थ होना चाहिए । यह दुनिया ऐसी आनी - जानी की चीज है । जैसा एक अंलकार में कथन है जब पत्ता पेड़ से टूटता है तो उस समय पत्ता पेड़ से कहता है पत्ता पूछे वृक्ष से कहो वृक्ष बनराय । अबके बिछुड़े कब मिले दूर पड़ेगे जाये ।। पत्ता पूछता है कि है वृक्षराज ! अब हम आपसे बिछुड रहे है अब कब मिलेगे? तब वृक्ष यो बोलियो सुन पत्ता एक बात । या घर याही रीति है इक आवत इक जात ।। पेड़ कहता है कि ऐ पत्ते! इस संसार की यही रीति है कि एक आता है और एक जाता है। तुम गिर रहे हो तो नये पत्ते आ जायेगें। ऐसा ही यहाँ का संयोग है, कोई आता है कोई बिछुड़ता है। जो आता है वह अवश्य बिछुड़ता है।
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तृष्णा का गोरखधंधा
भैया ! बडा गोरखधंधा है यहाँ का रहना । मन नही मानता है, इस दुनिया मे अपनी पोजीशन बढ़ाना, और बाह्रा में दृष्टि देना, इससे तो आत्मा का सारा बिगाड़ हो रहा है, न धर्म रहे, न संतोष से रहे, न सुख रहे। तृष्णा के वश होकर जो सम्पदा पास में है उसका भी सुख नही लूट सकते। जो कुछ उसमें अच्छी प्रकार से तो गुजारा चला जा रहा है, सब ठीक है, पर अपने चित्त मे यदि तृष्ण हो जाए तो वर्तमान में जो कुछ है उसका भी सुख नही मिल पाता। इस संसार के समागम में कहीं भी सार नही
है।
सचेतन संग का कड़ा उत्तर - और भी देखो कि अचेतन पदार्थ कितने ही सुहावने हो, किन्तु अचेतन पदार्थ कुछ उसे मोह पैदा कराने की चेष्टा नही करते है, क्योकि वे न बोलना जानते है, न उनमें कोई ऐसा कार्य होता है जो उसके मोह की वृद्धि के कारण बने । ये चेतन पदार्थ मित्र, स्त्री आदि ऐसी चेष्टा दिखाते है, ऐसा स्नेह जताते है कि कोई विरक्त भी हो रहा हो तो भी आत्मकार्य से विमुख होकर उनके स्नेह में आ जाता है। तब जानो कि ये चेतन परिग्रह एक विकट परिग्रह है, ये सब जीव नाना दिशावो से आये है, नाना गतियों से चले जायेगे। इन पाये हुए समागमों में हित का विश्वास नही करना है । मेरा हित हो सकता है तो यथार्थ ज्ञान से ही हो सकता है । सम्यग्ज्ञान के बिना कितने भी यत्न कर लो संतोष व शान्ति प्रकट न हो सकेगीं। यहाँ रहकर जो इष्ट पदार्थ मिले है उनमें हर्ष मत मानो, और कभी अनिष्ट पदार्थ मिलते है तो उनमें द्वेष मत मानो ।
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अपने बचाव का कर्तव्य - भैया ! ये इष्ट अनिष्ट पदार्थ तो न रहेगें साथ, किन्तु जो हर्ष और विषाद किया है उसका संस्कार इसके साथ रहेगा, अभी और परभव में क्लेश पैदा करेगा। इस कारण इष्ट वस्तु पर राग मत करो और जो कोई अनिष्ट पदार्थ है उनसे व जो प्राणी विराधक है, अपमान करने वाले है या अपना घात करने वाले है, बरबादी करने वाले है, ऐसे प्राणियो से भी अन्तर में द्वेष मत करो। बचाव करना भले ही किन्ही परिस्थितियों में आवश्यक हो, पर अंतरंग में द्वेष मत लावो। मेरे लिए कोई जीव मुझे बुरा नही करता है क्योकि कोई कुछ मुझे कर ही नही सकता है। कोई दुष्ट भी हो तो वह अपन परिणाम भर ही तो बनायेगा, मेरा क्या करेगा ? मै ही अपने परिणामों से जब खोटा बनता हूँ तो मेरे को मुझसे ही नुक्सान पहुंचता है तो इष्ट पदार्थ में न राग करो और न अनिष्ट पदार्थ में द्वेष करो।
विराधकः कथं हन्त्रे जनाय परिकुप्यति।
त्रयंगुलं पातयन् पद्भ्यां स्वयं दण्डेन पात्यते।।10।। प्रत्ययकारी पर क्रोध करने की व्यर्थता - कोई पुरूष किसी दूसरे का घात करना चाहता हो, सताता हो या घात किया हो तो वह जीव भी किसी न किसी समय सतायेगा, बदला लेगा। जब कोई सता रहा हो तब यह सोचना चाहिए मैने इसे सताया होगा, क्लेश पहुँचाया होगा पहिले तो यह प्रतिकार कर रहा है, इस पर क्या क्रोध करना? जैसा मैने किया तैसा इसके द्वारा मुझे मिल रहा है। जैसे कोई पुरूष भूसा काठ या लोहे के बने हुए तिरंगुल से समेटते है, उसमे तीन अंगुलियां सी बनी होती है? उसके चलाने पर चलाने वाला आदमी भी झुक जाता है। वह तिरंगुल चलाने वाला जब भ्जुस समेटता है तो जमीन पर वह अपने पैर भी चलाता जाता है। यदि वह दोनो पैरो से चलावे तो एकदम लट्ठकी तरह गिर जावेगा। उदाहरण में यह बात कही गयी है। कि जो दूसरे को मारता है वह भी उस दूसरे के द्वारा कभी मारा जाता है, जो दूसरे को सताता है वह भी कभी उस दूसरे के द्वारा सताया जाता है। जब कोई सताये तो यह सोचना चाहिए कि इस पर क्या क्रोध करना, मैने ही किसी समय में इसका बुरा किया है। कर्म बंध किया है उसके हृदय में यह घटना आ गयी है। इसमें दूसरे पर क्या क्रोध करना है?
रोष और द्वेष भावनामें बरबादी - इस दृष्टान्त में दूसरी बात यह भी जानना कि भुस को समटने वाला तो तिरंगुल होता है, उसे चलाते है और साथ ही पैर घसीटते है ताकि भुस आसानी से इकट्ठा हो जाय। कोई पुरूष एक पैर से तिरंगुल ढकेलता है और कोई पुरूष दोनो पैरों से ढकेले तो वह पुरूष ही गिर जायगा, ऐसे ही जो पुरूष तीव्र कषाय करके किसी दूसरे पुरूष का घात करता है, अपमान करता है, सताता है तो वह पुरूष ही स्वयं अपमानित होगा और कभी विशेष क्लेश पायगा। इस कारण अपने मन बिल्कुल स्वच्छ रखने चाहिए। किसी का बुरा न सोचा जाय, सब सुखी रहे। जो पुरूष सबके सुखी होनेकी भावना करेगा वह सुख रहेगा और जो पुरूष दूसरे की दुः,खी होने की भावना करता है वह चूंकि संक्लेश परिणाम बिना कोई दूसरेके दुःखी होने की सोच नही
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सकता, सो जिस समय दूसरे को दू:खी होना सोचेगा वह दूसरो के प्रति सोचकर अपने व्यग्रता बढ़ा रहा है।
____ अपकार में प्रत्ययकार की प्राकृतिकता - लोक मे जो पुरूष दूसरे को सुख पहुँचाता है दूसरे भी उसे सुख पहुँचाते है। अभी यहाँ ही देख लो- किसी से विनय के वचन बोलो तो दूसरे से भी इज्जत मिलेगी और खुद टेढे कठोर वचन बोलेगे, तो दूसरो से भी वैसे ही वचन सुनने को मिलते है, वैसा ही व्यवहार देखने को मिलता है। तो जब यह सुनिश्चित है कि हम जैसा दूसरे के प्रति सोचेगे, वैसा ही मुझे होगा, तब अपकार करने वाले मनुष्य का बदले में कोई में कोई दूसरा अपकार कर रहा है तो उस पर क्रोध करना व्यर्थ है। जो किया है सो भोगा जा रहा है। अब यदि उस पर क्रोध करते है तो एक भूल और बढ़ाते है। पूर्व काल में भूल किया था उसका फल तो आज भोग रहे है और उसी भूल को अब फिर दुहरायेगे तो भविष्य में फिर दुःख भोगना पड़ेगा। अब कोई पुरूष अपकार करता हो, अपनी किसी प्रकार की बरबादी में कारण बन रहा हो तो यह सोचना चाहिए कि यह पुरूष जो मेरा उपकार कर रहा है बुरा कर रहा है, अथवा मेरी किसी विपत्ति के ढोने में सहायक हो रहा है तो उसने जो कुछ इसके बुरा किया था उसका यह बदला दे रहा है। उसे इस पर रूष्ट होने की क्या आवश्यकता है?
करणीय विवेक - भैया! तत्वज्ञानमें अपूर्व आनन्द है, अपूर्व शान्ति है। कोई तत्व ज्ञान के ढिग न जाये और शान्ति चाहे तो यह कभी हो नहीं सकता कि शान्ति प्राप्त हो। इससे जो अपना बुरा कर रहा हो उसके प्रति यही सोचना चाहिए या हिम्मत हो ऐसी तो ऐसा काम करें जिससे ऐसा बदला लिया जा सके जो वह जीवन भर भी श्रम करता रहे, वह बदला है भलाई करनेका, कोई पुरूष अपना अपकार करता है तो हम उसकी भलाई करे, वह पुरूष स्वयं लज्जित होगा और आपकी सेवा जीवन भर करेगा, ऐहसान मानेगा। बुरा करने वाले के प्रति हम भी बुराई की बात करने लगे, कोई अपने पर किसी तरह विपदा ढाता है तो हम भी उसपर विपदा ढाने लगें तो इससे शांति का समय न मिल सकेगा, विरोध ही बढेगा, अशान्ति ही बढेगी। इससे अपकार करने वाले का बहुत तगड़ा बदला यह है कि उसका भला कर दे तो वह जीवनभर अनुरागी रहेगा और किसी समय बहुत काम आयेगा।
मानवता के अपरित्याग में कल्याण - भैया ! बुरा करने वाले के प्रति खुद बुरा करने लगें तो उसमें लाभ नही है सज्जनता भी नहीं है, बड़प्पन भी नही है। वहाँ तो ऐसी स्थिति हो जायगी, जैसे पुराणो में एक घटना आयी है कि कोई साधु जंगल में नदी के किनारे किसी शिलापर रोज तपस्या किया जाता था। साधु चर्याविधि से आहार के समय किसी निकट के गाँव चला जाता था और आहार लेकर लौटने पर उसी शिलापर तपस्या करता था। वह शिला बहुत अच्छी थी। एक दिन साधु के आने के पहिले एक धोबी आकर उसपर कपड़े धोने लगा। साधु ने देखा कि धोबी उस शिलापर कपडे धो रहा है, सो कहा कि यहाँ से तुम चले जावो, अन्य जगह कपड़े धोलो, यह शिला हमारे तपस्या करने की है। धोबी ने कहा – महाराज तपस्या तो किसी भी जगह बैठकर की जा सकती है, पर कपड़े
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धोने के लिए तो यह ही शिला ठीक है। आखिर दोनो में बात बढी। साधु ने धोबी के दो तमाचे मार दिये। धोबी को भी गुस्सा आया तो उसने भी मार दिया। अब वे दोनो बहुत जूझ गये तो धोबी के दो तमाचे मार दिये। धोबी को भी गुस्सा आया तो उसने भी मार दिया। अब वे दोनो बहुत जूझ गये तो धोबी पहिने था तहमद, सो वह छूट गया, अब दोनो नग्न हो गए ।अब तो दोना एक से ही लग रहे थे। बहुत विवाद के बाद वह साधु ऊपर को निगाह करके कहने लगा कि अरे देवताओ, तुम्हे कुछ खबर नही है कि साधु के ऊपर संकट आ रहा है? तो आकाश से आवाज आयी की महाराज देवता तो सब र्धमात्मावो की रक्षा करने को उत्सुक है, पर हम सब लोग इस संदेह में पड़ गए है कि इन दोनो में साधु कौन है और धोबी कौन है? एक सी दोनो के कषाय है, एकसी लडाई है, एक एसी गाली-गलौज है तो उसमें कैसे निपटारा हो कि अमुक साधु है और अमुक धोबी है।
सन्मार्ग का सहारा - भैया ! बुरा करने वाले का बुरा करने लग जाना यह कोई अच्छा प्रतिकार नही है। सज्जनता तो इसमें है कि कुछ परवाह न करो कि कोई मेरा क्या सोचता है, तुम सबका भला ही सोच लो। एक यही काम करके देख लो। किसी का बुरा करने में तो खुद को भी संक्लेश करना पडेगा। तब बुरा सोच सकते है। जैसे किसी को गाली देना है तो अपने आपमें यह भाव लाना पडेगा कि गाली दे सके। और किसी को सम्मान भरी बात कहना है तो उसमें शान्ति से बात कर सकते हो। इससे यह निर्णय रक्खो कि हमारा कर्तव्य यह है कि हम सब जीवो के प्रति उनके सुखी होने की भावना कर, इसमें ही हमें सन्मार्ग प्राप्त हो सकेगा।
रागद्वेषद्वयीदीर्घनेताकर्षणा कर्मणा
अज्ञानात्सुचिरं जीवः संसाराब्धौ भ्रमत्यसौ।।11।। रागद्वेषवश मन्थन - यह जीव रागद्वेषरूपी दोनो लम्बी नेतनियो के आकर्षण के द्वारा संसार समुद्र में अज्ञान से घूम रहा है। दही मथने वाली जो मथानी होती है उसमें जो डोरी लिपटी रहती है तो उस डोरी को नेतनी कहते हैं। उस नेतनी के आकर्षण की क्रिया से, जैसे मथानी मटकी में बहुत घूमती रहती है इसी प्रकार रागद्वेष ये दो तो डोरिया लगी हुई है, इन दो डोरियो के बीच में जीव पड़ा है। यह जीव मथानी की तरह इस संसार सागर में भ्रमण कर रहा है। देहादिक परपदार्थो में अज्ञान के कारण इस जीव को राग और द्वेष होता है, इष्ट पदार्था में तो प्रेम और अनिष्ट पदार्थो में द्वेष, सो इन रागद्वेषो के कारण चिरकाल तक संसार में घूमता है। जिस राग से दुःख है उस ही राग से यह जीव लिपटा चला जा रहा है।
रागद्वेष का क्लेश - भैया! परवस्तु के राग से ही क्लेश है। आखिर ये समस्त परवस्तु यहाँ के यहाँ ही रह जाते है। परका कोई भी अंश इस जीव के साथ नही लगेगा, लेकिन जिस राग से जीवन भर दुःखी हो रहा है और परभव मे भी दुःखी होगा उसी राग को यह जीव अपनाए चला जा रहा है, उसका आकर्षण बना है, कैसा मेरा सुन्दर परिवार, कैसी भली स्त्री, कैसे भले पुत्र, कैसे भले मित्र सबकी और आकर्षण अज्ञान में हुआ करता
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है। मिलता कुछ नही वहाँ, बल्कि श्रद्वा, चरित्र, शक्ति, ज्ञान सभी की बरबादी है, लेकिन राग बिना इस जीव को चैन ही नही पड़ती है। ऐसी ही द्वेष की बात है। जगतके सभी जीव एक समान है और सभी जीव केवल अपना ही अपना परिणमन कर पाते है तब फिर शत्रुता के लायक तो कोई जीव ही नही है। किससे दुश्मनी करनी है? सबका ही अपना जैसा स्वरूप है। कौन शत्रु, लेकिन अज्ञान में अपने कल्पित विषयो में बाधा जिनके निमित्त से हुई है उन्हें यह शत्रु मान लेता है। सो राग और द्वेष इन दोनो से यह जीव खिचां चला जा रहा है।
रागद्वेष के चढ़ाव उतार - जैसे बहुत बड़ी झूलने की पलकियां होती है, मेले में उन पर बैठकर लोग झूलते है। बम्बई जैसे शहरो में बिजली से चले वाली बहुत बड़ी पलकियाँ होती है। बालक लोग शौक से उस पर बैठते है। पर जैसे पलकियाँ चढ़ती है तो भय लगता है और जब ऊपर चढ़कर गिरती है तब और भी अधिक भय लगता है। भय भी सहते जाते है और उस पर शौक से बैठते भी जाते है। ऐसे ही ये राग और द्वेष के चढ़ाव उतार इस जीव के साथ लगे है जिसमें अनेको संकट आते रहते है, उन्हे सहते जाते है, दुःखी होते जाते है, किन्तु उन्हें त्याग नही सकते है। भरत और बाहुबलि जैसी बात तो एक विचित्र ही घटना है, न यहाँ भरत रहे और न बाहुबलि रहे परन्तु जिस जमाने में उनका युद्व चला उस जमाने में तो वे भी संकट काटते रहे होगें। कौरव और पाण्डव का महाभारत देखो। महाभारत का युद्ध हुआ था उस समय तो दुनिया में मानो प्रलय सा छा गया होगा, ऐसा संकट था। न कौरव रहे न पाडंव। पुराण पुरूषो ने भी बड़े बड़े वैभव भोगे, युद्व किया, अंत में कोई विरक्त होकर अलग हुए, कोई संक्लेश में मरकर अलग हुए। जिनका संयोग हुआ है उनका वियोग अवश्य होता है, परन्तु ये मोही जीव अज्ञान में इन बाहृा वस्तुओ को अपना सर्वस्व मानते है, जीव राग और द्वेष में व्यग्र रहते है वे अनन्तकाल तक जन्म मरण के कष्ट उठाते रहते है।
राग और द्वेष का परस्पर सहयोग - राग और द्वेष ये दोनो परस्पर सहयोगी है। जैसे मंथानी में जो डोर लगी रहती है उनके दोनो छोरं परस्पर सहयोगी है, एक छोर अपना काम न करे तो दूसरा छोर अपना काम नही कर सकता है। एक और खिचंता है तब एक दूसरा छोर मंथानी की और खिंच जाता है। जैसे मंथानी की रस्सी में दोनो छोरो का परस्पर सहयोग है ऐसे ही राग और द्वेष का मानो परस्पर सहयोग है। किसी वस्तु का राग है तो उस वस्तु के बाधक के प्रति द्वेष है। किसी बाधक के प्रति द्वेष है तो उसके बाधक के प्रति राग है । ये राग और द्वेष भी परस्पर में एक दूसरे के किसी भी प्रकार का सहयोग दे रहे है। द्वेष के बिना राग नही रहता है और राग के बिना द्वेष भी नही रहता है। किसी वस्तु में राग होगा तभी अन्य किसी से द्वेष होगा। और अध्यात्म में यही देख लो जिसका ज्ञान और वैराग्य से द्वेष है। यों यह तो अध्यात्म की बात है। इस प्रकरणमें तो लौकिक चर्चा है।
सर्व दोषो का मूल - यह जीव राग द्वेष के वश होकर इस संसार समुद्र में गोते खा रहा है। जहाँ राग हो वहाँ द्वेष नियम से होता है। जिसे धन वैभव में राग है उसमें
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कोई दूसरा बाधक हो गया तो उसको द्वेषी मान लिया। जिसका जो लक्ष्य है उस लक्ष्य में जा बाधक पड़े वही उसका द्वेषी बन जाता है। साधुंसत कही बिहार करते जा रहे हो तो शिकारी उन साधुवो को देखकर साधुवो पर द्वेष करता है, आज तो बड़ा असगुन हुआ, शिकार नही मिलने का है। तो जिसका जो लक्ष्य है उस लक्ष्य में बाधक पड़े उसी से लोग द्वेष करने लगते है। जहां ये राग और द्वेष दोनो होते है वहां यह मन अत्यन्त बेकार हो जाता है। जो मनुष्य यह दावा करता है कि हमारा तो सबसे प्रेम है, किसी से द्वेष नही है, यह उनकी भ्रम भरी कल्पना है। प्रेम और द्वेष ये दोनो साथ साथ चलते है। किसी में राग नही रहा तो द्वेष हो गया। यह मेरा है और यह दूसरे का है ऐसा जहाँ रागद्वेष दोनों रहते है वहाँ अन्य दोष तो अनायास आ ही जाते है क्योंकि सारे ऐंबो का कारण राग और द्वेष
है।
भ्रमण चक्र - यह रागद्वेष की परम्परा इस जीव को संसार मे भ्रमण करा रही है। जो जीव संसार में घूमता रहता है उसके रागद्वेष की उन्नति होती रहती है और उसके द्वारा शुभ अशुभ कर्मो का आस्रव हातो रहता है। अशुभ कर्म जो करेगा उसे दुर्गति मिलेगी, जो शुभ कर्म करेगा उसे सुगति मिलेगी। देखते जाइए चक्कर। रागद्वेष परिणामो से कर्म बँधे, कर्मो से गति अथवा सुगति मिली, और कोई भी गति मिलेगी उसमें देह मिला, देह से इन्द्रियाँ हुई, और इन्द्रियाँ से विषयो का ग्रहण किया और विषयो के ग्रहण से राग और द्वेष हुआ। उसी जगह आ जाइये। अब रागद्वेष से कर्म बँधा, कर्म से गति सुगति हुई, वहाँ देह मिला, देह से इन्द्रियाँ हुई, इन्द्रियाँ से विषय किया, विषयो से रागद्वेष हुआ यो यह चक्र इस जीव के चलता ही रहता है। जैसे अपने ही जीवन में देख लो- जो कल किया सो आज किया, आज किया सो कल करेगे, इससे विलक्षण अपूर्व काम कुछ नही कर पाता यह जीव।
अपूर्व कार्य - भैया! इन चिरपरिचित विषयो से विलक्षण आत्मकार्य कर ले कोई तो वह धन्य है। अपनी 24 घंटे की चर्चा देख लो। पंचन्द्रिय के विषयो का सेवन किया और मन के यश अपयश, इज्जत प्रतिष्ठा सम्बंधी कल्पनाएँ बनायी, जो काम कल किया से आज किया, रात भर सोये, सुबह उठे, दिन चढ़ गया, भोजन किया, कुछ इतर फुलेल लगाया दूकान गए, काम किया, भोजन किया, फिर वही का वही काम। जो चक्र इन्द्रिय और मन सम्बंधी लगा आया है वही लगता जा रहा है, कोई नया काम नही किया। यह जीव रागवश इन्ही में अपना काम समझता है, पर नया कुछ नही किया। नया तो एक आत्म-कल्याण का काम है, अन्य काम तो और भवो में भी किया। मनुष्य भव में विषय सेवन से अतिरिक्त कौन सा नया काम किया? वही विषयो का सेवन, वही विषयो की बात । यो खावों, यो रहो ऐसा भोगो, ऐसा धन कमावो, सारी वही बाते है कुछ भी तो नया काम नही हुआ। और सम्भव है कि पहिले आकुलता कम थी अब ज्यादा वैभव हो गया तो ज्यादा आकुलता हो गयी। जब कम वैभव होता तो बड़ा समय मिलता है, संत्सग में भी, पाठ पूजन भक्ति ध्यान भी करने में मन लगता है। और जब वैभव बढ़ता है तो संत्सग भी प्रायः गायब हो जाता है, पूजा भक्ति में भी कम समय लगता है और रातदिन परेशानी रहती है।
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दुर्लभ नरजन्म में विवेक - अहो, यह जीव मथानी की तरह मथा जा रहा है। कषाय किसे कहते है जो आत्मा को कसे। दुःखो में यह जीव मथ जाता है। नाम तो सरल है इसे बड़ा क्लेश है पर जिसे क्लेश है वही जानता है। अपनी दृष्टि शुद्ध कर लो तो क्लेश कुछ भी नही है। क्या क्लेश है? सड़को पर देखते है भैसो के कंधे सूजे है, उन पर बहुत बड़ा बोझ लदा है फिर भी दमादम चाबुक चलते जा रहे है। बेचारे कितना कष्ट करके जुत रहे है और जब जुतने लायक न रहा तो कसाई के हाथ बेच दिया। कसाई ने छुरे से काटकर मांस बेच लिया और खाल बेच लिया। क्या ऐसे पशुओ से भी ज्यादा कष्ट है हम आपको? संसार में दुःखी जीवो की और दृष्टि पसार कर देखो तो जरा। अनेक जीवों की अपेक्षा हम और आप सब मनुष्यों का सुखी जीवन है, पर तृष्णा लगी है तो वर्तमान सुख भी नही भोगा जा सकता। उस तृष्णा में बहे जा रहे है सो वर्तमान सुख भी छूटा जा रहा है। ऐसी विशुद्ध स्थिति पाने से लाभ क्या लिया? यदि विषय कषायो में धन के संचय में परिग्रह की बुद्धि में इनमें ही समय गुजरा तो मनुष्य जन्म पाने का कुछ लाभ न पाया।
___ऐहिक कल्पित पोजीशन से आत्मकार्य का अभाव – यहाँ के कुछ लोगो ने बढावा कह दिया तो न ये बढ़ावा कहने वाले लोह ही रहेगें और न यह बढ़ावा कहलाने वाला पुरूष ही रहेगा। ये तो सब मायारूप है, परमार्थ तत्व नही है। किसलिए अपने बढ़ावा में बहकर अपनी बरबादी करना। जगत में अन्य मूढो की परिस्थितियों को निहार कर अपना निर्णय नही करना है। यहाँ की वोटो से काम नही चलने का है, जगत के सभी जीव किस
और बहे जा रहे है कुछ दृष्टि तो दो। अपना काम तो अपने आत्मा का कल्याण करना है। यह दुनिया मोहियो से भरी हुई है। इन मोहियो की सलाह से चलने से काम न बनेगा।
यथार्थ निर्णय के प्रयोग की आवश्यकता - भैया ! किसके लिए ये रागद्वेष किए जा रहे है कुछ यथार्थ निर्णय तो करिये। किसी एक को मान लिया कि यह मेरा पुत्र है, यह मेरा अमुक है, यह सुखी रहे, ठीक है। प्रथम तो यह बात है कि किसी को सुखी करना यह किसी के हाथ की बात नही है। उसका उदय होगा तो वह सुखी हो सकेगा, उदय भला नही है तो सुखी नही हो सकता है। प्रथम तो यह बात है फिर भी दूसरी बात यह है कि संसार के सभी जीव मुझसे अत्यन्त भिन्न है। हमारे आत्मा में हमारे घर का भी पुत्र क्या परिवर्तन कर देगा? किसके लिए कल्पना में डूब रहे है? यह बहुत समृद्विशाली हो जाय और उस एक को छोड़कर बाकी जो अनन्त जीव है वे तुम्हारी निगाह में कुछ है क्या? वही एक तुम्हारा प्रभु बन गया जिसको रात दिन कल्पना में बैठाये लिए जा रहे हो। कौन पुरूष अथवा कौन जीव ऐसा है जिससे राग अथवा द्वेष करना चाहिए? अरे शुद्ध तत्व के ज्ञाता बनो और जिस पदवी में है उस पदवी में जो करना पड़ रहा है करें किन्तु यथार्य ज्ञान तो अन्तर में रहना ही चाहिए।
कल्याण साधिका दृष्टि - मैं सर्व परपदार्थे से जुदा हूँ, अपने आप में अपने स्वरूप मात्र हूँ। मेरा सब कुछ मेरे करने से ही होगा, मैं किसी भी प्रकार की हो भावना ही बनाता हूं, भावना से ही संसार है और भावना से ही मुक्ति है, भावना के सिवाय मै अन्य कुछ करने में समर्थ नही हूँ ऐसी अपनी भावात्मक दृष्टि हो, रागद्वेष का परित्याग हो,
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आत्मकल्याण की धुन हो तो इस वृत्ति से अपने आपको मार्ग मिलेगा। विषयकषायो मे बहे जाएँ, अपने जीवन को यों ही गवां दे, यह तो कोई कल्याण की बात नहीं है। ऐसे जीवन में और पशु जीवन में अन्तर कुछ नही है। वे भी सभी विषयो की साधना करते है और यहाँ भी विषयो की साधना की तो कौन सा लाभ लूट लिया? ये तो सभी मिट जायेगे, और संस्कार खोटा बनाया तो इसके फल मे आगे भी दुःख होगा। इससे मोह मेंटे, रागद्वेष में न बहें, अपने आत्मा की कुछ दृष्टि बनाएँ, निष्कपट प्रभुभक्ति करें और सभी जीवों में एक समान दृष्टि का उद्देश्य करे तो यह उन्नति का साधन है।
विपन्दवपदावते पदिकेवाति वाहाते।
यावत्तावन्दवन्त्यन्याः विपदाः प्रचुराः पुरा ||12|| __संसार में विपदावो का तांता - यह संसार एक चक्र लगाने वाले यंत्र की तरह है। जैसे रहट में घटिया चक्र लगाती रहती है, उसमें एक घटी भर गयी, वह रीत गयी, फिर दूसरी घटी आयी वह रीत गई। जिस तरह उसी घटीयंत्र में एक घटी भरते है तो थोड़ी देर में रीत जाती है अथवा पैर से चलने वाले यन्त्रं में जिसमें दो घटिका लगी है, यह रीत जाती है तो दूसरी रीतने के लिये आ जाती है। ऐसे ही इस दुनिया में एक विपत्ति को मेटकर कुछ राहत ली तो दूसरी विपदा आ जाती है। यह बात संसार के सभी जीवों पर घटित हो जाती है। आप विपत्तियों का निपटारा हो ही नही पाता है। सोचते है कि धन कमाने लगें तो फिर कोई विपदा न रहेगी अथवा एक संतान हुआ, दूसरा तीसरा हुआ, लो उनमें से एक मर गया। एक न एक विपदा सबको लगी रहती है।
विपदा का आधार कल्पना - भैया! लगी कुछ नही रहती है विपदा कल्पना से एक न एक विपदा मान लेते है। है किसी को कुछ नही। अभी ही बतावो कहाँ क्या दुःख है? न मानो किसी को कोई तो कुछ दुःख ही नही रहा। जैसा पदार्थ है वैसा समझ लो फिर कोई क्लेश ही नही रहा। जिस सम्पदा को आप अपना समझते है वही अब दूसरे के पास है तो उसे आप नही मानते है कि यह मेरा हे। जैसे दूसरे के पास रहने वाला वैभव भी अपना नही है ऐसे ही अपने पास रहने वाला वैभव भी अपना नही है। ऐसा मान लो तो कोई क्लेश कल्पना में भिन्न-भिन्न गुनगुनाहट है, वही विपदा है। तो जैसे रहट यंत्र के एक घड़े के खाली हो जाने पर दूसरा घड़ा सामने आ जाता है, ठीक इसी तरह इस संसार में एक विपदा दूर होती है तो दूसरी विपदा सामने आ जाती है। इस तरह देखिये तो इस संसार मे कभी साता है तो कभी असाता है। एक क्षण भी यह जीव इन कल्पनावों से मुक्त नही होता है, न असातावो से मुक्त होता है।
अन्तर्दाह - अहो, कितनी कठिन चाह दाह की भीषण ज्वालाएँ इस संसार में बस रही है, जल रहा है खुद यह विषादवन्हि में, किन्तु पक्षपात की बुद्वि को नहीं छोड़ता है। ये मरे है, इनके लिए तो तन, मन, धन, वचन सब हाजिर है। यह मोह का अंधकार सब जीवो को सता रहा है, विकल होता हुआ उनमें ही लिप्त हो रहा है। जिनके सम्बधं से क्लेश होता हे उस ही क्लेश को मिटाने के लिए उनमें ही लिप्त हो रहा है। यही है एक जाल ।
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कोई जाल यह ऐसा नही है जैसे लोहे के जाल हो, सूत के जाल हो, किसी भी प्रकार का जाल नही है इस जीव पर, मकड़ी के जाल बराबर भी सूक्ष्म कमजोर भी जाल नही हे, कोई जाल नाम की बात ही नही है किन्तु यह मोही जीव अपनी कल्पना में मोह का ऐसा जाल पूरता है कि उससे परेशान हो जाता है, तब उसे संसार में आधि व्याधि उपाधि सब लगी रहती है। आधि नाम तो है मानसिक दुःख का, व्याधि नाम है शारीरिक दुःख का और उपाधि नाम है परका, पुछल्ला लपेटे रहने का। यों यह जीव आधि व्याधि और उपाधि से दुःखी रहा करता है। उपाधि का अर्थ है जो आधि के समीप ले जाय। उसका अर्थ है समीप और आधि का अर्थ है मानसिक दुःख। जो मानसिक दुःख के समीप ले जाये। उसका अर्थ है समीप और आधि का अर्थ है मानसिक दुःख। जो मानसिक दु:ख के समीप ले जाय उसे उपाधि कहते है। जैसे पोजीशन डिग्री आदि मिलाना ये सब उपाधि है। तो यो यह जीव भ्रम में कल्पनाजाल में बसकर आधि व्याधि और उपाधि से ग्रस्त रहता है।
काल्पनिक मौज से शुद्ध आनन्द का विघात - भैया! शुद्ध आनन्द तो आत्मा के चैतन्यस्वरूप में है, किन्तु विकल्प-जालों की एसी पुरिया पूर ली कि जिससे सुलझ नही पाते है और अपना आनन्द समुद्र जो निज संयोग में सुख की कल्पना करने लगते है। परपदार्थो के सम्पर्क में सुख की कल्पना भले ही मोही करे, किन्तु इसका तो काम पूरा हो नही पाता है । जो पुरूष जिस स्थिति में है उस स्थिति में चैन नही मानता है, क्योकि उससे बड़ी स्थिति पर दृष्टि लगा दी है। कोई हजारपति है। उसकी दृष्टि लखपति पर है तो वर्तमान मे प्राप्त वैभव का भी आनन्द नही ले सकता है। यो धनी हो कोई तो दुःखी है, निर्धन हो तो दुःखी है। किसे सुख कहा जाय? मोहियों ने केवल कल्पना से मौज मान रक्खा है।
विडम्बनाओं का संन्यास - यदि संसार भ्रमण करते हुए भी वास्तविक सुख मिलता होता तो बड़े बड़े तीर्थकर चक्रवर्ती ऐसे महापुरूष इसा वैभव को कभी न छोडते। ये मनुष्य इसी बात पर तो हैरान है कि संचित किया हुआ वैभव उनके साथ नही जाता। कोई पदार्थ इस जीव का बन जाता या मरने पर साथ जाता तो कितना उपद्रव संसार में मच जाता? जब इस जीवन में भी कोई वैभव साथी नही है इतने पर तो इतनी विडम्बनाएँ है, यदि कुछ पैसा इस जीव के साथ जाता होता मरने पर, तब तो कितना अन्याय और कितनी विडम्बना इस संसार में बन जाती? कंजूस लोग तो बड़े दुःखी है, वे इसी कल्पना में मरे जा रहे है कि यह वैभव मेरे साथ न जायगा। बड़े बड़े महापुराण पुरूष इस वैभव को असार जानकर उससे विरक्त हुए थे। केवल एक ज्ञानमात्र निज स्वरूप का ही उन्होने अनुभवन किया था। यदि यह वैभव कुछ भी सारभूत होता तो ये महापुरूषो क्यों इसे त्याग देते? धन वैभव समस्त परपदार्थ है, परपदार्थो मं दृष्टि जाने से ही क्लेश होने लगता है क्योकि किसी भी परपदार्थो को किसी भी रूप परिणमाना यह अपने आप के हाथ की बात नही है, पर मिथ्या श्रद्वा में इस जीव ने यह माना कि जिस पदार्थ को मै जिस तरह राखू उस प्रकार रख सकता हूँ किन्तु बात ऐसी है नही, हो नही सकती, तब क्लेश्ज्ञ ही तो आयगा। इसी कारण
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तो ये महापुरूष इस वैभव को असार दुःख का कारण जानकर सबको त्यागकर दिगम्बर साधु हुए।
विकट संकट और उनका विजय – कल्पनाजाल एक विकट संकट है। जिनके कोई दिल की बीमारी, घबड़ाहट या हार्ट फेल होता है उसका मुख्य कारण पर का ही चिंतन है। कोई विकल्पजाल बनाया, उसमें परेशान हुआ कि ये सब व्याधियां उत्पन्न हो जाती है। वीर पुरूषो ने इन सब विकल्पजालो का परित्याग कर तपश्चरण धारण किया। जो पुरूषार्थ कायर पुरूषो से नही किया जाता वह अलौकिक पुरूषार्थ साधु संतो ने किया। कोई साधु आत्मध्यान में मग्न है उस ही समय काई सिंह या अन्य कोई हिसंक जानवर आ जाय और उनके शरीर को खाने लगे तो वे विकल्प नही करते है। वे तो जानते है कि ऐसे विकल्प मैने अनेक बार किए, जन्म मरण भी अनन्त बार भोगा, पर एक ज्ञान का अनुभव और ज्ञान की स्थिरता में लगना यह काम अब तक नही किया। ज्ञानी पुरूष संसार, शरीर और भोगो से उदासीन रहा करते है, वे अपने आपको ही अपने ज्ञान और आनन्द का कारण मानते है। जो पुरूष यह जानते है कि ये सर्व समागम बाहृा तत्व है। सर्व समागम मिट जाने वले है, ये समागम सदा न रहेगें, ये दुःख के कारण है। कोई चीज भिन्न है उसे अपना मानना यही दुःख का कारण है।
परमार्थ सम्पदा और विपदा - भैया ! यह जीव स्वभाव से सुखी है। इस पर एक भी क्लेश नही है, पर जहाँ परपदार्थ के प्रति विचार बनाया वहाँ क्लेश हो गया। ये पंचेन्द्रिय के विषय भोग ये कदाचित् भी आनन्द के कारण नही हो सकते है। यो तो जैसे दाद और खाज जिसके होता है वह उसको ही खुजाता हुआ सोचता है कि सर्वोत्कुष्ट आनन्द तो यही है। इससे बढ़कर और आनन्द क्या होगा योंकि उसके इतनी ही बुद्वि है पर भोग साधनो के बराबर विपत्ति ही और कुछ नही है। जो ज्ञानी पुरूष अपने ज्ञानस्वरूप को अपने ज्ञान में बसाये हुए है वे निराकुल रहते है। कोई अपराध न करे तो आकुलता नही हो सकती है। जब कोई भी आकुलता होती है तो यह निर्णय करना चाहिए कि हमने ही अपराध किया है यह जगत विपत्तियो से घिरा है। वस्तु स्वरूप के विपरीत जो श्रद्वान रखे उसे चैन नही मिल सकती है। ज्ञाता द्रष्टा रहे तभी आनन्द है। प्रभु का स्वरूप ऐसा ही है इस कारण प्रभु आनन्दमग्न है। सारा विश्व तीन लोक के समस्त पदार्थ उनके ज्ञान में आते है पर वे ज्ञाता द्रष्टा ही रहते है। वे जगत् साक्षी है इस कारण उनको रंच भी क्लेश नहीं होता।
संसार में विपदाओ की प्राकृतिक देन - देखो संसार में हम और आप सब एक विपदा को मिटाने का यत्न करते है कि दूसरी विपदा आ जाती है अर्थात् कल्पना से पदार्थ के किसी भी परिणमन में यह विपदा मानने लगात है। श्री राम भगवान कुछ बचपन में लौकिक नाते से भले ही सुखी रहे है गृहस्थावस्था मे, पर उसके बाद देखो तो सारा जीवन क्लेश ही क्लेश में गुजरा, किन्तु उनमें धैर्य था, विवेक था सो अंतिम स्थिति उनकी उत्तम रही और आत्मध्यानमग्न हुए, निर्वाणपद प्राप्त किया, पर सरसरी निगाह से देखो तो राज्यभिषेक होने को था, यहाँ तक तो खुशी थी, पर आदेश्ज्ञ हुआ कि भरत को राज्य
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होगा। श्री राम ने सज्जनता निभाई कि भरत राजा होगा, होना चाहिए, ठीक है किन्तु जब तक हम रहेंगे घर में तब तक भरत की प्रतिष्ठा न बढ़ेगी, लोगो की दृष्टि हम पर रहेगी, तो भरत राजा होकर भी कुछ राज्य सत्कार न पा सकेगा, सो उन्होने वन जाना स्वीकार किया।
विपदा पर विपदा - श्री राम अब वनवासी बन गए। छोटी-छोटी विपदाएं तो उन्हे रोज-रोज आती होगी। भयानक वन, कोई साधन पास नही, चले जा रहे है। कितनी ही जगह तो मिट्टी के बर्तन बनाकर साक पत्र भाजी को जोड़ कर भोजन बनाया गया और किसी जगह बड़े बड़े राजा लोग भी आकर उनका सत्कार करते थे। वन की विपदाएँ उन्होने प्रसन्नता से सही। लो थोड़ी ही देर बाद एक भयानक विपदा और आयी, सीता का हरण हआ। कोई भी विपदा हो, लगातार बनी रहे तो वह विपदा सहन हो जाती है और कल्पना में अब यह विपदा नही रही ऐसा भान कर लेते है। वियोग का दुःख रहा, पर जैसे ही कुछ पता चला कि सीता लंका में है, तो इस वृतान्त को सुनकर कुछ विपत्ति में हल्कापन अनुभव किया, लो अब युव की तैयारी हो गयी। अब युद्व को चले, युव होने लगा।
उत्तरोत्तर महती विपदा - एक विपदा पूर्ण भी न हुई कि लो दूसरी विपदा सामने आयी। लक्ष्मण को रावण की शाक्ति लग गयी। लक्ष्मण बेहोश हो गया। उस समय राम ने जो विलाप किया वह कवि की कल्पना में बड़ा करूणाजनक था। एक भाई निष्कपट भाव तन, मन, धन, वचन सब कुछ न्यौछावर करता है, बड़ी भक्ति से सहयोगी रहे और उस पर कोई विपदा आ जाए तो वह बहुत खलती है। किसी निष्कपट मित्र पर कोई विपदा आ जाए तो उसमें बहुत क्लेश अनुभूत होता है, क्योकि उस निष्कपट मित्र का आभार मानता है ना वह। जब लक्ष्मण के शक्ति लगी तो कितनी विपदा श्री राम ने मानी होगी? किसी प्रकार शक्ति दूर हो गयी तो अब पुनः युद्व की तैयारी हुई। युद्ध में कितने ही सहयोगियों पर विपदा आते देखकर कितने दुःख वे रहे होगे।
विपदा के सीमा के परे विपदा का अन्त- लो युद्व भी जीत गए, सीता भी घर ले आये, अब एक विपदा धोबिन के अपवाद की आई। यह कितनी कठिन विपदा लग गयी? सीता को फिर किसी बहाने जंगल में छुड़वा दिया। विपदा आयी। लव कुश जन्मे, लव कुश से युद्ध हुआ, सीता को फिर घर ले आए। लोकापवाद की बात मन में खलती रही। यह जानते हुए भी कि सीता निर्दोष है, अग्निकुण्ड में गिरने का आदेश दिया। जब अग्निकुण्ड में सीता कूद रही थी उस समय राम कितने विपन्न रहे होंगे, अनुमान कर लो। बाद में लक्ष्मण न रहे इस वियोग का संताप सहा, अनके ऐसी घटनाँए आती रही कि नई-नई विपदाएँ होती गयी। श्रीराम तब तृप्त हुए जब वे सकल विकल्प त्यागकर एक ब्रा के अनुभव में रत हुए।
कल्पनोद्भूत विपदाये व उनका विनाश – यह संसार विपदावों का घर है। विपदा भी कुछ नही, केवल कल्पना है। सो सम्यग्ज्ञान उत्पन्न करके उन कल्पनावो को मिटाएँ तो इसमें ही अपने को शान्ति का मार्ग मिल सकता है। विपदा तो कल्पनाजाल से उद्भूत है।
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जो भी विपदा मानी जाती है अनुभवी जाती है उसका प्रभाव तो जीव में ही होता है। फिर विपदा बाहर कहाँ रही? विपदा तो स्वरूप विरूद्व कल्पना बनाना मात्र है। जो जैसा नही है, उसे वैसा समझना इसी में संकट का अनुभव है। अंतः संसार के संकटो से मुक्त होने के लिये वस्तुस्वरूप का यथार्थ अवगम करना ही अमोघ उपाय है। इस ज्ञानार्जन के उपाय से समस्त संकटो को मेट ले।
दुरघुनासुरक्षेण नश्वरेण धनादिना।
स्वरथं मन्यः जनः कोऽपि ज्वरवानिव सर्पिषाः ।।13।। मोहियों की एक जिज्ञासा - इससे पहिले श्लोक में यह कहा गया था कि इस घटी यंत्र की तरह परिवर्तनशील संसार में ये विपत्तियाँ घटी की तरह रीति भरी रहती है, अथवा यों कहों कि एक घटी तो रीत नही पाती है, दूसरी घटी रीतने लगती है। यों एक विपदा का तो अंत हो नही पाता कि दूसरी विपदा सामने आ जाती है, ऐसा सबको अनुभव भी होगा। जब जन समागम में है और परपदार्थो का कुछ आश्रय भी लिया जा रहा है तो ऐसी स्थिति में यह बहुत कुछ अनुभव किया जा रहा होगा कि एक विपदा तो खत्म नही हुई कि लो अब यह दूसरी विपदा आ गई। किसी भी किस्म की विपदा हो। सब अपने आप में अर्थ लगा सकते है। इस प्रसंग को सुनकर यह शंका हो सकती है कि जो निर्धन होंगे उनके ही विपदा आया करती है। एक विपदा पूरी नही हुई कि दूसरी विपदा आ गयी। इसमें तो निर्धनता ही एक कारण है। इष्ट समागम जुटा न सके तो वहाँ विपदा पर विपदा आती है, पर श्रीमतों को क्या क्या विपदा होगी? ऐसी कोई आशंका करे तो मानो उसके उत्तर में यह श्लोक कहा जा रहा है।
जीता जागता भ्रम – ये धन आदि के वैभव कठनाई से उपार्जन किए जाने योग्य है और प्राणो की तरह इनकी रक्षा करे तो इनकी रक्षा होती है, तिस पर भी ये सब नश्वर है, किसी दिन अवश्य ही नष्ट होंग, बेकार होग। ऐसे धन वैभव से यदि कोई पुरूष अपने को स्वस्थ मानता है तो वह ऐसा बावला है जैसे कि कोई ज्वर वाला पुरूष घी पीकर अपने को स्वस्थ माने। ज्वर का और घी का परस्पर विरोध है। ज्वर वाला धी पीकर ज्वर में फंसता ही जायगा, तो कोई ज्वर वाला रोगी घी पीकर अपने को स्वस्थ माने तो वह उसका बावलापन है, उसका तो थोड़े ही समय में प्राणांत हो जायगा। ऐसे ही धन वैभव के संग के कारण अपने को कोई स्वस्थ माने तो यह अत्यन्त विपरीत बात है।
जीव अस्वस्थता – भैया! पहिले तो स्वस्थ शब्द का ही अर्थ लगावो। स्वस्थ का अर्थ है स्व में स्थित होना। जो धन वैभव से अपने को सुरक्षित मानता है उसकी दृष्टि निज पर है या वरपर है, स्वपर है या अस्वपर है उसकी दृष्टि बाहृा में है। अस्व कहो, पर कहो, बाहा कहो, एक ही अर्थ है। जो स्व न हो सो अस्व है। सो वह जीव अस्वस्थ है या स्वस्थ है जिसकी दृष्टि वैभव में फंसी है वह स्व में स्थित है या पर में स्थित है? वह तो अस्वस्थ है। हो तो कोई अस्वस्थ और माने अपने का स्वस्थ तो यह उन्मत चेष्टा है। ज्वरवान पुरूष न अभी स्वस्थ है और न घृत खाने से पीने से स्वस्थ होगा, उल्टा दुःखी ही होगा, इसी
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प्रकार यह अज्ञानी जीव एक तो स्वयं ही स्वस्थ नही है, उसे आनन्द का साधन निज तत्व मिल नही पाया है जिससे वह निज में स्थित हो सके। मिथ्यादृष्टि जीव को इस निज परम तत्व का परिचय नही है सो यह स्वयं ही अज्ञानी होने से अस्वस्थ है और फिर धन वैभव का योग पाये, उसकी और दृष्टि लगे तो उस दृष्टि के कारण भी यह और अस्वस्थ बढ़ गया। जो अस्वस्थ है वह शान्त नही रह सकता। उसे आकुलता हे तब तो बाहा की और उसने बुद्वि भ्रमाई है। और बुद्वि भ्रमाई है तो इस स्थिति का रूपक आकुलता रूप ही होगा, अनाकुलता नही हो सकती है।
धन प्रसंग की कठिनाइयाँ - जिस धन वैभव के कारण यह मोही जीव अपने को स्वस्थ मानता है वह वैभव कैसा है? प्रथम तो वह बड़ी कठिनाई से उत्पन्न होता है, इस धन के चाहने वाले सभी है ना, ग्राहक है वे भी चाहते हे कि मेरे पास धन आ जाय और दूकानदार चाहते है कि ग्राहको से निकलकर मेरे पास धन अधिक आ जाय, तो अब दुकानदार और ग्राहक दोनो में जब होड़ मच जाती है, सभी अपने को अधिक चाहते है तो ऐसी स्थिति में फिर पैसे को उपार्जन कर लेना कितना कठिन हो जाता है अथवा अन्य प्रकार की आजीविका से सभी धन कमाते है उनको कितना श्रम लगाना पड़ता है, कितना उपयोग और समय देना पड़ता है तब धन का संचय होता है। यह धन बड़ी कठिनता से उपार्जित किया जाता है।
धन सुरक्षा की कठिनाई - धन का उपार्जन भी हो जाए तो उसका संरक्षण करना बड़ा कठिन हो जाता है। आज के समय में तो यह कष्ट और भी बढ़ा हुआ है। धन का उपार्जन रखें तो शंका, बैंक में रखे तो शेंका, कहाँ रखे, रख भी लें तो उसका उपयोग करना भी एक किसी कानून में एलाऊ नही हो रहा है। तब जैसे उसकी रक्षा की जाय? तो रक्षा करना भी कठिन हो रहा है।
__ धन की अन्तगति – धन कमा भी ले, और उसकी रक्षा कर भी ले तो आखिर धन छूट ही तो जायगा। जिनके लिए धन छूट जायगा वे लोग तुम्हारी मदद कर देंगे क्या? मिथ्यात्व में ही तो यह एक उपाय बन गया है कि मरे हुए आदमी की श्राद्ध की जाती है। किसी पांडे को चारपाई चढ़ा दो तो वह उसके बाप दादा को मिल जायगी, पांडे को गाय भैंस दे दो तो गाय भैस का दूघ उसके पास पहुंच जायगा। कैसी मान्ताएँ बसा दी गई है। इससे जिन्दा रहने वालों का मिथ्यात्वा भी बढ़ता जा रहा है। हम मरेंगे तो हमारे लड़के श्राव करेगें, धर्मात्मा बने है, ठेकदार बने है उनके भी इसमें स्वार्थ है। ऐसी करने पुत्री को भी स्वार्थ है और भ्रम में पड़ा हुआ यह बड़ा बूढ़ा आदमी भी स्वार्थ से ही इस परम्परा को बनाए है।
मिथ्यात्वग्रास - यह समस्त धन विनाशीक है, छूट जायगा। कुछ न रेहगा साथ, पर संचय करने में जिना उपायोग फसाया, जितना समय लगाया, कितना अमूल्य समय था यह मनुष्य जीवन का। इन जीवन के क्षणों में से स्वाध्याय के लिए, धर्मचर्चा के लिए, ज्ञानार्जन के लिए समय कुछ भी नही निकाल सकते और जो व्यर्थ की बातें है, उनके लिए रात दिन जुटे रहते है। यह सब क्या है? मिथ्यात्व ग्रह से ही तो डसे हुए है। ऐसा यह कठिन धन
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वैभव है जिसके कारण यह अपने को स्वस्थ श्रेष्ठ और उत्तम मानता है। वास्तविक बात यह कि धन वैभव न सुख का उत्पन्न करने वाला है और दुःख का उत्पन्न करने वाला है। ये सब सुख दुःख कल्पनावो से उत्पन्न होते है। जिस प्रकार की कल्पनाएँ यह जीव करता है उस ही प्रकार की परिणति इस जीव की हो जाती है। वास्तव में सुखी तो वास्तविक त्यागी संत जन ही है, ऐसा त्याग उनके ही प्रकट होता है जा अपने स्वरूप को त्यागमय पहिचान रहे है। यह मेरा, मेरे सत्व के कारण मेरे ही रूप, यह मैं स्वरूप, सबसे न्यारा हूं, केवल चिन्मात्र हूं, प्रकाशमय हूं| इसका जीवन उस चित्प्रकाश की वृत्ति से होता है। इस जीवन को ने पहिचान सके तो ऐसी विडम्बना बनती है कि अन्य पदार्थ के संयोग से भोजन पान से अपना जीवन माना जा रहा है।
आत्मजीवन की स्वतंत्रता - इस आत्मा का जीवन आत्मा के गुणों की वर्तना से है। है यह आकाशवत् अमूर्त निर्लेप पदार्थ, उसकी वृत्तियाँ जो उत्पन्न होती है उनसे ही यह जीता रहता है। इसका जीवन अपने आपके परिणमन से है। ज्ञानी पुरूष कही चितातुर नही हो सकता। अज्ञानी जन बड़े-बड़े ऐश्वर्य सम्पदा में भी पड़े हुए हो तो भी चिंतातुर रहते है। ज्ञानी जानता है कि यह मे तो पूरा केवल चिन्मात्र हूँ। इसका न ही कही कुछ बिगाड़ हो सकता है और न किसी दूसरे के द्वारा इसमे सुधार हो सकता है। यह तो जो है सा है, अपने आपके परिणमन से ही इसका सुधार बिगाड़ है। ज्ञानी की दृष्टि धन वैभव आदि में सुख दुःख मानने की नही हाती है। वे जानते है कि केवल उनकी तृष्णा ही दुःख को उत्पन्न करने वाली रहै। यह चिन्मात्र मूर्ति आत्म स्वरसतः सुख को उत्पन्न काने वाला
है।
स्वयं का स्वंय में कार्य और फल - भैया! जो पर पदार्थ है वे अपना ही कुछ करेगें या मेरा कुछ कर देंगे। वस्तुस्वरूप पर दृष्टि दो, जितने भी अचेतन पदार्थ है वे निरन्तर रूप, रस, गधं, स्पर्श गुण में परिणमते रहते है, यही उनका काम है और यही उनका भोग है। इससे बाहर उनकी कुछ कला नही है, फिर उनसे इस आत्मा में कैसे सुख और कैसे दुःख आ सकेगा? ये वैभव सुख दुःख के जनक नही है, कल्पना ही सुख दुःख की जनक है न्यायग्रन्थों में उदाहरण देते हुए एक जगह लिखा है कि कोई पुरूष कारागार में पड़ा हुआ है जहाँ इतना गहरा अंधकार है कि सूई का भी प्रवेश नही हो सकता याने सूई के द्वारा भी भेदा नही जा सकता, ऐसे गहन अंधकार में पड़ा हुआ कामी पुरूष जिसे अपने हाथ की अंगुली भी नही नजर आती, किन्तु उसे अपनी स्त्री का रूप मुखाकार बिल्कुल स्पष्ट सामने झलकाता है। कहाँ है कौन? पर उसके चित्त में ऐसी ही वासना बनी हुई है कि कल्पनावश वह कुछ चिन्तन करता है अथवा विचार माफिक सुख को भोगता है अथवा कुछ कल्पना करके सुख दुःख पाता है।
सुख दुःख का कल्पना पर अवलम्बन - कोई पुरूष बड़े आराम से कमरे में बैठा हुआ है, सुहवाने कोमल गद्दे तकिये पर पड़ा हुआ है, पंखा भी चल रहा है और वातनुकूलित साधन भी मिल गये है, इतने पर भी वह चिन्तामग्न है। पोजीशन, धन, कितनी ही प्रकार की बातें उसके उपयोग में पड़ी है। तृष्णा का तो कही अंत ही नही है। तृष्णा मे पीड़ित
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हुआ वह मन की छलांगे मार रहा है और उनका प्रतिकूल परिणमन देखकर व्यग्र हो रहा है। तो किसे सुख कहते और किसे दुःख कहते? ये सब कल्पना पर अवलम्बित है। यह धन तो दुःख का पात्र है जिसके उपार्जन में दुःख है? जिसकी रक्षा में दुःख है, जिसके खर्च करने में दुःख है, सो यह धन तो इस जीव को कष्ट पहुँचाने के ही काम मे आ रहा है। बाहा पदार्थ संग में है तो उनसे कुछ न कुछ ऐसी ही कल्पना जगेंगी जो असाता उत्पन्न करेगी। कभी इच्छानुसार धन का संचय भी हो जाय तो तृष्णा और बढ़ जाती है।
मायामय रोग, वेदना व इलाज - अहो, भैया, यहाँ सभी इस संसार के जीव इस रोग के रोगी है। जब जब कुछ न था तब ऐसा सोचते थे कि इतना हो जाये फिर तो जीवन चैन से निकलेगा, फिर कुछ नही करना है, जब उतना हो गया जितना सोचते थे तो वे सब बाते विस्मृत हो गयी। अब आगे की पुरिया पूरने में लग जाते है इतना और कैसे हो? इतने स तो गुजारा ही नही चलता हैं जब इतना न था, इसका चौथाई भी न था तब कैसे गाड़ी चलती थी, पर चैन कहाँ है? लगे रहेगें, अंत में छोड़ जायेगे। इस समय जो मिला है वह धर्म सेवन में लगाया जाता तो अच्छा था। स्वप्न में मिले हुए राज्य की क्या कीमत? स्वप्न में मिले हुए समागम पोजीशन बढ़ रही हो तो उसकी क्या कीमत है? ऐसे ही इस अविवेक में इस मोह नींद मे जो कुछ इन चर्म चक्षुवों से दिख रहा है वह सब केवल स्वप्नवत् है, कल्पनाजन्य है इसी प्रकार यहाँ आँखो से जगती हुई हालत में भी जो कुछ निरखा जा रहा है वह सब मायास्वरूप है।
बिना सिर पैर की विडम्बना – तृष्णा का आक्रमण बहुत बुरा आक्रमण है। ये मोही जन जिनमें आशा लगाये हुए है, इस संसार में जो अज्ञानियों का समूह पड़ा हुआ है, देहातों मे, नगरो मे, शहरो में विषय लिप्सा पड़े हुए अज्ञानी जनों का जो समूह पड़ा हुआ हे उनमें नाम चाहा जा रहा है। किन में नाम चाहा जा रहा है पहिले तो वहाँ ही पोल निरखो और फिर जो चाहा जा रहा है उसकी भी असारता देखों। नाम का क्या अर्थ? स्वर 16 है, व्यज्जन 33 है, अक्षरो को कही का कही रख दिया गया और उनको पढ़ लिया गया, सुन लिया गया तो इसमें तुम्हारा स्वरूप कहाँ आया? शब्द है, जिसका जो भी नाम है उस नाम के शब्दो को थोड़ा उलट करके कही का कही रख दिया, फिर तो उस पर इस तृष्णावी पुरूष का कुछ भी आकर्षण नही है। जो कल्पना में, व्यवहार में मान लिया गया है कि यह मै हूं उन अक्षरों से कितनी प्रीति है? कुछ नाम भी कर जायेगे और कुछ अक्षर भी कही लिख जायेगें तो उनसे इस मर जाने वाले का क्या सम्बंध है। और जीवित अवस्था में भी उस नाम से क्या सम्बंध है ? संसार अनादि निधन है। इस मनुष्य भव की प्राप्ति से पहिले भी हम कुछ थे अब उसका पता नही है। हम क्या थे, कहाँ थे, कैसे थे उसका अब कुछ आभास नही है। यो ही कुछ समय बाद इस भव से चले जाने पर यहाँ का भी कुछ आभास न रहेगा। फिर किसलिए यह चौबीस घंटे का समय व्यर्थ की कल्पनावों में ही गँवाया जा रहा है।
स्वस्थता और अस्वस्थता - ये अज्ञानी जीव धन वैभव से अपने को स्वस्थ मानते है वे ऐसे बावले है कि जैसे कोई ज्वर वाला घी पीकर अपने को स्वस्थ अनुभव करे, वह तो
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विडम्बना की निशानी है। इस जीव की विपदा का कोई रूपक भी है क्या, कि इसका नाम विपदा है। अरे कल्पना में यह जीव अत्यन्त व्याकुल है। कुछ लोग ऐसे भी देखे जाते है कि जिनका मात्र एक पुत्र है और आगे किसी पुत्र की उम्मीद नही है, स्त्री गुजर गयी है उसका वह इकलौता बच्चा मर जाय तो भी कुछ बिरले लोग ऐसे देखने और सुनने मे आए है कि उनको तब भी कुछ चिन्ता नही होती। वे सब जानते है कि यह सब मायारूप है, इसमें मेरा तो कुछ भी न था। अज्ञानी जीव कल्पना करके किसी भी बात में विपदा समझ बैठते है और वे दुःखी होते है किन्तु ज्ञानी संत विवेकबल से स्वस्थ बने रहते है।
विपत्तिमात्मनो मूढः परेषामिव नेक्षते।
दहामानमृगाकीर्णवनान्तरतरूस्थवत् ।।14।। आत्मविपत्ति के अदर्शन का कारण - पूर्व श्लोक में यह बताया गया था कि सम्पदा का समागम भी मनुष्य को महाकष्ट उत्पन्न करता है, ऐसी बात सुनकर यह जिज्ञासा होनी प्राकृतिक है कि सम्पदा का समागम आपत्ति का ही करने वाला है तो फिर लोग इसे छोड़ क्यो नही देते है ? क्यो रात दिन सम्पदा के समागम के चक्कर में ही यत्रं तत्र घूमा करते है ? इसकी जिज्ञासा का समाधान इस श्लोक में है। यह मूर्ख पुरूष दूसरो की विपत्ति को तो देख लेता है, जान लेता है कि यह विपदा है, यह मनुष्य व्यर्थ ही झंझट में पड़ा है, किन्तु अपने आप पर भी वही विपदा है वह विपदा नही मालूम होती है क्याकि इस प्रकार का राग है मोह है कि अपने आपको विषयों के साधन रूचिकर और इष्ट मालूम होते है, दूसरे के प्रति यह भाव जल्दी पहुंच जाता है कि लोग क्यों व्यर्थ में कष्ट भोग रहे है ? क्यों विपदा में है?
आत्मविपत्ति के एक अदर्शक का दृष्टांत - अपनी भूल समझ में न आये, इसके लिए यह दृष्टान्त दिया गया है कि कोई वन जल रहा है जिसमें बहुत मृग रहते है, उस जलते हुए वन के बीच में कोई पुरूष फंस गया तो वह झट किसी पेड़ के ऊपर चढ़ जाता है पर चढ़ा हुआ वह पुरूष एक और दृष्टि पसारकर देख रहा है कि वह देखो हिरण मर गया, वह देखो खरगोश तड़फकर जल रहा है, चारो ओर जानवरो की विपदा को देख रहा है पर उस मूढ़ पुरूष के ख्याल में यह नही है कि जो दशा इन जानवरो की हो रही है, कुछ ही समय बाद यही दशा हमारी होने वाली है, यह चारो तरफ की लगी हुई आग हमें भी भस्म कर देगी और मेरा भी कुछ पता न रहेगा। वह पुरूष वृक्ष के ऊपर बैठा हुआ दूसरो की विपदा को तो देख रहा है पर अपनी विपदा को नही नजर में ला पाता है। उसे तो यह ध्यान में है कि मै ऐसे ऊँचे वृक्ष पर बैठा हूँ, यह आग नीचे लगी है, बाहर लगी है, यह अग्नि मेरा क्या बिगाड़ कर सकती है? उसे यह पता नहीं होता कि जिस प्रकार ये जंगल के जीव मेरे देखते हुए जल रहे है इसी प्रकार थोड़ी ही देर में मै भी भस्म हो जाऊगाँ।
आत्मविपत्ति के अदर्शक की परिस्थिति - दहामान वन में वृक्ष पर चढ़े हुए जन की भांति यह अज्ञानी पुरूष धन वैभव से अन्य मनुष्यो पर आयी हुई विपदा को तो स्मरण कर
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लेता है कि देखो उसका माल पकड़ा गया, उसका माल जप्त हो गया, यह मरने वाला है, यह मर गया, किसी पर कुछ विपदा आयी, इस तरह पकड़ा गया, उसका माल जप्त हो गया, यह मरने वाला है, यह मर गया, किसी पर कुछ विपदा आयी, इस तरह औरो की विपदा को तो निरखता रहता है, परंतु अपने धन वैभव के उपार्जन में जो विपदा सह रहा है उसे विपदा नही मालूम करता है। धन संचय में रंच भी विश्राम नही ले पाता है। हो रही है बहुत सी विपदाएँ और विडम्बनाएँ, पर अपने आपके लिए कुछ विडम्बना नही दिखती है। मोही जीव को कैसे हटे यह परिग्रह लालच तृष्णा से? इसे तो यह दोष भी नही मालूम होता है कि मै कुछ अपराध कर रहा हूं।
अज्ञानी को स्वकीय अपराध का अपरिचय - ज्ञानी संत जानता है कि मेरा स्वरूप शुद्ध ज्ञानानन्द है, ज्ञान और आनन्द की विशुद्ध वर्तना के अतिरिक्त अन्य जो कुछ प्रवृत्ति होती है, मन से प्रवृत्ति हुई, वचनों से हुई अथवा कायसे हुई तो ये सब प्रवृत्तियां अपराध है। अज्ञानी को वे प्रवृत्तियाँ अपराध नही मालूम देती, वह तो इन प्रवृत्तियों को करता हुआ अपना गुण समझता है। मुझे मे ऐसी चतुराई है, ऐसी कला है कि मैं अल्प समय मे ही धन संचित कर लेता हूं। ज्ञानी पुरूष जब कि यह समझता है कि एक ज्ञानस्वभावके आश्रयको छोड़कर अन्य किन्ही भी पदार्थोका जो आश्रय लिया जाता हे वे सब अपराध है उससे मुझे लाभ नही है, हानि ही है। कर्मबंध हो, आकुलता हो और कुछ सार बात भी नही है। ऐसा यह ज्ञानी पुरूष जानता है। न तो अज्ञानी को धनसंचय में होने वाली विपदाका विपत्तिरूप अनुभव होता है और न जो धनोपार्जन होता है उसमें भी जो अन्य विपदाएँ आती है उनका ही स्मरण हो पाता है।
मोहीके विवके अभाव - विवेक यह बताता है कि धन आदि के कारण यदि कोई विपदा आती देख तो उसे धनको भी छोड़ देना चाहिए। फंसनेपर लोग ऐसा करते भी है। कोई कानूनविरूद्व चीज पकड़ ली जाय, जैसे कि मानो आजकल शुद्ध स्वर्ण कुछ तोलोसे ज्यादा नही रख सकते है और रखा हुआ हो तो उस सोनेका भी परित्याग कर देते है, जाँच करने वालेकी जेब में ही डाल देते है कि ले जावो यह तुम्हारा है। कितनी जल्दी धन विपदा के समय छोड़ देते है, किन्तु वास्तव में उसका छोड़ता नही है। उस समय की सिरपर आयी हुई विपदासे बचनेका कदम है। चित्तमें तो यह भरा है कि इससे कई गुण
और खरीदकर यह घाटा पूरा करना पड़ेगा। धन वैभवके कारण भी अनेक विपदा आती है। कुछ बड़े लोग अथवा उनके संतान तो कभी कभी इस धनके कारण ही प्राण गंवा देते है। ऐसे होते भी है। कितने ही अनर्थ जिन्हे बहुतसे लोग जानते है। ये डाकू धन भी हर ले जाये और जानसे भी मार जाएँ क्योकि उनके मनमे यह शंका है कि धन तो लिए जा रहे है, कदाचित इसने पकड़वा दिया तो हम लोग मारे जायेंगे, इससे जान भी ले लेते है। आजकल किसी की जान ले लेना एक खेलसा बन गया है। छुद्र लोग तो कुछ पैसो के हिसाब पर ही दूसरो की जान ले डालते है। इस धन के कारण कितनी विपदा आती है,
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कितना ही टैक्स देना कितना ही अधिकारियोंको मनाने में खर्चा करना कितना श्रम, कितनी विपदाएँ ये सब धन आदि के वैभवके पीछे ही तो होती है।
ज्ञानीका परिवर्तन - कल्याणार्थी गृहस्थकी चर्या इस प्रकार रहती है कि आवश्यकतानुसार धन का उर्पाजन करना और अपने जीवनको धर्मपालनके लिए ही लगाना। ऐसा भाव बनाना चाहिए कि हम धनी बनने के लिए मनुष्य नही हुए है, किन्तु ज्ञानानन्दनिजपरमात्म प्रभुके दर्शन के लिए हम मनुष्य हुए है। ये बाहरी पोजीशन गुजारे की बातें ये तो जिस किसी भी प्रकार हो सकती है, किन्तु संसार के संकटोसे मुक्ति का उपाय एक ही ढंगसे है, और वह ढंग इस मनुष्यजीवन में बन पाता है, इस कारण ज्ञानी पुरूषका लक्ष्य तो धर्मपालनका रहता है, किन्तु अज्ञानी पुरुषका लक्ष्य विषयसाधनोके संचय और विषयोंके भोगनेमें ही रहता है। यद्यपि धन आदि के कारण आयी हुई विपदा देखें तो धनकी आशा सर्वथा छोड़ देना चाहिए क्योकि आशा न करनेसे ही आने वाली विपदासे अपनी रक्षा हो सकती है। लेकिन यह धन वैभवकी आशा छोड़ नही पाता है। यही अज्ञान है और यही दुःखका जनक है।
अनर्थ आवश्यकतावोकी वृद्विमें बरबादी – यद्यपि वर्तमानमें श्रावक की गृहस्थवस्था है, दूकान करना होता है, आजीविका व्यापार करना पड़ता है, परन्तु ज्ञानीका तो इस सम्बधं में यह ध्यान रहता है कि यह वैभव साधारण श्रम करने पर जितना आना हो आये, हममे तो वह कला है कि उसके अन्दर ही अपना गुजारा और निबटारा कर सकते है। अपनी आवश्कताएँ बढ़ाकर धनकी आय के लिए श्रम करना यह उचित नही है, किन्तु सहज ही जो धन आये उसे ही ढंगसे विभाग करते गुजारा कर लेना चाहिए। अपनी आवश्यकताएँ बढ़ाकर फिर उनकी पूर्ति के लिए धन संचय करना, श्रम करना, नटखट करना यह सज्जन पुरूष नही किया करते है। कितनी ही अनेक वाहियात बातें है, बीडी पीना, सिनेमा देखना, पान खाते रहना और बाजारू चाट चटपटी आदि छोटी छोटी चीजें खाना- ये सब व्यर्थकी बातें है, इन्हें न करें तो इस मनुष्यका क्या बिगड़ता है, बल्कि इनके करनेसे मनुष्य बिगड़ता है। बीड़ी पीने से कलेजा जल जाता है और उससे कितने ही असाध्य रोगो का आवास हो जाता है, सिनेमा देखने से दिल में कुछ चालाकी, ठगी, दगाबाजी अथवा काम वासनाकी बातें इन सबकी शिक्षा मिल जाती है। लाभ कुछ नही देखा जाता है। इन व्यर्थ की बातो को न करें उसे कितना आराम मिले।
व्यामोहमें अविवेक और विनाश – भैया! धनसंचयकी तीव्र इच्छा न रहे, एक या दो टाइम खा पी लिया, तुष्ट हो गए, फिर फिक्र की कुछ बात भी है क्या? लेकिन तृष्णवश यह पुरूष अप्राप्त वस्तुकी आशा करके प्राप्त वस्तुका भी सुख नही लूट सकते है। वे तो मद्यके नशेमें उन्मत हुए प्राणियोके समान अपने स्वरूप को भूल जाते है। अपने हितका मोहमें कुछ ध्यान नही रहता है। मत्त होने में बेचैनी पागलपन चढ़ता है, शरीरबल जैसे
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क्षीण हो जाता है ऐसे ही परव्यामोहमें ज्ञानबल क्षीण हो जाता है। पागल पुरूष नशे में उन्मत होकर अपने स्वरूपको भूल जाते है, अपने हितका ध्यान नही रख सकते है । ऐसे ही धनी पुरुष भी दूसरो की सम्पदा, घर आदिको विनष्ट होते हुए देखकर कभी विचार नही करते कि यह काल अग्नि इस तरह मुझे भी न छोड़ेगी, अतः शीघ्र ही आत्महित कर लेना श्रेष्ठ है ।
गलती को भी मानने का व्यामोह इस जीव में ज्ञान भी प्रकाशमान हे और रागादिकके रंग भी चढ़े हुए है जिससे ज्ञान का तो उपयोग दूसरो के लिए करते है और कषायका उपयोग अपने लिए करते है। दूसरोकी रंच भी गल्ती ज्ञानमें आ जाती है और उसे वे पहाड़ बराबर मान लेते है। अपनी अपनी बड़ी गलती भी इन्हे मालूम ही नही होती है, ये तो निरन्तर अपने को चतुर समझते है। कुछ भी कार्य करे कोई, ललाका कार्य करे अथवा किसी प्रकार का हठ करे तो उसमें यें अपनी चतुराई मानते है। मै बहुत चतुर हूं। खुद अपने मुँह मियामिट्ठू बनते है। अपने को कलावान, विद्यावन, चतुर मान लेने से तो कार्य सिद्वि न हो जायगी। अपनी तुच्छ बातो पर चतुराई मनाने में यह जीव अपने आपको बड़ा विद्वान समझ रहा हे। उपदेश देने भी बड़ा कुशल हो जाता है। शास्त्र लेकर बाँचने बैठा या शास्त्र सभा करने बैठा तो राग द्वेष नही करने योग्य है । और आत्मध्यान करने योग्य है- इस विषयका बड़ी कला और खूबीसे वर्णन कर लेता है पर खुद भी उस सब हितमयी वार्ताको कितना अपने में उतारता है सो उस और भावना ही नही है ।
अज्ञानीकी समझमे अपनी भूल भी फूल भैया ! दूसरो की विपत्ति तो बहुत शीघ्र पकड़ में आ जाती है, किन्तु अपने आपकी बड़ी भूल भी समझ मे नही आती। कभी किसी जीव पर क्रोध किया जा रहा है और उससे लड़ाई की जा रही है तो बीच बिचौनिया करने वाला पुरूष मूढं जंचता है इस क्रोधको । इसे कुछ पता नही है कि मै कितना सहनशील हूं। और यह दूसरा कितना दुष्ट व्यवहार करने वाला है? उसे क्रोध करते हुए भी अपनी चतुराई मालूम हो रही है, परन्तु दूसरे पुरूष जानते है, मजाक करते है कि न कुछ बात पर बिना प्रयोजनके यह मनुष्य कितना उल्टा चल रहा है, क्रोध कर रहा है। विषयकषायोकी रूचि होने से इस जीवपर बड़ी विपदा है। बाहरी पौद्गलिक विपदा मिलनेपर भी यह जीव कितना अपने मन में विषयकषायोको पकड़े हुए है इन विषयो`स जुदा हो पा रहे है या नही, अपने पर कुछ हमने काबू किया या नही इस और दृष्टि नही देते है ये अज्ञानी पुरुष । तो प्रत्येक परिस्थिति में अपने को चतुर मानते है ।
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विभाव विपदा मोह, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ इन 6 जातियोके जो विभाव परिणाम है यह ही जीवपर वास्तविक विपदा है। जीवोपर विपदा कोई अन्य पदार्थ नही ढा सकते है। ये अपनी कल्पना में आप से ही विपदा उत्पन्न कर रहे है। क्या है विपत्ति इस जीवपर? मोह अज्ञान कामवासना का भाव । क्रोध मान, माया, लोभ आदि के कषायो के
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परिणमन ये सब है विपदा। इन सब विपदावोको विपदारूप से अपनी नजरमें रखना है। इन सब विपदावो से छूटने का उपाय केवल भेदविज्ञान है। जितने भी अब तक साधु हुए है वे भेदविज्ञानके प्रतापसे हुए है, और जो अबतक जीव बंधे पड़े है व इस संसार में रूलते चले जा रहे है वे इस भेदविज्ञानसे अभावसे ऐसी दुर्गति पा रहे है। यथार्थ विपदा तो जीवपर मोहकी, भ्रमकी है। भ्रमी पुरूष अपनेको भ्रमी नही समझ सकता। यदि अपनी करतूत को भ्रमपूर्ण मान ले तो फिर भ्रम ही क्या रहा? भ्रम वह कहलाता है जिसमें भ्रम भ्रम न मालूम होकर यथर्था बात विदित होती है भ्रमका ही नाम मोह है। लोग विशेष अनुरागको मोह कह देते है किन्तु विशेष अनुरागका नाम मोह नही है, भ्रम का नाम मोह है। रागके साथ साथ जो एक भ्रम लगा हुआ है, यह मेरा है, यह मेरा हितकारी है, ऐसा जो भ्रम है उसका तो नाम मोह है और सुहावना जो लग रहा है उसका नाम राग है।
भ्रमकी चोट - राग से भी बड़ी विपदा, बड़ी चोट मोहकी होती है। इस मोहमें यह जीव दूसरे की विपदाको तो संकट मान लेता है। अमुक बीमार है, यह मर सकता है इसका मरण निकट आ गया है, ये लोग विपदा पा सकते है। सबकी विपदावोको निरखता जायगा, सोचता जायगा किन्तु खुद भी इस विपदा में ग्रस्त है ऐसा ध्यान न कर सकेगा। इस भ्रमके कारण, बाहादृष्टिके कारण यह जीव सम्पदासे क्लेश पा रहा है और उस ही सम्पदामें यह अपनी मौज ढूढं रहा है। ज्ञानी पुरूष न सम्पदामें हर्ष करता है और न विपदा में विषाद मानता है।
आयुर्वृद्विक्षयोत्कर्षहेतुं कालस्य निर्गमम् ।
वाञछतां धनिनामिष्टं जीवितात्सुतरां धनम् ।।15।।
लोभीके जीवनसे भी अधिक धन से प्रेम - जिस वैभव के कारण मनुष्यपर संकट आते है उस वैभव के प्रति इस मनुष्यका प्रेम इतना अधिक है कि उसके सामने जीवन का भी उतना प्रेम नही करता है। इसके प्रमाणरूपमें एक बात यह रखी जा रही है जिससे यह प्रमाणित हो कि धनी पुरूषोको जीवन से भी प्यारा धन है। बैंकर्स लोग ऐसा करते है ना कि बहुत रकम होने पर ब्याज से रकम दे दिया करते है। व्याज कब आयगा, जब महीना 6 महीना, वर्षभर व्यतीत होगा। किसीको 2 हजार रूप्या व्याज पर दे दिया और उसका 10 रूप्या महीना ब्याज आता है तो एक वर्ष व्यतीत हो तो 120 रूप्या आयगा। तो ब्याज से आजीविका करने वाले पुरूष इसकी प्रतीक्षा करते है कि जल्दी 12 महीने व्यतीत हो जावें। समयके व्यतीत होने की ही बाट जोहते है तभी तो धन मिलेगा। अब देखो कि एक वर्ष व्यतीत हो जायगा तो क्या मिलेगा? ब्याज धन और यहाँ क्या हो जायगा एक सालका मरण। जिसको 50 साल ही जीवित रहना है तो एक वर्ष व्यतीत हो जायगा तो अब 49 वर्ष ही जियेगा।
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जीवनसे भी अधिक धन से प्रेम होनेका विवरण – भैया! समयका व्यतीत होना दो बातो का कारण है- एक तो आयु के विनाशका कारण है और दूसरे धनप्राप्तिका कारण है। वर्ष भर व्यतीत हो गया इसके मायने यह है कि एक वर्ष की आयुका क्षय हो गया और तब व्याजकी प्राप्ति हुई । यो कालका व्यतीत होना, समयका गजर जाना दो बातो का कारण है- एक तो आयुके क्षयका कारण है और दूसरे धनकी वृद्विका कारण है। जैसे ही काल गुजरता है तैसे ही तैसे जीवकी आयु कम होती जाती है और वैसे ही व्यापार आदिके साधनोसे धनकी बरबादी होती है। तो धनीलोग अथवा जो धनी अधिक बनना चाहते है वे लोग कालके व्यतीत होने को अच्छा समझते है, तो इससे यह सिद्ध हुआ कि इन धनिक पुरूषो को धन जीवन से भी अधिक प्यारा है। वर्ष भरका समय गुजरनेपर धन तो जरूर मिल जायगा पर यहाँ उसकी आयु भी कम हो जायेगी। ऐसे धनका जो लोभी पुरूष है अथवा धन जिसको प्यारा है और समय गुजरनेकी बाट जोहता है उसका अर्थ यह है कि उसे धन तो प्यारा हुआ, पर जीवन प्यारा नही हुआ।
__ लोभसंस्कार - अनादिकाल से इस जीवन पर लोभका संस्कार छाया हुआ है। किया क्या इस जीवने? जिस पर्याय में गया उस पर्याय के शरीर से इसने प्रीति की, लोभ किया, उसे ही आत्मसर्वस्व माना। अनादिकालसे लोभ कषायके ही संस्कार लगे है इसके कारण यह जीव धनको अपने जीवन से भी अधिक प्यारा समझता है। देखो ना समय के गुजरने से आयुका तो विनाश होता है और धन की बढ़वारी हाती है। ऐसी स्थिति में जो पुरूष धनको चाहते है, काल के गुजरनेको चाहते है इसका अर्थ यह है कि उन्हे जीवन की तो परवाह नही है और धनवृद्वि की इच्छा से कालके गुजरनेको हितकारी मानते है। ऐसे ही अन्य कारण भी समझ लो जिससे यह सिद्ध है कि धन सम्पदा के इच्छुक पुरूष धन आदि से उत्पन्न हुए विपदाका कुछ भी विचार नही करते। लोभकषायमें यह ही होता हे। लोभ में विचार होता है तो केवल धनसंचयका और धनसंरक्षणका | मैं आत्मा कैसे सुखी रहूं शुद्ध आनन्द कैसे प्रकट हो, मेरा परमार्थ हित किस कर्तव्य में है, ऐसी कुछ भी अपने ज्ञान विवेकी बात इसे नही रूचती है। कितनी ही विपदाएँ भोगता जाय पर जिसकी धुन लगी हुई है। उसकी सिद्वि होनी चाहिए, इस टेकपर अड़ा है यह मोही। यह सब मोहका ही एक प्रसाद है।
धनविषयक जिज्ञासा व समाधान - यहाँ यह जिज्ञासा हो सकती है कि धनको इतना बुरा क्यो कहा गया है? धनके बिना पुण्य नही किया जा सकता, पात्रदान, देवपूजा, वैयावृत्य, गरीबोका उपकार ये सब धनके बिना कैसे सम्भव है? तब धन पुण्योदयका कारण हुआ ना। इसे निंद्य कैसे कहा? वह धन तो प्रशंसाके योग्य है जिस धनके कारण परोपकार किया जा सकता है। तब यह करना चाहिए कि खूब धन कमावो और अच्छेकार्य में लगावो, पुण्य पैदा करो। धन सम्पदा वैभवको क्यों विपदा कहा जा रहा है, क्यो इतनी निन्दा की
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जा रही है? इसके उत्तर में संक्षेपतः इतनी बात समझ लो कि ये दान पूजा जो किए जाते है वह धन कमानेके कारण जो पाप होता है, अन्याय होता है अथवा पाप होते हे उनका दोष कम करने के लिए प्रायश्चित स्वरूप ये सब दान आदिक किए जाते है, और फिर कोई मैं त्याग करूँगा, दान करूँगा इस ख्याल से यदि धनका संचय करता है। तो उसका केवल बकवाद मात्र है। जिसके त्याग की बुद्धि है । वह संचय क्यों करना चाहता है? संचय हो जाता है तो विवके में उस संचित धनको अच्छी जगह लगाने के लिए प्रेरणा करता है, पर कोई पुरूष जान जानकर धन उपार्जित करे और यह ख्याल बनाये कि मै अच्छी जगह लगाने के लिए धन कमा रहा हूं तो यह धर्मकी परिपाटी नही है। ऐसा परिणाम निर्मल गृहस्थका नही होता है कि मै दान करने के लिए ही धन कमाऊँ । यदि ऐसा कोई सोचता भी है तो उसमें यश नामकी भी लिप्सा साथ में लगी होती है, फिर उसका त्याग नाम नही रहता है, इस ही बात को अब इस श्लोक में कह रहे है
त्यागाय श्रेयसे वित्तमवित्तः संचिनोति यः ।
स्वशरीरं स पड. केन स्नास्यामीति विलिम्पति । ।16 ।।
धनार्जनका उपहास्य बनावटी ध्येय - जों धनहीन मनुष्य दान पूजा आदिकार्यों के ध्येय से अथवा पुण्य - प्राप्ति के ध्येय से या पापोका नाश करूँगा इस ख्याल से धनोपार्जन करता है- सेवा करे, खेती करे, व्यापार करे, इन कार्यो से धनको इकट्ठा करता है वह पुरूष मानो इस प्रकारका कार्य कर रहा है जैसे कोई पुरूष "मैं नहाऊंगा" यह ख्याल करके, यह आशा रखकर कीचड़ लपेटता है। मै नहाऊंगा सो कीचड़ लपेटना चाहिए ऐसा कौन सोचता है? संसार के अधिकाशं जीवो की यह धारणा रहती है कि धनकी प्राप्ति के लिए यदि निन्द्य से निन्द्य भी कार्य करने पड़े तो भी उनको करके धनका संचय कर लें और उस धनसंचय में, उस अन्याय कर लेने में जो पाप लगेंगे उन पापोको धोने के लिए या उसके बदले में धनका दान देकर, देवपूजा करके, गुरुभक्ति करके, सेवा करके, परोपकार करके पुण्य प्राप्त कर लेंगे परन्तु ऐसा ख्याल करना ठीक नही है। इसका कारण यह है कि जो कुमार्ग से धनंसचय करता है वह तो अज्ञानी पुरूष है।
दृष्टान्त विवरण सहित अनाड़ी के अविवेक का प्रदर्शन भैया ! जिसको कुछ भी विवके जगा है वह कुमार्गो से धनका सचंय न करेगा। जैसे कोई पुरूष मै नहा लूंगा, मै नहा लूंगा ऐसा अभिप्राय करके शरीर में कीचड़ को लपेटता है तो उसे दुनियाके लोग विवेकी न कहेगे। कीचड लपेटे और नहाये तो उससे क्या लाभ है? ऐसे ही पाप करके धनसंचय करे और वह मनमें यह समझे कि मै इस धनको दान, परोपकार, सेवा आदिके अच्छे कार्यो में खर्च कर दूँगा और करे खोटे मार्ग से धनका संचय, तो वह तो अज्ञान अंधकार से घिरा हुआ है, और वह जो अच्छे कार्यो में लगाने की बात सोच रहा है सो
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उसकी दृष्टि अच्छे कार्यो का ख्याल ही नही है। वहाँ भी केवल मानपोषण लोभ पुष्टि आदि ही लगे हुए है। कदाचित् भाग्यवश धन भी मिल जाय तो खोटे रास्तो से कुमार्गोसे छल करके, अन्याय करके, दगा देकर किसी भी प्रकार धनसंचय करता है तो उसका धन पाप कार्यो में ही लग सकता है, अच्छे कार्यो में लगने की अत्यन्त कम सम्भावना है। लोग भी प्रायः इस प्रकार देखतें है कि जिनकी कमाई खोटी होती है, खोटी कमाई से धनका संचय होता है तो वह वैसा पाप कार्यो में लगकर खर्च हो जायगा। अथवा किन्ही झंझटो से किन्ही प्रकारो से किन्ही प्रकारो से लूट पिटकर नष्ट हो जायगा, अच्छे कार्यो में वह नही लग पायगा।
शुद्ध अर्जन से धनकी अटूट वृद्धि की अशक्यता - नीतिकार कहते है कि सज्जनो की सम्पत्ति शुद्व धन से नहीं बढ़ पाती है। जैसे समुद्र स्वच्छ जलकी नदियोसे नही भरा जाता है, गंदा पानी मटीला मैला पानी से समुद्र भरा करता है। स्वच्छ निर्मल जल से नदियोकी भरमार नही होती है। गंदले मलिन जलसे ही नदियाँ भरी होती है और उन नदियो से ही समुद्रं भरा जाता है। यो ही समझिये कि सज्जन पुरूष भी हो उस तक के भी सम्पदा एकदम बढ़ेगी तो शुद्व मार्ग से न बढ़ेगी। धनसचंय में कुमार्गोका आश्रय लेना ही पड़ता है। ठीक है। अध्यात्मदृष्टिसे तो आत्मतत्वकी दृष्टि को छोड़कर कि किन्ही भी बाहा पदार्थो दृष्टि लगाये, उनकी आशा करें तो वे सब अनीतिके मार्ग है, कुमार्ग है लेकिन जिस पदमें संचयके बिना गुजारा नही हो सकता ऐसे गृहस्थ की अवस्थामें कोई और उपाय नही है। उसे धनका सचंय अथवा उपार्जन करना ही पड़ता है। ठीक है, लेकिन इतना विवके तो होना चाहिये कि लोक में जो अनिहित मार्ग है, कुमार्ग है उनसे धन संचय र करे। विशुद्व नीति मार्ग से ही धनका उपार्जन करे।
यथार्थ सचाईके बिना ऐहिक कठिन समस्या - आज के समय में आजीविकाकी कठिन समस्या सामने है। लोग जैसे कि कहते है कि ब्लेक किए बिना, टैक्स चुराये बिना दो तरहकी कापियाँ लिखे बिना काई धन कमा ही नही सकता है, वह सुखसे रोटी भी नही खा सकता है, उस पर टैक्स का अनुचित बोझ लद जाता है। इस सम्बन्ध में प्रथम तो बात यह है कि यह व्यापारी ईमानदार है, सच्चा है यह प्रमाण नही है, इस कारण अनाम सनाप टैक्स लगा दिया जाता है जिन पुरूषोके सम्बन्ध में यह निर्णय भली प्रकार हो जाता है और जिनकी सच्चाई के साथ सारे कागजात पाये जाते है तो कुछ वर्षों में उसकी सच्चाई का ऐसा ढिंढोरा हो जाता है कि लोग उसे समझते है कि यहाँ सत्य बात होती है। तो उसके व्यापार में कमी नही आती है और न फिर अधिकारी उसे सताते है। लेकिन जब अधकचरे ढंगसे कुछ सच्चाई काम करे कुछ संदेह है सो कभी कभी कुछ डिग जाये सो ऐसे डगमग पग से सच्चाई की व्यवस्था की जाती है उससे पूरा नही पड़ता हे तो कमसे
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कम अंतरंग में तो सच्चाई रखे। जैसे कि वस्तुपर जितना लाभ लेना है उसपर उतना ही लाभ रखे। यह मनमें भावना न करे कि मै किसी का नीतिसीमा से भी अधिक धन ले लूँ।
व्यापारिक सच्चाईका आधुनिक एक उदारण जो सर्वथा सत्यव्यवहार करते है व जो निर्णयमें सत्य व्यवहार करते है, बहुत जगह मिलेंगे इस तरह के मनुष्य । पहिले प्रकार का मनुष्य मुजफ्फरनगर में जाना गया था। सलेखचंद स्टेशनरीकी दूकान कितनी बड़ी है? तो वकील थे। राजभूषण, जो अब भी है। बोले कि तीन चार फुट चौड़ी और 4.5 फुट लम्बी है सलेकचन्द बोले कि साहब इसके पीछे एक हाल भी है जज सुन बड़ा हैरान हो गया, कही दुकानदारको ऐसा करना चाहिए ? फिर जज पूछता है कि राज कितने की बिक्री होती है? तो वकील कहता है कि कभी 20रू की, कभी 30रू की और कभी 50रू की। जब जजने सलेखचंद की ओद देखा तो सलेंखचन्द कहते है हाँ साहब कभी 20रू की बिक्री होती है कभी 30 की होती है कभी 50, की होती है और कभी 500रू तक की भी हो जाती है। और भी जजने एक दो प्रश्न किया । तो जज कहता है कि वकील साहब! तुम कितना ही भरमावो, पर यह धनी तो अपनी सच्चाई पर ही कायम है। धनीका ही वकील था। तो उस जजने उसी हिसाब से टैक्स लगाया जो सलेखंचंदकी बहीमें था और यह नोट कर दिया कि हमने ऐसा सत्य पुरुष अभी तक नही देखा ।
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लेनदेनके समय की सच्चाईका एक आधुनिक उदाहरण दूसरी बात यह है कि भले ही ग्राहकों से कुछ भाव तावकी बात करे पर जब तय हो जाय और माल दिया जाने लगे तो ज्यादा दाम अगर आ रहे हो तो उसके दाम वापिस कर दे। ऐसे भी कई होते है, अभी भादोमें जो बाबूलाल हरपालपुरके आये थे। उनके ऐसा नियम है। कोई कपड़ा दो रूपया गजका पड़ा हो और सवा दो रूपया गज देना हो तो भाव ताव करने पर यदि 2||रू0 गज ठहर गया तो देते समय 2 ।। रू गज के दाम रखकर फिर 4 आने गजके दाम वापिस कर देते है। ग्राहक कुछ कहता है तो वह कहते है कि हमारा नियम है हम इतने से ज्यादा नही ले सकते। यदि ग्राहकने कहा कि ठहराया तो इतनेका ही था ना, तो वह कहते कि सभी दूकानदार भाव ठहराते, हम न ठहराये तो ग्राहक न आये, सो भाव ठहराना पड़ता है, पर हम अपने नियम से ज्यादा नही ले सकते । तो दूसरे नम्बरकी यह भी सच्चाई है।
ज्ञानीका चिन्तन जो अंतरंग में केवल धनसंचय करना, किसी भी प्रकार हो, अधिक से अधिक दूसरों का धन आना ही आना चाहिए ऐसा परिणाम हो तो वहां सन्मार्ग तो अपनाया ही नही जा सकता। ज्ञानी संत तो यो विचारता है कि जो धन चाहते है वे धनकी अप्राप्ति में दुःखी होते है । जो धनी है उन्हे तृप्ति नही होती है इस कारण दुःखी है। सुखी तो केवल आकिञ्चन्य आत्मस्वरूपको अपनाने वाले योगी जन होते है । सम्पत्ति और विपत्ति ये दोनो ही ज्ञानी पुरूषो के लिए एक समान है। विपत्तिको भी वे औपाधिक चीज
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मानते है और क्लेश का कारण मानते है। इस धन को पुण्य का उत्पादक समझना भ्रम है यदि यह धन पुण्यका उत्पादक होता तो बड़े बड़े महाराज चक्री आदि क्यों इसका परित्याग कर देते ? विवश होकर धन कमाना पड़ता है तो विवेकी जन उस अपराधके प्रायश्चितमें अथवा उस अपराध से निवृत्त होने की टोहमें ऐसा परिणाम रखते है। जिससे दान और उपकार में धन लगता रहता है।
आनन्दसमृद्धि का उपाय हे आत्मन् ! यदि तुझे आनन्दकी इच्छा हो तो परपदार्थो इष्ट अनिष्ट बुद्विका परित्याग कर और शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप निज तत्वका परिचय कर। शुद्व अनादि अनन्त स्वभाव आत्माके आश्रयसे ही प्रकट होता है। आनन्दमयय आत्मतत्वको रखनेवाले उपयोग में ऐसी पद्धति बनती है जिससे आनन्द ही प्रकट होता है वहाँ क्लेशके अनुभवका अवकाश ही नही है । जो पुरूषार्थी जीव सत्य साहस करके निर्विकल्पज्ञानप्रकाशकी आस्था रखते है उन्हीका जीवन सफल है। आनन्द आनन्दमय परमब्रहृम की उपासनामें है। आनन्द वास्तविक समृद्धि में है । समृद्विसम्पन्नता होनेका नाम ही आनन्द है। परमार्थसमृद्विसम्पन्नता में निराकुलता होती ही है। यह सम्पन्नता त्यागमय स्वरसपरिपूर्ण आत्मतत्वके अवलम्बनसे प्रसिद्ध होती है।
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आरम्भे तापकान् प्राप्तावत्प्तिप्रतिपादकान् ।
अन्ते सुदुस्त्यजान् कामान् कामं कः सेवते सुधीः । । 17 ।।
भोगके उद्यमें हैरानिया ये विषयोके साधन प्रारम्भमें, मध्यमें, अंत मे सदा दुख के ही कारण होते है, फिर भी मोही जीव दुःखो को भोगते जाते हे और उन भोगसाधनोसे ही रति करते रहते है। ये भोग आरम्भमें संतोष उत्पन्न करते है । भोगो के साधन जुटाने के लिए कितना उद्यम करना पड़ता है? कमाई करे, रक्षा करे, चीजे जोड़े, कितने क्लेश करते है, एक बढिया भोजन खाने के लिए 24 घंटे पहिले से ही तैयारियाँ करते है और फल कितना है, उस भोजन का स्वाद कितनी देरको मिलता है, जितनी देर मुखमें कौर है । वह कौर गले के नीचे चला गया, फिर उसका कुछ स्वाद नही । पेट में पड़े हुए भोजन का स्वाद कोई नही ले सकता है। और फिर उनके साधन जुटाने में कितना श्रम करना पड़ता है ? आज बड़े-बड़े लोग हैरानी का अनुभव कर रहे है कि बड़े विचित्र कानून बन रहे है, टैक्स लगा रहे है, मुनाफा नही रहा, पर उनकी और दृष्टि नही है जो 40-45 रूपया माह पर दिनभर जुटे रहते है। कैसे दृष्टि हो, दृष्टि तो विषयसाधनो के भोगने की है। ये भोगो के साधन आरम्भ में संताप उत्पन्न करके शरीर, इन्द्रिय और मन को क्लेश के कारण होते है । सेवा, वाणिज्य कितनी ही प्रकार के उद्यम करने पड़ते है तब भोगो के साधन मिल पाते है ।
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भोग से अतृप्ति व समय की बरबादी
जब ये भोग प्राप्त हो जाते है तब भोगते भी तृप्ति नही होती है। कोई सा भी भोग आज खूब भोग लो, कल से विकल्प न करना, कोई कर सके ऐसा तो खूब भोग भोगो, पर ये भोग ऐसे बुरे है कि ज्यो भोगो त्यों अतृप्ति होती है। तृप्ति नही होती है। भोग भोगने में भोग नही भोगे गये, यह भोगने वाला खुद भुग गया। भोग का क्या बिगडा ? वह पदार्थ तो जो था सो है । अथवा किसी भी प्रकार का उनमें परिणमन हो वे पुद्गल के विकार है उनका क्या बिगाडा? बिगड़ा तो इस भोगने वाले का। जीवन गया, समय गुजरा, मनुष्यभव खोया, जिस मनुष्यभव में ज्ञान की लौ लगायी जाती तो जरा जानने का हिसाब लगावो, दस दस अक्षर ही रोज सीखते तो साल भर में मान लो। 3।। हजार अक्षर सीख लेते और समझ की उम्र कितनी निकल गयी, मान लो 40 वर्ष निकल गयी तो 40 वर्ष में कितने अक्षर सीखते इसका अंदाज तो लगावो । बड़े-बड़े साधु संत अपनी बड़ी बुद्धि वैभव से जो कुछ उन्होने पाया, सीखा, अनुभव किया उसका निचोड़ लिख गये है, पर उनके इस सारभूत उपदेश को सुनने, बांचने देखने तक की भी हिम्मत नही चलती। क्या किया मनुष्य जन्म पाकर ?
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भोग से अतृप्ति की वृद्धि ये भोग जब भोगे जा रहे हो तो ये असंतोष को ही उत्पन्न करते है। उनके भोगने की फिर बार-बार इच्छा हो जाती है। किसी देहाती पर आपको यदि क्रोध आ रहा हो उसके किसी असद्व्यवहार के कारण, तो उसको बरबाद करने की मन में आती है ना, तो उसको बिल्कुल बरबाद आप कर दे, उसका उपाय तो यह है कि कुछ मिलने लगे तो बस वह अपने जीवन को बरबाद कर डालेगा। उसे बरबाद ही करना है तो यह है उपाय । उसे चखा दो कोई भोग तो वह विषयसाधनो में बरबाद हो जायेगा। लोग विषय भोगकर अपनी बड़ी चतुराई मानते है, मैने ऐसा भोगा, ऐसा खाया बहुत रसीली चीजें खाने वाले व्यक्ति अंत में बहुत बुरी तरह से रोगी हो सकते है । और रूखा सूखा संतोष भर खाने वाले पुरूष कहो चंगें रह सकते है ।
भोग में व्यग्रता - भैया ! काहे का भोग भोगा, कौन सी चतुराई पा ली ? ये भोग असन्तोष को ही उत्पन्न करते है । भोग भोगते समय शन्ति नही रहती है। कोई सा भी भोग हो, वह शान्ति के साथ नही भोगा जाता है। चाहे खाने का भोग हो, चाहे सूघंने का भोग हो, चाहे किसी रमणीक वस्तु को देखने को भोग हो, चाहे कोई राग रागिनी भरे शब्दो के सुनने का भोग हो, चाहे कामवासना का भोग हो, कोई भी भोग शान्ति के साथ नही भोगा जा सकता है। भोगते समय व्यग्रता और आकुलता नियम से होती है । भोगने का संकल्प बने तब व्यग्रता, भोग भोगो तब व्यग्रता और भोग भोगने के बाद भी व्यग्रता । आदि से अंत तक उन भोगो के प्रसंग में क्लेश ही क्लेश होते है ।
भोग से अतृप्ति का दृष्टान्तपूर्वक समर्थन भोग भोगने से तृप्ति नही होती है। जैसे अग्नि कभी ईधन को खा-खाकर तृप्त नही हो सकती है, जितना ईधन बढे उतना ही
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आग की ज्वाला बढेगी, ऐसे ही इन दन्द्रिय के विषयो के भोगो से भी कभी तृप्ति नही होती ज्यो ज्यो विषय मिले त्यो त्यों अतृप्ति होती है। संसार में सब जीव एक से दुःखी है, गरीब और अमीर दोनो एक से दुःखी है। उनके दुःख की जाति में थोड़ा अन्तर है, पर दुःख का काम क्या है? विहल बना देना। सो यह बात गरीब और अमीर दोनो में एक समान होती है। गरीब भूख के माने तड़फ पर विहल होता है तो अमीर लोग मानसिक वेदनावो में, ईर्ष्या तृष्णा की ज्वालावो में जलकर दुःखी रहते है। बल्कि गरीब के दुःख से अमीर के दुःख बड़े है। गरीब हार्ट फेल होने से मर जायें ऐसे कम उदाहरण मिलते है और हार्ट फेल होकर मर जाने वाले धनिको के उदाहरण अधिक मिलते है।
देवोके भी भोग से तृप्ति का अभाव – कहाँ है सुख, सब एक तरह के दुःख है। मनुष्यो की बात तो दूर जाने दो, देवता लोग जिनको भूख प्यास का संकट नही, जिन्हे
खेती दुकान आदि का आरम्भ नही करना पड़ता है, मनमाने श्रृंगार, वस्त्र, आभूषण उन्हे मिले हुए है। जो चाहें वह वस्तु उनको तुरन्त हाजिर है, फिर भी वे दूसरो की ऋद्वियाँ देखकर, सम्पदा देखकर, वैभव देखकर दुःखी होते है। कोई हुकुम देकर दुःखी होता है तो कोई हुकुम मानकर दुःखी मानकर दुःखी होता हे। दुःखी दोनो समान है। उन देवो में जो देव हुकुम दिया करते है वे हुकुम देकर दुःखी रहते है और हुकुम मानने वाला भी अपनी कल्पना से दुःखी रहा करता है। ये भोग भोगते समय अतृप्ति उत्पन्न करते है।
भोगवियोग में विक्षोभ – भोग भोग भी लिये जोये, पर जब इनका अंत होता है तो उस समय यह छोड़ना नही चाहता भोगों को और भोग छूटे जा ही रहे है। यह खुद मरता है तो सारा का सारा एकदम छूट रहा है। यह छोड़ना नही चाहता कोई क्या एक दमड़ी भी साथ ले जा सकता है, कहाँ ले जाता है? मनुष्य कमीज पहिने मर गया तो कमीज यही रह गयी जीव चला जाता है। कोई गद्दा तक्की पर पड़ा हुआ मर गया तो सब गद्दा तक्की यही धरे रह जाते है, जीव यो ही चला गया। सब चीजें यो ही छट जाती है। देखने में सब आता है, पर इस मोही जीव को इन भोगो के छोड़ने को साहस नही होता है। ज्ञानी पुरूष ही यह साहस कर सकता है कि सब कुछ जाता है तो जावो, ये मुझसे गये हुए तो पहिले ही थे। पहिले मै इनमें मिला ही कहाँ था? आदि, मध्य अंत तीनो ही अवस्थावों से किसी एक अवस्था में ही अगर भोगो से सुख मिलता होता तो चलो तब भी भोगो को अच्छा मान लिया जाय पर यहाँ तो सर्वत्र क्लेश ही क्लेश है सुख का तो नाम ही नही है। आरम्भ मे क्लेश, खेती करना, दुकान करना, शरीर का श्रम करना, इन्द्रिय और मन का कष्ट सहना वहाँ भी क्लेश ही है।
भोग से तृष्णा का प्रसार – जब भोग भोगे जाते है, इष्ट भोगो की प्राप्ति होती है तो यह तृष्णा सर्पिणी की तरह चंचल होकर भोक्ता को अशान्त बनाए रहती है। जैसे-जैसे भोग भोगे जाते है यह तृष्णा शान्त हो जायगी, बढ़ती जाती है तुप्ति नही होती है।
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कदाचित् कोई सोचे कि इस इष्ट के भोगने से तृष्णा शान्त हो जायगी, तृष्णा शान्त होने से मै संतुष्ट हो जाऊंगा सो यह सम्भव नही है। कोई पुरूष ऐसा सोचे कि इस समय विषयो को भोगा, वेदना, पीड़ा, कषाय, शान्त हो जायगी, फिर आगे उपद्रव न रहेगा उसका सोचना झूठ है। अरे इसी समय भोगो से विरक्त हो तो शान्ति का मार्ग निकालोगे अन्यथा नही। ये भोग आखिर छूट ही तो जाते है, फिर भी इन भोगो से तृप्ति नही मानी जा पाती, संतोष नही हो पाता। आग में कितना ही काठ डालो तृण डालो, पर वह तृप्त नही हो सकती । कदाचित् अग्नि तृप्त हो जाय, पर यह मोही प्राणी भोगों से कभी तृप्त नही हो सकता। सैकड़ो नदियां मिल जाये तो भी समुद्र तृप्त नही होता, बल्कि वह बड़ा होता जायगा । समुद्र नदियो से तृप्त नही होता है। कदाचित् समुद्र भी तृप्त हो जाय लेकिन यह मनुष्य भोगो से तो कभी भी तृप्त नही हो सकता ।
विवेकी जनो की भोगो से उपेक्षा- जो मनुष्य मूढ़ है, हित अहित का जिनके विवेक नही है वे भोगो के भोगने के समय भोगो को सुखकारी मानते है और भोगो में ही प्रीति बढ़ाते है लेकिन जो निर्मल चित्त है, विवेकी है, परीक्षक है वे इन क्लेशकारी विनाशीक भोगो की और नही भागते किन्तु आत्महितकारी रत्नत्रय मार्ग की ओर ही प्रगति करते है कोइ यहाँ प्रश्न करने लगे कि बड़े बड़े विद्वान बुद्विमान भी तो विषयों को भोगते हुए देखे जाते है । यहाँ विषय शब्द से सभी इन्द्रियो का विषय होना है। भोजन भी आ गया, सुगधित चीजें भी आ गयी, रागरागिनी सुनना, सभी विषयो की बात है । कोई जिज्ञासा करे कि बड़े बड़े विद्वान लोग भी भोगो को भोगते रहे। पुराणो में भी भोगो के भोगने की कथा सुनी जाती है, फिर तुम्हारा यह उपदेश कैसे संगत होगा? ठीक है लिखा है पुराणो में। तो भी भोगो का तजना शूरो का काम है, आखिर उन महापुरूषो में भी अनेको ने आखिर भोगो को तज भी तो दिया है। और जब ये भोग भी रहे थे तो वे विवेकी सम्यग्दृष्टि संत पुरूष उस काल में यद्यपि गृहस्थावस्था में चारित्र मोहनीय के उदयवश भोगो को छोड़ने में असमर्थ रहे लेकिन तब भी उनके अंतरंग से राग न था । जिनके सम्यग्ज्ञान हो गया है, भ्रम नष्ट हो गया है उनको फिर भ्रान्ति नही होती।
ज्ञानी के भोग से विरक्ति
अज्ञानी पुरूष ही इन भोगो को हितकारी समझते है और आसक्ति से सेवते है । ज्ञानी पुरूष भोगो को विपदा मानते है, भोगना पड़ता है भोग, फिर भी अन्तर में यह चाह रहती है कि कब इनसे निपट जाये, छुट्टी मिले। जैसे कैदी जेलखाने में चक्की पीसता है, किन्तु उसको चक्की पीसने में अनुराग है क्या ? रंच भी अनुराग नही है। जैसे घर में महिलाएँ चक्की पीसने के लिए जगती है और गाकर चक्की पीसती है तो उनको चक्की पीसने में अनुराग है पर कैदी को रंच भी अनुराग नही है। उसे तो चक्की पीसनी पड़ती है। वह तो जानता है कि यह एक आपदा है, इससे मुझे कब छुट्ठी मिले। इसी प्रकार ये भोग विषय चक्की पीसने की तरह है। यह जीव इस समय कैदी हुआ
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है, शरीर और कर्म के बन्धन में पड़ा है। वह जानता है कि ये आपदामय भोग मुझे भोगने पड़ रहे है किन्तु इनसे छुटकारा कब मिले, कैसे मिले, इस यत्न में भी वह बना रहता है।
विवेकी और अविवेकी की दृष्टि का सुख भैया ! विवेकी और अविवेकी में बड़ा अन्तर है। दाल में कभी नमक ज्यादा पड़ जाय तो लोग क्या कहते है कि दाल खारी है। अरे यह तो बतलावो कि दाल खारी है कि नमक खारी है। जरा सी दृष्टि के फेर में कितने अर्थ का अन्तर हो गया है। समझदार जानते है कि इसमें जो खारापन है वह नमक का है । कही मूग, उड़द आदि नमकीन नही होते है। ऐसे ही यह ज्ञानी जानता है कि ये जितने रागद्वेष विषय है ये सब कल्पना के सुख है, ये मेरे रस नही है, मेरे स्वाद नही है। ये कर्मो दयजन्य विभाव है। इनमें वह शक्ति नही होती है।
भोग के त्याग की भावना का परिणाम भैया ! पुराणो में जो चरित्र आए है भोग भोगने के, उनमें अंत में त्याग की भी तो कहानी है। उससे यह शिक्षा लेनी चाहिए कि ऐसे बड़े भोग भोगने वाले भी इन भोगो को छोड़कर शान्त हो सके है। जो विशिष्ट विवेकी पुरूष होते है वे आरम्भ से ही विषयो को बिना भोगे ही जीर्ण ऋण के समान असार जानकर छोड़ देते है। जैसे कपड़े में कोई जीर्ण तृण लगा आया हो, त्यागियों के पास आप बैठे हो और आपके कोट में कोई तिनका आ गया हो, चलते हुए रास्ते में आपको अपने कोट पर पड़ा हुआ तिनका दिख जाय तो आप उसे कैसा बेरहमी से बेकार जानकर फेंक देते है। तो जैसे जीर्ण तृण को इस तरह लोग फेंक दिया करते है ऐसे ही अनेक विवेकियों ने इस वैभव को भी जीर्ण तृण के समान जानकर शीघ्र ही अलग किया है। जो भोग तज देते है और आनन्दमय अपने आत्मस्वरूप में अपने को निरखते है उनका ही जीवन सफल है । भोग भोगने वाले का जीवन तो निष्फल गया समझना चाहिए ।
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तीन प्रकार के त्याग में जघन्य त्याग इन भोगो को कोई पुरूष भोगकर अंत में लाचार होकर त्यागते है और कोई पुरूष वर्तमान भोगों को भी त्याग देते है और कोई ऐसे उत्कृष्ठ होते है जो भोगने से पहिले ही उन्हे त्याग देते है। एक ऐसा कथानक चला आया है कि तीन मित्र थे। वे एक साथ स्वाध्याय करतें थे, उनमें एक बूढा था, एक जवान था और एक बालक किशोर अवस्था का था। तीनो में यह सलाह हुई कि अपने मे से जो कोई विरक्त हो वह दूसरे को आग्रह करता हुआ जाये और उन्हे भी सम्बोधे । उनमें से जो वृद्व महाराज थे उनके मन मे आया कि थोड़ा सा ही जीवन रहा है, अब विषय कषायो का त्याग कर धर्म सेना चाहिए। तो उस वृद्व ने एक साल तक इस बात का यत्न किया, जो सम्पदा थी, बहिन को, बुवा को, धर्मकाज में, भाइयों में, लड़को को जो कुछ बाँटना था उस बंटवारे मे 6-7 महीना समय लगाया। बाद में फिर उनकी व्यवस्था देखी कि हाँ सब लोग ठीक काम करने लगें, तब वह विरक्त होकर चलता I
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मध्यम त्याग- वृत विरक्त जा रहा है, रास्ते में उस जवान की दुकान मिलती थी। वह दुकान पर बैठा हुआ था, खुली दुकान चल रही थी। दुकान में जब वह वृद्व पहुँचा तो बोला कि हम तो विरक्त हो गए है इसलिए अब नगर छोड़कर जा रहे है। तो वह युवक बोला कि हम भी साथ चलतें है। सो दुकान छोड़कर साथ चलने लगा तो वह वृद्ध कहता है कि अरे लड़को को बला तो, इस दुकान का हिसाब किताब समझा दो, क्या लेना है, क्या देना है तब चलो,। तो युवक बोला कि जिस चीज को छोडना ही है तो उसे फिर क्या संभलवाये? वह वृद्ध बोला कि हम सब संभलवाकर आये है। जवान बिना संभलवाए दुकान से उठकर चल दिया।
उत्कृष्ट त्याग - वृद्व और युवक दोनेा विरक्त होकर जा रहे है। वह 20 वर्ष का बालक कही बड़े खेल में शामिल हो रहा था। उस खेलते हुए बालक से ये दोनो कहते है कि अब तो हम विरक्त हो गए है, जा रहे है। तो वह हाकी डंडा जो कुछ था वही फेककर बोला कि हम भी चलते है। दोनो बोले कि अभी तुम्हारी कल परसों सगाई हुई है और 10-15 दिन तुम्हारी शादी के रह गए है, तुम अभी रहो, फिर सोच समझकर आना। तो लड़का बोलता है कि जो चीज छोड़ने लायक है उस चीज में पहिले हम फँसे और फिर छोड़े तो इससे क्या लाभ है? वह वही से चल दिया। तो ये तीन प्रकार के लोग है। सबसे बढिया कौन रहा? उसके बाद जवान और तीसरा विरक्त तो हआ मगर उन दोनो में सबसे हल्का कौन रहा? बुड्ढा।
उत्तरोत्तर त्याग की महत्ता - जो भी त्यागी जन हुए है उनमें से किसी ने तो इन विषयभोगो की तृण के समान तजकर अपनी लक्ष्मी अर्थीजनो को दे दी, जो चाहने वाले थे या जहाँ लगाना चाहिए वहाँ लगाकर, देकर चल दिया। और कुछ पुरूष ऐसे हए कि इस धन सम्पदा को पापरूप तथा दूसरो को भी न देने के योग्य समझकर किसी को न दिया, यो ही छोड़ छोड़कर चल दिया, अब जिसके बंटवारे में जो होता है हौ जायगा। कोई पुरूष घर में रहता हुआ अचानक ही मर जाय, कुछ समझा भी न पाये तो उसकी गृहस्थी का क्या होता है? जो होना है वह हो जाता है। कोई पुरूष ऐसे होते है कि उस वैभव को दुःखदायी जानकर पहिले से ही ग्रहण नही करते है। इन तीनो प्रकार के त्यागी पुरूषो में उत्तरोत्तर के त्यागी श्रेष्ठ है।
वज्रदन्त चक्री के वैराग्य का निमित्त – एक कथानक प्रसिद्ध है - एक बार बज्रदन्त चक्रवर्ती सभा में बैठे हुए थे, एक माली एक कमल का फूल लाया। उस फूल के अन्दर मरा हुआ भंवरा पड़ा हुआ था। ये कमल के फूल दिन में तो फूले रहा करते है और फूले हुए वे कमल रात्रि को बंद हो जाते है, फिर जब दिन होता है तो फिर वे फूल जाते है। कोई कमल बहुत दिनो का फूला हुआ हो, बूढा हो गया हो वह तो फिर बंद नही होता, मगर जो दो एक दिन के ही फुले कमल हो वे रात्रि के समय बंद हो जाते है कोई भंवरा
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शाम से पहिले उस कमल में बैठ गया, उसकी सुगंध में आसक्त होकर वह उड़ न सका, कमल बंद हो गया। वही कमल माली तोड़कर सुबह लाया और राजा को भेट किया। राजा ने, चक्रवर्ती ने उस कमल को थोड़ा हाथ से खोलकर देखा तो मरे हुए उस भंवरे को देखा। उस भंवरे को देखकर वज्रदंत को वैराग्य जगा।
वज्रदन्त चक्री का वैराग्य - अहो यह भंवरा घ्राण इन्द्रिय के विषय में क्षुब्ध होकर अपने प्राण गवां चुका है और - और भी चितंन किया। मछली रसना इन्द्रिय के विषय में लोभ में आकर प्राण गवां देती है, हाथी स्पर्शन इन्द्रिय के लोभ में आकर प्राण गवां देता है, ये पतंगे नेत्र इन्द्रिय के विषय में लुब्ध होकर अपने प्राण गवां देते है। हिरन, सापं आदि संगीत प्रिय पशु कर्ण इन्द्रिय के लाभ में आकर जान गवां देते है। ये जीव केवल एक-एक विषय के लोभी है, एक-एक विषय में अपने प्राण नष्ट कर देते है, किन्तु यह मनुष्य पंचेन्द्रिय के विषयो का लोभी है। इसकी सभी इन्द्रियाँ प्रबल है। राग सुनने, रूप देखने, इत्र सुगंध सूंघने, स्वादिष्ट भोजन करने आदि का बड़ा इच्छुक है, कामवासना के साधन भी यह चाहता है, और इन इन्द्रियो के अतिरिक्त मन का विषय तो इसके बहुत प्रबल लगा हआ है। मन और पंचेन्द्रिया के विषयो का लोभी यह मनुष्य है, इसका क्या ठिकाना है? यो विचारते हुए वज्रदन्त चक्रवती विरक्त हो गए।
वज्रदन्त चक्री के पुत्रो का वैराग्य - वज्रदंत चक्रवर्ती के हजार पुत्र थै। बड़े पुत्र से कहा कि तुम इस राज्य को संभालो, हम तुम्हे तिलक करेंगे। बड़ा पुत्र बोला कि मिता जी आप मुझे क्यो राज्य सम्पदा दे रहे है? आप बड़े है आप ही इसे संभाले, हम तो आपके सेवक है। बज्रदन्त बोले कि नही मुझे राज्य सम्पदा से मोह नही रहा। मै आत्म कल्याण के लिए वन में जाऊगां, यह राज्य सम्पदा अब मुझे रूचिकर नही हो रही है, यह अनर्थ करने वाली है। तो पुत्र बोला कि जो सम्पदा अनर्थ करने वाली है फिर उसे आप मुझे क्यो दे रहे हे ? आप छोड़कर जायेगें तो हम भी आप के साथ जायेगे। मुझे इस राज्य सम्पदा से प्रयोजन नही है। दूसरे तीसरे सभी लड़को से कहा। उन लड़को में से किसी ने भी स्वीकार न किया और वे सबके सब वज्रदन्त के ही साथ दिगम्बरी दीक्षा लेने के लिए उत्सुक हुए। वज्रदन्त ने बहुत समझाया देखो तुम्हारी छोटी उमर है, अभी तुमने भोगो को नही भोगो है, कुछ दिन को रह जाओ जंगल में बहुत कठिन दुःख होगे, ठंडी, गर्मी, क्षुधा, तृषा आदि की अनेक वेदनाएं तुम कैसे सहोगे, तो पुत्र बोलते है कि पिता जी तुम तो साधानण राजा के लड़के हो और हम चक्रवती के पुत्र है, आपसे भी अधिक साहस हम रख सकते है। चक्रवर्ती जो होता है वह चक्रवर्ती का लड़का नही होता। सामान्य राजा का पुत्र हुआ करता है फिर वह अपने पौरूष से चक्रवर्ती होता है। तो चक्रवर्ती का लड़का लड़के यो कहते है और अपने पिता जी के साथ जंगल को चल देते है। उस समय बालक पौत्र को तिलक करके चल दिये थे।
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परिग्रहण की कलुषता - भैया ! खूब भोग–भागकर बाद में उनके विभाग बनाकर त्यागे, वह भी ठीक है। अनेक लोग तो ऐसे होते है कि मरते-मरते भी नही त्याग सकते है। जुलाहा कपड़े बुनता है तो वह भी पूरा नही बुन सकता है, अंत में दो चार अंगुल छारी उसे छोड़ना पड़ता है किन्तु यह मोही मनुष्य अपने जीवन के पूरे क्षण पूरता ही रहता है। मरते जा रहा है और कहता जाता है कि मेरे लल्ला को दिखा दो। और कदाचित् मर न रहा हो, कुछ रोग ऐसा आ गया हो कि दम न निकल रही हो, भीतर ही भीतर भीचा जा रहा है, बोल नही सकता । ऐसी स्थिति में कदाचित् बाहर से बेटा बेटी आ जाये और उसी समय संयोगवश उसका दम निकल लाय क्योकि बहुत दिनो से ऐसा दम घुटी हुई तो हो ही रही थी उसी समय बैटा बेटी आ जाये तो लोग कहते है कि इसका बेटा बेटी में दिल था इसीलिए अभी तक नही मर रहा था। अगर ऐसी बात हो तो बेटा बेटी को कभी न आना चाहिए ताकि उसकी जान न निकले, कभी न मरे। ठंडी आत्मा हो गयी तब यह मरा ऐसा अनेक लोग कहते है। चलो, वे भी अच्छे है जो भोगो को भोगकर, भोगो की असारता समझकर एक ज्ञाननिधि आत्मतत्व की और लौ लगाते है।
वैराग्य का तात्कालिक प्रभाव - भोग चुकने के बाद छोड़ने वालो से भी बढ़कर वे त्यागी है जो पाये हुए समागम में भी राग नही रखते है और त्याग देते है। वे बाल ब्रहाचारी तो विशेष के पात्र है जो भोगो में फंसते ही नही है। पलि से ही त्याग देते है। वे जानते है कि ये भोग साधन आरम्भ में दुःख दे, प्राप्त होने पर दुःख दे और अंत समय में दुःख दे।
ज्ञानदृष्टि बिना कल्याण अंसभावना - कोई भी जीव अपनी ज्ञानदृष्टि किए बिना शान्त सुखी नही हो सकता। ईट पत्थर सोना चांदी इनमें कहाँ आनन्द भरा हुआ है जो वहाँ से आनन्द भरा करे। धन्य है वे पुरूष जिनका चित्त निर्मल है, जिन्होने अपने सहज ज्ञानस्वरूप का परिचय पाया है और ज्ञानानुभव का आनन्द ले करके बैठे है। गृहस्थ जनो में भी अनेक महापुरूष ऐसे हुआ करते है जिन्हे कर्मोदय से बरजोरी भोग भोगना पड़ रहा है। परन्तु अंतरंग में अत्यन्त उदासीन रहते है ऐसे भी महापुरूष होते है। वे अपने गृहस्थ में भी आन्तरिक योग्य तपस्या बनाये हुए है। जीव, कर्म और कर्म फल - इन तीन तत्वो का जिनको यथार्थ विश्वास नही है वे भोगो का परित्याग कर ही नही सकते है। वे पूजा करें तो धन भोग बढ़ाने के खातिर करेंगे, वे धर्म साधन करे तो इसी लक्ष्य से करेंगे कि मेरे सम्पदा बढ़े, परिजन सुखी रहे, मौज बनी रहे, मौज बनी रहे, किन्तु यह समस्त मौज भी विपदा है।
समागम की विपदा - भैया! यह सम्पदा का समागम भी क्लेश हे। यह जीव तो सबसे न्यारा स्वतंत्र एक शुद्ध ज्ञानानन्दस्वरूप है, यह जब जन्मा तब क्या लाया और जब मरेगा तब क्या ले जायगा? इस जन्म मरण के बीच के कुछ दिन क्या मूल्य रखते है ?
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जैसे 50-60 वर्ष की उम्र में किसी दिन कोई स्वप्न आ जाय तो वह जो स्वप्न एक मिनट का है। उस सारी जिन्दगी में एक मिनट का दृश्य क्या मूल्य रखता है काल्पनिक है। उस एक मिनट का तो हिसाब बन सकता है किन्तु अनन्तकाल के सामने यह 50-60 वर्ष का जीवन कुछ भी हिसाब में नही आता है। यह कर्मो का फल है, यह करतूत है इस करतूत का यह फल होता है। वर्तमान में उसकी यह दशा है, उसका जो अशुद्ध परिणाम है, अन्याय का भाव है यही मुझ पर विपदा है।
प्रत्येक परिस्थिति स्वयं की करनी का परिणाम - सब न्याय इस अंतरंग प्रभु के द्वारा हो रहा है। खोटा परिणाम किया तो तुरन्त संक्लेश हुआ, कर्मबधं हुआ और उसके फल में नियम से दुर्गति भोगनी पड़ेगी। शुद्ध परिणाम यदि है तो चाहे कितनी भी विपदा आये, विपदा का सत्कार करे, क्या विपदा है? बाहा पदार्थो का परिणमन है। मुझमें बिगाड़ तब होगा जब मै उन परिणमनो के कारण अपने आप ही अपने सिर मोल ले लिया करते है। विपदा किस वस्तुका नाम है? किसी भी वस्तुका नाम विपदा नही है, कल्पना बनायी, लो विपदा बन गयी। आज 50 हजार का कोई धनी है और कदाचित् 500रू की ही पूंजी होती तो क्या ऐसा हो नहीं सकता था। अनेक पुरूष ऐसे गरीब पड़े हुए है, क्या ऐसी स्थिति हो नही सकती थी।
समागमका उपकार में उपयोग करनेका अनुरोध - भैया ! ऐसा निर्णय करे कि जो मिला है वह मेरे मौजके लिए नही मिला है। उसका या सदुपयोग करे कि अपनी भूख प्यास ठंड गर्मी मिटाने के लिए साधारण व्यय करके यह समझे कि जो कुछ आया है यह परोपकार के लिए आया है। दसलक्षणीमें बोलते है ना - खाया खोया बह गया, कल्पना के विषयो में जितना धन लगाया है वह खाया खोया बह गया की तरह है और जिन उपायोसे लोकमे ज्ञान बढ़े, धर्म बढ़े, शान्ति मिले, मोक्षमार्गका प्रकाश मिले उन उपायोमें धन का व्यय किया तो उसको कहा करते है, निज हाथ दीजे साथ लीजे। ये भोग शुरूमें भी, मध्यमें भी
और अन्तमें भी केवल क्लेशको ही उत्पन्न करने वाले हे। यह जानकर ज्ञानी पुरूष भोगोको हेय समझकर भोगते हुए भी नही भोगतें हुए के समान रहते है।
विषयविषमें अनास्था - जब चारित्र मोहनीय कर्मका उदय निर्बल हो जाता है जिनके अर्थात् कर्मोकी शाक्तिक्षीण हो जाती है तो वे भोगोका सर्वथा परित्याग कर सकते है। जो पहिलेसे यह भावना भाये कि ये भोग पराधीन है, दुःखकारी भरे हुए है, पापके कारण है ऐसे भोगोका क्या आदर करना ? भोगते हुए भी भोगो का अनादर रहे तो वह भोगोसे मुक्त हो सकता है, परन्तु अज्ञानी जीव ऐसा नही कर सकते है, उनके तो व्यामोह लगा है। उन्होने तो अपने आनन्दस्वरूपका परिचय ही नही पाया है। ये विषय सुख वास्तव में विष ही है, यह अनुभव अज्ञानियोको नही होता है। विषयभोग सम्बन्धी यह विष अत्यन्त भंयकर है। जो प्राणी विषयविषका पान करते है वे इस विषके द्वारा भव भवमें विषय सुखकी
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कल्पनामें रहते हुए विषयोसे उत्पन्न हुए दुःखको सहते रहते है। दुःख सहतें रहते है अज्ञानी, फिर भी कुछ चेत नही लाते है।
अन्तर्बाह्रा सात्विक रहन - भैया ! मोह को महत्व न दे, अपने आपका यह निर्णय रखे कि धन वैभव प्रशास्त नही होता क्योकि धन होगा तो बिरले ही पुरूषके भले ही वहाँ भोग उपभोगकी आसक्ति न हो सके पर प्रायः करके अज्ञानियोसे ही भरा हुआ यह जगत है।इस कारण वे भोग और उपभोगोमें आसक्त हो जाते है। भोग उपभोगकी लीनता अशुभ कार्यका कारण है और भोग उपभोग को उत्पन्न करने वाला धन है, तो इस धनको कैसे प्रशस्त कहा जा सकता है? हाँ कोई बिरले गृहस्थ जो बड़े विवेकी है अपने आडम्बरको, रहन सहनको सात्विक वृत्तिसे करते है, जिनका लक्ष्य यह है कि मेरे प्रयोजनमें इतना व्यय होगा, शेष सब परोपकारके लिए है।
महापुरूषोके जीवनका लक्ष्य - भैया ! हुए भी है कुछ ऐसे राजा जो स्वय खेती करके जो पायें उसमें अपना और रानीका गुजारा करते थे, और राज्य से जो कर मिला, सम्पदा आयी उसका उपयोग केवल प्रजा जनोके लिए किया करते थे। उनका यह विश्वास था कि जो कुछ प्रजासे आया है वह मेंरे भोगनेके लिए नही है वह प्रजा के लिए है। कुछ बिरले संत ऐसे, पर प्रायः करके मोही प्राणी है जगत के सो वे धनका दुरूपयोग ही करतें है। अपने विषय साधनों में, मौजमें, संग्रहमें धनसंचय के कारण मैं बड़ा कहलाऊँगा, लोगोमें मेरी इज्जत रहेगी। इन सब कल्पनावोके आधीन होकर आसक्त रहा करते है। ऐसे इन विपत्तिजनक भोगोसे कौन पुरूष सन्तोष प्राप्त कर सकेगा ? ज्ञानी पुरूष इन भोगोकी चाहमें नही फंसता है।
भवन्ति प्राप्य यत्संगमशुचीनि शुचीन्यपि।
सं कायः संततापायस्तदर्थ प्रार्थना वृथा।।18 ||
शरीरका रूपक - जिस शरीर के सम्बंधको पाकर पवित्र पदार्थ भी अपवित्र हो जाते है ऐसा शरीर और यह निरन्तर विनाश की और जाने वाला है। उस शरीर के आशा, प्रार्थन करना व्यर्थ की बात है। इसका नाम काय है। जो संचित किया जाय उसना नाम काय है। यह शरीर अनेक स्कंधो के मिलने से ऐसी शक्लका बन जाता है। इसका नाम शरीर है, जो जीर्ण हो, शीर्ण हो, गले उसका नाम शरीर है। यदि व्युत्पतिकी दृष्टि से देखा जाय तो जवानी तक तो इसका नाम काय कहो और बुढ़ापे में इसका नाम शरीर कह लो। काय उसे कहते है जो बढ़े, शरीर उसे कहते है जो गले। यह काय पुद्गलका पिडं है। यह शरीर जिन परमाणुवोसे बना है वे परमाणु भी स्वयं अपवित्र नही है। फिर उन स्कंधोपर जब इस जीव ने अपना कब्जा किया तब ये परमाणु स्कन्ध शरीर भी अपवित्र होगए। जब तक जीव जन्म नही लेता, गर्भमें नही आता है तब तक ये शरीर के स्कंध यत्र तत्र बिखरे पड़े
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पवित्र है। जहाँ इस जीवने उन शरीर स्कंधोपर अपना कब्जा किया कि ये अपवित्र बन जाते है।
शरीर की अशुचिताके परिज्ञानका लाभ – लोग कहते है कि शरीर अपवित्र है, ठीक है, कहना चाहिए क्योंकि शरीर के मोहमें आकर यह जीव अन्याय कर डालता है, खोटी वासनाँए करता है। जिन वासनाओमें कुछ तत्व नही है, केवल मनकी कल्पनाकी बात है, आत्माकी बरबादी है सो ऐसी खोटी कल्पनाएँ जिसमें शरीर का आकर्षण है, आत्माको संकटी करने के लिए हुआ करती है, इस कारण शरीर को अपवित्र बताना बहुत आवश्यता बात है। कहना ही चाहिए शरीको अशुचि, किन्तु कुछ ओर प्रखर दृष्टि से निरखो तो यह शरीर स्वंय कहाँ गंदा है। यह एक पुदगलका पिण्ड है। जो है। सो है। इस हालत में भी जो है, सो है। इस हालत मे भी जो है जो है, और जब इस शरीर को जीवने ग्रहण न किया था उस समय तो ये स्कंध बहुत पवित्र थे । हाड़ मांस रूधिररूप भी न भे लेनिक यह शरीर गंदा किस कारण बन गया है ? यह केवल रागी मोही जीवके सम्बंधका काम है। इस कराण शरीर गंदा ही है, यह रागी द्वेषी मोही जीव गंदा है। शरीर तो एक पुद्गल है। जैसे ये चौकी काठ वगैरह है ये भी पुद्गल यह शरीर भी पुद्गलका है, पर यह और ढंगका पुद्गल है। इस शरीर में गंदगी क्या है? जो है हमको उसके ज्ञाता है रहना है, जान लेना है।
निर्विचिकित्सा - भैया ! निर्विचिकित्सा अंग जहाँ बताया जाता है सम्यग्दर्शनके प्रकरणमें वहाँ तीन बाते कही जाती है। एक तो अशुचि पदार्थको देखकर घृणाकर भाव न लाना। ज्यादा थूकाथाकी वाली चीजको निरखकर मुंहमे पानी बह आना। जैसे थूकना पड़ता है तो यह भी थूकाथाकी घृणाका रूपक है । साधु संतजन ऐसी थूकाथाकी नही किया करते है। अन्य अपवित्र पदार्थाको निरखकर वे घृणा ग्लानि नही करते। व्यवहार जरूर उनसे बचनेका रहता है, क्योकि स्वाध्याय करना, सामायिक करना ये सब कार्य अपवित्र हालतमें नही होते है। लेकिन कोई घृणित वस्तु सामने आये तो उसको देखकर ज्ञानी पुरूष नाक भौहं नही सिकोड़ते है, योग्य उपेक्षा करते है। दूसरी बात यह है कि किसी धर्मातमा पुरूषकी सेवा करते हुऐ में तो ग्लानि रंच भी नही रहती है। यहाँ उससे भी अधिक निर्जुगुप्सा भाव रहता है। साधु धर्मात्मा जन रोगी हो, मल मूत्र कर दे तो भी घृणा नही करते। जैसे माता अपने बच्चे की नाक अपनी साड़ी से ही छिनक लेती है और घृणा नही करती है। दूसरे लोग उस बच्चेस घृणा करते है, अरे इसके तो नाक निकली आ रही है। इसे सम्हाल लो, पर मां उसे बड़े प्रेमसे पोछ लेती है। माँ ही बच्चे से घृणा करने लगे तो बच्चा कहाँ जाए ? यो ही धर्मात्मा जन धर्मात्माओके प्रति माताकी तरह व्यवहार रखते है। अगर धर्मात्मा पुरूष ही धर्मात्मासे घृणा करने लगें तो वे कहाँ जाए ? उनके कहाँ निर्जुगुप्सा रहेगी, और तीसरी बात यह है कि आत्मामें जो क्षुधा, तृषा, वेदना आदि के कोई
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प्रसंग आये तो भी वे ग्लान नही होते है, दुःखी नही होते है, किन्तु वहाँ भी अपने आप में प्रकाशमान शुद्व परमात्मतत्वके दर्शनसे तृप्त रहा करते है।
वास्तवमें घृणाके योग्य – इस प्रकरणसे यह बात जानना चाहिए कि घृणा के योग्य यह शरीर नही है किन्तु जिस गंदे जीव के बसने से ये पवित्र स्कंध भी हड्डी, खून आदि रूपमें बन गए है वह जीव गंदा है। न आता कोई जीव तो शरीर बन कैसे जाता? शरीर की गंदगीका कारण वह अशुद्ध जीव है। अब जरा जीवमें भी निरखो तो वह जीव अशुद्ध नही है किन्तु जीवकी जो निजी विभामय बात है, अशुद्ध प्रकृति है, विभाव परिणति है वह गन्दी है। जीव तो जैसा सिद्व प्रभु है वैसा है, कोई अन्तर नही है, अन्तर मात्र परिणतिका है। तो जीवमे भी जो रागद्वेष मोह की परिणति है वह घृणा के योग्य है, यह शरीर यह पुरूष घृणाके योग्य नही है, मूल बात यह है। लेकिन इस प्रकरणमें परमतत्व ज्ञानियो की दृष्टि में आने वाली बातके लिए व्यवहारिक बात कही जा रही है।
अशुचि एवं अशुचिकर शरीर – यह शरीर अपवित्र है। इसमें चंदन लगा दो तो वह चंदन भी अपवित्र हो जाता है। दूसरा पुरूष किसी दूसरेके मस्तकपर लगे हुए चंदनको पोंछकर लगाना नही चाहता है। तेल लगा लो शरीर में, ज्यादा हो गया औश्र किसीसे कहो कि इस हमारे तैलको पोंछकर आप लगा लो तो कोई लगाना पसंद नही करता है। तैल में कोई गंदगी नही है, पर शरीर की गंदगी पाकर तैल अपवित्र हो गया। और तो जाने दो। कोई फूल की माला पहिन ले, फिर किसीसे कहे कि लो इसे आप पहिन लो तो कोई उस फूलकी माला को पहिनना पसंद नही करता है। जिस शरीर के सम्बंधको पाकर पवित्र पदार्थ भी पवित्र हो जाता है, उस शरीर से क्या प्रार्थना, करना, उस शरीर की क्या आशा रखना?
____ रूपकी बुनियाद – एक कथानक में आया है कि एक राजपुत्र शहरमें जा रहा था तो किसी महलके छज्जेपर खड़ी हुई सेठकी बहू उसकी दृष्टिमें आयी तो राजपुत्र उस सेठकी बहूपर आसक्त हो गया। कामकी वासना, संस्कार इतनी गंदी चीज है कि जो कामी पुरूष होते है उन्हे भोजन भी न सुहाये। उसने कुट्टनी को कहा कुट्टनी सेठकी बहूके पास पहुंच गयी, हाल बताया। वह सेठकी बहू बड़ी चतुर थी। उसने कहा ठीक है। 15 दिनके बाद अमुक दिन राजपुत्र आये। उस सेठकी बहुने इस 15 दिनमें क्या किया कि जुलाबकी दवाई खाकर दस्त जो कुछ भी लगे वह सब एक मटकेमें कर दिये। 15 दिन में वह मटका दस्तसे भर गया। वह बहू उन 15 दिनोमें बड़ी दुर्बल हो गयी। कुछ रूप कांति न रही। राजपुत्र आया, देखकर बड़ा दंग हुआ। तो बहू कहती है कि तुम जिसपर आसक्त थे उसे चलो हम तुम्हे दिखाएँ फिर तुम उससे प्रेम करो। उस राजपुत्र ने उसे जाकर देखा तो सारी दुर्गन्ध छा गयी, झट वह बगल हो गया और उल्टे पैर भागा। तो जिस चीजपर यह
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रूप चमक दमक रहती है वह अन्य है क्या ? मल, मूत्र, खून इनका पिंड ही तो है। इनका
ही एक संग्रहीत रूप रूप कहलाती है।
अशुचि अजंगम शरीर इस शरीर को पाकर पवित्रसे भी पवित्र वस्तु अपवित्र हो जाती है। किसीकी पहिनी हुई कमीज भी कोई भी दूसरा नही पहिनना चाहता। अब बतलावो देहसे सम्बद्ध उपभोग वाली वस्तु भी दूसरे ग्रहण नही कर सकते है, ऐसा यह अपवित्र शरीर है। यह शरीर अजंगम है, स्वयं नही चलता। न जीव हो शरीर में तो क्या शरीर चल देगा? जीव को प्रेरणा नही होती शरीर में तो देह तो न चल सकेगा। जैसे अजंगम यंत्र मोटर साइकिल ये किसी जंगम ड्राइवरके द्वारा चलाये जाते है, स्वंय तो नही चलते, ऐसेही यह थूलमथूल शरीर भी स्वयं नही चल सकता है। मुर्दा तो कही चल नहीं पाता। जो मुर्देमे है ऐसा ही इसमें है, फर्क यह है कि तैजस और कार्माण सहित जीव इसमें बसा हुआ है इससे इसमें चमकदमद तेज है और चलने फिरनेकी क्रिया होती है। यह शरीर अजंगम है। किसी जंगम शरीरके द्वारा चलाया जा रहा है
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भयानक और संतापक शरीर यह शरीर भयानक है । यही शरीर रागी पुरूषको प्रिय लगात है और विरागी पुरूषको यही शरीर यथार्थ स्वरूप को दिखता है और वृद्वावस्था हा जाय तब तो शरीर की स्थिति स्पष्ट भयानक हो जाती है। कोई अंधेरे उजेले में बच्चा निरखले बूढ़ेके शरीर को तो वह डर जाय ऐसा भयानक हो जाता है । यो यह अपवित्र शरीर भयानक भी है। कोई कहे कि रहने दो भयानक, रहने दो अपवित्र, फिर भी हमें इस शरीर से प्रीति है । तो भाई यह शरीर प्रीति करने लायक रंच नही है क्योकि यह शरीर संतापको ही उत्पन्न करता है। इसमें स्नेह करना व्यर्थ है ।
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मोहियो द्वारा अलौकिक वैभवकी उपेक्षा भैया ! सबसे अलौकिक वैभव है शरीर पर भी दृष्टि न रखकर, किसी भी परपदार्थ का विकल्प न करके केवल ज्ञानानन्दस्वभावी आत्मतत्वको निरखे तो वहाँ जो आनन्द प्रकट होता है वही अद्भुत आनन्द है, उसमें ही कर्मोको जलाकर भस्म कर देने की सामर्थ्य है । वह आनन्द जिनकी दृष्टि में आया है उनका मनुष्य होना सार्थक है और जीवोको अपने आत्माका शुद्व आनन्द अनुभव में नही आया है वे विषयोके प्रार्थी बनते है, देहकी प्रार्थन करते है, शरीर की आशा रखते है और कामादिक विकारोमें उलझ कर अपना जीवन गंवा देते है। इस जीवकी प्रकृति तो आनन्द पाने के लिए उत्सुक रहती है। यह आनन्द पाये, इसे शुद्व आनन्द मिले तो कल्पित सुख या दुःखकी और कौन झुकेगा? पर जब शुद्व आनन्द ही नही मिलता, सो कल्पित सुखकी और लगना पड़ता है।
शरीर की अशुचितांका संक्षिप्त विवरण - छहढालामें कहा है- 'पल रूधिर राधमल थैली, कीकश वसादितै मैली । नवद्वार बहैं घिनकारी, अस दैह करै किम यारी । मासं,
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रूधिर, खून, मल इत्यादि से भरा हुआ यह शरीर एक थैली है जिसमें 9 घिनावने द्वार बहते रहते है - कान से कर्णमैल, आंखो से कीचड़, नाक से नाक, मुख से लार, और मलमूत्रके स्थानोसे मलमूत्र, ये जहाँ बहते रहते है ऐसा यह घिनावना शरीर है। अरे, इसमें प्राकृतिक बात देखो कि ऊपर से नीचेके द्वारसे बहने वाली वस्तु अधिक घिनावनी है। कान से जो कनेऊ निकलता है उसपर लोग घृणाका अधिक ख्याल नहीं करते। इस कनेऊ को कीचड़ से ज्यादा गंदा नही समझा जाता है। लोग अंगुलीसे कर्णमल निकालकर फेंक देते है, हाथको कपड़े से नही पोछतें। अगर आखंसे कीचड़ निकालते है तो फिर अपने हाथको कपड़ेसे पोछतें है, और नाकसे नाक निकाला तो हाथ कपड़े से पोंछ लेते है और पानी से भी धो लेते है। आंख के मलसे नाक का मल अधिक गंदा है। नाक से ज्यादा थूक और खार आदि गंदे है। थूक और खखार से ज्यादा मूल मल गंदे है। ऊपर की इन्द्रियोंसे निचे की इन्द्रियाँ अधिक गंदी मानी जाती है।
शरीर की अशुचिता वैराग्यकी प्रयोजिका - भैया - क्या भरा है इस देहमें, कुछ निगाह तो कीजिए। इसकी निगाह करने से मनुष्यो की खोटी वासना नही रह सकती है, पर मोही जीव कहाँ निरखता है इस शरीर की गंदगीको? विधिने मानो इस शरीर को गंदा इसलिए बनाया है कि ये मनुष्य गंदे शरीर को पाकर विरक्त रहा करे, परतु यह मोह ऐसा प्रबल बना हुआ है कि विरक्ति की बात तो दूर रही, यह नाना कलाओसं इस शरीरसे अनुराग करता है। यह शरीर अपवित्र और भयानक तो है ही साथ ही यह निरन्तर विनाशकी और जा रहा है।
जीवनका निर्गमन - बचपन बड़ी अच्छी उम्र हे, पर वहाँ अज्ञान छाया है। बचपन कितना निश्चित जीवन है, कितना अधिक बुद्विका यहाँ बल है, जिस ग्रन्थको पढ़ वह तुरन्त याद हो जाए, कितना सरल व निष्कपट भाव है, निश्चिन्तता है पर वहाँ अज्ञान बसा है सो अपना कल्याण नही कर पातें। जवान हुआ तो अब भी इसमें प्रभाव अधिक है, लेकिन कामरत होकर यह जवानी को भी व्यर्थ गवां देता है। अब वृद्धावस्था आयी तो जिसने बचपन में भी कल्याणका काम नही किया, जवानी में भी कल्याण का भी काम नहीं किया तो बुढ़ापा में अब क्या करेगा? उसकी स्थिति बड़ी दयनीय हो जाती है। यह शरीर निरन्तर विनाशकी और है जितनी घड़िया निकलती जा रही है उतना ही आयुका विनाश हो रहा है। लोग कहते है कि मेरा लल्ला 8 वर्ष का हो गया, यह बढ़ गया। अरे उसका अर्थ है कि 8 वर्ष उसके मर चुके। 8 वर्ष उसकी उम्र कम हो गयी है। जिसको मानो 70 वर्ष जीना है उसकी अवस्था अब 62 वर्षकी रह गयी है, लोगोकी इस और दृष्टि नही है, उसके विनाशके दिन अब निकट आ गए है। विनाश के दिन निकट आनेका नाम है बुजुर्ग हो जाना। यह शरीर निरन्तर विनाशकी और है, ऐसे शरीरसे स्नेह करना व्यर्थ है।
ज्ञानी का चिन्तन - एक दोहा में कहा है
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दिपै चाम चादर मढ़ी हाड़ पीजरा देह।
भीतर या सम जगत में और नही घिन गेह।।
यह हाड़ मांस का पिंड है। कोई पुरुष अत्यन्त दुर्बल हो तो यह पिंजड़ा बिल्कुल स्पष्ट समझ में आता है। कोई वैद्य लोग अत्यन्त दुर्बल शरीर कर चित्र छपवाते है, उसमें देखो तो शरीर का पिजंडा स्पष्ट दीखता है। ऐसा ही पिंजड़ा देखने के मिल जायगा, वही संग्रहालय में देखने को मिलेगा या मरघट में वहाँ ऐसा ही पिजड़ देखने को मिल जायगा, वही पिजंडा हम आपके शरीर में है। फर्क इतना है कि हम आपके शरीर पर चाम चादर मढ़ी हुई है, किन्तु भीतर तो इसमें सभी अपवित्र चीजें है। यह शरीर इतना अपवित्र है कि कितना पवित्र पदार्थ हो इसका स्पर्श करने से वह भी अपवित्र हो जाता है, फिर भी इन मोही जीवों ने यह शरीर बड़ा प्रिय माना है, इस शरीर की प्रतिष्ठा से ही निरन्तर संतुष्ट रहतें है। किन्तु ज्ञानी जीव शरीर के यथार्थ स्वरूप को समझतें है, उन्हें इस शरीर से अन्तरंग में राग नही होता है। अनादि काल से भटकतें हुए आज हमें यह दुर्लभ मनुष्य जन्म मिला है, ये जिनेन्द्र वचन मिले है तो हम इनका लाभ उठायें, मायामय चीजों में आसक्त होकर आत्मकल्याण करे। इसके लिए ही ज्ञानी अपना जीवन समझते है।
यज्जीवस्योपकाराय तद्देहस्यापकारकम् ।
यद्देहस्योपकाराय तज्जीवस्यापकारकम् ।।19।। जीव के उपकार में देह की अपकारिता व देह के उपकार में जीव की अपकारिता - जो तत्व जीव के उपकार में लिए होता है वह तत्व देह का अपकार करने वाला होता है, और जो पदार्थ देह के उपकार के लिए होता है वह पदार्थ जीव का अपकार करने वाला होता है। अनशन आदि तप, व्रत, समिति, संयम इन चारित्रोका धारण करना जीव के उपकार के लिए है। यह चारित्र पूर्वकाल में बांधे हुए कर्मो का क्षय करने वाला है और भविष्यकाल में पाप न हो सके, यो कर्मो का आस्रव रोकने वाला है। इस कारण ये तपस्याएँ, चारित्र जीव के उपकार के लिए है, तो ये तपस्याएँ शरीर का अपकार करने वाली है, शरीर सूख जाता है, काला पड़ जाता है आदि रूप से शरीर का अपकार होने लगता है, और जो धन वैभव सम्पदा देह के उपकार के लिए है जिसके प्रसाद से खूब खाये, पिये, भोग साधन जुटायें, आराम से रहें जिससे देह कोमल, बलिष्ठ, मोटा, स्थूल हो जाय, सो ये वैभव धन आदि परिग्रह जीव के अपकार के लिए है।
पर के आश्रय में आत्मा का अपकार - इससे पूर्व श्लोक में यह प्रसंग चल रहा था कि धन आदि से शरीर का उपकार नही होता है, सो शकाकार कहता है कि मत होवो शरीर का उपकार, किन्तु धन से व्रत, दान आदि लेने के कारण आत्मा का उपकार तो
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होता है? तो आत्मा का हित भी होगा, उसके उत्तर में कहा जा रहा है कि धन आदि परपदार्थो से कभी आत्मा का हित नही होता है। इस जीव का सबसे बड़ा बैरी मोह है, मोह का आश्रय धन वैभव है। इस मोह में आकर यह देव, शास्त्र, गुरू का विनय भी, इनकी आस्था भी योग्य रीति से करता ही नही है। जब परपदार्थो से अपने हित की श्रद्धा है तो मोक्षमार्ग के प्रयोजन भूत अथवा धर्मात्मा साधु संत जनों के प्रति आस्था कैसे हो सकती है? सबसे प्रबल बैरी मोह है। अन्य पदार्थ इस जीव के विराधक नही है। जैसे आस्तीन में घुसा हुआ सांप विनाश का कारण है इसी प्रकार आत्माक्षेत्र में बना हुआ यह मोह परिणाम इस आत्मा के ही विनाश का कारण है। जीव की बुद्धि विपरीत हो जाती है मोहभाव के कारण।
बुद्धि की मलीनता ही वास्तविक विपत्ति - इस मोह की ही प्ररेणा से विषयो में जीव प्रवृत्त होता है। ये समस्त विषय जीव का विनाश करने के कारण है। अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द, अनन्त शक्ति का निधान यह ब्रहा परमात्मतत्व प्रकट नही हो पा रहा है और संसार भ्रमण में लगा हुआ है, इससे बढ़कर बरबादी और किसे कह सकते है? इस जीव को इस भव में जो कुछ मिला है यह बरबाद हो जाय तब भी जीव की बरबादी नही है, और यह जीव अपने स्वरूप का ज्ञान न कर सके, अपनी बुद्वि को पवित्र न रख सके
और कितना ही करोड़ो का वैभव मिल जाये तो भी वहाँ जीव की बरबादी है। कितने ही विषय तो देह का भी अपकार करते है और जीव का भी अपकार करते है। जैसे स्पर्श इन्द्रिय का विषय काम मैथुन, व्यभिचार, कुशील ये देह को भी बरबाद करते है और जीव को भी बरबाद करते है, बुद्वि भी हर लेते है। पापों का उसके प्रबल उदय शीघ्र ही आने वाला है जो अपने आचार से गिरा हआ है, उस मोही की दृष्टि में कहा जा रहा है कि ऐसे काम आचरण को भी यह मोही जीव देह के उपकार के लिए मानता है, पर वही प्रवर्तन इस जीव का विनाश करने का कारण है
संग समान से जीव का अपकार -परिजन मे रहना मित्र मंडली मे रहना इनको यह मोही जीव उपकार करने वाला है पर वस्तुत ये सर्व समागम जीव के अपकार केलिए है, बरबादी के लिए है। इस जी व का केवल अपना स्वरूप ही इसका है। चैतन्य स्वभाव के अतिरिक्त अणु मात्र भी अन्य पदार्थ इस आत्मा का कुछ नही लगता। इस आत्मा के लिए जैसे विदेश के लोग भिन्न है अथवा पड़ोस के लोग भिन्न है। उतने ही भिन्न, पूरे ही भिन्न घर में पैदा हुए मनुष्य भी है, अथवा जिनमें यश इज्जत चाहा है वे पुरूष भी उतने ही भिन्न है, फिर भी उनमें से यह छंटनी कर लेगा कि यह मेरा साधक है, यह मेरा बाधक है, उस उन्मत दशा है। ये मनचाही बातें, मनको प्रसन्न करने वाली घटनाएँ ये देह का भले ही उपकार करे, देह स्वस्थ रह, प्रसन्न रहे मौज में रहे, परन्तु इन सब बातो से जीव का अपकार है, विनाश है।
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तपश्चरण से जीव काउपकार एवं देह का अपकार - अपने मन को नियंत्रित रखना, अपने आप में समता परिणाम से रह सकना, ऐसा उपयोग का केन्द्रीकरण करना, तपश्चरण करना, अनशन, ऊनोदर व्रतपरिसंख्यान, विविक्त शय्यासन और नाना कार्य क्लश - ये सब तपश्चरण पापकर्म के विनाश के कारण भूत है। इन प्रवृत्तियो से आत्मा मे निर्भयता आती है। ये सब चारित्र जीव के भले के लिए है, परन्तु इन तपस्याओं से देह का अपकार होता है। भूख से कम खाये, पूरा रस न खाये, बहुत से अनशन करे तो श्ज्ञरीर का बल भी घटने लगता , इन्द्रियाँ भी दुर्बल हो जाये, आँखो से कम दिखने लगे, अनेक रोग पैदा हो जाते है। देह का विनाश हो जात है और अनन्त काल के लिये भी देह का अभाव हो सकता है। दो बातें सामने है। एक ऐसी चीज है जो देह की बरबादी करे और आत्मा का भला करे और एक ऐसी दशा है जो देह को अत्यन्त पुष्ट करे और आत्मा की बरबादी करे। कौन सा तत्व उपादेय है? विवेकी तो उस तत्व को उपादेया मानता है जो जीव का उपकार कर सकने वाला है।
ज्ञानी का विवेकपूर्ण चिन्तन - भैया ! यह देह न रहेगा। अच्छा सुभग सुडौल सबल पुष्ट हो तो भी न रहेगा, दुर्बल, अपुष्ट हो तो भी न रहेगा, परन्तु जीव का भाव, जीव का संस्कार इस शरीर के छोड़ने पर भी रहेगा। तो जैसे कुटुम्ब के लोग मेहमान में वैसी प्रीति नही करते है जैसी कि अपने पुत्र में करते है। क्योकि जानते है कि यह मेहमान हमारे घर का नही है, आया है जायगा और ये पुत्रादिक मेरे उत्तराधिकारी है, मेरे है, यो समझते है इसीलिए मानो मेहमान नाम रखा है महिमान। जिसके प्रति घर वालों की बड़प्पन की बुद्धि नही है, प्रियता की बुद्वि नही है वे सब महिमान कहलाते है। तो जैसे कुछ समय टिकने वाले के प्रति, अपने घर में न रह सकें ऐसे लोगों के प्रति ये स्नेह नही बढ़ाते अपना वैभव नही सौपं देते, ऐसे ही यह विवेकी कुछ दिन रहने वाले इस शरीर के लिए अपना दुर्भाव नही बनता है, खोटा परिणाम नही करता है, उसकी ही सेवा किया करें ऐसा संकल्प नही होता, अपने उद्वार की चिन्ता होती है उसको जो ऐसा ज्ञानी हो, विवेकी हो।
आत्मनिधि की रक्षा का विवेक - जैसे घर की कुटी में आग लग जाय तो जब तक कोई धन बचाया जा सकता है तब तक यह प्रयत्न करता है कि धन वैभव की रक्षा कर ले। जब आग तेज लग गयी, ज्वार निकलने लगी तो फिर वहाँ अपने प्राणो का भी खतरा रहता है, उस समय धन सम्पदा को छोड़ दिया जाता है और अपने प्राणो को बचा लिया जाता है। ऐसे ही यह शरीर जब क्षीण हो रहा है, दुर्बल हो रहा है, रोगी हो रहा है तो कोशिश करें कि यह ठीक हो जाय जिससे हम अपने धर्म पालन में समर्थ हो सके, पर जब ज्वाला इतनी बढ़ जाय, शरीर की जीर्णता इतनी अधिक हो जाय, रोग बढ़ जाय कि शरीर अब टिकने का नही है तो क्या विवेकी उस शरीर के लिए रोये? हाय अब मै न रहूगां, अब
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मै मरने वाला हूं। अरे यह शरीर तो इसीलिए उत्पन्न हुआ है। यह शरीर सदा नही रह सकता।
मोहियो की घुटना टेक हैरानी - दो बातो पर इस मनुष्य का वश नही चल रहा है - एक तो मृत्युदर दूसरे कोई भी चीज मेरे साथ न जायगी इस बात पर। यदि इसकी दोनो बातो पर वश चलता होता तो यह स्वच्छन्द होकर न जाने कितना अनर्थ ढाता? जब देखा कि अब यह शरीर की व्याधि की ज्वाला बढ़ गयी है तो इस शरीर को वह विवेकी छोड़ देता है और अपने ज्ञानस्वरूप को बचाने के लिए शरीर के अनुराग से और प्रवृत्ति से दूर हो जाता है। जो बात जीव का उपकार कर सकती है वह बात देह का विनाश करती है। यह तो लौकिक विनाश की बात है, पर जीव का जिस रत्नत्रय भाव से भला है, वीतराग सर्वज्ञता प्रकट हुई है, परमात्मापद मिलता है, अपने स्वरूप का परिपूर्ण विकास होता है तो उस रत्नत्रय से देखो तो जीव का तो कल्याण हुआ, पर देह का विनाश हुआ कि भविष्य में कभी भी त्रिकाल भी आगे भी अब शरीर न मिल सकेगा। ऐसा शरीर का खातमा हो जाता है।
अन्य पदार्थ से स्वके श्रेय का अभाव - भैया! तुम जीव हो या शरीर, अपने आप में निर्णय करो? तुम रंग वाले हो या रंगरहित, अपने आपका निश्चय करिये। तुम ज्ञानस्वरूप हो या ऐसा थूलमथूल शरीर रूप। यदि तुम जड़ शरीररूप हो तो तुझे समझाये ही क्या? जब चेतना ही तुममें नही है तो समझाने का सब उद्यम व्यर्थ है फिर बोलना चालना समझना ये सब व्यर्थ के भाव ही तो हुए ना। ....................... नही नही, मै अचेतन नही हूं, मै अपने आप में रह रहा हूं, जान रहा हूं, समझ रहा हूं, कोई ऐसा ज्ञानमात्र अपने आपको जो निहारता है ऐसा यह जीव यदि तुम हो तो अपने स्वरूप का विकास करो अर्थात् कल्याण करो। जिन बातो से इस आत्मा का उपकार होगा उन बातों पर दृष्टि दो, उन्हे प्रधान महत्व भूत समझो। देखो भोजन आदि पदार्थो से उपभोगों उपदेश भी देते है एक दूसरे को कि इन भोजनादि से शरीर की पुष्टि होती है। होती है पुष्टि पर उन्ही पदार्थो के विकल्प से आत्मा का विनाश होता है, प्रमाद की वृद्धि होती है, कर्मो का आस्रव होता है, मलिन परिणाम होते है और मलिन परिणामो से दुर्गति में जन्म लेना होता है। आत्मस्वरूप से अतिरिक्त अन्य पदार्थो से इसका कुछ भी कल्याण नही है।
देहादिक परिग्रह की अपकारिता - ये धन वैभव आदि आत्मा के उपकारी होते तो महापुरूष इन पदार्थो को त्यागकर अकिञचन न बनते, दिगम्बर न बनते, इनका परित्याग न करते। इससे यह समझना चाहिए कि परिग्रह आत्मा का उपकार करने वाला नही है। परिग्रह में रह रहे हे, पर रहते हुए भी बात तो यथार्थ ही जानना चाहिए। अहो ! अनादि काल से इस देह के सम्बन्ध से ही मैं संतप्त रहा । जैसे अग्नि के सम्बन्ध से पानी तप
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जाता है, खौल जाता है ऐसे ही इस देह के सम्बन्ध से शान्त स्वभावी होकर भी यह आत्मा यह उपयोग संतप्त बना रहा। कही भी कभी भी विश्राम न ले सका।
इन्द्रियो की अपकारिता - यह शरीर मेरे संताप के लिए ही है और शरीर के अंग इन्द्रिय, इन्द्रिय की प्रवृत्ति, कर्म इन्द्रिय और ज्ञान इन्द्रिय अर्थात् द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय ये सब मेरे संताप के ही कारण है। इनकी रति से, प्रेम से मेरा आत्मा दुःखी होता है। यह मोही जानता है कि आंखो से यह पहिले कुछ जाना करता है रसना से, कर्ण से इन सभी इन्द्रियो से यह जाना करता है, सो ये इन्द्रियाँ ज्ञान की साधन है। हाथ से छूने पर ठंडा गरम का बोध होता है, रसना के द्वारा खटा-मीठा आदि का ज्ञान किया जाता है। इन इन्द्रियो से ज्ञान बनता है ऐसी भ्रमबुद्वि है अज्ञानी की। सो चूँकि ज्ञान से बढ़कर तो सभी के लिए कुछ वैभव नही है, अतः यह अज्ञानी भी ज्ञान का साधन इन्द्रियों को जानकर और इन्द्रियो का आश्रय देह को जानकर इस देह को और इन्दिय को पुष्ट करता है। उनकी और ही इसका ध्यान है। परन्तु यह विदित नही है कि ये इन्द्रियाँ ज्ञान के कारण नही है, किन्तु वास्तव में हमारे ज्ञान में ये बाधक है।
इन्द्रिय विषयो के मोह मे मूलनिधि का विनाश – जैसे किसी बालक का पिता मर जाये तो सरकार उसकी जायदाद को नियंत्रित कर लेती है और उस लाख दो लाख की जायदाद के एवज में उस बालक को दो चार सौ रूपया माहवार सरकार बाँध देती है। पहिले तो वह वाबलक सरकार के गुण गाता है, वाह बड़ी दयालु है सरकार, हमें घर बैठे इतना रूपया देती है, पर जब उसे अपनी सम्पत्ति का पता लग जाता है तो वह उन दो चार सौ रूपया माहवार लेने से अपनी प्रीति हटा लेता है। वह उन रूपयो को लेने से मना कर देता है। आगे पुरूषार्थ करता है तो उसकी जायदाद मिल जाती है।
इन्द्रियविषयो के मोह में मूलनिधि का विलय - इसी तरह ये इन्द्रियाँ हमारा मूल धन नही है, ज्ञान की कारण भूत नही है, किन्तु जैसे मकान में खिड़कियाँ खुल जाने से बाहर की चीजें दिखती है, वह पुरूष उन खिड़कियों के गुण गाता है, यह खिड़की बड़ा उपकार करती है, मुझे बाहरी चीजो का ज्ञान करा देती है, सड़क पर कौन आ रहा है, कौन जा रहा है इन सब बातों का ज्ञान यह खिड़की हमें करा देती है। इस तरह के वह खिड़की के गुण गाता है किन्तु जब वह जान जाता है कि अपना ज्ञानबल ही सब कुछ जान रहा है पर यह ज्ञान, इन दीवालो से दबा हुआ है। जानने वाला तो अपने ज्ञान से जान लेता है, इस खिड़की से नही जान लेता है। ऐसे ही यह मै ज्ञानस्वरूप आत्मा इस शरीर की भीत में दबा हुआ हूं| इस भीतं में ये चार-पांच खिड़कियां मिल गयी है, आँख, कान, नाक, मुहँ रसना वगैरह, तो हम इस मलिन कायर अवस्था में इन खिड़कियो से थोड़ा बहुत बोध करते है, पर यहाँ भी बोध कराने वाली ये इन्द्रियां नही है। यह ज्ञानस्वरूप आत्मा स्वयं है।
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परतत्व की प्रीति के परिहार का विवेक - इस ज्ञानानन्दमय आत्मनिधि को परखें और इन्द्रियो की प्रीति तजें, आत्महित की साधना है। इससे देह का अपकार होता है, इस पर ध्यान न दे, किन्तु जिन बातो से इस जीव का अपकार होता ह उनको मिटाएँ, यो हम विवेकी कहे जा सकते है। पुराण मोक्षार्थी पुरूषो ने भी इस धन वैभव का व अन्त में देह का भी परित्याग करके शान्त और निराकुल अवस्था को प्राप्त किया है, उन्होने निर्वाण का आनंद पाया है उन पुरूषो के उपदेश में यह बात कही गयी है कि इन्द्रिय भोग चाहे देह के उपकारक है, परन्तु आत्मा का तो अपकार ही करने वाले है। इसलिए आत्मातिरिक्त अन्य पदार्थो का मोह त्यागना ही श्रेयस्कर है।
इतश्चिन्तामणिर्दिव्यः इतः पिण्याकखण्डकम् ।
ध्यानेन चेदुभे लभ्ये क्वाद्रियन्तां विवेकिनः ।। 20 ।।
आनन्दनिधि व संकट विधि का ध्यान से उपलम्भ - जैसे किसी पुरूष के समने एक तरफ तो चिन्तामणि रत्न रखा हो और एक तरफ खल का टुकड़ा रखा हो और उससे कहा जाय कि भाई जो तू चाहता हो उसे मांग ले अथवा उठा ले। इतने पर भी वह पुरूष यदि खली का टुकड़ा ही उठाता है, माँगता है तो उसे आप पागल भी कह सकते है, मूर्ख भी कह सकते है। कुछ भी कह लो। इसी प्रकार हम आप सबके समक्ष एक और तो अनन्त ज्ञान अनन्त दर्शन का निधान यह आत्मनिधि पड़ी हुई है और एक औश्र अर्थात् बाहर में यह धन वैभव पड़ा हुआ है, और बात यह है कि मनुष्य ध्यान के द्वारा जो चाहे सो पा सकता है। शुद्व ज्ञान करे और अपने आपके ध्यान की और आए तो आत्मीय आनन्द पा सकता है, बाहर की और झुके तो उसे वहाँ विषय सम्बधी सुख दुःख प्राप्त हो सकते है। दोनो ही यह ध्यान से पाता है। ध्यान से ही आत्मीय आनन्द पा लेगा और ध्यान से ही वैषयिक सुख और क्लेश पा लेगा।
सुगम लाभ के प्रति अविवेक की पराकाष्ठा - अब वह सत्य आनन्द न चाहे तो उसे क्या कहोगे? मन में कहलो, वस्तुतः न किसी बाहा पदार्थ से क्लेश मिलता है और न सुख मिलता है। जैसी कल्पना बनायी उस कल्पना के अनुसार इसमें सुख अथवा दुःख रूप परिणमन होता है। सब ध्यान से ही मिल जाता है। तो एक ओर तो है आत्मीय अनन्त ज्ञान दर्शन की निधि जो आनन्द से भरपूर है और एक और विषयो के सुख ओर क्लेश। दोनो को ही यह जीव ध्यान से प्राप्त कर सकता है। किसी से कहा जाय कि भाई तुम कर लो ध्यान, ध्यान से ही तुम पा लोगे जिसकी अन्तर में रूचि करोगे। न इसमें कुछ रकम लगाना है, न वैभव जोड़ना है, न शरीर का श्रम करना है, न व्याख्यान सीखना है। केवल ध्यान से ही प्राप्त किया जा सकता है। चाहे आत्मीय आनन्द पा लो और चाहे सांसारिक सुख-दुःख विपदा पा लो। इतने पर भी यह जीव उन वैषयिक सुखो का ही ध्यान बनाये
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तो जितनी बातें लौकिक पागल को कह सकते हो उतनी ही बातें इसको भी कह सकते
हो।
यह मोह में पागल हो गया है, अपना ध्यान को ऐसा बौराया है बाहर में कि इस अनन्त निनिध का घात कर डाला है। विवेकी जन तो उस चिन्तामणि रत्न का आदर करेगे, सम्यग्ज्ञानी पुरूष उस आत्मास्वरूप का आदर करेंगे। जैसे किी बुद्विमान से कहा जाय कि खल का टुकड़ा और यह चिन्तामणि अथवा अन्य जवाहरात रखे है, इनमें से तुम जो चाहे उठा लो तो वह रत्नो को उठायेगा। इसी प्रकार जो जीव धर्म ध्यान, शुक्लध्यान रूप उत्तम ध्यानों का आराधन करते है वे वास्तविक स्वरूप की, सत्य आनन्द की प्राप्ति कर लेते ह।
अज्ञान का महासंकट - भैया ! इस पर सबसे बड़ा संकट अज्ञान का बसा हुआ है। अज्ञान अंधकार में पड़ा हुआ यह जीव कुछ समझ ही नही पा रहा है कि मेरा क्या कर्तव्य है, कहाँ आनन्द मिलेगा, कैसे सर्व चिन्ताएँ दूर होगी? इसका उसे कुछ भी भान नही है। यहाँ के मिले हुए समागम के थोड़े दिनों को इतरा लें, मौज मान ले, कुछ अज्ञानी पूढो के सिरताज बन ले, इन सबसे कुछ बढ़िया पोजीशन वाले कहलाने लगे, तो भला बतलावो कि चंद दिनो की इस चांदनी से क्या पूरा पड़ेगा? जो जीव आर्तध्यान, रौद्रध्यान इन अप्रशस्त ध्यानो का आस्रव करता है उसे खल के टुकड़े के समान इस लोक सम्बन्धी कुछ इन्द्रिय जन्म सुख प्राप्त हो जाता है, पर उन सुखो में दुःख ही भरा हुआ है। तेज लाल मिर्च खाने में बतावो कौनसा सुख हो जाता है, पर कल्पना में यह जीव कहता है कि इसमें बड़ा स्वाद आया, यह तो बड़ी चटपटी मंगौड़ी बनी है। कौन सा स्वाद आया सो बतावो, पर लाल मिर्च के खाने के खाने में कल्पना में स्वाद माना जा रहा है। आंसू गिरते जाते और सुख मानते जाते। जैसी यहाँ हालत है वैसी ही हालत इन इन्द्रियविषयों के भोगो में और धनसंचय से मन की मौज में भी यही हालत है। विपदा अनेक आती रहती है और मौज भी उसी में मान रहे है।
सदगृहस्थ की चर्या- भैया ! सदगृहस्थ वह है जो अपने रात दिन में कुछ समय तो निर्विकल्प बनने का प्रयत्न करे और आत्मा की सुध ले। यह बैठा हुआ, पड़ा हुआ कभी किसी दिन यों ही सीधे चला जायगा, इस शरीर को छोड़कर अवश्य ही जाना होगा। अभी कुछ अवसर है ज्ञानार्जन करने का। घर्म साधन करके पुण्य कमाये, मोक्षमार्ग बनाए, सच्ची श्रद्वा पैदा करे, संसार से छूटने को उपाय बना ले, जो करना चाहे कर सकते है और विवेकी पुरूष ऐसा करते ही है। अविवेकी पुरूष अवसर से लाभ नही उटाते और व्यर्थ के चक्कर में उपयोग रमाकर जीवन गंवा जाते है।
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ज्ञानी विवेक पर एक दृष्टान्त - जैसे जिस राज्य में यह नियम हो कि यहाँ प्रतिवर्ष राजा का चुनाव होगा और उस राजा के वर्ष की समाप्ति होने पर उसे जंगल में छोड़ दिया जायगा। कौन पेन्शन दे, कौन उसकी सेवा करे? यह नियम हो तो बेवकूफ लोग तो राजा बनेंगे और जंगल में मरेंगे, किन्तु कोई बुद्विमान तो यह ही करेगा कि हम एक वर्ष को तो हे राजा, जिस वर्ष हम राजा है उस वर्ष तो हम जो चाहे सो कर सकते है। वह जंगल में ही अपनी कोठी बना दे, खेती बैल सब कुछ तैयार कर दे, नौकर भी भेज दे, एक पार्क बना ले, कर ले जो करना हो, फिश्र वह फैकं दिया जाय जंगल में तो वहाँ तो वह मौज से रहेगा।
ज्ञानी का विवेक - ऐसा ही इस बार संसार राज्य का ऐसा नियम है। इसे 50, 60, 70 वर्ष को मनुष्य बना दो, सब पशुओ का इसे राजा बना दो, सब जीवो में इसे सिरताज बना दो, फिर 60-70 वर्ष के बाद इसे फैक देना निगोद में, स्थावर में, कीडे मकोड़ो में, नरको में ऐसा इस सामान्य का नियम है। तो यहां अविवेकी मूढ़ आत्मा तो इस मनुष्य के साम्राज्य में, विषयो में मग्न होकर चैन माना करते है, पर मरने पर दुर्गति पायेगे, किन्तु कोई हो बुद्विमान जीव तो वह तो यही समझेगा कि इस 60-70 वर्ष मे जो कुछ करना चाहें कर तो सकते है ना, हमारा ज्ञान हमारे पास है, हमारा आत्मस्वरूप हममें ही है, हम जैसा बोध करना चाहे, ज्ञान करना चाहे, उपयोग लगाना चाहें लगा सकते है। यहाँ यदि संसार को छोड़ने का उपाय बना लें, सम्यग्दर्शन प्राप्त कर ले तो अब तो इसे सुगति ही मिलेगी और अति निकट काल में निर्वाण पद पायगा। बुद्धिमान तो यो करते है।
आत्मनिर्णय - भैया! अब हम अपनी-अपनी सोच लें। हम अपनी सूची मूढ़ो में लिखायें कि बद्विमान में? प्रोग्राम तो बनाते ही है बहुत से । कुछ इस प्रोग्राम का भी निर्णय कर ले, इन मूर्यो में अपना नाम लिखावे या विवेकियो में? इस अनित्य समागम का लोभ करने वाले तो मुढो में ही अपना नाम लिखाने वाले है और इन समस्त पौदगलिक विभूतियों से पृथक अपने आत्मकल्याण को ही प्रधान समझने वाले पुरूष विवेकियो में नाम लिखने वाले है। देखो इस आत्मक्षेत्र के निकट अर्थात् अन्तर की और यह चैतन्य चिन्तामणि रत्न पड़ा हुआ है। ओर बाहर मे ये वैषयिक सुखःदुख निःसार असार खल के टुकड़े पड़े हुए है। अब देखो, ध्यान से ही आत्मीय आनन्द पाया जा सकता है और ध्यान से ही बाहा सुख पाये जो सकते है। विवेक कर लीजिए कि हमें कैसा ध्यान बनाना चाहिए? कुछ मोही अज्ञानी जीवों से, मोहियों से, पर्याय बुद्वि वालो से प्रशंसा के शब्द सुन लिया तो क्या पाया? उन्होने भी प्रेम से नही बोला, किन्तु स्वयं अपनी कषाय की वेदना को शान्त करने के लिए बोला है। हम आत्मकल्याण की दृष्टि छोड़कर यदि इन खली के टुकड़ो में ही लग जाये तो यह कुछ भी विवेक नही है।
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बुद्धिमान की खल मे अनास्था जिस चीज मेंसे सार निकल जाता है अथवा जिसमे सार नही रहता है, उसका नाम खल है। तिल में सरसो में जो सार है वह तेल है, वह जब नही रहता तो उसकी जो हालत बनती है, उसे लोग खल कहते है । खल नाम दुर्जन का भी है, दुष्ट का भी है अयोग्य का भी है। यह सारा समागम खल की तरह है, निःसार है और निमित्त दृष्टि से हमें आधा पहुँचाने वाला है, यह जानकर विवेकी पुरुष उसमें आदर बुद्धि नही करते है ।
आर्त और रौद्रध्यान का फंसाव यह जगत आर्त और रौद्र ध्यान में फसा है। दो ही तो बातें है इस जीव के परिचय की, एक तो मौज और दूसरी पीड़ा। कोई मौज में मस्त है कोई पीड़ा में दुःखी है। पीड़ा वाले ध्यान का नाम है आर्तध्यान और मोज वाले ध्यान का नाम रोद्रध्यान। पीड़ा में सम्भव है कि क्रूरता न रहे पर मौज में तो क्रूरता रहती है। पीड़ा के समय सम्भव है कि यह पवित्र रहे, पर विषयो के मौज के समय में यह जीव अपवित्र ही रहता है। बुद्धिमानो के लिए सम्पदा विषम और अपवित्र वस्तु है । सम्पदा अपवित्र नही है किन्तु सम्पदा के प्रति जो मोह परिणाम लगता है वह परिणाम अपवित्र है । जगत में न कोई जीव अपना मित्र है, न कोई जीव अपना शत्रु है। अपना राग जिस साधन से पुष्ट है उस साधन के जुटाने वाले को लोग मित्र मानने लगते है और उस राग में जिसमें निमित्त से बाधा हुई है उसको शत्रु मान लेते है । वास्तव में कोई बाह्रा साधन मेरे शत्रु-मित्र नही है। अपनी ही कल्पना मित्र रूप में परिणत होती है, शत्रुरूप में परिणत होती है। वस्तुतः तो ये सभी कल्पनाएं अपनी शत्रु है ।
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रौद्रध्यान में क्रूरता क संक्लेश रौद्रध्यान चार प्रकार के है हिंसानन्द, मृषानन्द, चौर्यानन्द, परिग्रहानन्द । हिंसा करने कराने में मौज मानना, हिंसा करते हुए को देखकर खुश होना इस प्रकार की मौजो का नाम हिंसानन्द है। इन मौजो में क्रूरता भरी हुई है। मृषानन्द झूठ बोलने में झूठ कहलवाने में खुश होना सो मृषानन्द है । कोई किसी को झूठी बात लगाता है मजाक दिल्लगी करता है तो ऐसा करने वाले लोगो का आशय क्रूर है अथवा नही ? क्रूर है। किसी की चीज चुरा लेना अथवा किसी की चीज चुराने अथवा लूटने का उपाय बताना, राय देना और इस ही में मौज मानना ऐसा करने वाले का चित्त दुष्टता और क्रूरता से भरा हुआ है या नही? विषयो के साधन जुटाना, विषयो में ही मग्न रहना इसमें भी क्रूरता पड़ी हुई है । माना तो जा रहा है मौज, परन्तु अपने-अपने परमात्मप्रभु पर घोर अन्याय किया जा रहा है।
आर्तध्यान में क्लेश का संक्लेश
आर्तध्यान में भी मलिनता है। इष्ट का वियोग
होने पर, इष्ट के संयोग की आशा बनाए रहना यह है इष्ट वियोगज आर्तध्यान । यहाँ भी ब्रहास्वरूप से विमुख होने क प्रसंग आता है । अनिष्ट वस्तु का संयोग होने पर उसके वियोग की भावनाएँ बनाना, यही हे अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान । यहाँ भी जीव, आत्मकल्याण
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से विमुख बन रहा है। बाहापदार्थो में आशा लगाए रहना यह वेदना प्रभव औश्र निदान नामक आर्तध्यान है। यहाँ भी इस जीव ने केवल ध्यान ही किया और ध्यान से ही अपना मौज और विषाद बनाया। यही जीव इस प्रकार का ध्यान न बनाकर वस्तु के यथार्थ स्वतंत्र स्वरूप की और दृष्टि दे देकर यदि सम्यग्ज्ञान पुष्ट करे, सम्यक्त्व पोषण करे तो इसे कौन रोकता है, परन्तु यह मोही प्राणी शुद्ध प्रक्रियाओं को तो त्याग देता है, रागद्वेष मोह मे बसा रहता है।
चैतन्यचिन्तामणि की आस्था का अनुरोध – विवेकी जनो का कर्तव्य है कि आर्तध्यान और रौद्रध्यान का त्याग करके आत्मीय आनन्दस्वरूप के लाभ के लिए धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान की उपासना करे। भगवान की आज्ञा प्रमाण अपने कर्तव्य में लगे। ये रागाद्रिक विभाव कब दूर हो, कैसे दूर हो, इसका चिन्तन करे और यथाशक्ति उपाय बनावे। इस लोक की विशालता और इस काल के अनादिनिधिनता का विचार करके और भूत काल मे किए गए विचार अन्य जनों पर भी क्या गुजरे, मुझ पर भी क्या गुजरे, इसका यथार्थ चिन्तन करे और कर्मो के फल का भी यथार्थ निर्णय रखे तो इस शुभ ध्यान के प्रताप से अपने को शुद्ध आनन्द की प्राप्ति हो सकती है। अब एक संकल्प बना ले। आत्मक्षेत्र के भीतरी और चैतन्य चिन्तामणि प्रकाशमान है और इस क्षेत्र में बाहर की और ये विषयकषायरूपी खल के टुकड़े पड़े है। अब किसका आदर करना चाहिए? चैतन्य चिन्तामणि का आदर करना चाहिए। अपने को शुद्ध ज्ञानानन्दस्वरूप निरखें, इस ही से शुद्ध आनन्द प्राप्त होगा।
स्वसंवेदनसुव्यक्तस्तनुमात्रो निरत्ययः । अत्यन्तसौख्यवानात्मा लोकालोकविलोकनः ।। 2 ।।
आश्रय से आत्म तत्व - पूर्व प्रकरण से इस बात का समर्थन हुआ है कि चिन्मात्र चिन्तामणि के लाभ में ही आत्मा का उद्वार है और आत्मा का उपकार इसी स्वभाव के अवलम्बन से है। इस बात को जानकर जिज्ञासु यह जानने की इच्छा कर रहा है कि जिस आत्मतत्व के जानने से संसार के समस्त संकट दूर हो जाते है और शाश्वत शुद्ध आत्मीय आनन्द मिलता है, तथा साधारण गुण ज्ञान का पूर्ण विकास हो जाता है, वह आत्मा कैसा है ? इस ही प्रश्न के उत्तर में यह श्लोक आया है। यह आत्मा स्वसंवेदन प्रत्यक्ष का विषय है, देहप्रमाण है, अवनिाशी है, अनन्त सखमय है व विश्वज्ञ है।
आ
आत्मा की स्वसंदेदनगम्यता - यह आत्मा अपने आपको जानने वाले ज्ञान के द्वारा ही जानने में आता है प्रत्येक आत्मा अपने में 'मै हूँ' ऐसा अनुभव करता है। चाहे कोई किसी रूप में माने, पर प्रत्येक जीव में 'मै हूँ, ऐसा विश्वास अवश्य है। मै अमुक जाति का हूँ पंडित हूँ, मूर्ख हूँ, गृहस्थ हूँ, साधु हूँ, किसी न किसी रूप से मै हूँ ऐसा प्रत्येक जीव
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अंतरंग में मंतव्य रख रहा है। जिसके लिए मै हूँ इस प्रकार का ज्ञान किया जा रहा है जिसको वेदा जा रहा है वह मै आत्मा हूँ। यह आत्मा स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष के द्वारा वेद्य है।
आत्मा को देहप्रमाण विस्तार - वर्तमान मे यह आत्मा कर्मोदय से प्राप्त छोटे-बड़े अपने शरीर के प्रमाण है। जैसे प्रकाश को, दीपक को घड़े के भीतर रख दें तो इस घड़े में ही प्रकाश हो जाता है, कमरे में रख दें तो कमरे में फैल जाता है, ऐसे ही यह ज्ञानपुञज आत्मतत्व जिस शरीर में रहता है उतने शरीर प्रमाण हो जाता हें। चींटीका शरीर हो तो चींटी के शरीर के बराबर आत्माहो गया, हाथीके शरीर में पहुंचे तो हाथीके शरीर के बराबर फैल गया। यह आत्मा कर्मोदय से प्राप्त शरीर में बत है तो यह शरीर प्रमाण ही तो रहेगा। शरीर से बाहर मैं आत्मा हूँ - ऐसा अनुभव भी नही हो रहा है, और शरीर में केवल सिर मै हूं, हाथ पैर मैं नही हूं, ऐसा भी अनुभव नही हो रहा है। तन्मात्र है जितना शरीर मिला है उतने प्रमाणमें यह आत्मा विस्तृत है। जब शरीर से मुक्त हो जाता है, सिद्वपद प्राप्त होता है उस समय यह आत्मा जिस शरीर को त्यागकर सिद्ध हुआ है वह शरीर जितने प्रमाणमें विस्तार वाला था उतने प्रमाणमें विस्तृत रह जाता है, फिर वहाँ घटने और बढ़ने का काम नही है। जिस संसार अवस्थामें यह जीव जितने बड़े शरीर को प्राप्त करे उतने प्रमाण यह जीव हो जाता है। छोटा शरीर मिला तो छोटा हो जाता है और बड़ा शरीर मिला तो बड़ा हो जाता है, परन्तु सित अवस्थामें न छोटा होनेका कारण रहा, न बड़ा होने का कोई कारण रहा, शरीरसे मुक्ति हई, कर्म रहे नही, अब बतावो यह आत्मा छोटा बने कि बड़ा हो जाय? न छोटा बनने का कारण रहा, न बड़ा बनने का कारण रहा, तब चरम शरीर प्रमाण यह आत्मा रहता है। आत्मा तनुमात्र है।
आत्मतत्वकी - नित्ययता - इस आत्मा का कभी विनाश नही होता हे। द्रव्यदृष्टिसे यह आत्मा नित्य है, शाश्वत है अर्थात् आत्मा नामक वस्तु कभी नष्ट नही होती है, उसका परिणमन नया नया बनेगा। कभी दुःखरूप है, कभी सुखरूप है, कभी कषायरूप है, कभी निष्कषायरूप हो जायगा। आत्मपरिणमन चलता रहता है। किन्तु आत्मा नामक वस्तु वहीका वही है, अविनाशी है।
आत्मतत्वका सुखमय स्वरूप - यह आत्मा अनन्त सुख वाला है। आत्माका स्वरूप सुखसे रचा हुआ है, आनन्द ही आनन्द इसके स्वभाव में हे, पर जिसे अपने आनन्दस्वरूपका परिचय नही है वह पुरूष परद्रव्योमें, विषयोमें आशा लगाकर दुःखी होता है और सुख मानता है। यह आत्मा स्वरसतः आनन्दस्वरूप है। कोई-कोई पुरूष तो आनन्दमात्र ही आत्माको मानते है। जैसे कि वे कहते है आनंदो ब्रह्माणो रूपं। ब्राका स्वरूप मात्र आनन्द है, पर जैन सिद्वान्त कहता है कि आत्मा केवल आनन्दस्वरूप ही नही है, किन्तु ज्ञानानन्दस्वरूप है। ज्ञान न हो तो आनन्द कहाँ विराजे? और आनन्दरूप परिणति न हो तो परिपूर्ण विकास वाला ज्ञान कहाँ विराजे?
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आत्मतत्वकी सर्वज्ञरूपता - यह आत्मा ज्ञानानन्दस्वरूप है। आनन्दस्वरूप है यह तो कहा ही गया है पर ज्ञानस्वरूप भी है। यदि आत्मा ज्ञानरूप न हो तो कुछ व्यवस्था ही न बनेगी। इस समस्त जगतको जाननेवाला कौन है ? इस जगतकी व्यवस्था कौन बनाए ? कल्पना करो कि कोई ज्ञानवान पदार्थ न होता जगत में और ये सब पदार्थ होते तो इनका परिचय कौन करता ? यह आत्मा ज्ञानस्वरूप है- इसका ज्ञानस्वभाव इसके अनन्त बलको रख रहा है कि ज्ञान से यह लोक और अलोक तीन कालके समस्त पदार्थो को स्पष्ट जान सके। ऐसा यह आत्मा लोक और अलोकका जाननहार है।
एकान्त मन्तव्य निरास - आत्माके स्वरूपको बताने वाले इस श्लोकमें 5 विशेषण दिए है। आत्मा स्व-सम्वेदनगम्य है, शरीरप्रमाण है, अविनाशी है, अनन्त सुख वाला है और लाकका साक्षात् करने वाला है इन विशेषणो से 5 मंतव्योंका खण्डन हो जायगा, जो एकान्त मंतव्य है।
आत्मसत्वका समर्थन - कोई यह कहते है कि आत्मा तो कुछ प्रमाण का विषय भी नही है जो विषय प्रमाण में आये, युक्तिमें उतरे, उसके गुणोंका भी वर्णन करियेगा। आत्मपदार्थ कुछ पदार्थ ही नही, भ्रम है लोगो ने बहका रक्खा है। धर्मके नामपर जो ऋषि हुए, त्यागी हुए, साधु हुए, एक धर्म का ऐसा ढकोसला बता दिया है कि लोग धर्ममें उलझे रहे और उनकी इस उलझनका लाभ साधु ऋषि संत लूटा करे, उनको मुफ्तमें भक्ति मिल, आदर मिले। आत्मा नामकी कोई चीज नही है कोई लोग ऐसा कहते है। उनके इस मंतव्य का निरास इस विशेषणसे हो गया है कि यह आत्मा स्वसम्वेदनगम्य है, स्पष्ट विदित है एक अंह प्रत्ययके द्वारा भला जो आत्माको मना भी कर रहे है- मैं आत्मा नही हूँ, इस मना करनेमें भी कुछ ज्ञान और कुछ अनुभव है कि नही? है, चाहे आत्माको मना करने के रूपसे ही अनुभव हो। पर कुछ अनुभव हुआ ना, कुछ ज्ञान हुआ। आत्मा नही हूं, मैं कुछ भीन हूं, केवल भ्रम मात्र हूं ऐसी भी समझ किसी में हुई ना। यह समझ जिसमें हुई हो वही आत्मा है जो आत्माको मना करे कि आत्मा कुछ नही है वही आत्मा है। जो आत्मा को माने कि मै आत्मा ऐसा हूं वही आत्मा है।
स्वंसवेदन प्रमाणका विषय - यह आत्मा स्वसम्वेदनके द्वारा स्पष्ट प्रसिद्ध है। यह आत्मा अमूर्तिक है इसमें रूप, रस, गधं, स्पर्श नही है इस कारण कोई इस बातपर अड़ जाय कि तुम हमको आँखो दिखा दो कि यह आत्मा है तो मान लूँगा। तो यों आँखो कैसे दिखाया जा सकता है? उसमें कुछ रूप हो, लाल पीला आदि रंग हो तो कुछ आँखो से भी दिखाने का यत्न किया जाय, पर वहां रूप नही है, चखकर भी नही बताया जा सकता है। क्योंकि आत्मामें स्पर्श भी नही हे। यह आत्मा अमूर्तिक है, न यह इन्द्रियोका विषय है और न मनका विषय है। इसीसे लोग यह कह देते है कि आत्मा किसी प्रमाणका विषय भी नही है, परन्तु यह मंतव्य ठीक नही है।
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सर्वजीवोमें अहं प्रत्ययवेदन - भैया ! मैं हूं, ऐसा प्रत्येक जीवमें अनुभव चल रहा है, और कोई पुरूष बाहृाविकल्पोंका परिहार करके अन्तर्मुखाकार बनकर अपने आपमें जो जो अनुभव करेगा, जो सत्य स्वभावका प्रकाश होगा उस सत्य प्रकाश्ज्ञके अनुभवको साक्षात् स्पष्ट जानता है कि लो यह मैं हूं। आत्माका परिज्ञान करना सबसे महान् उत्कृष्ट पुरूषार्थ है। इस धन वैभवका क्या है? रहे तो रहे, न रहे तो न रहे। न रहना हो तो आप क्या करेंगे, और रहना हो तो भी आप क्या कर रहे है? आप तो सर्वत्र केवलज्ञान ही कर रहे है, कल्पनाही कर पाते है। कोई कोई पुरूष बाहा विकल्पोका परिहार करके परमविश्राम पाये तो वहाँ अपने आप ही यह शुद्ध ज्ञानस्वरूप आत्मप्रकाश उपयोगमें प्रकट हो जाता है। जब इस आत्माकी सत्ता स्वतः सिद्व समझमें आती है, इस आत्माको असिद्ध कहना ठीक नही
तनुमात्रप्रतिपदनसे सर्व व्यापकत्वका निरसन - दूसरा विशेषण इसमें दिया गया है - आत्मा शरीर मात्र है। इसके विपरीत कुछ लोग तो यह कहते है कि यह आत्मा आकाशकी तरह व्यापक है, आकाशके बराबर फैला हुआ है। जिस प्रकार सर्वत्र आकाश विद्यमान है उसी प्रकार आत्मा भी सर्वत्र मौजूद रहता है, कही आत्माका अभाव नही है। जैसे आकाश्ज्ञ तो एक है और घड़ेमें जो पोल है उसमें समाये हुए आकाश को लोग कहते हे कि घड़ेका आकाश है यह कमरेका आकाश है। जैसे उन घडोने भीत और घड़ियालोके आवरणके कारण आकाशके भेद कर दिए जाते है कि यह अमुक आत्मा है, यह अमुक आत्मा है ऐसा एक मंतव्य है, परन्तु वह मंतव्य ठीक नही है। जो चीज एक होती है और जितनी बड़ी होती है उस एकमें किसी भी जगह कुछ परिणमन हो तो पूरेमें हुआ करता है। यहाँ तो भिन्न-भिन्न देहियोमें विभिन्न परिणाम देखा जा रहा है।
पदार्थ के एकत्वका प्रतिबोध - यह चौकी रखी है, यह एक चीज नही तभी तो चौकीके एक खुंट मे आग लग जाये तो धीरे-धीरे पूरी जलती हे। एक पदार्थ वह होता है कि एक परिणमन जितने में पूरेमें नियम से उसी समय होना ही पड़े। जैसे एक परमाणु । परमाणुमें जो भी परिणमन होता है वह सम्पूर्णमें होता है। कितना है परमाणु सम्पूर्ण ? एक प्रदेशमात्र, उसे निरंश कहते है। तो एक परिणमन जितने में नियम से हो उतने को एक कहा करते है। यह आत्मा सर्वत्र व्यापक केवल एक ही होता तो हम जो विचार करते है, मानते है उतना जो ज्ञानका परिणमन हुआ, वह परिणमन पूरे आत्मामें होना चाहिए। फिर यह भेद क्यों हो जायगा कि आप जो जानते है सो आप ही जानते है, मै नही जान सकता। जब एक ही आत्मा है तो जो भी परिणमन किसी जगह हो वह परिणमन पूरे आत्मामें होना चाहिए, पर ऐसा होता नही है हममें सुख परिणमन हो तो वह हममें ही होता है आपमें नही जा सकता है। जो आपमें होता है, हम सबमें नही जा सकता है। इससे सिद्ध है कि आत्मा एक सर्वव्यापक नही है। रही आकाशकी बात। दृष्टान्तमंजो कहा गया था तो
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घड़े मे, हंडेमें, कमरे आकाश कुछ घड़ेका, हंडेका अलग अलग नही है। आकाश तो वही एक है। कही घड़ेका उठाकर धर देने से वहाँ का आकाश न रहे, घड़ेके साथ चल आए, ऐसा नही होता है। आकाश मे जो भी एक परिणमन होता है वह पूरे आकाश में होता है। वह वस्तु है।
आत्माके अत्यन्त अल्पीयस्त्वका निरसन - कुछ लोग ऐसा कहते है कि आत्मा बटके बीजके दानेकी तरह छोटा है। जैसे बड़के फलका दाना होता है तो वह सरसो बराबर भी नही है, तिलके दाने बराबर भी नही है। इतना छोटा बीज औश्र किसीका होता ही नही है। तो बटके बीजका जितना एक दाना होता है आत्मा तो उतना ही छोटा है इस सारे शरीरमें। पर यह छोटा आत्मा रात दिन इस शरीर में इतना जल्दी चक्कर लगाता रहता है कि हम आपको ऐसा मालूम होता है कि मैं इतना बड़ा हूं। जैसे किसी गोल चका में तीन जगह, दो जगह आग लगा दी जाय कपड़ा बाधैंकर और उस चकेको बहुत तेजीसे गोल गोल फिराया जाय तो आप यह नही परख पाते है कि इसमें तीन जगह आग है। वह एक ही जगह मालूम होती है। अच्छा, चका और आग की बात दूर जादे दो। अब जो बिजलीका पंखा चलता है उसमें पंखुड़ियां है पर जब पंखा चलता है तो यही नहीं मालूम होता है कि इसमें तीन पंखुड़िया है वह पूरा एक नजर आता है। इससे भी अधिक वेग से चलने वाला आत्मा यों नही विदित हो पाता है कि यह आत्मा बटके दानेके बराबर सूक्ष्म है, ऐसा एक मंतव्य है। वह भी मंतव्य ठीक नही है।
आत्माके देहप्रमाण विस्तारका समर्थन - आत्माके बट बीजके बराबर छोटा होनेका कोई कारण नहीं है, और यह इस तरहके चक्कर अगर लगाए तो शरीर तो बड़े बेहूदे ढंग का है, दो टांगे, इतनी लम्बी पसर गयी है, 2 हाथ ऐसे अलग-अलग निकल गए है, इसमें आत्मा किस तरह घूमें, कहाँ-कहाँ जाय? यह आत्मा न तो बड़के बीज के दाने बराबर छोटा है और न आकाशकी तरह एक सर्वव्यापक है किन्तु कर्मोदयानुसार जब जैसा छोटा या बड़ा शरीर मिलता है तो उस शरीर प्रमाण ही इस आत्माका विस्तार बनता है। इस आत्माके प्रदेशमें संकोच और विस्तार करनेकी प्रकृति है। छोटा शरीर मिला तो प्रदेश संकुचित हो गए बड़ा शरीर मिला तो प्रदेश फैल गए। यह आत्मा कर्मोदयसे प्राप्त अपने अपने शरीर के प्रमाण ही विस्तार में रहता है।
चारूवाक् – आत्माके सम्बंध में सिद्वान्त रूपसे जो यह मान्यता है कि यह शरीर, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पांच तत्वो से बनता है ऐसा सिद्वान्त मानने वालों का नाम है चार्वाक, जिसे सम्हाल करके बोलिये चारूवाक। चारू मायने प्रिय, वाक् मायने वचन, जिसके वचन सारी दुनिया को प्रिय लगें उसका नाम है चारूवाक। यदि कोई यह कहे कि क्या आत्मा और धर्मके झगड़ेमें पड़ते हो, खूब खावा, पियो, मौज उड़ावो और देखो इन्द्रियके विषयो में कितना मौज है, कौन देख आया है कि क्या है आगे? है ही कुछ नही
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आगे। जो कुछ है वह दिखता हुआ सब कुछ है इसलिए आरामसे रहो, खूब मौजसे रहो, कर्जा हो तो हो जाने दो मगर खूब घी शक्कर खावो। आगे न चुकाना पड़ेगा, जीव आगे कहाँ रहता है, ऐसी बातें सुननेमें जगतके लौकिक जीवोंको तो प्रिय लगती होगी, ऐसे लौकिक वचन जिनको प्रिय लगते है उनका नाम है चारूवाक। यह तो सिद्वान्त वाली बात है, परन्तु इस सिद्वान्तका परिचय नही है तो न सही किन्तु इस मंतव्य वाले इने गिने बिरले तत्वज्ञ साधु संतोको छोड़कर सारी दुनिया इसके मतकी अनुयायी है।
नास्तिकता - भैया ! यों तो नाम के लिए कोई जैन कहलाए फिर भी इन जैनो में जैसे माना आज संख्या लाखोकी है तो उन जैनो में वयावहारिक रूपसे और मंतव्यके रूपसे चारवाककी श्रेणी में अधिक होगा। और भी जितने धर्म मजहब है उनमें भी चारूवाक भरे पड़े है। जो आस्तिक नही है वे सब चारूवाक है। यहाँ आस्तिकका अर्थ है पदार्थ की जिसकी जैसी सत्ता है, अस्तित्व है उसे जो माने उसका नाम आस्तिक है, और जो पदार्थका अस्तित्व न मानें उनका नाम नास्तिक है। यह तो मनगढन्त परिभाषा है कि जो हमारे शास्त्रोको न माने सो नास्तिक है। जो हमारे वेदोको न माने सो नास्तिक, जो हमारे कुरानको न माने से नास्तिक। हर एक कोई अपना अपना अर्थ लगा ले, कोई काफिर शब्द कहता है, कोई नास्तिक शब्द कहता है, कोई मिथ्यादृष्टि शब्द कहता है, ये सब एकार्थक शब्द है। नास्तिक का अर्थ यह नही है कि जो मेरे मतकी बात न माने सो नास्तिक, किन्तु नास्तिकका अर्थ है पदार्थकी जैसी सत्ता है, अस्तित्व है उस अस्तित्वका न होना माने सो नास्तिक है। नास्तिक शब्द में कहाँ लिखा है यह कि वेदको या अमुक मजहबको या इस पुराणको न माने सो नास्तिक उसमें दो ही तो शब्द है, न और अस्ति। जैसा जो अस्ति है उसे न माने सो नास्तिक।
लौकात्यायकता - चारूवाक सिद्वान्त में यह मत बना है कि आत्मा कुछ नही है। पृथ्वी, जल, अग्नि, और वायु के संयोग से एक नवीन शक्ति प्रकट हो जाती है जिसे लोग जीव कहते है। जैसे महुवा और कोदो आदिक जो मादक पदार्थ है उनका सम्पर्क हो, वे सड़े गले तो एक मादक शक्ति पैदा हो जाती है जिसके सेवनसे, नशाजनक उन्मादक पदार्थोके प्रयोग से मनुष्य पागल हो जाता है। तो जैसे शराब कोदो में नही भरी पड़ी है, कोदोको लोग खाते है, उसके चावल खाते है, रोटी खातें है? कोदोमे कहाँ शराब है पर कोदो और अन्य अन्य पदार्थो को मिला दिया जाय तो विधिपूर्वक उन पदार्थोका संयोग होनेसे शराब बन जाती है, ऐसे ही पृथ्वी में समझ नही है, जलमें चेतना नही है, अग्निमं नही है, वायु में नही है, पर इसका विधिपूर्वक संयोग हो जाय तो चेतना शक्ति हो जाती है ऐसा चारूवाकका सिद्वान्त है।
चार्वाकसिद्वान्त में आत्मविनाशकी विधि - चार्वाक मन्तव्य में यह धारणा जमी हुई है कि पृथ्वी आदि बिखरे कि चेतना मूलसे खतम हो गई। पृथ्वी पृथ्वी से मिल गयी, अग्नि
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अग्निमें, जल जलमें, वायु वायुमे, चेतना समाप्त। बच्चे लोग जब अपनल धोती सुखाते है तो ऐसा बोलते है कि कुवांका पानी कुवांमें जाय, तलाका पानी तलामें जाय, ऐसा काम बच्चे लोग कलासहित करते है। सीधे काम करनेकी उनकी प्रकृति नही है। तो जैसे उन बच्चोका मंतव्य है कि हमारी धोती में तलाका पानी चिपका है जिससे गीली है तो तलाका पानी तलामें चला जाय ऐसे ही इस चारूवाक बच्चेका यह मंतव्य है कि इस मुझमें जो अंश जहाँका हो पृथ्वी तत्व, जल तत्व जो मुझमें शामिल हो वे तत्व बिखर जायेगे तो आत्मा मिट गया। कितने ही लोग मरना चाहते है और कितने ही लोग जीना चाहते है। कुछ सुख भरी जिन्दगी हो तो जीना अच्छा है और क्लेशकारी जिन्दगी हो तो मरना अच्छा है। उनका जीना भी मुफ्त है और मरनाभी मुफ्त है अर्थात् मरकर भी कुछ न रहेगा।
अत्यय शब्दका भाव - विनाशवादी लोग इस आत्माका अस्तित्व नही मानते है। वे जानते है कि गर्भ से लेकर मरेने तक ही यह जीव है आगे यह जीव नही है। इस मंतव्यका खण्डन करने के लिए इस श्लोकमें निरत्ययः शब्द दिया है। आत्माकी जानकारी के लिए यह 5 विशेषणोंका विवरण चल रहा है। जिससे तीसरा विशेषण है निरत्ययः । आत्मा अविनाशी है। अत्यय का अर्थ है अतिकान्त हो गया है अय मायने आना जहाँ याने अत्यय अभाव को कहते है। अत्यय न हुआ जहाँ उसका नाम है निरत्ययः। लोग निरत्ययः का अर्थ सीधा नष्ट हो जाना कह देते है। ठीक है, निरत्ययका अर्थ है नष्ट होना। किन्तु नष्ट होने मे होता क्या है? तो नष्ट होनेका यह अत्यय जो नाम है उसमे यह मर्म पड़ा है कि इसमें अब परिणमन न होगा। जब तक परिणमन है तब तक पदार्थ है। जब परिणमन ही न हो तो पदार्थ ही कहाँ रहेगा? न हो परिणमन तो मूलसे नाश हो गया। यह कठोर शब्द है अत्यय। विनाश शब्दके जितने पर्यायवाची शब्द है उन सबमें यह बड़ा कठोर शब्द है।
विलय शब्द का भाव - विनाशका पर्यायवाची शब्द विलय है, किन्तु विलय शब्द कठोर नही है। पर्यायका विलय हो गया अर्थात् पर्याय विलीन हो गयी। पर्याय द्रव्यमें समा गयी- इसका कुछ सत्वरखा, कठोरता नही वर्ती, और होता भी यही है विनाशमें कि नवीन पर्याय द्रवयमें विलीन हो जाती है। जैसे एक बुढिया रहटा कातती थी। उसका तकुवा टेढ़ा हो गया तो उसे लेकर वह लोहारके पास पहुंची, बोली कि इस तकुवाकी टेढ़ निकाल दोगे? बोला हाँ निकाल देंगे, दो टके (चार पैसे) लेंगे। ठीक है। लोहारने उसे सीधा कर दिया, टेढ़ निकल गयी। तो जब लोहार उसे देने लगा तो कहा कि अब लावा 2 टके पैसे। तो बुढ़िया बोली कि तुमने जो इस तकुवेकी टेढ निकाली है वह हमारे हाथमें दे दो तब अपने टके ले लो। अब लोहार बड़ा हैरान हुआ। सोचा कि कैसे इस तकुवेकी टेढ़को इसके हाथ में दे दे? हाँ वह ऐसा कर सकता है कि उस तकुवेको फिर टेढ़ा कर दे। सोचा कि इस तकुवेके टेढ़ा करनेमें हैरान भी हो मो भी यह हमारे दो टके न देगी। तो जैसे वहाँ यह
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बतावो कि तकुवामें जो टेढ़ थी वह गयी कहाँ? उस तकुवेसे निकलकर कही बाहर गयी है क्या? अथवा वह टेढ़ तकुवामें अब भी धंसी हुई है क्या? न टेढ़ बाहर गयी है, न टेढ़ तकुवेमे घंसी है तो हुआ क्या उसका ? टेढ़ तकुवामें विलीन हो गयी। न यहाँ दूर होनेकी बात कही, न तकुवामें रहने की बात कही और दोनोकी बात कह दी। तो विनाशका अर्थ विलीन भी है पर यह कोमल प्रयोग है।
आत्माकी निरत्ययरूपता - यह चारूवाक विलय शब्द जैसे कोमल प्रयोगको भी राजी नही है, वह मानता है अत्यय। जहाँ अत्यय होता ही नही है, अयसे अतिक्रान्त हो गया, अयसे ही पर्यय शब्द बना है, पर्यय और पर्याय दोनोका एक ही अर्थ है। जैसे मनः पर्यय ज्ञान । तो कही इस परिणमनका नाम पर्यय भी रख दिया है। कही इसका नाम पर्याय भी रख दिया है। आचार्य कहते है कि आत्मा निरत्यय है, उसका अभाव नही होता है विनाश नही होता है। यह द्रव्यरूपसे नित्य है। कुछ भी परिणमन चलो, व्यक्त हो, अव्यक्त हो वह परिणमन जिस स्त्रोतभूत द्रव्यके आधारमें होता है वह द्रव्य शाश्वत रहता है। आत्मा द्रव्य रूपसे नित्य है। यद्यपि पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे आत्मा प्रतिक्षण विनाशीक है, फिर भी द्रव्यदृष्टिसे देखो तो शाश्वत वहीका वही है। पर्यायदृष्टिसे देखने पर ही प्रतीत होगा कि प्रत्येक पदार्थ अपने आपमें प्रतिसमय नवीन-नवीन परिणमन करता है, वह नीवन परिणमन पूर्व परिणमन से अत्यन्त विलक्षण नही है अथवा समान हो तो वहाँ यह परिचय नही हो पाता कि इस पदार्थ में कुछ बदल हुई।
पर्यायदृष्टिमें क्षणिक रूपता- परमात्माका केवलज्ञान जैसा शुद्ध परिणमन भी केवलज्ञान भी परमार्थतः प्रतिक्षण नवीन परिणमनसे रहता है, यद्यपि वह अत्यन्त समान है, जो पूर्वसमयमें विषय था केवलज्ञानका वहीका वही उतना का ही उतना अगले-अगले समयमें विषयरहता है फिर भीपरिणमन न्यारा न्यारा है। जैसे बिजलीका बल्ब 15 मिनट तक रोशनी करता रहा और पूरे पावर से बिजली है, उसमें कुछ कमीबेशी नही चल रही है, बिल्कुल एकसा प्रकाश है। इस बल्बने जो एक मिनट पहिले प्रकाशित किया था वही का वही प्रकाश दूसरे मिनट में भी प्रकाशित है फिर भी पहिले मिनटकी बिजली का पुरूषार्थ पहिले मिनट में था, दूसरे मिनट नया पुरूषार्थ है, नई शक्तिका परिणमन है, विषय भले ही समान है किन्तु परिणमनने वाला पदार्थ प्रतिक्षण नवीन-नवीन पर्यायसे परिणमता है। यो पहिले समयकी पर्याय अगले समय में भी नही रहती है, इतना क्षणिक है समस्त विश्व, लेकिन यह पर्यायदृष्टि से क्षणिक है।
विभावपरिणतिकी क्षणिकरूपता - संसारी जीवमें किसी वस्तुविषयक प्रेम हुआ, राग परिणमन हुआ तो जब तक वह राग अन्तर्मुहूर्त तक न चलता रहे, न बनता रहे तब तक हम आपके ज्ञानमें नही आ समता। हम जिस रागका प्रयोग करते है, जिस राग से प्रभावित होते है वह एक समय का राग नही है। कोई भी संसारी प्राणी एक समयके राग से
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प्रभावित नही होता, किन्तु असंख्यात समय तक वह राग राग चलता रहे तब हम उपयोमें, ग्रहणमें आता है और हम प्रभावित होते है, फिर भी उपयोग के विषयभूत उस रागपर्याय समूह में प्रतिक्षण जो राग परिणमन है वह प्रतिसमयका एका एक परिणमन है, किन्तु वह एक समय के परिणमन प्रभु के ज्ञान द्वारा जाने जा सकते है, क्योकि उनका केवलज्ञानल निरपेक्ष असहाय होता हुआ प्रति समय की परिणतिको जाननेवाला है, पर छद्मस्थ जीव एक समय के रागपरिणमनको ग्रहण नही कर सकते। यो उपयोग द्वारा जान भी नही सकते। यद्यपि इस ही उपयोग से हम रागके एक समयकी चर्चा कर रहे है। समयवर्ती राग होता है, हम चर्चा कर रहे है, पर विशद परिचय नही हो सकता। हम छद्मस्थ जान लेते है युक्तियो से, आगमसे, पर जिसे अनुभवमें आना कहो, परिचयमें आना कहो वैसा एक समयका राग परिचयमें आ ही नही सकता, किन्तु होता है अवश्य प्रतिसमयमें परिणमन और एक समयका परिणमन दूसरे समय रहता नही है।
परिणमनके आधारकी ध्रुवता - प्रतिक्षण परिणामी क्षणिक है यह आत्मा और समस्त पदार्थ परन्तु परिणमन दृष्टि से यह क्षणिकता है। अत्यय नही हो गया उसका, पर्यायोका आना नही खत्म हुआ है, पर्यायें चलती ही रहेंगी। एक पर्याय मिटनेके बाद उसमें दूसरी पर्याय आती है, तो जिसमे पर्याय आयी वह पदार्थ शाश्वत है। यह आना जाना किस पर हुआ? वह पदार्थ ही कुछ न हो, मात्र परिणमन ही हो सब, तो सिद्वि नही हो सकती। क्षणिकवादी लोग परिणमनको ही सर्वस्व पदार्थ समझतें है परन्तु परिणमनका आधार अवश्य हुआ करता है और वह अविनाशी है। इस प्रकार यह आत्मा किन्ही बाहा चीजों से उत्पन्न नही हुआ है किन्तु यह अविनाशी ध्रुव पदार्थ है।
आत्मा आनन्दमयता व ज्ञानस्वरूपता - चौथे विशेषणमें कहा है कि आत्मा सुखमय है। कोई मंतव्य ऐसे हैर कि आत्मामे सुख नामका गुण ही नही मानते किन्तु कलंक मानते हे, इसी प्रकार ज्ञान नामका गुण ही नही मानते किन्तु कंलक मानते है। इस सुख का और इस ज्ञानका जब विनाश होगा तभी मोक्ष मिल सकेगा, ऐसा मंतव्य है। वर्तमान परिचयकी दृष्टिसे उन्होने इसकी शुद्धता मानी है, क्योकि लौकिक सुख और लौकिक ज्ञान इन दोनोसे ज्ञानी पुरूष परेशानी मानता है। ज्ञानी तो शुद्ध ज्ञान और शुद्ध आनन्द को ही उपादेय मान्ता है। आत्माका ज्ञान और सुख दोनो ही स्वरूप है, इसी कारण यह आत्मा अनन्त सुखवान है और लोक अलक समस्त पदार्थोका जाननहार है। इस प्रकार यह आत्मा जिसके ध्यानसे सहज आनन्द प्रकट होता है वह आत्मा स्वसम्वेदनगम्य है, शरीर मात्र है अर्थात् शरीर प्रमाण है, अविनाशी है, सुखस्वरूप है और समस्त लोकालोकका जाननहार है, ऐसे परमात्मतत्वमें जो आदर करता है वह विवेकी पुरूष है।
संयम्य करणग्राममेकाग्रत्वेन चेतसः ।
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आत्मानमात्मवानध्यायेदात्मनैवात्मनात्मनि । |22 ||
आत्मा में अभेद षटकारता- आत्मामे अभेद षट्कारकता – पूर्व श्लोक में आत्मा का अस्तित्व प्रमाणसित बताया है। प्रमाणसिद्ध आत्माके परिज्ञान होने पर अब यह उत्सुकता होती है कि इस आत्माकी उपासना किस प्रकार करना चाहिए? उसके उपासनाकी विधि इस श्लोक में कही जा रही है। कल्याणार्थी आत्मा इन्द्रियके विषयोंको संयत करके रोक करके एकाग्रचित होकर अपने आत्मामें स्थित अपने आत्माको अपने आत्म उपयोग द्वारा ध्यान करे। आत्माके परिज्ञान में आत्मा ही तो कारण है और आत्मा ही आधार है। (1)
कर्ता-जानने वाला भी यह आत्मा स्वयं है (2) कर्म-कर्म जिसको जाना जा रहा है वह आत्मा भी स्वंय है। (3) करण-जिसके द्वारा जाना जा रहा है वह करण भी स्वंय है (4) अधिकरण-जिसमें जाना जा रहा है वह आधर भी स्वंय है। इसके चार कारको का वर्णन आया है। साथ ही दो कारको का भी मंतव्य गर्भित है कि (5) अपादन-जिससे जाना जा रहा है अर्थात् जानन किया, क्षणिक रूप में उपस्थित होकर ज्ञान ने जिस ध्रुव पदार्थ का संकेत किया वह अपादान भूत आत्मा भी स्वयं है (6) सम्प्रदान-जिसके लिए जाना जा रहा है वह प्रयोजन भी स्वयं है।
अभेदषट्कारता पर एक दृष्टान्त - जैसे कोई साँप लम्बा अपने शारको कुडंलिया बनाकर गोलमटोल करके बैठ जाय तो वहाँ कुंडलिया रूप कौन बनता है? सांप, और किसको कुंडली बनाता है? अपने को और किस चीज के द्वारा कुण्डली बनाता है? अपने आपके द्वारा, और कुण्डली बनाने का प्रयोजन क्या है, किसके लिए कुण्डलीरूप बनाता है? अपने आपके आराम के लिए, अपने आपकी वृत्ति के लिए कुण्डली बनाता है, और यह कुण्डली बनाने रूप परिणमन जो कि क्षणिक है अर्थात् अभी बनाया है, कुछ समय बाद मिटा भी देगा सो कुण्डलियाँ रूप परिणमन किस पदार्थ से बनाता है? उस परिणति में ध्रुव पदाथ्र क्या है? तो दृष्टान्त में वह सर्प स्वंय ही है और यह कुण्डली बनी किसमें है? उस सांप में ही है। जैसे वहाँ अभेदकारक स्पष्ट समझ में आता है इससे भी अधिक स्पष्ट ज्ञानियों की दृष्टि में आत्मा के अभेदकारकत्वपना अनुभव में आता है। यह आता स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष अनुभव करने के योग्य है।
स्वसंवेदनप्रत्यद्वक्ष के उद्योग के उपाय - वह स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष कैसे बने, उसका उपाय है इस सहज आत्मस्वरूप की एकाग्रता करना। इस आत्मातत्व पर एकाग्ररूप से बना हुआ उपयोग आत्मा का स्वसम्वेदना करा देता है। चित्त की एकाग्रता के उपाय है कषायो की शान्ति करना। जब तक कषाये शान्त नही होती है चित्त एकाग्र नही होता है। कषायो के शांत किए बिना लौकिक पदार्थो के उपयोग में भी एकाग्रता नही रहती, फिर शान्त स्वभावी निज आत्मतत्व के उपयोग में स्थिरता तो कषायो के शांत किए बिना असम्भव है,
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अतः एकाग्रता करने के लिए कषायों की शान्ति आवश्यक है । कषाय दब जाय, शान्त हो जाय, साथ ही कषाय शग्न के लिए इन्द्रिय का दमनआवश्यक है ये इन्द्रियाँ उद्दण्ड होकर अपने विषयो में प्रवृत्त हो रही है अथवा यह उपयोग इन्द्रिय के विषयो मे आसक्त हो रहा हैं, उनसे यह सुख मानता है और उसमें ही हित समझता है ऐसे इन्द्रिय विषय की प्रवृत्ति में चित्त का अस्थिर होना प्राकृतिक बात है और कषाय बढ़ते रहना भी प्राकृतिक है इसलिए इन्द्रिय के दमन की भी प्रथम आवश्यकता है जो जीव इन्द्रिय का दमन नही कर सकता वह वित्त को एकाग्र नहीं बना सकता। इसलिए इन्द्रिय के विषयों का निरोध भी आवश्यक है जब इन्द्रिय के विषयो का निरोध हो जाय तो आत्मा में समता परिणाम जाग्रत होता है। इस समता परिणाम का ही नाम आत्मबल है । जहाँ यह आत्मबल प्रकट हुआ है वहाँ उपयोग स्थिर है, यो उपयोग को एकाग्र करके स्वसम्वेदन प्रत्यय के द्वारा यह आत्मा अनुभव में आता है।
आत्मा में स्वपरप्रकाशकता का स्वभाव इस आत्मा में स्वपरप्रकाशकता का स्वभाव पड़ा हुआ है। जैसे दीपक स्वपर प्रकाशक है ऐसे ही आत्मा स्वपर का जाननहार है । जैसे कमरे में दीपक जलता हो तो कोई यह नहीं कहता कि दीपक को ढूँढने के लिए मुझे दीपक दो या बैटरी दो, ऐसे ही यह आत्मा परपदार्थो का भी प्रकाशक है और साथ ही अपने आपका भी प्रकाशक है। इस कारण आत्मा के जानने के लिए भी अन्य पदार्थ की, अन्य साधनो की आवश्यकता नहीरहती है तब जो पुरुष आत्मा का ज्ञान चाहतें है उन्हें प्रथम तो यह विश्वास करना चाहिए कि मैं अपने आत्मा का ज्ञान बड़ी सुगमता से कर सकता हूं क्योकि आत्मा ही तो स्वयं ज्ञानमय है और उस ज्ञानमय स्वरूप से ही इस ज्ञानमय आत्मा को जानना है। इस कारण मै आत्मा का सुगमतया ज्ञान कर सकता हूं।
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आत्म परिज्ञान व धर्मपालन में पर की निरपेक्षता भैया ! आत्मा के परिज्ञान के लिए अन्य पदार्थों की चिन्ता नही करनी है मैं कैसे आत्मा का ज्ञान करूँ? मेरे पास इतना धन नही है कि आत्मा के ज्ञान की बात बनाऊँ । आत्मा के ज्ञान में धन की आवश्यकता नही है। जैसे कुछ लोग धर्म धारण के प्रसंग में कहने लगते है कि हमारे धन की स्थिति कुछ अच्छी होती तो हम जरूर धर्म पालते, प्रतिमा पालते, पर धर्म के धारण मं आर्थिक स्थिति की पराधीनता है कहाँ ? धर्म किसे कहते है, वह धर्म तो समस्त परपदार्थो से विविक्त होकर ही प्रकट होता है। जैसे लोग कह देते है कि शुद्ध खान पान के लिए कुछ विशेष पैसे की जरूरत पड़ती है। शुद्ध घी बनाना है, शुद्व आटा तैयार करना है तो कुछ धन ज्यादा लगेगा तब शुद्ध भोजन किया जायगा और धर्म पालन होगा, ऐसा सोचते हे लोग, परन्तु पदार्थो के शुद्ध बनाने में कुछ अधिक व्यय नही होतां । खाना तो उसे था ही, खाता वह अशुद्ध रीति से, पर शुद्ध रीति के भोजन में कुछ धन की सापेक्षता विशेष नही हुई है, भोजनमात्र में जो सापेक्षता है उतने ही व्यय की अपेक्षा शुद्ध भोजन में है, परिश्रम की थोड़ी
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आवश्यकता हुई है। धर्म पालन धन के आधीन नही है । फिर अध्यात्म धर्म पालन में जो वास्तविक धर्मपालन है उसमें तो धन की रंच भी आवश्यकता नही होती है।
आत्मज्ञान में परद्रव्य की अटक का अभाव जो लखपित करोड़पति पुरूष है वे आत्मा का ज्ञान जल्दी कर लें और गरीब न कर पाये ऐसी उलझन आत्मा के ज्ञान में नही हे। बल्कि अमीर पुरूष, लखपति करोड़पति पुरूष प्रायः धन की और आकृष्ट होगा, धन की तृष्णा में रत रहेगा, उसे आत्मज्ञान होना कठिन है, और कष्ट में, दरिद्रता मे पड़ा हुआ पुरूष चूँकि अपने चित्त की लम्बी छलांग नही मारता है अतः अपने आपको अपने आपके द्वारा अपने आप में अपने आपके सहज स्वरूप के रूप में ध्यान करते रहना चाहिए । बाह्रापदार्थो का विकल्प टूटे तो स्वरसतः स्वयं ही अपने आत्मा का प्रतिबोध होता है।
आत्म परिज्ञानार्थ स्वरूप प्रतिबोध की आवश्यकता - यह आत्मपरिज्ञान बने इसके लिए पदार्थ विषयक स्वरूप का स्पष्ट प्रतिबोध होना चाहिए । प्रत्येक पदार्थ द्रव्य, गुण, पर्यायस्वरूप है। उदाहरण में जैसे यह मै आत्मा आत्मद्रव्यत्व, आत्मशक्ति और आत्म परिणमन से युक्त हूं।
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आत्मा में गुण व पर्याय के परिज्ञान कीक पद्वति आत्मपरणिमन का परिज्ञान बहुत सुगम है क्योकि वह स्पष्ट रूप है। रागद्वेषादि हो रहे हो अथवा वीतरागता बन रही हो वह सब आत्मा का परिणमन है । ये समस्त आत्मा के परिणमन अपनी शक्ति के आधार से प्रकट होते है, अर्थात् जितने प्रकार के परिणमन है उतने प्रकार की शक्ति पदार्थ में जानना चाहिए। कोई भी परणिमन उस परिणमन उस परिणमन की शक्ति से ही तो प्रकट हुआ है। जैसे आत्मा में जानना परिणमन होता है तो जानन की शक्ति है तभी जानन परिणमन होता है, और यह जानना परिणमन जानन शक्ति का व्यक्त रूप है। यह विशिष्ट जानना नष्ट हो जायगा फिर और कुछ जानना बनेगा, वह भी नष्ट होगा। अन्य कुछ जानन बनेगा, इस प्रकार जानन परिणमन की संतति चलती जाती है। वह संतति किसमें बनी है? जिसमें बनी है वह है ज्ञान शक्ति, ज्ञानस्वभाव, ज्ञानगुण । तो जैसे जानन की परिणति का आधारभूत ज्ञानगुण है ऐसे ही आनन्द की परिणति का आधारभूत आनन्दगुण है। किसी भी प्रकार के विश्वास का आधारभूत श्रद्वा ज्ञानगुण है, क्रोधादिक कषायो का अथवा शान्त परिणमन का आधारभूत चारित्र गुण है। इस प्रकार जितने भी प्रकार के परिणमन पाये जाते है उतनी ही आत्मा में शक्यिाँ है, उनका ही नाम गुण है।
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आत्मपदार्थ क द्रव्यरूपता इन गुण और पर्यायो को आधारभूत द्रव्यपना भी इस आत्मा में मौजूद है, जो गुण पर्यायवान हो वह द्रव्य है, जो द्रव्य की शक्ति है वह गुण है और उन गुणो का जो व्यक्त रूप है वह पर्याय है । यों आत्मपदार्थ द्रव्यत्व, गुण और पर्याय से युक्त है।
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आत्मज्ञान में स्वसंवेदन की विधि - प्रत्येक पदार्थ अपने आपके ही द्रव्य गुण पर्याय से है, किसी अन्य के द्रव्य गुण पर्याय से नही है। अब यहाँ अन्य द्रव्य, अन्य गुण, अन्य पर्याय का विकल्प तोड़कर केवल आत्मद्रव्य, आत्मगुण और आत्मपर्याय का ही उपयोग रखे तो चूंकि वही ज्ञाता, वही ज्ञेय और वही ज्ञान भी बन जाता है तो वहाँ स्वसम्वेदन प्रकट होता है और स्वसम्वेदन में यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि यह मैं आत्मा हूं, ऐसे आत्मपदार्थ के उपयोग में चित्त की एकाग्रता होती है।
चित्त की एकाग्रता में प्रगति- चित्त की एकाग्रता होने से इन्द्रिय का दमन होता है। जो लोग बेकार रहतें है, जिन्हे कोई काम काज नही है, न कोई अपूर्व-अपूर्व कार्य करने की धुन है ऐसे निठल्ले पुरूष इन्द्रिय के विषयो का शिकार बने रहते है। करे क्या वे? उपयोग यदि शुद्ध तत्व में नही रहता है तो यह बाहर के विषय में अधिक बढ़ेगा। इन्द्रिय का दमन परमार्थ तत्व की एकाग्रता बिना वास्तविक पद्वति मेंनही हो सकता है। जब इन्द्रिय का दमन न होगा, चित्त की एकाग्रता न होगी तो मन विक्षिप्त रहा, यत्र तत्र डोलने वाला रहा तो मन की इस विक्षिप्तता के होने पर स्वानुभव हो नहीं सकता। अतः आत्मा के अनुभव के लिए श्रुतज्ञान का आश्रय लेना परम आवश्यक है । वस्तु के सही स्वरूप का परिज्ञान करना अत्यन्त आवश्यक है।
शुभ उपयोगो का प्रगति में सहयोग – भैया ! पहिले श्रुतज्ञान का आलम्बन करके अर्थात् वस्तुस्वरूप की विद्या सीखकर आत्मा को जाने। पीछे उस आत्मा के जानने की निरन्तरता से आत्मा का अनुभव करे। जो पुरूष आत्मा का द्रव्यरूप से, गुण रूप से, पर्यायरूप से ज्ञान नही करतें है वे आत्मस्वभाव को नही जान समझतें है। इस कारण ये शुभोपयोग हमारे पूर्वापर अथवा एक साथ चलते रहना चाहिए। इन्द्रिय का दमन करे, पंचेन्द्रिय के विषयो से विरक्त रहे और क्रोधादिक कषायो को शान्त करे, श्रुतज्ञान का, तत्व ज्ञान का अभ्यास बनाए रहे, इन सब पुरूषार्थो के प्रताप से एक परम आनन्द की छटा प्रकट होगी। ज्ञानस्वरूप यह मैं आत्मा अपने आपके द्वारा ज्ञान में आऊँगा। आत्मा की इस तरह की अभेद उपासना से अनुभूति होती है।
आत्मकल्याण के लिये आत्माश्रय की साधना - आत्मा का परिज्ञान आत्मा के ही द्वारा होता है। ऐसा निर्णय करके हे कल्याणार्थी पुरूषों, आत्मज्ञान के लिए अन्य चिन्ताओ को त्याग दो और आत्मज्ञान में ही सत्य सहज परम आनन्द है ऐसा जानकर उस शुद्व उत्कृष्ट आनन्द की प्राप्ति के लिए परपदार्थों की चिन्ता का त्याग कर दो। ज्ञान और आनन्द आत्मा में सहज स्वंय ही प्रकट होता है। जितना हम ज्ञान और आनन्द के विकास के लिए परपदार्थो का आश्रय लेते है और ऐसी दृष्टि बनाते है कि मुझे अमुक पदार्थ से ही ज्ञान हुआ है, अमुक पदार्थ से ही आनन्द मिला है, इस विकल्प में तो ज्ञान और आनन्द का घात हो रहा है। एक प्रबल साहस बनाएं और किसी क्षण समस्त परपदार्थो का विकल्प
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छोड़कर परम विश्राम से अपने आपका सहज प्रतिभास हो तो ऐसे आत्मानुभव मे जो आनन्द प्रकट होता है उस आनन्द में ही यह सामर्थ्य है कि भव भव के बाँधे हुए कर्मजालो को यह दूर कर सकता है । यों आत्मा की उपासना का अभेदरूप उपाय बताया गया है।
अज्ञानोपास्तिरज्ञानं ज्ञानं ज्ञानिसमाश्रयः ।
ददाति यत्तु यस्यास्ति सुप्रसिद्वमिदं वचः । । 23 । ।
ज्ञान और अज्ञान के आश्रय का परिणाम अज्ञानी की उपासना से अज्ञान की प्राप्ति होती है और ज्ञानी की उपासना से ज्ञान की प्राप्ति होती है, क्योकि संसार में यह बात प्रसिद्व है कि जिसके पास जो है वह तो दे सकेगा। अज्ञानी मोही पुरूषो की संगति करके तो आकुलता, विहलता, ममता, मूढ़ता आदि ये सब ऐब प्राप्त होगे और कोई ज्ञानी की संगति करे तो उसमें शुद्ध बुद्धि, शुद्ध आचार विचार और शान्ति प्रकट होगी। परमार्थ से कोई पुरूष किसी दूसरे का आश्रय नही करता है । प्रत्येक प्राणी अपने आपका ही सहारा लिया करता है। जिस प्राणी का चित्त पर की और है तो उसके उपयोग में केवल परपदार्थ विषय है क्योकि पर से सहारा लेने की कल्पना की । परन्तु कोई पदार्थ किसी अन्य पदार्थ का सहारा पा ही नही सकता है। प्रत्येक पदार्थ अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल भावरूप है ।
ज्ञान और अज्ञान के आश्रय का विवरण जो पुरूष ज्ञानियों की संगति करता है उसके उपचार से तो ज्ञानियों की संगति की, पर परमार्थ से उसने अपने ज्ञान की संगति की। अपने ज्ञान का ही सहारा लिया, यह बात है। अपने को ज्ञानस्वरूप में देखे तो ज्ञान मिलेगा और अपने को अज्ञानस्वरूप निरखें तो अज्ञान मिलेगा। मैं मनुष्य हूँ, कुटुम्ब वाला हूँ, धनवाला हूँ, इज्जत वाला हूँ साधु हूँ गृहस्थ हूँ आदि रूप से निरखे तो अज्ञान रूप में देखा क्योकि जितनी बातें अभी कही गयी है उनमे एक भी चीज इस आत्मा का स्वरूप नही है । जो आत्मा का स्वरूप नही है उस रूप अपने आपको देखे तो उससे अज्ञान ही प्रकट होगा। यदि अपने को शुद्ध ज्ञान ज्योतिमात्र निरखे, इसका किसी अन्य से सम्बंध नही है, यह मात्र केवल निज ज्ञानस्वरूप है। सबसे न्यारा स्वतंत्र, परिपूर्ण जैसा स्वयं है तैसा अपने को देखें तो उससे ज्ञान प्रकट होगा ।
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कल्पनाजाल का क्लेश भैया ! जितने भी जीव को समागम मिले है वे समस्त समागम मिटेगें, झक मारकर छोड़ने पड़ेगे, लेकिन पदार्थ पहिले से ही छूटे हुए है। मै सबसे न्यारा हूं, ऐसा ज्ञान का पुरूषार्थ करे और ममता का परिहार कर दे तो उसका भला है । और कोई न कर सके ऐसा तो संसार में वही रूलेगा। जीव पर सकंट केवल मोह का है दूसरा कोई संकट नही है लेकिन ऐसा ही संस्कार बना है कि जिसके कारण जितना जो कुछ मिला है और जितना मिलने की आशा है उसमें कोई बाधा पड़ जाय तो बड़ा क्लेश मानता है। किसी व्यापार में यह ध्यान हो गया कि इसमें तो इतने का टोटा हो गया तो
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यह पछतावा करता है । सोचता है कि इसे कल ही बेच देते तो ठीक था। अब मै इतने घाटे में हो गया हूं। अरे चीज वही की वही घ्ज्ञर में है, घाटा तो कल्पनाका है।
उदारता का अवसर - कल्पना करो कि जितनी जिसके पास जायदाद है उससे चौथाई ही होती तो क्या वे गुजारा न करते? मिल गयी है अब सुकृत के उदयवश तो उसे यो जानो कि यह उपकार के लिए मिली है। भोग विषय मौज के लिए नही है । उस सम्पत्ति का उपयोग अपने विषयो के खातिर न करे। अपना जीवन तो वैसे ही रखे, जैसे कि अन्य गरीब लोग रखते है और दिल में उदारता बरते तो उसे कभी बेचैनी का प्रसंग न आयगा। पहिले लोग ऐसे ही उदार होते थे। महिलाओ में भी किसी घर में यदि कोई बहू विधवा हो जाय तो उस घर की जेठानी, सास, बड़े लोग सभी सावित्क वृत्ति से रहते थे । वे महिलाएँ सोचती थी कि यदि हम लोग श्रृंगार करेंगी तो बहू के दिल में धक्का लगेगा। इतनी उदारता उनमें प्रकृत्या होती थी । और भी इसी प्रकार की गृह सम्बंधी उदारताएँ होती थी ।
उदारता की एक घटित पद्वति पूर्वजो में सामाजिक उदारताएँ भी अपूर्व ढंग की थी। समाज का कोई काम बनाना हो तो अपना अपयश करके भी उस काम को बनाने की घुन रखते थे। एक किसी नगर का जिक्र है कि पंचायत के प्रमुख ने एक नियम बना दिया कि मंदिर में कोई रेशम की साड़ी पहनकर न आये। तो यह बात चले कैसे? जो रिवाज चला आ रहा था वह मिटे कैसे? उसमें कोई क्रांति वाली घटना जब तक सामने न आये तो असर नही पड़ता, सो उस प्रमुख ने अनी स्त्री से कह दिया कि कल तुम रेशम की साड़ी पहनकर खूब सज-धजकर जाना मंदिर। वह गयी मंदिर, और फिर प्रमुख ने उसे ऐसा ललकारा कि यह कौन डाइन, वेश्या इस मंदिर में रेशम की साड़ी पहनकर आयी ? ऐसे शब्द सुनकर मालिन बोली, हजूर आपके ही घर से है ऐसा न कहिये। तब प्रमुख ने कहा हम कुछ नही जानते, 50 ) रू0 जुर्माना । तब से फिर समाज पर प्रभाव पड़ा। वह रेशम की साडी पहिनकर आने वाली बात बंद हो गयी। तो उदारता की बात पहिले इस प्रकार विचित्र पद्वति की थी ।
पारमार्थिक उदारता अपने को ज्ञानस्वरूप समझना, अकिञ्चन मानना, केवल स्वरूपसत्ता मात्र अपने को निरखना एक भी पैसे का अपने को धनी न समझना, एक अणु भी मेरा नही है ऐसी अपनी बुद्धि बनाना इससे बढ़कर उदारता क्या होगी? सम्यग्ज्ञान में सर्वोत्कृष्ट उदारता भरी हुई है, मगर कहने सुनने मात्र का ही सम्यग्ज्ञान है। सर्व प्रभावों से रहित ज्ञानमात्र मै आत्मा हूँ, अकेला हूं, सबसे न्यारा हूँ, मेरे करने से किसी दूसरे का कुछ होता नही, अत्यन्त स्वतंत्र मै आत्मा हूँ - ऐसा केवल अपने अद्वैत आत्मा का अनुराग हो तो वह पुरूष वास्तव में अमीर है, सुखी है, पवित्र है, विजयी है, और जो बाहरी पदार्थो में आसक्ति लगाए हुए है, कितना ही धन का खर्च है, कितने ही झंझट भी सह रहे है वे दीन
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है। मृत्यु के दिन निकट आ रहे है प्रथम तो किसी की भी मृत्यु का पता नही है, पर आयु अधिक हो जाय तो उसके बाद और क्या होगा? बचपन के बाद जवानी और जवानी के बाद बुढ़ापा और बुढ़ापा के बाद क्या फिर जवानी आयगी? नही। मरण होगा, फिर नया जन्म होगा। तो यह समय प्रवाह से बह रहा है और हम ममता में कुछ अन्तर न डाले, ढील न करे तो सोच लीजिये क्या गति होगी?
धर्म पालन का अन्तरंग आशय से सम्बन्ध – हमारा धर्म पालन ममता के पोषण के लिए ही हो, हम दर्शन करे तो मेरा सब कुछ मौज बना रहे, इसके लिए हो, कुछ भी हम धर्म पालन करे, विधान करे, पूजन करे, यज्ञ करे, समारोह करे, कुटुम्ब परिवार की मौज के लिए करे, कोई रोग न आए, कोई उपद्रव न आये, वही धन नष्ट न हो जाय, टोटा न पड़ जाय, धन बढ़े मुकदमें मे विजय हो, इन सब आशाओ को लेकर जहाँ धर्मपालन ही रहा हो वहाँ क्या वह धर्म है? वह धर्म नही है। जो धर्म के नामपर आत्मा और परमात्मा के निकट भी नही जाते है वे भी तो आज लखपति करोड़पति बने हुए है। यह धन का मिलना वर्तमान में मंदिर जाने, हाथ जोड़ने के अधीन नही है, यह तो पूर्व समय में जो त्यागवृत्ति की, उदारता की, दान किया, पुण्य किया, सेवाएँ की, उनका फल है जो आज पा रहे है। धर्म-पालन परमार्थतः यदि हो जाय तो धर्म से अवश्य ही शान्ति और संतीष मिलेगा।
संगतिविवेक - भैया ! अपने आपको जो अज्ञानरूप से मान रहा है, मै क्रोधी हूं, मानी हूं, अमुक पोजीशन का हूँ, अमुक बिरादरी का हूँ, अमुक सम्प्रदाय का हूँ, ऐसी प्रतिष्ठा वाला हूँ, इस प्रकार इन सब रूपों में अपने आपको जो निहारता है वह अज्ञानी है। जो अज्ञानी की सेवा करेगा उसके अज्ञान ही बढ़ेगा और जो ज्ञानस्वरूप आत्मतत्व की सेवा करेगा उसके ज्ञान बढ़ेगा। लोक में यह बात प्रसिद्ध है कि धनी की सेवा कोई करता है तो धन मिल जायगा, विद्वान की कोई सेवा करता है तो विद्या मिल जायगी। इसी प्रकार कोई अज्ञानी गुरूओ की सेवा करता है तो उसे अज्ञान मिलेगा। अफीम, भांग, चर्स फूंकन वाले साधुओ के चरणो में भी बहुत से भंगेड़ी, गंजेड़ी पड़े रहा करते है, और उनकी सेवा यही है कि चिलम भर लावो, फुक लगावो, भगवान का नाम लेकर अब अफीम चढ़ावो। दूसरो को उनसे मिल क्या जाता है? क्या वहाँ किसी तत्व के दर्शन हो पाते है? अज्ञानियो की संगति में अज्ञान ही मिलेगा और ज्ञानी साधु संतो की सेवा में सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होगी। इस कारण जो पुरूष अपना कल्याण चाहते है उनका यह कर्तव्य है कि जो विवेकी है, ज्ञानी है, जो सांसारिक माया से परे है, ज्ञानध्यान तप में लवलीन है, जिन्हे वस्तुस्वरूप का भला बोध है जिनमें परपदार्थो की परिणति से रागद्वेष उत्पन्न नही होते, जो सबको समान दृष्टि से निरखते है ऐसे विवेकी तप से ज्ञानी आत्माओ की उपासना करे, पूजा सत्कार, विनय करे और उनकी उपासना करके ज्ञान का लाभ ले।
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ज्ञान का तात्विक फल – परमार्थतः तो यह आत्मा ही स्वंय शुद्ध ज्ञानस्वरूप है। इस ज्ञान की उपासना से ज्ञान का ही फल मिला करता है। जो ज्ञान अनश्वर है, सदा रहने वाला हे ऐसे ज्ञान की सेवा से फल ज्ञान का ही मिलता है। लेकिन यह मोह का बड़ा विचित्र संताप है कि मोहीजन इस ज्ञान की उपासना से भी कुछ और चीज ढूँढना चाहते है। ज्ञानपुज परमात्मा की पूजा से ज्ञान का ही प्रकाश मिलेगा किन्तु यह मोही प्राणी ज्ञानपुंज भगवान की पूजा मे भी अन्य कुछ बात ढूँढ़ना चाहता है। यह मोह का संताप है। ज्ञान की उपासना से तो उत्कृष्ट अविनाशी सम्यग्ज्ञान की ही प्राप्ति होती है, इसलिए ज्ञान प्राप्ति के लिए ज्ञानी की उपासना करे। ज्ञानी की उपासना करते हुए में भी जिसके मोह की पुट लगी रहती है वह क्या अपना प्रयोजन सिद्ध कर सकेगा? हाँ विवेकी के जो ज्ञानी पुरूषो का गुणांनुराग है वह गुणों का अनुराग है, मोह का अनुराग नही है। वह तो आदर के योग्य है, परन्तु धन वैभव की उपासना तो केवल मोहवश ही की जाती है वह अज्ञानरूप
ज्ञानी व अज्ञानी के संग से लाभ हानि का कारण – अज्ञानी की उपासना से संसार का संकट दूर न होगा, इसलिए ज्ञानियों की तो संगति करें और अज्ञानियों की संगति से दूर हो। कोई अज्ञानी पुरूष चमत्कार वाला भी हो, लौकिक इज्जत भी बहुत बढ़ गई हो, फिर भी अज्ञान का आश्रय लेना विपदा के लिए ही है। आज कुछ चाहे भले ही रूच रहा हो, लेकिन अज्ञानी का संग ऐसा खोटा सस्कार बना देगा कि वह अज्ञान मार्ग में लग जायगां। ज्ञानी के संग में यद्यपि ज्ञानी की और से कुछ आर्कषण नही रहता क्योकि ज्ञानी निर्वाञछक हे, अंतस्तत्व का ज्ञाता है, भोगो से उदासीन हे, उसे क्या पड़ी है जो दूसरो को वश में करे या दूसरो का आकर्षण हो ऐसा कोई विधि रागपूर्वक करे। ज्ञानी पुरूष के प्रति जिनका आकर्षण है वे पुरूष स्वयं शुद्व है। जो स्वयं अपवित्र होंगे वे पुरूष ज्ञानियो की संगति में कैसे पहचेगे? जो स्वयं पवित्र होगें सो ही ज्ञानी की संगति में पहुंचेगे। अपवित्र पापी व्यसनी पुरूषो को ज्ञानी का समागम दुर्लभ है।
अज्ञानी के धर्मसमागम की अरूचिका भाव – एक बात प्रसिद्ध हे कि भगवान के समवशरण में मिथ्यादृष्टि जीव नही पहुँचते। उसका भाव यही है कि जो गृहीत मिथ्यादृष्टि है, अपने मिथ्यात्व के मद में उद्दण्ड है उनके यह भाव ही नही होता है कि वे प्रभु के समवशरण में पहुचें। और यदि कदाचित् उदण्डता मचाने के ध्येय से समवशरण में जाते है तो वहाँ के द्वारपाल रक्षक देव उन्हे पीटकर निकाल देते है। सर्वप्रथम तो यह बात है कि उनकें यह भाव ही नही होता कि हम र्धमस्थानो में पहुंचे। तपस्वी ऋषि संतो की यह अनुभवपूर्ण वाणी जो ग्रन्थो में निबद्व है उसको सुनने का पापी जीवों का भाव और अनुराग ही नही हो पाता क्योकि वे पाप-वासना में उपयोग दे या धर्म में। जिसके पास जो है वह उसका ही स्वाद लेता है। अज्ञानी जन अज्ञान का ही स्वाद लिया करते है।
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ज्ञान में तृप्ति - ज्ञानी जन ज्ञानामृत के पान से तृप्त रहा करते है क्योकि ज्ञानी पुरूषो को सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति करने का राग लगा है। यह अभिलाषा उनकी जग रही है। मै ज्ञानार्जन करूँ और शुद्व ज्ञान में रत रहूँ। ऐसी इच्छा होती है और साथ ही यह जानते है कि इसकी पूर्ति करके इस इच्छा का भी विनाश करूँ। इस इच्छा को वे उपादेय नही मानते है, पर चरित्र मोह का उदय है ऐसी इच्छा हुआ ही करती है। लेकिन यह इच्छा अच्छे भाव को पोषने वाली है।
कर्तव्यस्मरण - ज्ञानी अपने आत्महितकी साधनामें जागरूक रहता है। जो आत्महित चाहने वाले पुरूष है उनका कर्तव्य है कि ये ज्ञानी, विवेकी, अन्तरात्मा, सम्यग्दृष्टि, संसार शरीर और भोगोसे विरक्त संतोकी उपासना करें, खूब दृष्टि पसारकर निहार लो। जो पुरूष ठलुवोंकी गोष्ठी रहा करते है वे कौनसा लाभ लूट लेते है? रात दिनकी चर्या उनकी जो हो रही है उसपर ही ध्यान देकर देख लो। ये जीवनके क्षण निकल जायेगे। जो निकल गये वे फिर वापिस तो आते नही। निकल गए सो निकल गय। पीछे पछतावा होता है कि मेरी जिन्दगी यो ही निकल गयी। यदि मे ज्ञानार्जन धर्मपालनमें अपना समय लगाता तो मेरा जीवन सफल था। ऐसे पछतावाका मौका ही क्यो दिया जाय? क्यो न अपना पुरूषार्थ अभी भी से धर्मपालन और ज्ञानार्जन में रखा जाए? जो शुद्ध तत्व है उसकी उपासनासे आत्मा को लाभ होता है। जो अशुद्ध अपवित्र आत्मा है, अशुद्ध भाव है, परभाव है उनकी उपासना से आत्माका विनाश होता है, बरबादी होती है।
परमार्थ पुरूषार्थ - भैया सब दृश्य रहना तो कुछ है ही नही। यदि भली प्रकार से पहिलेसे ही अक्ल त्यागकर सर्वसे विविक्त कमलकी भाँति अपने आत्माको निरखें तो इसमें गुणोका विकास होगा और कर्मबन्धन शिथिल हो जायेगे। इसके लिए ज्ञानबल और साहकी आवश्यकता है। यह अपनी ही चर्चा है, अपनी ही बात है, अपने में ही करना है, अपने को ही लाभ है। मानो आज मनुष्य न हुए होते, जिसे हम कीड़ा मकौड़ा निरख रहे है ऐसी ही वृत्ति होती, क्या हुई न थी कभी। आज कीड़ा मकौड़ा ही होते तो कहाँ यह ठाठ, कहाँ ये दो चार मंजिले मकान, कहाँ ये धन वैभव पास में होते जिनमे मोह करके आज बेचैनी मानी जा रही है? इस वैभव से यह आत्मा अब भी अधूरा है, केवल अपने ज्ञान और कल्पनामं बसा हुआ है। है आत्मन् सुन ! तू ऐसे सर्व विशुद्व अपने आत्माके स्वरूपका आश्रय ले तो वहाँ संकट नहीरह सकता है। यो अपने ज्ञानका आश्रय ले। जो अपना स्वभाव है, स्वरूप है ऐसे ज्ञानानंद स्वरूपकी उपासना करे। मै सबसे विविक्त ज्ञानमात्र हूँ, ऐसा विश्वास बनाये तो संसारके समस्त संकट समाप्त हो सकते है।
परीषहाद्यविज्ञानानादास्त्रवस्य निरोधिनी। जायतेऽध्यात्मयोगेन कर्मणामाशु निर्जरा।।
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अध्यात्मयोग में उपसर्गादिकका अवेदन
जब योगी पुरुष अध्यात्मयोगमें लीन हो जात है तो उसपर मनुष्य तिर्यञच आदिक किन्ही जीवोके द्वारा कोई उपसर्ग आये तो उस उपसर्गका भी पता नही रहता है। अध्यात्मयोगमे लीन होने पर ज्ञानियोको न तो कष्टका पता रहता है, न व्याधियोंका, न किन्ही उपसर्गोका पता रहता है । वहाँ तो स्वरूपमें निम्न अध्यात्मयोगी के समस्त कर्मोका आस्रव निरोध करनेवाली निर्जरा शीघ्र हो जाती है ।
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क्लेशानुभवका कारण किसीको क्लेश तब तक अनुभव में आता है जब तक उसका चित्त क्लेशरहित निष्कषाय आत्मस्वरूपमें लीन नही होता है। जिसका चित्त बाहा स्त्री पुरूषां व्यामोहमें है उसे अनेक कष्ट लगेंगे। यह मोही जीव जिनके कारण क्लेश भोगता जाता उनमें ही अपना मोह बनाये रहता है। जिसने आत्माके स्वरूप से चिगकर बाह्रा पदार्थो में अपने चित्त को फंसाया कि उसे अनेक कष्टोका अनुभव होगा ही ।
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धर्मसाधन का उद्यम - धर्मकी यह साधना बहुत बड़ी साधना है। सामायिक करते समय या अन्य किसी समय अपने उपयोगको ऐसा शान्त विश्रांत बनाये कि तत्वज्ञानके बल से समस्त बाह्रा पदार्थो आत्मा से भिन्न जानकर और निज ज्ञानानन्दस्वरूप को निरखकर समस्त बाह्रा पदार्थो को उपयोग में न आने दे ऐसी हिम्मत तो अवश्य बनायें कभी । अनेक काम रोज किए जा रहे है। यदि 5 मिनट को अपना चित्त अपनी अपूर्व दुनियामें ले जावें तो कौनसा घाटा पड़ता है? न आपका यह घर गिरा जाता है, न किसी का वियोग हुआ जाता है। सबका सब वहींका वहीं पड़ा है। दो चार मिनटको यदि निर्मोहताका यत्न किया जाय तो कुछ हानि होती है क्या? किसी भी क्षण अपने आपमे बसे हुए परमात्मस्वरूपका अनुभव हो जाए और सत्य आनन्द प्राप्त हो जाय तो यह जीव अनन्तकाल तकके लिए संकटोसे छुटकारा पाने का उपाय कर लेगा।
मोही की आसक्ति भैया! कितने ही भवों में परिवार मिला, पर उस परिवार से कुछ पूरा पड़ा है क्या? कितने भव पाये जिनमे लखपति, करोडपति, राजा महाराजा नही हुए, पर उन वैभवोसे भी कुछ पूरा पड़ा है क्या ? किन्तु आसक्ति इतनी लगाए है कि जिससे इस दुर्लभ नरजीवनका भी कुछ सदुपयोग नही किया जा सकता। भूख प्यासकी वेदनासे अथवा किसीके द्वारा कभी उपसर्ग, परीषह, कष्ट आये तो उससे यह मोही प्राणी अधीर हो बैठता है। कभी कभी तो उन वेदनाओकी स्मृति भी इसे बेचैने कर डालती है। ये सब संकट तब तक है जब तक अपने स्वरूपके भीतर बाहरमें जो उपयोग लगाया है इस उपयोग को निराकुल निर्द्वन्द ज्ञानानन्दस्वरूपमें न लग सके। अपनेको अकेले असहाय स्वतंत्र मानकर शुद्ध परिणमन बनाओ तो सारे संकट समाप्त होते है ।
ज्ञानविशुद्विमें संकटका अभाव संकट है कहाँ ? किस जगह लगा है संकट ? किसी को मान लिया कि यह मेरा है और अन्य जीवोके प्रति यह बुद्धि करली है कि ये कोई मरे
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नही है बस इस कुबुद्विवश उनकी परिणतियोको देखकर संकट मान लिया जाता है। कौन जीव हमारा है? हमारा तो हम तब जाने जब हमारे अपरिचित पुरूष भी देखकर बता दे कि हाँ यह इनका है। यह तो मोही लोगोकी व्यवस्था है । किसका कौन है ? अज्ञानसे बढ़कर कोई विपदा नही है। चाहे करना कुछ पड़े किन्तु ज्ञान तो सही करना चाहिए । ज्ञान बिगड़ गया तो फिर कोई सहाय नही हो सकता ।
उन्मत्तदशा
जो लोग पागल दिमागके हो जाते है, सड़को पर घूमते हे, बड़े घरके भी बेटे क्यों न हो, बड़े घनी के भी लड़के क्यो न हो, जब वे पागल हो जाते है, बेकाबू हो जाते है तो घरके लोग क्या उसे संभाल सकते है, फिर उनकी कौन परवाह करता है, उनको आराम देनेकी कोई फिर सोचता है क्या? वे तो आफतमें दिखते है। कही बुद्धि खराब हो गयी, पागलपन आ गया है तो फिर कोई उसके संभालने वाला नही है । हम आप इन मोहियोका दिमाग क्या कुछ कम बिगड़ा हुआ है? क्या कुछ कम पागलपन छाया है? समस्त अनन्त जीवोमें से छाँटकर किन्ही दो चार जीवोको जो आज कल्पित अपने घरमे है उन्हे मान लिया कि ये मेरे है और बाकी संसारके सभी जीवोको मान लिया कि ये गैर है क्या यह कम पागलपन है? ये सब अनाप - सनाप अंट्ट-सट्ट बेकायदे के सम्बन्ध मान लिए जाते है। कोई जीवके नातेसे कुछ कायदा भी इसमें किया जा रहा है क्या? अमुकका अमुक जीव कुछ लगता है ऐसी मान्यतासे कुछ फायदा भी है क्या? कोई किसी से नाता नही, कोई सम्बन्ध नही ।
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स्वार्थमय लोकसम्बन्ध लौकिक दृष्टिसे भी देखो तो कोई पुरूष बूढ़ा हो जाय किसी काममें नही आ सकता है, ऐसी स्थिति हो जाय तो उसकी कौन परवाह करता है? यदि उसके पास कुछ भी धन नही है तो कोई भी परवाह नही करता है और उसके नाममें या उसके पास कुछ धन है तो लोग मरनेकी माला फेरते है, जल्दी कब मरे । ये सब भीतरी बाते है। अनुभवसे विचारो कौन किसका सहारा है, जब तक कषायो से कषाय मिली जुली हुई है और एक दूसरे के स्वार्थमें कुछ साधक रहता है, किसी के कुछ काम के लायक रहता है तब तक ही यह लोकिक सम्बन्ध रहता है अन्यथा नही ।
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गुरू-शिष्यका उपादेय सम्बन्ध - भैया! यहाँ उपादेय सम्बंध माना जा सकता है तो गुरु और शिष्यका सम्बंध यह सम्बन्ध कुछ ढंगका भी है, विधिविधानका भी है। पर गुरु शिष्यके सम्बन्धके अलावा अन्य जितने सम्बघ है वे सब नाजुक और छलपूर्ण सम्बंध है, चाहे साला बहनोई हो, चाहे मामा भांजा हो, चाहे पिता-पुत्र हो, चाहे भाई-भाई हो, कोई भी सम्बधं हो वे सब सम्बंध अशुद्व और कलुषित भावना सहित मिलेंगे, केवल एक गुरू शिष्य का ही सम्बधें जगतके सम्बंधमें पवित्र सम्बधं हो सकता है। कोई पुरूष आजकलके मास्टर और स्टूडेन्टका परस्पर बर्तावा देखकर प्रश्न कर सकता है कि गुरू शिष्यका कहाँ रहा पवित्र सम्बंध? शिष्य यदि परीक्षामें नकल कर रहा है और मास्टर उसको टोंक दे या
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उसकी नकलमें बाधा डाले तो स्कूलसे बाहर निकलनेके बाद फिर मास्टरकी ठुकाई पिटाई भली प्रकार कर दी जाती है। क्या पवित्र सम्बन्ध रहा? उसका समाधान यह है कि वहाँ न कोई गुरू है न कोई शिष्य है गुरू बन सकना और शिष्य बन सकना बहुत कठिन काम है। न हर एक कोई क गुरू हो सकता है और न हर एक कोई शिष्य हो सकता है। गुरू शिष्यका इतना पवित्र सम्बन्ध है कि जिसके आधारसे संसारके ये समस्त संकट सदाके लिए टल सकते है, सम्यक्त्वकी भावना, सम्यक्त्वका प्रकाश उदित हो सकता है। बाकी और समस्त सम्बंध केवल स्वार्थके भरे हए सम्बन्ध है।
बहिर्मुखी दृष्टि में विपदा- इन बाहा पदार्थो में, इन परिजन और मित्रजनोमे जब चित्त रहता है तो यह जीव कष्टका अनुभव करनेवाला बन जाता है। खूब बढ़िया भी खाने को मिले तो भी यह अनुभवमें चलता है कि अब फिर भूख लगी। लोलुप गृहस्थ जन तीन बार खाये फिर भी बार-बार क्षुधाकी वेदना अनुभूत होती है। ऐसे ही चाहे सर्व प्रकारके समागम उचित रहे, पैसा भी खूब आ रहा है, इज्जत भी चल रही है तब भी कुछ न कुछ विकल्प बनाकर अपना कष्ट अपनी विपदा समझने लगते है, यह सब बहिर्मुखी दृष्टि होने के कारण विपदा आती है। एक चैतन्य चिन्तामणिको प्राप्त कर ले उपयोग द्वारा फिर कोई संकट नही रह सकताहै।
अन्तर्मुखी दृष्टि करो विपदा टालो- देखो। गंगा यमुना नदियों में जलचर जीव अनेक होते ही है। कोई कछुवा पानीके ऊपर सिर उठाकर तैरता हुआ जाय तो उसकी चोंचको पकड़नेके लिए दसों पक्षी झपटते है, चारों औरसे परेशान करते है। जब तक वह कछुवा अपनी चोंच बाहरमें निकाले है तब तक उसकी कुशल नही है। अनेक सताने वाले है और जब वह अपनी चोंचको पानी में ड्वो लेता है, भीतर ही भीतर तैरता रहता है, मौज
ह उसे फिर कोई संकट नही रहता है। ऐसे ही यह आत्मस्वरूप अपना निज घर है। इससे बाहर अपना उपयोग निकला कि सर्व कल्पना जालोके संकट इसपर छा जाते है। उन समस्त संकटोके दूर करनेका उपाय मात्र इतना है कि अपने उपयोग को अपने आत्मस्वरूप्में लगा ले।
बाहा परिस्थिति कैसी भी हो, परवाह न करो- बाहा परिस्थितियोमे जिसका उपयोग लगा है वह हर स्थिति मे कष्ट अनुभव किया करता है। किन्तु है वे सब स्थितियाँ कष्ट न अनुभव करनेके योग्य। घरमं कुटुम्ब ज्यादा बढ़ गया तो कष्ट अनुभव किया जात है। अरे बढ़ गया है तो बढ़ जाने दो, सबके अपना-अपना भाग्य है, वे लड़ते है तो लड़ जाने दो, गिरते है तो गिर जाने दो, सीधे चलते है तो सीधे चलने दो, तुम योग्य शिक्षा दो तुम्हारी शिक्षा के अनुकूल वे चलते है तो उनका भला है, नही चलते है तो तुम ममता करके अपने जीवनका धार्मिक श्रृंगार क्यों खोते हो?
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परिस्थितियो में हितविधिका अन्वेषण - भैया ! अन्तरमें या बाहरमें परमार्थतः इस जीवको कहाँ कष्ट है, परन्तु दृष्टि बाहर में फंसायी तो वहाँ कष्ट ही है। परिजन अधिक न हो, अकेले हो तो यह जीव अपनेमे कष्ट मानता हे कि मै अकेला हूं, दुनियाके लोग किस तरह रहते है? अरे अकेले रह गये तो यह बड़े सौभाग्यकी बात है, अकेले रह जाना हर एक को नसीब नही है यह संसार कीचड़ है। यह समागम एक बेढब वन है अपना यथार्थ अनुभूत हो जाए और स्वतः अकेलापन आ जाय तो यह बड़े अच्छे होनहारकी बात है धर्मपालन होता है तो अकेले होता है, अनुभव से होता है। मोक्षमार्ग मिले तो अकेलेहोता है, मोक्ष प्राप्त होता है तो अकेलेसे होता है कौनसी बुराई आयी अकेले रह जाने में? यह भी स्थिति अच्छेके लिए आती है, पर उसका सदुपयोग करे, लाभ उठाये तब ना। धन बहुत हो गया है तो बड़ी किल्लत हो गयी। इतनी हो गयी है कि सम्भाले भी नही सम्भलती है अनेक द्वारोसे यह धन बरबाद होने लग रहा है, सम्भालते ही नही बनता है। बड़ा दुःखी होता है जब सुनते हे कि वहाँ इतनेका टोटा हो गया, इतना खर्च हो गया तो बड़े चिन्तित होते है। अरे चिन्ताकी क्या बात है? बिगड़ गया तो बिगड़ने दो, घट गया तो घटने दो। कहां घट गया? जो पदार्थ है वह तो नही गुम गया, मिट क्या गया? जहां होगा वही चैनसे । तुम्हारा क्या बिगड़ गया? ममता छोड़ो, सारे संकट मिट गए।
ममताका अनौचित्य - भैया ! जितने भी संकट है वे सब ममताके कारण होते है। काहेके लिए ममता करते हो? अपनेको लाभ तो कुछ है नही। अपने लाभके संदर्भमें तो ममताकी जरूरत ही नही है। जो लोग यहां के समागममें ममत्व रखते है वे इसलिए रखते है कि दुनियाके मनुष्य हमको कुछ अच्छा समझे, अच्छा कह दे।अच्छा तुम्ही निर्णय दो कि ये सब दुनियाके लोग जिनमें तुम अच्छा कहलवाना चाहते हो ये सब ज्ञानी है या अज्ञानी? मिथ्यादृष्टि या सम्यग्दृष्टि? खुद कर्मोके चक्करमें फंसे हुए है या देवता है सो निर्णय कर लो। मूढ़ है, पर्यायबुद्वि है। अज्ञानी है, पापकलंकसे भरे हुए है। इन मूढोने राजा है। जैसे कोई लोग कहने लगते हे कि हम बदमाशोके बादशाह है, तो इसका अर्थ क्या हुआ? सबसे ऊँचे दर्जेका बदमाश। इस तरह हम इस अज्ञानी जगत में कुछ अपनेको अच्छा कहलवाना चाहते है और इन अज्ञानी लोगोने कुछ अच्छा कह दिया और उसमें ही हम खुश हो गए तो अर्थ यह हुआ कि हम मूढो के सिरताज बनना चाहते है। सब अपने आपमें सोच लो। सभी तो मोही जगत है। इससे बुरा रंच भी न मानियोगा, क्योकि यह सब तो विरक्त होनेकी भावना से कहा जा रहा है।
योगीका उन्नयन - क्षुधा, तृषा, रोग, वियोग आदिका कष्ट तब बहुत अधिक मालूम होने लगता है जब यह उपयोग आत्मस्वरूपसे चिगकर बाहृा पदार्थो लग जाता है। जब यह जीव बाहृापददर्थो की वासना तज देता है, बाहृापदार्थो के रागसे विरक्त हो जाता है तो भूख प्यास, परीषह रोग आदि वेदनाका अनुभव नही होता। वह तो अब स्वरूपमें मग्न है,
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आनन्दका अपूर्व मधुर रसपान कर रहा है, विकार भावो से अत्यन्त दूर रह रहा है। ऐसे आत्माके आचरणमें रहनेवाले अध्यात्मयोके अनन्तगुणी निर्जरा और कर्मोका क्षय चलता रहता है, क्योकि उसकी चित्तवृत्तिका भली प्रकार निरोध हो गया है। अब यह अपने आत्मस्वरूपकी और झुका हुआ है। जिसको अपने अंतस्तत्वकी दृष्टि है उस योगी के पुण्य और पाप निष्फल होते हुए स्वयं गल जाते है। उस योगी का निर्वाण होता है फिर कभी भी ये कर्म पनप नही पाते है। जो योगी तद्भवमोक्षगामी नही है, जिसके संहनन उत्कृष्ठ नही है, किन्तु ध्यानका अभ्यास बनाए है, आत्मतत्वके चिन्तनमें अपना उपयोग लगाये है उसके कर्मोका सम्वर और कर्मोकी निर्जरा होती है।
ज्ञान प्रताप - आत्मा और अनात्माका जब भेदविज्ञान प्रकट होता है तो उस भेदविज्ञानमें जो अपूर्व आनन्द बरसता है उस आनन्द मग्न योगी पुरूष बड़े कठिन घोर तपश्चरणको भी करते हुए रंच भी खेद नही मानते है क्योकि उनका उपयोग तो सहजानन्द स्वरूप अंतस्तत्वमें लगा हुआ है। वहाँ वह ध्यान ध्याता ध्येय तीनों एक रूप परिणत हो रहे है। वह आत्मस्थ है। उत्तम संहननका धारी हो तो एसे ही ध्यान के प्रतापसे चार घातिया कर्मोको दूर कर सकलपरमात्मा हो जाता है। उसमें अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द और अनन्त शक्ति प्रकट हो जाती है, फिर अंतमें तपश्चरण करके सिद्ध प्रभु हो जाता है। यह सब एक ज्ञानका प्रताप है। जिन्हे समस्त संकट दूर करना है उनका कर्तव्य है कि वे तत्वज्ञानका अभ्यास बनाएँ।
कटस्य कर्ताहमिति सम्बन्धः स्याद्वयोर्द्वयोः । ध्यानं ध्येयं यदात्मैव सम्बन्धः कीदृशस्तदा ।।24।।
अद्वैतमें सम्बन्धकी असंभावना – अध्यात्मयोग में जब वही आत्मा तो ध्यान, करने वाला है वही आत्मा ध्येयभूत है तो ऐसी स्थिति यह कैसे बताया जा सकता है कि वह योगी किसका ध्यान करता है। लोक में निमित्तनैमित्तिक प्रसंगमें कोई दो चीजें सामने है तब उनका सम्बन्ध बोल दिया जाता है। जैसे घड़ा बनाने वाला कुम्हार ऐसा संकल्प कर सकता है कि मै घड़ेका कर्ता हूं, चटाई बनानेवाला कारीगर भी ऐसा विकल्प किया करता है कि मैं चटाईका कर्ता हूं, दो चीजें भिन्न-भिन्न है इसलिए इन दोनोका परस्पर में सम्बन्ध बताया जाता है, संयोगकी बात कही जाती है और जब वह संयोग न हो तो वे अलग-अलग ही यथापूर्व बने रहते है परन्तु जहाँ ध्यान भी आत्मा, ध्येय भी आत्मा आत्मासे भिन्न जहाँ ध्यान आदि कोई तत्व नही है तब उनका संयोग आदिक सम्बन्ध कैसे कहा जा सकता है?
स्वतन्त्र पदार्थमें सम्बन्धका अभाव - आत्मा एक स्वतंत्र पदार्थ है और वह प्रति समयमें कुछ न कुछ रूप परिणमता ही रहता है। कुछ भी यह न परिणमें तो आत्माका
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अस्तित्व भी नही रह सकता है। जगतमें कौनसा पदार्थ ऐसा है कि सत्ता तो उसकी हो और कुछ परिणमन उसमें हुआ ही न करे ऐसा लोकमें कोई भी पदार्थ हो ही नही सकता। जो होगा वह नियमसे किसी न किसी रूप अपनी परिणति रखा करेगा। तो यह आत्मा भी प्रतिसमय परिणमता रहता है कभी ये बाह्रा विकल्पोका आश्रय तोड़कर अपने आपके ध्यानरूप परिणमा करतें है । जब यह जीव समस्त बाह्रा विकल्पोंको तोड़कर अपने आपके ध्यानरूपसे परिणमता है तो वहाँ यह तो बताओ कि वह आत्मा किसका क्या कर रहा है? वहाँ कोई दो बातें ही नही है ।
ज्ञानके विषयभूत परपदार्थमें भी ज्ञप्ति क्रिया का अप्रवेश - प्रथम तो जब बाहापदार्थों का भी चिन्तन ध्यान करना हो, उस कालमें भी यह बाह्रा पदार्थो का कर्ता नही है । वहाँ भी वह अपने ही किसी प्रकारके ध्यानरूप परिणम रहा है। खैर, बाह्रापदार्थोके विकल्पमें तो आश्रमभूत परपदार्थ भी है किन्तु जहाँ शुद्ध आत्मतत्वका ध्यान चल रहा हो वहाँ दो तत्व कौनसे कहे जाये जिसमें यह बनाया जाए कि यह अमुक का ध्यान करता है, यह अमुक का। अपनेकी ध्यानरूपसे परिणाम रहा है वह ज्ञानप्रकाश, शुद्ध ज्ञानप्रकाशरूप चल रहा है यह इस ही पदार्थ को भेदोपचार करके यों कह दिया जाता है कि आत्मा अपने स्वरूपका ध्यान करता है।
परमार्थमें परस्पर संबधंका अभाव ध्यान शब्दमें यह लोक अर्थ पड़ा हुआ है कि जिसका ध्यान आ जाय, जिसके द्वारा ध्यान किया जाय जो ध्यान करता है तो इस अर्थ में जिसका ध्यान किया गया वह पदार्थ और जो ध्यान करता है वह पदार्थ कोई भिन्न-भिन्न हो तो बता भी दे कि आत्माने अमुकका ध्यान किया है, पर जिस समय आत्मा के ध्यान अवस्थामें यह परमात्मस्वरूप स्वयं आत्मा जब ध्यानके साथ एकमेंक हो जाता है, स्वंय ही स्वयं के ज्ञानरूपसे प्रकाशित हो जाता है तब वहाँ किसी परद्रव्यका संयोग ही नही है फिर सम्बंध क्या बताया जाय? सम्बन्ध तो बनावटी तत्व है। वास्तवमें तो कही भी कुछ संम्बध नही है, प्रत्येक स्वतंत्र है, वह अपने आपमें अपना परिणमन करता है। वे सब अपने आपकी शक्ति का ही परिणमन करते है कोई पदार्थ किसी दूसरे का न परिणमन करता है, न उपभोग करता है और न कुछ संबधं भी है फिर किसको किसका बताया जाय ?
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मूढ़ता व अशान्ति व ढीठता का अभाव - भैया ! यह जीव ज्ञानवाला है, इससे कह रहा है कि मकान मेरा है, यह अमुक मेरा है। इस प्रकार मेरा-मेरा मचाता है। यदि मकानमें भी जान होती तो यह भी यों कह देता कि यह पुरूष मेरा है। अरे न मकानका यह आत्मा है, न आत्माका यह मकान है। मकान ईट भीतोका है। यह पुरूष मेरा है । अरे न मकानका यह आत्मा है, न आत्माक यह मकान है, मकान ईट भींतोका है। यह पुरूष अपने स्वरूप में है, दृष्टि देकर जरा निरख लो अपना शरण, बाह्रादृष्टि में कुछ पार न जायगा। बाहर सार क्या है? जब समागम है तब भी समागमसे शान्ति नही है और जब समागमका वियोग होगा
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तब तो यह मोही शान्ति ही क्या कर सकेगा? बाह्रा पदार्थ है तो दो ही तो बाते है, या बाहा पदार्थोका संयोग होगा या वियोग होगा। यह मोही जीव न संयोगमें शान्ति कर सकता है और न वियोग में शान्ति कर सकता है। शांति तत्वज्ञान बिना त्रिकाल हो ही नही सकती है। यह सब कर्मशत्रुका आक्रमण है बाह्रा पदार्था की और दृष्टि लगाना यही मूढ़ता है, कलुषता है इस जीवकी । संसारभ्रमणका यही एक कारण है ।
सम्बन्धकारकके अभावसे सम्बन्धकी अवास्तविकताकी सिद्वि समस्त पदार्थ अपने आपके स्वरूप में अद्वैत है वे वे ही के वे है, उनमें किसी दूसरे पदार्थका सम्बंध नही है । देखिए ! संस्कृतके जो जानने वाले है वे समझते है । - संस्कृतमे कारक 6 कहे जाते हैउन 6 कारको में कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण ये 6 आये है । इन कारकोमें सम्बन्धका नाम तक भी नही लिया गया है। उसका अर्थ यही है कि सम्बन्ध कोई तात्विक चीज नही है । सम्बंध भी यदि परमार्थ होता, कारक होता तो इसे भी इन कारको में गिनवाया जाता। लोक प्रयोगमें भी देखलो - सांपने यदि अपने शरीरको कुण्डली रूप बना लिया तो इतना तो कहा जा सकता है कि साँपने अपनेको अपने द्वारा अपने लिए अपनेसे अपनेमें गोल बना लिया है, पर किसका गोल बना लिया है इसका उत्तर औधा हुआ उत्तर होगा । अरे जब वही एक सापं है । और वह अपने परिणमन रहा है तो दूसरे का किसका नाम लोगे? सांपने किसका गोल बना दिया है? कोई सम्बंध नही हो सकता है। जबरदस्ती की बात दूसरी है कि कुछ भी कह डाला जाय । तो कारक 6 हुआ करते है। सम्बंध नाम का कारक ही नहीं है। फिर जगतके पदार्थो में सम्बन्धकी खोज करके अपनी व्यग्रता क्यो लादी जा रही है?
पदार्थो की गणना - जगतमें अनन्तानन्त जीव है जिनकी हद नही है। कबसे जीव मोक्ष चले जा रहे है, कोई दिन मुकर्रर करके कोई नही बता सकता है। अगर कोई दिन मुकर्रर कर दे तो यह प्रश्न होगा कि क्या उस दिनसे पहिले कोई मोक्ष न गया था? अगर कह दे कि हाँ इस दिन से पहिले कोई मोक्ष नही गया तो जब तक कोई मोक्ष न जा सका ऐसा संसार कितने दिनो तक रहा? उसका उत्तर दो। उसकी भी सीमा बनानी होगी। तो उससे पहिले संसार ही न था अभाव हो गया, फिर जब कुछ न था तो कुछ बन भी नही सकता है। अनन्त जीव समझ लीजिए मोक्ष चले गए और फिर भी अनन्तानन्त राशि बची हुई है, इसमें अनन्त मोक्ष चले जायेंगे, फिश्र भी जीव अनन्त ही बचे रहेंगे। कितनी अनन्तानन्त जीव राशि है । जीवराशि से अनन्तानन्तगुणे पुद्गल है। एक चौकी में कितने परमाणु है बताओ? हजार, लाख करोड़, असंख्यात, अनगिनते, कुछ भी तो बताओ। अरे असंख्यात, अनगिनते से भी ज्यादा । अनन्तानन्त । अनगिनतें और अनन्तानन्तमें फर्क है । अनगिनतेंका अर्थ यह कि गिनती न की जा सके परन्तु उनका अंत होगा, किन्तु अनन्तानंत
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का अर्थ है कि उनका कभ अन्त न हो सके। तो अनन्तानंत जीव हअनन्तानन्त पुद्गल है, धर्मद्रव्य एक है , अधर्मद्रव्य भी एक है, आकाश भी एक है और कालद्रव्य अंसख्यात है।
शांति में वस्तुस्वातंत्रय के परिज्ञान का अनिवार्य सहयोग - ये समस्त द्रव्य पूर्ण स्वतंत्र है अर्थात् अपने ही स्वरूपको लिए हुए है। समस्त पदार्थ अपने-अपने स्वरूपमें ही परिणमते है, कोई किसी अन्यमें त्रिकाल भी नही परिणम सकता। अब समझ लीजिए कि कोई प्रतिकूल चल रहा है तो वह प्रतिकूल नही चल रहा है। यह तो अपनी कषायके अनुसार अपनी कषायकी वेदनाको मिटानेके लिए प्रयत्न कर रहा है। यहाँ यह मोही जीव अपने कल्पित स्वार्थमय अवसरमें विघ्न जानकर खेदखिन्न होता है, मै कितना दुःखी हूं? मेरे अनुकूल ये लोग नही परिणमते बल्कि प्रतिकूल परिणम रहे है। अरे जो जैसा परिणमता है परिणमने दो, तुम तो भेदविज्ञान करो। सुख, साता व शान्ति भेदविज्ञानके बिना कभी न मिलेगी। कुछ दिनोंका संयोग है। घर अच्छा है, समागम अच्छा है, आर्थिक समस्या भी अच्छी है, तो क्या करोगे इन सबका? कब तक पूरा पड़ेगा इन बाहा पदार्थो से? भेदविज्ञान करो। मै आत्मा जगतके समस्त पदार्थो से न्यारा हूं, ऐसा उपयोग बनाकर अपनेको न्यारा समझ लो तो शान्ति मिलेगी अन्यथा परकी और आकर्षण हाने से कभी शान्ति न मिल सकेगी।
सांसरिक सुखो के अनुपात से दुःखो के उद्गम की अधिकता - भैया ! ये संसार के सुख जितने ज्यादा मिलेगें उतना ही ज्यादा दुःखके करण है, खूब सोच लो। किसी को स्त्रीका समागम है, वह स्त्री आज्ञाकारिणी हो, रूपवान हो और भी अनेक कलाएँ हो, उसके मन को रमाने वाली हो तो जब उसका वियोग होगा तो कितना क्लेश होगा? जितना राग किया है उसके अनुपात से हिसाब लगा लो, ज्यादा क्लेश होगा, और किसीको अपनी स्त्रीसे अनुराग नही है अथवा किसी कारणसे स्त्री कलाहीन है, लड़ने वाली है, आज्ञा नही मानती है तो उससे तो पहिले से ही दिल हटा हुआ है उसका वियोग होनेपर उसको क्लेश उसके रागके अनुपात से होगा। जो पुरूष बाहा पदार्थोको जितना अधिक प्यारा मानता हो वह उतना ही अधिक दुःख पायगा। जो विवेकी पुरूष है, जिन्हे सम्यग्ज्ञानका उदय हुआ है वे पाये हुए समागममें हर्ष मानते है, उसके ज्ञाताद्रष्टा रहतें है।
ज्ञानीकी दृष्टिमें सम्पदा व विपदाकी समानता - ज्ञानी पुरूष जानता है कि यह भी कर्मोका एक उदय है। नाम दो है- सम्पदा और विपदा, पर कष्टके कारण दोनो ही है। जैसे नाम दो हो नागनाथ और सांपनाथ मगर विषके करने वाले दोनो ही है। सांपनाथको नागनाथ कह देनेसे कही वह सांप निर्विष न हो जायगा, उसके संकट तो झेलना ही पड़ेगा, ऐसे ही ये लोककी सम्पदा और विपदा है, इनमें मोही जीव सम्पदाको भला मानता है, यह बहुत भला है, इससे बड़ा सुख है, पर ज्ञानी जानता है कि सम्पदा और विपदा दोनो ही दुःख के कारण है। पुण्य और पाप दोनो ही ज्ञानी के लिए मात्र ज्ञेय रहते है, वह
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पुण्य के फल में हर्ष नही मानता है और पाप के फल में विषाद नही करता है। समताबुद्धि रखता है। ज्ञानी की धुन तो अलौकिक अध्यात्मरस के पान की और लगी हुई है। जिसने अद्वैत निज आत्मतत्व का अनुभव किया है उसे संकट कैसे सता सकेगे?
सर्व स्थितियो में परमार्थतः पदार्थ की स्वतंत्रता - ये समस्त पदार्थ स्वतंत्र है, अपने स्वरूप से है पर के स्वरूप से नही है। अशुद्ध अवस्था में पर का निमित्त पाकर अशुद्ध परिणत हो जाते है तिसपर भी यह जीव अशुद्ध होता है अपनी ही शक्ति के परिणमन से, दूसरे पदार्थ ने उसे अशुद्ध नही कर दिया। प्रत्येक पदार्थ अद्वैत है, अपने ही परिणमनरूप परिणमता है। हम दुःखी होते है तो अपने आप में कल्पनाएँ रचाते है और उन कल्पनाओ से दुःखी हुआ करते है और हम सुखी होते है तो अपनी कल्पनाएँ बनाकर ही सुखी होते है। कोई पदार्थ किसी अन्य पदार्थ को सुखी दुःखी करने में समर्थ नही है। जो घर मोह अरवस्था में प्रिय लगता था वही घर आज वैराग्य जगने पर प्रिय नही लगता है। ये सारी सृष्टियाँ, सुख, दुःख, संकल्प, विकल्प भोग, उपभोग आदि समस्त सृष्टिया इस आत्मा से ही उठकर चला करती है।
आत्मा के एकत्व चिन्तन में शान्ति समृद्धि का अभ्युदय - इस आत्मा के ध्यान मे आत्मा अद्वैतरूप रहती है, अब किसका ध्यान करे, जब यह जीव संसार अवस्था में है, कर्म आदिक का संयोग चल रहा है तब भी यह जीव वस्तुवः अपना परिणमन कर रहा है। इस अशुद्ध निश्चय की दृष्टि से भी अपने आपके एकत्व को सम्हाले तो इस अशुद्ध निश्चयनय से आगे चल कर केवल निश्चयनय में आ सकते है। अपने आपको जितना भी अकेला चिन्तन किया जाये सबसे न्यारा केवल ज्ञानानन्दस्वरूप मात्र हूँ- इस प्रकार का अपना अकेलपापन चिन्तन किया जाए, तो उस जीव में शान्ति का उदय होगा। किसी दूसरे पर दृष्टि रखकर शान्ति कभी आ ही नही सकती है।
मोक्षमार्ग में सम्यक्त्व का आद्य स्थान - मोक्ष मार्ग में सम्यक्त्व का प्रथम स्थान है। जो जैसा पदार्थ है उस पदार्थ को वैसा समझ लेना यही सम्यक्त्व है। सम्यक्त्व के बिना इस जीव ने इतने मुनिपद धारण किए होंगे कि एक-एक मुनि अवस्था का एक-एक कमंडल जोड़ा जाय तो अनेक मेरू पर्वत बराबर ढेर लग जायगा। भेष रखने में अथवा अपनी कपोल कल्पित मान्यता के द्वारा क्रियाये करने में कौन सा बड़प्पन है? केवल एक संयोग में रूप बदल गया है। अज्ञानदशा में गृहस्थ रहता हुआ गृहस्थ के योग्य विकल्प मचाने का काम करता था, अब अज्ञान दशा में मुनि का रूप रखकर अब मुनि की चर्या जैसा विकल्प का काम करता है, पर अज्ञानदशा तो बदल नही सकती देह के कुछ भी कार्य बनाने से। यह अज्ञानदशा भी ज्ञान का उदय होने से ही दूर की जा सकती है। ज्ञान बिना सम्यक्त्व नही, ज्ञान बिना ध्यान, तप, व्रत, संयम नही, ज्ञान बिना आत्मा के उद्वार का कभी उपाय नही बन सकता। इस कारण अपने आप पर यदि दया आती है, तरस आती है,
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अनन्तकाल से भटकते हुए इस आत्मप्रभु की और यदि कुछ करूणा जगती है तो सर्वप्रथम तत्वज्ञान का अभ्यास बनावे। धन वैभव पुद्गल ढेर का संचय - इसमें आस्था बुद्वि न रक्खें, ये शान्ति के कारण न कभी हुए है और न हो सकते है।
प्रत्येक पदार्थ के अद्वैतता के निर्णय में मुक्ति का आरम्भ - भैया ! जब यह जीव ही बाहा विकल्पो को तोड़कर अपने आपके सहजस्वरूप में मग्न होगा तब उसे शान्ति प्राप्त होगी। यों अद्वैत स्वरूप के ध्यान के लिए यह निर्णय दिया है कि जब तुम कुछ देते ही नही, तुम किसी दूसरे में कुछ कर सकते ही नही तो तुम्हारा परपदार्थो से क्या सम्बंध है? तुम्हारे प्रत्येक परिणमन में तुम ही परिणमन वाले हो और तुम्हारा ही वह परणिमन है। फिर सम्बंध क्या किसी अन्य पदार्थ से? जब यह आत्मा ही ध्यान है, आत्मा ही ध्याता है तो फिर इसका किसी भी पदार्थ से रंच सम्बंध नही है। एक निज ज्ञानानन्दस्वरूप ही जो ध्यान करता है वह शीघ्र ही निकट काल में मोक्षपद प्राप्त करता है।
इष्टोपदेश प्रवचन द्वितीय भाग
वध्यते मुच्यते जीवः सममो निर्ममः क्रमात।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन निर्ममत्वं विचिन्तयेत् ।।26 ।।
ममत्व व निमर्मत्व बन्ध व मोक्ष का कारण - यह जीव ममता परिणाम से सहित होता हुआ कर्मो से बंध जाता है और ममतारहित होता हुआ कर्मो छूट जाता है, इस कारण सर्वप्रकार से प्रयत्न करके अपने आपके निर्ममत्वरूप का चिन्तन करना चाहिए। इस श्लोक में बंधने और छूटने का विधान बताया गया है। जो पुरूष ममत्व परिणाम रखता है, जो वस्तु अपनी नही है, अपने आपके स्वरूप को छोड़कर अन्य जितने भी पदार्थ है वे सभी
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अपने नही है, उनको जो अपना मानता है वह कर्मों से बंध जाता है। परपदार्थो को अपना मानना यह तो है बन्ध का कारण, और परपदार्थो में ममत्व न होना यह है मोक्ष का कारण । इस कारण संसार संकटो से मुक्ति चाहने वाले पुरूषो को सर्व तरह से तन, मन, धन, वचन सर्व कुछ न्यौछावर करके, संन्यास करके अपने आपको ममतारिहत चिन्तन करना चाहिए ।
ममत्वभारवाही
भैया ! यह जीव निरन्तर दुःखी रहा करना है। इसका सुख भी
दुःख
है और दुःख तो दुःख है ही । इन समस्त क्लेशो का कारण है अपने आपको किसी न किसी परिणमन रूप अनुभवन करते रहना । जो यह मन में सोचेगा कि मै इसका बाप हूं, अमुक हूं तो इस चिन्तन के कारण बाप के नाते से अनुकूलताओं और प्रतिकूलताओं का क्षोभ होगा, खेद होगा, उसका बोझ इसी को ही ढोना पड़ेगा, कोई दूसरा नही ढो सकता ।
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दृष्टान्त द्वारा ममत्व के भार का प्रदर्शन एक साधु था, वह जंगल में तपस्या कर रहा था। वहाँ अचानक कोई राजा पहुँच गया, कहा महाराज ! इस प्रकार की गर्मी के दिनो में इतना बड़ा कष्ट क्यों सह रहे हो? पैर में जूते नही है, छतरी भी नही है, बदन भी नंगा है, क्यो इतनी गर्मी ज्येष्ठ के दिनो में सह रहे हो? महाराज और कुछ नही तो हम आपको एक छतरी देते है सो छतरी लगाकर चला कना । साधु बोला बहुत अच्छी बात है, ऊपर की घूप तो छाते से मिट जायगी, पर नीचे जो पृथ्वी की गर्मी है उसका क्या इलाज करें ? तो राजा बोला - महाराज आपको बढ़िया रेशम के जूते पहुँचा देगे। साधु ने कहा - अच्छा यह भी समस्या हल हो गयी। किन्तु नंगा बदन है, लू लगती है, इसका क्या इलाज करे? राजा ने कहा महाराज कपड़े बनवा देंगें साधु ने कहा कि आपने यह तो बहुत आराम की बात कही, पर जब जूता भी पहिन लिया, छाता भी मिल गया कपड़े भी पहिन लिये तो फिर तिष्ठ तिष्ठ कौन कहेगा, कौन फिर पड़गाहेगा ? राजा ने कहा महाराज इसकी कुछ फिक्र न करो, आपके आहार के लिए चार पाँच गाँव लगा देगे? उनकी आमदनी से आपका गुजारा चलेगा। ठीक है, पर खाना कौन बनावेगा ? तो महाराज आप की शादी करवा देगें, स्त्री हो जायगी । साधु ने कहा कि यह तो ठीक है, पर स्त्री से बच्चा होगें तो उनमें से कोई मरेगा भी। मरने पर कौन रोवेगा ? तो राजा बोला - महाराज और तो हम सब कर सकते है पर उन बच्चा-बच्ची के मरने पर रोना आपको ही पड़ेगा । क्योंकि जिसमें ममत्व होगा, वही तो रावेगा, कोई दूसरा न रोने आयेगा । तो साधु बोला कि जिस छतरी के कारण मुझे रोने की भी नौबत आयगी ऐसी आपकी यह छतरी भी हमें न चाहिए। हमें तो अपने में ही चैन मानना है, हम तो अपने में ही शान्ति पा रहे है ।
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पर में आत्मीयता की बुद्धि का अधेंरा - भैया ! जो ममत्व करेगा वही प्रत्येक प्रकार से बंधेगा, जो ममत्वरहित होगा वह छूट जायेगा। सो समस्त प्रयत्न करके अपने आपको ममत्वरहित चिन्तन करना चाहिए। परपदार्थो को मेरा है, मेरा है - ऐसा अंतरंग में विश्वास
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रहना यह घोर अंधकार है। अंधकार से यह जीव सुध भूल जाता है, अपनी और बहिर्मुख दृष्टि बनाकर संसार में भ्रमण करता है। मोही जीव किन-किन पदार्थों को अपना समझ रहा है ? स्त्री, पुत्र, धन-वैभव, राज्य, अनाज, पशु, गाय, बैल, भैंस घोड़ा, मोटर साइकिल, कोट, कमीज, न जाने किन-किन वस्तुओ को यह मोही जीव अपनाता है। लोकव्यवहार के कारण कोई मेरा-मेरा कहता है, इनते पर तो कुछ नुकसान नही है किन्तु यह तो उनमें ऐसी आत्मीयता की बुद्वि करे है कि उनका बिगाड़ होने पर अपना बिगाड़ मानता है।
तृष्णा के संस्कार का परिणमन – इस संसार के रोगी को तृष्णा ऐसी लगी है कि ये प्राणी पाये हुए समागम का भी सुख नही भोग सकते। और तो बात जाने दो, भोजन भी कर रहे है तो सुख से भोजन नही कर सकते। तृष्णा अगले कौर की लगी है, इसलिए जो ग्रास मुख में है उसको भी यह सुख से नही भोग पाता है, ऐसे ही इस धन सम्पदा की बात है। तृष्णा ऐसी लगी है कि और धन आ जाय, इसके चिन्तन से वर्तमान में प्राप्त समागम को भी यह जीव सुख से नही भोग पाता है। मान लो जितना धन आज है उसका चौथाई ही रहता तो क्या गुजारा न चलता? या मनुष्य ही न होते, पशुपक्षी, कीड़ा मकोड़ा, होते तो क्या हो नही सकते थे ? यदि पशु पक्षी होते तो कैसा क्लेश में समय गुजारा ? कहीं वृक्ष होते तो खड़े-खड़े रहकर ही फिर सारा समय गुजारते फिरते। किन्तु उन समस्त दुर्गतियों से निकल भी आये है तो भी वर्तमान समागम नही होता है। अरे क्यों नही धर्मपालन के लिए अपना जीवन समझा जाता है ? जब यह जीव मोहवश अज्ञान भाव से अपने में ममकार और अंहकार करता है तब इन कषाया की प्रवृति के कारण इस मिथ्या आशय के होने के कारण शुभ अशुभ कर्मो का बंध होने लगता है।
एक दृष्टान्त द्वारा स्नेह से कर्मबन्ध होने का समर्थन - कर्मो का बन्धन परिणामो के माध्यम से होता है, बाहा वातावरण से नही। जैसे कोई पुरूष किसी धूल भरे अखाड़े में लंगोट कसकर तेल लगाकर हाथ में तलवार लेकर केला बांस आदि पर बड़ी तेजी से तलवार से प्रहार करता है तो वह धूल से लथपथ हो जाता है। वहाँ धूल के चिपकने को क्या कारण है? तो कोई कहेगा कि वाह सीधी सी तो बात है- धूल भरे अखाड़े में वह कूद गया तो धूल नह चिपकेगी तो और क्या होगा? लेकिन कोई दूसरा पुरूष उस ही प्रकार लंगोट कसकर हाथ में तलवार लेकर उन बाँस केलो पर ही तेजी से प्रहार करे, किन्तु तेलभर नही लगाया है, उस पुरूष के तो घूल चिपकती हुई नही देखी जाती है। इस कारण तुम्हारा यह कहना अनुचित है कि धूल भरे अखाड़े में गया इसलिए धूल बँधी। तो दूसरा कोई बोला कि भाई हथियार हाथ में लिया इसलिए धूल बँध गयी। तो दूसरे पुरूष ने भी तो तलवार हाथ में लिया, पर उसके तो धूल चिपकी हुई नही देखी जाती है, इसलिए हथियार का लेना भी धूल के चिपकने का कारण नही है। तो तीसरा कोई बोला कि उसने शस्त्र को केलों पर, बाँसो पर प्रहार किया इस कारण धूल बँधी। तो उस दूसरे
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पुरूष ने भी तो केलों पर, बासो पर शस्त्र से प्रहार किया, पर उसके तो धूल चिपकी हुई नही देखी जाती। अरे उस पुरूष ने तेल लगाया है इसलिए उसका शरीर धूल से लथपथ हो गया है और दूसरे ने तेल नही लगाया है इस कारण वह धूल से लथपथ नही हुआ है। क्रियाये सब जानते है कि शरीर में स्नेह लगा है स्नेह नाम तेल का है, चिकनाई लगी है उस कारण उसे धूल का बंध हो गया है।
कर्मव्याप्त लोक निवास कर्म बन्ध का आकरण - संसारी प्राणियो की भी अपने अध्यवसान के कारण दुर्दशा है। ये संसारी प्राणी इस शरीर से मन, वचन, काय की क्रियाएं करके और इन क्रियाओ के द्वारा जीवघात करके कर्मो से लिप रहे है, ऐसी स्थिति में कोई कारण पूछे कि यह जीव कार्मे से क्यों लिप गया है ? तो कोई एक उत्तर देता है कि कर्मो से भरा हुआ लोक है ना, वह तब कर्म न बाँधे तो क्या होगा? लेकिन यह बात नही है। यह बताओ कि इस समय सिद्व भगवान कहाँ बिराजे है? इस लोक के भीतर या लोग के बाहर या लोक के अंत में है? लोक के बाहर केवल आकाश ही आकाश है, न वहाँ जीव है, न पुदगल है न धर्म अधर्म है, न काल है। इस लोक में सर्वत्र कार्माणवर्गणायें बसी हुई है, जहाँ सित जीव बिराजे है वहाँ पर भी ठसाठस अनन्त कार्माणवर्गणाएँ है और केवल कार्माणवर्गणा ही नही, वहाँ अनन्त निगोदिया जीव भी है, जो निगोदिया जीव इस जगत के निगोदियो की तरह ही दुःखी है, एक स्वांस में 18 बार जन्म और मरण करते है उन निगोदियो में और सिद्ध भगवान की जगह में रहने वाले सूक्ष्म निगोदियो में दुःख का कोई अन्तर नही है, वे लोक में दुःखी है व सिद्ध वहाँ सुखी है। इसलिए लोकबन्धन का कारण नही है अथवा मुक्ति का कारण नही है।
मन वचन काय का परिस्पन्द कर्मबन्ध का अकारण - तब दूसरा कोई बोला कि वहा ये जीव मन, वचन काय की चेष्टाएँ करते है उससे बंध होता है तो जरा यह बतलाओ कि जो चार घातिया कर्मों का नाश करके अरहंत हुए है उन अरंहतो के क्या वचनवर्गणाये नही निकलती? दिव्य ध्वनि जो खिरती है उन अरहंत भगवान के क्या शरीर की चेष्टाएँ नही होती? वे भी बिहार करते है, उनके शरीर में जो द्रव्यमन रचा हुआ है क्या उस द्रव्यमन में कोई क्रिया नही होती ? होती ही है। उनके भी मनोयोग, वचनयोग और काययोग तीन योग पाये जाते है, वे सयोग केवली कहलाते है। अभी उनके तीनो योग है। दो मनोयोग है दो वचन योग है- औदारिका काययोग, औदारिक मिश्रकाययोग, कार्माणकाययोग। ये तीन काय योग है, यो 7 योग माने गये है सयोगकेवली के। मन, वचन, कायकी चेष्टा उनके भी हो रही है, पर क्या कर्मबन्धन है? नही । इनके मन, वचन, काय की चेष्टा से कर्मबन्धन नही होता। अतः मन, वचन, काय की चेष्टा कर्मबन्ध का कारण नही है।
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परमार्थतः परबंध बन्ध का अकारण तब तीसरा बोला कि वाह इनके चलने फिरने से अथवा अन्य प्रकार से जीवो का घात होता रहता है तब इन्हे कर्मबंध कैसे नही होता ? अच्छा बतलाओ कि जो साधु हो गए है, महाव्रत का जो जो पालन करते है, समितिपूर्वक गमन करते है ऐसे साधु संत अच्छे काम के लिए अच्छे भाव सहित दिन में चार हाथ आगे जमीन देखकर ईर्या समिति से जा रहे हो और अचानक कोई कुन्थु जीव पैरो के नीचे आकर दबकर मर जाय तो क्या उन साधुओ के भी कर्म बंध होता है? परिणाम ही नही है उनका क्रूर कैसे बंधे कर्म? तो यह भी बात तुम्हारी युक्त नही है।
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कर्मबन्ध का कारण
कर्मबधं का करने वाला केवल स्नेह भाव है। उपयोग में जो राग बस रहा है, मोह राग द्वेष चल रहा है यह ही कर्मबन्धन का कारण है । जो जीव रागद्वेष विभावो के साथ अपना एकीकरण करता राग करता है, यह मै ऐसा ही हूं, राग से भिन्न शुद्व चैतन्यस्वरूप मेंरा है ऐसा जो नही मान सकता है ऐसे पुरूष के बन्धन होता है । इस ही को ममत्व सहित पुरूष कहा गया है।
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पर्यायव्यामोही के सकल विश्व के मोह का संस्कार जो अपने शरीर में 'यह मैं हूँ' ऐसा अंहकार रखता है, ममकार रखता है उसने सर्वविश्व का अहंकार और ममकार किया है । यद्यपि इस मोही जीव के पास किसी के 50 हजार की विभूति हो, लाख की हो, कुछ साराजगत का वैभव तो नही है । तो क्या उसे केवल 50 हजार में ही ममता है या लाख में ही ममता है ? इस अज्ञानी जीव को सारे विश्व में ममता है। न हो पास इसके और योग्यता भी विशाल न होने से अन्य विभावो की कल्पना भी न उठती हो तिस पर भी उसकी वासना में तीन लोक के वैभव के प्रति आत्मीयता बसी है अन्यथा उसके सामने रख दो और वैभव, क्या वह मना कर देगा कि अब मुझे न चाहिए ? उसकी तृष्णा शान्त नही हो सकती। मोह में सारे विश्व के प्रति ममता का परिणाम बसा हुआ है और इस कारण उसे समस्त जगत का बन्धन लग रहा है।
अध्यवसान में कर्मबधं की निरन्तरता भैया ! पदार्थो में इष्ट अनिष्ट कल्पनाएँ होने से रागद्वेष का अस्तित्व आत्मा में अपना स्थान जमा लेता है और फिर यह उपयोग उन विभाव भावो के कारण विकृत हो जाता है, सर्व प्रकार से पर में तन्मय हो जाता है उस समय रागद्वेष परिणामरूप यह अध्यवसान भाव ही बंध का कारण होता है। जो पुरूष यह मेरा यह दूसरे का है, इसका मै मालिक हूं इसका दूसरा मालिक है - ऐसी रागबुद्वि बसाये, परमर्षि कहते है उनके शुभ अशुभ कर्म बँधते ही रहते है। कर्मबन्धन के लिए निमित्त चाहिए रागादिक भाव, उसके लिए हाथ कैसे चल रहे है यह निमित्त नही है, पैर कैसे उठ रहे है यह निमित्त नही है । पूजा भी करता हो कोई और परिणामों में विषयो के साधनो की बात बसी हो अथवा किसी पुरूष के प्रति बैर भाव बसा हो तो पाप का बंध हो जायगा । कर्म इस बात से नही अटकते है कि मंदिर में खड़े है तो हम इनके न बँधे, ये भगवान के
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समक्ष खड़े है इनके न बँधे, ऐसी अटक कर्मों में नही है। कर्मो के बन्धन का निमित्त तो रागद्वेष मोह अध्यवसान भाव है, वह हुआ तो कर्म बँध गया। चाहे वह तीर्थ क्षेत्र में हो, चाहे मंदिर स्थान में हो, चाहे वह साधुओं के संग में समक्ष में बैठा हो ।
ममतारहित शुद्ध ज्ञानानन्दस्वरूप की उपासना का अभिनन्दन जिन पुरुषो के वैराग्य और ज्ञान का परिणमन चल रहा है उनके कर्म नही बँधते है, किन्तु अनेक कर्म निर्जरा को प्राप्त होते हे क्योकि उनके चित्त में शुद्ध कारण समयसार विराजमान है। वे चाहे किसी घर में खड़े हो, चाहे किन्ही वस्तुवो में गुजर रहे हो, किन्ही भी बाह्रा परिस्थितियो में हा, जिन जीवो क रागद्वेषादिक भावो में अपनायत नही है, जो अपने सहजशुद्व चैतन्यस्वरूप की उपासना करते है उन पुरूषो के कर्म नहीं बँध सकते। कर्मो का बन्धन अहंकार और ममकार परिणाम के कारण होता है। यह मै हूं, यह मै जो हर जगह में मैं मैं बगराता है, हर जगह ममता करता है उसको कर्म बंधन तो होगा ही । रेल की सफर में जा रहे हो और किसी मुसाफिर से थोड़ा स्नेह हो जाय, थोड़े वचनव्यवहार से तो इतने में ही बन्धन हो जाता है। जब वियोग होता है, किसी एक के उतरने का स्टेशन आ जाता है तो उसमें कुछ थोड़ा ख्याल तो जरूर आ जाता है । समस्त संकटो का मूल स्नेह भाव है। इस स्नेह में जो रंगा पँगा है वह बँध जाता है, और जो रागादिक भावो से भी न्यारा अपने आपको निरखता है, अपने को शुद्ध अकिञ्चन देखता है, मात्र ज्ञानानन्दस्वरूप प्रतीति में लेता हे वह कर्मों से छूट जाता है। इस कारण मुक्ति चाहने वाले पुरूष को अपने को ममता रहित अपने शुद्ध ज्ञानानन्द स्वरूप को निरखना चाहिए।
एकोऽहं निर्ममः शुद्वो ज्ञानी योगीन्द्र गोचर : |
बाह्राः संयोगजा भावाः मत्तः सर्वेऽपि सर्वथा | 127 ||
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ज्ञानी का चिन्तन ज्ञानी पुरूष चिन्तन कर रहा है कि मैं एक हूँ, अकेला हूँ अपनी सब प्रकार की सृष्टियो में मै ही एक परिणत होता रहता हूं। मेरा कोई दूसरा नही है । मेरा मात्र मै ही हूं, निर्मम हूं। मेरे में ममता परिणाम भी नही है और ममता परिणाम का विषयभूत कोई पदार्थ मेरा नही हे। मैं शुद्ध हूं अर्थात् समस्त परपदार्थो से विविक्त अपने आपके द्रव्यत्व गुण से परिणत रहने वाला हूं, योगीन्द्रो के द्वारा गोचर हूं। मेरा यह सहज आत्मस्वरूप योगीन्द्र पुरूषो के द्वारा विदित है । अन्य समस्त संयोगजन्य भाव मेरे से सर्वथा पृथक है।
नाना पर्यायो में भी आत्मा का एकत्व यद्यपि पर्यायार्थिकनय की दृष्टि से यह जीव नाना रूप बनता है। मनुष्य बना, देव बना, नारकी हुआ, नाना प्रकार का तिर्यञ हुआ । नाना विभाव व्यञजन पर्याये प्रकट हुई है फिर भी यह जीव अपने स्वरूप में एक ही प्रतिभासमान है, प्रत्येक पदार्थ द्रव्यपर्यायात्मक होता है। कोई पदार्थ हो वह है और उसकी कुछ न कुछ
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दशा है। पर्याय और द्रव्य इन दोनो से ही तदात्मक यह समस्त विश्व है। कोई पदार्थ ऐसा नही है कि वह केवल द्रव्य ही हो और उसमें परिणति कुछ न होती हो और न कोई पर्याय ऐसा है कि केवल पर्याय ही है उसका आधारभूत कोई-द्रव्य नही है, इसी कारण यद्यपि आत्मा की नाना स्थितियाँ होती है, ज्ञानादिक गुणो का परिणमन भी चलता है और व्यञजनपर्याये भी नाना चल रही है तिस पर भी मै सर्वत्र अकेला हूं।
व्यावहारिक प्रसंगो में भी एकाकित्व – व्यावहारिक प्रसंगो में भी मैं अकेला हूं| सुखी दुःखी भी मै अकेला ही होता हूँ। जिस रूप भी परिणत होता हूं यह मैं अकेला ही। किन्ही भी बाहा पदार्थो का ध्यान करके किसी विभावरूप परिणम जाऊँ, वहाँ पर भी यह मैं अकेला ही परिणत होता हूं, दूसरा कोई मेरे साथ परिणत नही होता। मैं सर्वत्र एक हूं। जो पुरूष अपने को एक नही निरख पाते है किन्तु मैं अनेक रूप हूँ, दूसरा कोई मेरे साथ परिणत नहीं होता। मैं सर्वत्र एक हूं| जो पुरूष अपने को एक नही निरख पाते है किन्तु मै अनेक रूप हूँ, मेरे अनेक है, मुझे अनेक वस्तु शरण है, अमुक पदार्थ के होने से मेरी रक्षा है - इस प्रकार के विकल्पो से अपने एकत्व को भूलकर किन्ही बाहा पदार्थो को लक्ष्य में लेकर मोहविकार रूप परिणमन में लगता है वह पुरूष संसार में ही भटकता है। एक अपने चैतन्यस्वरूप एकत्व को त्याग कर इसको उपयोग में न लेकर अब तक संसार में रूला हूँ।
__ श्रद्वान कला से आनन्द या क्लेश की सृष्टि - जिस भव में गया उस ही भव में जो मिला उसमें ही ममता की, जो पर्याय मिली उस ही रूप अपने को माना। गाय, बैल, भैसा हुआ तो वहाँ उस ही रूप अपनी प्रतीति रखी। देव नारकी हुआ तो वहाँ उस ही रूप अपनी प्रतीति रखी। मनुष्य भवमें तो है ही, यहाँ ही देख लो, हम अपने निरन्तर मनुष्यता की प्रतीति रखते है मै मनुष्य भी नही हूं, किन्तु एक अमूर्त ज्ञानानन्दस्वरूप चेतन पदार्थ हूँ। ऐसी प्रतीति में कब-कब रहते है ? कभी नही। यदि ज्ञानानन्दस्वरूप की प्रतीति हो तो फिर आकुलता नही रह सकती है, आकुलता कहाँ है ? निराकुल शुद्व ज्ञानानन्दस्वरूप आत्मतत्वको निरखें तो वहाँ आकुलता का नाम नही है। वह अपने स्वरूप से सतृ है, समस्त परभावो से मुक्त है। यह मै आत्मा निर्मम हूं। यहाँ शुद्व ज्ञायकस्वरूप आत्मतत्व को निरखा जा रहा है, इसमें मिथ्यात्व, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कुछ भी परभाव नही है। स्वरसतः निरखा जा रहा है।
विभावो के सम्बन्ध के विवरण में एक दृष्टांत - यद्यपि वर्तमान में ये समस्त विभाव इस आत्मा के ही परिणमन है। रागी कौन हो रहा है ? यह जीव ही तो, परन्तु यह राग जीव में नही है, जीव के स्वभाव में राग नही है राग हो गया है। किसका बताएँ। जैसे जब दर्पण को देखते है तो उसमें सुख की छाया झलकती है, अब वहाँ यह बतलावो कि यह मुख के आकार का जो परिणमन है वह परिणमन क्या मुख का है अथवा दर्पण का है। दर्पण में जो मुंह का आकार बना है वह आकार यदि देखने वाले पुरूष का होता तो उसके
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शरीर में फिर मुंह ही न रहता क्योकि उसका मुंह तो दर्पण में चला गया। दो मुंह तो नही है, हम आपके एक एक ही तो मुंह लगा है। इसलिए वह दर्पण से हटा लो या मुंह को हटा लो वहाँ से तो कहाँ रहा मुंह का प्रतिबिम्ब? वह स्वच्छ का ही स्वच्छ है। जिस समय दर्पण में मुख का प्रतिबिम्ब झलक रहा है उस काल में भी ऐसा लगता है कि यह प्रतिबिम्ब दर्पण के ऊपर लोट रहा है। दर्पण में थमकर नही रह पाता। वह दर्पण से पृथक है।
विभाव का किसी भी पदार्थ में टिकाव का अभाव – ऐसे ही जो रागद्वेष भाव उत्पन्न होते है आत्मा में, ये रागादिक भाव क्या कर्म के है? यदि कर्म के रागादिक होते तो कर्म दुःखी हो रहे है, फिर मुझ जीव को क्या पड़ी है कि व्रत करे, तप करें, साधना करे। ये रागगादिक तो कर्मो में है, दुःखी हो तो कर्म दुःखी हो, पर ऐसा तो नही है। ये रागादिक भाव कर्म मे नही है, ये तो चेतन में ही परिणत हो रहे है, लेकिन क्या ये रागादिक इस चैतन्य के स्वभाव से उठे हुए है ? क्या इस जीव के स्वभाव में रागद्वेष करना पड़ा है ? इस तत्व को उसही दृष्टि में निहारे जैसे दर्पण में प्रतिबिम्ब की बात निरखी गयी थी। दर्पण में प्रतिबिम्ब डगमग डोलता रहता है। सामने मुख है तो दर्पण मे प्रतिबिम्ब है, मुख को थोड़ा एक तरफ किया तो वह दर्पण का प्रतिबिम्ब भी एक तरफ हो गया। मुख हटा लिया तो प्रतिबिम्ब हट गया, मुख दर्पण के सामने कर लिया लो प्रतिबिम्ब आ गया। क्या दर्पण की चीज इस तरह से अस्थिर होती है? जरा-जरा सी देर में बिल्कुल हट जाये, जरा सी देर में फिर आ जाय, क्या ऐसी बात दर्पण में पायी जाती है ? नही। यह दर्पण का प्रतिबिम्ब नही है, यह औपाधिक है। ऐसे ही ये रागद्वेष मेरे स्वरूप में नही है, ये औपाधिक है ये कर्मो की उपाधि से उत्पन्न हुए है, कर्मो का उदय है वह निमित्त है, जीव में वे रागादिक होते है ये रागादिक मानो आत्मा में ऊपर-ऊपर ही लोट रहे है। भीतर तो स्वरूप और स्वभाव ठोस रूप से बना हुआ है।
आत्मा में भेदषट्कारकता का अभाव - यह आत्मा ज्ञानघन है आनन्दघन है। जो इसका स्वरूप है वह इसके स्वरूप में स्वभाव में स्थिरता से है। रागादिक मुझ आत्मतत्व मे नही है। मैं निर्मम हूं, शुद्व हूं। मै हूं और परिणत हो रहा हूं, पर ये परिणमन, ये वर्तमान परिवर्तन किसके द्वारा हो रहे है, किसमें हो रहे है, किसके लिए हो रहे है ? यह भेद यहाँ नही है। बस ज्ञाताद्रष्टा बनो और यह निरख लो कि यह जीव है और इस तरह परिणम रहा है, वह दूसरे पदार्थ से नही परिणमता, वह दूसरे पदार्थ मे नही परिणमता। समस्त कारक चक्र की प्रक्रियाये इस आत्मतत्व में नही है यह मै परमार्थतः जाननहार हूं, मैं जानता हूं, किसको जानता हूं? इस जानते हुए निजस्वरूप को जानता हूं, किसी बाहृा पदार्थ को नही जान रहा है किन्तु बाहापदार्थ के सम्बधं में अपने आपका उस तरह से ज्ञान प्राप्त कर रहा है।
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पर के जानन का व्यवहार – मै जानता हूँ किन्तु इस जानते हुए को ही जानता हूँ, किसी अन्य को नही जानता। भेदभाव में यह बात देर में बैठेगी पर एक युक्ति से देखो मै जितना जो कुछ हूँ और जो यह मै जो कुछ परिणम सकता हूँ वह अपने में ही परिणमँगा किसी अन्य में नही। मेरी क्रिया, मेरी चेष्टा मेरे में ही होकर समाप्त होगी। जो कुछ भी मेरी क्रियाये है वे सब मेरे आत्मा मे ही होगी य अन्य मे होगी? तब इस बाहा पदार्थ को वास्तव मे जाना कैसे? अपने आपको जाना है, पर उस जानन में जो बाहा पदार्थ विषय होते है उनका नाम लगाया जाता है। जैसे एक लोक दृष्टान्त लो। हम दर्पण को देख रहे है, बड़ा दर्पण है, हमारी पीठ पीछे दो चार बालक खड़े है। उन बालको के निमित्त से इस दर्पण मे भी उन जैसा प्रतिबिम्ब हो गया है। हम क्या कर रहे है ? केवल दर्पण को देख रहे है और बताते जा रहे है सब कुछ, अमुक लड़के ने हाथ उठाया, अमुक ने पैर उठाया, अमुक ने हाथ हिलाया, उन लड़को की सब बाते हम कहते जाते है, जानते जाते है, पर हम देख रहे है केवल दर्पण को । तो जैसे हम केवल दर्पण को देख रहे है पर बातें सब लड़को की बता रहे है इसी प्रकार हम केवल ज्ञानमयी आत्मा को जान रहे है और बातें बताते है दुनियाभर की । पूर्वजो की, इतिहास की, लोक की स्थिति की, क्षेत्र की। सभी प्रकार की बातें बताते है, पर हम जान रहे है केवल अपने आत्मा को।
ज्ञाता में ज्ञान का चमत्कार - कैसा विशाल चमत्कार है, कैसा ज्ञानस्वरूप यह आत्मा है कि यह केवल ज्ञानस्वरूप आत्मतत्व को जार रहा है और बखान करता है अनेक पदार्थो का। मै ऐसा शुद्व हूँ, मैं जो कुछ करता हूँ, अपने को, अपने से, अपने में, अपने लिए अथवा करने का कुछ नाम ही नही है। मै जो कुछ भी हूं, बर्त रहा हूं उतना ही मात्र द्रव्य पर्यायात्मक सम्बंध है। इस प्रकार यह ज्ञानी पुरूष अपने आत्मा के स्वरूप को निरख रहा है, मै शुद्व हूं। स्वभाव पर दृष्टि देकर यह बात समझी जा रही है कि मै अपने आप अपनी ही सत्ता के कारण अपने में शुद्ध हूं, ज्ञानमय हूं।
पदार्थो का पर के द्वारा अभेद्य स्वरूप - भैया! जितने भी पदार्थ होते है सबमें अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, अगुरूलघुत्व, प्रदेशवत्व, प्रेमयत्व ये 6 गुण होते है। अस्तित्व के कारण ये पदार्थ सत् है, इनमें है पना है, इनका अस्तित्वपना है वह अस्तित्व गुण का काम है। वह पदार्थ वही रहे, दूसरा न बन जाये, दूसरे रूप न हो जाय, अपने मे ही सत् है, परसे असत् है, ऐसा नियम वस्तुत्व गुण से हुआ है। प्रत्येक पदार्थ निरन्तर परिणमता रहे, परिणमन को छोड़कर वह विश्रात नही हो सके, यो द्रव्यत्व गुण के कारण यह निरन्तर परिणमता रहता है। अगुरूलघुत्व गुण से यह नियम बन जाता है कि यह पदार्थ अपने में ही परिणमेगा, किसी दूसरे में न परिणमेगा। प्रदेश इसमें है ही और प्रमेय भी है, इस प्रकार आत्मा में सभी पदार्थो की भाँति ये 6 गुण है, इसके अतिरिक्त सूक्ष्मत्व आदि अनेक गुण है किन्तु कल्पना करो कि इस आत्मा में ज्ञान गुण न होता और बाकी गुण होते तो क्या
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स्थिति होती? क्या हो सकता था कुछ? नही । यो आत्मा ज्ञानमयी है, ज्ञानघन है, ज्ञानात्मक है। इस अंतस्तत्व को अध्यात्मयोगी पुरूष ही जान सकता है। जिन्होने पर को पर जानकर निज को निज जानकर परपदार्थो के विकल्पो को तोड़ा है और केवल अपने आपके स्वरूप में ही रत रहा करते है ऐसे पुरूषो को ही इस शुद्ध चैतन्यस्वरूप का दर्शन होता है और इस चित् चमत्कार के अनुभव से ही यथार्थ मर्म को समझते है एवं विश्व के समस्त प्राणियों को एक चैतन्य के रूप में देखा करते है।
संयोगज भावो की आत्मस्वरूप से भिन्नता - यह मैं यथार्थ शुद्ध केवल आत्मा केवल योगिन्द्रो के द्वारा ही परिचय में आ सकता हूं। अज्ञानी जन अपने आप की बात को नही समझते है। ऐसा यह मैं आत्मा सबसे विविक्त शुद्ध ज्ञानानन्दस्वरूप हूं, जितने भी बाहा भाव है, रागद्वेषादिक है, वे सब संयोगी भाव है। कर्मो के सम्बधं से यह भाव बनता है, जिसको यह प्रतीति नही है कि ये भाव सब संयोगी है, मरे स्वरसतः होने वाले नही है, वे कभी मुक्त नही हो सकते। जिन अपराधो से मुक्त होना है उन अपराधो का मेरे में वस्तुतः प्रवेश नही है। मेरे स्वंय के उन अपराधो का भान हुए बिना कैसे मुक्ति प्राप्त हो सकेगी? समस्त ये औपाधिक भाव, संयोगभाव मेरे से सर्वथा स्वभावतः दूर है। यह सब जानकर कर्तव्य यह है कि जो उपादेय है उसे ग्रहण करें और जो हेय है उसका परिहार करे। उपादेय है यहाँ अपने आपका यह शुद्व ज्ञानानन्दस्वभाव। तन्मात्र ही अपने को अनुभवे तो वहाँ संकटो का नाा ही नही है। जहाँ इस निर्विकार स्वरूप से चिगे और संयोग लक्षण बाले इन जड़ पदार्थो में ममत्व बुद्धि की, संकट वही से बन जाते है।
प्रधान और गौण कर्तव्य – उद्देश्य जीवन में एक प्रधान होता है और एक गौण होता है जैसे किसको मान बनवानाहै, तो मकान बनवानेका उद्देश्य तो प्रधन है और उस मकान बनवाने के प्रसंगमे अनेक काम किए जाते है, जैसे ईटें खरीदना है, सीमेन्टका परिमिट बनवाना है, अमुक वस्तु लेना है, मजदूरो को इकट्टा करना है, ये सब रोज-रोज प्रोग्राम बनते है, पर ये प्रधान उद्देश्य तो इसका एक है, जो भी इसने सोचा है। ऐसा ही ज्ञानी पुरूषका मुख्य उद्देश्य केवल एक ही होता है - निरपराध ज्ञानानन्दस्वरूप निज कारण प्रभुका दर्शन करना, चिन्तन और मनन करना। इसके अतितिक्त इसकी ही साधनाके लिए दर्शन पूजन स्वाध्याय, जाप, सत्संग आदिक जितने भी प्रयोग है वे सब प्रयोग केवल एक इस उद्देश्यको सिद्ध करने के लिए है, वे मुख्य उद्देश्य नही है, वे सब गौण है। हमारा मुख्य उद्देश्य है संयोगजन्य भाव से मुक्त होकर सहज आनन्दस्वरूप में मग्न रहना, इसकी उपलब्धि जैसे हो इसका प्रयत्न करना यह हमारा गौण प्रोग्राम है।
ज्ञानीका निर्णय - ज्ञानी पुरूष अपने आपके स्वरूपका निर्णय कर रहा है। मैं एक हूं, अपने लिए मै अद्वैत हूँ। अपनी सब स्थितियोमें मैं मैं ही हूं। मेरा कोई दूसरा शरण अथवा साथी नही है समस्त कामनावोसें रहित हूं। ज्ञानानन्दघन अध्यात्मयोग द्वारा मै सर्व
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परपदार्थोमें उत्कृष्ट चैतन्यस्वरूप हूं। इस ही तत्वकी आराधनाके प्रसाद से भ्ज्ञगवान अरंहत हुए है। जिनका हम पूजन वंदन करते है। उनकें और कला ही क्या थी जिससे वे आज हम लोगो के पूज्य कहलाते है, वह कला है स्वभाव दर्शनकी कला। वे अपने इस चित्स्वभाव में मग्न हुए थे, उसके ही प्रसाद से भव भवके संचित उनके कर्म जाल नष्ट हुए
और अनन्त चतुष्टयसम्पन्न सर्व भव्य जीवोके उपास्य हुए, ऐसा होने का मेरेमें स्वभाव है। ज्ञानी संत इस स्वभावकी उपासना किया करते है।
दुःखसंदोहभागित्वं संयोगादिह देहिनाम।
त्यजाम्येनं ततः सर्वमनोवाक्कायकर्मभिः ।।28।।
ज्ञानी सकल संन्यास का चितंन - ज्ञानी पुरूष चिन्तन करता है और संकल्प करता है कि इस प्राणी को जितने भी क्लेश समूहका भाजन होना पड़ा है वह सब इस शरीर आदिके संयोग से ही होना पड़ा है। इस कारण मै मनसे, वचनसे और कायसे इन समस्त समागमों को छोड़ता हूं। मै भी अमूर्त ज्ञानानन्दमय केवल अपने स्वरूप मात्र हूं। इस मुझ आत्मतत्वमें किसी दूसरे पदार्थका सम्बंध भी नही है। ऐसी दृष्टि हो जाय और समस्त बाहा पदा से उपेक्षा हो जाय तो यही उनका छोड़ना कहलाता है। इसमें कषयकी बात कुछ नही है। जैसे कोई लोग कहें कि वाह! मानते जावो ऐसा कि मैं सबसे न्यारा हूं। और छोड़ो कुछ भी नही। यहाँ कुछ भी छलकी बात नही है, केवल ऐसा अनुभव में उतर गया कि मै सबसे विविक्त हूं तो उसने सबको छोड़ दिया। अब ऐसी प्रतीति बहुत काल तक बनी रहती है तो बहुत काल तक छूटा हुआ रहेगा और कुछ ही क्षण बाद पूर्व वासनाके कारण फिर उनमें चित्त गया तो वह ग्रहणका ग्रहण ही है।
आनंदका का भेदविज्ञान - भैया! जितना भी आनन्द मिलेगा प्रत्येक जीवको वह भेदविज्ञान ही मिलेगा। भेदविज्ञान बिना आनन्द मिलेका अन्य कोई उपाय ही नही हे लोकमें कही ऐसा नही है कि धनिकोको करोड़ो के धन वैभवसे आनन्द मिल जायगा और गरीबो को भेदविज्ञान आनन्द मिलेगा। जिन्हे भी आनन्द मिलेगा भेदविज्ञान ही मिलेगा, चाहे अमीर हो चाहे गरीब । कारण यह है कि आनन्द में बाधाको डालने वाला विकल्प हुआ करता है और विकल्पोकी उत्पत्ति होने के लिए परपदार्थ आश्रय होता है। बाहा साधन तो जिसको जितने मिले है, उसे प्रायः उतने विकल्प बढ़ेगे, और जिसके विकल्प बढ़े हुए है उन्हे आनन्द न मिलेगा। समागम हो तब भी, न हो तब भी, आनन्द तो भेदविज्ञान से ही मिलेगा। लोग कभी-कभी अपनेमें बड़ा झंझट समझते है। मै बहुत चक्करमें पड़ गया, मुझे इतना क्लेश है। अरे ये सारे क्लेश समस्त संकट भेदविज्ञान के उपाय से सबसे न्यारा अपनेको मान लेनेसे मिट जाते है। सबका विकल्प तोड़ने से अपने ज्ञानस्वरूपका अनुभव होनेपर सारे संकट समाप्त हो जाते है।
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प्रभुका आदर्श व आदेश जिनके संकट समाप्त हो चुके है ऐसे प्रभु भगवानका यह उपदेश है कि जिस उपाय से हम संकटोसे मुक्त हुए है इसी उपायको भव्यजन करेंगे तो संकटोसे छूटनेका अवसर पावेगे। संकटोसे छूटने का उपाय भेदविज्ञान के सिवाय और कुछ नही है। एक ही निर्णय है। कही ऐसा अनियम नही है किसीको धनसे आनन्द मिलता हो, किसीको इज्जत मिलने से आनन्द मिलता हो, किसीको अनेक काम मिलने से आनन्द मिलता हो, किसी को अच्छा परिवार रहनेसे आनन्द मिलता हो, जिसे भी आनन्द मिलेगा वह भेदविज्ञान से मिलेगा ।
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मिथ्या आशयमें क्लेशकी प्राकृतिकता जो जीव शरीरादिक से अपने को अभेदरूप से मानता है, अर्थात यह मैं हूँ ऐसी उनमें आत्मकल्पना करता है उस शारीरिक कष्ट भी होता है, मानसिक कष्ट भी होता है और क्षेत्र समागम आदिके कारण भी कष्ट हो जाता है । मिथ्या धारण हो, प्रतीति हो वहाँ दुःख होना उस मिथ्या श्रद्वानके कारण प्राकृतिक है। दुःख किसी परवस्तुसे नही होता, दुःख भी अपने आपकी कल्पना से, मिथ्या धरणासे होता है। सारी चीजें अनित्य है । जो घर मिला है, घरमें जो कुछ है, जितना संग जुटा है वह सब अनित्य है। उन्हे कोई नित्य माने और ये मोही मानते ही है। ये दूसरे के समागमको तो अनित्य झट समझ लेते है, ये समागम मिट जायेगे, मर जायेगे लोग, कोई न रहेंगे यहाँ, किन्तु अपने समागमके सम्बंधमें यह विशद बोध नही है कि यह भी मिट जायगा । यदि यह ध्यान में रहे कि यह सब मिट जायगा तो फिर इसकी आसक्ति नही रह सकती है। इसने अनित्यको नित्य मान लिया, इसीसे आफते लग गयी ।
भ्रांतिमें उलझन और निर्भ्रान्तिमें सुलझन भैया! अनित्यको नित्य मानने के विकल्प में एक आपत्ति तो यह है कि जब मान लिया कि ये सदा रहेगें तो उनके बढ़ावाके लिए, संग्रहके लिए, जीवनभर इसे श्रम की ज्वालामें झुकना पड़ता है। दूसरी आपत्ति यह है यह अनित्यको नित्य मान लेनेसे तो कही यह जगजाल नित्य तो नही हो जाता। बाह्रासमागम तो अपनी परिणतिके माफिक बिछुड़ जायेगे। यह मिथ्यादृष्टि जीव अनित्यको नित्य मानता है, सो ज वियोग होता है तब उसके वियोग में दुःखी होता है। यदि अनित्यको अनित्य ही मानता होता तो उसमें लाभ था । पहिला लाभ यह कि इन बाह्रा पदार्थो के संचय के लिए अपना जीवन न समझता और श्रममें समय न गंवाता और दूसरा लाभ यह होता कि किसी भी क्षण जब ये समागम बिछुड़ते तो यह क्लेश न मानता ।
अज्ञानके फल फूल जितने भी लोग घरमें बस रहे है, जिन दो एक प्राणियोंसे सम्बन्ध मान रखा है, उनका वियोग जरूर होगा। पुरुष स्त्री है, कभी तो वियोग होगा ही । पुरुषका भी वियोग पहिले सम्भव हो सकता है और स्त्रीका भी वियोग पहिले सम्भव हो सकता है। वियोगकालमें कष्ट मानेगें। यह बात प्रायः सभी मनुष्योपर गुजर रही है। जब तक मनके प्रतिकूल कोई घटना नही आती है, मौजमें समय कट रहा है और यह बीता
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हुआ समय जाना भी नही जा रहा है मेरी इतनी आयु हो गयी है कुछ जाना ही नही जाता है लेकिन सभी जीव चाहे बड़े यशस्वी हो सभीपर यह बात आयगी। जो समागम मिला है वह किसी दिन आवश्य बिछुड़ेगा। अब जब बिछुड़ेगा तो वही वही क्लेश जो औरोके आता है, इसे भी आयगा। तो जो पदार्थ जैसा नही है वैसा मानना अर्थात् वस्तुस्वरूपसे उल्टी धारणा बनाना, इसमें दुःखी होना प्राकृतिक बात है। इस ही वैभव के ममत्व के कारण दुःख है। किसी अन्य पदार्थ के होने अथवरा न होने से दुःख नही है। इस संसारकी जड़ अज्ञान है। कितने ही लोग तो इस संसारपर दया करके कह देते है कि ला सभी लोग ब्रह्माचारी हो गए तो संसार कैसे चलेगा? सभी ज्ञानी वैरागी हो गए तो संसारकी क्या हालत होगी? उनको संसारपर तरस आती है, दया आती है। कही संसारकी वृद्वि में बाधा न हो, देखा इस अज्ञानीका बहाना।
ज्ञान, वैराग्यसे क्लेशक्षय - बहुत तीक्ष्ण धारा है इस कल्याणमार्गकी, किन्तु जो इस ज्ञानवैराग्यकी धारापर उतर गया और निरूपद्रव पार कर गया वह संकटो से सदा के लिए मुक्त हो जाता है। जितने भी यहाँ क्लेश है वे सब मन, वचन, कायकी क्रियाओके अपनाने में है। इस जीव ने मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति की, उससे आत्मयोग हुआ, प्रदेश परिस्पंद हुआ, कर्मोका आस्रव हुआ और साथ ही इसमें मिथ्या आशय और क्रोधादिक कषायोंसे कर्मोका बंध हुआ। अब ये बद्व कर्म जब उदयकाल में आती है, आये थे तब इस जीवको विभाव परिणति होती है व हुई और चक्रकी तरह ये भावकर्म द्रव्यकर्म चलते ही रहे। उनके फलमें सुखी दुःखी होना, इष्ट अनिष्ट लगना सब दुःख परम्पराये बढ़ती चली आयी। सो सारे दुःखका झगड़ा लो यों मिट जायगा।कि इस मनको, वचनको, और काय को अपनेसे भिन्न मान ले। ऐसा भिन्न माननेमें यह धीर साहसी आत्मा उस विपदाके पहाड़के नीचे भी पड़ा है तब भी बलिष्ठ है, उसे रंच भी श्रम नही होता है।
भेदाभ्यासके बिना संकट विनाशका अभाव - इस जीवका संसरण तब तक है जब तक मन, वचन, कायको अपना रहा है। कितना क्लेश है? किसीने प्रतिकूल बात कही, निन्दाकी बात कही तो यह चित्त बेचैन हो जाता है। क्या हुआ किसीने कुछ उसे कहा ही न था। वे वचन भी मायारूप, वह कहने वाला भी माया रूप, यह सोचने वाला भी माया रूप, और उस आत्मा की प्रवृत्ति से वचन भी नही निकलते निमित्तनैमित्तिक सम्बंधमें उन वचन वर्गणावोसे वचन परिणति हुई और वे वचन मुझमें किसी प्रकार आ ही नहीं सकते। यह प्रभुरूप है इसलिए जान लिया इसने सब। अब रागसे प्रेरित होकर कल्पना मचाता है। उसने हमें यो कह दिया! उन कल्पनावोंमें परेशान हो जाता है। एक यह निर्णय बन जाय कि यह शरीर ही मै नही हूं फिर सम्मान अपमान कहाँ ठहरेगे? मन, वचन, काय इन तीनोको जो त्याग देता है, इनसे भिन्न केवल शुद्ध ज्ञानास्वरूपमात्र अपनेकी निरखता है तो इस भेदके अभ्याससे इस जीवको मुक्ति होती है।
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भ्रममें अशांति व अस्थिता - भैया ! जब तक भ्रम लगा है तब तक चैन नही हो सकती। कोई कितना ही प्रिय मित्र हो, किसी प्रवृत्तिको देखकर भ्रममे यह बात बैठ जाय कि अब अमुक तो मेरे विराध मे है, तो इस विरोध मान्यताकी भावनासे यह बेचैन हो गया। विरोध उपयोगमें पड़ा हुआ है इसलिए उस मित्रकी सारी चेष्टाएँ विरोधरूप दीखती है, इससे विराध भावना और बढ़ जाती है, चैन नही मिलती है भ्रममे। फिर यहाँ तो आत्मा का भ्रमहो गया, पूरा मिथ्या आशय बन गया है। जो मैं नही हूँ उसे मानता है कि यह मैं हूँ| बस इस आशय से ही क्लेश हो गया, किसी एक बात पर थमकर ही नही रहता यह मोही जीव। किसी को अपना मानता है तो उस ही को अपना मानता रहे, देखो किसी दूसरे को अपना न माने, जरासी दृढ़ता कर ले, पर मोहमें यह भी दृढ़ता नही रहती है। सच बात हो तो दृढ़ता रहे। झूठ बातपर टिकाव कैसे हो सकता है?
पर्यायमें मोहकी अदल बदल - यह मोही जीव इस देहको आत्मा मानता है तो देखो इस देहकी ही आत्मा मानते रहना, फिर कभी हट न जाना अपनी टेकसे। अहो हट जाता है टेकसे। मृत्यु हुई, दूसरा शरीर धारण किया, अब उस शरीर को अपना मानने लगा। आज कैसा सुडौल है, अच्छे नाक, आँख, कान है और मरकर मगरमच्छ बन गये तो उस धावाथूल शरीरको ही अपना सर्वस्व मानने लगा। जीव मै वही हूँ। अब जिस पर्यायमें गया उसको ही मैं माना। इस मनुष्यको ये भैसा, बैल, सूकर, कूकर आदि न कुछसे विचित्र मालूम होते है बेढगे कहाँसे हाथ निकल बैठे, और कैसा पूरे अंगोसे चल रहे है। सब बेढ़गे मालूम होते है, सम्भव है कि इन सूकर, कूकर, गाय, भैसोको भी यह मनुष्य बेढंगा मालूम होता होगा। जिसको जो पर्याय मिली है उसको वह अपनी उस ही पर्यायको सुन्दर सुडौल ढगंकी ठीक मानता है, उसके अतिरिक्त अन्य देह आकार ढांचे तो बेढंगे मालूम होते है।
कुटेव में स्थिरता व शांति का अभाव - यह जीव किसी एक बातपर थमकर ही नही रहता। चाहे तुम धनको प्रिय मानते हो, सर्वस्व मानते हो तो मानते ही रहो, देखो टेकसे हट मत जाना। लेकिन अपने शरीर में कोई व्याधि हो जाय या कुटुम्ब के लोग कोई विपत्ति में पड़ जाये तो उस ही धनको बुरी तरह खर्च कर डालते है। यह टेक नही निभा पाता, किसी भी चीज में स्थिर नही हो पाता। यह अनेक इन्द्रियविषयसाधनोको ग्रहण कर करके डोलता है, दुःखी रहता है। यह जीव संसारमें तब तक भ्रमण करता रहता है जब तक मन, वचन, कायको यह मैं ही हूँ ऐसी प्रतीति रखता है।
भेदप्रयोग - भैया ! यह भ्रमबुद्वि दूर हो, शरीर मै नही हूं ऐसी प्रतीति करे, छोड़ा तो जा सकता है शरीरका ध्यान, न शरीर को ज्ञानमें ले। यह जाननहार ज्ञान स्वंय क्या है, इसका स्वयंका स्वरूप क्या है, यह बुद्वि लायें तो क्या लायी नही जा सकती? छोड़ दो इस शरीरका विकल्प। वचनोंका भी विकल्प त्यागा जा सकता है। पर कायके विकल्पसे कठिन वचनका विकल्प है। ये दोनो भी त्यागे जा सकते है, पर मनका विकल्प सबसे कठिन है।
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कायके विकल्पसे कठिन वचनका किकल्प और वचनके विकल्प से कठिन मनका विकल्प है। कुछ-कुछ ध्यान में तो बनाया जा सकता है। शरीर मै नही हूं। कोई जाननहार पदार्थ मै हूँ, वचन भी मै नही हूं, कोई ज्ञान प्रकाश मै हूँ, पर चित मन जो अंतरंग इन्द्रिय है, जिसका परिणमन ज्ञानविकल्पमें एकमेक चल रहा है उस मनसे न्यारा ज्ञानप्रकाश मात्र मैं हूँ, ऐसा अनुभव करना कठिन हो रहा है। लेकिन यह मनोविकल्प जिसके कारण सहज आत्मतत्वका अनुभव नही हो पाता है यह भी भ्रम है, मनोविकल्पका अपनाना यह भी कष्ट है जो जीव कायसे, वचनसे और मनसे न्यारा अपने आपको देखता है, वह संसारके बंधन से छूटकर मुक्तिको पाता है।
विभक्त आत्मस्वरूपकी भावना - इन जीवोको यहाँकी बातें बहुत बड़ी मीठी लगती है, पर एक बार सभी झंझटोंसे छूटकर शुद्ध आनन्दमें पहुंच जाय तो यह सबसे बड़ी उत्कृष्ट बात है। जो सदाको संकटोसे छुटानेका उपाय है उस उपायका आदर किया जाय तो यह मनुष्य जीवन सफल है, अन्यथा बाहृा में कुछ भी करते जावो, करता भी यह कुछ नही है, केवल विकल्प करता है। कुछ भी हो जाय बाहा पदार्थमें किन्तु उससे इस आत्माका भला नही है। समस्त प्राणियोको मन, वचन, कायके संयोगसे ही दुखसमूहका भाजन बनना पड़ा है। अब मैं मनसे, वचनसे, कायसे अर्थात् बड़ी दृढता से इन सबका परित्याग करता हूं, और मैं केवल ज्ञानानन्दस्वरूपमात्र हूं इस अनुभवमें बसूंगा, ऐसा ज्ञानी यथार्थ चिन्तन कर रहा है और अपने आपको सर्व विविक्त केवल ज्ञानानन्दस्वरूपमात्र अनुभव करता है।
न मे मृत्युः कुतो भीतिर्न में व्याधिः कुतो व्यथा।
नाहं बालो न वृतोऽहं न युवैतानि पुद्गले ।।29 ।। ज्ञानी के मरणभयका अभाव – मेरे मृत्यु नही है, फिर मेरे भय कहाँसे पैदा हो? जब मेरे मे व्याधि ही नही है तो व्यथा कहाँ से बने? मैं बालक नही, वृद्ध नही और जवान भी नही हूं। ये सब दशाये पुद्गलमें होती है।
ज्ञानीके मरणभयका अभाव - जिस जीवको अपने चिदानन्दस्वरूप आत्मतत्वका निश्चय हो जाता है उस जीवके मृत्यु नही होती है। ये बाहा प्राण, इन्द्रिबल, कायबल, आयु, श्वासोच्छवस मिट जाते है, परन्तु मैं नही मिटता। ये विकारभाव है। लोकमें इन प्राणोके वियोग का नाम मरण कहा है किन्तु वास्तवमें प्राणोके दूर हो जानेपर उसका विनाश नही होता है। मैं मृत्युरहित हूं। शरीर मुझसे भिन्न है, विपरित स्वभाव वाला है। यह मै परमार्थ चैतन्यतत्व हूं। इसका कभी विनाश नही है, शरीरका विनाश है। शरीर का वियोग शरीर का बिछुड़ना शरीरकी स्थिति है, जीवकी नही है। आत्माका स्वरूप आत्मा का प्राण ज्ञानदर्शन है, चैतन्यस्वरूप है, उसका कभी भी अभाव नही होता है, इस कारण जीवका कभी मरण ही नही है, यह निर्भय निःशक रहता हुआ अपने स्वरूपका अनुभव कर रहा है।
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मरण नाम है आगे जन्म होनेका। नवीन जन्म लेनेका नाम मरण है। जिसका नवीन जन्म नही होता ऐसे अरहंत भगवानका मरण भी नही कहा जाता है। उसका नाम है निर्वाण । जिसके बाद जन्म हो उसका नाम मरण है। इस आत्माका न कभी जन्म है न कभी मरण है। अपने सहजस्वरूपको दृष्टिमें लेकर चिन्तन करिये। यह शरीर जिसमें बँधा हुआ है। यह शरीर मेंरा साथी नही है, मेरा कुछ भी आत्मतत्व नही है। शरीरकी बात शरीरमें है, मेरी बात मुझमें है। यह मै आत्मा शुद्ध चिदान्द स्वरूप प्रभुकी तरह प्रभुतासे भरा हुआ हूं। स्वरसतः अनन्त चतुष्टयात्मक आत्मसमृद्विसम्पन्न मैं आत्मा हूं। इसमें कहाँ भय है?
मोहियोका विकट भय - सबसे विकट भय जीवको मरण का रहा करता है। कोई पुरानी बुढ़िया जो रोज-रोज भगवान का नाम इसलिए जपे कि भगवान मुझे उठा ले अर्थात् मेरी मौत हो जाय, होगा कोई दुःख। और कदाचित् सांप सामने आ जाय तो वह अपने छोटे पोतोको पुकारती है कि बेटा बचावो सांप आया है, और बेटा अगर कह दे कि तुम तो रोज भगवानका नाम जपती थी भगवान मुझे उठा ले, सो भगवानने ही भेजा है यह, अब काहेको बुलाती है हमें? लेकिन मरणका भय सबको लगता है।
आत्मज्ञानमें भयका अभाव - जो तत्वज्ञानी पुरूष है, जो जानते है कि यह शरीर नही रहा, यह धन वैभव सम्पदा नही रही, लोगोमें मेरी उठा बैठी न रही तो क्या है, ये तो सब मायास्वरूप है। मै आत्मा सत् हूं, मेरा सुख दुःख आनंद सब मेरी करतूतके आधीन है, यहाँके मकान सम्पदा मेरे आधीन नही है। यों आत्मतत्वका चिन्तन हो तो उसे भय नही रहता। भयकी चीज तो यही समागम है। जिसके पास वैभव है उसको भय है, जिसके समीप कोई वैभव ही नही है भले ही वही अन्य जातिका दु:ख माने, पर उसे कुछ भय तो नही है। न चोरका, न डाकूका, न किसीका छलका, कोई प्रकारका उसे डर नही है। बाहा चीजोसे निर्भयता नही आती है किन्तु आत्मज्ञानके बलसे निर्भयता प्रकट होती है। क्या है, न रहा यह तो क्या बिगड़ गया? इससे भी बहुत अच्छी जगह है दुनिया में। यहाँ न रहा
और जगह पहंच गया, क्या उसका बिगाड है? यों जो अपने शद्वसत्व का चिन्तन करता है उस तत्वज्ञानी पुरूषको भय नही होता।
वस्तुके प्राणभूत स्वरूपका विनाश – मेरा प्राण मेरा ज्ञान दर्शन है, मेरा चैतन्यस्वरूप है। प्राण उसे कहते है कि जिसके वियोग होनेपर वस्तु खत्म हो जाय। जैसे अग्निका प्राण गर्मी है। गर्मी निकल जाय तो अग्नि खत्म हो जाती है, उसका सत्व ही नही रहता है। ऐसा मेरा कौनसा प्राण है जिसके निकलनेपर उसका सत्व नही रहता है? यद्यपि ऐसा होता नही। जिस पदार्थका जो सत् है वह तीन काल भी नही छूटता है। अग्नि तो कोई पदार्थ है नही, वह तो पुदगल पर्याय है। अग्नि तो परिणति है। परिणतिका वस्तुतः क्या प्राण बताये? पदार्थका प्राण बताया जाता है, मेरा कभी भी मिट नही सकता, इस कारण यह मैं आत्मा अमर हूँ। क्या मेरे भय है?
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ज्ञानी देहव्यथाका अभाव - ज्ञानी पुरूषको शारीरिक पीड़ाकी भी शंका नही रहती है। मैं आत्मा आकाशवत अमूर्त निर्लेप ज्ञानानन्द प्रकाशमात्र हं, इस मुझ आत्मामें व्याधि कहाँ है? यहाँ कोई ऐसा सोच सकता है कि जब तबियत अच्छी होगी तब यह बात कही जाती। जरा सिरदर्द हो जाय या कुछ बात आ जाय फिर यह बात भूल जाती है, भूल जावो, फिर भी जिसे तत्वज्ञान है, वह व्याधियोके समयमें भी आकुलित नही होता है, सब आपदाओको धीरतासे सहन करता है, और जिनके तत्वज्ञानकी परिपूर्णता है उनको यह भी विदित नही हो पाता कि इस शरीरपर कोई बैठा भी है। यह शरीर मुझसे पृथक् है। यह मैं आत्मा जब शरीरकी और दृष्टि देता हूं तो इस शरीर की व्यथाएँ मुझे विदित होती है अन्यथा नही। मेरे कोई व्यथा नही है। मैं आनन्दमग्न हूं।
आत्मामें देह दशाओका अभाव – मै बालक नही हूं, वृद्व नही हूँ और जवान भी नही हूं। किसका नाम बालक है? शरीरकी ही प्रारम्भिक अवस्थाको बालक कहते है। यह बालपन पुद्गलमें ही हुआ। आत्मा तो ज्ञानानन्दस्वरूपमात्र है। शरीरकी जो मध्यम परिस्थिति है उसे जवानी कहते है, यह जवानी शरीर में होती है शरीर का धर्म है। आत्माका तो गुण है नही। शरीर की ही परिपक्वदशा व उत्तरदशा बुढ़ापा कहलाता है। यह बुढ़ापा भी मुझे आत्ममामें नहीहै। यह मैं आत्मा तो केवल ज्ञानानन्दस्वरूपमात्र हूं। इस प्रकार यह ज्ञानी पुरूष मिले हुए सव समागमो को अपने से पृथक निहारता है। जब आत्माको यह निश्चय हो जाता है कि तू चेतन हे, ज्ञान दर्शनआदिक गुणोका अखण्डपिण्ड है तो इस ज्ञान आदिक गुणोका कभी विनाश नही होता, ऐसी दृष्टि बनती है यही तो मेरी आत्मनिधि है। जो मेरे स्वरूपमें है वह कभी मिट न सकेगा, जो मुझमें है वह मुझसे कभी अलग होता नही जो मुझमं नही है वह कभी मुझमें आता नही हे।
परपदार्थका आत्मामें अत्यन्ताभाव - दृश्यमान समस्त परिणतियाँ दृश्यमान समस्त पदार्थ तेरे कुछ नही है, न तू उनका कभी हुआ है और न कभी हो सकता है परसे तू त्रिकाल भिन्न है। है उदय पुण्यका, ठीक है, किन्तु क्या वैभव में तू एकमेंक बन सकता है? तू तू ही हे, अन्य अन्य ही है। कर्मोदयवश कुछ दिनो का यह साधन संयोग बन गया है। जैसे सफर करते हुए किसी सराय में एक जगह ठहर जाते है। अन्य अन्य देशो से आये हुए कुछ पुरूष, पर वे कुछ समय के लिए ही ठहरे है, एक दूसरे का जो संयोग बन गया है वहाँ वह कुछ समय के लिए ही बना है। कुछ समय ही बाद अथवा प्रातःकाल होते ही सब अपने-अपने अभिमत देशोको चले जाते है। रास्ता चलते हुए सराय में मनुष्य रात भर ही टिकते है, दिनको नही रहते है, प्रातः काल हुआ कि रास्ता नापने लगते है। ऐसे ही यहाँ कुछ समय का मेल है, मोही जीव इस कुछ समय के मेंलमें ही ऐसी कुटेव ठान लेते है कि यही तो मेरे सब कुछ हैं। मेरा मरना जीना इन्हीके लिए तो है ऐसा मोह भाव बसाकर अपने आपको दुर्गतिका पात्र बना लेते है।
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नीरोग ज्ञानस्वरूपका चिन्तन - शरीर में नाना रोग होते है। वे शरीरके विकारसे होते है। वात, पित्त, कफ - ये तीन जो उपधातुये है, इनका जो समान अनुतापसे रहना है उसमें भंग हो जाय, विषमता आ जाय तो इस शरीरमें रोग पैदा हो जाता है। यह शरीर ही मै नही हूं तो मै रोगका क्या अनुभव करूँ ? ज्ञानी पुरूष निरन्तर निज ज्ञानस्वरूपका ही चिन्तन करते है।
धन जीवनविषयक मोहके अभावमें कर्मफलका अननुभव – जगत के जीवोको ये कर्म सता रहे है। केवल दो बातों पर ये कर्म सता रहे है। यदि उन दो बातों का मोह न रहे तो फिर कर्मोका सताना ही कुछ न ठहरे। वे दो बातें है धन और जीवन। जीवनका लोभ ये दो लोभ है तब कर्म सता रहे है, न रहे ये तो कर्म क्या सतायेगे? जैसे कोई पक्षी कहींसे कुछ खानेकी चीज चोंचमें ले आये तो उसे देखकर बीसो पक्षी उस पक्षी के ऊपर टूट पड़ते है। वह पक्षी अपनी जान बचानेको तरसने लगता है। अरे क्यों दुःख मानता है वह पक्षी? जो चोंचंमें लिए है उसको चोंच से निकालकर बाहर फेंक, फिर कोई भी पक्षी उसे न सतायेगा। ऐसे ही इस जीव ने धन और जीवन इन दोनोसे राग किया है ये सदा काल तक जीते रहना चाहते है और धन सम्पदाकी कुछ सीमा भी नही बनाना चाहते। लखपति हो जाय तो करोड़पतिकी आशा, करोड़पति हो जाय तो अरबपतिकी आशा। जो आज बहुत बड़े धनी है उनको अब जरूरत भी कुछ नही है। तो धर्मसाधनामें क्यो नही जुट जाते? तष्णा लगी है तब तक ये कर्म सताने वाले बनते है। ये दो बातें ही न रहे,, न धनकी तृष्णा भावे और न जीवनका लोभ करे, फिर कर्मका सताना ही क्या रहेगा?
ज्ञानीकी ज्ञान से अविचलितता – भैया ! कुछ यथार्थ ज्ञान तो करो जीऊं तो जीऊ तो क्या? मै आत्मा तो अमर हूं। इसका प्राण तो ज्ञान दर्शन है। उसका कभी वियोग नही होता। क्या क्लेष है? मेरा धन तो मेरा स्वरूप है वह कही नही जाता। धन जाय तो जाय क्या क्लेश है, यों धन और जीवन दोनो का मोह छोड़ दे तो फिर कर्म क्या कर सकते है? जब हम स्वंय ही कमजोर है, उपादान निर्बल है तो अनेक दुखी होनेके निमित्त मिल जायेगे। जब आत्मा बलिष्ठ है, ज्ञानबल जागरूक है, अपने शुद्ध स्वभावी परख है, उसका ही ग्रहण हो रहा है तब सारा जगेत भी प्रतिकूल हो जाय कोई कुछ भी बातें कहें क्या असर होता है इस ज्ञानीपर। यह ज्ञानी पुरूष तो जो अपने उपयोगमें कर्तव्य निश्चित कर चुका है उस कर्तव्य से विचलत नही होता है।
संसार व्यवहार का वैचित्रय - यह संसार बड़ा विकट है। कोई पुरूष अधिक बात बोले तो लोग कहते है कि यह बड़ा बकवादी है, यदि कुछ बात न बोले, चुप रहे तो लोग कहते है, कि यह बड़े गुरूर वाला है, किसी से बोलता नही है। कोई मधुर बात बोले तो लोग कहते है कि यह जबान का मीठा है पर अंतरंग में मिठाई नही है, कोई कठोर वचन बोले तो कहते है कि इसे बोलने का कुछ भी सहूर नही है। यह तो लट्ठमार वचन बोलता
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है, कुछ कर्तव्य न करे तो लोग कहेगे कि यह बड़ा कायर है, यह कुछ करता ही नही है, कुछ करे तो लोग कहेंगे कि यह सब विपरीत कार्य करता है। अरे संसार मे जो कुछ भी कार्य किया जाता है वह सब विपरीत ही तो है? आत्मा की करतूत किसमें है सो बतावो ?
आत्मा की करतूत तो ज्ञाता दृष्टा रहने में है, बाकी तो सब जंजाल है। यहाँ लोगो के निर्णय पर तुम अपना प्रोग्राम रखोगे क्या? इससे पूरा न पड़ेगा। लोग कुछ भी विचारें, तुम अपने आत्मा से न्याय की बात सोच लो और उस पर फिर डट जावो । दूसरो की वोट पर अपने पग बढ़ाने में बुद्धिमानी नही है किन्तु अपने अंतः ईश्वर से आज्ञा लेकर जिस काम को यह उचित समझता हो, स्वपर हितकारी जानता हो उस धुन को लेकर बढ़ते चले जाइए। तुम्हे जो कुछ मिलेगा अपने परिणमन से मिलेगा, इस कारण अपने परिणमन में ही शोधन कर लेना चाहिए कि मुझे किस तरह रहना है?
निःसकंट स्वरूप के अवलम्बन की स्वच्छता में बाधाओ का अभाव - भैया! मुझे किसी प्रकार का संकट नही है। निःसंकट स्वभाव का आलम्बन हो तो फिर क्लेश का कोई अवसर नही आ सकता। मेरे मृत्यु भय नही है, मेरे व्याधि नही है, मेरे व्यथा भी नही है। सर्व अवस्थाओ से शून्य केवल शुद्ध ज्ञानमात्र मै हूँ, ऐसा ज्ञानी जन आपने आपके स्वरूप का निर्णय करते है। जिसे धर्म पालना है, धर्म पालना है, धर्म में प्रगति बढ़ाना है उसे पहिले यह चाहिए कि वह अपने हृदय को स्वच्छ बना ले। काम, क्रोध, मान, माया, लोभ इन विकारो से आत्मा में मलिनता बढ़ती है, पहिले स्वच्छ करिये अपना हृदय। अपने अंतरंग को पवित्र वही बना सकता है जो यथार्थ निज को निज पर को पर जान लेता है। मैं सर्व बाधाओं से रहित हूं, संकटो का मुझ में नाम नही है, ऐसी निःसंकट ज्ञायकस्वरूप आत्मतत्व की श्रद्वा हो, उसमें ही उपयोग को समाया जाय तो सर्व प्रकार के संकट दूर हो जाते है।
___ माया से परे परमज्योति का चिन्तन - जो मिलकर बढ़ जाय और बिछुड़कर घट जाय वह तो सब व्यक्त माया है। जिस वस्तु में मिलन हो रहा है यदि वह सब वस्तु मिलक बढ़ गयी है और बिछुडकर घट जाने वाली है वह सब पुद्गल है। पूरण और गलन की जिसमें निरन्तर वर्तना चल रही है उसको पुद्गल कहते है। पुद्गल के ही संयोग से जीवन, पुद्गल के वियोग से मरण, पुद्गगल के वियोग से ही व्याधि और पुद्गल कहते है। पुद्गल से व्यथा है। यह मैं आत्मा समस्त पुद्गलो से विविक्त केवल ज्ञानानन्दस्वरूपमात्र शाश्वत अंतः प्रकाशमान हूँ, उसे न देखा, न आश्रय किया इसने। उसके फल में अब तक रूलता चला आया हूं| अब मोह को तजे, रागद्वेष को हटावे, अपने आधारभूत शुद्व आत्मतत्व को ग्रहण करे, ऐसा यत्न करने में ही जीवन की सफलता है अन्यथा कितने ही कीड़े कितने ही एकेन्द्रिय जैसे मरते है रोज-रोज वैसे ही मरण कर जाने में शुमार हो जायगी। ज्ञानी पुरूष अपने को सबसे न्यारा केवल शुद्ध ज्ञानानन्दस्वरूप मात्र प्रतीति में ले रहा है
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और इसके अनुभव से इसके लक्ष्य से अपने आप में परमज्योति को प्रकट कर रहा है। यों ज्ञानी ने चिन्तन में इस आत्मस्वरूप का आश्रय लिया है।
भुक्त्वोज्झिता मुहुर्मोहान्मया सर्वेऽपि पुद्गलाः |
उच्छिष्टेष्विव तेष्वद्य मम विज्ञस्य का स्पृहा ।।30 ।। भय के औटपाये - जब तक इस जीव की शरीर और आत्मा में एकमेंक मान्यता रहती है, शरीर को ही यह मै हूं ऐसा समझा जाता है तब तक इस जीव में भय और दुःख होता है। ये जगत के प्राणी जी भी दुःखी है उनमें दुःख का कारण एक पर्यायबुद्धि है। अन्यथा जगत में क्लेश है कहाँ? ये सब बाहा पदार्थ है, कैसा ही परिणमें, हमारा क्या बिगाड़ किया ? कोई भी कष्ट की बात नही है। आज वैभव है, कल न रहा, हमारा क्या बिगड़ गया, वह तो हमसे भिन्न ही था। रही एक यह बात कि अपना जीवन चलाने के लिए तो धन की जरूरत है? तो जीवन चलाने के लिए कितने धन की जरूरत है? तृष्णा क्यों लग गयी है, उसका कारण है केवल दुनिया में अपनी वाहवाही प्रसिद्ध करना, अन्यथा धन की तृष्णा हो नही सकती। धन आए तो आने दो। चक्रवर्तियो के 6 खण्ड को वैभव आता है आने का मना नही हे किन्तु उस वैभव को ही अपना सर्वस्व समझ लेना, इसके बिना मेरा जीवन नही है, यही मेरा शरण है, ऐसे बुद्धि कर लेना, यही विपत्ति की बात है।
ज्ञानी का परिणाम - जब यह जीव इन समस्त बाहा पदार्थो को अहितकारी मानकर, अपने से भिन्न समझकर त्याग कर देता है तब फिर कभी भी ये संताप के कारण नही होते। ज्ञानी पुरूष इसी प्रयोजन के लिए चिन्तन कर रहा है कि मैने सभी पुद्गलो को भोग भोगकर बारबार छोड़ा, अब ये सारे भोग जूठे हो गये, एक ऐसे ही यह जितनी विभूति है धन सम्पदा है ये सब कई बार भोग चुके है और भोग भोगकर उन्हें छोड़ दिया था। भोगकर छोड़े गए पुदगल फिर भोगने में आ रहें है तब ये जूठे ही तो कहलाये। उन भोगो में मुझ ज्ञानी के क्या स्पृहा होना चाहिए?
अनन्ते परिवर्तनो में गृहीत भोग - यह जीव अनादिकाल से पंच परिवर्तन में घूम रहा है। सबने सुना है कि परिवर्तन 5 होते है। छह ढाला में लिखा है यों परिवर्तन पूरे करे। पहिली ढाल के अंत में है। इस प्रकार यह जीव परिवर्तनको पूरा करता है। वह परिवर्तन क्या है? उनका नाम है द्रव्यपरिवर्तन, क्षेत्रपरिवर्तन कालपरिवर्तन, भवपरिवर्तन और भावपरिवर्तन। द्रव्यपरिवर्तनका पहिला स्वरूप देखा-किसी जीवने अगृहीत ही पुद्गल परमाणुओ को, स्कंधोको ग्रहण कर लिया फिर अगृहीत स्कंध ग्रहणमें आया। गृहीत मानते है जिन पुद्गलोको पहिले भोग चुके और अगृहीतके मायने है जिन पुद्गलोको पहिले भोगा न था। यद्यपि ऐसी बात नही है कि कोई पुद्गल ऐसे भी हो जिन्हे पहिले कभी न भोगा था। लकिन परिवर्तन जबसे बताया है तबका हिसाब है। अनन्त बार भोगा हुआ ग्रहणकर ले
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तब बिना भोगा ग्रहणमें आया। यों अनन्त बार फिर भोगा हुआ ग्रहण करे तो फिर बिना भोगा हुआ ग्रहणमें आया। इस तरह बिना भोगा भी अनंन्त बार ग्रहणमें आ चुके, तब भोगा और बिना भोगा मिलकर ग्रहणमें आया। इस तरह बिना भोगा भी अनंत बार ग्रहणमें आ चुकें, तब भोगा और बिना भोगा मिलकर ग्रहणमें आये, इस तरह गृहीत अगृहीत मिश्रका कई पद्वतियोमें ग्रहण बता करके द्रव्यपरिवर्तनकी बात है। उससे सिर्फ यह जानना है कि इस जीवने अब तक संसार के सभी पुद्गलोको अनेक बार भोगा है और भोगकर छोड़ा है।
तृष्णाका आतंक – भैया ! अनन्तो बारका भोगा हुआ व छोड़ा हुआ यह वैभव फिर मिला है तो इसमें तृष्णा फिर बन गयी। भव भव में तृष्णाएँ की, वे तृष्णाएँ पुरानी हुई, जीर्ण हुई, मिट गयी, फिर नवीन तृष्णाएँ बना ली। जैसे पहिले हम आप सभी बच्चे थे, फिर जवान हुए, अब बूढ़े हो रहे है। तो बचपनमें जो दिल होता है, जिस प्रकारकी खुशी होती है वह अब कहाँ है? बचपन में पहिले कुछ विद्या सीखी, स्वर व्यञजन सीखा तो खुश हो गये, समझा कि बहुत कुछ सीख लिया, खूब पढ़ लिया। अब देखो जवानी व्यतीत हो गयी, बूढे हो गए, मरण हो जाएगा। फिर कदाचित् मनुष्य हो गये तो बच्चे होंगे फिर वही स्वर व्यञजन नई चीज मान लेंगे और फिर वही नई उत्सुकता होगी। अच्छा दूसरे भवकी बात छोड़ो, कल भी कुछ आपने खाया था, वही दाल, रोटी, साग, छककर खाया था, तृप्त हुए थे, आज 10 बजे फिर वही दाल, रोटी साक खाया होगा तो कुछ नई सी मालूम हुई होगी। कितने ही बार भोग भोगता जाय यह व्यामोही फिर भी बीच -बीज में जो भोग मिलें, साधन मिले, वैभव मिले तो वे भोग नये-नयें लगतें है।
व्यर्थका अभिमान - भैया! अनेक बार सेठ हो चुके होंगे, आज लाख या हजारका वैभव मिल गया तो वही नया मान लिया। मैने बहुत चीज पायी। और इससे करोड़ो गुणा वैभव पाया और उसे छोड़ दिया। अनेक बार राज्यपद पाया होगा, बड़ी हकमत की होगी पर आज कुछ लोगोमे नेतागिरी मिली यप्त हुए थे, आज 10 बजे फिर वही दाल, रोटी साक खाया होगा तो कुछ नई सी मालूम हुई होगी। कितने ही बार भोग भोगता जाय यह व्यामोही फिर भी बीच -बीज में जो भोग मिलें, साधन मिले, वैभव मिले तो वे भोग नये-नये लगतें है।
व्यर्थका अभिमान - भैया! अनेक बार सेठ हो चुके होंगे, आज लाख या हजारका वैभव मिल गया तो वही नया मान लिया। मैने बहुत चीज पायी। और इससे करोड़ो गुणा वैभव पाया और उसे छोड़ दिया। अनेक बार राज्यपद पाया होगा, बड़ी हुकूमत की होगी पर आज कुछ लोगोमे नेतागिरी मिली या कुछ हुकूमत मिल जाय, थोड़े राज्यमें पैठ हो जाय तो यह बड़ा अभिमान करता है, फूला नही समाता। मैं अब यह हो गया हूं, अरे इससे बढ़-बढ़कर बातें हुई उसके आगे आज मिला क्या है? परन्तु यह मोही कुछ भी मिले उसे ही नई चीज मानता है। क्या प्रकृति है इस जीवकी कि इन भोगोको अनेक बार भोगा है
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फिर भी ये जब मिलते है तो नयेसे लगते है। ज्ञानी पुरूष चिन्तन कर रहा है कि अब उन जूठे भोगो में मुझ ज्ञानीकी क्या स्पृहा हो? अनादि कालसे मोहनीय कर्म के उदयवश सभ पुद्गलोंको मुझ संसारी जीव ने बार-बार भोगा और भोग करके छोड़ दिया। अब कुछ चेत आया है, अब मै विवेकी हुआ हूँ, शरीर आदिकके स्वरूपको भली प्रकार जानकर अब उन जूठे भोजनमें, गधं आदिक पदार्थो मे अब मेरे भोगनेकी क्या इच्छा हो?
आत्मीय आनन्दकी अपूर्वता - भैया ! जब तक किसी को निरूपम आनन्दका अनुभव नही हो लेता तब तक विषयोकी प्रीति नही छूट सकती। इसे तो आनन्द चाहिए। वर्तमान आनन्दसे अधिक आनन्द किसी बातमें हो तो इसे छोड़ देगा, बड़े आनन्द वाली चीज ग्रहण करेगा। मोह दशामें पदपदार्थो की और बुद्वि होने के कारण इस जीवको अपने आत्मस्वरूप्में रूचि नही है और न यह विकल्पोंका बोझा हटाना चाहता है। विकल्पोंका ही मौज मानता है। मोह बढाकर, ममता बढ़ाकर, राग बसाकर यह जीव अपनेको कुशल और बड़ा सुखी मानता है, फिर इसे आत्मीय सत्य आनन्द कैसे प्राप्त हो? जो बड़े स्वादिष्ट पदार्थोका सेवन करने वाला है उस पुरूष को जूठा खाने में कोई अभिलाषा नहीं होती। जूठे पदार्थोको मनुष्य घृणाकी दुष्टि देखते है। तो यो ही यह समझो कि ये रमणीक समस्त पदार्थ अनेक बार भोग लिए गए वे झूठे है। उनमें मुझ ज्ञानीकी क्या इच्छा हो?
स्पर्शनेन्द्रियविषयकी अरम्यता - भैया ! कुछ निर्णय तो करो कि कौनसा विषय ऐसा है जो हितकारी हो, जिसमें रमण करना हो? कोई भी विषय नही है। यह कामी पुरूष कामवासवनाके वश होकर शरीरकें रूपको बहुत रमणीक मानता है। मगर रूप क्या है? अरे थोड़ी सी देरमें नाक निकल पड़े तो बड़ा सुन्दर जंचने वाला रूप भी किरकिरा हो जाता है, घृणा आने लगती है। जिसे जानते है कि यह बहुत अच्छी छवी है, क्रान्ति है, रूप है, सुडौल है, और जरा नाकमल बाहर निकल आये, थोड़ा ओठोसे भिड़ जाय और इतना ही नही, कुछ अंदाज भी हो जाय तो वहाँ फिर रति नही हो सकती। घृणा होने लगती है।
शरीर की असारता - अहो, कर्मोने तो मानो इस अपवित्र मनुष्य शरीरको इसलिए बनाया कि यह जीव विरक्त होकर अपने आत्महितके मार्गमें लगे। भीतर से बाहर तक सारा शरीर अपवित्र ही अपवित्र है। जैसे केलेके पेड़में सार नही रहता, उसे छीलते जावो तो पत्ते निकलते जायेगे, सब खत्म हो जायेगे, पर सारकी बात कुछ न मिलेगी। जैसे वह केले का पेड़ असार है ऐसे ही जानो कि इस शरीर में कुछ सार नही है। अपवित्र वस्तुओंको सबको हटा दो फिर क्या मिलेगा देहमें बहुत अन्दरसे बाहर तक अपवित्रता ही अपवित्रता नजर आती है इस शरीर में। भीतर हड्डी, फिर मांस, मज्जा, खून, चमड़ा, रोम है। कही कुछ भी तत्वकी बात नही मिलती है। यदि कुछ तत्वकी बात मिलती हो तो बताओ, पर मोह का ऐसा नशा है इस जीवपर कि जो असार है, जिस शरीर में कुछ सारकी बात नही
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है, अपवित्र ही अपवित्र है पूरा और फिर भी इस शरीर को निरखकर मोही पुरूष कुछ कल्पना बनाकर मौज मानते है।
नर देहमें जुगुप्सा और असारता - भैया! पृथ्वीमे, वनस्पतिमें इनमें तो कुछ सार मिल जायगा, जितने ये काम आ रहे है पृथ्वी और वनस्पति प्रयोगमें आ रहे है, पर यह मनुष्यका शरीर किसी काम आता है क्या? मर जानेके बाद बड़ी जल्दी जलावो ऐसी लोगोको आकुलता हो जाती है। देर तक मुर्दा न रहे, कोई लोग तो यह शंका करते है कि देर तक मुर्दा रहने से घरमें भूत न बस जाय। कोई अपवित्र दुर्गन्धित वातावरण न हो जाय, इससे डरतें है, उसका मुख भयानक हो जाता है सो उससे डरते है। घरके ही लोग उस मुर्देकी शक्ल भी नही देख सकते है, छुपते है। किस काम आता है यह शरीर, सो बताओ? इस शरीर से भले तो उपयोग की दृष्टि से पृथ्वी और वनस्पति है, इनका फिर भी आदर है, हीरा-जवाहरात, सोना-चांदी ये सब पृथ्वी ही तो है, इनमें भी जीव था, अब जीव नही रहा तो मुर्दा पृथ्वी है, किन्तु इस मृतक पृथ्वी का कितना आदर है? वनस्पतियो में काठ आदि का कितना आदर है, कितनी ही उस पर कलात्मक रचनाएँ की जाती है पर मनुष्य शरीर का क्या होता है, क्या आस्था है इसकी, कौन रखता है इसे?
शरीर की कृतघ्नता – यह शरीर प्रीति के योग्य नही है और फिर अपने आपके शरीर को भी कह लो, यह शरीर भी प्रीति के योग्य नही है, इसे आराम से रखो, कही इसे कष्ट न हो जाय। अरे क्या डरना, जैसे सर्प को दूध पिलाओ तो विष ही उगलेगा ऐसे ही इस शरीर को कितना ही सजाओ, कितना ही गद्दा तकियों पर रक्खे रहो, दूसरे का भी काम न करना पड़े, शरीर पर कितनी ही मेहरबानी करो पर शरीर की और से क्या उत्तर मिलेगा? रोग, अपवित्रता से सारी बाते और अधिक इसमें फैल जाती है और अन्त में यह साथ न जायगा। कितना ही इससे मरते समय लड़ो-अरे शरीर ! तेरे लिए हमने जिन्दगी में बड़े-बड़े श्रम किये, संकल्प विकल्प आकुलता व्याकुलता के कितने ही प्रसंग आये, उनमें मैने तुझे बड़े आराम से रक्खा, तू मेरे साथ तो चल। तो इस जीव के साथ एक कण भी चलता है क्या?
वैभव की असारता - कौन सा ठाठ है ऐसा सारभूत जिसमे इतना रमा जा रहा है? वह वैभव रमने के लायक नही है तिसपर भी कितना इसका बेढंगा नाच है, कितना भी वैभव मिल जाय तो इसे थोड़ा लगता है। मुझे तो यह थोड़ा ही है, हम तो बड़े कष्ट में है, कुछ ढंग से गुजारा ही नही चलता है। ज्ञानी जीव इस वैभव को झूठा समझता है। करने योग्य काम तो निर्विकल्प होकर ज्ञानप्रकाश का अनुभव करना है और सारी बातें मायामयी है, व्यर्थ है, केवल बरबादी के ही कारण है। ज्ञानीपुरूष इन पुद्गल से प्रीति नही रखता है। किस भव में ये विषयभोग नही मिले, सूकर, कूकर, कीट, पंतग जो कुछ भी भव धारण किया क्या उन सब भवों में विषयभोग नही भोगे? इस जीव के लिए खेद की बात यह है
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कि जैसे अग्नि कभी यह नही कहती कि मुझे ईधन अब न चाहिए, अब मैं तृप्त हो गयी हूं। उसमें तो जितना ही ईधन डालो उतनी ही वह बढ़ती चली जायगी, ऐसे ही ये विषयभोग के साधन है, जितने ही भोगविषयो के साधन मिलते जायेगे उतनी ही तृष्णा बढ़ती चली जायगी ।
गुण ग्रहण की भावना भैया ! सच बात तो यह है कि जब तक होनहार अच्छा नही आने को होता है तब तक इस जीव को ज्ञान भी नही जगता, विवेक नही होता । जिसका होनहार ही खोटा है उसको धर्म की रीति से ज्ञान की बात नही रूचती है। वह तो सर्वत्र दोष ही दोष निरखता रहता है। उसके सर्वत्र दोष ही दोष का ग्रहण होगा । धर्मीजनो में कुछ अच्छी भी बात है, पर इस और दृष्टि नही जाती । धर्म खराब है, कुछ जैनियो का उदाहरण दे दिया, अमुक यों है, अमुक यों है । अरे तुम्हें अमुक से क्या मतलब ? धर्म में जो वस्तुस्वरूप बताया है उस स्वरूप का आचरण करके तुम्ही ठीक बनकर उदाहरण बन जावो। धर्म मानने वाले लोगो के दोष निरखकर कौनसी सिद्धि हो जायगी ? तुम उसके गुण देखो, धर्म में क्या गुण है, धर्म में क्या प्रकाश है, यह सिद्वान्त वस्तुस्वरूप को किस प्रकार कह रहा है, उसको निरखो। जब ध्यान में आयगा अहो, ऐसा स्वतंत्र स्वरूप मेरा है ज्ञानानन्दमात्र, आनन्द जगेगा और समस्त झंझटो का परित्याग हो जायगा, समस्त संकट टल जायेंगे। ये भोग-भव में भोगे है। इन भोगे हुए भोगों में मुझ ज्ञानस्वरूप आत्मा की इच्छा क्यों हो? ऐसी भावना ओर आचरण बनाना चाहिए।
कर्म कर्महिताबन्धि जीवो जीवहितस्पृहः ।
स्वस्वप्रभावभूयस्त्वे स्वार्थ को वा न वाञ्छति । । 31 । ।
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कर्म और जीव में अपने - अपने प्रभाव की और झुकाव कर्म कर्मोंके हित की बात करते है और जीव जीव के हित को चाहता है । सो यह बात युक्त ही है कि अपने-अपने को प्रभाव बढ़ाने के लिए कौन पुरूष स्वार्थ को नही चाहता है? इस श्लोक में बताया है कि कर्मों के उदय से होता क्या है? कर्म बँधते है, कर्म कर्मो को ग्रहण करने के लिए स्थान देते है । कर्मों में कर्म बन्धन है। कर्मो से कर्म आगे संतान बढ़ाते चले जाते है। तो इन कर्मों ने कर्मों का कुटुम्ब बनाने की ठानी। और यह जीव, अंतरंग से पूछो इससे कि यह क्या चाहता है? यह अपना हित चाहता है; आनन्द, शान्ति चाहता है। भले ही कोई भ्रम ही जाय और उस भ्रम में सही काम न कर सके, यह बात दूसरी है किन्तु मूल प्रेरणा जीव को जीव के हित की भावना से उठती है। इस जीव ने जीव का हित चाहा और कार्मो ने कर्मो का कुल बढ़ाया सो यह बात लोक में युक्त ही है कि प्रत्येक जीव अपनी अपनी बिरादरी का ध्यान रखता है, कुल को बढ़ाता है। कर्मों ने कर्मो को बढ़ाया, जीव न जीव
का सम्बन्ध चाहा ।
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लोकयुक्तता - संसार में यह बात प्रसिद्ध है कि जो बलवान होता है वह दूसरे को अपनी ओर खीच लेता है। जब कर्म बलिष्ठ होगा तो वह अनेक कर्मो का आकर्षण कर लेगा और जब जीव बलिष्ठ होता तो यह जीव अपने स्वभाव का विकास कर लेगा । अपना-अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए सभी पदार्थ उद्यत है। ये कर्म उदय में आते है तो कर्मो के उदय के निमित्त से जीव में क्रोधादिक कषाये उत्पन्न हाती है और उन कषाय भावों के निमित्त से कर्मो का बन्धन होने लगता है। फिर उनका उदय आता है। जीव के भाव बिगड़े, नवीन कर्म बँधे, इस तरह से यह संतति चलती रहती है। इन कर्मों ने इस प्रकार से कर्मो की संतति बढ़ायी है ।
जीव और कर्म में निमित्त नैमित्तिक सम्बंध होने पर भी स्वतंता जीव में और कर्म में परस्पर निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है । जीव के भाव का निमित्त पाकर कर्मो का बन्धन होता है। अर्थात् कार्माणवर्गणाएँ स्वंय ही कर्म रूप से प्रवृत्त हो जाती है, और कर्मो का उदय होने पर यह जीव स्वंय रागादिक भावों में प्रवृत्त हो जाता है। ऐसा इन दोनो में परस्पर में निमित्त नैमित्तिक सम्बंध है, फिर भी किसी भी पदार्थ का परिणमन किसी अन्य पदार्थ में नही पहुँचता है। जैसे यही देख लो बोलने वाला पुरूष और सुनने वाले लोग इन दोनो को परस्पर में निमित्तनैमित्तिक सम्बंध है। बोलने वाले का निमित्त पाकर सुनने वाले शब्दो को सुनकर और उनका अर्थ जानकर ज्ञानविकास करते है, यो उनके इस ज्ञानविकास में कोई वक्ता निमित्त हुआ और वक्ताको भी श्रोताओ को निरखकर धर्मचर्चा सुनाने की रूचि हुई। ये कल्याणार्थी है ऐसा जानकर वक्ता उस प्रकार से अपना भाषण करता तो यों वक्ता को बोलने में श्रोतागण निमित्त हुए और श्रोतागणो के सुनने और जानने में वक्ता निमित्त हुआ। ऐसा परस्पर में निमित्त नैमित्तिक सम्बंध है । फिर भी वक्ता
श्रोतावो में कुछ परणिमन नही किया और श्रोताओ ने वक्ता में कुछ परिणमन नही किया। ऐसे निमित्तनैमित्तिक सम्बंध का यथार्थ मर्म तत्वज्ञानी पुरूष जानता है।
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निमित्तनैमित्तिक चक्र में जीव का कल्याण - इस निमित्तनैमित्तिक भाव के चक्र में यह जीव अनादि काल से संसार में जन्म मरण करता चला आ रहा है। इस पर कैसी मोहनी धूल पड़ी है अथवा इसने मोह की शराब पी है कि इसे जो कुछ आज मिला है, जिन जीवों का समागम हुआ हे, जो धन वैभव साथ है यह उसको अपना सब कुछ मानता है, यही मेरा है। अरे न तेरे साथ कुछ आया और न तेरे साथ जाएगा। ये तो तेरी बरबादी के ही करण हो रहे है। उनका निमित्त करके, आश्रय करके उनको उपयोग का विषय बनाकर अपनी विभाव परिणति रच रहे है, क्या कल्याण किया उन समागमों के कारण ? कुछ भी कल्याण नही किया, लेकिन यह मोही जीव कूद-कूदकर सबको छोड़कर केवल इने गिने दो चार जीवो को अपना सब कुछ मान लिया। कितना लाखों का धन कमाया, वह किसके लिए है? केवल उन्ही दो चार जीवो के आराम के लिए। उसकी दृष्टि में जगत
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के शेष जीव कुछ नही है। यहाँ कितना बड़ा पागलपन छाया है? दुःखी होता जाता है, और दुःख का कारण जो अज्ञान है, मोह उसे छोड़ना नही चाहता है।
निर्मोहता का आदर - धन्य है वे गृहस्थ जन जो गृहस्थी के सम्पदा के बीच रहते हुए जल में भिन्न कमल की नाई रहते है। यह जो आगम में लिखा है कि ज्ञानी पुरूष जल में भिन्न कमल की तरह रहते है तो क्या कोई ऐसे होते नही है? किनके लिए लिखा है? न रहे जल में भिन्न कमल की भांति, खूब आसक्ति रक्खे तो उससे पूरा पड़ जायगा क्या? मरते हुए जीव को दो चार आदमी पकड़े रहें तो जीव रूक जायगा क्या? अथवा कोई कितनी ही मिन्नते करें कि ऐ जीव! तुम अभी मत जाओं तो क्या वह रूक जायगा? उसका क्या हाल होगा? बहुत मोह किया हो जिसने, वह भी क्या रूक सकता है? मोह का कैसा विचित्र नशा है कि अपने आत्मा की जो निरूपम निधि है, ज्ञानानन्दस्वरूप है उस स्वरूप को तो भुला दिया और बाहृापदार्थो में रत हो गया, समय गुजर रहा है बहुत बुरी तरह से । शुद्ध ज्ञान हो, सच्चा ज्ञान बना रहे तो वहाँ कोई क्लेश हो ही नही सकता। जब यथार्थ ज्ञान से हम मुख मोड़े है और अज्ञानमयी भावना बनाते है तब क्लेश होता है।
__ आत्मप्रभाव के लिए संकल्प - जो कर्मो से घिरा हुआ है, जिस पर कर्म प्रबल छाये है, बडी शाक्ति के कर्म है ऐसे जीव पुनः कर्मो का संचय करते है, और जिनके कर्म शिथिल हो गये, ज्ञान प्रकाश जिनका उदित हो गया है ऐसे ज्ञानी पुरूष ज्ञानानन्दस्वरूप में आनन्दमय निज स्वभाव में स्थित रहा करते है। कर्म कर्मो को बढाये, जीव जीव का ही हित चाहे, ऐसी बात जानकर है मोक्षार्थी पुरूषो! जब कर्म अपनी हठपर तुले हुए है तब हम मुक्ति से प्रीति क्यों नही करते, क्यों संसार की भटकना, क्लेश, इनमें ही प्रीति करते है? कर्मो ने ऐसी हठ बनायी है तो हम अपने स्वभाव विकास की हठ बनावें ना? कर्म या चलते है चले। कर्म क्या करेंगे? कुछ धन नष्ट हो जायगा, या जीवन जल्दी चला जायगा या यश्ज्ञ नष्ट हो जायगा। इन तीन बातो के सिवाय और क्या हो सकता है, सो बताओ?
शुद्ध ज्ञानरूप साहस - भैया ! अन्तरंग में परमप्रकाश्ज्ञ पावो। धन चला जाय तो चला जाय, वह दूर तो रहता ही था और दूर चला गया। कहाँ धन आत्मा में लिपटा है? वह तो दूर-दूर रहता है। यह धन दूर-दूर तो रहता ही था और दूर हो गया। इस घर में न रहा, किसी और घर में चला गया। जो धन है उसका बिल्कुल अभाव कहाँ होगा? जो इस मायामयी दुनिया में अपना झूठा पर्याय नाम नहीं चाहते है उन पुरूषो को यश बिगड़ने का क्या कष्ट होगा ? हाँ अपने आप में कोई दुर्भावना न उत्पन्न हो फिर तो वह मौज में ही है, उसकी शान्ति को किसने छीना है ? ऐसा साहस बनावो कि दो-एक नही, सारा जहान भी मुझे न पहिचाने, अगर अपयश गाता फिरे तो सारा जहान गावे उससे इस अमूर्त आत्मा को कौन सी बाधा हो सकती है ? सत्यमेव जयते। अंत मे विजय सत्य की ही होती है। यदि शुद्ध परिणाम है, शुद्ध भावना है तो इस जीव का कहाँ बिगाड़ है, कर्म क्या करेगे
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? इन तीन पर ही तो ये कर्म आक्रमण कर सकते है। ज्ञानी पुरूष को इन तीन की भी कुछ परवाह नही होती है।
यश अपयश के क्षोभ से विरक्त रहने में भलाई आत्मा का कल्याण तब होता है जब यह समस्त परविषयक विकल्पो को तोड़कर केवल शुद्ध ज्ञानप्रकाशमात्र अपना अनुभव बताता है ऐसा करने में उसने समस्त यश अपयश को छोड़ ही तो दिया। अपयश होने में जो बुराई है वही बुराई यश मे भी है। अपयश से तो यह जीव दुःख मानकर संक्लेश करता है और पाप का बंध करता है और यश होने पर यह जीव रौद्र आशय बनाता है, रौद्रानन्दी बन जाता है, उसमे क्रूरता, बहिर्मुखता बढ़ती जा रही है और उसमें जो संक्लेश हुआ, जो कलुषता बनी, बहिर्मुख दृष्टि बढ़ी, उनके निमित्त से जो कर्मो का बंध हुआ उनके उदयकाल में क्या दुर्गति न होगी ? जितना बिगाड़ अपयश से हे उतना ही बिगाड़ यश से है। अज्ञानी जीव को तो सर्वत्र विपदा है। वह कही भी सुख शान्ति से रह ही नही सकता । ज्ञानी जीव को सर्वत्र शान्ति है, उसे कोई भी वातारण स्वरूप से विचलित नही कर सकता है, अज्ञानी नही बना सकता है।
मूढ़ता में क्लेश होने की प्राकृतिकता पर दृष्टान्त – कोई उद्दण्ड पुरूष हो और उसे हर जगह क्लेश मिले तो उसका यह सोचना व्यर्थ हे कि अमुक लोग मेरे विलोधी है और मुझे कष्ट पहुँचाते है। अरे कष्ट पहुँचाने वाला कोई दूसरा नही है। खुद ही परिणाम बिगाड़ते है और कष्ट में आते है। कोई एक बुद्विहीन मूर्ख पुरूष था। उसे लोग गाँव में मूरखचंद बोला करते थे। वह गाँव वालो से तंग आकर घर छोड़कर गाँव से बाहर चला गया, रास्ते में एक कुँवा मिला, वह उस कुंवे की मेड़ के ऊपर कुंवे में पैर लटकाकर बैठ गया। कुछ मुसाफिर आए और बोले कि अरे मूरखचंद कहाँ बैठे हो ? तो वह पुरूष उठकर उन मुसाफिरो के गले लगकर बोलता है भाई, और भई सो भई पर यह तो बताओ कि तुमको किसने बताया कि मेरा नाम मूरखचंद है ? मुसाफिर बोले कि हमको किसी ने नही बताया, तुम्हारी ही करतूत ने बताया कि तुम्हारा नाम मूरखचंद है।
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क्लेश का कारण मोह इस संसार में जो जीव दुःखी है वे मोह की उद्दण्डता से दुःखी है, किसी दूसरे का नाम लगाना बिल्कुल व्यर्थ है कि अमुक ने मुझे यो सताया । व्यर्थ की कल्पनाएँ करना बेकार बात है। मैं स्वयं ही अज्ञानी हूँ इस कारण अज्ञान से ही क्लेश हो रहे है। संसार की स्थिति किसी ने अब तक क्या सुधार पायी है? बड़े- बड़े महापुरूष हुए जिनके नाम के पुराण रचे गए है, पुराणो मे जिनका नाम बड़े आदर से लिया जाता है उन्होने भी तो स्वांग रचा था, घर बनवाया, गृहस्थी बसायी, बाल बच्चे हुए, राजपाठ हुआ, युद्ध भी किया, सारे स्वांग तो रचे उन्होन भी, क्या संसार की इस स्थिति को पूरा कर पाया ? वैसी ही चलती गाड़ी बनी रही। कुछ दिन घर रहे, फिर छोड़ा कोई तप करके मोक्ष गए, कोई स्वर्ग गए, कोई बुरी वासना में मरकर नरक गए। सबका विछोह हुआ, लो कही का
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ईट कही का रोड़ा। जोड़ा तो बहुत था पर अंत में सब कुछ बिछुड़ गया। क्या किसी ने पूरा कर पाया?
व्यर्थ की चिन्ता - सब व्यर्थ की चिन्ता मचा रक्खी है मोही प्राणियो ने। मुझे इतनी जायदाद मिल जाय, मैं इस ढंग का कार्य बना लूं फिर तो कुछ चिन्ता ही न रहेगी। अरे भाई जब तक पर्याय मूढ़ता है तब तक बेफिक्र हो ही नही सकते। एक फिक्र मिट गई तो उसकी सवाई एक फिक्र और लग जायगी जिसमें उस फिक्र से भी ड्योढ़ी ताकत बनी हुई है। कहाँ तक मिटावोगे ? फिक्र तो तब मिटेगी जब फिक्र की फिक्र छोड़ी जाय। जो होता हो हाने दो। कर भी क्या सकता है कोई इसमें? उदय होगा तो स्वतः ही अनुकूल बुद्धि चलेगी, स्वतः संयोग मिलेगा और वह कार्य बनेगा। कौन करने वाला है किसी दूसरे का कुछ। यह मनुष्य जीवन बाहरी विभूतियों के संचय के लिए नहीं पाया है। अपना उददेश्य ही कर लो। जो उस पर चेलगा अर्थात सत्य मार्ग पर चेलगा उसी को ही फल मिलेगा। धर्म का पालन इसी को ही कहते है।
सपद्वति ज्ञानप्रयोग का अनुरोध - भैया! केवल पूजन स्वाध्याय का सुनना या अन्य प्रकार से धर्म पालन को शौक निभाना इतने मात्र से काम नही चलता किन्तु कुछ अपने में अन्तर लाये, कुछ ज्ञानप्रयोग करे, जो कुछ सुना है, समझा है , जाना है उसको किसी अंश में करके दिखाये। किसे दिखाये ? दूसरे को नही। अपने आपको दिखा दे। जो बात धर्म पालन के लिए बतायी गई है वहाँ धर्म है, केवल रूढ़िवाद मे क्या रखा है। कोई एक सेठ था, रोज शास्त्र सुनने आता था। एक दिन देर में आया तो पंडित जी ने पूछा - सेठ जी आज देर से क्यों आए ? सेठ जी बोले - पंडित जी वह एक जो छोटा मुन्ना है ना, 10 वर्ष का, वह भी हठ करने लगा कि मैं भी शास्त्र सुनने चलूंगा। फिर जब बहुत उसे मनाया, आठ आने पैसे देकर सनीमें का टिकट कटाया, उसे भेजा तब यहाँ आ पाये। पंडित जी बोले - सेठ जी बच्चा भी आ जाता, शास्त्र सुन लेता तो क्या नुकसान था? तो तो सेठ जी कहने लग – पंडित जी! तुम तो बहुंत भोले हो। हम शास्त्र सुनने की विधि जानते है कि शास्त्र सुनने की क्या विधि है। अपने कुर्ता में, चद्दर मे सब धरते जाना फिर चलते समय उन सब कपड़ो को झटककर जाना। यह है सुनने की विधि। तो हम तो जानते है कि शास्त्र कैसे सुना जाता है, पर वह 10 वर्ष का बच्चा जिसे सुनने की विधि भी नही याद है, वह कही शास्त्र सुनने से विधि के खिलाफ हृदय में धारण कर ले और कुछ ज्ञान वैराग्य जगे, घर छोड़ दे तो हम क्या करेगे ? तो भाई यह शास्त्र सुनने की विधि नही है।
कार्य की प्रयोगसाध्यता - भैया! जो करना हो अपनी कुछ शान्ति का काम तो अन्तर में कुछ प्रयोग करना होगा। बातों से तो काम नही चलता। कोई मनुष्य प्यासा हो और वह पानी-पानी की 108 बार जाप जप ले तो कही पानी तो पेट में न आ जायगा,
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प्यास तो न मिट जायगी। ऐसे ही शान्ति आती है शुद्ध ज्ञान से। शुद्ध ज्ञान का प्रकाश हो वहाँ शान्ति है, हम ज्ञानप्रकाश को ही न चाहें और वही ममता तृष्णा वही कषाय निकलती रहें तो धर्म पालन कहाँ हुआ? वह तो केवल बात ही बात है।
कषायपरित्याग से शान्ति का उद्भव – अनन्तानुबंधी क्रोध बताया है जहाँ धर्म के प्रसंग में भी क्रोध आए। और जगह क्रोध आए वह उतना बुरा नही है। अनन्तानुवंधी मान बताया है कि धर्मात्माजनों के सामने अपना अभिमान बगराये। और जगह अभिमान करे वह प्रबल अभिमान नही कहलाता मगर धर्मात्माजनो के समक्ष भी अपना मान करे। मंदिर में आये तो हाथ जोड़कर नमस्कार करने तक में भी हिचकिचाहट हो या अन्य साधु संतो के प्रति, सधर्मी जनो के प्रति धर्म के नाते से धर्मीपन को दिखने के कारण अभिमान कोई बगराये तो उसे अनन्तानुबंधी मान कहते है। धर्म के मामले में कोई माया करे, छल, कपट करे तो उसे अनन्तानुबंधी माया कहते है, और धर्म के ही प्रसंग में कोई लोभ करे तो उसे अनन्तानुबंधी लोभ कहते है। जहाँ अनन्तानुबंधी कषाय वर्त रही हो वहाँ आनन्द के स्वप्न देखने से आनन्द का काम कैसे पूरा किया जा सकता है ? इस तत्वज्ञान की बात को हृदय में धरे और विवेकियो से उपेक्षा करे तो यह जीव अपना प्रभाव बढ़ा सकता है और कल्याण कर सकता है।
परोपकृतिमुत्सृज्य स्वोपकारपरो भव।
उपकुर्वन्परस्याज्ञो वर्तमानस्य लोकवत् ।।32 ।। स्वोपकार का ध्यान - हे आत्मन् ! तू परोपकार को छोड़कर स्वोपकार में रत रह। अज्ञ लोक की तरह मूढ बनकर दृश्यमान शरीर आदि परपदार्थो में उपयोग को क्यों कर रहा है? इस श्लोक में शब्द तो ये आये है कि तू परके उपकार को तज दे और अपने उपकार में लग। यह सुनने में कुछ कटु लग रहा होगा कि पर के उपकार की मनाही की जाती है। पर के मायने है शरीरादिक बाहापदार्थ। तू शरीर का, धन वैभव का उपकार करना छोड़ दे और आत्मा जिस तरह शान्ति सन्तोष में रह सके वैसा उपकार कर। जैसे कोई मूढ अज्ञानी शत्रु को मित्र समझकर रात-दिन उसकी भलाई में लगा रहता है। उसका हित हो, अपने हित अहित का कुछ भी ध्यान नही रखत है। भ्रम हो गया। है तो शत्रु पर मान लिय मित्र। कोई मायाचारी छली कपटी पुरूष है और उसका इतना मीठा बरतावा है कि हमने उसको अपना मान लिया। अब अपना मानने के भ्रम से उसके उपकार में बुद्वि रहती है। पर क्या वह हित कर देगा, क्या हानि कर देगा? इस और यह ध्यान नही रखता है। उसके हित की साधना में ही अपना सर्वस्व सौपं देता है।
तत्वज्ञान से स्वोपकार की रूचि - जब इसको यह परिज्ञान हो जाता है कि मेरा मित्र नही है, शत्रु है, तभी से यह मनुष्य उसका उपकार करना छोड़ देता ह। यो ही यह
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शरीर जीव का शत्रु है। जीव का अहित इस शरीर के कारण हो रहा है अतएव यह शरीर शत्रु की तरह है लेकिन मोह में इसने मान लिया मित्र । यह शरीर मेरा बड़ा उपकारी है इतना भी भेद नही करता कि शरीर है सो मै हूं। मुझे अपना काम करना है, शरीर का काम करना है, यह भी नही किन्तु उसे आत्मा स्वीकार कर लिया और उस पर के उपकार में यह मोही जीव लग गया है। सो जहाँ यही कहा गया है कि प के उपकार को तज, निज के उपकार में लग। जिन प्रसंगो में अन्य जीवो का उपकार किया जा रहा है वहाँ भी यह जीव यदि यह ध्यान रख रहा है कि मैं इस पर का उपकार का काम कर रहा हूं तो भी उसने गलती की। उसने पर माना है इस शरीर को तो वह भी जड़ के काम करता है।
परमार्थतः पर के उपकार की अशक्यता - जो ज्ञानी पुरूष है वह अन्य जीवों का उपकार करके यह ध्यान में लेता है कि मैनें किसी पर का उपकार नही किया है, किन्तु अपने ही आत्मा को विषय कषायो से रोककर अपना भला किया है। कोई जीव वस्तुंत किसी पर का उपकार कर ही नही सकता है। प्रत्येक जीव अपना ही परिणमन कर पाते है। जो जीव वस्तुस्वरूप से अबभिज्ञ है उन्हें शान्ति संतोष किसी क्षण नही मिलता है क्योकि शान्ति का आश्रय जो स्वंय है जिसके आलम्बन से शान्ति प्रकट होती है, उसका पता नही है तो बाहर ही में किसी परपदार्थ में अपनी दृष्टि गड़ायेगा । होगा क्या कि पर तो पर ही है, उनमें दृष्टि अपनी रखने से बहिर्मुख बनने से स्वंय रीता हो गया। अब इसे कुछ शरण नही रहा। जो तत्वज्ञानी पुरूष है वे जानते है कि मेरा स्वरूप ही मेरा शरण है । उन्हें किसी भी पदार्थ में, वातावरण में, स्थिति में विहलता नही होती है । वे सर्वत्र स्वतंत्र वस्तु का स्वरूप निरखते रहते है ।
शब्दजाल से आत्मा का असम्बन्ध - सारा जहान यदि प्रशंसा करे, यश करे तो भी उन प्रशंसा के शब्दो से ज्ञानी के चित्त मे क्षोभ नही होता है । क्योकि वह देख रहा है कि ये सब भाषावर्गणा के परिणमन है, इन शब्दो का मुझ आत्मा में रंच प्रवेश नही है और न कुछ परिणमन ही कर सकते है । ऐसी स्वतंत्रता का भान होने से यह तत्वज्ञानी जीव प्रंशसा के शब्दो को सुनकर भी क्षोभ नही लाता है । हर्ष भी एक क्षोभ है। जो लोग प्रशंसा सुनकर मौज मानते है वे बहिर्मुख बनकर कषाय कर्मकलंक अपने में बरसाते है, उसका फल दुर्गतियो में भ्रमण करना ही है। कौन से शब्द इस जीव का क्या कर सकेगे ? न इस भव में ये सब सहायक है और न पर भव में सहायक है। लोग आज भी ऐसा कहा करते है कि पुराने जो महापुरूष हुए है कृष्ण, महावीर आदि, हम उनके शब्दो का रिकार्ड कर ले, लेकिन जो शब्द परिणत हो जाते है । वे दूसरी क्षण में उस पर्यायरूप मे नही रहते है। वे रिकार्ड कहाँ से हो सकेंगे? ऐसे ही ये शब्द जब कहने के बाद ही समाप्त हो जाते है । कुछ काल तक यदि ये गूँजते है तो उसके भी गूँजने का कारण यह है कि शब्दवर्गणा के निमित्त से अन्य वर्गणायें शब्दरूप परिणम जाती है और यों बिजली की तरह इसमें भी तरंग
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उत्पन्न होती है, पर यह तरंग भी बहुत समय तक कहाँ ठहर सकेगी? ये शब्द न मेरे को अभी काम देते है, न आगे काम देंगे।
शान्ति का मूल उपाय तत्वज्ञान - ज्ञानी तो अपने ज्ञान के प्रकाश का रूचिया है और दूसरे जन भी इस ज्ञान का प्रकाश पायें, वस्तु का जो स्वतंत्र स्वरूप हे वह सबकी दृष्टि में आए और सुखी हो जाएँ ऐसी भावना करता है। सुखी होने का मूल उपाय तत्वज्ञान है। अनेक उपाय कर डालिए, कितना ही धनसचंय कर लो पर धन से भी शान्ति नही। कितनी भी लोक में इज्जत बना लो पर इज्जत से भी शान्ति नही। जो जो उपाय करना चाहें आप कर डाले, पर एक तत्वज्ञान के बिना सारे उपाय शांति के लिए कार्यकारी नही है। जब भी जिसे शान्ति मिलनी होगी इस ही मार्ग से मिलेगी, खुद को खुद के यथार्थ ज्ञान से शान्ति मिलेगी। भेदविज्ञान का बड़ा महत्व है। कोई भी विपदा हो, विपदा कुछ भी नही, परपदार्थ के परिणमन अपने मन के अनुकूल न जंचे ऐसी कल्पना करते रहना बस यही विपदा है । विपदा भी किसी तत्व का नाम नही है। ऐसे चाहे लौकिक विपदा के प्रसंग भी आएँ किन्तु यह तत्वज्ञानी जीव अपने को सबसे न्यारा अमूर्त ज्ञानानन्द स्वभावरूप अनुभव करता है, इसके प्रताप से उसे कभी क्लेश नही होता है। कदाचित् क्लेश माने तो यह उसके किन्ही दो तक अज्ञान का ही प्रसाद हे।
आचार्यदेव का आत्मोपकार का उपदेश - आचार्य देव यहाँ यह कह रहे है कि तू पर का उपकार तजकर अपने उपकार में लग। यहाँ धन वैभव, इज्जत लोकसम्पदा को पर कहा गया है। उनके उपकार को तज और एक अपने उपकार में लग। अपना उपकार है निज को निज पर को पर रूप से जान लेना। गुप्त ही गुप्त कल्याण होता है, दिखावट, बनावट, सजावट से कल्याण नही होता है। भेदविज्ञान की तब तक शरण गहो जब तक सर्व विकल्प समाप्त न हो जाएँ। इस जीव को यथार्थ में संकट कुछ भी नही है। आज हम आप कितनी अच्छी स्थिति में ह, कीडे, मकोड़े, पतंगो को देखो उनकी क्या दयनीय स्थिति है, अथवा मनुष्यो मेंही देखो कोई भिखारी जनों की एसी दयनीय स्थिति है कि जिनको कई दिनो तक भी खाने का ठिकाना नहीं है, उनकी अपेक्षा हम आप आज कितनी अच्छी स्थिति में है, और सबसे बड़ी बात तो यह है कि जैन सिद्वान्त का पाना अति दुर्लभ है। जैन सिद्वांत एक ऐसे तत्वज्ञान का प्रकाश करता है कि जिस ज्ञान के आने पर सदा के लिए संकट काट लेने का उपाय मिलता है।
पदार्थो का स्वतातन्त्रय स्वभाव - वस्तु के सम्बंध में जैन सिद्वान्त ने एक गहरी दृष्टि से प्रतिपादन किया है। प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र है। ये जो दृश्यमान पदार्थ पुदगल स्कंध है ये एक चीज नही हैं, ये अनन्त परमाणुओ का पुत्रज है। इनमें जो एक-एक परमाणु हे वह द्रव्य है, यो एक-एक जीव करके अनन्त जीवद्रव्य है, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, एक आकाशद्रव्य और एक अंसख्यात कालद्रव्य है। प्रत्येक पदार्थ 6 साधारण गुणो करके परिपूर्ण
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है। प्रत्येक पदार्थ है, अपने स्वरूप से है, पर के स्वरूप से नही है। दूसरी बात यह है। तीसरी बात- अपने में यह द्रव्यत्वगुण रखने के कारण निरन्तर परिणमता रहता है। चौथी बात अपने में ही परिणमता है किसी दूसरे में नही। 5 वी बात - अपने प्रदेश से है। छठवी बात - किसी न किसी के ज्ञान द्वारा प्रमेय है। इन 6 साधारण गुणो के वर्णन से आप यह देखेगे कि प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र है।
अपनी वेदना मेटने का इलाज - कोई भिखारी यदि जाड़े के दिनो में सुबह तीन चार बजे तड़के चक्कर लगाकर कपड़े माँगता है और आप लोग उसे कपड़े दे दें तो कही आप उस भिखारी का उपकार नही कर रहे है लेकिन व्यवहार में माना तो जा रहा है, परन्तु वहाँ क्या किया जा रहा है कि उस भिखारी की स्थिति जानकर अपने कल्पना करके खुद ही दुःखी हो गए, कुछ वेदना हो गयी, ओह यह कैसा दुःखी है? ऐसी कल्पना जगने के साथ आपके हृदय मे वेदना हो गयी। उस वेदना को मिटाने का इलाज आप और क्या कर सकते है ? आपने अपना ही उपकार किया, उस भिखारी का कुछ उपकार नही किया। जो जीव अपने में यह निर्णय किए हुए है कि मेरा सुख, दुःख मेरे परिणमन से ही है, कोई अन्य जीव मुझमें कुछ परिणति नही बना देता है। भले ही बाहर में निमित्तनैमित्तिक सम्बंध है लेकिन परिणमना तो खुद की ही कला से पड़ रहा है। मैं किसी का कुछ करता भी नही हूं। जिसमें जैसी कषाय उत्पन्न होती है उस कषाय की वेदना को शान्त करने का वह प्रयत्न करता है।
ऋषि संतो की कृति में आत्मोपकार का लक्ष्य - जैन सिद्वान्त तो यह प्रकट कर रहा है कि ये आयार्चदेव जिन्होने इन हितकारक ग्रन्थों को लिखा है जिनको पढ़कर हम आप अपनी शक्ति के अनुसार अपना उपकार कर लेते है, इन आचार्यों ने भी वस्तुतः हमारा उपकार नही किया है किन्तु उन्होने जो हम पामरों पर करूणा बुद्वि करके स्वयं में वेदना की थी, उन्होने भी उस वेदना को शान्त करने के लिए यत्न किया है।लोग इस बात की हैरानी मानते है कि मैने अपने पुत्र को इतना पढ़ाया, इतना योग्य बनाया, पर आज यह मुझसे विपरीत चलता है, ऐसा लोग खेद मानते है किन्तु तत्वज्ञान का उपयोग करें तो खेद नही माना जा सकता है। मैने सर्वत्र अपने मन के अनुकूल अपनी वेदना को शान्त करने के लिए श्रम किया है, मैने दूसरे जीव का परमार्थतः कुछ नही किया है। अब जिसकी जो परिणति है वह अपनी परिणति कर रहा है। मेरा जो कुछ कर्तव्य है वह मुझे करना चाहिए ऐसा ज्ञानी जीव के चित्त में विवेक रहता है। इस कारण वह कभी अधीर नही होता।
समय के सदुपयोग का अनुरोध - भैया ! मनुष्य जीवन और यह श्रावककुल, जैनधर्म के सिद्वान्त के श्रवण की योग्यता सब कुछ प्राप्त करके इस समय का सदुपयोग करना चाहिए। समय गुजर रहा है उम्र निकली जा रही है, मरण के निकट पहुंच रहे है ऐसी स्थिति में यदि सावधान न हुए तो यह होहल्ला तो सब समाप्त ही हो जायगा। तुम
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अपने को भविष्य में कहाँ शान्त बना सकोगे? कोई यह न जाने कि हम मर गए तो आगे की क्या खबर है कि हम रहेगे कि नही रहेंगे, कहाँ जायेगें, दीपक है, बुझ गया फिर क्या है, ऐसी बात नही है। खुब युक्तियो से और अनुभव से साच लो। जो भी पदार्थ सत् है उस पदार्थ का समूल विनाश कभी नही होता है, कैसे हो सकेगा विनाश ? सत्व कहाँ जायगा? भले ही उसका परिणमन कितने ही प्रकारो से चलता रहे किन्तु उस पदार्थ का सतव मूल से कभी नष्ट नही हो सकता। यह बात पूर्ण प्रमाणसित है।
अपनी चर्या - अब अपने आपके सम्बंध में सोचिए हम वास्तव में कुछ है। अथवा नही? यदि हम कुछ नही है तो यह बड़ी खुशी की बात है। यदि हम नही है तो ये सुख दुःख किसमें होगे? फिर तो कोई क्लेश ही न रहना चाहिए। मैं हूं और जो भी मैं हूं वह कभी मिट भी नहीं सकता, यदि इस भव से निकल जाऊँ तो भी मैं रहूंगा। उसके लिए अपने और अन्य जीवों का परिणमन देखकर निर्णय कर लीजिए। जो जगत में जीव दीख अपने ज्ञान अज्ञान के अनुकूल सुख दुःख पाना होगा। यह सम्पदा, ये ठाठ ये समागम कितने समय के लिए है? जो इन समागमो को अपने विषयवासना मे, विषयो की पूर्ति में ही खर्च करता है, तन, मन, धन, वचन सब विषयो की पूर्ति के लिए ही खर्च किए जा रहे है, तो यह अपने आपके उपयोग का बड़ा दुरूपयोग है। अपने लिए तो अपने खाने के लिए, पहिनने के लिए और श्रृगार के लिए जितनी अधिक से अधिक सात्विक वृत्ति रक्खी जायगी उतना ही भला है, और शेष जो कुछ भी समागम है यह ध्यान में रखना चाहिए कि ये सब पर के उपकार के लिए है। मुझे इन विभूतियों को विषयसाधनो में नही व्यय करना है।
स्व की सुध - विषय साधना मेरा कुछ भला नही कर सकते है। ये विषयो के साधनभूत समस्त परपदार्थ है, इनके लिए कहा जा रहा है कि तू परका उपकार तज दे
और निज के उपकार में तत्पर रह। है आत्मन्! अज्ञान अवस्था में तूने अपने चिदानन्दस्वभाव की सुध नही ली। जो आनन्द का निधान सर्वोत्कृष्ट है, जिस परमपारिणामिक भाव के आलम्बन से कल्याण होता है उस मंगलमय चैतन्यस्वरूप की सुध न ली जा सके और आदि परद्रव्य जो भी तुझे मिले है उनके संयोग में मौज माने, उनके पोषण में तू अपना ध्यान लगाये बड़े-बड़े कष्ट भी सहे, पर शरीर के आराम की ही बात तू सोचता रहे, यों पर के उपकार में रत रहे, इससे क्या सिद्वि है? अब उन शत्रु मित्र आदि परपदार्थों में आत्मीयता की कल्पना तू छोड़ दे।
सहज स्वतत्व का उपयोग शान्तिदान में समर्थ - जो मनुष्य समस्त जीवो में उस सामान्य तत्व को निरख सकता हैजिस तत्व की अपेक्षा से सब समान है, तो उसने ज्ञानप्रकाश पाया समझिये। जो इन अनन्त जीवो मे से यह मेरा है, यह गैर है, ऐसी बुद्धि बनाता है वह मोह के पक्ष से रंगा हुआ है। उसे शान्ति का मार्ग कहाँ से मिलेगा, वह तो अपनी राग वेदना को ही शान्त करने का श्रम करता रहेगा, ये दृश्यमान पदार्थ तेरे कुछ
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नही है और न तू कभी उन पदार्थो का हो सकता है। अतः विवेक ज्ञान का आश्रय कर, अपना हित सोच, शान्ति से कुछ रहने का यत्न तो बना, पर की और दृष्टि देने से अशान्ति ही होती है क्योकिं उपकार है स्वाश्रित और इस उपकार को तुमने अपनी कल्पना से बना लिया पराश्रित तो ये परपदार्थ भिन्न है, असार है अध्रव है तब इनकी और लगा हुआ उपयोग हमें कैसे शान्ति का कारण बन सकता है?
आत्मध्यान का आदेश भैया ! आत्मध्यान ही सर्वोत्कृष्ट मार्ग है । एतदर्थ वस्तु का सम्यग्ज्ञान चाहिए, स्वतंत्र - स्वतंत्र स्वरूप का भान होना चाहिए और इसके लिए कर्तव्य है कि हम ज्ञानार्जन में अधिकाधिक समय दें। गुरूजनों से पढ़े, चर्चाएँ करके, ज्ञानाभ्यास करके अपना उपयोग निर्मल बनाएँ। इस प्रकार यदि ज्ञान की रूचि जगी, धर्म की रूचि बनी तो हमें शान्ति का कुछ मार्ग मिल सकेगा, अन्यथा बहिर्मुखी दृष्टि में तो शान्ति नही हो सकर्ती। इसे इन शब्दो में कहा गया है कि है आत्मन् ! तू पर के उपकार में अभी तक लगा रहा, अर्थात् तेरा जो यह शरीर है वह पर है, और तू इन देहादिक के उपकार में अभी तक जुटा रहा। इसकी और से अपने उपयोग को हटाकर ज्ञानघन आनन्दनिधान अपने उपयोग को हटाकर ज्ञानघन आनन्दनिघान अपने शुद्व चिदानन्दस्वरूप को निरख । इसके अनुभव में जो आनन्द बसा हुआ है वह आनन्द संसार में किसी भी जगह न मिल सकेगा। इस कारण अपने उपकार के लिए तत्वज्ञान का उपाय कर ।
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गुरूपदेशादभ्यासात्संवितै
: स्वपरान्तरम् ।
जानाति यः स जानाति मोक्ष सौख्यं निरन्तरम् । ।33।।
ज्ञानार्जन के उपायो में दिग्दर्शन - जो जीव गुरूओ के उपदेश से अथवा शास्त्र के अभ्यास से अथवा स्वात्मतव के अनुभव से स्वपर के भेद को जानता है वही पुरूष मोक्ष के सुख को जानता है। यहां तत्वज्ञान के अर्जन के उपाय तीन बताये गए है। पहिला उपाय है गुरू का उपदेश पाना, दूसरा उपाय है शास्त्रो का अभ्यास करना और तीसरा उपाय है स्वयं मनन करके भेदविज्ञान अथवा स्वसम्वेदन करना। इन तीन उपायो में उत्तरोत्तर उपाय बडे है। सबसे उत्कृष्ट उपाय स्वसम्वेदन है। मोक्ष सुख के अनुभव करने के उपायों में सर्वोत्कृष्ट उपाय स्वसम्वेदन है। उसके निकट का उपाय है शास्त्रभ्यास और सर्व प्रथम उपाय है गुरूजनों का उपदेश पाना ।
गुरूस्वरूप का निर्देशन गुरू वे होते है जो बाह्रा और आभ्यंतर परिग्रहो से विरक्त रहते है। बाह्रा परिग्रह है 10 । खेत, मकान, अन्न आदि धान्य, रूपया रकम, सोना चाँदी, दासी, दास, बर्तन और कपड़े। इन दसों में सब आ गए और अन्तरंग परिग्रह है 14, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ और 9 प्रकार की नो कषाये। इन 14 परिग्रहो के और 10 परिग्रहो के जो त्यागी होते है उन्हें गुरू कहते है। गुरू आत्मतत्व का कितना अधिक रूचिया है कि
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जिसके सिवाय एक स्वानुभाव की वाञछा के अन्य कुछ वाञछ नही है। वे ज्ञानध्यान तपस्या में ही जो निरत रहते है।
तप, ध्यान व ज्ञान में परस्परता ज्ञान, ध्यान और तप में सबसे ऊँचा काम है ज्ञान । ज्ञान न रह सके तो दूसरा काम है ध्यान और ध्यान भी न बन सके तब तीसरा काम
तप । यहाँ ज्ञान से मतलब साधारण जानकारी नही है किन्तु रागद्वेषरहित होकर केवल ज्ञाताद्रष्टा नही रह सकता तो उसके लिए दूसरा उपाय कहा गया है ध्यान । ध्यान में चित एकाग्र हो जाता है और उस एकाग्रता के समय में धर्म की और एकाग्रता के काल में इसका विषयकषायो में उपयोग नही रह पाता, इस कारण यह ध्यान भी साधु का द्वितीय काम है और तपस्या भी साधुओ का काम है।
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बाह्वा तपो में अनशन, ऊनोदर व वृत्तिपरिसंख्यान का निर्देश तपों में बाह्रा तप 6 है अनशन करना, भूख से कम खाना और अपनी अंतरायो की परीक्षा करने के लिए कर्मों से मैं कितना भरा हुआ हूं, इसकी परीक्षा करने के लिए नाना प्रकार के नियम लेकर उठना, रसपरित्याग, विविक्त्शय्यासन व कायक्लश। पुराणों में आया है कि एक साधु ने ऐसा नियम लिया था कि कोई बैल अपनी सीगं में गुड़ की भेली छेदे हुए दिख जाय तो आहार करूँगा। अब बतलाओं कहाँ बैल और कहाँ गुड़ और सींग में भेली दिखे, किसी समय दिख जाय यह कितना कठिन नियम लिया था? कितने ही दिनो तक उनका उपवास चलता रहा। आखिर किसी दिन कोई बैल किसी बनिया की दूकान के सामने से निकला, उस बैल ने गुड़ की भेली खाने को मुंह दिया, उस बनिया ने उस बैल को भगाना चाहा तो ऐसी जल्दबाजी के मारे बैल की सींग में भेली छिद गयी। जब वह बैल सामने से निकला तो मुनि महाराज की प्रतिज्ञा पूरी हुई और आहार लिया। यह सम्बंध अपने आपके भीतर से है, लोकदिखावे के लिए नही कि हम 10 जगह से लौटकर आयेंगे, लोगो में भब्बड़ मचेगी और आपस में चर्चा चलेगी कि महाराज की आज विधि नही मिली, क्या इनकी विधि है, यह तो बड़ाभारी तप कर रहे है । साधु कभी अपने अंतराय की परीक्षा करना चाहें तो करते है। समाज के बीच ही रहते हुए कौन सा कार्य ऐसा खिर गया है जिससे परीक्षा करने की मन में ठानी कि हम परीक्षा करेंगे अंतराय की । यह बहुत दुर्घर तप है। इसका अधिकारी एकांतवासी बनवासी बड़ा तपस्वी हो वह हुआ करता है।
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रस परित्याग, विविक्त शय्यासन व कायक्लेश तप का निर्देश व तपों की आदेयतारस परित्याग एक दो रस छोड़ना - सब रस छोड़ना, रस छोड़कर भोजन करना रस परित्याग तप है। एकांत स्थान में सोना, उठाना, बैठना, रहना यही विविक्त शय्यासन है, और गर्मी में गर्मी के तप, शीत में शीत के तप और वर्ष काल में वृक्षों के नीचे खड़े होकर ध्यान लगाने का तप और-और प्रकार के अनके काय क्लेश हो, इन बाह्रा तपों को ये साधुजन किया करते है । तपस्या में उपयोग रहने से विषयकषायो से चित हट जाता है
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और अपने आपके आत्मा के शोधन का उपयोग चलता है, इससे यह तप भी साधुओ को करने योग्य है। यों ज्ञान ध्यान तपस्या में निरत साधुजनो का उपदेश पाकर यह जीव अपने आप में निर्मलता उत्पन्न करता है, स्वपर का भेदविज्ञान होता है।
शान्ति की साधना - शान्ति के लिए लोग अन्य-अन्य बड़ा श्रम करते है। वह श्रम ऐसा श्रम है कि जितना श्रम करते जावो उतना ही फंसते जावो, अशांत होते जावों। जिसके पास किसी समय 100) की भी पूंजी न थी और वह आज लखपति हो गया तो उसकी चर्या को देख लो - क्या शान्ति उसने पा ली है ? बल्कि कुछ अशान्ति में वृद्वि ही मिलेगी। जितना अधिक धन अपने पास है उतनी ही चिन्ता उसकी रक्षा की बढ़ती जाती है। मैं धनी हूं, मै सम्पदावान हूँ, मैं इज्जत वाला हूं - ये सब बातें अज्ञानी जनों के बढ़ती जाती है। तब अशान्ति बढ़ी या शान्ति हुई ? वस्तुतः सम्पदा न अशान्ति करती है और व शान्ति करती है। यह तो अपने- अपने ज्ञान की बात है। भरत चक्रवर्ती 6 खण्ड की विभूति को पाकर अशान्त न रहते थे और दिगम्बर दीक्षा धारण करने के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में ही उनके केवलज्ञान हो गया था। उन्होंने गृहस्थावस्था में बड़ी आत्मभावना की थी। घर में रहते हुए भी वैरागी का दृष्टान्त भरत का ही प्रसिद्ध है।
भेदविज्ञान से मोक्ष सौख्य का परिचय - साधु संतो के उपदेश से जो आत्मा और पर का भेदविज्ञान होता है वह आत्मस्वरूप को जानता है और मुक्ति में क्या सुख है, उस सुख को भी पहिचानता है। मुक्ति मायने है छुटकारा मिल जाना। द्रव्यकर्म, शरीर, रागादिक भाव इन सबसे छुटकारा मिलने का नाम है मुक्ति। इनसे छूटे रहने का मेरा स्वभाव है। यह जब तक अनुभव में न आए तब तक वह छुटकारे का क्या उपाय करेगा? यह मैं आत्मा चैतन्यस्वरूप हूं और मुझसे भिन्न ये समस्त जड़ पदार्थ है, वे मेरे कभी नही हो सकते। जब तक यों भेदविज्ञान नही होता तब तक आत्मा की पहिचान भी नही होती। चित्त तो लगा है बाहरी और, आत्मा की सुध कौन ले। और ऐसे प्राणी जो मूढ़ है, बहिर्मुख है, धन के लोलुपी है वे अपनी दृष्टि के अनुसार ही जगत में सबको यों देखेंगे कि सभी मोही है, अधर्मी है। पापी पुरूष ऐसा जानते है कि सभी ऐसा किया करते है क्योकि उनके उपयोग में जो बसा हुआ है उसका ही दर्शन होगा।
__ शास्त्राभ्यास की महती आवश्यकता - दूसरा उपाय बताया गया है शास्त्राभ्यास का। शास्त्र का अभ्यास भी सिलसिलेवार ठीक ढंग से पढ़े बिना नही हो सकता। लोग घर के काम, दूकान के काम तो कैसा सिलसिले से करते है कपड़े का काम अथवा सोना चांदी का काम करेंगे तो उस अलमारी में अच्छी तरह रखेंगे, हर काम तो सिलसिले से करते है पर धर्म का कार्य ठीक ढंग से सिलसिले से नही करते है। शास्त्र पढ़ना हो तो कोई भी शास्त्र उठा लिए और उसकी दो लकीर देख ली, देखकर धर दिया और चल दिया। अगर चार - छ: महिलाओ के शास्त्र का नियम हो तो वे सब एक शास्त्र उठा लेंगी जिसमें खुले
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पन्ने होते है तो उस शास्त्र के पन्ने फिर क्रम से न रह पायेगें क्योकि एक महिला एक कागज उठायेगी दूसरी उस पर दूसरा कागज धरेगी। किसी किसी जगह तो इसी के लिए एक शास्त्र रिजर्व रहता है। तो इस तरह का शास्त्र का पढ़ना कुछ भी लाभ नही दें सकता है। संसारी काम से भी बढ़ करके सिलसिला चाहिए शास्त्राभ्यास के लिए। पहिले किन्ही गुरूओ से पढ़ना, क्रमपूर्वक पढ़ना, उसको कुछ अभ्यास में लेना और उसके बाद सिलसिले से उसे पढ़ना। यह शास्त्र का अभ्यास बढ़ाना बहुत काम है। इसमें समय देना चाहिए आजीविका के काम से ज्यादा।
सांसारिक लाभ की उदयानुरूपता - भैया ! आजीविकाका काम आपके हाथ पैरकी मेहनत से नही बनता, वह तो उदयाधीन है, जैसा उदय हो उस पुण्य के माफिक प्राप्ति होती है। आप 10 घंटे बैठें तो और दो घंटे बैठे तो, जो उदय में है वही समागम होता है। अगर लोग नियमितता जान जाये कि ये इतने बजे दूकान खोलते है, तो वे ग्राहक उतने ही समय में काम निकाल लेंगे। एक बजाज के ऐसा नियम है कि 500 का कपड़ा बिक जानेपर फिर दूकान बंद कर दें और अपने नियमपर वह बड़ा दृढ़ रहता है, सो उसकी दूकान के खुलनेका जो टाइम है उससे पहिले ही अनेक ग्राहक बैठे रहते है, यदि इसका 500 का कपड़ा बिक गया तो फिर हमें कुछ न मिलेगा। 500 का कपड़ा घंटा डेढ़ घंटामें ही बिक जाता है और अपनी दूकान वह बंद कर दता है।
अनुकूल उदयमें सुगम लाभ – भैया ! लाभकी बात उतनी ही है। जैसे पहिले कभी बाजारकी छुट्टी न चलती थी और आजकल बाजारकी छुट्टी चल रही है, तो बाजारकी छुट्टी हो जाने से व्यापार में हानि नही हुई। अगर कुछ हानि है तो वह और कारणो से हे ऐसे ही समय भी नियत हो गया। 10 घंटा दूकान खुलेगी, 8-9 बजे रातको बंद हो जायगी। गर्मी के दिनोमें मान लो 8 बजे खुलनेका टाइम हो गया, 12 घंटे दूकान चलें, पहिले कुछ समय नियत भी था। जितने समय तक चाहें उसमें जुटे रहे, तो समयकी बंदिशसे भी प्राप्ति में हानि नही हुई। तो यदि कोई एक भी व्यक्ति दृढ़ रहकर अपना हित करनेके लिए समय निकाले तो उसका उतने ही समयमें काम निकल सकता है। यह भी बहुत बड़ी आफत लगी है कि न स्वाध्याय सुन पाते है, न कभी धर्मका काम कर पाते है। चिन्ता ही चिन्ता रोजगार सम्बंधी लगी है, उसीमें ही प्रवृत्ति लगी रहती है। पर धन पाया और धर्म न पाया तो कुछ भी न पाया। जो पाया है वह तो मिट जायगा, किन्तु जो धर्मसंस्कार बन जायगा, जो ज्ञानप्रकाश होगा वह तो न मिटेगा, इस जीवको आनन्द ही वर्षायेगा।
धर्मलाभ ही अपूर्व लाभ - भैया ! शास्त्राभ्यास में बहुत समय दो और श्रम भी करो, और व्यय भी करना पड़े तो होने दो, यदि अपने आपका ज्ञान हो जायगा तो समझो उसने सब कुछ निधि पा ली। तन, मन, धन, वचन सब कुछ न्यौछावर करके भी यदि एक धर्मदृष्टि पायी, आत्मानुभव जगा तो उसने सब पाया। यह ही एक बात न हो सकी और
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केवल बहिर्मुखदृष्टि ही रही तो उसने क्या पाया ? जो पाया वह सब एक साथ मिट जायगा। लोग यह सोचते है कि हम मर जायेंगे, सारा धन यही रह जायगा तो वह अपने बालबच्चों के नाती पोतोंके ही तो काम आयगा। मगर मरकर वह जिस भी जगह पैदा होगा उसके लिए तो अब नाती बेटे कुछ भी नहीं रहे। न उन नाती पोतों के लिए वह कुछ रहा। भला यह तो बतावो कि आपके पूर्व जन्मका माता पिता कौन है, कहाँ है, कुछ भी तो याद नही है। वे चाहे जो सुख दुःख भोग रहे हों, पर अपने लिए तो वे कुछ नही है। इस कारण यह ममताकी बात इस जीवको हितकारी नही है।
ज्ञा जन व ज्ञानदानकी सातिशय निधि - भैया ! जैसे अपने आपमें ज्ञानप्रकाश हो वह काम करनेके योग्य है। शास्त्राभ्यासका उपाय प्रथम तो है गुरूमुखसे अध्ययन करना, दूसरा है दूसरोको उपदेश देना। जो पुरूष दूसरोको विद्या सिखाता है उसकी विद्या दृढ़ हो जाती है। ज्ञानका खजाना एक अपूर्व खजाना है। धन वैभव यदि खर्च करो तो वह कम होता है पर ज्ञानका खजाना जितना खर्च करोगे उतना ही बढ़ता चला जायगा। तो दूसरो को पढ़ाना यह भी शास्त्राभ्यास का सुन्दर उपाय है। ज्ञानार्जनका तीसरा उपाय है धर्मकी चर्चा करे, जो विषय पढ़ा है उसका मनन करे, यों शास्त्राभ्याससे स्व और परका भेद विज्ञान करना चाहिए। तीसरा उपाय है स्वसम्वेदन। आत्मा अपने आपको जाने, अनुभव करे उसे स्वसम्वेदन कहते है। स्व है केवल ज्ञानानन्द स्वरूपमात्र, उसका सम्वेदन होना, अनुभव होना यह भी ज्ञानका उपाय है। इन सब उपायों से ज्ञानका अर्जन करना चाहिए।
आत्मानुभूतिके आनन्दसे मुक्तिके आनन्दका परिचय - जो साधु संत ज्ञानी पुरूष आत्मा और परको परस्पर विपरीत जानता है और आत्माके स्वरूपका अनुभव करता है उसमें जो इसे आनन्द मिलेगा उस आनन्दकी प्राप्तिसे यह जान जाता है कि मुक्तिमें ऐसा सुख होता है। जब क्षणभरकी निराकुलतामें, शुद्ध ज्ञानप्रकाशमें उसे इसका आनन्द मिला है तो फिर जिसके सब मूल कलंक दूर हो गए है, केवल ज्ञानानन्दस्वरूप रह गया है। उन अरंहत सिद्व भगवंतोको कैसा सुख होता होगा? वह अपूर्व है और उसकी पहिचान इस ज्ञानीको हुई है। कोई गरीब 4 पैसेका ही पेड़ा लेकर खाये और कोई सेठ एक रूपयेका एक सेर वही पेड़ा लेकर खाये पर स्वाद तो दोनो को एकसा ही आया, फर्क केवल इतना रहा कि वह गरीब छककर न खा सका, तरसता रहा, पर स्वात तो वह वैसा ही जान गया। इसी तरह गृहस्थ ज्ञानी क्षण्भरके आत्मस्वरूपके अनुभवमें पहिचान जाता हैभगवतोको किस प्रकारका आनन्द है, भले ही वह छककर आनन्द न लूट सके लेकिन जान जाता है । यों यह ज्ञानी पुरूष आत्मज्ञानसे मुक्तिके सुखको निरन्तर पहिचानता रहता है।
स्वस्मिन् सदभिलाषित्वादभीष्टज्ञापकत्वतः । स्वंय हितप्रयोक्तृत्वादात्मैव गुरूरात्मनः ।।34।।
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स्वयंके द्वारा ही स्वयंके कल्याणका यत्न यह जीव उत्तम प्रयोजनकी अपने आपमें भी अभिलाषा करता है और उत्तम प्रयोजनके कार्यका खुद ही ज्ञान करता है और हितका प्रयोग भी यह स्वंय ही करता है। इस कारण आत्माका गुरु वास्तवमें आत्मा ही है। लोकमें जब किसीका कोई अभीष्ट गुजर जाता है और उसके हृदय बड़ा धक्का लगता है तब उस विहल पुरूषको समझाने के लिए अनेक रिश्तेदार अनेक मित्र खूब समझाते है और उपाय भी उसके मन बहलानेका करते है किन्तु कोई क्या करे, जब उसके ही ज्ञानमें सही बात आये, भेदविज्ञान जगे, तब ही तो उसे संतोष हो सकेगा, दूसरे हैरान हो जाते है, पर स्वंय समझे तो समझ आये। इससे यह सिद्ध है कि स्वयंके किएसे ही फल मिलता है । यहाँ मोक्षमार्ग प्रकरणकी बात कही जा रही है। उत्तम बातकी अभिलाषा यह जीव स्वयं ही करता, स्वंयमें करता और ज्ञान व आचरण भी स्वंय करता है। तब अपना घर परमार्थ से तो स्वंय ही है, किन्तु इससे प्राक् पदवीमें यह दोष ग्रहण नही करना चाहिऐ कि लो शास्त्र में तो कहा है कि आत्माका गुरु आत्मा ही है। अब दूसरा कौन गुरू है, सब पाखण्ड है, सब ऐसे ही है, ऐसा संशय न करना चाहिए क्योकि जिस किसीको भी अपने परमार्थ गुरूका काम बना, ध्यान बना, ज्ञानप्रकाश हुआ उसको भी प्रथम तो गुरूका उपदेश आवश्यक ही हुआ।
आत्मलाभमें देशनाकी प्रथम आवश्यकता भैया ! कोई भी हो वह पुरूष किसी न किसी रूपमें ज्ञानी विरक्त गुरूवोका उपदेश लगे तब उसकी आँखे खुलती है। प्रथम गुरूकी देशना सबको मिली है, कोई ऐसे पुरूष होते है जिनको गुरू को कोई नियोग नही मिला और स्वयंही अपने आप तत्वज्ञान जगा, उनको भी इस भवमें नही तो इससे पूर्वभवमें गुरूकी देशना अवश्य मिली थी । यह तो शास्त्र का नियम है कि सम्यक्त्वकी उत्पत्ति में 5 लब्धियाँहोती है। सम्यग्दर्शन किसके होता है और किस विधि से होता है, उसके समाधानमें कहा गया है कि 5 लब्धियाँ हो तो सम्यग्दर्शन हो उसमें देशना तो आ ही गई।
सम्यक्त्वकी पांच लब्धियोमें क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धि सम्यक्त्वकी लब्धियोमें पहिली लब्धि है क्षयोपशम लब्धि । कर्मोका क्षयोपशम हो, उदय कुछ कम हो तब इसकी उन्नतिका प्रारम्भ हाता है। जब इस प्रकारका क्षयोपशम हो तो दूसरी लब्धि पैदा होती है उसका नाम है विशुद्धि लब्धि । किसी उत्कृष्ठ चीज के लाभका नाम लब्धि है, परिणाम उसका उत्तरोत्तर निर्मल होता जाता है। जिसकी कषाये मंद हो वही पुरूष तो गुरूके सम्मुख बैठ सकेगा, गुरूकी विनय कर सकेगा, गुरूकी बात ग्रहण कर सकेगा। ऐसा व्यक्ति जो कषायोमें रत रहता है वह गुरूकी देशना सुनेगा ही क्यो? तो जब विशुद्वि बढ़ी, जब यह गुरूके उपदेशका लाभ प्राप्ता करता है । यहाँ तक तो कुछ बुद्विपूर्वक उद्यमकी बात रही। अब इसके बाद स्वंय ही ऐसा परिणाम निर्मल होता है। जिसके प्रतापसे कर्मों का बंध और बहुत बड़ी स्थिति वह घटाने लगता है, कम स्थितिका कर्म बाँधने लगता
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है। और उसही दरम्यानमें 34 अवसर ऐसे आते है जिनमें जो नियत प्रकृतियाँ है उनका बधं रूक जाता है।यह मिथ्यादृष्टि जीव की ही बात कह रहे है अभी। जिसको सम्यक्त्व पैदा हुआ है ऐसे मिथ्यादृष्टि की निर्मलता बतायी जा रही है। यों बंधापसररण भी करते है और स्थितिका बंध भी कम करते जाते है। तो इसके बाद फिर करणलब्धि पैदा होती है।
सम्यक्त्वकी नियामिका करणलब्धि - प्रायोग्यलब्धि नाम है उसका जिससे बंधापसरण होता है और स्थिति कम होती है इन चार लब्धियों तक तो अभव्य भी चल सकता है जिसको कभी सम्यग्दर्शन नही होना है, ऐसा अभव्य जीव भी चार लब्धियोंका लाभ ले सकता है, किन्तु करणलब्धि उनके ही होती है, जिनको नियमसे अभी ही सम्यग्दर्शन होना है, उन करणोका नाम है अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण। इन करणोका 8वे, 9वें गुणस्थान से सम्बन्ध नही है। जो अभी कहे जा रहे है, ये तो मिथ्यादृष्टिके हो रहे है अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण। सम्यक्त्व उसके प्रतापसे उत्पन्न होता है। तो इस विधिसे आप जान गये होंगे कि सम्यग्दर्शनके लिए गुरूका उपदेश आवश्यक है, लेकिन यहाँ परमार्थ स्वरूप कहा जा रहा है कि गुरूका उपदेश भी मिले और न माने जरा भी तो क्या लाभ होगा? जैसे कहावत है कि पंचोकी आज्ञा सिर माथे पर पनाला यहीं से निकलेगा, ऐसे ही शास्त्रोकी बात सिर माथे, गुरूकी बात सिर माथे, पर धन वैभव घर, कुटुम्ब इनमें मोह वहीका वही रहेगा। इनमें अन्तर न आए तो उसका फल खुद को ही तो मिलेगा।
स्वयंका हित स्वयंके ही द्वारा संभव – भैया ! सत्य आनन्द चाहो तो मोहमें ढिलाव खुदको ही तो करना पड़ेगा। ऐसा कोई गुरू न मिलेगा जिससे कह दें गुरूजी कि आप ऐसा तप कर लो जिससे मुझे सम्यग्दर्शन हो जाय। जैसे पंडोसे कह देते है ग्रहशान्ति के लिए कि तुम एकलाख जाप हमारे नामपर कर दो तो हमारा उपसर्ग टल जायगा। उसका उपसर्ग टले या न टले, पर उस पंडाका उपसर्ग तो तुरन्त टल जायगा। जो सामग्री लिखी-इतना सोना, इतना चाँदी, पंचरत्न, अनेक नाम ऐसे रख लिए कि पंडाका उपसर्ग तो टल जाता है। भला, दूसरेके विग्रहको कौन टालेगा? ऐसा वस्तुका स्वरूप ही नही है। कोई गुरूको नामका ध्यान करे, तप करे, उपदेश सुने, सत्सगमें रहे किन्तु खुदके ही परिणामोमें योग्य परिवर्तन न करे तो काम न चलेगा। तब स्वंयका गुरू स्वंय ही हुआ। जो आत्महितकारी उपदेश देता है अथवा अज्ञान भावको दूर करता हे वही वास्तवमें मेरा गुरू है, यह तो व्यवहारकी बात है, ऐसे आचार्य उपाध्याय आदिक हो सकते है, लेकिन वे निमित्तरूप रहें इस कारण व्यवहारमें गुरू हुए।
औपचारिक व्यवहार - क्या कोई गुरूजन शिष्यके आत्माको, भक्तोके उपयोगको सम्यग्दर्शन रूप परिणमा सकते है? कभी नही। व्यवहारमें लोग कहा करते है कि तुम्हारे सुखसे हमें सुख है, तुम्हारे दुःख में हमे दुःख है, यह सब मोह में कहनेकी बात है, ऐसा
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कभी हो ही नही सकता कि किसी दूसरेके परिणमनसे किसी दूसरे को सुख दुःख मिले। यह तो एक मोहमें बकवाद है। कितने ही लोग कहते है कि हमारा दिल तो तुम ही में धरा है, पर ऐसा हो ही नहीं सकता कि किसीका दिल किसी दूसरेके दिलमें धर जाय। जिस वस्तुका जो परिणमन है वह उस वस्तुमें ही सन्निहित रहेगा, अन्यत्र पहुंच नही सकता। जो ऐसी गप्पें मारते है उनकी पूरी परीक्षा करना हो तो उनके मनके खिलाफ दो एक काम कर बैठो, सब निर्णय सामने आयगा।
परमार्थ गुरू - आजकल कितना अच्छा हमें संयोग मिला है? गुरूजनोका हितकारी उपदेश भी मिलता है लेकिन स्वयं ही इस प्रकार की अभिलाषा करे, ध्यान जमायें, आचरणकरे तो मोक्षमार्ग नही मिलता, वह केवल निमित्तरूप कारण है इसलिए वास्तविक गुरू तो आत्माक आत्मा ही है क्योकि आत्मसुखकी प्राप्ति हो, मोक्ष मिले ऐसी रूचि भी इसको ही करना होता है। परमार्थसे मेरे हितरूप तो मोक्ष ही है ऐसा यथार्थज्ञान इसको ही करना होता है, ऐसा यत्न, ऐसी भावना और इस प्रकारकी प्रवृत्ति इस ही को करना पड़ती है। तब गुरू स्वंयका स्वंय ही हुआ ना। कोई दोष बन जाय तो इसको ही अपनी निन्दा, गर्हा, आलोचना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, ध्यान ये सब इसको ही करने पड़ते है तब दोषो की शुद्धि होती है। कल्याणके लिए विषय सुखों से सुख मोड़ना प्रथम आवश्यक है। यह भी एक तप है जो सुगम मिले हुए विषयसाधनोमें भी आसक्ति उपन्न नही होती। वह बात स्वंयको ही करना पड़ता है।
स्वंयके कार्यमें स्वंयका कर्तृत्व – भैया ! जैसे और कामोमें लोग कहते है चलो रहने दो, यह काम हमी करें आते है। शायद कोई ऐसा भी कह देता हो कि चलो तुम यहाँ ही बैठो हम ही दर्शन किए आते है, तुम्हारा जगह पर मंदिरका दर्शन हम कर आयेगें और कहे आयेगें कि हमारे बब्बूका भी दर्शन ले लो। ऐसा तो शायद कोई भी न कहता होगा, और ऐसा कह भी दिया यदि किसीने तो क्या दर्शन हो गया? ध्यान और ज्ञानके अंतः प्रयोगकी बात तो सबसे अनोखी बात है। खुदको ही ज्ञान ध्यान तपमें रत होना पड़ता हे और स्वंय ही स्वयंमें प्रसन्न रहे तब मोक्षमार्ग मिलता है, इसलिए आत्माका गुरू यह आत्मा ही हुआ, आत्मा चाहे तो अपनेको संसारी बनाए और चाहे तो मोक्ष सुखमें ले जाए, दूसरा मेरी परिणतिका अथवा स्वभावका कर्ता धर्ता नही है। स्वय ही शुभ भाव करता है तो उत्तम गति पाता है और स्वंय ही कुभाव करता है तो खोटी गति पाता है, और शुभ और अशुभ भावोका परित्याग करके आत्माके शुद्ध चेतन्यस्वरूपमें जब यह विचरने लगता है तो कर्म बंधनोको तोड़कर मुक्तिको भी यह अकेले प्राप्त करता है। यही जीव भ्रमी बनकर संसारमं रूलता है।
कथन और आचरण - विषयोंसे मुझे सुख मिलता है ऐसी भीतरमें वसना बसी है, मुखसे कुछ भी कहे, धर्मके नामपर ज्ञान और वैराग्यकी बात भी कहें किन्तु प्रतीतिमें वही
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विषय विषरस भरा है सो ऐसी हालत हो जाती है जैसे सुवा पाठ रटता रहता है, उड़ मत जाना, नलनी पर मत बैठ जाना, बैठ जाना, तो दाने चुगनेकी कोशिश न करना, दाने चुगना तो उसमें औधं न जाना औधं भी जाना तो नलनीको छोड़कर उड़ जाना। पाठ याद है लेकिन अंतरंग में प्रेरणा जगती है विषयवासनाकी, तृष्णकी। मौका पाकर वह तोता पिंजड़े से उड़ गया, नलनी पर बैठ गया, दाने चुगने लगा, उलट गया और कही मैं गिर न जाऊं इस ख्यालसे वह नलनीको ही पकड़े रहता है। ऐसे ही जिसके अन्तरमें भ्रमवासना बसी है वह पूरा भी करता जाय, पाठ भी पढ़ता जाय, साथ ही विषयमें बुद्वि भी बनी है, ऐसा भ्रमी पुरूष शान्ति संतोष कहाँ से पायगा? विवेक जाग्रत हो तो जैसे वह तोता नलनी को छोड़कर उड़ जायगा।
स्वयंकी उलझन और सुलझन - भैया ! विवेक जागृत हो तो भीतरमें ही तो एक सही ज्ञान बनाना है। कुछ घरके लोगोसे यह नही कहना है कि तुम नरकमें डुबाने वाले हो, ऐसी गालियां नही देना है किन्तु अन्तरंग में ऐ समझभर बना लेना है कि मेरा मात्र मै ही हूं जैसा भी मै अपने को रच डालूँ। इस अज्ञनी प्राणीने अपने ही अज्ञानसे अपने ही अन्यायसे इन संसारके बन्धनोको बढ़ाया है। अब बन्धनोको कौन तोड़ेगा। यह आत्मा स्वयं ही तोड़ेगा। अननत ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द, अनन्त शक्ति रूप यह स्वंय ही परिणमेगा। अरहंत अवस्था तो इसेक स्वंयके ही स्वसम्वेदनसे प्रकट होगी और समस्त कर्मो से मुक्त होकर शाश्वत सुख और पूर्ण निरञजनताको यही अकेला प्राप्त करेगा।
स्वयंका कर्तव्य – इससे यह शिक्षा लेनी है कि हमारे करने से हमारा कल्याण है दूसरे के प्रयत्न से हमारा कल्याण नही है। घरके आंगनामें कोई आसपासकी भीत गिर जाय और आंगनमें इकट्टी हो जाय तब तो यह बुद्वि चलती है कि यह आंगन हमें ही साफ करना पड़ेगा, कोई दूसरा साफ करने न आ जायगा। ऐसे ही यहा समझो कि भ्रमसे खुदमें दोष भर गए है तो उन दोषो का निराकरण खुदके ही पुरूषार्थसे होगा, दूसरा कोई मेरी गंदगी निकालने न आ जायगा।
ज्ञानवैभव - यथार्थ ज्ञान होना सबसे अलौकिक वैभव है। धन, कन, कंचन, राजसुख सब कुछ सुलभ है किन्तु आत्माके यथार्थ स्वरूपका यथार्थ बोध होना बहुत कठिन है। यह वैभव जिसने पाया है समझिए उन्होने सब कुछ प्राप्त कर लिया, एक इस ज्ञाननिधि के बिना यह जीव वैभव के निकट बसकर भी हीन है, गरीब है, अशान्त है। इसलिए सब प्रकार से प्रयत्न करके एक इस आत्मज्ञज्ञनको उत्पन्न करे, यही शरण है।
नाज्ञो विज्ञत्वमायाति विज्ञो नाज्ञत्वमृच्छति।
निमित्तमात्रमन्यस्तु गतेधर्मास्तिकायवत।।35।।
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जो पुरूष अज्ञानी है, तत्वज्ञानकी जिनमें उत्पत्ति नही हो सकती है अथवा कहिए अभव्य है वे किसी भी प्रसंगसे ज्ञानी नही हो पाते है। और जो ज्ञानी है, जिनके तत्वज्ञान हो गया हे वे आज्ञानी नही हो सकते। अर्थात् मिथ्यादृष्टि जीव ज्ञानको प्राप्त नही करते और ज्ञानी जीव मोहको प्राप्त नही होते
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ज्ञान विकास व अज्ञान परिहार जैसे बाहर रस्सी पड़ी हुई है और उसमें किसीको सांप का भ्रम हो गया है तो जब तक सांपका भ्रम बना हुआ हे उस भ्रमोको ज्ञान नही हो पाता है, और जब ज्ञान हो गया, जान लिया कि यह रस्सी ही है तब उसके भ्रम नही हो पाता है, अथवा अज्ञानी से ज्ञानी बननेके लिए स्वंयमें ही तो अज्ञानका परिहार करना होगा और स्वयंमें ही ज्ञानका विकास करना होगा। गुरू विकास नही करते। विकास हो रहा हो तो अन्य गुरू जन निमित्तमात्र होते है । जैसे जीव पुद्गल जब चलनेको उद्यत होते है तो धर्मद्रव्य निमित्त है, पर धर्मद्रव्य चला नही देता । पानीमें मछली है, जब वह चलती है तो उसके चलामें पानी कारण है, पर पानी मछलीको चलाता नही है । चलना चाहे मछली तो निमित्त मौजूद है। ऐसे ही जो पुरूष अज्ञानको छोड़कर ज्ञानी होना चाहता है अथवा ज्ञानी होनेको उद्यत है उसको गुरूजन निमित्त मात्र है ।।
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उपादान सिद्धता भैया ! जो ज्ञानी बनना चाहता है उसको कहाँ रूकावट है । शास्त्र है, गुरू है, साधर्मियोका संग है, सब कुछ प्रसंग हे, कहाँ अटक है कि मुझे साधन नही है, मै कैसे ज्ञान पैदा करूँर ? जिसे ज्ञान नही पैदा करना है उसको निमित्त ही कुछ नही बबन पाते है। वह ही चीज दूसरो के लिए निमित्त बन गई जो ज्ञानी होना चाहते है और जो ज्ञानी नही होना चाहते है उनके लिए कुछ निमित्त नही है। प्रत्येक पदार्थमें परिणमन की शक्ति हे। पदार्थ मे जो शक्ति है उसका परिणमन स्वयंका ही कार्य बनता है। उस कार्य के समय अन्य पदार्थ निमित्त मात्र है। जैसे इस समय जो श्रोता यह रूचि करता हो कि मुझे तो अपने ज्ञानस्वरूपमें अपने उपयोगको लगाना है और अपना ध्यान अच्छा बनाना है तो उसके लिए तो शास्त्र के वचन निमित्त हो जायेगे, पर जिनके ऐसी रूचि नही है, जिनका उपयोग भ्रममें बना हुआ है उनके लिए ये शास्त्र के वचन निमित्त नही है । सब जीवोके स्वयंके उपादान की विशेषता है ।
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उपादान और निमित्त प्रसंग पूर्व श्लोक में कहा गया था कि परमार्थसे आत्मा आत्माही गुरू है, क्योकि प्रत्येक आत्मा स्वंय ही अपनेमें उत्तम हितकी अभिलाषा रखता है, उसका ज्ञान और उस रूप आचरण भी यह स्वयं करता है इस कारण अपना गुरू यह स्वय है। ऐसी बात आनेपर यह शंका होती है तो फिर गुरूजन और उनके उपदेश ये सब बेकार हे क्या? उसके उत्तरमें यह कहा गया कि वास्तवमें तो जितने भी कार्य होते है, चाहे कोई ज्ञानरूप परिणमे चाहे कोई अज्ञानरूप परिणमें तो यह उसके उपादानसे होता है । वहाँ अन्य जन, पदार्थ तो निमित्तमात्र होते है और उसके उदाहरणमें दृष्टान्त देते हे, जैसे जीव
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पुद्गल जब चलने को उद्यत होते है तो अपनी उपादान शक्ति से चलते है। उस समयमें धर्मास्तिकाय निमित्तमात्र है।
सिद्विका आधार और उसका निमित्त - भैया उपादान व निमित्तकी स्वंतत्रता के अनेक उदाहरण ले लो। चूल्हे पर ठंडा पानी रखा हुआ है, तो पानी जो गर्म होता है वह आगकी परिणति से नही गर्म होता है, उस पानी मे स्वयं गर्म होने की शक्ति है। वह पानी अपने उपादानसे ही गर्म होता है। हाँ उस सम्बंधमे निमित्त अग्नि अवश्य है, पर आग की परिणति पानीमें आकर पानीको गर्म कर रही हो, ऐसा नही है। जैसे आप सब सुन रहे है, जो बातें हम कह रहे है वे बातें आप सब ज्ञानमें ला रहे है, स्वंय ही अपने अन्तरमें ज्ञान का पुरूषार्थ करके जान रहे है, हम आपमें ज्ञानकी परिणति नही बना सकते है। हाँ उस तरहके ज्ञानके विकासमें ये वचन निमित्त मात्र हो रहे है। प्रत्येक पदार्थ अपने आपके उपादानसे परिणत होता है, बाहापदार्थ निमित्तरूप सहकारी होते है।
अयोग्य उपादानमें विवक्षित सिद्विका अभाव - जिसमें परिणमनेकी शक्ति नही है उसमें कितने ही निमित्त जुटे, पर वह परिणमता नही है। जैसे कुरड़ मूंगमे पकनेकी शक्ति नही है तो आप उसे चार घंटे भी गर्म पानीमें पकावें तो भी नही पक सकती। अज्ञानी पुरूष में अभव्यमें, जिसका होनहार अच्छा नही है ऐसे मिथ्यादृष्टियोमें ज्ञान ग्रहण करनेकी योग्यता नही है, अतएव वहाँ कितने ही निमित्त मौजूद हो तो भी वे लाभ नही उठा सकते, क्योकि उपयोग गंदा है। जिन निमित्तोंको पाकर सम्यग्दृष्टि जीव ज्ञानी बन सकता है उन ही निमित्तोको पाकर मिथ्यादृष्अि मोही अज्ञानी जीव दोष ग्रहण करने लगता है। यह सब अपने-अपने उपादानके योग्ताकी बात है।
लब्धिके बिना विकासका अवरोध - यदि आत्मामें एक ज्ञान प्राप्त करनेका क्षयोपशम नही है, तत्वज्ञानकी योग्यता नही है उन अभव्य जनोंको सैकड़ो धर्माचार्योके उपदेश भी सुननेको मिलें तो भी वे ज्ञानी नही हो सकते, क्योकि कोई पदार्थ किसी भी अवस्थाको छोड़कर कोई नई अवस्था बनाए तो उसमें उस पदार्थ की क्रिया और गुणोकी विशेषता है, दूसरा तो निमित्त मात्र है। प्रयोग करके देख लो - बगुला पढ़ नही सकता कभी तोतेकी भांति, वह अक्षर नही बोल सकता तो बगुलाको पालकर यदि उसे वर्षों तक भी सिखावो तो क्या वह बोल लेगा? नही बोल सकतां। उसमे उस तरह परिणमनेकी शक्ति ही नही है। तोतेमें बोलने की योग्यता है, चाहे वह न समझ पाये बोलने को भाव, किन्तु उसका मुख उसकी जिहा व चोंच ऐसी है कि कुछ शब्द वह मनुष्योक तरह बोल सकता है। कितने ही लोग तो तोतेको चौपाई तक सिखा देते है। कोई गद्यमें बात सिखा देते हे। वह तोता बोलता रहता है। तो जैसे बगला सैकड़ो प्रयत्न करनेप भी बोल नही सकता है इसी प्रकार अभव्य जीवोके अज्ञानी जीवोके चूँकि तत्वज्ञान उत्पन्न करनेकी योग्यता नही है, इस कारण कितने ही ज्ञानी पुरूषोके उपदेश मिले, कितने ही निमित्त साधन मिलें तो भी वे ज्ञानी नही
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बनाये जा सकते है। उपादान ही विपरीत है तो वे ज्ञानको कैसे ग्रहण करेगें? बल्कि वे अज्ञान ही ग्रहण करेंगे।
योग्यतानुसार परिणमन - जब तीर्थकरोंका समवशरण होता था उस मसवशरणमं अनेक जीव अपना कल्याण करते थे और अनेक जीव उस समय ऐसे भी थे कि प्रभुको मायावी, इन्द्रजालिया, ऐसे अनेक गालियोके शब्द कहकर अपना अज्ञान बढ़ाया करते थे, वे कल्याणका पथ नही पा सकते थे। हुआ क्या, प्रभु तो वहीके वही, अनेकोने तो कल्याण प्राप्त कर लिया और अनेकोने दुर्गतियोंका रास्ता बना लिया। ये सब जीवोंकी अपनी-अपनी योग्यताकी बातें है। जो पुरूष अज्ञान दशाको छोड़कर ज्ञान अवस्थाको प्राप्त करना चाहते है वे अपनी ही योग्तासे ज्ञानी बनते है। अन्य जन तो निमित्तमात्र है, ऐसे ही जो पुरूष पाप करना चाहते है पापोमे मौज मानते है वे अपनी ही अशुद्ध परिणतिसे पापोका परिणाम बनाते है। अन्य जो विषयोके साधन है वे निमित्तमात्र है।
योगीश्वरो का ज्ञानसे अविचलितपना - जो योगीश्वर सम्यग्ज्ञानके प्रकाशसे मोहान्धकारको नष्ट कर देते है, जो तत्व दृष्टि वाले है, यथार्थ ज्ञानी है, शान्तस्वभावी है, ऐसे योगीश्वर किसी भी प्रसंगमें अपने ज्ञानपथको नही छोड़ते है। यह साहस सम्यग्दृष्टिमें है कि कैसा भी विपदा, कैसा भी उपसर्ग आ जाय तिसपर भी वे अपने ज्ञानस्वभावको नही छोड़ सकते। परपदार्थ कैसे ही परिणमें, पर सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरूष उसके ज्ञाता द्रष्टा मात्र रहते है। किसी कवि ने कहा है कि गाली देने वाला पुरूष गाली देता है और सज्जन पुरूष विनय प्रकट करता है, तो जिसके समीप जो कुछ है उससे वही तो प्रकट होगा।
परिणमनकी उपादानानुसारिता - ज्ञानी पुरूष दूसरोके गुण ग्रहण करता है, दोष नही ओर अज्ञानी पुरूष दूसरोंके गुण नही ग्रहण कर सकता, दोष ही ग्रहण करेगा। जो जैसा है वह वैसा ही परिणमता है, कहाँ तक रोका जाए ? मूर्ख पुरूष किसी सभा में सजधजकर बैठा हो तो कहाँ तक उसकी शोभा रह सकती है? आखिर किसी प्रसंगमें कुछ भी शब्द बोल दिया तो लोग उसकी असलियत जान ही जायेगे। तोतला आदमी बड़ा सजधकर बैठा हो मौजसे तो उसकी यह शोभा कब तक है जब तक कि वह मुखसे कुछ बोलता नही है। बोलने पर तो सब बात विदित हो जाती है। जो लोग भीतरसे पोले है और आर्थिक स्थिति ठीक नही है और बहुत बड़ी सजावट करके लोगोमें अपनी शान जतायें तो देखा होगा कि किसी प्रसंगमें वे हँसेगे तो वह हँसी कुछ उड़ती हुई सी रहती है, और जानने वाले जान जाते है कि ये बनकर हँस रहे है, इनके चित्तमें इस प्रकारकी स्वाभाविक हँसी नही है जो स्वाभाविक बात आ सके। कहाँ तक क्या चीज दबाई जाय, जिसमें जैसा उपादान है वह अपने उपादानके अनुकूल ही कार्य करेगा।
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प्रत्येक प्रसंग में ज्ञानी की अन्तः प्रतिबुद्वता
तत्वज्ञानी पुरूष ज्ञानका ही कार्य करेगा और अज्ञानी पुरूष अज्ञानका ही कार्य करेगा। जैसे स्वर्ण धातुसे लोहेका पात्र नहीं बनाया जा सकता और लोहे की धातुसे स्वर्णका पात्र नही बनाया जा सकता अथवा गेहूं बोकर चना नही पैदा किया जा सकता और चना बोकर गेहूं नही पैदा किया जा सकता। ऐसे ही अज्ञानी जीव, अभच्य जीव धर्मके नाम पर बहुत बड़ा ढोगं रचे तिस पर भी उनके अतरंग ज्ञान कैसे प्रकट हो सकता है और ज्ञानी पुरूष किसी परिस्थितिमें अयोग्य भी व्यवहार करता हो तो भी वह भीतरमें प्रतिबुद्ध रहता है। श्री रामका दृष्टान्त सब लोग जानते है । जब लक्ष्मणकी मृत्यु हो गई थी उस समय उनको कितनी परेशानी और विहलता थी? जब सीताका हरण हुआ था उस समय भी कितनी विहलता थी? उस समय के लोग उन्हे अपने भीतरमें पागल कहे बिना न रहते होंगे, वह स्थिति बन गयी थी । किन्तु वे महापुरूष थे,
रहे ।
श्रीरामकी अन्तः प्रतिबुद्वताका उदाहरण भैया ! कैसे जाना कि राम संकटकाल में भी प्रतिबुद्ध थे? तो एक दो दृष्टान्त देखलो। जिस समय श्रीराम और रावणका युद्ध चल रहा था उन दिनोमे रावण शान्तिनाथ चैत्यालयमें बैठकर बहुरूपिणी विद्या सिद्ध कर रहा है । लोगो ने राम से कहा कि रावण बहुरूपिणी विद्या सिद्ध कर रहा है। उसने यह विद्या यदि सिद्ध कर ली तो फिर उसका जीतना कठिन है, इस इस कारण विद्या सिद्ध ने होने दे, उसमें विघ्न डाले, उसका उपयोग भ्रष्ट कर दे, इसकी ही इस समय आवश्यकता है। तब राम बोले कि वह चैत्यालयमें बैठा है, अपनी साधना कर रहा है, उसमें विघ्न करनेका हमें क्या अधिकार? रामने इजाजत नही दी कि तुम रावणकी इस साधनामें विघ्न डालों । विवेकी थे तभी तो विवेकीकी बात निकली। फिर क्या हुआ यह बात अलग है। कुछ मनचले राजाओ वहाँ जाकर थोड़ा बहुत उपद्रव किया। राजाओं द्वारा उपद्रव किया जाने पर भी रावण अपनी साधनासे विचलित नही हुआ । तब जो विद्या अनेक दिनोमें सिद्व हो सकती थी वह मिनटोमें ही विद्या सिद्ध हो गई ।
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निर्भयताके लिये अन्तःसाहसकी आवश्यकता - भैया! खुद मजबूत होना चाहिए फिर क्या डर है? स्वयं ही कायर हो, भयशील हो तो दुःखी होगा ही। कोई दूसरा पुरूष उसे कदाचित् भी दुःखी नही कर सकता। मैं ही दुःखके योग्य कल्पना बनाऊँ तो दुखी हो सकता हूं। क्या दुःख है, दुःख सब मान रहे है। हर एक कोई यह अनुभव करता है कि मेरे पास जो वर्तमानमें धन है वह पर्याप्त नही है, मेरी पोजीशको बढ़ाने वाला नही है। इस कल्पना से सभी जीव दुःखी है और देखो तो कही दुःख नही है, जिसके पास जो स्थिति है उससे भी चौथाई होती तो क्या गुजारा न होता ? जिसके पास इस सम्पत्तिका हजारंवा भाग भी नही है क्या उसका गुजारा नही होता है? होता है और उनके सद्बुद्धि है तो वे
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धर्ममे लगे हुए है। क्या कष्ट है, पर कल्पना उठ गई इससे सुख सुविधाओ का भी उपयोग सही नही किया जा सकता।
बुद्विके अनुसार घटनाका अर्थ - जिसका जैसा उपादान है। वह अपने उपादानके अनुकूल ही कार्य करेगा। एक नावमें कुछ लोग बैठे थे। कुछ गुण्डोने उनको गालियाँ दी तो वे समतासे सहन कर गए। वे गुन्डे यह कहते जाये कि ये चोर है, बदमाश है, झूठे है, ढोगी है आदि तो साधु कहते है कि ये लोग ठीक कह रहे है हम चोर है, बदमाश है। झूठे है अन्यथा इस संसारमें क्यो भटकते? आप लोग इन पर कयो नाराज होते हो? खैर जब तक बातें हुई तब तक तो ठीक, लेकिन एक उद्दण्ड ने एक साधुके सिरमें तमाचा भी मार दिया। तो वह साधु कहता है कि आप लोग इस पर नाराज मत होओ। यह भाई यह कह रहा है कि तुमने अपना सिर प्रभुके चरणोमें भक्तिपूर्वक नमाया नही है इसलिए यह सिर तोड़ने योग्य है, यह मुझे शिक्षा दे रहा है। नाराज मत होओ। चीज वहीकी वही है, चाहे गुण ग्रहण करने लायक कल्पना बना लें और चाहे दोष ग्रहण करने लायक कल्पना बना ले। ज्ञानी पुरूष गुणग्रहणकी कल्पना बनाते है और अज्ञानी पुरूष दोषग्रहण करनेकी कल्पना बनाते है जो पुरूष दूसरोके दोष ग्रहण कर रहा है उसने देसरेका बिगाड़ा क्या, खुदका ही उसने बिगाड़ कर लिया।
योग्यताकी संभालमें ही सुधार - जितने भी पदार्थ हे वे सब अपनी योग्यताके अनुकूल परिणमते है। इन सब कथनोसे यह रस्पष्ट किया गया है कि ज्ञानी बनने की सामर्थ्य भी अपनी आत्मामे है और अज्ञानी बननेकी सामर्थ्य भी अपनी आत्मामें है। गुरूजन तो बाहा निमित्त कारण है। जिसे कामी बनना ही रूचिकर है उसको फोटो या कोई स्त्री पुरूष रूपवान कुछ भी दीखे तो सब निमित्तमात्र है, पर स्वंय में ही ऐसी कलुषता है योग्यता है जिसके कारण वे काम के मार्ग में लग जाते है। कोई पुरूष क्रोधस्वभाव वाला है, उसको जगह-जगह क्रोध आने का साधन जुट जाता है और कोई शान्तस्वभावी है तो उसे किसी भी विषय में क्रोध नही आता है। इससे यह जानना कि अपनी योग्यता संभाले बिना अपने आपका सुधार कभी हो नही सकता हे।
उपादान के परिणमन में अन्य का निमित्तपना - भैया! दूसरे का नाम लगाना क्या करे, अमुक है, ऐसा है इसलिए हमारा काम नही बनता, ये सब बहानेबाजी है। राजा जनक के समय में एक गृहस्थ आया, जनक बैठे थे। बोले महाराज हम बहुत दुःखी है, मुझे गृहस्थ ने फंसा रक्खा है, धन वैभव ने हमें जकड़ रक्खा है, मुझे साधुता का आनन्द नही मिल पाता है, तो आप कोई ऐसा उपाय बताओ कि वे सब मुझे छोड़ दे ? तो जनक से कुछ उत्तर ही न दिया गया। और सामने जो खम्भा खड़ा था उसको अपनी जोट में भर कर कुछ चिल्लाने लगे कि भाई-भाई मै क्या करूँ, मुझे तो इस खम्भे ने जकड़ लिया है। मै कुछ जवाब नहीं दे सकता। मुझे यह खम्भा छोड़ दे तो फिर जवाब दूँ, | तो गृहस्थ
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बोला- महाराज ! कैसे आप भूली भूली बातें करते है। अरे खम्भे ने आपको जकड़ लिया है कि आपने खम्भे को जकड़ लिया है ? तो राजा जनक कहते है कि बस यही तो तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है। धन, दौलत, कुटुम्ब ने तुमको फंसा रक्खा है कि तुमने खुद उनको फंसा रक्खा है तो कोई किसी को न ज्ञानी बना सकता है, न अज्ञानी बना सकता है। निमित मात्र अवश्य है। इस कारण ज्ञान की प्राप्ति के लिए गुरूओ की सेवा सुश्रूषा करना कर्तव्य है, उनमें श्रद्वा भक्ति कर्तव्य हे परन्तु परमार्थ से अपने आत्मा को ही अपना मार्ग चालक जानकर अपने पुरूषार्थ और कर्तव्य का सदा ध्यान रखना चाहिए ।
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अभवच्चित्तविक्षेप एकान्ते तत्वसंस्थितिः ।
अभ्यस्येदभियोगेन योगी तत्वं निजातमनः । 36 ।।
आत्मतत्वाभ्यास की प्रेरणा जिसके चित्त में किसी भी प्रकार का विक्षेप नही है अर्थात् रागद्वेष की तरंग की कलुषता नही है, तथा जिसकी बुद्धि एकान्त में तत्व में लगा करती है ऐसा योगी निज तत्व का विधिविधान सहित योग साधना समाधि सहित ध्यान का अभ्यास करता है। आत्मस्वरूप के अभ्यास का उपाय क्या है, इस प्रश्न का उत्तर देते हुए श्लोक में यह बाताय है कि रागद्वेष का क्षोभ न हो तो तत्वचिन्तन का अभ्यास बने । रागद्वेष का क्षोभ न हो इसके लिए यथार्थ स्वरूप का परिज्ञान चाहिए । सो सर्वप्रयत्न करके अध्यात्मयोगार्थी को आत्मतत्व का अभ्यास करना चाहिये ।
सर्वत्र ज्ञान लीला भैया! सब कुछ लीला ज्ञान की है, सर्वत्र निहार लो, जो आनन्द में रत है, योगी है उनके भी ज्ञान की लीला चल रही है। जो दुःखी पुरूष है, जो दुःख की कल्पना बनाते है तो कल्पना भी तो ज्ञान से ही सम्बन्ध रखने वाली चीज हुई ना, कुछ तो ज्ञान में आया, किसी प्रकार की जानकारी तो बनायी उसका क्लेश है । वहाँ भी ज्ञानकी एक लीला हुई । जो पुरूष आनन्द में रत है उसने भी अपना विशुद्व ज्ञान बनाया, उस विशुद्ध ज्ञान का उसे आनन्द है, वहाँ तो ज्ञान की विशुद्व लीला है ही । यो योगी अपने तत्वचिन्तन का अभ्यास बनाता है ।
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चित्त का विक्षेप महती विपदा - चित्त का विक्षिप्त हो जाना यह महती विपत्ति है । किसी धनी पुरूष के कोई पागल बिगड़े दिमाग का कम दिमाग का या जिसके चित्त में विक्षेप होता रहे ऐसे दिमाग का बालक हो तो लोग इसके रक्षक माता पिताजन रिश्तेदार वगैरह हजारो लाखो का खर्च करके भी चाहते है कि उसके चित्त का विक्षेप बदल दे तो ऐसा उपाय करते है। पर हैरान हो जाते है, दुःखी ही रहते है। कदाचित् ठीक हो जाय तो उसके ही होनहार से वह ठीक होता है। दूसरे लोग उसमें कुछ अपना करतब नही अदा कर सकते है । चित्त का विक्षिप्त हो जाना यह जब तक बना रहेगा तब तक रागद्वेष का क्षोभ रहेगा। इस आकुलता के कारण आत्मस्वरूप का ध्यान नही बन सकता। किसी मनुष्य के द्वारा कुछ अपने को कष्ट पहुंचे, कष्ट तो नही पहुंचा, पर किसी मनुष्य का बोल सुनकर
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उसकी चेष्टा निरखकर कुछ ऐसी कल्पना बनायी कि दुःखी हो गए, तो दुःखी हो जाने पर चित्त में ऐसा हठ होता है कि हम भी इसका कुछ बदला चुकायेगे, लेकिन ऐसे परिणाम का होना यह इसके लिए बहुत बड़ी विपत्ति है ।
अन्तः साहस
दुनिया के जीव जो कुछ करते हो, करे, उनका उसी प्रकार का अशुभ कर्म का उदय है कि थोड़ी बुद्धि है, थोड़ी योग्यता है, उसके अनुकूल उन्होने अपनी प्रवृत्ति की, उसको देखकर यदि हम भी चलित हो जायें अर्थात् क्षमाभाव से, सत्य श्रद्वा से, आत्मकल्याण की दृष्टि से हम भी चिग जाये तो हमने कौनसा अपूर्व काम किया? इससे यह बड़ी साधना है, बड़ा ज्ञानबल है कि इतनी हिम्मत भीतर में रहे कि लोग जो चेष्टा करे सो करते जायें पर हम तो अपने आपके सत्य विचार सत्य कर्तव्य में ही रत रहेगे। हाँ कोई आजीविका पर धक्का लगे, अथवा आत्महित मे कोई बाधा आए और उस बाधा को दूर करने के लिए कुछ सामना करना पड़े, उत्तर देना पड़े तो वह बात अलग है, पर जहाँ न हमारी आजीविका पर ही धक्का लग रहा हो और न हमारी धर्मसाधना में कोई आ रही हो, फिर भी किसी प्रतिकूल चलने वाले पर रोष करना अथवा उससे बदला लेने का भाव करना, यह तो हित की बात नही है ।
क्षमा से अन्तःस्वच्छता
भैया ! खुद को तो बहुत स्वच्छ रहना चाहिए क्योंकि बदला देने का परिणाम यदि रहा तो उससे चित्त में शल्य रहा, पापों का बंध बराबर चलता रहा जब तक कि बदला लेने का संस्कार मन में रहा आया हो । लाभ क्या उठा पाया, हानि ही अपनी की, कर्मबधं किया, समय दुरूपोया में गुजारा और फायदा कुछ भी न उठाया । शान्त रहते तो बुद्वि स्वच्छ रहती, पुण्य बंध होता, धर्म में भी गति होती । तब गृहस्थ को कम से कम इतना तो अपना मनोबल बढ़ाना चाहिए कि जिस घटना में आजीविका आदि पर धक्का न लग रहो हो, आत्महित में बाधा न हो रही हो तो ऐसी घटानाओ मे न कुछ क्षोभ लाना है और न कुछ प्रतिक्रिया करने का आशय बनाना है। योगी साधु पुरूष तो किसी भी परिस्थिति में चाहे कोई प्राण भी ले रहा हो तब भी उस घातक पुरूष पर रोष नही करतें है उनके और उत्कृष्ट क्षमा होती है । चित्त में रागद्वेष का क्षोभ न मच सकेल ऐसा अपना ज्ञानबल बढ़ाना, यही आत्मा के हित की बात है ।
कल्पना की व्यर्थ विपदा
भैया! मोटी बात सोचो, इस आत्मा का साथी कौन है? इस आत्मा के साथ जायेगा कौन? मरते हुए लोगो को देखा है, एक धागा भी साभ नही जाता है। खूब बढ़िया ऐसी बडी पहिना दो जिसे उतार भी न सकें या कैसे ही कपड़ो में गूँथकर रख दो, पर जीव जो मर रहा है उसके साथ कुछ भी जा सकता है क्या? मरने वाले मनुष्य की छाती पर नोटो की गठरी रख दो तो भी वह उसमें से कुछ ग्रहण कर सकता है क्या? कितना दयापूण वातावरण है वह । मोही पुरूष कितनी विपत्ति में पड़ा हुआ है, उसे सत्य मार्ग ही नही दीखता । एक राग के अंधकार में बहा जा रहा है और रागी
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पुरूष ही सामने मिलते है, सो वे पुरूष इसको कुछ बुरा भी नही कहते। दूसरे की रागभरी चेष्टा को देखकर दूसरे रागी लोग उसकी सराहना ही करते है। तब कैसे इस राग की विपदा से दूर हो?
अन्तः आश्रय का साहस - धर्म का पथ बड़ा कटीला पथ है। जब तक कोई अपने में इतना साहस नही करता कि लो मै तो दुनिया के लिए मरा ही हुआ हूं, अर्थात् मुझे दुनिया को कुछ नही दिखाना है। दस साल आगे मरने को समझलें कि अभी हम दुनिया के लिए मर गए। जो जीवित हूं, वह केवल आत्मकल्याण के लिए शान्ति और संतोष से रहकर इन कर्मो को काटने के लिए जीवित हूं, ऐसा साहस जब तक नही आता तब तक तो सही मायने में यह धर्म का पात्र नही होता। अब अपने को टटोल लो कि हमे किस प्रकार का साहस रखना है, जिन जीवों में मोह पड़ा हुआ है, पुत्र हो, स्त्री हो, कोई हो उनके प्रति उनको विषय बनाकर जो उपयोग विकल्पों में गुथें रहते है भला बतलाओ तो सही कि इन विकल्प जालो से कौन सा आनन्द पाया, कौन सा प्रकाश पाया?
व्यामोह विपत् - व्यामोही प्राणियो के कितना अंधकार बना हुआ है, अन्तर में श्रद्वा यह बैठी है कि यह तो मेरा है, बाकी दुनिया गैर है। भाईचारे के नाते से व्यवस्था करना अन्य बात है। व्यवस्था करना पड़ती है, ठीक है, किन्तु अंतरंग में यह श्रद्वा जम जाय कि मेरे तो ये ही है तीन साड़े तीन लोग, और बाकी सब गैर है, ऐसी बुद्धि में कितना पाप समाया हुआ है, उसे कौन भोगेगा? प्रकट भी दिखता है कि किसी का कुछ कोई दूसरा नही है। देखते भी जाते है, घटनाँए भी घट जाती है, तिस पर भी वासना वही रहती है। एक अहाने में कहते है कि कुत्ता की पूछ को किसी पुँगेरी में अर्थात् पोले बास में जो कि सीधा होता है उसमें पूँछ को रख दो तो पूँछ सीधी तो रहेगी किन्तु जब निकलेगी तो तुरन्त टेढ़ी हो जायगी, ऐसे ही कितनी मोह की तीव्र वासना भरी है अज्ञानी जीवो की। किसी गोष्ठी में या पंचकल्याण विधानो के दृश्यो में, या विद्वानो के भाषणो में या मरघटो में, किसी को जलाने जा रहे है अथवा समुदायो में ये भाव कर लेते है, चर्चा कर लेते है, ज्ञान की और वैराग्य की, पर थोड़ी ही देर बाद जैसे के तैसे ही रह जाते है। बड़ी विपदा है यह मोह की।
निर्मोहता की अमीरी - भैया ! मोह जिसका छूटे वही पुरूष सच्चा अमीर है। कौन पूछने वाला है, किसके लिए तृष्णा बढ़ाई जा रही है? कोई जीवन में अथवा मरण में साथी हो सकता हो तो निहारो जब तक चित्त में विक्षेप है तब तक इस जीव को साता हो ही नही सकती। इसलिए सबसे पहिले योगी को अपना चित्त शान्त रखना चाहिए। एक ज्ञान बढ़ाने का चस्का लगा लीजिए फिर दिन बड़े अच्छे कटेंगे। इतना ज्ञान सीखा अब और आगे समझना है।
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प्राप्त बल का आत्महित में सदुपयोग - जब तक आँखे काम दे रही है, जब तक इन आँखो से देखना बन रहा है तब तक स्वाध्याय करके, ज्ञान सीखकर क्यो न सदुपयोग कर लिया जाय? जब कदाचित् मान लो आँखो से दिखना बंद हो जाय तब क्या किया जाएगा? ज्ञानार्जन का उपाय फिर ज्यादा तो न किया जा सकेगा। भले ही बहुत कुछ सीखा हो तो ध्यान करके ज्ञान का फल पा सके। लेकिन जब तक ये इन्द्रियां सजग है, समर्थ है तब तक इनका सदुपयोग कर ले। कानो से जब तक सुनाई दे रहा है तो तत्व की बात सुनें ना, ज्ञान की बात वैराग्य की बात सुनें ना, महापुरूषो के चारित्र की बात सुने, जिनके सुनने से कुछ लाभ होगा। जब तक बोलते बन रहा है जीभ ठीक चल रहीर है तब तक प्रभुभक्ति गुणगान स्तवन कर लें ना। जब बल थक जायगा, कुछ बोल न सकेगें, जीभ लड़खडा जायगी फिर क्या कर सकेगे? जब तक शरीर में बल है, हाथ पैर चलते है तब तक गुरूओ की सेवा कर ले ना। जब स्वयं ही थक जायेगे, उठ ही न सकेगे फिर क्या किया जा सकेगा? जब तक यह बल बना हुआ है इस बल का उपयोग धर्म साधना के लिए करना चाहिए।
धर्म साधना - धर्म साधना मोह राग द्वेष उत्पन्न न हो, इसमें ही है। इसकी सिद्धि के लिए योगी पुरूष एकांत स्थान में रहने का अभ्यास करते है। एकात निवास आत्मस्वरूप की बड़ी साधना है। एंकात निवास में जब रागद्वेष के साधन ही सामने नही है तो प्रकृति से इसके चित्त पर स्फूर्ति जाग्रत होती है। जब तक हेय और उपादेय पदार्थ का परिज्ञान न होगा तब तक कैसे आत्मस्वरूप का अभ्यास बन सकता है? सबसे बड़ी दुर्लभ वस्तु है तो ज्ञान है। धन, कन, कंचन, हाथी, घोड़ा दुकान वैभव ये कोई काम न आयेगें, पर अपना आत्मज्ञान एक बार भी प्रकट हो जाए तो यह अचल सुख को उत्पन्न कर देगा। इसलिए करोड़ो बातो मे भी प्रघान बात यह यही है कि अनेक उपाय करके एक ज्ञानार्जन का साधन बना ले।
विनाशीक वस्तु से अविनाशी तत्व के लाभ का विवेक - यदि नष्ट हो जाने वाली चीज का व्यय करके अविनाशी चीज प्राप्त होती है तो इसमें विवेक ही तो रहा। यह वैभव धन खर्च हो जाता है त्याग हो जाता है और उस त्याग और व्यय करने से कोई हमं कुछ ज्ञान की सिद्धि होती है, दृष्टि जगती है तो ऐसी उदारता का आना लाभ ही तो है, अन्यथा तृष्णा में कृपणता में होता क्या है कि वियोग तो सबका होगा ही, इसमें ज्ञान से सूना-सूना रहने के कारण अंधेरी छायी रहेगी, दुःखी होगे। कृपण पुरूष के कितनी विपत्ति है, इसका ज्ञान कब होता है जब कोई लुटेरे लूट ले, धन नष्ट हो जाय, तो लोगो को विदित होता है कि इसके पास इतना कुछ था। बताओ कौन सा लाभ लूट लिया राग की आसक्ति में और मोह ममता में?
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तत्वज्ञान का आदर - भैया! जब तक एक ज्ञान का प्रकाश नही हो सकता तब तक आत्मा में शान्ति आ ही नही सकती। इस कारण यह कर्तव्य है कि इम स्व और पर का यथार्थ विवेक बनाएँ। मेरा आत्मा समस्त परपदार्थो से न्यारा ज्ञानानन्दस्वरूप है, ऐसा भान जिन संतो के रहा करता है ये ज्ञानी योगी पुरूष है। सब दशाओ में ज्ञान ही तो मदद देता है। धन कमा रहे हों तो वहाँ भी क्या ज्ञान बना रहकर, भोपना करके व्यापार का काम बन जायगा? वहाँ भी ज्ञानकला का ही प्रताप चल रहा है। किसी भी प्रकार की जो कुछ भी श्रेष्ठता है वह सब ज्ञान की कला के प्रताप से है। इस तत्वज्ञान का आदर करो, यही सहाय है। इसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी जगत में सहाय नही है। जो जीवन में ज्ञानी होता है वह मरते समय भी अपनी ज्ञानवासना के कारण प्रसन्न रहता है।
जगत का खेल - अहो कैसा है यह जगत का खेल, पहिले बनाया जाता और फिर मिटाना पड़ता। जैसे बच्चे लोग मिट्टी का भदूना बनाते हे बाद में बनाकर बिगाड़ देते है, अपना समय उस खेल में व्यर्थ गंवाते है ऐसे ही रागी मोही जन किसी काम को बनाते है तो वह भी क्या सदा तक बना रह पाता है? वह भी बिखर जाता है। तो क्या बुद्धिमानी हुई, बनाया और बिगाड़ा। बनानो में तो इतना समय लगा और बिगाड़ने में कुछ भी समय न लगा। जिन्दगी भर तो इतना श्रम किया और अंत में फल कुछ न मिला तो ऐसे व्यवसाय से, परिश्रमसे कौन सा अपने आपके आत्मा का लाभ उठाया?
___व्यवहार से लाभ- भैया ! सब हिम्मत की बात है। जो पुरूष इतना तक समझने के लिए तैयार रह सकता है कि मैं तो इस इनिया के लिए मरा हुआ ही हूं, मै इन मायामयी मोहीप्राणियो से, इन मोही मायामयी समागमों से मैं कुछ नही कहलवाना चाहता हूँ, मै अपने आप में ही प्रसन्न हूं, इतना साहस यदि किया जा सकता है तब धर्म पालन की बात बोलना चाहिए अन्यथा सब एक पार्ट अदा किया जा रहा है। जैसे दूकान किया, ऐसे ही पूजन भी किया, यह सब तफरी है एक तरह की। जिसको ज्ञान की दृष्टि नही है, जिसने अपना लक्ष्य विशुद्व नही बना पाया है उनका दिल बहलावा है। खोटे-खोटे कामों में ही बहुत समय तक रहने पर फिर दिल नही लगता है, ऊब जाता है, अब उस दिल को कहाँ लगाये? तो कुछ यहाँ व्यवहार धर्म की बाते भी बना ली।
व्यवहार धर्म की बाहा सहायकता - व्यवहार धर्म बुरा नहीं है, हमारी भलाई में सहायक है, पर जैसे हमारी भलाई हो सकती है उस प्रकार की दृष्टि बनाकर व्यवहार धर्म को करें तब ही तो भलाई हो सकती है जो पुरूष अपने को सबसे न्यारा अकिञचन केवल ज्ञानानन्द स्वरूप निहारेगा उसको त्रवि सिद्वि होगी और जो बहिर्मुखदृष्टि करके अपना उपयोग, बिगाड़ेगा, भले ही पूर्वजन्म के पुण्य के प्रताप से कुछ जड़ विभूति मिल जाय किन्तु उसने किया कुछ नही है, आगे वह दुर्गति का ही पात्र होगा। इससे रागद्वेष न हो, ज्ञानप्रकाश बने ऐसा उद्यम करना इसमें ही हित की बात होगी।
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यथा यथा समायति संवित्तौ तत्वमुत्तमम् ।
अपने उपयोग में जैसे-जैसे यह आत्मतत्व विकसित
तथा तथा न रोचन्ते विषयाः सुलभा अपि । 137 ।। ज्ञान से विषयो में अरूचि होता जाता है वैसे ही वैसे ये सुलभ भी विषय रूचिकर नही होते है । जब सहज शुद्व अंतस्तत्व के उपयोग से एक आनन्द झरता है तो उस आनन्द से तृप्त हो चुकने वाले प्राणियो को सुलभ भी विषय, सामने मौजूद भी विषय रूचिकर नही होता है। जब तक अपने स्वभाव को बोध न हो तब तक विषयों में प्रीति जगती है। जब कोई पदार्थ है तो उस पदार्थ का कुछ स्वरूप हो सकता है, उसे कहते है सहजस्वरूप । इस आत्मा का आत्मा की स्वरूप सत्ता के कारण क्या स्वरूप हो सकता है उसका नाम है सहज स्वरूप । यह उत्तम तत्व जिसके ज्ञान में समाया है उसे सुलभ भी विषय रूचिकर नही होते।
नैमित्तिक भाव में स्वरूपता का अभाव जो किसी परद्रव्य के सम्बन्ध से इस आत्मा की बात बनती है वह आत्मा में होकर भी आत्मा का स्वरूप नही है। जैसे दृष्टान्त में दखिये कि अग्नि के सम्बन्ध से पानी में गर्मी आने पर भी पानी का स्वरूप गर्मी नही है। यद्यपि उस पानी को कोई पी ले तो मुँह जल जायगा गर्मी अवश्य है और वही गर्मी पानी I में तन्मय है, इतने पर भी पानी का स्वरूप गर्म नही कहा जा सकता है। इस ही प्रकार कर्मों के उदयवश अपने उपयोग की भ्रमणा चल रही है, रागादिक भाव उत्पन्न होते है, ये रागादिक आत्मा के ही परिणमन है, इतने पर भी ये रागादिक आत्मा के स्वरूप नही बन जाते है इतनी बात की खबर जिसे है उसने अपना मनुष्य जन्म सार्थक कर लिया है। शेष जो कुछ भी समागम मिला है वे सर्व समागम इस आत्मा के भले के लिए नहीं है, ये छूटेगें और जब तक साथ है तब तक भी क्या यह जीव चैन से रह सकता है ?
स्व की विश्वास्यता भैया! इन समागमों में रंच भी विश्वास न करो और यह विश्वास करो कि मेरे ही स्वरूप के कारण मेरा जो स्वभाव है बस वही मेरा शरण है, वही मरो रक्षक है। उसमें स्वंय आनन्द भरा हुआ है । ऐसे इसे सहज ज्ञानानन्दस्वरूप की जिन्हे सुध रहती है और इस स्वरूप के अनुभव से जो शुद्ध आनन्द का अनुभव जगा है उसके कारण इस ज्ञानी को ये सुलभ विषय भी रूचिकर नही होते है ।
परिस्थितिवश विषय में अरूचि से एक अनुमान अब जरा इस तरह भी अनुमान कर लो। जब किसी कामी पुरूष को कामविषयक वासना का विकल्प चलता है तो उसे जात कुजात अथवा किसी ही वर्ण का रूप हो, सब सुन्दर और रमणीक जंचता है, और यही उपयोग जब ज्ञानवासना को लिए हुए हो और यहाँ अतः प्रसन्नता धार्मिक जग रही हो तो सुन्दर से भी सुनदर रूप हाड़ माँस का पिञ्चर है, इस प्रकार दीखा करता है और भी दृष्टान्त देखो
जब भोजन करने मे आसक्ति का परिणाम हो रहा हो उस समय भोजन कितना स्वादिष्ट और सरस सुखदायी मालूम होता है ? जब उपयोग बदला हो, किसी बाह
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विकल्प में फंसा हो या कोई बड़ी हानि का प्रसंग आया हो जिससे चिन्तामग्न हो तो उस काल में वह भोजन ऐसा सरस स्वादिष्ट नही प्रतीत होता है। क्योकि उपयोग दूसरी जगह है। ज्ञानी संत का उपयोग इस सहज ज्ञानस्वरूप के अनुभव से निर्मल हुआ है, उसे यो सुलभ विषय भी रूचिकर नही होते है। यह बात युक्त ही है कि अधिक आनन्द मिल जाय तो हीन आनन्द की कोई चाह नही करता है।
मोही की अस्थिरता - इस मोही जीव को विषय-साधनो में रमने के कारण शुद्ध आनंद नही मिला है इसलिए किसी भी विषय को भोगकर तृप्त नही हो पाते। तृप्त न होने के कारण किसी अन्य विषय में अपना उपयोग फिर भटकने लगता है। पंचेन्द्रिय के विषय और एक मन का विषय। इन 6 विषयो में से किसी भी एक विषय में ही रत हो जाय, यह भी नही हो पाता है।
मोहोन्मत्त का विषयपरिवर्तन - किसी को यदि स्पर्शन का विषय प्रिय है, काम मैथन का विषय प्रिय है तो फिर रहो न घंटो उसी प्रसंग में, पर कोई रह नही पाता है। अतृप्ति हो जाती है, तब तृप्ति के लिये अन्य विषय खोजने लगता है। किसी को भोजन ही स्वादिष्ट लगा हो तो वह करता ही रहे भोजन, लेकिन नही कर पाता है फिर दूसरे विषय की याद हो जाती है। किसी को कोई मन का विषय रूच रहा है यश, पोजीशन, बड़प्पन रूच यत्न करता है? मोही जीव को कहीं भी तृप्ति का काम ही नही है। अज्ञान हो और वहाँ संतोष आ जाय यह कभी हो नही सकता। संतोष के मार्ग से ही संतोष मिलेगा। जिन अज्ञानी पुरूषों के उपयोग में भेदविज्ञान के प्रताप से यह शुद्ध ज्ञानानन्दस्वरूप परमतत्व है उन्हे ये सुलभ विषय भी रूचिकर नही होते है।
विषय साधनों की पराधीनता, विनश्वरता व दुःखमयता - ये विषयभोग प्रथम तो पराधीन है। जिस विषय की चाह की जाती है उस विषय में स्वाधीनता नही है। किन्तु यह आत्मा का आनन्दमयी स्वरूप जिसको हमें ही देखना है, हमारा ही स्वरूप है, जिसके देखने वाले भी हम है, और जिसे देखना है वह भी शाश्वत हममें विराजमान है फिर वहाँ किस बात की आधीनता है? यह आत्महित का कार्य स्वाधीन है। जो स्वाधीन कार्य है उसके झुकाव में विकृति नही रहती है। और जो पराधीन कार्य है उसकी निरन्तर वाञछा बनी रहती है। पराधीन ही रहें इतना ही ऐब नही किन्तु ये नष्ट हो जाते है। ऐसा भी नही है कि ये विषय सदैव बने रहे। ये मायामय है, कुछ ही समय बाद ये नष्ट हो जाते है। पराधीन है और नष्ट हो जाते है। वे रहे आये पराधीन व विनाशीक तो भी मोही यह मान लेगा कि हम तो जब तक है तब तक तो मौज मिल जायगी। सो इतना भी नही है। जितने काल विषयो का समागम है उतने काल भी बीच-बीच में दुःख के ही कारण होते रहते है।
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वक्तव्य एक प्रसंग की भूमिका पुराण में एक कथानक पढ़ा होगा, आदिनाथ भगवान के पूर्व भवों में जब वज्रजंघ का भव था तो उनकी स्त्री श्रीमती हुई, और श्रीमती का विवाह जब न हुआ था तब उस श्रीमती कन्या ने देखा कि कबूतर और कबूतरी परस्पर में रम रहे है, इतना देखकर उसे कुछ जाति स्मरण हुआ । श्रीमति पहिले भव में देवी थी और वज्रजंघ ललितांग देव था । उस जातिस्मरण में उसे पिछले मौजो की सुध आयी और ललितागं देव का स्मरण हुआ तो उसने यह प्रतिज्ञा की कि वही जीव यदि मनुष्य भव में हो और सुयोग हो तो विवाह करूँगी अन्यथा ने करूँगी । अब पता कैसे लगे कि कौन है वह मनुष्य जो ललितांग देव था । श्रीमती को जातिस्मरण हुआ और उसे देव के समय की एक घटना भी चित्त में बनायी, सो चित्र पट में अनेक घटनाएँ लिखी व वह विशिष्ट घटना भी लिखी और कितनी ही परीक्षा के लिए झूठी घटनाँए भी लिखी । तो पहिले समय में ऐसी प्रथा थी। उस चित्रावली को मन्दिर के द्वार पर रख दिया गया और एक धाय के सुपुर्द कर दिया गया। उस चित्रावली में कुछ पहेली बनी हुई थी, ताकि जो शंकाओ को समाधान कर दे, उसे समझ ले कि यह ही वास्तव में पूर्वभव का पति था । बहुत से मनुष्य आये, झूठे कपटी भी आए और कुछ से कुछ बताकर अपना रौब जमाने लगे, पर किसी की दाल न गली ।
देवगति में कामलीला का एक प्रसंग - वज्रजंघ स्वंय एक बार वहाँ से निकला और चित्रावली को देखा तो एक चित्र वहाँ ऐसा था कि ललितांगदेव के सिर में देवी ने जो लात मारी थी। उसका दाग बना था । उसको देखकर उसे भी स्मरण हो आया और वह प्रेम एवं वियोग की पीड़ा से बेहोश हो गया। होश होने पर धाय ने पूछा तो बताया कि यह चित्त हमारे पूर्वभव के देव के समय की घटना का है। यह देव जब देवी के साथ यथेष्ट बिहार करके रम रहा था तो किसी समय देवी अप्रसन्न हो गयी और उसने अपने पति ललितांगदेव के सिर में लात लगायी थी । जो मनुष्य भव में अप्रिय घटनायं होती है ऐसी अप्रिय घटनाये देवगति में भी हुआ करती है। जब स्वंय चित्त विषयवासना से व्याकुल है तो वहाँ बाह्रा पदार्थ भी रमणीक लगते है और वहाँ अनेक उपद्रव सहने पड़ते है जब चित्त ज्ञान में है तो फिर ये बाह्रा पदार्थ उसे रम्य नही मालूम होते है ।
ज्ञानी का चिन्तन और यत्न
विचार कर रहे है ज्ञानी पुरूष कि ये भोग पराधीन है, मिटते है और जब तक भी विषय भोग बन रहे है तब तक भी दुःख बराबर चलता रहता है। और फिर इसमें नफा क्या मिलता है, केवल पापो का बंध होता है। ऐसे सुख में ज्ञानियों के आदर बुद्धि नही होती है । तत्वज्ञान में ज्यों ज्यों समाया जाता है त्यो त्यो ये सर्व विषय सुलभ भी हो तो भी रूचिकर नही मालूम होते जैसे सूखी जमीन मछलियों के प्राणो का घात करने वाली है और उन मछलियों को आग मिल जाये तो फिर उन मछनियों के भवितत्य की बात ही क्या कही जाय? तुरन्त मछलियाँ अग्नि में मृत्यु को प्राप्त
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हो जाती है। ऐसे ही जिनका चित्त कामवासना से भरा है वे स्वंय व्याकुल है औश्र फिर काम का कोई आश्रय मिले, विषय भोग के साधन मिलें और अन्य साधन कर्म जुट जायें तो उनके मन, वचन, काय सब कुत्सित हो जाते है वे महीन–महीने तक के लिए भी आहार आदि का त्याग कर देते है। जो पुरूष अपने आत्मकल्याण के लिए जान-जानकर इन विषयो को परित्याग करते है वे विषय सुखो को कैसे उपादेय मान सकते है ? अहो ! जीवन में एक बार भी यदि समस्त प्रकार के विकल्प त्यागकर, परम विश्राम में रहकर अपने सहज आनन्द निधि का स्वाद आ जाय तो इस जीव के सर्वसंकट मिट जायेगे।
आत्महित के लिए जीवन का निर्णय - यह जगत मायारूप एक गोरखधंधा है, भटकाने और भुलाने वाला है। यहाँ यह मोही स्वंय भी कायर है और वातावरण भी उसे दुष्ट मिल जाय, ऐसा खोटा मिल जाय कि यह अपने इन्द्रिय को काबू में ही न रख सके ऐसे प्राणियो को तो बड़ा अनिष्ट ही है। अनादि काल से भूल भटककर इस मनुष्यभव में आये, अब सुन्दर अवसर मिला, प्रतिभा मिली, क्षयोपशम अच्छा है। कर्मो का उदय भी है, आजीविका के साधन भी सबके ठीक है, ऐसे अवसर में अब तृष्णा का परित्याग करके आत्महित के लिए अपना उद्योग करे। जरा विचारो तो, लखपति हो गए तो करोड़पति होने की चाह, करोड़पति हो गए तो अरबपति होने की चाह, यो चाह का कभी अन्त नही आता है। चाह का अन्त ज्ञान में ही आता है। वस्तु के समागम से चाह का अंत नही होता है। जीवन चलाने के लिए तो दो रोटियों का साधन चाहिए और ठंड गर्मी से बचने के लिए दो कपड़े का साधन चाहिए।
वस्तुस्वरूप की समझ में चिन्ता का अनवकाश – भैया ! कुछ यह चिन्ता हो सकती है गृहस्थी है इसलिए उसकी सभाल के लिए कुछ तो विशेष चाहिए। वे सब तो अपना-अपना भाग्य लेकर आये है, सो सब उदयानुकूल थोड़े से यत्न से काम हो जाता है और फिर ज्ञान है तो इस बात के लिए तैयार रहना चाहिए कि कैसी भी स्थिति हो, हम उसमे भी अपना हिसाब बना सकते है पर जीवन हमारा केवल धर्म के लिए ही है। इतना साहस हो तो विनाशीक इस जीवनसे अविनाशी पदका काम पाया जा सकता है। जो मिट जाने वाली वस्तु है उसका ऐसा उपयोग बन जाय कि न मिट जाने वाली चीज मिले तो इससे बढकर और हिकमत क्या हो सकती है? ज्ञानी पुरूष पंचेन्द्रियके विषय साधनोको सर्वथा हेय समझते है। ये ज्ञानी योगीशवर आत्मस्वरूपके सुगम परिज्ञानी है। जरा सी दृष्टि फेकी कि वह कारणसमयसार उनकी दृष्टिमें समक्ष है। जो ऐसे ज्ञानके अनुभवका निरन्तर स्वाद ले रहे है उनको इन विषयोसे क्या प्रयोजन है?
तत्वज्ञकी निष्कामता - जैसे रोगसे प्रेरित रोगी पुरूष रोगका इलाज करता हुआ भी रोगको नही चाहता और इलाजको भी नही चाहता। कोई बीमार पुरूष दवा पीता है तो दवा पीते रहने के लिए नही दवा पीता है, किन्तु दवा न पीना पड़े, इसके लिए दवा पीता
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है। इस रोगीके दिलसे पूछो, रोगी तो प्रायः सभी हुए होंगे। तो सभी अपने-अपने दिलसे पूछो, क्या दवा पीते रहने के लिए दवा पी जाती है? दवा तो दवा न पीना पड़े इसके ही लिए पी जाती है। ऐसे ही यहाँ निरखिये ज्ञानियोकी महिमाका कौन वर्णन करे, प्रवृत्ति एकसी है ज्ञानीकी और अज्ञानीकी । इस कारण कोई नही बता सकता है कि इसके चित्तमें वास्तविक उद्देश्य क्या है? लोग तो प्रवृत्ति देखकर यह जानेगें कि यह तो रोगी है, विषयोका रूचिया है, किन्तु घरमें रह रहा ज्ञानी, विषय प्रसंगमें आ रहा ज्ञानी, उसकी इन व्यवस्थाओको ज्ञानी पुरूष ही जानता है। अज्ञानी नही जान सकता है । चारित्र मोह का एक ऐसा प्रबल उदय है, उससे इसे कषायोकी पीड़ा हुई है अब वह कर्मजन्य कार्यो को कर रहा है किन्तु उन प्रवृत्तियोसे यह पुरूष उदास ही है। जिसे तत्व ही रूच राह है। और तत्वज्ञानसे सहज आनन्द मिल गया है उसके विषयोंमे प्रीति कैसे हो सकती है? भैया ! इसी सहज शुद्व आनन्दके पानेका अपना यत्न हो और हम अधिक से अधिक ज्ञानके अभ्यास में समय दे, यह एक अपना निर्णय बनाएँ ।
यथा यथा न रोचन्ते विषयाः सुलभा अपि ।
तथा तथा समायाति संवित्तौ तत्वमुत्तमम् । ।38 । ।
विषयोकी अरूचिमें ज्ञानप्रकाशकी वृद्धि - ज्यों ज्यों सुलभ भी विषय रूचिकर नही होते है त्यो त्यो यह आत्माका शुद्ध तत्व ज्ञानमें विकसित होता रहता है । जब तक इन्द्रिय के भोगोंने रूचि रहती है तब तक इस जीवके ज्ञान नही समा सकता है, क्योकि ये भोग विषय ज्ञानके विपरीत है। जैसे कोई उल्टी दिशामें चले तो इष्ट स्थानमें वह नही पहुंच सकता है। मान लो जाना तो है इटावा और रास्ता चला जाय करहलकी ओर तो इटावा कैसे मिल सकता है? ऐसे ही विषयभोगोकी गैलमें तो चलें और चाहे कि मुझे प्रभुदर्शन, आत्मानुभव, उत्तमतत्वका प्रकाश हो जाय तो कैसे हो सकता है? जब तक भोगोकी रूचि न हटे तब तक ज्ञानप्रकाश न होगा। सभी भोग झूठे है, असार है । भोगोसे आत्माको संतोष होता हो तो बताओ। स्पर्शन इन्द्रियका विषय काम बाधा विषयक प्रसंग, इनसे आत्माको क्या लाभ मिलता है?
भोगोसे अतृप्ति – कोई गृहस्थ जिसके ज्ञानप्रकाश नही हुआ है, वैराग्य नही हुआ है, क्या वह यह हठ कर सकता है कि मै आज विषय भोगूँ इसके बाद फिर मै कल्पना भी न रक्खूँगा। ज्यों-ज्यों यह भोगता है त्यो त्यो इसकी कल्पना बढ़ती है। क्या कोई ऐसा सोच सकता है कि आज मैं बहुत मीठी चीज ख लूँ फिर कलसे मैं इस चीज की तरफ ध्यान ही न दूँगा, ऐसा कोई कर सकता है क्या? कोई भोगोको भोगकर चाहे कि मै तृप्त होऊँ तो यह नही हो सकता है। भोगोके त्यागसे ही तृप्ति हो सकती है, भोगोके भोगनेसे कभी तृप्ति नही हो सकती है। जैसे अग्निमें जितना ईधन डालते जावो उतनी ही अग्नि बढ़ती जायगी, उनसे कभी ईधन से तृप्त न होगी, इसी तरह जितना विषय भोग भोगो उतना ही भोगोसे
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अतृप्ति बढ़ती जायगी, उनसे कभी संतोष न होगा। जैसे समुद्रमें जितनी नदियाँ मिलती जायेगी उतना ही समुद्र का रूप बढता जायगा। समुद्र कभी यह न कहेगा कि मैं सन्तुष्ट हो गया हूं, मुझे अब नदियाँ न चाहिएँ, अथवा ऐसे ही चाहे ईधनसे अग्नि तृप्त हो जाय, सूर्य पूरबके बजाय पश्चिममें ऊगे, कमल चाहे पत्थर पर पैदा हो जाये, पर भोग भोगने कभी तृप्ति नही हो सकती। जिसे भी संतोष मिलेगा त्यागसे ही मिलेगा।
कल्याणमें तत्वज्ञानका विशिष्ट सहयोग - ज्यो-ज्यो सुलभ भी विषय रूचिकर नही होते है त्यों-त्यों ज्ञानप्रकाश बढ़ता है। जो परिश्रम करके विषय साधन जुटाए जाएँ उसकी भी बात नही कर रहे, सुलभ अपने आप सामने हाजिर हो जाएँ भोगके साधन और फिर भी उनमें रूचि न जगे तो वहाँ ज्ञानप्रकाश बना है। जिसने अपने आत्माके ज्ञानानन्द स्वरूप का सम्वेदन किया है, जो अपने ज्ञानामृत रसका रूचिया है वह बाहा पदार्थो में उदासीन रहता है। इन समस्त समागमोको भिन्न और विनाशीक जानता है। यह भी बड़ी साधना है। तुमसे गृहस्थी छोड़ते न बने, न छोड़ो, पर इतना ज्ञान तो बनाए रहा कि ये सब भिन्न है, नियमसे नष्ट होंगे, इनका वियोग जरूर होगा, ऐसी बात हो तो मान लो और न हो तो मत मानो। यह निर्णय कर लो कि जितने भी जिसे समागम मिले है वे समागम उसके संगमें जायेगे क्या? कुछ भी तो न जायगा।
स्वपरभेदविज्ञानका बल – हम आपका कुछ भी यहाँ नही है, शरीर तक तो अपना है नही, फिर धन दौलत और घर मकानकी तो कौन कहे? शरीर में यद्यपि यह जीव रह रहा है तो भी शरीर के स्वक्षेत्रमें शरीर है, शरीरके परमाणुओ में शरीर है, वह आत्माका स्वरूप नही बन जाता है और जीवके स्वरूपमें जीव है वह शरीर नही बन जाता। तो जब शरीरमें भी यह आत्मा नही है अर्थात् शरीररूप नही बन पाता यह तो अन्यरूप तो बनेगा ही क्या? ये सब पदार्थ समागम भिन्न है कि नहीं? यदि समझमं आ गया हो कि वास्तवमें मेरे आत्माको छोड़कर ज्ञानानन्दस्वरूपको तजकर जो कुछ भी यहाँ दिख रहा है और मिल रहा है ये भिन्न है, ऐसा ज्ञान हो गया हो तो आप फिर धर्म कर भी सकते है और यदि ज्ञान ऐसा नही बना है तो पहिले यही ज्ञान बनावो, निर्णय कर लो, थोडासा भी विचार करने पर एकदम स्पष्ट हो जाता है कि ये अत्यन्त भिन्न है। तो बस मान लो ऐसा कि सारे समागम मुझसे अन्यन्त भिन्न है, मेरा उनसे कुछ नही है। क्या ये समागम तुम्हारे साथ अनन्तकाल तक रहेगे या 10,050 वर्ष तक भी रहेगे, ऐसी कुछ भी उम्मीद है क्या? कुछ भी तो उम्मीद नही है । तो ये सब समागम बिछुड़ेगे कि नही? मनसे उत्तरदो। अगर बिछुड़ेगे यह बात हृदय में जम गयी है तो इतना मन लो।
समागमकी भिन्नता व विनश्वरताके परिज्ञानका प्रताप - कोई पुरूष यदि इन दो बातोको हृदयसे मान लेता है कि जो भी समागम है -मकान, परिवार, सम्पदा ये सब भिन्न है और ये कभी न कभी बिछुड़ेगे, इतनी बात यदि हृदय में घर कर गयी हो तो वह धर्मात्मा
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पुरूष है और मानता हो कि ये तो मेरे ही है, न्यारे कहाँ है, अथवा ये तो मेरे ही साथ रहेगे कैसे बिछुडत्र सकते है, ऐसी मिथ्या प्रतीति हो तो अभी धर्म करनेकी योग्यता ही नही है। यह सब पहिली बात है। जिसे धर्म करना हो उसको पहिले ये दो निर्णय बनाने चाहिएँ । कोई पुरूष ज्यादा शास्त्र नही जानता है, भाषाएँ नही सीखा है, अथवा उपदेश किए गए विषयोको नही समझ पाता है, न समझ पाये, लेकिन उसे यदि इन दो बातोका पक्का श्रद्वान है कि मेरा तो यह शरीर भी नही है । मेरा तो मात्र मैं एक ज्ञानप्रकाश मात्र आत्मा हूं और ये सब भिन्न चीजें है, दूसरी जगह पड़ी है, मेरेमे मिली हुई तक भी नही हे और ये सब विनाशीक है, इतना भी भान हो तो भी शान्तिका मार्ग मिल जायगा ।
संकटमोचक सहज अनुभव एक बार भी तो यह हिम्मत बनालो कि इन भिन्न पदार्थोके सजानेसे, अपने हृदय इन सब पदार्थों को रखने से अब तक आकुलता ही पायी है। मै अब इन किन्ही भी पदार्थाको मनमें नही रखना चाहता हूं। अपने उपयोगमें किसी भी बाह्रा पदार्थको न ले तो सहज आराम बन जायगा । उस विश्राममें जो शुद्ध ज्ञानप्रकाशका अनुभव होगा यही अनुभव संसारके संकटोसे दूर कर देगा। ऐसा होनेके लिए ये दो बातें निर्णयमें होनी चाहिएँ (1) समस्त भोगोके साधन भिन्न है और (2) ये नियमसे बिछुड़ेगे, इतने ज्ञानपर भी वैराग्य होना सम्भव है और सुलभ विषय भी उसे रूचिकर न होंगे। यह बात केवल साधुवोंकी नही कही जा रही है, यह तो संज्ञी जीवोकी बात कही जा रही है। जो भी संज्ञी जीव है मन सहित यावन्मात्र मनुष्य अथवा पशु पक्षी तक भी उनके यदि ये विषय रूचिकर नही हो रहे है, श्रद्वा में उनसे हित नही माना है तो उन सबके यह उत्तम तत्वज्ञान प्रकाश आनन्दस्वरूप अनुभवमें आ जायगा, और जब यह अपना परमात्मा अपने अनुभवमें आ जाय तो सब कर्म और संकट नष्ट हो जायेगे। इतनी बड़ी कल्याणकी पदवी पानेकी मनमें इच्छा हो तो व्रत, नियम, संयम कुछ न कुछ अवश्य ही करना चाहिए। उनमें सुलभ विषयोकी भी इच्छा न रहेगी जो तत्वज्ञान करेगे ।
भोगोमें अतृप्ति, तृष्णा व बलक्षयका ऐ इन भोगोके भोगने में यह बड़ा ऐब है कि ये भोग आगमी कालमें तृष्णाको बढ़ाते है, संतोष नही पैदा करते । भोग भोगनेके बाद भोगने लायक नही रहते, इस कारण भोगोका त्याग करना पड़ता है, मगर तृष्णावान जीव त्याग कहाँ करना चाहते है ? जैसे भोजन किया जाता है, कोई आसक्त होकर भी भोजन करे तो उसे भोजन छोड़ देना पड़ेगा, भोजन करता ही जाय ऐसा नही हो सकता। उसने जो भोजन छोड़ा तो क्या ज्ञान और वैराग्यके कारण छोड़ा ? अरे अब पेटमें समाता ही नही है इसलिए छोड़ना पड़ा। ऐसी ही समस्त विषयोकी बात है। किसी भी विषयोको यह मोही जीव त्यागता है तो क्या ज्ञान और वैराग्यसे त्यागता है? भोग भोगनेके बाद फिर भोग भोगने लायक नही रहता, यह इस कारण इसे त्यागना पड़ता है खूब इत्र फुलेल आदि सुगंधित चीजें सूँघते रहने के बाद वह कुछ समयको छोड़ देता है क्योकि कहाँ तक सूँघता
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रहे। भोग भोगनेमें श्रम तो होता ही है। बिना राग, बिना प्रवृत्ति और बिना परिश्रमके कोई सा भी भोग नही भोगा जाता, उसको तो त्यागना ही पड़ता है।
विषयो ऊब - किसी सुन्दर रूपको निहारते रहो, सनीमा, थियेटर अथवा कोई सुरूप स्त्री, सुरूप पुरूष, किसी को भी निहारते रहो तो कहाँ तक निहारते रहोगे, आखिर पलक बंद ही करना पड़ेगा और अपना अलग रास्ता नापना ही पड़ेगा। तो उस मोही जीवने जो देखनेका विषय छोड़ा है वह क्या ज्ञान और वैराग्यके कारण छोड़ा है? अरे छोड़ना पड़ा है? छोड़ना नही चाहते है । ऐसे ही मानो रातके 10 बजे से खूब संगीत गायन सुना, नाच देखा धीरे-धीरे चार बज गए। आखिर उसको छोड़कर तो जाना ही पड़ता है। ऐसा तो है नही कि कोई 5-7 दिन तक लगातार नाच गायनमें बैठा रहे। नाच गायन खूब देखने सुननेके बाद अब उसमें शाक्ति नही रही कि ऐसे ही देखता सुनता जाय, इस कारण उसे छोड़ना पड़ता है तो ये भोग अतृप्ति ही पैदा करते है। कोई मनसे इन भोगोको छोड़ नही पाता है और जहाँ विषयोमें ऐसी आकांक्षा बन रही है वहाँ यह ज्ञानप्रकाश अपने अनुभवमें नही आ सकता है।
अन्तर्मिलनमें प्रभुमिलन - लोग भगवानके दर्शन करने को हैरान होते है। प्रथम तो इस मोही जीवको भगवानकी बात हो नही सुहाती, भगवान है भी कोई या नही, उसके स्वरूपका भान नही होता, और कोई भाव करता है तो भगवानके नाते से नहीं करता, मिन्तु मेरे घरके बच्चे खुश रहे, मेरे धन खूब बढ़ता रहे इस स्वार्थके नातेसे भगवानकी सुध लेता है क्योकि सुन रक्खा है ना कि भगवान सबको सब कुछ देता है। भगवानकी सुध लेना ही बड़ा कठिन है और कदाचित् किसीको सुध आए औश्र भगवानसे मिलनेकी अंतरंगमे उमंग भी करे, लेकिन वह अपने स्वरूपसे चिगकर बाहरमें कही भगवानको ढूँढा करे तो क्या भगवान मिल जायगा? आँखे तानकर, आसमानमें देखकर या किसी और दृष्टि देकर प्रभुसे
र्कोई मिलना चाहे तो नही मिल सकता है, प्रभुका दशर्न करना चाहे तो नही कर सकता है। हाँ अपने ही आत्मामें जो शाश्वत विराजमान स्वरूप है, चैतन्यभाव है उस चैतन्यस्वरूप पर दृष्टिदे तो उसके दर्शनमें प्रभुता का दर्शन हो जायगा, किन्तु इतनी कठिन बात उस पुरूष मे कैसे आ सकती है जो व्यसनोका लोभी है, पापोको छोड़ना नही चाहता मोहमें पगा है, ऐसे पुरूषको प्रभुका दर्शन नही हो पाता है।
ज्ञानप्रकाशमें विषयोकी अरूचिका विशिष्ट सहयोग - जैसे-जैसे सुलभ विषय भी, भोग साधन भी रूचिकर नही मालूम होते वैसे ही वैसे इस ज्ञानमें यह उत्तम तत्व समाता जाता हे। पहिले श्लोक में यह कहा था कि ज्यो-ज्यों ज्ञानस्वरूप ज्ञानमें आता रहता है त्यों-त्यो सुलभ भी विषय रूचिकर नही होते। वहाँ यह शंका होना स्वाभाविक है कि इसका भी कुछ उपाय है कि ज्ञान में यह उत्तम अंतस्तत्व समाता जाय। उसके उत्तर में दूसरे श्लोक में यह कहा है कि ये सुलभ विषय भी जब जीवोको रूचिकर न लगे, इन विषयोमें
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प्रीति न जगे तो वह योग्यता आ सकती है कि ज्ञानमें यह उत्तम तत्व प्रकाश पाये। इन्द्रियाके विषयो से वैराग्य होवे तो आत्माका यह विशुद्ध स्वरूप अनुभवमें आने लगता है। भोगने के बाद तो कुछ विवेक बनता है कि अरे न भोगते भोग तो क्या था, बडा सुरक्षित रहता। जब ज्यादा पेट भर जाता है, कुछ अड़चन सी होने लगती है अथवा कोई उदर विकार हो जाता है तो वह सोचता है कि मैने बड़ी चूक की, अधिक चीज खा ली, अगर न खाते तो कुछ भी नुकसान न था। यह कष्ट तो न होता जिसके दर्दके मारे यह बेचैनी हो रही है। तो भोग भोगनेके बाद फिर सुध आती है। यह कुछ यद्यपि जघन्य ज्ञानकी बात है, लेकिन भोगनेके बाद भी यदि यथार्थ रूपमें सुध आ जाय तो वह भी भली बात है। मोही प्राणियोको तो केवल विषय भोग, इन्द्रियविषयोके साधन जोड़ना, धन कमाना - ये ही सब रूचिकर लग रहे है। इन विषयोकी प्रीति तो स्वात्माके अनुभवमें बाधक है। यह सभी विषयोकी चाह और परिग्रहो की मुर्छा हअ जाये तो आत्मा आनन्दका स्वाद लेने लगता है।
व्यर्थके कोलाहलसे अलाभ - है आत्मन् व्यर्थ के कोलाहलसे क्या लाभ पा लोगे? दूसरे जीवोसे प्रीति बढ़ाना और दूसरोका भार अनुभव करना, दूसरोके लिए अपना सब कुछ न्यौछावर करना ये सब व्यर्थके कोलाहल है, इनमें मिलता कुछ नही है, आखिर मरना सबको पड़ता है। मरनेके बाद भी इस जीवको यहाँ के कामोसे कुछ लाभ मिले तो बतावो। जो जीव चला गया यहाँ से तो लोग शरीर को तुरन्त जलानेका यत्न करते है। भले ही कभी किसी बूढेके मर जानेपर बहुत बड़ा विमान सजाया जाय, शंख बजाया, पर अब उस आत्माके लिए क्या है? उसने तो अपने जीवनमें जैसा परिणाम बनाया उसके अनुकूल कोई गति पा ली। अब दान, शील, उपकार, संयम कुछ सदाचार पालन किया, बाकी क्या लाभ हो सकता है?
बहकावेका ज्ञानीपर अप्रभाव - किसीके मरने पर उसका श्राद्ध करनेसे उस मरे हुए जीवको शान्ति मिलेगी ऐसा बहका कर लोगोने अपनी आजीविका बनायी है। साल भर बाद उसी दिन इतने लोगोको खिलावोगे, इतनी इतनी चीजें गंगा युमनाके किनारे बैठे किसी नियत पुरूषको पूज्य मानकर दे दोगे तो इतनी चीजें उस मरे हुए पुरूष के पास पहुंचा देंगें- ऐसा भ्रम डाल देते है। यह सब आजीविकाका साधन है दूसरोका। जो मर चुका है उसके पास कैसे क्या पहुंच जायगा। तुम जो करोगे सो तुम्हारे साथ रहेगा। उन पुरूषो ने जो किया सो उन कुछ विश्राम लेकर अपने आपमें देखो तो सही इन समस्त समागमोसे भिनन कोई तेज स्वंयमें है अथवा नही। सब प्रकट हो जायगा।
भोगत्यागकी प्राथमिकता – भैया। यदि शान्तिकी चाह है तो आपको त्यागना पड़ेगा विषयोको। भोगोके त्यागे बिना ज्ञान प्रकाश मिल जाय, ऐसा कभी नही हो सकता। इस कारण जो आत्मस्वरूपके अनुभव के अनुयायी है उन्हे चाहिए कि विषयोको, ठाठबाटोंको, समागमोंको भिन्न, असार, हेय जानकर उनकी औरसे उपेक्षा करे, और एकांत बैठकर अपने
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आपमें अपनेको एकाग्र कर लें। इस विधिसे यदि हमारा ज्ञानप्रकाश बढ़ेगा तो भोग अरूचिकर लगेंगे और यह ज्ञानका अनुभव ही रूचेगा। सब असार है, हेय है, एक अपना आत्मा ही सार है, उसको जानो यही धर्म है बतावो धर्ममें कहां मजहब है? यह अमुक धर्म है, यह अमुक धर्म है ऐसा मजहबोका कहां भेद है? आत्मा जब एकस्वरूप है तो धर्म भी एक स्वरूप है। आत्माका धर्म आत्मामें मिलेगा अन्यत्र न मिलेगा, सो अपने आत्मस्वरूपको सम्हालना यही एक धर्म है और इस धर्मके पालन से संसारके संकट नियमसे कटेंगे। एक सारभूत बात यहां कही है कि ऐसा ज्ञान बढ़ावो कि आपको भोग विषय भी रूचिकर न लगे।
निशामयति निःशेषमिन्द्रजालोपंम जगत्।
स्पृहयत्यात्मलाभय गत्वान्यत्रानुतप्यते।।39 ।। जगत् इन्द्रजालेपमता - योगी जन इस समस्त जगत को इन्द्रजालकी तरह समझकर इसे दूर करते है और आत्माकी प्राप्तिके लिए स्पृहा रखते तथा आत्मलाभके सिवाय अन्य किसी भावमें उपयोग कुछ चला जाय तो उसका बड़ा करते है। इस श्लोकमें तीन बातोपर प्रकाश डाला है, प्रथम तो इस समस्त जगतको इन्द्रजालकी तरह निरखता है, इन्द्रजालका क्या अर्थ है? लोकमें तो ऐसी रूढ़ि है कि जैसे बोई तमाशगीर चीज तो कुछ नही है और लोगो को दिखाये, उसको इन्द्रजाल मानते है, यह भी अर्थ लगा लो तो भी कुछ हानि नही है क्योकि जो कुछ दीखता है वह परमार्थमें ऐसा है ही नही, औश्र माही जीवको यही परमार्थ और सत्य नजर आता है, इस कारण यह भी अर्थ ले लो पर इसका वास्तविक अर्थ यह है कि जो कुछ यहां दृश्यमान है यह सब इन्द्रका जाल है इन्द्र मायने आत्मा। उस आत्मा की विकार अवस्था होने से जो कुछ परिणमन होता है उससे जो कुछ यह सारा जाल बिछा हुआ है यह इन्द्रजाल है। अंलकार न लेना कि यह आमूल इन्द्रजाल ही है यह सब कुछ। यह आत्माका जाल है।
इन्द्रका जाल - यह प्रभु जो अनादि अनन्त अहेतुक अन्तः प्रकाशभाव है, प्रत्येक जीव में विराजमान है। जीवो का जो स्वभाव है वही तो प्रभु है वह प्रभु पर्यायमें जकड़ा है, विकृत होकर जब यह अपना जाल फैलाता है तो इसका जाल भी बड़ा विकट है। यह प्रभु इतना समर्थ है कि सुधारका भी बड़ा विकट चमत्कार दिखाता है और विकारका भी बड़ा विकट चमत्कार दिखाता है। कोई वैज्ञानिक किसी भी प्रकार ऐसा इन्द्रजाल बना तो दे। उसमें इतनी सामर्थ्य नही है। भले ही वह अजीव पदार्थो को परस्परमें सम्बद्व करके एक निमित्तनैमित्तिक पद्वति में कुछ असर दिखा दे। किन्तु इन्द्रजाल नही बना सकता है। तो यह योगी सर्वत्र इन्द्रजाल देखता हे, इन्द्रका स्वरूप नही हे यह, किन्तु इन्द्रका जाल है, इसी कारण वह किसी भी इन्द्रजालमें रमता नही है।
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विषयसाधनोकी जलबुबुदसम असारता - भैया ! इस लोकमं रमण करने योग्य क्या है? जो कुछ है वह सब जलके बुबुदेकी तरह चंचल है, विनाशीक है, कुछ ही क्षण बाद मिट जाने वाला है। जैसे जलका बबूला देर तक ठहरे तो उस पर बच्चे लोग बड़े खुश होते है, और शानके साथ किसी बबूलेको अपना मानकर हर्षके साथ कहते है देखो मेरा बबूला अब तक ठहरा है। बरसातके दिन है, जब ऊपर से कमानका पानी गिरता है तो उसमें बबूले पैदा हो जाते है, बच्चे लोग उनमें अपनायत कर लेते है कि यह मेरा बबूला है, कोई लड़का कहता है कि मेरा बबूला है, अब जिसका बबूला अधिक देर तक टिक जाय वह बच्चा उठता है, मेरा बबूला अब तक बना हुआ है। ऐसे ही यह पर्याय, यह जाल यह शरीर बबूलेकी तरह है। इन अज्ञानी बच्चोने अपना-अपना बबूला पकड़ लिया है, यह मेरा बबूला है, यह बबूला कुछ देर तक टिक जाय तो खुश होते है, मेरा बबूला अब तक टिका हुआ है। यो यह योगी पुरूष इन्द्रजालकी तरह समस्त जगतको जान रहा है। यहां किससे प्रीति करे, कौन सहाय है, किसका शरण गहे, जो कुछ भी है वह सब अपने लिए परिणमता है।
वस्तुमें अभिन्नषट्कारकता - भैया ! यह लोक अपना ही स्वार्थ साधता है, इसमें गाली देनेकी गुञजायश नही है, किसीको स्वार्थी आदिका कहने की आवश्यकता नही है, वस्तुका स्वरूप ही ऐसा है कि वह स्वंयसे सम्प्रदान हो सकता है। प्रत्येक पदार्थ स्वय कर्ता है। स्वंय कर्म है, स्वंय करण है और स्वंय ही सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण भी है अर्थात् पदार्थ परिणमता है, यही तो करने वाला हुआ, और जिस रूप परिणमता है वही इसका कर्म हुआ। अपने ही परिणमनके द्वारा परणिमता है इसलिए यही साधन हुआ और जिस रूप परिणमता है वही इसका कर्म हुआ। अपने ही पणिमनके द्वारा परिणमता है इसलिए यही साधन हुआ और जिस रूप परिणमता है वही इसका कर्म हुआ। अपने ही परिण्मनके द्वारा परिणमता है इसलिए यही साधन हुआ और परिणाम करके फल क्या पायगा, किस लिए परिणम रहा है, वह फलभी स्वंय है। किससे परिणमता है, किसमें परिणमता है, सो वह अपादान व अधिकरण भी स्वंय है।
पदार्थ के परिणमन का सम्प्रदान – पदार्थके परिणमनेका फल क्या है? वह फल है सत्ता रहना। प्रत्येक पदार्थके परिण्मन का प्रायोजन इतना ही मात्र है और फल इतना ही मिलता है कि उसकी सत्ता बनी रहे, इससे आगे उसका कुछ फल नही है। यह समझदार है जीव इसलिए इसने बेईमानी मचा रक्खी है। जो समझदार नही है वे पदार्थ अब भी अपने ईमान पर टिके हुए है, वे परिणमते है मात्र अपना सत्व रखनेके लिए किन्तु ये विकारी, रागी जीव परिणमते ह तो न जाने कितने प्रयोजनाको बताते है। मै संसारमें यश बढ़ा लूँ, सम्पदा बढ़ा लूँ, अनेक विषय सुखोके साधन छुटा लूँ, कितने ही प्रयोजन बनाते है। भले ही ये कल्पना में कितने ही प्रयोजन बनाएँ किन्तु एक संत पुरूषकी ओर से तो
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प्रयोजन वहीका वही रहता है जो अचेतनको मिलता है, इससे अधिक कछ नही है। यह जीवज्ञानरूप परिणमात है तो ज्ञानरूप परिणमनेका फल ज्ञान ही रहता है, इससे अतिरिक्त कुछ फल नही है। जो और कुछ फल खोजा जाता है वह सब मोहका माहात्म्य है। वस्तुतः अपनी सत्ता कायम रखनेके लिए ही पदार्थ परिणमन करते है। जैसे यह चौकी है, इसको कोई ल दे तो क्या हो गया इसका? इसका ही यो परिणमना हो गया।। न भी कुछ करे तो भी यह जीर्ण हाती जा रही है, परिणमती जा रही है। किसी भी रूप परिणमें, इन परिणमनोका प्रयोजन इतना ही मात्र है कि परमाणुवोंकी सता बनी रहे, अब कोई भी चीज किसी भी प्रकार परिणमें उसका प्रयोजन यह मोही जीव अपनी कल्पनाके अनुसार बना लेता
है।
योगीकी आत्मस्पृहा - यह समस्त जगत इन्द्रजालकी तरह है। इन सवबो यह योगी शान्त कर देता है। इस सारे जगत्को यह रोगी ओझल कर देता है अपने उायोगसे और होता क्या है कि अंधकार में सर्व पदार्थ औझल हो जाते हे। रहो, किसी प्रकार रहो। अब योगीके लिए यहाँ कुछ भी नही है, यो इन्द्रजालकी तरह इन समस्त पदार्थोको यह ज्ञानी अपने उपयोगसे ओझल कर देता है। अब ज्ञानीके केवल आत्माकी ही स्पृहा रहती है और यह अंतस्तत्व ही उसके प्रोग्राममें, लिस्टमें रह जाता है। ये योगी केवल आत्मालाभकी स्पृहा करते है। मेरा आत्मा मेरेको मिले, ये भिन्न असार पदार्थ, इनका मिलना जुलना सब खतरेसे भरा हुआ है कोई रूच गया राग तो क्या वह कुछ बढ़वारीके लिए है? कोई अनिष्ट जंचा, द्वेष किया वह भी बरबादीके लिए है। मेरा शरण, रक्षक यह मेरा आत्मा मेरेको प्रकट हो, और मुझे कुछ न चाहिए।
आत्मालाभकी आकांक्षा - जैसे कोई जबरदस्त मुसाफिर किसी कमजोर मुसाफिरको
| झगड़ा बढ़ जाय तो वह कमजोर मुसाफिर यही कहता है कि बस मेरी चीज दिला दो, मुझे और कुछ न चाहिए। वह अपनी मांग करता है, यो ही यह बना बनाया गरीब एक बड़े फंद और बिडम्बनामें पड़ गया है। कहाँ तो यह अमूर्त निर्लेप ज्ञानमात्र अंतस्तत्व उत्कृष्ठ पदार्थ है और कहाँ यह सुख दुःख पर्याय, कल्पना, शरीर इनमें बँधा फिर रहा हैऔर अपने राग की जिस विषय में ममता की है उस विषयके पीछे-पीछे भटकता फिरता है। जैसे बछड़े वाली गायको हांकना नही पड़ता है यदि उसके बछड़ेको कोई गोदमें लेकर चलता जाय आगे, वह गाय उस बछड़ेके पीछे-पीछे हीडत्रती भागती चली जायगी। अपनी विपदाको भी वह न देखेगी, ऐसे ही यह मूढात्मा अपने रागका जो विषय बनाता है उस विषके पीछे यह आत्मा दौड़ता भागता फिरता है। न अपनी विपदाको देखता है, न अपनी बरबादीका ख्याल है। ऐसा यह मोही जीव संसार-भ्रमणमें गोते लगा रहा है, किन्तु यह ज्ञानी पुरूष एक आत्मलाभकी ही स्पृहा करता है।
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मेरा और मै का निर्देश मुझे तो मेरा मै चाहिए अन्य कुछ न चाहिए, इस ही का नाम है योग धारण । योग मायने जोड़। मेरा मै बिछुड़ा हुआ हूं, इसका जोड़ कर दीजिए । मेरेको मै मिल जाय यही है योग । जिसको मेरा कहा जा रहा है वह तो है उपयोके रूपमें ओर जिसे मै कहा जा रहा है यह है परम पारिणामिक भावमय अंतस्तत्वके रूपमें । यह उपयोग कह रहा है कि मेरा मै मिल जाय । मेरा जो आधारभूत है जिसपर मेरी स्पृहा चलती है, जिसपर मै अपना चमत्कार दिखा पाता हूं, अपना जौहर दिखाया करता हूं ऐसा मेरा नाथ शरण मुझे मिल जाय यही मेरा नाथ है। न अथ । अथ मायाने आदि । जिसकी आदि नही है उसे नाथ कहते है । यह उपयोग यह परिणमन तो सादि है । जिसकी कुछ आदि हो उसकी क्या वखत करूँ। जिसकी आदि नही है उसकी वखत है। नई फर्म खुली हो किसीके नामपर तो उसका कुछ असर नही होता और पुरानी फर्म हो तो लोग बदलते नही है। उसे चाहे पोते और सन्तेमें भी बाँट हो। लोग सोचते है कि पुरानी फर्मका नाम न बदले, नही तो फिर ठिकानेकी सम्भावना नही है। जिसका आदि नही है ऐसा मेरा नाथ वही विश्वास के योग्य है। जिसकी आदि है वह मिट जायगा । ऐसे परिणमनोपर इस ज्ञानीका उपयोग नही थमता है। यह तो एक अंतस्तत्वके लाभ के लिए स्पृहा करता है।
ज्ञानी का परोपयोगमें अनुताप यह अज्ञानी योगी अपने आत्ममिलनके लिए उद्यत है फिर भी पूर्व वासनावश उससे डिग जाय और किन्ही बाह्रा अर्थो मे लग जाय तो उसे ऐसा पछतावा होता है कि इतने क्षण हमने व्यर्थ में विकल्पोमे लगाये। ज्ञानी जन कभी उपवास करते है तो उस उपवास का उनके लक्ष्य क्या है? उस आहारके प्रसंग में जो पौन घंटेका समय लग जाता है उस समयमें जो आत्मतत्वसे चिगनेका विकल्प बनता है उसका वे पछतावा करते है निराहार रहने में वे खुश है, पर आत्मातत्वके उपयोगसे चिगनमें वे खुश नही है, इसलिए उनका आहार छूट जाता है, वे निराहारी हो जाते है ।
अज्ञानसे व्यवहारधर्ममें भी कर्तृत्व बुद्वि- इस आहारत्यागमें धर्म लग जायगा, पुण्य बंध जायगा, मुझे उपवास करना चाहिए ऐसा सोचना विकल्पमूलक उपवास है। एक झंझट से बचे और अपने आत्मलाभमें लगे ऐसी दृष्टि ज्ञानी पुरूष के होती है अज्ञानी तो उपवासमें क्षोभ बढाता है, एक दिन पहिले क्षोभ किया, जब उपवास किया तब क्षोभ, अंतमें क्षोभ किया। किसीने कई उपवास किया तो शरीर के कमजोर होते हुए भी यह कहता है कि भाई हमें तो कुछ भी नही कठिनाई मालूम पड़ रही है? हम ता बड़े अच्छे है ऐसे मायाचार को बढ़ावे तृष्णाको बढ़ावे क्रोधको बढ़ावे घमंडको बढ़ावे इसी सभी चीजें बढ़ाने का ही वास्तवमें उसने कार्य किया, कुछ अपने हितका कार्य नही किया ।
ज्ञानी अर्न्तदृष्टि - ज्ञानी पुरूष की दृष्टि को ज्ञानी ही कूत सकता है, अज्ञानी नही कूत सकता है। गृहस्थ ज्ञानी यदि यथर्थादृष्टि है तो गोदमें बालकाको खिलाकर भी सम्बर और निर्जरा उसक बराबर चलती रहती है। कैसी है उसकी दृष्टि ? वच्चे को खिलाता हुआ
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भी यह ध्यान बना है कि कहाँ इस झंझट में लग गए है, न जाने अभी कितने वर्ष तक इस झंझट में लगना पड़ेगा, ऐसी भीतरमे धारणा हे उस ज्ञानीके। अज्ञानी तो यो देखेगे कि यह कैसा बच्चोसे मोह रखता है। अरे वह बच्चेको खिलाये नही तो क्या गड्ढे मं पटक दे करना तो पड़ेगा ही सब कुछ जैसे कि लोग करते है, पर उसकी दृष्टि अंतरमें इतनी विशुद्व है कि उन कामोंमे रहकर भी उसके सम्वर और निर्जरा बराबर चलती रहती है। आत्मलाभकी इतनी विकट स्पृहा ज्ञानी पुरूषमें ही होती है।
सजग वैराग्य - जिसको वैराग्य ज्ञानसहित मिल गया है उसका वैराग्य आजीवन ठहरात है। ज्ञानके बिना वैराग्य मुद्रा बनाना, यह तो लोकप्रतिष्ठा, बढावा आदिके लिए है। वैराग्य टिक सकेगा या नही- यह तो ज्ञान और अज्ञान पर निर्भर है। ज्ञान बिना वैराग्य में विडम्बनाएँ बढ़ जाती है और वह वैराग्रूकी नही निभा पाता है और लोग भक्त भी ऊब जातें है, यह सब उसके एक अज्ञानका फल है। ज्ञानी पुरूष तो आत्मलाभके लिए स्पृहा रखता है अन्यत्र कही उपयोग जाय तो पछतावा करता है, ओह इतना समय मेरा व्यर्थ गया? ज्ञानी का साहस एक विलक्षण साहस है, और साहस भी क्या है? जो चीज छूट जायगी उसको अभीसे छूटा हुआ मान लेना है, और छूटा हुआ माननेके कारण उपेक्षा बन जाय और कभी थोड़ी हानि हो जाय, तो उसका खेद न आए तो इसमे कौनसे साहसकी बात है? इतना ही फेर रहा कि जो 10 वर्षके वाद छूटना था उसको अभी से छुटा हुआ देख रहे है। इतना ही किया इस ज्ञानीने, और क्या किया, पर मोही पुरूषोकी दृष्टि में यह बड़े साहस भरी बात है।
अज्ञानी और ज्ञानीकी दृष्टि में साहसका रूप - भैया ! साहस तो अनात्मीय चीजको पानेमें करना पड़ता है। जो चीज अपनी नही है उसे कल्पनामें अपनी ओर उसे जोड़ना धना, रक्षा करना इसमें साहस करना पड़ता है। अपने आपकी वस्तुको अपने आपमें उतानाना इसमें न साहसकी बात है? लेकिन अज्ञानियों को ज्ञानियो की करतूतमें बड़ा मालूम हातो है। ज्ञानी सोचता है कि ये संसारी सुभट बड़े साहसी है। जिन परिजन, मित्रो और जड़ सम्पदावोसे इन्हे कष्ट मिलता है उनको सहकर उन्ही के प्रति इच्छा, वाञछा और यत्न बनाए रहते है, इतनी हिम्मत तो हमसे नही हो सकती, ऐसे ही अज्ञानियोको ज्ञानियो की क्रियावोमें बड़ा साहस मालूम होता है। ओह! ये योगी जन कैसा इस समस्त जगतको इन्द्रजालकी तरह निरखतें है, कितनी इन्हें आत्मस्ववरूपके प्रति अभिलाषा है।
जालमें विविधरूपता - जालमें विविधता होती है, और जो जाल नही, एकत्व है उसमें विविधता नही होती है। जैसे मकड़ी जाल बनाया करती है तो वह जाल एक लाइनसे नही बनता है। गोल मटोल, लम्बा चौड़ा, संकरा, नाना दशावोरूप होता है - व्यञजन पर्याय और एक व्यञजन पर्यायमें भी भिन्न भिन्न क्षेत्र में विभिन्न परिणमन पर्याय । यह शरीर एक है, पर पैरमें जो परिणमन है वह सिरमें नही है, किन्तु जो जाल नही है,
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एकत्व है वहा यह बात न होगी कि जो एक जगह परिणमन है वह दूसरी जगह नही होता। एकत्वमें वही परिणमन सर्वत्र है पर जालमें परिणमनकी एकता नही है, विविधता है, इसी तरह गुण पर्याय का भी जाल देखो- ज्ञान गुण कही पैर पसार रहें है, तो श्रद्वा गुण कही मुख कर रहा है। ये समस्त गुण अपनी-अपनी ढफली बजा रहे है, यह इन्द्रजालका दृश्य, किन्तु एकत्व परिणमन हो तो वहां यह कुछ भी विविधता नही रहती है। जहां रत्नत्रयका एकत्व है वहां तो यह भी पहिचान नही हो पाती कि यह ज्ञानका परिणमन है और यह श्रद्वाका परिणमन है या चारित्र है, वहां तो एक एकत्वका ही अनुभवन है।
इन्द्रजालका अवबोध – यदि किसी कारणवश इन्द्रजालकी और रंच भी निगाह आती है। तो ज्ञानियोको संताप हुआ करता है जब तक आत्मको अपने असली स्वरूपका परिचय नही है तब तक ये बाहा पदार्थ भले प्रतीत होते है। जब तक कौवाको यक कोयलाका बच्चा है यह पता नही रहता है तब तक जान लगाकर उसकी सेवा करता है। परिचय पड़ जाय तो उससे हट जाता है। भले ही इस अज्ञानी जीवको ये विषय अच्छे लगते है। पर जब स्वपर भेदविज्ञान करके ज्ञानी बने तो ये विषय इन्द्रजालके खेलकी तरह असार मालूम होते है। मिस्मरेजम वाले लोगोकी टोपी उठाकर जब झाड़ते है तो रूपये खनखनातें हुए गिरते नजर आते है। यदि रूपये यो खनखनाकर गिराते है तो वे सबसे क्यों एक एक आना मांगते है? वह तो एक इन्द्रजालका खेल है। है कुछ नही।
ज्ञानियोकी उपेक्षा व उद्यम- ज्ञानी पुरूषो ये इन्द्रियविषय निःसार विनश्वर मालूम होते है। अब आत्मस्वरूपको त्यागकर अन्य पदार्थोकी और उसकी दृष्टि नही जाती है। वह तो आत्मलाभ ही करना चाहता है। जो ज्ञानमें रत पुरूष है वे इन सब इन्द्रजालोको यो निरख रहे है। यह लक्ष्मी कुछ दिनों तक ही ठहरेगी, यह यौवन कुछ दिनों तक ही रहने वाला है, ये भोग बिहलीके समान चंचल है, यह शरीर रोगो को मंदिर है, ऐसा निरखकर ज्ञानी जीव परपदार्थोसे उपेक्षा करते है और ज्ञानानन्दमय अपने आत्मतत्वमें निरत होनेका उद्यम रखते है।
इच्छत्येकान्तसंवासं निर्जनं जनितादरः ।
निजकार्यवशात्किंचिदुक्त्वा विस्मरति द्रुतम् ।।40 ।। ज्ञानीकी एकान्तसंवासमें वाञछा - जब इस आत्माको अपने झुकावसे और परकी उपेक्षाके साधन से शुद्वज्ञानप्रकाशका अनुभवन हो जाता है उस समयमें जो अद्भुत आनन्द प्रकट होता है उस आनन्दके फलमें उस आनन्दके लिए यह योगी बड़े आदरके साथ एकांत में रहना चाहता है, इच्छा करता है और अपने प्रयोजनवश, धर्मसाधनाके प्रयोजनसे कदाचित् कुछ कहना पड़े तो कह कर शीघ्र ही भूल जाता है। यह स्वानुभव प्राप्त योगियोकी कहानी बतायी जा रही है। धर्ममय यह आत्मा स्वंय है। जो कुछ यह मै हूं उसकी ही बात कही जा रही है।
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धर्मका आधार
भैया ! धर्म मिलेगा तो स्वयमें ही मिलगा। बाह्रा में जो भी आदर्श है, पूज्य है वे इस आत्मानुभवके मार्गके निर्देशक है, इस कारण उनकी भक्तिसे एक शुद्व आनन्द मिलता है और अपने आपमें जो स्थिति उत्पन्न करना चाहतें है, यह योग जिन्हे प्रकट हुआ है उनमें अपूर्व बहुमान स्तवन, उपासनाका अपूर्व भाव होता है। जिसे जो आनन्द मिल गया है वह जैसे मिलता है उस ही उपायमें लगता है। जहाँ आनन्द नही है ऐसे साधनोसे हटता है । सब ज्ञानका माहात्म्य है। जब तक इस जीवको अपने आत्माका और परपदार्थोके यथार्थ स्वरूपका बोध नही होता है तब तक यह अपनी ओर आये कैसे और परसे हटे कैसे?
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वस्तुस्वरूपके प्रतिपादनकी विशेषता जैन शासन मं सबसे बड़ी विशेषता एक वस्तुस्वरूपके प्रतिपादन की है। जीवको मोहही दुःख उत्पन्न करता हे। वह मोह कैसे मिटे, इसका उपाय वस्तुस्वरूपका यथार्थ परिज्ञानकर लेना है। जगतमें अनन्तानन्तें तो आत्मा है, अनन्तानंत पुद्गल परमाणु है- एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य एक आकाशद्रव्य और असंख्यात काल द्रव्य हे। इनका जो परिणमन है वह कही सूक्ष्म परिणमन है और कही स्थूल परिणमन है पर इन परिणमनोमें सर्वत्र एक रूप रहने वाले जो मूल पदार्थ है, जो अनेक दशावोमें पहुचं कर भी एक स्वभावरूप रहें वही समस्त परिणमनोका मूल कारण है। जैसे कि जो चिदात्मक गुणपर्याये है उन सृष्टियोका कारण यह चित्स्वरूप है और जितने जो कुछ ये दृश्यमान है इन दृश्यमान समस्त पदार्थों का मूल कारण अणु है । उस परमाणुमें भी परमाणु अकेला रह जाय तब भी परिणमन चलता है। उस परिणमनसे परिणत अणुको कार्य अणु कहते है और यह वह परिणमन जिस आधार में होता है उसे कारण अणु कहते
है ।
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मूल पदार्थका मोहियोको अपरिचय इन जीवो ने इन द्रश्यमान पदार्थो का मूल कारण नही जान पाया और न यह समझ पाया कि ये प्रत्येक पदार्थ अपनेमें ही अपनेको अपने लिए अपने द्वारा रचतें रहतें है । किसीके विभाव परिणमनमे अन्य द्रव्य निमित्त होते है, किन्तु कोई भी निमित्तभूत परपदार्थ उपादानमें किसी परिणतिको उत्पन्न नही करते है। ऐसी वस्तुस्वरूपकी स्वतंत्रता एक सूत्रमें ही कह दी गई है- उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत् । जो भी है वह निरन्तर नवीन पर्यायसे परिणमता है, पुरातन पर्यायको विलीन करता है और वह स्वंय कारण रूपमें घ्रौव्य बना रहता है । यो जब आत्मा के स्वरूप का भान होता है तो यह निर्णय होता है कि किसी भी पदार्थ का कोई पदार्थ कुछ नही लगता है। सर्व पदार्थ अपने अपने स्वतंत्र स्वरूप को लिए हुए है, ऐसा भान होने पर जो परपदार्थ से सहज उपेक्षा होती है और उस उपेक्षा से जो अपने आपके स्वभाव में झुकाव दृढ़ हुआ और एकत्व की दृष्टि बनी उसमें जो आनन्द प्रकट होता है। वह अलौकिक आनन्द है । उसका अनुभव कर चुकने
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वाले योगी को अब किसी भी समागम में रहने की चाह नही रहती है, वह तो एकान्त वास का अनुरागी है।
अज्ञानावस्था की वात्रछाये - अज्ञान अवस्था मेंयश और कीर्ति की चाह हुआ करती है कि मेरा लोक में बड़प्पन रहे, इस अज्ञानी को यह विदित नही है कि जिन लोगो में मै बड़ा कहलाना चाहता हूँ वे लोग स्वयं दुःखी है, अशरण है, मायास्वरूप है- यह भान नही रहा, इसी कारण इन मायामयी पुरूषो में ये मायामयी पुरूष यश के लिए होड़ लगगा रहे है। दुःख और किस बात का है धन मे लोग बढ़ना चाहते है वह भी यश के लिए । यश की चाह अन्तर में पड़ी है तो नियम से जानना चाहिए कि उसके अज्ञानभाव है। जो कारण समयसार है, जो निज मूल शुत चिदात्मक तत्व है उसका परिचय नही हुआ है इस कारण दर दर पर इसे परपदार्थो से भीख मांगनी पड़ती है।
योगीश्वरो का आदर्श - यह ज्ञानी पुरूष निर्जन स्थानो में एकांत का संवास चाहता है। उसे प्रयोजन नही रहा किसी समागम मे रमने का और आदरपूर्वक चाहता है। ऐसा नही है कि संन्यासी हो गया है इस कारण अलग रहना ही पड़ेगा। घर बसाकर तो न रहा जायगा ऐसी व्यवस्था नही है किन्तु आस्थापूर्वक वह एकान्त स्थान चाहता है। यह उन्नति के पद में पहुंचने वाले योगियो की कथा है। उन्होने निकट पूर्व काल में जो मार्ग अपनाया था, ज्ञान किया था वह ज्ञान हम आप सब श्रावकजनो के करने योग्य है, जिस मार्ग से चलकर योगी संत महान् आत्मा हुए है, वे चलकर बताते है, कि इस रास्ते से हम यहां आ पाये है, इसी उत्कृष्ट पथ से चलकर तुम अपने आपके उत्कृष्ट पद को पा लो।
अज्ञान और उद्दण्डता- बेवकूफी और धूर्तता – इन दो ने जगत के जीवो को परेशान कर दिया है। बेवकूफी तो यह है कि पदार्थ का यथार्थ स्वरूप न विदित हुआ और एक का दूसरे पर अधिकार सम्बन्ध दीखने लगा। यह तो है इसका अज्ञान और इतने पर भी अपने को महान् माल लेना। कोई छोटी बिरादरी का हो तो वह भी अपने को छोटा स्वीकार नही कर सकता है, कोई निर्धन हो वह भी अपनी दृष्टि में अपने को हल्का नही मान सकता है। एक तो अज्ञान रहा और अज्ञान होने पर भी अपने में बड़प्पन की बुद्धि रहे, जिससे अभिमान बने और भी प्रतिक्रियाये करने का यत्न होना यह है इस मोही जीव की धूर्धता । अज्ञान ही होता, सरल रहता ता भीअधिक बिगाड़ न था, किन्तु अज्ञान होने पर भी अपने आप में बड़प्पन स्वीकार करना यह और कठिन चोट है, इससे परेशान होकर यह जीव चौरासी लाख योनियो में भटक रहा है।
जीव का सर्वत्र एकाकीपना – यह जीव अकेला ही जन्ममरण करता है, सुख दुःख भोगता है, रोग शोक आदि वेदनाएँ पाता है, स्त्री पुत्रादि को लक्ष्य में लेकर यह अपने रागद्वेष और मोह का विस्तार बनाया करता है, यहां कोई भी इस जीव का साथी नही है।
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वे सब केवल व्यवहार में स्वार्थ बुद्वि से रंगे हुए इस जन्म में ही साथी हो सकते है। कोई भी कभी मेरी विपदा में रच साथ नही दे सकता है। ऐसी समझ द्वेष के लिए नही करना कि ये कोई साथी नही है, क्यो द्वेष करना? क्या तुम हो किसी के साथी? जब तुम किसी के साथी नही हो तो कोई दूसरा तुम्हारा साथी कैसे हो सकता है? यह तो वस्तुस्वरूप ही है। यह द्वेष के लिए समझ नही बनाना, किन्तु उपेक्षा परिणाम करने के लिए ध्यान बनाना है।
व्यामोहवृत्ति - यह मोही आत्मा अपनी भूल से ही इन परजीवो को अपनी रक्षा का कारण समझता है। ये मेरी रक्षा करेंगे। कहो समय आने पर जिसका विश्वास है वही विपदा का कारण बन जाए। लेकिन मोह में जो दिमाग मे आया, क्योकि शुद्ध मार्ग का तो परिचय नही है सो अपनी कुमति के अनुसार दूसरो का रक्षक मानता है और उन्हे त्यागने में भय मानता है मै इस रक्षक का त्याग कर दूँ तो कही मेरा गुजारा न खत्म हो जाय ऐसा भय मानता हे और कभी वियोग हो जाय, होता ही है, जिनका संयोग हुआ है उनका वियोग नियम से होता है। तब यह अज्ञानी बड़ा क्लेश मानता है।
अज्ञान की कष्टरूपता - जो संयोग में हर्ष मानते है उनको वियोग में कष्ट मानना ही पड़ेगा। जो संयोग के समय भी वियोग की बात का ख्याल रखते है कि जिनका संयोग हुआ है उनका वियोग अवश्य होगा, तो उनके संयोग के समय भी आकुलता नही रहती
और वियोग के समय भी आकुलता नही रहती। यह मोही जीव जब अपने अभीष्ट का वियोग देखता है तो यह व्याकुल होने लगात है। अज्ञान दशामें कही जाय तो इसे कष्ट है, क्रोध में रहे तो भी अज्ञान से कष्ट है। गृहस्थी त्यागकर साधु संन्यासी का भी भेष रख ले तो वहां भी कष्ट है कष्ट किसी परिस्थिति से नही होता है किन्तु अपने अज्ञान भाव के कारण कष्ट होता है, और शुद्ध ज्ञान होने पर कष्ट मिट जाता है, यह अपने में विवेक जागृत करता है। विवेक क्या है? विवेचन करने का नाम विवेक है, अलग कर लेने का नाम विवेक है। विवेक शब्द का अर्थ ही अलग कर लेना है। अपने आपको समस्त परपदार्थो से विविक्त देखना, अपने एकत्वस्वरूप को आकना यही वास्तविक विवेक है। ,
विवेक वृत्ति - जब यह जीव विवेक उत्पन्न करता है, मै अकेला ही हूं, मेरा कोई दूसरा साथी नही है, मै मेरे द्रव्यत्व और अगुरूलघुत्व स्वरूप के कारण अपने आप में ही निरन्तर परिणमा करता हूं। जो भी परिणति मुझमें होती है, सुख हो अथवा दुःख हो, इन सबका मै अकेला ही कर्ता और भोक्ता हूं। दूसरे जन मेरी ही भांति अपना मतलब चाहते है इन समागमो में रहना कष्टदायी मालूम होने लगात है। अपने आत्मस्वरूप से चिगकर किसी बाहा की और विकल्प करना पड़े इसे यह कष्ट मानता है। क्यो विकल्प किया जा रहा है? कुछ हित की सिद्वि है क्या इसमें? वे सब विकल्प मेरे प्राणघात के लिए है अर्थात्
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शुद्व जो चिदानन्दस्वरूप है उसका आवरण करने के लिए है। उन विकल्पो से यह दूर रहना चाहता है।
अन्तस्तत्व के रूचिया का अन्त आश्रय विकल्पो से निवृत्ति के अर्थ ही वह निर्जन स्थान में रहने की अभिलाषा करता है, क्योकि साधन सामने रहे तो वे विकल्पो के निमित्त बन सकते है इसलिए उन समागमो को ही छोड़कर किसी निर्जन स्थान में यह रहने की चेष्टा करने लगता है, करता है, परन्त सदा एकांत मे रह जाना बड़ा कठिन है। क्षुधा, तृषा की वेदना का कारणभूत शरीर साथ लगा है उसकी वेदना को शान्त करने के लिए कुछ समागम होना ही पड़ता है। ये योगी क्षुधा की शान्ति के लिए नगर में भिक्षावृत्ति करते है, अथवा कभी किसी से वचनालाप का प्रसंग होता है तो अवसर पर बोल देते है। बोलने के बाद फिर उन सबका यह विस्मरण कर देता है। क्या - क्या चीजें स्मरण में रक्खे, किन्ही परपदार्थो को अपने उपयोग में बसाये रहने का क्या प्रयोजन है? कौन सा कर्ज चुकाना है, कौन सी आफत हे जिससे वह बाह्रा पदार्थो को अपने उपयोग में रक्खे, नही रखना चाहता है।
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वृत्ति की प्रयोजनानुसारिता लाख बात की बात तो याद रहती है और सब प्रयोजनो की बात याद नही रहती है। जैसे गृहस्थजनों को, व्यापारियो को गृहस्थी और व्यापार की बात बहुत याद रहती है, कैसा थान है, कहां धरा है, कैसा रंग है, कैसी क्वालिटी का है, सारा नक्शा अब भी खिचं सकता है, सब चीजो को भाव ताव याद रहता है। देखने की भी जरूरत नही है, शक्ल देखकर बता देते कि यह इस भाव का है। तो उस बाह्रारूचिक गृहस्थो को व्यापारियो को ये सब बातें तो याद रहती है पर धर्म की बातें या ज्ञान सीखतें है तो याद नही रहती है, ठीक है, अंत में यह ज्ञान ही प्रयाजन हो जायगा। अभी तो गृहस्थी के जंजाल का प्रयोजन है, उसकी सुध बहुत रहती है, धर्म और ज्ञान की सुध नही रहती है। जब विवेक जगेगा, जब यह उपयोग कुछ मोड़ खायगा, तब इस जीव को ज्ञान की सुध बनेगी, अन्य सब बातें भूल जायेगी।
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अप्रायोजनिक विषय का विस्मरण खाने के लालसांवंती को कितना याद रहता है कि कल क्या खाना है? जो कल खाना है उसका साधन अभी से ही जुटाते है, ज्ञानीसंत पुरूष भोजन करते है, पर उन्हें भोजन की कुछ याद नही रहती है। भोजन के समय तो चूँकि उनके पास विवेक है सो उसकी बात समझने के लिए याद रखना पड़ता है, पर प्रयोजन एक ज्ञान का साधुओ का ही है, इस वजह से भोजन करते हुए में भी भोजन के स्वाद में वे मौज नही मानते है क्योकि उनका उपयोग ज्ञान की और लगा हुआ है। भोजन करते जा रहे है पर वे उसके ज्ञाना द्रष्टा रहते हे ।
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लोकदृष्टि की प्राकृतिकता - जो मन लगाकर खाये उसको भक्ति पूर्वक खिलाने का भाव नही होता है, जो मन न लगाकर खाये उसको सभक्ति खिलाने को भाव होता है। यह सब विशेषता है । जो मन लगाकर नही खाते है उनको ही साधु कहते है । उनको आहार दान देने में उत्सुकता गृहस्थ जनों को रहती है, यदि कोई मौज मानकर खाये तो गृहस्थ का परिणाम खिलाने में बढ़ नही सकता है, मन हट जायगा, यह प्राकृतिक बात है। जैसे गृहस्थजन भी भोजन के लिए मना करते जाएँ तो खिलाने वाले मनाकर खिलाते है, और लाओ - लाओ कहें तो परोसने वाले के उमंग नही रहती है। ऐसे ही जो जगत से उपेक्षा करके अपने स्वरूप की और मोड़ करते है उनकी सेवा में जगत दौड़ता है और जो जगत की और मुख किए हुए है उनकी और से यह जगत मुड़ता है।
ज्ञानी का तात्विक उद्यम यहाँ यह कहा जा रहा है कि यह योगी ज्ञानी पुरूष चूँकि एक अलौकिक आनन्द का अनुभव ले चुका है। अपने आपके स्वरूप में, इस कारण उसकी प्राप्ति के लिए ही इसका उद्यम होता है और यह निर्जन स्थान में पहुंचना चाहता है। इस आत्मध्यान के प्रताप से मोह दूर हो जाता है, और जहाँ सबको मन में बसाये रहें तो यह मोह कष्ट देता रहता है, छुट्टी नही देता है। विविक्त निःशक शुद्ध ज्ञानप्रकाश जो है वह सर्व संकटो से मुक्त है, उसके ध्यान से ये मोह राग द्वेष बिल्कुल ध्वस्त हो जाते है ।
आत्मनिधि के रक्षण का पुरूषार्थ - भैया! सब कुछ न्यौछावर करके भी ज्ञानानुभव का आनन्द आ जाय तो उसने सब कुछ पाया है। सब कुछ जोड़कर भी एक ज्ञानस्वरूप का परिचय नही हो पाया तो उसने कुछ नही पाया है। लाखो और करोड़ो की सम्पत्ति भी जोड़ ले तो भी एक साथ सब कुछ छोड़कर जाना ही पड़ता है, और ज्ञानसंस्कार, ज्ञानदृष्टि शुद्ध आनन्द की प्राप्ति कर लेना ये सब शरीर छोड़ने पर भी साथ जाते है। जो ज्ञान और आनन्द की निधि है वह कभी छूटती नही है। जो आत्म की निधि नही है वह कभी आत्मा के साथ रहती नही है। गुरू परम्परा में बतायी हुई पद्वति के अनुसार जो आत्मस्वरूप का अभ्यास करता है वह योगी ध्यान के जो भी साधन औश्र स्वरूप है उनका साक्षात्कार करता है अर्थात् जिस समय आत्मस्वरूप के चिन्तन में यह योगी लीन हो जाता है उस समय उसे संसार का कोई भी पदार्थ, अपने प्रयोजन का कोई भी तत्व समझिये इसे अदृश्य हो जाता है ।
ज्ञानस्वरूप के आश्रय का प्रसाद – जो अपने ज्ञान को बाह्रा पदार्थों की ओर जानने के लिए लगाए उसके ज्ञान का विकास नही होता है और जो बाह्रा पदार्थो से हटकर केवल अपने केन्द्र को ही जानने का यत्न करे तो स्वयं ही ज्ञान का एक ऐसा विकास होता है कि यह लोकालोक समस्त एक साथ स्पष्ट विज्ञान होने लगात है। आनन्द में बाधा देने वाली दो बाते है- एक तो ज्ञान न होना, दूसरी इच्छा बनाना । जब किसी वस्तु का ज्ञान नही है और इच्छा बनी हुई है तो आकुलता होती है। किसी वस्तु का ज्ञान नही है तो न
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रहने दो, तुम उसके ज्ञन की इच्छा और मत करो, फिर आकुलता कुछ नही है। इच्छा न हो ऐसी स्थिति तब बनती है जब कि ज्ञान स्पष्ट हो, इस कारण पदार्थ के स्वरूप का परिज्ञान करके केवल ज्ञाताद्रष्टा रहने का अभ्यास करे और इच्छा न करे तो वह परमात्म स्थिति इसके निकट ही है। स्वंय ही तो परमात्मस्वरूप है, इसकी और आये तो क्लेश दूर हो। इस प्रकार यह योगी परमार्थ एकांत निज आत्मतत्व की ही चाह करता है।
ब्रुवन्नपि हि न ब्रूते गच्छन्नपि न गच्छति।
स्थिरीकृतात्मतत्वस्तु पश्चन्नपि न पश्यति।।41 || समाधिनिष्ठ योगी का व्यवहार - जिस पुरूष ने आत्मतत्वर को स्थिर कर लिया है अर्थात् जो समाधिनिष्ठ योगी आत्मास्वरूप का दृढ़ अभ्यासी हो जाता है वह प्रयोजनवश कदाचित् कुछ बोले भी, तो बोलता हुआ भी अतः बोल नही रहा है कही जाय वह तो जाता हुआ भी अन्तरंग से जा नही रहा है, कही देखे भी, तो वह देखता हुआ भी देख नही रहा
है।
आनन्द व धाय में उपयोग - जिसको जहां रसास्वादन हो जाता है उसका उपयोग वहां ही रहता है। जिसे जो बात अत्यन्त अभीष्ट है उस अभीष्ट में ही वह स्थित रहता है। ज्ञानी को ज्ञान अभीष्ट है इसी कारण वह अन्य क्रियाएँ विवश होकर करे तो भी वह अन्य क्रियावो का कर्ता नही है जैसे फर्म के मुनीम की केवल अपने परिवार से सम्बधित आय पर ही दृष्टि है, वहां ही ममत्व है, और जो लाखो का धन आए उसमें ममत्व नही है। तो वह हिसाब किताब रखकर भी, सब कुछ सम्हालता हुआ भी कुछ नही सम्हाल कर रहा है, अथवा जैसे धाय बालक को पालती है, पर धाय का प्रयोजन तो मात्र इतना ही है कि हमारी आजीविका रहेगी, गुजारा अच्छा चेलगा। इतने प्रयोजन से ही उसको ममत्व है। तो वह बालक का श्रृंगार करके भी वस्तुतः श्रृगार नही कर रही है। ऐसे ही जिस ज्ञानी पुरूष को अध्यात्मरस का स्वाद आया है वह प्रत्येक प्रसंगो में चाहता है केवल अध्यात्म का रसास्वादन। जब वह कुछ भी बाहा में क्रिया करे तो भी उन क्रियावो का वह करने वाला नही है।
योगीश्वर का व्यवहार - शुद्ध आत्मतत्व का परम आनन्द पा लेने वाले योगी के एक सिर्फ आत्मदृष्टि के अतिरिक्त अन्य सब बाते, व्यवसाय पदार्थ, नीरस और अरूचिकार मालूम होते है, किसी भक्त पुरूष को कहाँ उपदेश भी देना पडे तो वह उपदेश देता हुआ भी न देने की तरह है। कर्मो के उदय की बात वीतराग पुरूषो के भी हुआ करती है। अरहंत, तीर्थकर परमात्मा हो गए, उनको अन्तरंग से कुछ भी बोलने की इच्छा नहीं है, लेकिन कर्मो का उदय इस ही प्रकार का है कि उनकी दिव्यध्वनि खिरती है, उनके उपदेश दिव्यध्वनि रूप में होते है। जब वीतराग परमात्मा के भी किसी स्थिति तक कर्मोदयवश योग होता है, बोलना पड़ता है, यद्यपि उनका यह बोल निरही है और
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सर्वागनिर्गत है, किन्तु यह अवस्था आत्मा के सहज नही होती है। तब जो राग सहित है ऐसे योगीश्वर जिनको वीतराग आत्मतत्व से प्रेम किन्तु रागांश शेष है उन्हे कोई अनुरोध करता है तो वे उपयोग भी देते है, अथवा कोई समय निश्चित कर दिया लोग जुड़ जाते है तो बोलना भी पड़ता है, किन्तु वह योगी बोलकर भी न बोलने की ही तरह है।
प्रत्येक प्रसंग में आत्महित दृष्टि - जो आत्महित का अभिलाषी है वह अन्तरात्मा अपने उपयोग को यहाँ वहाँ न घुमाकर अपना अधिक समय आत्मचिन्तन में ही लगाते है। उनका बोलना भी इसी के लिए है। वे उपदेश देने के प्रसंग में भी अपने आप में ज्ञान का बल भरतें है। प्राकपदवी में आत्मध्यान के काम में लगने पर भी वासनावश शिथिलता आ जाती है और उपयोग अन्यत्र चलने लगता है तो वह योगी दूसरो को कुछ सुनाने के रूप से अपने आप में अपनी शिथिलता को दूर किया करते है, वे अपनी दृष्टि सुदृढ़ बनातें है। जो जिसका प्रयोजक है, जिसने जो अपना प्रयोजन सोचा है वह सब प्रसंगो मे अपने प्रयोजन की सित जैसे हो उस पद्वति से प्रवृत्ति करता है।
ज्ञानी के क्रिया में आसक्ति का अभाव – भैया! स्वपर के उपकार आदि कारणो से उन्हे वचन भी कुछ कहने पडेगे तो बोलते है, पर न बोलने की तरह है। शरीर से कुछ करना पड़े तो करते है, पर न करने की तरह है किसी भी क्रिया में ज्ञानी की आसक्ति नही है, अन्य बातें कुछ भी उनके धार्मिक प्रसंग की बातें है उन बातो को भी वे अन्तरंग रूचि से नही करते है, अर्थात यही मेरा ध्येय है ऐसी उनकी रूचि नही रहती है। किन्तु सहज अंतः प्रकाशमान जो अंतस्तत्व है उसकी सिद्धि के लिए व्यवहार धर्म का पालन करते है । इतनी परम विविक्ता इन ज्ञानी संतो के प्रकट होती है, ये कुछ करते हए भी न करने की तरह है। जो पुरूष आत्मध्यान के अतिरिक्त अन्य क्रियावो में चिर क्षण तक उपयोग नही देते है वे ज्ञानबल से ऐसा बलिष्ट बनते है कि वे आत्मस्वरूप से व्युत नही हो सकते। उनके आत्म शान्ति में किसी भी निमित्त से बाधा न हो सकेगी।
सुख दुःखादि की ज्ञानकला पर निर्भरता –' सुख और दुःख दोनो का होना ज्ञान और अज्ञान पर निर्भर है। जो सांसारिक सुख है और दुःख है वे तो अज्ञान पर निर्भर है किन्तु सुखो में परम सुख अथवा शुद्ध आनन्द वह ज्ञान प्रकाश पर निर्भर है। यही बैठे ही बैठे किसी परपदार्थ से थोड़ा सम्बंध की दृष्टि मान ले तो चाहे वह अनुकूल हो और चाहे प्रतिकूल हो, दानो ही स्थितियो में सम्बधं बुद्वि वाला पुरूष दुःखी होगा। संसार के सभी जीव अपना दुःख लिए हुए भ्रमण कर रहे है। वे दुःखो को त्यागकर विश्राम से नही बैठ पाते है ज्ञान बिना सारा साज श्रृंगार, बडप्पन, महत्व, व्यापार, व्यवसाय चटकमटक सब व्यर्थ है। किसे क्या दिखाना है, कौन यहाँ हमारा प्रभु है जिसको हम अपना चमत्कार श्रृंगार साज धाज बताएँ? यह जो हमारा अमूर्त आत्मा है उसे तो कोई जानता नही। जो ये
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दृश्यमान है, पिडं है, ये स्वयं अचेतन है। ये मै हूं नहीं, तब फिर किसी को कुछ भी जताने का अभिप्राय वह मिथ्या है।
अहंकार व ममकार का दोष व्यामोही जीवो में अहकार और ममकार ये दो दोष बड़े लगे हुए है। जिस पर्याय में यह जीव जाता है उस ही पर्याय को अह रूप से मानने लगता है, मैने किया ऐसा, मैं ऐसा कर दूंगा, मेरा अब यह कार्य-क्रम है। एक तो पर्याय में अहंबुद्धि लगा ली है, यह अहंकार का महादोष इस जीव में लगा हुआ है। दूसरा रोष ममकार का है। किसी भी परपदार्थ को यह मेरा है ऐसा ममत्व परिणाम इस जीव के बना हुआ है। दोनो ही परिणाम मिथ्या है, क्योकि न तो कुछ बाह्रा मै हूं और न कुछ बाह्रा मेरे है। यह संसार इस ही अंहकार और ममकार की प्रेरणा से दुःखी हो रहा है। ज्ञानी पुरूष के किसी भी परपदार्थ में आसक्ति नही होती है। वह किसी भी पर को अपना नही मानता, अपने से पर का कुछ सम्बन्ध नही समझता है।
औपाधिक देखो लोक में विचित्र प्रकृति के मनुष्य भी देखे जाते है। कोई मनुष्य तो इतनी कृपणता रखते है कि किसी भी स्थिति में रंच भी उदारता नही दिखा सकते है, चाहे कितना ही धन लुट जाय या कितनी ही आधिव्यधियां उपस्थित हो जाने से यो ही हजारो का धन लुट जाय, पर अपने हाथ से किसी भी धर्मप्रसंग के लिए कुछ देने का साहस नही कर पाते है और कितने ही पुरूष अपनी सम्पत्ति से अत्यन्त उदासीन रहते है, अपनी उदारता किसी भी धार्मिक प्रसंग में बनी रहती है। यह विचित्रता, ये जीव के परिणाम और कर्मो के उदय व क्षयोपशम की याद दिलाते है। इस जीव की कितनी विचित्र प्रकृतियाँ हो गयी है? मूल में जीव में केवल ज्ञाता द्रष्टा रहने की प्रकृति है पर अपनी उस मूल प्रकृति को तोड़कर, परप्रकृतियों से उत्पन्न हुई प्रकृतियो में यह लग गया है और उन प्रकृति परिणामो से दुःखी रहता है, संसार भ्रमण करता है। जो तत्वज्ञानी जीव है वे प्रकृति के जाल को त्यागकर अपनी शुद्ध प्रकृति में जाते है। मैं ज्ञानानन्दस्वरूप हूं, चिदानन्दमात्र हूं ऐसी उनकी दृष्टि रहती है। वे कही भी रागी नही होते है ।
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मोह की अंधेरी मोह की अंधेरी आना सबसे बड़ी विपत्ति है और अपने आत्मा में ज्ञान का प्रकाश होना सबसे बडी सम्पदा है। इस बाह्रा पृथ्वीकायक सम्पदा को कोई कहाँ तक सम्हालेगा? किसी भी क्षण यह सम्हाल नही पाता है। चीज जैसी आए, आए पर यह जीव किसी भी सम्पदा को सम्हालता हो ऐसी बात नही है । वह तो अपनी कल्पनावों मे ही गुथा रहता है। इस मायामयी जगत अपनी पोजीशन की धुन बनाना यह महाव्यामोह है । अरे अरहंत सिद्ध की तरह निर्मल ज्ञाताद्रष्टा रह सकने योग्य यह आत्मा आज इतने किवट कर्म और शरीर के बन्धन में पड़ा है। इसकी पोजीशन तो यही बिगड़ी हुई है। अब इस झूठमूठ पोजीशन की क्या सम्हाल करना है। पोजीशन की सम्हाल करना हो तो वास्तविक पद्वति से पोजीशन की सम्हाल करने में लग जाइए, यह स्वाथमयी दुनिया तुम्हारा हित न
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कर सकेगी, तुम्हारे हित के करने वाले मात्र तुम ही हो, इससे अपने आपके कल्याण का उद्यम करना श्रेयस्कर है।
ज्ञानी की दृष्टि - ज्ञानियो के ऐसी शुद्व दृष्टि जगी है कि वे उस दृष्टि को छोड़ नही सकते है। नट कितने भी खेल दिखाये और किसी बांस पर चढ़कर गोल – गोल फिरे, रस्सी पर पैरों से चले, इतने आश्चर्यजनक खेल नट दिखाता है, पर उस नट की दृष्टि किघर है, कार्य क्या कर रहा है और दृष्टि किघर है? उसमें भेद है। जो कर रहा उस पर दृष्टि नही है। मनुष्य भी जब चलता है तो जिस जमीन पर पैर रखता है उस जमीन को देखकर नही चलता है, अगर उतनी जगह को देखकर चले तो चल नही सकता है, गिर पड़ेगा। उसकी दृष्टि प्रकृत्या चार हाथ आगे रहती है। पैर जिस जगह रखा जा रहा है उस जगह को देखकर कौन पैर रखता है? क्रिया होती है, दृष्टि उससे आगे की रहती है। केवल क्रियावो पर ही दृष्टि रहे तो उसका मार्ग रूक जायगा, आगे बढ़ ही नही सकता है। यो यह ज्ञानी प्रत्येक क्रियावो में अपने अंतः स्वरूप में मग्न रहने का यत्न करता है।
ज्ञानियों की अलौकिकी वृत्ति - जिसने अपने आत्मतत्ट को स्थिर किया है उसके ही ऐसी अलौकिक वृत्ति होती है। ज्ञानी और अज्ञानी का प्रवर्तन परस्पर उल्टा है। जिसे ज्ञानी चाहता है उसे अज्ञानी नही चाहता, जिसे अज्ञानी चाहता है उसे ज्ञानी नही चाहता। साधु संत ऐसे ढ़ग का कमण्डल रखते है कि किसी अंसयमी को चुराने तक का भी भाव न हो सके, और की तो बात जाने दो। यह ज्ञानी अज्ञानियों से कितना उल्टा चल रहा है? दुनिया चटक मटक का बर्तन रखती है ओर वे साधु एक काठ का कमंडल रखते है, और मौका पड़ जाय तो कुछ समय के लिए वन में पड़ी अस्वामिक मिट्टी का बर्तन या तूमड़ी आदि का वे प्रयोग कर लेते है, असंयमी जन पंलग गद्दा तकियो पर लेटने का यत्न करते है, ज्ञानी जन जमीन में ही लोटते है कभी कोई परिस्थिति आए तो वे कुछ तृण सोध बिछाकर लेट रहते है, कितनी परस्पर में उल्टी परिणति है। जो लोक न कर सके वह किया जाय उसका नाम है अलोक की वृत्ति। ऐसे अलौकिक निज परमार्थ कार्यो में दृष्टि होने पर भी कितनी ही परिस्थितियाँ ऐसी होती है कि वे अन्य विषयक कार्य भी करते है किन्तु वे कार्य करते हुए भी न करते हुए की तरह है।
वर्तमान संग मे ज्ञानी की अनास्था पर एक दृष्टान्त - एक अमीर पुरूष रोगी हो जाय तो उसके आराम के कितने साधन जुटाए जाते है, अच्छा हवादार और मनः प्रिय कमरे में आसन बिछाना, कोमल पलंग गद्दे रोज-रोज कपड़े धुलकर बिछाए जाएँ, दो चार मित्र जन उसका दिल बहलाने के लिए उपस्थित रहा करे, समय समय पर डाक्टर वैद्य लोग आकर उसकी सेवा किया करे, एक दो नौकर और बढ़ा दिय जाये, कितने साधन है इतने आराम के साधन होने पर भी क्या रोगी यह चाहता है कि ऐसा ही पलंग मेरे पड़ने
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को रात दिन मिला करे, ऐसा ही आराम रोज-रोज मुझे मिलता रहे? जब कोई पुरूष बिमार हो जाता है तो उसकी खबर लेने वाले लोग अधिक हो जाते है, हट्टे कट्टे मे कोई ज्यादा प्रिय बातें नहीं बोलते। बीमार हो जाने पर रिश्तेदार, मित्रजन कुटुम्बीजन बहुत प्रेमपूर्वक व्यवहार करते है। इतना आराम होने पर भी रोगी पुरूष तो यह चाहता है कि मै कब इस खटिया को छोड़कर दो मील पैदल चलने लगें। यो ही ज्ञानी वर्तमान संग में आस्था नही रखता है।
ज्ञानी की प्रवृत्ति के प्रयोजन पर एक दृष्टान्त – यह रोगी दवाई भी सेवन करता है और दवाई समय पर न मिले तो दवाई देने वाले पर झुझंला भी जाता है, दवा क्यां देर से लाये? बड़ा प्रेम वह दवाई से दिखाता है, उस औषधि को वह मेरी दवा, मेरी दवा - ऐसा भी कहता जाता है, उसको अच्छी तरह से सेवता है, फिर भी क्या वह अंतरंग में यह चाहता है कि ऐसी औषधि मुझे जीवनभर खाने को मिलती रहे? वह औषधि को औषधि न खाना पड़े इसलिए खाता है, औषधि खाते रहने के लिए औषधि नही खाता। ऐसे ही ज्ञानी पुरूष अपने-अपने पद के योग्य विषयसाधन भी करे, पूजन करे, अन्य अन्य भी विषयो के साधन बनाएँ तो वहाँ पर ये ज्ञानी विषयो के लिए विषयो का सेवन नही करते, किन्तु इन विषयो से शीघ्र मुझे छुट्टी मिले इसके लिए विषयो का सेवन करते है। ज्ञानी की इस लीला को अज्ञानी जन नही जान सकते। ज्ञानी की होड़ के लिए अज्ञानी भी यदि ऐसा कहे तो उसकी यह कोरी बकवाद है।
कर्मबन्ध का कारण - कर्मबंध आशय से होता है। डाक्टर लोग रोगी की चिकित्सा करते है, आपरेशन भी करते है और उस प्रसंग में कोई रोगी कदाचित् गुजर जाय तो उसे कोई हत्यारा नही कहता है, और न सरकार ही हत्यारा करार कर देती है आशय उसका हत्यारा का नही था, और एक शिकारी शस्त्र बंदूक लिए हुए बन में किसी पशु पक्षी की हत्या करने जाय, और न भी वह हत्या कर सके तो भी उस सशस्त्र पुरूष को लोग हत्यारा कहते है, सरकार भी उसे हत्यारा करार कर देती है। आशय से कर्मबधं है, ज्ञानी जीव को अपने किसी भी परिणमन में आसक्ति नही है, अहंकार नही है। पर्यायबुद्वि सबसे बड़ा अपराध है। जो अपने किसी भी वर्तमान परिणमन में 'यह मै हूं' ऐसा भाव रखता है उस पुरूष के कर्मबधं होता है, और जो विरक्त रहा करता है उसके कर्मबधं नही होता है।
सारभूत शिक्षा - पूज्य श्री कुन्दकुन्द प्रभु ने समयासार में बताया है और अनेक अध्यात्म योगियों ने अपने ग्रन्थों में बताया है। जो जीव रागी होता है वह कर्मो से बँधता है, जो जीव रागी नही होता है वह कर्मो से छूटता है, इतना जिनागम के सार का संक्षेप है। जिन्हे संसार संकटो से मुक्त होने की अभिलाषा हे उन्हें चाहिए कि प्रत्येक पदार्थ को भिन्न
और मायामय जानकर उनमें राग को त्याग दे। उनमें रूचि करने का फल केवल क्लेश ही है और विनाशीक चीज में ममता बना लेना यह बालकों जैसा करतब है। किसी पानी भरी
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थाली में रात के समय चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब पड़ रहा हो तो बालक उस प्रतिबिम्ब को उठाकर अपनी जेब में रखना चाहता है, पर ऐसा होता कहाँ है। तब वह दुःखी होता है।
पर की हठ का क्लेश – एक बालक ने ऐसा हठ किया कि हमें तो हाथी चाहिए तो बाप न पास के किसी बड़े घर के पुरूष से निवेदन करके हाथी घर के सामने बुला लिया। अब लड़के के सामने हाथी तो आ गया, पर वह हठ कर गया कि मुझे तो यह हाथी खरीद दो। तो उसके घर के बाड़े में वह हाथी खड़ा करवा दिया और कहा, लो बेंटा यह हाथी तुम्हे खरीद दिया है, इतने पर भी वह राजी न हुआ, बोला कि इस हाथी को हमारी जेब मे धर दो । अब बतावो हाथी को कौन जेब में धर देगा? जो बात हो नही सकती उस बात पर हठ की जाय तो उसका फल केवल क्लेश ही है। जो बात हो सकती है, जो बात होने योग्य हो, जिस बात के होने में अपनी भलाई हो उस घटना से प्रीति करना यह तो हितकर बात है, पर अनहोनी को होनी बनाने की हठ सुखदायी नही होती है। ज्ञानी पुरूष तो अपने आपको जैसा चाहें बना सकते है, इस निर्णय के कारण अपने पर ही प्रयोग करते है। किसी परवस्तु में किसी प्रकार की हठ नही करते है। इस कारण ये अध्यात्मयोगी सदा अंतः प्रसन्न रहा करते है।
किमिदं कीदृशं कस्य कस्मात्क्वेत्यविशेषयन।
स्वदेहमपि नावैति योगी योगपरायणः ।।42|| एकान्त अन्तस्तत्व की उपलब्धि - कुछ पूर्व के श्लोको में यह दशार्या था कि जो लोक में उत्तम तत्व है, सारभूत वस्तु हे वह निज एकान्त में ही प्रकट होती है। निज एकान्त का अर्थ है जिस चित्त में रागद्वेष का क्षोभ नही है। ऐसे सर्व विविक्त एक इस धर्मी आत्मा में ही उस तत्व का उद्भव होता है। जो लोक में सर्वोतम और शरणभूत है अपने आप में ही वह तत्व है जिसके दर्शन होने पर संसार के समस्त संकट टल जाते है। एक इस अंतस्तत्व के मिले बिना चाहे कितनी ही सम्पदा का संचय हो जाय किन्तु संसार के संकट दूर नही हो सकते है जिसको बाहा पदार्थो की चाह है उस पर ही संकट है और जिसे किसी प्रकार की वाञछा नही है वहाँ कोई संकट नही है।
ज्ञानी के अन्तरंग में साहस - ज्ञानी पुरूष में इतना महान साहस होता है कि कैसी भी परिस्थिति आए सर्व परिस्थितियों में मेरा कही भी रंच बिगाड़ नही है। अरे लोक विभूति के कम होने से अथवा न होने से इन मायामय पुरूषो ने तो कुछ सम्मान न किया , अथवा कुछ निन्दा भरी बात कह दी तो इसमें मेरा क्या नुक्सान हो गया? मैं तो आनन्दमय ज्ञानस्वरूप तत्व हूं, ऐसा निर्णय करके ज्ञानी के अंतः में महान् साहस होता है। जिस तत्व के दर्शन में यह साहस और संकटो का विनाश हो जाता है, उस तत्व के दर्शन के लिए, उस तत्व के अभ्यास के लिए अनुरोध किया गया था।
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विषयोकी अरूचि व स्वसंवेदन - ज्यो – ज्यो यह ज्ञानप्रकाशमात्र आत्मतत्व अपने उपयोग में समाता जाता है त्यो त्यो स्थिति होती है कि ये सुलभ भी विषय उसको रूचिकर नही होते है, और विषयो का अरूचिकर होना और ज्ञानप्रकाशका बढ़ना - इन दोना में होड़ लग जाती है। यह वैराग्य भी इस ज्ञानसे आगे-आगे बढ़ता है और यह ज्ञान वैराग्यके आगे-आगे बढ़ता है। इस अभीष्ट होड़के कारण इस योगी के उपयोग में यह सारा जगत इन्द्रजालकी तरह शांत हो जाता है। ये केवल एक आत्मलाभकी इच्छा रहती है, अन्यत्र उसे पछतावा होता है, ऐसी लगन जिसे लगी हो मोक्षमार्ग उसे मिलता है। केवल बातोसे गपोडोसे शान्ति तो नही मिल सकती है। कोई एक बाबू साहब माना बम्बई जा रहे थे। तो पड़ौसी सेठानी, बहुवे आ आकर बाबूजीसे कहती है कि हमारे मुत्राको एक खेलनेका जहाज ला देना, कोई कहती है कि हमारे मुत्राको खेलने की रेलगाड़ी ला देना। बहुतो ने बहुत बातें कही। एक गरीब बुढ़िया आयी दो पैसे लेकर। बाबूजी को पैसे देकर बोली कि दो पैसाका मेरे मुन्ने को खेलने का मिट्टी का खिलौना ला देना। तो बाबू जी कहते है कि बुढ़िया माँ मुन्ना तेरा ही खिलौना खेलेगा, और तो सब गप्पें करके चली गयी। तो ऐसे ही जो शान्ति का मार्ग है उस मार्ग में गुप्त रहकर कुछ बढ़ता जाय तो उसको ही शान्ति प्राप्ति होगी, केवल बातोसे तो नही। चित्तमें कीर्ति और यशकी वाञछा हो, बड़ा धनी होनेकी वाञछा हो, अचेतन असार तत्वो मे उपयोग रम रहा हो वहाँ शान्ति का दर्शन नही हो सकता है।
अन्तस्तत्वके लाभकी स्पृहा - यह योगी केवल एक आत्मालाभमें ही स्पृहा रखता है, यह एकांत आत्मतत्को चाहता है और बाहामें एकांत स्थानको चाहता है। यहाँ कुछ भी बाहा प्रयोग क्रियाकाण्ड बोलचाल आना जाना कुछ भी नही चाहता है। उसने अपनें उपयोग में आत्मतत्वको स्थिर किया है, ऐसे योगीकी कहानी आज इस श्लोक में कही जा रही है कि वे योगी अंतरंग में क्या किया करते है?
ज्ञानी की कृतिकी जिज्ञासा - यहाँ जीवोंको करने करनेकी आदत पड़ी है इसलिए यह ज्ञानीमें भी करनेका ज्ञान करना चाहता है कि ये योगी क्या किया करते है इसका समाधान करनेसे पहिले थोड़ा यह बतायें कि यह अध्यात्मयोगी संत जो इस तत्वके अभ्यासमें उद्यत हुआ है इस योगाभासमें प्राक् पदवीमें क्या-क्या निर्णय अपने समयामे बनाया था? जिस आत्मतत्वकी उसे लगन लगी है वह आत्मतत्व क्या है? वह आत्मतत्व रोगद्वेष आदिक वासनावो से रहित केवल जाननहार रहनेरूप जो ज्ञानप्रकाश है यह आत्मतत्व है। यह ज्ञान प्रकाशरूप आत्मतत्व निर्विकल्प निराकुल निर्वाध है जिसमें कोई प्रकारका संकट नही है ऐसा शुद्ध प्रकाश है। यह प्रकाश इस आत्मामें ही अभिन्न रूपसे प्रकट हुआ है। इसका स्वामी कोई दूसरा नही है और न इसका प्रकाश किसी दूसरेके अघीन है। यह तत्व इस आत्मामें ही प्रकट हुआ, ऐसे उस ज्ञानामृतका बहुत-बहुत उपयोग
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लगाकर योगी पान किया करता था। इसके फलमें अब पूर्ण अभ्यस्त हुआ है। अब ये योगी क्या किया करता है उसके संबंध में जिज्ञासुका प्रश्न है।
कर्तृत्वबुद्विका रोग - करना, करना यही तो एक संसारका रोग है। यह जिज्ञासु रोगकी बात पूछ रहा है कि इस समय कौनसा रोग है, अर्थात यह क्या करता है, जगत के जीव करनेके रोग में दुःखी है। सब बीमार है, कौनसी बीमारी लगी है? सबको निरखो किसी भी गाँव नगर शहर में नम्बर 1 के घर से लेकर अंतके नम्बर के घर तक देख आवो, सभी कुछ न कुछ बीमार हो रहे है, कुछ न कुछ करनेका संकल्प बना हुआ ह। ये करनेके आशयकी बीमारीका दुःख भागते जा रहे है। क्या उस ही रोग की बातको यह जिज्ञासु पूछ रहा है? कोई एक रूई धुनने वाला था। वह विदेश किसी कारण गया था। वहां से पानी के जहाजसे आ रहा था। तो उस जहाज में मुसाफिर एक ही कोई था और एक यह स्वंय, किन्तु सारे जहाजमें रूई लदी हुई थी। हजारो मन रूई देखकर उस धुनियाके दिलमें बड़ी चोट पहुंची। हाय यह सारी रूई हमको ही धुननी पड़ेगी। बस उसके सिर दर्द शुरू हो गया, घर पहुंचते –पहेचते तेज बुखार हो गया, कराहने लगा। डाक्टर आए, पर वहां कोई बीमारी हो तो वह ठीक हो। वह तो मानसिक कल्पनाका रोग था। एक चतुर वैद्य आया, उसने पूछा- बाबा जी कहां से तुम बीमार हुए? बोला हम विदेशसे पानीके जहाजसे आ रहे थे, बस वही रास्तेंमे बीमार हो गए। अच्छा उसमें कौन-कौन था? था तो कोई नही (बड़ी गहरी सांस लेकर कहा) बोला - एक ही मुसाफिर था, मगर उसमे हजारो मन रूई लदी हुई थी। उसकी आह भरी आवाज को सुनकर वह सब जान गया। बोला - अरे तुम उस जहाजसे आए, वह तो आगे किसी बंदरगाहपर पहुंचकर आग लग जानेसे जलकर भस्म हो गया। जहाज और रूई सब कुछ खत्म हो गया। इतनी बात सुनते ही वह चंगा हो गया। तो सब करनेके रोग के बीमार है।
कर्तृत्वबुद्विके रोगकी चिकित्साकी चर्चा - भैया ! कर्तृत्वबुद्विके रोगसे पैर एक जगह नही थम जाते है, चित्त एक जगह नही लग पाता है, जगत के जीवोमें पक्षपात मच गया है, यह मेरा है, यह गैर है, ये कितनी प्रकारकी बीमारियां उत्पन्न हो गई है। इन सबका कारण कर्तृत्वका आशय है। मैं करता हूं तो यह होता है, मै न करूँ तो कैसे होगा? यह नही विदित है कि यदि हम ने करेगे तो ये पदार्थ अपने परिणमते रहने के द्रव्यत्वको त्याग देंगे क्या? खैर जिज्ञासुको अधिकार है कैसा भी प्रश्न पूछे। उस प्रश्नका उत्तर यहाँ दिया जा रहा है। कि यह योगी तो अपने उपयोगको जोड़ रहा है और कुछ नही कर रहा है। तो जिज्ञासु मानो पुनः पूछता है कि क्या वह योगी अपने बारेमें सुनसान है, कुछ अपने आपका चिन्तन और भान ही नही कर रहा है क्या? उत्तर इसीका दिया गया है पूर्व पादमें कि यह अनुभवमें आने वाला तत्व क्या है, कैसा है, किसका है, कहाँ से आया, कहाँ पर
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है, इस प्रकारका कोई भी विकल्प वहाँ नही मच रहा है, और इसी कारण वह अपने देहको भी नही जान रहा है।
अनात्मतत्वके परिज्ञानकी अनपेक्षा - जिस पुरूषको भेदविज्ञानका उपयोग हो रहा हे वह जिससे अपनेको भिन्न करता है उस हेय तत्वको फिर भी जानता ता है भेदविज्ञान अध्यात्ममार्गमें पहुंचनेकी सीढ़ी है जो लाकव्यवहार में चतुर होते है वे यह कहते है कि अपने खिलाफ यदि किसी ने कुछ कह दिया या कुछ छपा दिया उसका यदि कुछ प्रत्युत्तर दे कोई अर्थ यह है कि उसने उस निन्दा करनेका महत्व आंका और लोग यह समझेंगे कि कोई बात है तब तो इसे उत्तर देना पड़ा। बुद्विमान पुरूष उसकी और दृष्टि भी नही करते है। यह मै शरीर से न्यारा हूं, ऐसा सोचते हुए यदि शरीर तक ज्ञान आए, अथवा कोई परद्रव्य ज्ञानमें आए तो यह उन्नतिकी चीज नहीं है। मै शरीर में न्यारासे हूं। जिससे न्यारा तुम अपनेको सोचते हो उनकी वखत तो हमने पहिले कर ली है। यह अध्यात्म मार्गमें चलाने वाले के प्राकपदवीकी बात कही जा रही है। होता सबके ऐसा है जो शान्तिके मार्गमें बढ़ते है। भेदविज्ञान उनके अनिवार्य है, लेकिन भेदविज्ञान की करते रहना, जपते रहना इतना ही कर्तव्य है क्या? नही। इससे आगे अभेद उपासनाका कर्तव्य है जहाँ यह ही प्रतीत न हो रहा हो, विकल्प ही न मचता हो कि यह देह है, ये कर्म है, ये विभाव है, इनसे मुझे न्यारा होना चाहिए।
उपयोगमें परवस्तुका अमूल्य – कोई धर्मात्मा श्रावक और श्राविका थे। दोनों किसी गाँवको जा रहे थे। आगे पुरूष था, पीछे स्त्री थी। पुरूष आध फर्लाग आगे चल रहा था, उसे रास्तेमं धूल भरी सड़कपर अशर्फियोका एक ढ़ेर दीखा, किसीकी गिर गई होगी। उसे देखकर वह पुरूष यो सोचता है कि इसे धूलसे ढ़क दे। यदि स्त्री को यह दिख जायगा तो, कही लालच न आ जाय, सो उस अशर्फियोको धूलसे ढांकने लगा। इतने मे स्त्री आ गयी, बोली यह क्या कर रहे हो? तो पुरूष बोला कि मैं इन अशर्फियोको धुलसे ढांक रहा हूं| क्यो? इसलिए कि कही तुम्हारे चित्तमे इनको देखकर लालच न आ जाय? स्त्री बोली - अरे तुम भी बड़ी मूढ़ताका काम कर रहे हो, इस धूलपर धूल क्यो डाल रहे हो। उस स्त्रीके चित्तमें वह धन धूल था, उस पुरूषके उपयोगमें अशर्फी है और स्त्रीके चित्तमे धूल है तो इसमें तो स्त्री का वैराग्य बड़ा हुआ।
विकल्पसे अभीष्ट की हानि - भेदविज्ञान में, जिससे अपने आपको पृथक करनेकी बात कही जा रही है, वहाँ दो चीजें सामने है, किन्तु अध्यात्मयोगीको यह गरज नही है कि मरी निगाहमें किसी भी रूपमें विराधी तत्व याने परतत्व बना रहे। इस योगीके देहकी बात तो दूर जाने दो, जिस ज्ञानमय तत्वका अनुभवकर रहा है उस तत्वके सम्बधमें भी यह क्या है, कैसा है, कहाँसे आया है, इतना भी विकल्प नही कर रहा है। विकल्प करनेसे आनन्दमें कमी आ जाती है। जैसे आपने कोई बढ़िया मिठाई खायी, मान लो हलुवा खाया ते उसके
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सम्बंध में यदि यह ख्याल आए कि यह ऐसे बना है, इतना घी पड़ा है, इतना मैदा पड़ा है, ऐसी बातोका ख्याल भी करता जाय और खाता भी जाय तो उसके खानेंमे आनन्दमें कमी हो जायगी। बड़ी मेहनत से बनाया है तो चुपचाप एक तान होकर उसका स्वाद ले, बाते मत करे, बातें करने से उसके आनन्दमें कमी हो जायगी। बड़े योगाभ्याससे, जीवनभरके ज्ञानार्जन की साधनासे, पुरूषोकी निष्कपट सेवासे यह तत्वज्ञान इसने पाया है और आज यह निर्विकल्प ज्ञानस्वरूप अंतस्तत्व अनुभवमें आ रहा है, आने दो, अब उसके सम्बंधमें कुछ विकल्प भी न करो, विकल्प करोगे तो आता हुआ यह अनुभव हट जायगा ।
विकल्पो का उत्तरोत्तर शमन यह योगी अपने अध्यात्मयोग में परायण होता हुआ, किसी भी प्रकारका विकल्प न करता हुआ, अपने देहको भी नही जान रहा है। इस जीवके कल्याणमार्गमें पहिले तो औपचारिक व्यवहारका आलम्बन होता है। जब बचपन था तो यह मां के साथ मंदिरमें आकर जैसे माँ सिर झुका दे वैसे ही सिर झुका देता था, उसे तब कुछ भी बोध न था। जब कुछ बड़ा हुआ, अक्षराभ्यास किया, सत्संग किया, ज्ञानकी बात सुननेमें आयी, अब कुछ— कुछ जानतत्वकी और बढ़ने लगा। अब इसे वस्तुस्वरूपका प्रतिबोध हुआ, भेदविज्ञान जगा । इसके पश्चात् जब इस ध्याता योगीके अपने आपमें अभेद ज्ञानानुभूति होती है तब उसके विकल्प समाप्त होते है। इससे पहिले विकल्प हुआ करते थे, जैसे-जैसे उसकी उन्नती होती गई विकल्पोका रूपक भी बदलता गया, पर समस्त विकल्प शान्त हुए तो इस ज्ञानतत्वमें शान्त हुए ।
ज्ञानभावकी अभिरसमयता व परभावभिन्नता जानने वाला यह ज्ञान इस ही जानने वाले ज्ञानके स्वरूपका ज्ञान करने लगे तब दूसरे वस्तुके छोड़ने को अवकाश कहाँ रहा? ज्ञान ही जानने वाला और ज्ञान ही जाननेमें आ रहा है तब वहाँ तीसरेकी चर्चा कहाँ रही? ऐसी ज्ञानानुभूतिमें किसी भी प्रकारका विकल्प उदित नही होता है, वह तो निज शुद्व आनन्द रसका पान किया करता है। वहाँ ऐसे स्वभावका अनुभव हो रहा है जिसको कहाँसे शुरू करके बताएँ? शुरू बात किसी भी तत्वकी होगी बतानेमें, तो परका नाम लेकर ही हो सकेगा। जिस ज्ञानतत्वके अनुभवमं सम्यग्दर्शन प्रकट होता वह तत्व परभावोसे भिन्न है, परपदार्थो से और परपदार्थो के निमित्तसे जायमान रागादिक भावोसे भिन्न है।
आत्मतत्वकी परिपूर्णता भैया ! यहाँ उस अनुभवमें आए हुए ज्ञान तत्वकी बात कही जा रही है, परसे भिन्न पर भावोसे भिन्न है, इसमें यह न समझना कि जितना जो कुछ हम टूटा फूटा ज्ञान किया करते है उन ज्ञानो को तो मना नही किया, परपदार्थको मना किया और रागादिक भावोंको मना किया। अरे वह आत्मतत्व परिपूर्ण है जिसका अनुभव किया जाना है। यह हमारा ज्ञान तो अधूरा है, यह नही है वह तत्व, जिसका अध्यात्मयोगीके अनुभव हो रहा है।
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आत्मतत्वकी आद्यन्तविमुक्तता - यह अन्तस्तत्व परभाव भिन्न है वह आपूर्ण है, इतने पर ये निर्णय मत कर बैठना कि जो पर नही है, परभव नही है ओर पूरा है वह मेरा स्वरूप है। यो तो केवल ज्ञानादिक शुद्ध विकास भी मेरा स्वरूप बन जायेगे। वे यद्यपि स्वरूपमें एक तान हो जाते है और मेरे स्वरूपके शुद्ध विकास है, परन्तु केवलज्ञान आदिक विकास सादि है, क्या उनके पहिले मै न था? स्वरूपका निर्णय तो यथार्थ होना चाहिए, सो यह भी साथ में जानना कि वह आदि अन्तरहित तत्व है जिसका आलम्बन लिया जा रहा है शुद्वनयमें।
आत्मतत्वका एकत्व व निर्विकल्पत्य – गुरूने शिष्य से पूछा – क्यों ठीक समझमें आ गया, यह शिष्य बोला – हाँ, वह परसे भिन्न है, परभावसे भिन्न है, परिपूर्ण है और शाश्वत है। ये ही तो है ज्ञान, दर्शन, श्रद्वा, चारित्र, आनन्द आदिक गुण। योगी समझता है कि नही-' नही अभी तुम अनुभवके मार्गसे बिछुड़े जा रहे हो, वह इन नाना शक्तियोके रूप में नही है, वह तो एक स्वरूप है। शिष्य कहता है कि अब पहिचाना है कि ब्रह्मा एक है। तो गुरू कहता है कि ब्रह्मा एक है ऐसा ध्यान तू बनायगा तो तूने अपना आश्रय छोड़ दिया है। तू कही परक्षेत्रमें यह एक है ऐसा विकल्प मचायगा, वहाँ भी इस ज्ञानतत्वका अनुभव नही ह। समस्त विकल्पजालोको छोड़कर इस तत्वका तू अनुभवमात्र कर । इसके बारेमें तू जीभ मत हिला। जहाँ कुछ भी जीभ हिलायी, प्रतिपादन करने को चला कि तेरा यह आनन्द रसज्ञानानुभव सब विघट जायगा।
नयपक्षातीत स्वरूपानुभव - यह योगी योगे में परायण होता हुआ अपने देह तक को भी नही जान रहा है। वह तो परम एकाग्रतासे अपने अकिञचन शुद्ध स्वरूपका ही अवलोकन कर रहा है। जो अपनी इच्छासे ही उछल रहे, जो अनेक विकल्पजाल तत्वज्ञानके सम्बन्धो भी हो रहे है, जिससे नय पक्षकी कक्षा बढ़ रही है उनका ही उल्लंघन करके निज सहजस्वरूपको देखता है, जो सर्वत्र समतारससे भरा हुआ है, उसे जो प्राप्ता करता है वह योगी है, धर्ममय है। अपनी समस्त शक्तियो इधर उधर न फैलाकर अपने आपके सहज स्वभावमें केन्द्रित करके अपने उपयोगको एक चिन्मात्र स्वभावमें स्थिर कर देता है वहाँ हेय और उपादेय का कोई भी विकल्प उत्पन्न नही होता है।
उपयोगकी अन्तर्मुखता एंव आनन्द - जैसे यह उपयोग बाहरमें जाया करता है वैसे ही इसको क्या अपने आपमें लाया नही जा सकता है? जो उपयोग बाहरी पदार्थो के जानने में सुभट बन रहा है वह क्या अपने आपके स्वरूपको जाननेमें समर्थ नही हो सकता है? परपदार्थो में हित बुद्विको छोड़कर अपने आपमें विश्राम लेकर अपनेको जाने तो वहाँ वीतराग भावका रसास्वादन हो सकेगा। योगी इसी परमतत्वका निरन्तर आनन्द भागता रहता है।
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यो यत्र निवसन्नास्ते स तत्र कुरुते रति।
यो यत्र रमते तस्मादन्यत्र स न गच्छति ।।43।। उपयोगानुसारिणी वासना - जो जीव जहाँ रहता है उसकी वही प्रीति हो जाती है और जहाँ प्रीजि हो जाती है वहाँ ही वह रमता है फिर वह अपने रम्यापदसे अतिरिक्त अन्यत्र कही नही जाता है। आत्मामें एक चारित्रगुण है। वस्तुतः आत्मामें गुण भेद है नही, किन्तु आत्मा यथार्थ जैसा है उसका प्रतिबोध करने के लिए जो कुछ विशेषताएँ कही जाती है उनको ही भेद कहा करते है। वैसे तो किसी पदार्थका नाम तक भी नही है। किसीका नाम लेकर बतावो, जो नाम लोगे वह किसी विशेषताका प्रतिपादन करने वाला होगा।
वस्तुके यथार्थ परिपूर्ण स्वरूपकी अवक्तव्यता - भैया ! शुद्ध नाम किसीका है ही नही। व्यावहारिक चीजोंका नाम लेकर बतावो आप कहेगे चौकी। चौकी नाम है ही नही। जिसमें चार कोने होते है उसे चौकी कहते है यो इसकी विशेषता बतायी है, चौकी नाम नही है। घड़ा जो यंत्रं में मशीनमें घड़ा जाय उसका नाम घड़ा है। शुद्ध नाम नही है। शुद्ध नामके मायने यह है कि उसमें विशेषका वर्णन करने वाला मर्म न हो। चटाई - चट आई सो चटाई। यह भी उसके गुणका नाम है, उसका नाम नही है। सब विशेषतावोके शब्द है। दरी-देरसे आए तो दरी यह भी उसके गुणका नाम है उसका नाम नही है। किवार - किसीको वारे अर्थात् रोक दे उसका नाम किवार। यह भी शुद्ध नाम नही क्षत - जिसको खुब पीटा जाय उसका नाम क्षत है, यह भी शुद्ध नाम नही है। जीव - जो प्राणो से जीवे सो जीव। यह भी शुद्ध नाम कहाँ रहा? आत्मा - जो निरन्तर जानता रहे उसका नाम है आत्मा। कहाँ रहा उसका नाम विशेषता बतायी है। ब्रहा - जो अपने गुणो को बढ़ाने की और रहा करे उसका नाम ब्रहा है।
वस्तुकी अभेदरूपता - वस्तुका गुणभेद नही है। प्रत्येक पदार्थ जिस स्वरूपका है उस ही स्वरूप है, लेकिन प्रतिबोध किया कराया जा सकता है। उसका प्रतिबोध व्यवहारसे, भेदवादसे ही किया जा सकता है। व्यवहार ही अर्थ भेद है। जो किसी चीजका भेदकर दे उसका नाम व्यवहार है। तो आत्मा एकस्वभावी हे, पर उसकी विशेषताएँ जब बतायी जाती है तो कहा जाता है कि यह जानता है इसमें ज्ञानगुण है। यह कही न कही रमता है, यह चारित्रगुण है। जीवमें यह प्रकृति पड़ी है कि वह किसी न किसी और रमा करे। सिद्व हो, परमात्मा हो, योगी हो, श्रवाकहो, कीड़ा मकोड़ा हो, जो भी चेतन है उसमें यह परिणति है कि कही न कही रमा करे। अब जहाँ औपाधिकता लगी है वहाँ परभावमें लगेगा। जहाँ निरूपाधिता प्रकट होती है वहाँ शुद्व स्वभाव में रमेगा, पर रमनेकी इसमें प्रकृति पड़ी है।
बहिर्मुखता का संकट - यह जीव अपने उपयोग से जहाँ रहता हुआ ठहरता है उसका उस ही में प्रेम हो जाता है। इस जीवपर सबसे बड़ी विपदा है बहिर्मुखताकी। यह जीव अपने आनन्दधाम निज स्वरूपमें विश्राम न लेकर बाहा परतत्वोमें, परपदार्थोमें जो रूचि
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रखता है, परपदार्थो से मेरा हित है, बड़प्पन है ऐसी जो प्रतीति रखता है उसके जीवपर महासंकट है, परन्तु मोही प्राणी मोहमें इस संकटको ही श्रृगार समझते है। पागलपन इसीको ही तो कहतें हे कि दुनिया तो हँसे ओर यह उस ही में राजी रहे। ज्ञानी जन तो हँसे, जो पागल नही है वे तो मजाक करें अथांत् उन्हे हेय आचरणसे देखें और एक पागल उस धुनमें ही मस्त रहे। यहाँ जितने भी मोहमत्त जीव है वे सब उन्मत्त ही तो है। जो ज्ञानी पुरूष है, विवेकी है वे इसकी मोह बुद्विपर हास्य करते है। कहाँ रम गया है, कहाँ भूल पड़ गयी है, और यह मोही पुरूष उन ही विषयोमें रमता है। क्या करे यह मोही प्राणी जब उस निर्मोहताका आनन्द ही नही मिल सका. अपने आपमें ज्ञानका परूषार्थ हीनही कर पा रहा है तो यह कही न कही तो रमेगा ही। रमेगा विषयोमें तो वह विषयोमें ही प्रीति रखेगा। और उन विषयो के सिवाय अन्य जगह जायगा नही। इसे ज्ञान ध्यान तप आदि शुभ प्रसंग भी नही सूझेगे।
धर्मपालकी निष्पक्ष पद्वति - आत्मका हित, आत्माक धर्म, जिसको पालन करनेसे नियमसे शान्ति प्राप्त होगी वह धर्म कही बाहर न मिलेगा। कोई निष्पक्ष बुद्विसे एक शान्ति का ही उद्देश्य ले ले और विशुद्व धर्मपालन करनेकी ठान ले तो वह सब कुछ अपने ज्ञानस्वरूपका निर्णय कर सकता है। कभी यह धोखा हो कि सभी लोग अपने-अपने मजहबकी गाते है, कहाँ जाकर हम धर्मकी बात सीखे? जिस कुलमें जो उत्पन्न हुआ है वह उस ही धर्म की गाता है। जो जिस कुलमें, धर्ममे उत्पन्न हुआ वह रूढ़िवश उसी धर्म और कुलकी गाता है पर कहाँ है धर्म, किस उपायसे शन्तिका मार्ग मिल सकेगा? संदेह हो गया हो और संदेह लायक बात भी है। अपने - अपने पक्षकी ही सब गाते है, संदेह होना किसी हद तक उचित ही है। ऐसी स्थितिमें एक काम करे। जिस कुलमें, जिस धर्ममें आप उत्पन्न हुए है उसकी भी बात कुछ मत सोचे, जो कोई दूसरे धर्मोकी बात सुनाता हो उनको भी मत सुने। पर इतनी ईमानदारी अवश्य रक्खे, इतना निर्णय कर ले कि इस लोक में जो समागम मिले है धन वैभव, स्वजन, मित्रजन, ये सब भिन्न है और असार है, इतना निर्णय तो पूर्ण कर ले। इसमें किसी मजहबकी बात की आयी, यह तो एक देखी और अनुभव की हुई बात है।
उदासीनतामें अन्तस्तत्वका सुगम दर्शन - धन, कुटुम्ब, घर, इज्जत, ये सब चीजे चंद दिनोकी बाते है, मायामयी है। सदा रहना नही है, मरने पर ये साथ निभाते नही है और जीवोके भी ऐसे अनुभव हे कि जो कुछ मिला है वह सिद्वि करने वाला नही है। इन सब अनुभवोके आधारपर इतना निर्णय करलें कि समस्त परपदार्थ मेरे हितरूप नही है, न्यारे है, उनका परिणमन मुझमें हो ही नही पाता। ऐसा निर्णय करनेके बाद किसी भी धर्म, किसी भी पक्ष मजहबकी बात ने सुनकर बस आरामसे कुछ क्षणके लिए बैठ जाएँ। कुछ नही किसीकी सुनना है, सब अपनी-अपनी गाते है। हम कहाँ सच्चाई ढूँढने के लिए दिमाए
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लगाएँ? इस कारण समस्त परको उपयोगसे हटाकर विश्राम पाये तो परमतत्व स्वयं दृष्ट हो जायगा।
दुर्लभ अल्प जीवनका सदुपयोग – भैया ! जीवन थोड़ा है, कुछ वर्षोकी जिन्दगी है। हम बडे-बड़े शास्त्रसिद्वान्तोको जाने तो 10-5 वर्ष तो भाषा सीखने में ही लगेंगे, और फिर एकसे एक बड़े घुरन्धर शब्द शास्त्रके विद्वान पड़े है। उनमें भी कोई कुछ अर्थ लगाते है, कोई कुछ अर्थ लगाते है, कोई कुछ। तो हमे किसीकी नही सुनना है, किसीकी नही मानना है, परम विश्रामसे बैठे, ईमानदारीमें रंच भी बाधा मत डालें। समस्त परद्रव्य भिन्न है, कोई मेरा अहित नही कर सकते। इस निर्णयको रंच भी न भूलें। यदि किसी परपदार्थमें हितबुद्धि की तो अपने आपके बल से धर्मका पता लगानेका कोरा ढोगं ही हैं इतना निर्णय हो तब अपने आप स्वयके विश्रामसे स्वंयमें वह ज्ञानज्योति प्रकट होगी जो निष्पक्ष सब समाधानोको हल कर देगी।
ज्ञानमयकी अनुभूतिमे आनन्दविकास - न होता यह मैं ज्ञानमय तो जान कहाँसे लेता? जो पदार्थ ज्ञानमय नही है वह कदाचित् जान ही नही सकता है। ऐसा कोई भी उदाहरण दो कि अमुक पदार्थ ह तो ज्ञानरहित, पर जान रहा है। नही उदाहरण दे सकते। जो ज्ञानमय है, ज्ञानघन है वही जाननहार बन सकता है। यह मै आत्मा ज्ञानमय हूं और ज्ञान करना है यथार्थ धर्मका। तो जिसके जाननेका स्वभाव है वह जानेगो ही, वही बात जो यथार्थ है, हाँ रागद्वेष मोहका पुट होगा, श्रद्वा विपरीत होगी तो यह ज्ञानकला विफल हो जायगी पर श्रद्वा यर्थाथ हो, परपदार्थो से अलगाव हो तो यह ज्ञान सही काम करेगा, तब अपने आपके ज्ञान द्वारा ही यह ज्ञानस्वरूपका अभ्यास करने लगेगा, और उस स्थिति में अद्भूत आनन्द प्रकट होगा।
मनोविनयसे आनन्दका उद्यम - जो आनन्द ज्ञानानुभूतिमे होता है वह आनन्द भोजन पानकी समृद्वि में नही मिलता, क्योकि उस प्रसंगमें विकल्पजाल निरंतर बने रहते है। एक ग्रास मुँहमें से नीचे गया, झट दूसरे ग्रासकी कल्पना हो उठती है, यह कल्पनावोकी मशीन बहुत तेजीसे चलती रहती है। एक क्षणमेंही कितनी ही कल्पनाएँ कर डालते है और यह उपयोग कितनी जगह दौड़ आता है, बडी तीव्र गति है इस मनकी। इस मनका नाम किसी ने अश्व रक्खा है। अश्व उसे कहते है जो आशु गमन करे, जो शीघ्र गमन करे। नाम किसीका कही नही है। इस मनका नाम अश्व है। किसी जमानेमें लोगोने अलंकार में मनोविजयका नाम अश्वमेघ यज्ञ रख दिया होगा, इस मनको वशमे करके जहाँ एक आध क्षण विश्राम लिया जाता है तो उसे बड़ा अद्भुत आनन्द प्रकट होता है। बस उसमें सब निर्णय हो जाता है कि हमको क्या करना है? शान्ति के लिए बस ज्ञाताद्रष्टा रहना, रागद्वेष रहित बनना, यही एक धर्मका पालन है।
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ज्ञानियोका आराध्य - भैया ! अब सुनिये व्यवहार की बात। हम किसे पूजे, किसे माने? अरे जो अपूर्व ज्ञानप्रकाश और शुद्ध आनन्दका अनुभव किया था, यह तो करना है ना, यही तो धर्म है ना, यह बात जहाँ सातिशय प्रकट हो वही इसका आराध्य हुआ, कहाँ झंझट रहा, नामपर दृष्टि मत दो, स्वरूपपर दृष्टि दो। नामके लिए चाहे जिन कहो, चाहे शिव कहो, ईश्वर कहो, ब्रह्मा कहो, विष्णु बुद्ध, हरि, हर इत्यादि कुछ भी कहो, ये सब स्वरूपके नाम है। स्वरूप जहाँ सातिशय ज्ञान और सातिशय आनन्दको पाये वही हमारा आदर्श है। हमें क्या चाहिए? वही जो अभी अनुभवन में लाया था। परपदार्थ से दृष्टि हटाकर क्षणिक विश्राम लेकर जो हमने अनुभव किया था वही मुझे चाहिए। इतनी अध्यात्मदृष्टि न रहेगी तो बाहर में यह अनुभवी पुरूष उस ही स्वरूपकी शरण जायगा जहाँ यह शुद्ध पूर्ण प्रकट हुआ है और शुद्ध आनन्द पूर्व विकसित हुआ है। बस नामकी दृष्टि तो छोड़ दो और स्वरूपको ग्रहण करलो।
व्यवहारभक्तिमें आश्रयका प्रयोजन - व्यवहार में नामका आश्रय इसलिए लिया जाता है कि हम कुछ जाने तो सही कि ऐसा भी कोई हो सका है क्या? या हम ही कोरी कल्पना बना रहे है, उसके निर्णयके लिए नाम लिया जाता है, ऋषभनाथ, पार्श्वनाथ, रामचंद्र, महावरी, हनुमान, लेते जावो नाम, जो जो भी निर्वाण पदको प्राप्त हुए उनका नाम किस लिए लेते है, यह कर्म देखनेके लिए कि हम ऐसा बन सकते है यह कोरी गप्प तो नही हे। ये-ये लोग निर्वाणको प्राप्त हुए है- ऐसा अपनेमें निर्णय बनाने के लिए नाम लिया जाता है, पर नाममें स्वरूप नही है, स्वरूप तो स्वरूपके आधारमें है जो पुरूष इस स्वरूपमें बसता है, अपने उपयोगको टिकाता है वह इस स्वरूपमें ही प्रेम करेगा, वही वही सर्वत्र उसे दिखेगा। कामी पुरूष को सर्वत्र कामिनी और रूप और ऐसे ही विषय दिखते है क्योकि उसका उपयोग उसीमें बस रहा है। तो योगियोको दर्शन सर्वत्र उस योग-योगका ही होता है।
आशयके अनुसार दर्शन - जो पुरूष ईमानदार है, सत्य बर्ताव और सत्य आशय रखता है उसे दूसरे जीवके प्रति यह छली है अथवा किसीको पीडा करने वाले विचारका है, इस प्रकार विश्वास नही होता है। सहज तो नही होता है। कोई घटना आ जाय ऐसी तब वह ख्याल करता है, ओह! यह ठीक कह रहा था, यह ऐसा ही है। जो धूर्त है, झूठा हे , दगाबाज है उसे और लोगो पर ये सच्चे है ऐसा विश्वास नही होता है। सहज नही होता। बहुत दिन रम जाय, रह जाय, घटनाएं घटे तो यह विश्वास करता है। जो जिस भावमें रहता हुआ ठहरता है वह उस भावमें ही प्रीति करता है। विषयोमें रमनेवाले व्यामोही पुरूषकी विषयोमें ही प्रीति रहती है और विषयोसे अतिरिक्त कोई धार्मिक प्रसंग मिल जाए तो वहाँ घबड़ाहट पैदा होती है। कभी - कभी पूजा और विषयोसे अतिरिक्त कोई धार्मिक प्रसंग मिल जाय ता वहाँ घबडाहट पैदा होती है। कभी - कभी पूजा करनेमें, दर्शन करनेमें कितने उद्वेग रहते है? झट बोले, जल्दी करे, क्योकि उपयोग दूसरी जगह रम रहा है। यहाँ
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मन नही लगता है और ज्ञानी जीवको व्यवसाय, दुकान, व्यवहार इनमें मन नही लगता है। यह जल्दी समय निकल जाय, दर्शनका, प्रवचनका, वाचनका, जल्दी छुट्टीमिले इसके लिए अज्ञानी अपनी तरस बनाता है। जो जहाँ रहता है उसको उसहीमें प्रीति होती है। यही देखा- जो मनुष्य जिस नगर में, जिस शहर में, जिस गाँव में रहता है उसका प्रेम वहाँके मकान आदिसे हो जाता है। जिस टूटे फूटे मकान में रह रहे है, उसकी एक-एक इंच भूमि और भीतं ये सब कितने प्रिय लग रहे है, और पास ही में किसी की अट्टालिका खड़ी है तो उससे प्रीति नही रहती । यह सब उपयोग में बसनेकी बात प्रभाव है।
आत्मीयकी प्रियता - किसी सेठने एक नई नौकरानी रक्खी, सेठानीका लड़का एक स्कूलमें पढ़ता था, उस नौकरानीका लड़का भी उसी स्कूल में पढ़ता था। सेठानी रोज दोपहर को खाने को एक डिब्बेमें कुछ सामान रखकर अपने लडकेको दे देती थी पर एक दिन देना भूल गयी। सो सेठानीने नौकरानीसे खानेका सामान लड़के को दे आने के लिए कहा। वह बोली कि मै अभी तुम्हारे लड़के को नही पहिचानती तो सेठानी अभिमानमें आकर बोली कि हमारे लड़के को क्या पहिचानना है? जो लड़का सब लड़को में सुन्दर हो वही हमारा लड़का है। सम्भव है कि ऐसा ही रहा हो । वह नौकरानी वह सामान लेकर स्कूल पहुंची तो वहाँ उसे अपने लड़के से सुन्दर कोई लड़का न दिखा। सो उसने अपने ही बच्चे को सारी मिठाई खिला दी और घर वापिस आ गई। शाम को जब वह लड़का घर आया तो माँ से बोला कि आज तुमने हमें खाने को कुछ भी नही भेजा, सो माँ कहती है कि मैने नौकरानी के हाथ भेजा तो था। नौकरानी को बुलाकर पूछा कि हमारे बच्चे को खाने को सामान नही दिया था क्या ? तो नौकरानी बोली कि दिया तो था। तुमने ही तो कहा था कि स्कूल में जो सबसे अच्छा बच्चा हो, वही हमारा बच्चा है, सो मुझे तो सबसे अच्छा बच्चा मेरा ही दिखा तो उसी को मिठाई देकर मैं चली आयी। यही है सब मोहियो की दशा।
बाधक से मधुर भाषण बाधकता के विलय का कारण - अरे तुम ही हमारी शरण हो, तुम ही सबसे प्यारे हो, ऐसे दो चार शब्द ही तो बोल देना है, फिर तो जी जान लगाकर वह आपकी सेवा करेगा। कितनी मोह की विचित्र लीली है? इतने पर भी इतना नही किया जा सकता है कि मधुर शब्द बोल दे। मधुर वचन बोलने में सर्वत्र आनन्द ही आनन्द मिलेगा, संकट न रहेंगे, लेकिन जिसपर मोह है उसके प्रति तो मधुर वचन बोले जा सकते है और जहाँ मोह नही है वहाँ मधुर वचन बोलना कुछ कठिन हो जाता है और जिन्हे अपने विषयसाधनों में बाधक मान लिया उनके प्रति तो मधुर बोल बोल ही नही सकेत। यदि उनसे भी मधुर वचन बोल ले तो बाधक बाधकता को त्यागकर साधक बन सकते है, पर इतना इस मोही पुरूष से नही हो पाता है।
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अध्यात्मरण का कारण
प्रकरण में यह कहा जा रहा है कि जो जहाँ ठहरता है वह उस ही में प्रीति करता है, और उनमें ही सुख की कल्पना करके बार - बार भक्ति का यत्न करता है और आनन्दधाम जो निस्वरूप है उसकी और झांककर भी नही देखता है। लेकिन जब दृष्टि बदल जाती है, अध्यात्म में श्रद्वा उत्पन्न हो जाती है तब बाह्रा पदार्थो से हटकर एक निज शुद्ध स्वरूप की और ही रति हो जाती है। तब चिन्तन और मनन के अभ्यास के बाद सहज शुद्ध आनन्द का अनुभव होने लगता है। अब उसे बाह्रापदार्थ रंच भी रूचिकर नही रहते है। क्या वजह है कि यह योगी अपने मे ही रम रहा है और बाहर में नही रमना चाहता? इस प्रश्न का उत्तर इस श्लोक में दिया है। जिसे अपने स्वरूप में ही रति है वह वही रहकर आनन्द पाया करता है ।
अगच्छंस्तद्विशेषेणामनभिज्ञश्च जायते ।
अज्ञाततद्विशेषस्तु बद्वयते न विमुच्यते । ।44 ।।
विशेषो के अनुपयोग से बन्धन का अभाव जिस मनुष्य का उपयोग जिस विषय में चिरकाल तक रहता है उसकी उस विषय में ही प्रीति हो जाती है, फिर वह पुरूष उस ही मे रमता है। उस विषय के सिवाय अन्य किसी भी जगह उसका चित्त नही जाता है। जब उसकाचित किसी अन्य विषय में नही जाता है तो उन विषयो की विशेषतावो का भी वह अनभिज्ञ रहता है। विशेषताएँ क्या है यह वस्तु सुन्दर है, यह असुन्दर है, इष्ट है, अनिष्ट है, मेरा है, तेरा है आदि जो विशेषतावो की सतरगें है वे कहाँ से उठे ? जब उस विषय के सम्बन्ध में उपयोग दिया ही नही जा रहा है तो वे विशेष कहाँ से उत्पन्न होगे। जब वे विशेष उत्पन्न नही हुए अर्थात् परपदार्थ के सम्बंध मे इष्ट अनिष्ट भावना न हुई तो यह जीव बँधता नही है बल्कि बात्मसंयम होने के कारण मुक्त हो जाता है ।
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स्नेह का गुप्त, विलक्षण, दृढ़ बन्धन लोक में भी देख लो, जिसको इष्ट माना उसी का बन्धन लग गया। आप सब यहाँ बैठे है, प्रदेशो में न घर बँधा है, न स्वजन परिजन बँधे है, सब पदार्थ अपने अपने स्थान में है, लेकिन चित्त उनमें है, उनका स्नेह है तो आप घर छोड़कर नही जा सकते। यह बन्धन कहाँ से लग गया? न कोई रस्सी का बंधन है, न सांकल का बन्धन है, न कोई पकड़े हुए है। यह ही खुद स्नेह परिणमन से परिणमकर बँध जाता है। इस पदार्थ का विशेष ज्ञान न हो तो स्नेह क्यों होगा, चारूदत्त सेठ जब लोकव्यवहार की बातो से परे रहता था, उसकी निष्काम प्रवृत्ति थी विवाह हो जाने पर भी वह अपने केवल धर्मसाधना मे ही रहता था । तब परिवारने चिंता की यह तो घर में रहते हुए भी विभक्त है, ऐसे कैसे घर चलेगा तो उपाय रचा। वह उपाय क्या था, किसी से स्नेह का परिणमन तो आ जाय । न घर में सही, पर एक वह प्रगति तो बन जाय कि यह स्नेह करने लगे। उपाय ऐस ही किया । वैश्या की गली में से उसका चाचा
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चारूदत्त को साथ लेकर गया। पहिले से ही प्रोग्राम था। सामने से कोई हाथी छुड़वाया गया। उससे कैसे बचें सो एक वैश्या के घर वे दोना चले गए। जान तो बचाना था। वहाँ जाकर शंतरंज आदि खिलवाया और जो जो कुछ खटपट है उनमें भुलाया। यह चतुर था, यह भी खेल में शामिल हो गया। बस स्नेह का बधन बँध गया। सबसे बड़ा बन्धन है स्नेह के बन्धन से जकड़ देना।
स्नेह बन्धन में विडम्बनाये - एक दोहा में कहते है - हाले फूले वे फिरै होत हमारो व्याव। तुलसी गाय बजाय के देत काठ में पाव । केवल एक विवाह की बात नही है। किसी से किस ही प्रकार स्नेह का बन्धन हो जाय तो वह जीवन में शल्य की तरह दुःख देता है। परिचय हो गया ना अब । बोलचाल रहन-सहन सब होने से स्नेह बन गया। अब इस मोही की दृष्टि में जगत के अन्य जीव कुछ नही लगते और ये एक दो जीव इसके लिए सर्व कुछ है। घर का आदमी जिससे बन्धन है, बीमार पड़ जाए तो करजा लेकर भी उसका उपचार करता है। घर को तो सब लगा ही देगा और कदाचित् कोई पड़ौसी बीमार हो जाए तो कुछ भी लगा सके ऐसी हिम्मत भी नही कर पाता। कोई धर्मात्मा बीमार हो जाय तो उसके लिए कुछ भी नही है। यदि कुछ थोड़ा बहुत लगाया जाता तो लोकलाज से, पर जैसे भीतर से एक रूचि उत्पन्न होकर घर वाले की सेवा की जाती है इस प्रकार अंतरंग से रूचि उत्पन्न होकर किसी धर्मात्माजनों की सेवा की जा सके, ऐसा नही हो पाता है। ये सब मोह के नचाये हुए कहाँ-कहाँ क्या-क्या नाच नचते है? रहना कुछ नही है साथ में। चंद दिनो की चाँदनी है, छोड़ना सब कुछ पड़ता है, पर उन ही चंद दिनो में ऐसी वासना बना लेते है कि भव-भव में क्लेश भोगने पड़ते है।
आत्मगुणानुराग में बाहृा का अनुपयोग - जो मनुष्य जिन पदार्थो के चिन्तन में तन्मय हो जाता है उसे तो उसमे गुण दीखते हे और उसके अतिरिक्त अन्य पदार्थ के गुण नही दीखते, न दोष दीखते, हित अहित किसी भी प्रकार से ज्ञान नही रहता, इसी कारण अन्य से सम्बन्ध नही रहता है। ज्ञानी पुरूष को ऐसे ज्ञानप्रकाश का अनुभव होता है कि उसका चित्त अब किसी भी बाहा विषय प्रसंग में नही लगता | जैसे मोही जीव विवश है ज्ञान और वैराग्य में मन लगाने को, इसी प्रकार ज्ञानी जीव विवश है विषय प्रसंगो मे चित्त लगाने की।
गुणो को आत्मवास देने की प्रभुता – एक काव्य में मानतुंग स्वामी ने कहा ह कि हे भगवान ! आप में सब गुण समा गये। सारे गुणो ने आपका ही आश्रय लिया। सो हमे इसमें तो कुछ आश्चर्य नही लगता है। उन गुणो ने हम सब जीवो के पास वास करने के लिए आ आकर कहा कि हमें जरा स्थान दे दो, तो हम सबने उन गुणो को ललकारा। हटो जावो के पास वास करने के लिए आ आकर कहा कि हमें जरा स्थान दे दो, तो हम सबने उन गुणो को ललकारा। हटो जावो यहाँ से । वे सारे गुण क्या करे, झक मार कर आपके
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पास आ गए। हमें इसमें कोई अचरज नही होता। इसका प्रमाण यह है कि दोषो ने हम लोगो के पास आ आकर थोड़ी भी मिन्नत की कि थोड़े दिनों को हमको भीस्थान दे दो। तो हम सबने स्थान देने के लिए होड़ मचा दी। आवो सब दोष, तुम्हारा ही तो घर है। खूब आराम से रहो, तुमसे ही तो हम मौज से रहते है। तुम्हारी ही वजह से तो हमारी बनती है। जब सब दोषो को हम लोगो ने स्थान दिया तो एक भी दोष आपके पास आ सके क्या? आप में एक भी दोष नही आ सके, क्योंकि सब दोषो को हम लोगो ने बड़ा स्थान दिया। उससे शिक्षा यह लेनी है कि स्थान तो हमारे दोष और गुणो को बिराजने के योग्य है। अब हम ऐसा विवेक करें कि जिसको स्थान देने में शान्ति संतोष हो सकता हो उन्हे स्थान दे।
दोषवाद से लाभ का अभाव – भैया ! लोगो मे प्रकृति दूसरो की निन्दा करने की हो जाती है, उनके प्रति देखो - दूसरो की निन्दा कर करके वे कुछ मोटे हो गए या चारित्रवान हो गए, या कर्म काट लिए, बल्कि बात उल्अी हुई, दोषमय हो गये वे, क्योकि दोषो में उपयोग लगाये बिना दोषो का कोई बखान कर नही सकता। जब दोषो में उपयोग लगाया तो उपयोग देने वाला सदोष हो गया। जब यह सदोष हो गया तो उससे उन्नति की कहाँ आशा की जा सकती है। कुछ अपनी प्रगति बनाएँ, जिन जीवों के दोष बखानने की रूचि है उनके तो कषायो से बढ़कर भी मोह का पाप समाया हुआ है। किसी का दोष खुद अपनी दृष्टि बुरी बनाए बिना बखान किया नही जा सकता है। यदि अपनी रक्षा रखने के लिए अथवा अपने परमस्नेही किसी बन्धु की रक्षा करने के लिए किसी के दोष बताने पड़े और उसे कठिन अवसर समझा जाय कि बताये बिना काम न चलेगा, नही तो हमारे ये मित्र जो हमारी धर्मसाधना में सहायक है इनको धोखा हो जायगा। वे अपनी व धर्म मित्र की सुरक्षा के लिए दोष बता सकते है, अमुक मे ऐसा दोष है, उसके संग से लाभ न होगा, पर जिसकी प्रकृति ऐसी है कि कोई अवसर नही है, कोई बात नही फंसी है कि कहना ही पड़े और एक को नही अनेक को, जिस चाहे को, जो मिले उसी को दोष बखानने की प्रवृत्ति हो, यह कषायो के अभिप्राय बिना नही हो सकता। इससे उसको लाभ क्या मिला? कुछ नही। जिसमे लाभ मिले वह काम करने योग्य है। कुछ आत्मा का लाभ मिल जाता हो तो दोष ही बखानते रहे, पर लाभ दोष बखानने से नही मिलता, किन्तु अपने को गुणरत करने से मिलता है।
भली प्रतिक्रिया - यदि किसी के प्रति कुछ ईर्ष्या भी हो गई हो तो उसका बदला दोष बखानना नहीं है, किन्तु स्वंय गुणी हो जाय और धर्मात्मा बन जाय तो उससे बढ़कर यह स्वंय हो जायगा, यही भली प्रतिक्रिया है। किसी भी परवस्तु में दोष देखने की आदत अपने भले के लिए नही होती है, गुण देखने की आदत अपने भले के लिए होती है। जगत में सभी जीव है, सबमें दोष है, सबमें गुण है, पर उन दोष और गुणो में से गुणो पर दृष्टि
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न जाय, दोषो पर ही दृष्टि जाय तो ऐसी वृत्ति और भी अनेक छोटे मोटे कीड़े मकोड़ो में भी होती है। जोंक गाय के स्तन में लग जाय तो दूघ को ग्रहण नही करती है, खून को ही ग्रहण करती है और उसमें भी अच्छे खून का ग्रहण नही करती किन्तु खोटे गंदे खून का ही ग्रहण करती है। हम ऐसी आदत क्यो व्यर्थ में बनाएँ, हमको क्या पड़ी है इसकी?
स्नेह बन्धन - जब यह चित्त नही भ्रमता बाहा पदार्थो में, विशेषतावो का विस्तार नही बनाता तब यह जीव बँधता नही है। स्नेह ही विकट बन्धन है। मोह मय जगत में मोहमय स्नेह की तारीफ की जाती ह, किन्तु अध्यात्म जगत मे स्नेह को बन्धन बताया गया हे। आत्मज्ञ योगी जिस समय ज्ञानमात्र निज अंतस्तत्व में रत होता है उसकी प्रवृत्ति शरीरादि बाहा पदार्थो में नही होती है। उन्है बाहा में अच्छे बुरे का ज्ञान भी नही रहता। इष्ट अनिष्ट संकल्प विकल्प न होने से रागद्वेष रूप परिणति नही होती। हम यह न सोचे कि यह साधु संतो के करने योग्य बात गृहस्थावस्था में क्यो जानी जाय ? यहाँ यह भावो का सौदा इस ही प्रकार का है। ऊँचा भाव बन गया, ऊँची दृष्टि बन गयी तो छोटे मोटे व्रत आसानी से पल सकेगे। यहाँ ऐसा माप तौल न चल सकेगा कि हम जितने व्रत करें उतनी भर दृष्टि रक्खें, उससे आगे हम क्यों चले? दृष्टि बल होने पर थोड़ा बहुत आचरण बना भी सकते है, ऐसे ज्ञान के रूचिया अध्यात्मयोगी के शुभ-अशुभ पुण्य-पाप आदि का बन्धन नही होता है, प्रत्युत छुटकारा मिल जाता है।
ज्ञानी की विशेषो की उपेक्षा – यह ज्ञानी पुरूष ज्ञानमय स्वरूप के अनुभवन से एक अनुपम आनन्द के स्वाद को पा चुका है। अब यह दो भिन्न वस्तुवो के मिलाप से होने वाले जो विषय क्षणिक सुख है उसका स्वाद लेने में असमर्थ हो गया है, वह तो अपने वस्तुस्वरूप को ही अनुभव रहा है, यह अपने ज्ञानानुभव के प्रसाद से विवश हो गया है, विषयो में नही लग सकता अब । अब अन्य बातों की तो कथा छोड़ो, अपने आप में उदित ज्ञान के विशेषो को भी गौण कर रहा है। जैसे दौड़ता हुआ पुरूष जिस जमीन पर से दौड़ रहा है उस जमीन को नही निरखता है, उस जमीन से गुजर रहा है, निरख रहा है किसी अन्य लक्ष्य को। ऐसे ही यह ज्ञानी इस ज्ञान के ज्ञान से गुजर रहा है, पर जो ज्ञान विशेष है, ज्ञेयाकार है उस ज्ञेयकार को नही ग्रहण कर रहा है, एक निर्विकल्प ज्ञानस्वरूप को ग्रहण कर रहा है। उसके ज्ञान की एकता होने से जो एक विशुद्ध आनन्द जगता है उसके आगे सब रस फीके हो जाते है।
औपाधिक भाव परिणत वस्तु में भी सहजस्वरूप का भान - भैया ! दर्पण मे दर्पण की स्वच्छता भी है, और दुनिया के जो भी सामने पदार्थ है, उनका प्रतिबिम्ब भी हे। जो विवेकी होगा वह तो प्रतिबिम्बित दर्पण में भी स्वच्छता का भान कर सकता है। न होती स्वस्छता तो यह प्रतिबिम्ब भी कहाँ से होता, किन्तु विवेकी पुरूष जिस दर्पण में पूरा ही प्रतिबिम्ब पड़ा हुआ है, किसी कोने में भी स्वच्छता नजर आती है, इसको तो वह दर्पण का
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स्वरूप नही मानता। ऐसे ही यह ज्ञानी ज्ञेयाकार की निरन्तरता होने पर भी ज्ञान की स्वच्छता निहारता है। इस ज्ञान में स्वच्छता शक्ति है और यह ज्ञान कभी भी ज्ञेयो को जाने बिना नही रहता है। अब उन ज्ञेयाकारों से विकल्पो से आकार ग्रहण से परिणत हुए उस ज्ञानस्वरूप में ज्ञान की स्वच्छता जो निहार सके उसे ही तो ज्ञानी कहते है न होती वह शाश्वत स्वच्छता तो यह ज्ञेय विकल्प ही कहाँ से बन पाता? जब इन ज्ञेय विकल्पो को ग्रहण नही किया, केवल ज्ञान को ग्रहण किया तो इसी का अर्थ यह है कि ऐसा सामान्य आकार बना कि वह ज्ञान गुण में समा गया है पृथक नही मालूम होता ।
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ज्ञानी का ज्ञान की और झुकाव जैसे मानो जब दर्पण के सामने कोई वस्तु न रक्खी हो तो दर्पण अपने आप में अपने आकार को अपने आप में समा लेता है, वहाँ पर भी स्वच्छता खाली नही रह सकती। वह कुछ न कुछ काम करता है। अपने ही आकार को अपनी ही स्वच्छता में झलकाकर बना रहता है, पर स्वच्छता का कार्य न हो तो स्वच्छता का अभाव हो जायगा ऐसे ही अध्यात्मयोगी संत ज्ञानी पुरूष ज्ञानाकार को ज्ञान द्वारा ग्रहण करके एकमेक समाकर विश्रांत और शान्त रहते है, उस समय का जो आनन्द है उसको जो प्राप्त कर लेता है उसे कोई व्यवहार में घर का उत्तरदायी होने के कारण अथवा किन्ही परिस्थितियो में बाह्रा कामो में लगना पड़े तो उसे बड़ा अनुताप होता है, वह खेद मानता है। इस प्रकार यहाँ तक के वर्णन से हमें यह शिक्षा लेना है कि हम केवल घर गृहस्थी विषय धन सम्पदा सुख लौकिक बातें इनके लिए अपना जीवन न माँगें, ये सब नष्ट हो जाने वाली चीजें है दुर्लभ मनुष्य जीवन से जीकर कोई अलौकिक तत्वज्ञान का आनन्द प्राप्त कर लिया जाय तो वह ही परम विवेक है। यहाँ क्या है, धन कम पाया जा ज्यादा पाया, तो उससे क्या हो गया ? आनन्द शान्ति तो ज्ञान के अनुरूप होती है, बाह्रा धन सम्पदा के अनुरूप नही होती है।
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सम्बन्ध का धर्म सम्बन्ध में परिवर्तन भैया ! ज्ञानार्जन का मन में आशय रक्खे। इस ज्ञान की साधना के लिए अपना तन, मन, वचन, धन सर्वस्व न्यौछावर करके भी यदि कुछ ज्ञानप्रकाश पा लिया तो जीवन सफल माने और घर के जिन लोगो से सम्बन्ध है उनको यह समझावो इस सम्बन्ध को वैषयिक विषयो में न ढालकर इस मित्रता को मोक्षमार्ग की पद्वति में बसा लो । मित्रता यह भी कहलायी और मित्रता वहाँ भी कहलायी । इस सम्बंध और मित्रता को मोक्षमार्ग की पद्वति मं बदल दो। ऐसा सम्बंध बन सका तो यह असम्बधं का उत्साह देने वाला सम्बंध रहा। यह सब हमें किस प्रकार मिले सो पूजन करके रोज पढ़ लेते है। 7 चीजे रोज माँगते हो। शास्त्रो का अभ्यास, चले, सर्वज्ञ वीतराग परमात्मा की भक्ति रहे, सदा सज्जन पुरुषो के साथ संगति रहे, गुणी पुरूषो के गुण कहने में समय जाय, दूसरो के दोष कहने के लिए गूँगा बन जाये, और वचन कुछ भी कभी बोलने पड़े तो सबको प्रिय हो और हितकारी हो। निरन्तर यह ज्ञानानन्दस्वरूप आत्मतत्व ही
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हितरूप है ऐसी भावना रक्खे। तो इन कर्तव्यो के प्रसाद से नियम से अलौकिक तत्व और आनन्द प्रकट होगा ।
परः परस्ततो दुःखमात्मैवात्मा ततः सुखं । अत एव महात्मानस्तन्निमितं कृतोद्यमाः । । 45 ||
दुख और सुख का हेतु - परपदार्थ पर ही है, इस कारण उससे दुःख होता है और आत्मा—'आत्मा ही है अर्थात् अपना अपना ही है, इस कारण उससे सुख होता है लोक में भी व्यामोही जन कहते हे कि अपना सो अपना ही है, उसका ही भरोसा है, उसका ही विश्वास है और जो पराया है सो पराया ही है, न उसका भरोसा है, न उससे हित की आशा ही है। आतमहित के पंथ में यह कहा जा रहा है कि आत्मा का जो आत्मीय तत्व है, जो इसके निजी सत्ता की बात है वह तो स्वयं है, उससे तो सुख हो सकता है, और सहज स्वभाव को त्यागकर अपने स्वरूप का विस्मरण करके जो अन्य पर में आपको बसाया जाता है और जो परभाव उत्पन्न होते है? वे पर है, उनसे हित की आशा नही है ।
अपनी स्थिति का विचार भैया ! हम आप सब जीव कब से है, इसका अनुमान तो करो। लोक में जो भी पदाथ्र है उनमें ऐसा कुछ नही है कि वे पहिले कुछ ने थे और बाद मे हो गए हो। ऐसा कुछ भी उदाहरण न मिलेगा जो पहिले कुछ भी न रहा हो और बाद मे हो गया हो। यो ही अपने बारे में विचारो, जिसमें मै मै की अन्तर्ध्वनि होती है, जिसका मै कहा जा रहा है। ऐसा कोई यह पदार्थ चूँकि समझ रहा है, ज्ञान कर रहा है इसलिए ज्ञानमय ही होगा। यह ज्ञानमात्र मै तत्व स्वयं से बना हूँ। मै कब से हूँ? अनादि से हूँ स्वतः सिद्व हूँ, तो उसका अर्थ ही यह निकला कि सदैव से हूँ ऐसे अनादि से हम और आप है, इन दृश्यमान पर्यायो से मै विविक्त हूँ। खुद भी समझ रहे है कि 40-50 वर्ष से यह पर्याय है, पर इसके पहले मैं था या न था- इस पर विचार कीजिए। ऐसा तो नही हो सकता कि इस मनुष्य भव से पहिले मैं शून्य था या अविकारी था, क्योकि शुद्ध होता तो कोई कारण नही है कि यह आज अशुद्व रहता । यदि था शुद्ध अनादि से तो शुद्ध रूप ही तो होऊगाँ, फिर कैसे आज अशुद्ध हो गया?
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आखो देखा निर्णय जैसे हम मनुष्यो को और मनुष्य को छोड़कर अन्य जीवो को देखते है और इस ही प्रकार के अन्य भी अनेक जीव जो आंखो दिखने में नही आए किन्तु परोक्ष से आज भी किसी पर को जान लेते है, ये सब अनादिकाल से ऐसी ही चतुर्गति योनियों में भ्रमण करते आए है, अनन्त भव धारण किए, छोडा, फिर धारण किया। किसी भी भव का समागम आज नही है और यह भी निर्णय हे कि इस भव का समागम भी आपके पास न रहेगा। आँखो दिखी भी बात है। जो भी मरण करेंगे तो आज जो कुछ उनके पास समागम है क्या वह साथ देगा? अथवा यहाँ कुछ सर्वस्व है क्या अपना ? कितना बड़ा अज्ञान अंधकार छाया है कि इन समागमो का यथार्थस्वरूप नही जान सकते है। गृहस्थ
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करनी पड़ती है, ठीक है, पर सच्चा ज्ञान तो ज्ञान साध्य बात है। कुछ भी समागम न मेरे साथ आया है और न आगे जायगा, और जब तक भी यह साथ है तब तक भी मेरे से न्यारा है, पर है, इन सबका मुझ में अत्यन्ताभाव है। ये पर है, जो पर है, पराया है उससे हमारा क्या हित हो सकता है? वह तो दुःख का ही निमित्त बनेगा।
उत्तम समागम का उपयोग - आज हम आपने बहुत अच्छी स्थिति पायी है मनुष्य हुए, श्रावक कुल मिला, जहाँ अहिंसामय धर्म का सदाचार का ही उपदेश है, वातावरण है। जितने भी हम आपके इस शासन में जो भी पर्व आते है, जो भी विधि-विघान होते है वे अहिसापूर्ण और बड़ी पवित्रता को रखते हुए होते है। परम्परा भी कितनी विशुद्ध है? शास्त्र स्वाध्याय की भी शुद्ध परम्परा है। ग्रन्थ भी कितने निर्दोष है, जिनमें रागद्वेष मोह के त्याग को ही उपदेश भरा है, और वह मोह का त्याग एक वस्तुस्वरूप के यथार्थ ज्ञानपर अवलम्बित है, ऐसा स्वरूप का निर्णय भी इस स्याद्वाद शैली में किया हुआ मिलता है। कितनी उत्कृष्ट बातें हम आपको प्राप्त है। इतनी अच्छी स्थिति में आकर भी परपदार्थो के मोह के राग के ही स्वप्न देखा करें तो अपने हृदय से पूछ लो कि मनुष्य बनकर कौनसी ऐसी अलौकिक चीज पायी, जिससे हम यह कह सकें कि हमने मनुष्य जन्म को सफल किया। सफलता तो उसे कहते है जिसके बाद ऊँची स्थिति मिले। मनुष्य होने के बाद कीड़ा मकोड़ा हो गए, वृक्ष पतंगे बन गए तो मनुष्य जन्म पाने की सफलता कैसे कही जा सकती है?
निजहित के बिना परहित कैसा - भैया ! अपने स्वार्थ की सिद्वि प्रत्येक जीव चाहता है। स्वरूप ही ऐसा है कि प्रत्येक पदार्थ अपना ही अर्थ कर सकता है। जिसमें अपने आत्मा का हित हो, जो भविष्य में सदा काम आए, ऐसी कोई बात सिद्ध कर ले उससे ही जीवन में सफलता है। यदि हम परमार्थ पद्धति से अपना प्रयोजन साध लें तो अनेको का उपकार आपके निमित्त से स्वतः बनता रहेगा और जब तक हम अपने आपके सदाचार सम्यग्ज्ञान स्वावलम्बन को तजकर केवल एक बड़प्पन के लिए परके उपकार की हम एक डींग मारें तो समझ लीजिए कि वहाँ पर का उपकार भी असम्भव है और अपना भी उपकार असम्भव है। कोई पुरूष यह माने कि मैं धर्म की प्रभावना करूँ, लोगो की दृष्टि में यह बात बैठ जाय कि इसका धर्म बड़ा पवित्र है। मै उपदेश करूँ उपदेश कराऊँ, और विधिविधान से प्रभावना करूँ, और स्वयं के लिए कुछ नही, वही मोह वही रागद्वेष, वही अंतः अवगुण, वे सब बने रहें, किन्तु दूसरो मे धर्म की प्रभावना हो, ऐसे ही दूसरे तीसरे सोच ले। 100 हो तो 100 भी सोच ले, तो प्रत्येक पुरूष ने 99 को धर्म प्रभावना करने के लिए धर्म बताने के लिए अथक परिश्रम किया, किन्तु वे 100 के 100 ही रंच भी नही बढ़ सके धर्म की और, न प्रभावना हुई । यदि उनमें 5 भी सत्पुरूष ऐसे निकले कि अपना उपकार और सम्यग्ज्ञान में भव बनाएँ तो पांच का तो उपकार हुआ, और उन पांच के अंतरंग की बात दूसरो के
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अंतरंग में पहुचती है ऐसे व्यवहार नीति कहती है। तो वास्तविक मायने में कुछ औरो का भी उपकार सम्भव है।
समागम की विनश्वरता का ध्यान - भेया ! अपन सबको मुख्य दृष्टि यह रखना चाहिए कि मुझे तो अपना भला करना है। ये सब समागम किसी न किसी दिन बिछुड़ेगे। यहाँ मेरा कुछ नही है। अपनी साधना निर्विघ्न बनी रहे, इसके लिए कमजोर अवस्था में गृहस्थी स्वीकार करनी पड़ी है और कर रहे है, गृहस्थ की पदवी में करना चाहिए किन्तु यथार्थ ज्ञान से यदि अपन हट गए तो मनुष्य जन्म की सफलता न समझिए। देहादिक परपदार्थ पर ही है, इनकी प्रीति से, आसक्ति से केवल क्लेश ही है। इस शरीर की सेवा करनी पड़ती है। शरीर स्वस्थ रहे तो हम धार्मिक व्यवहार करने में समर्थ रहेगे और हम अपनी ज्ञानदृष्टि रख सकेगे। ज्ञान हमने अपना शुद्ध रख पाया तो अंतः सयंम बनेगा और उससे आत्महित होगा। ज्ञानी पुरूष समस्त क्रियावो को करके भी उसमें किसी न किसी ढगं से आत्महित का ही प्रयोजन रखता है। हम प्रभु की भक्ति तो करे, पूजन बंदन करे
और चित्त में उनका आदर्श न समझ पाये, अपने अंतरंग से यह ध्वनि न बन सके कि है प्रभो! करने लायक बात तो यही है जो आपने की। मुझे भी यही स्थिति मिले तो संकट छूट सकेगें। यदि ऐसी अन्तर्ध्वनि न निकल सके ता वंदन पूजन मोक्षमार्ग के संदर्भ में क्या लाभ पाया ?
निज स्वरूप की प्रतीति - निर्णय रखिये पक्का कि जो परपदार्थ है वे पर ही है, उनके आकर्षण से, उनकी प्रीति से क्लेश ही होगा। जो भीतर में चित्त रंग गया हे, मोह और लाभ के उस रंग को धोने की बात कही जा रही है। गृहस्थी में रह रहे है, ठीक है, पर परपदार्थ में जो मोह का रंग रँगा हआ है, अंतर मे जो यह श्रद्वा बनी है कि मेरे तो सर्वस्व ये ही सब है, इनसे ही हित है, बड़प्पन है, ये ही मेरी जान है, ऐसा जो मोह का रंग चढ़ा हुआ हे जो कि बिल्कुल व्यर्थ है, उसे मेटिये। कुछ दिन की बात है, छोडकर सब जाना ही पड़ेगा। पर से उपेक्षा करेक आत्मरूचि बढ़ा लो। यह तो अपने हित की बात है किसी दूसरे को सुनना नही है, घर कुटुम्ब के लोगो से कुछ कहने की जरूरत नही है कि तुम सब पर हो, नरक निगोद की खान हो, तुम्हारी प्रीति से दुर्गति ही होगी, ये तो लड़ाई के उपाय है। किसी से कुछ कहने की बात नही कही जा रही है किन्तु अपने चित्त में सही ज्ञान तो जगाओ। बात जो हो उसे मान लो, बड़ा आनन्द होगा, आपका बोझ दूर हो जायगा।
निर्भार के अवलम्बन में भार का हटाव – भैया ! मोह को जो बोझ लदा है, जिससे शान्ति का मार्ग नजर नहीं आता है उस बोझ के हटाने में कुछ कठिनाई मालूम हो रही है क्या? आज एक कुटी में इन अनन्त जीवो में से कोई दो चार जीव आ गए। ये दो चार जीव न आते, कोई और ही आते तो उन्हें भी अपना मानने की आदत थी। जिसे अपना
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माना है कोई हिसाब से नही माना है। जो आया सामने उसे ही अपना माना है। मोह की आदत इसमें पड़ी हे ना, सो जो भी जीव सामने संग में प्रसंग में आ गया उसे ही अपना मान लेते है, ऐसी अटपट बात है यह । जैसे अनन्त जीव भिन्न है, इस ही प्रकार ये जीव भी भिनन है ऐसा यहाँ निर्णय अपने अन्तःकरण में लीजिये । कुछ कहने सुनने से आनन्द नही आता है। भीतर में ज्ञान का और उस प्रकार के श्रद्वानका आनन्द आया करता है।
स्निहाके वियोग में क्लेश की अनिवायेता - भैया ! सभी को सुख प्रिय है, अशान्ति दूर हो, शान्ति उत्पन्न हो, इसके लिए ही सबका प्रयत्न है। वह शान्ति परमार्थ से वास्तव में जिस भीउपाय में मिलती हो उसको मना तो नही करना चाहिए। खूब परख लो, किसी भी विषय साधन के संचय में, किसी भी परपदार्थ के उपयोग में, आसक्ति में, कभी क्या शान्ति मिल सकती है? इस उपयोग ने जिन पदार्थो को विषय किया है वे तो नियमतः विनाशीक है, वे मिटेगे, तो यह उपयोग फिर इसकी कल्पना में निराश्रित होगा ना, तब क्लेश ही तो होगा। इस उपयोग से जिस पर पदार्थ का विषय आता है वह पर स्वंय की अपनी परिणति से परिणमता है, परपदार्थ का परिणमन उसके ही कषाय के अनुरूप होगो। परपदार्थ का उपयोग और प्रेम केवल क्लेश का ही कारण होता है । चलते जाते, फिरते, सफर करते हुए में भी कही एक आघ दिन टिक जाय, कुछ वार्तालाप के प्रसंग में कुछस्नेह भाव बढ़ जाय तो उनेक वियोग के समय भी कुछ विषाद की रेखा खिचं जाती है। यद्यपि जिससे वार्तालाप होता है वह अन्य देश, अन्य नगर, अन्य जाति का है, सर्व प्रकार से अन्य अन्य है, कुछ प्रयोजन नही है, केवल कभी जीवन में मिल गया है। दो एक घटे को रेल मे सफर करते हुए, उससे कुछ वार्तालाप होने को स्नेह जग गया, अब वह अपने निर्दिष्ट स्टेशन पर उतरेगा ही, तो वहाँ पर उस स्नेह करने वाले के एक विषाद की रेखा खिंच जायगी। ऐसा ही यह जगत के जीवो का प्रसंग हे। इस अनन्तकाल में कुछ समय के लिए यहाँ कुछ लोग मिल गए है। जिन पुत्र, मित्र, स्त्री, आदि से स्नेह बढ़ गया है उनका जब विछोह होगा तो इसे क्लेश्ज्ञ होगा। बिछुड़ना तो पड़ेगा ही।
भेद विज्ञान के निर्णय की प्रथम आवश्यकता - एक ही निर्णय है कि अपने आत्मस्वरूप को छोड़कर अन्य किसी भी परपदार्थ में स्नेह किया, ममता की चाहे कुटुम्ब परिजन के लोग हो, चाहे जड़ सम्पदा हो, किसी भी परपदार्थ में ममता जगी तो उसका फल नियम से क्लेश है। हम जिस प्रभु की आराधना करते है वह पुरूष तो केवल है ना। उनके भी घर गृहस्थी परिग्रह का प्रसंग है क्या? वे तो केवल ज्ञानपुंज रह गये है, हम ऐसे ज्ञानपुंज की तो उपासना करें और चित्त में यह माने कि सुख और बड़प्पन तो घर गृहस्थी सम्पदा के कारण होता है। तो हमने क्या माना, क्या पूजन किया, क्या भक्ति की ? चित्त में एक निर्णय रख लीजिए और इस बात के निर्णय में यदि बुद्वि नही आती है तो इसका निर्णय प्रथम कीजिए। भेद - विज्ञान जगे बिना धर्मपालन की पात्रता न आ सकेगी। स्वंय
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के हित का उपाय बना लेना सर्वोत्तम व्यवसाय वे पुरूषार्थ है, उससे आँखे नही मींचना है।
परसे आनन्दप्राप्ति असंभव - ये सब समागम तो एक पुण्य पाप के ठाठ है, भिन्न है, सदा रहने के नही है, इनके समागम के समय भी हित नही है और वियोग के समय क्लेश के निमित्तभूत हो सकते है। इन जड़ के पदार्थों में स्वंय सुख नही है वहाँ से सुख निकलकर मुझमें कहाँ आयगा? जो चेतन भी पदार्थ है, परिजन, मित्रजन उनमें सुख गुण तो है, किन्तु वह सुख गुण उनमें ही परिणमन करने के लिए है या उनका कुछ अंश मुझमें भी आ सकता है? उनमे ही परिणमन करने के लिए उनका सुख गुण है। जब इतना अत्यन्त भेद है फिर उनमें आत्मीयता की कल्पना क्यों की जाय? जो उन्हे अपना मानेगे उनके वियोग में अवश्य दुःखी होगा। गृहस्थ जनों का यह सामान्य कर्तव्य है कि यह निर्णय बनाए रहे, संयोग के काल में भी जो जो कुछ यहाँ मिला है नियम से अलग होगा, ऐसी श्रद्वा होगी तो संयोग के काल में यह जीव हर्षमग्न न होगा। संयोग के काल में हर्षमग्न न हो वह वियोग के काल में भी दुख न मानेगा।
आत्मलाभ का उपाय - भैया ! किसी भी पर से आत्मा को सुख नही, केवल जो आत्मा पदार्थ है, ज्ञायकस्वरूप है वह ही अपना सर्वस्व है। उसे अपनाने से, उसमें ही यह मात्र मैं हूं, ऐसी प्रतीति करने से सुख मिलेगा। बड़े-बड़े महापुरूष तीर्थकरो ने भी यही मार्ग अपनाया था, जिसके फल में आज उनमें अनन्त प्रभुता प्रकट हुई है। हम आप उनके उपासक होकर उस स्वरूप की दृष्टि न करें तो कैसे हित हो? अपना जीवन सफल करना चाहते है तो यही बड़ा तप करने योग्य है कि उस अपने ज्ञायकस्वरूप को आत्मा मानकर, अपना मानकर उसमें ही उपयोग लीन बनाए रहे, इसे चैतन्यप्रतपन कहते है। यही प्रतपन है और इस प्रतपन का प्रताप अनन्त आनन्द को देने वाला है। अपना यही एक निर्णय रखिए कि ये देहादिक समस्त परपदार्थ है, इनकी प्रीति में हित नही है, किन्तु ज्ञायकप्रकाशमात्र अपने आत्मा को 'यह मै हूं' ऐसा अनुभव करें तो इसमें ही हित है।
अविद्वान पुद्गलद्रव्यं योऽभिनन्दनि तस्य तत।
न जातु जन्तोःसामीप्यं चतुर्गतिषु मुञचति।।46|| मोही की मान्यता - जो अविद्वान व्यवहारी पुरूष पुद्गल द्रव्य को, यह मेरा है, यह इनका है- इस प्रकार से अभिनन्दन करते है अर्थात् मानते है उन जंतुओ का इस बहिर्मुखता में भ्रमण नही छूटता और चारों गतियों मे पुद्गल द्रव्य उसके निकट रहते है। लोक में 6 जाति के पदार्थ होते है-जीव, पुद्गल, धर्म अधर्म, आकाश और काल। इनमें जीव तो अनन्तानत है, पुद्गल जीवों से भी अनन्तगुणे है। धर्मद्रव्य एक है, अधर्मद्रव्य एक है, आकाश द्रव्य एक है और कालद्रव्य असंख्यात है, ये सभी स्वंतत्र है, किन्तु मोही जीव स्वतंत्र नही समझ पाता।
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जीव की अनन्तानन्त गणना जीव कैसे अनन्तानन्त है, यह बात अनुभव से भी जान रहे है। आपका अनुभवन, परिणमन केवल आपके आत्मा मे हो रहा है, उसका अनुभव मुझ में नही होता। मेरे आत्मा का जो परिणमन जो अनुभवन हो रहा है वह मुझमें हो रहा है, आप सब किसी में भी नही हो रहा है। यह वस्तुस्वरूप की बात कही जा रही है। ध्यानपूर्वक सुनने से सब सरल हो जाता है। अपनी बात अपनी समझ में न आए, यह कैसे हो सकता है? जब इतना क्षयोपशम पाया है कि हजारो लाखो का हिसाब किताब और अनेक जगहों के प्रबन्ध जब कर लिए जा सकते है इस के द्वारा तो यह ज्ञान अपने आप में बसे हुए स्वरूप को भी न जान सके, यह कैसे हो सकता है, किन्तु व्यामोह को शिथिल करके जगत की असारता सामान्य रूप से निगाह में रखकर कुछ अंतःउपयोग लगायें तो बात समझ में आ जाती है। हाँ जीव अनन्तानन्त कैसे है- इस बात को कहा जा रहा है। हमारा परिणमन, हमारा अनुभवन हम ही में है, आपका आप ही में है। इससे यह सिद्ध है कि हम आप सब एक एक स्वतंत्र जीव है । यदि इस जगत में सर्वत्र एक ही जीव होता तो हमारा विचार हमारा अनुभवन सबमें एक साथ एक समान अथवा वही का वही होता। यों ऐसे ऐसे एक एक करिके समस्त जीव अनन्तानन्त विदित कर लेना चाहिये ।
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एक द्रव्य का परिणमन एक पदार्थ उतना होता है जिसमें प्रत्येक परिणमन उस पूरे में होना ही पड़े। कोई परिणमन यदि पूरे में नही हो रहा है तो समझो कि वह एक चीज नही है। अनन्तानन्त वस्तु है, जैसे कोई कपड़ा एक और से जल रहा है तो वह एक चीज नही जल रही है। उसमें जितने भी तंतु है वे सब एक एक है और उन तंतुओ में जितने खंड हो सकते है वे एक एक द्रव्य है । यह अनेक द्रव्यो का पिडं है इस कारण एक परिणमन उस पूरे में एक साथ नही हो रहा हे। जिसको कल्पना में एक माना है, इस तरह हम आप सब अनन्त जीव है ।
जीव से अनन्तगुणे पुद्गल है। ये कैसे
जीवों से अनन्तगुणे पुद्गलों का निरूपण माना जाय ? यों देखिए - इन संसारी जीवो में एक जीवो में एक जीव को ले लीजिए एक जीव के साथ जो शरीर लगा है उस शरीर में अनन्त परमाणु है और उस शरीर के भी अनन्तगुणे परमाणु इस जीव के साथ लगे हुए तैजस शरीर में है और उससे भी अनन्तगुणे परमाणु जीव के साथ के साथ लगे हुए कार्माण शरीर में है। एक जीव के साथ अनन्त पुद्गल लगे हुए है और जीव है अनन्तांनत तो पुद्गल समझ जाइये कितने है । यद्यपि सिद्ध भगवान स्वतंत्र एक एक है और वे भी अनन्त है, किन्तु सिद्व से अनन्तानन्त गुणे ये संसारी प्राणी है, इसलिए उससे भी हिसाब में बाधा नही आती है। अब आपके ये अणु-अणु एक-एक है, हम आप सभी जीव एक एक अलग अलग है । तो यह निर्णय कर लो कि मेरा करना जो कुछ हो सकता है वह मुझमें ही हो सकता है, मै किसी दूसरे में कुछ करने में समर्थ नही हूं। केवल कल्पना करके मैं अपने को विकल्पग्रस्त बनाये रहता हूं
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किसी दूसरे का कुछ करता नही हूँ। सुख दुःख जीवन मरण सब कुछ इस जीवके अकेले ही अकेले चलते है। कोई किसी का शरण अथवा साथी नही है। जब वस्तु में इतनी सवतंत्रता पड़ी हुई है फिर भी कोई व्यामोही पुरूष माने कि शरीर मेरा है, यह मेरा है, इस प्रकार का भिन्न द्रव्य स्वामित्व माने तो उसके साथ यह शरीर सदा लगा रहेगा अर्थात् वह संसार में भ्रमण करता रहेगा। जीव के प्रतिबोध के लिए प्रत्येक मिथ्या वासनाए हट जानी चाहिये।
क्लेशमूल तीन अवगुण - एक तो परपदार्थ में अपना स्वामित्व मानना और दूसरे परपदार्थो का अपको कर्ता समझना, अपने आपको परपदार्थो को भोगने वाला समझना। देखिये ये तीनो ऐब संसारी प्राणी में भरे पड़े हुए है। इन तीनो में से एक भी कम हो तो वे तीनो ही कम हो जायेगे। मोह में परजीवो के प्रति कितना तीव्र स्वामित्व का भाव लगा है, ये ही मेरे है। जो कुछ कमाना है, जो कुछ श्रम करना है केवल इनके खातिर करना है। बाकी जगत के अन्य जीवों के प्रति कुछ भी सोच विचार नही है। कर्तृत्व बु, भी ऐसी लगी है कि इन बच्चो को मैने ही पाला, मैने ही अमुक काम किया, ऐसी कर्तृत्वबुद्वि भी लगी है, पर परमार्थतः कोई जीव दूसरे पदार्थ का कुछ कर सकने वाला नही है। यह मिथ्या भ्रम है कि कोई अन्य किसी का कुछ कर सके, अथवा किसी की गल्ती से किसी दूसरे को नुकसान सहना पड़ता है। जो भी जीव दुःखी होते है वे अपनी कल्पना से दुःखी होते है, किसी को दुःखी करने की सामर्थ्य किसी में भी नही है।
कर्तृत्व के भ्रम पर एक दृष्टान्त – एक सेठ था, उसके चार लड़के थे। बड़ा लड़का कमाऊ था, उससे छोटा जुवारी था, उससे छोटा अंधा और सबसे छोटा पुजारी था। बड़े लड़के की स्त्री रोज-रोज हैरान करे कि देखो तुम सारी कमाई करते हो, दुकान चलाते हो और ये सब खाते है। तुम न्यारे हो जावो तो जितना कमाते हो सब अपने घर में रहेगा। बहुत दिनों तक कहासुनी चलती रही। एक बार सेट से बोला बड़ा लड़का कि पिताजी अब हम न्यारे होना चाहते है। तो सेठ बोला कि कुछ हर्ज नही बेटा, न्यारे हो जाना, पर एक बार सब लोग मिलकर तीर्थयात्रा कर लो। न्यारे हो जाने पर न जाने किसका कैसा भाग्य है? सो चल सब यात्रा के लिए। रास्ते में एक नगर बगीचे मे अपना डेरा डाल दिया और चार पांच दिन के लिए बस गए। पहिले दिन सेठ ने बड़े लड़के को 10 रू देकर कहा कि जावो सबके खाने के लिए सामान लिए सामान ले आवो वह सोचता है कि 10 रू में हम तीस, बत्तीस आदमियों के खाने को क्या लाँ, सो उसने किसी बाजार से कोई चीज खरीदी और पास के बाजार में जाकर बेच दी तो 1 ) मुनाफा मिला। अब 11) का सामान लेकर वह आया और सबको भोजन कराया। दूसरे दिन दूसरे, जुवारी लड़के को 10) देकर भेजा, कहा बाजार से 10) की भोजन सामग्री ले आवो। वह चला 10) लेकर। सोचता है कि इतने का क्या लाएँ? तीस बत्तीस आदमियों के खाने के लिए, सो वह जुवारियों के पास पहुंचा
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और एक दाव में 10 ) लगा दिए, समय की बात कि वह जीत गया, अब 20 ) की भोजन सामग्री लेकर सबको खिलाया। तीसरे दिन अंधा लड़का 10 ) लेकर भोजन सामग्री लेने के लिए चला। उसे रास्ते में एक पत्थर में ठोकर लग गयी। सो सोचा कि इसे निकाल फेके, नही तो किसी दूसरे के लग जायगा । सो निकालने लगा। वह पत्थर काफी गहरा गड़ा था सो उसके खोदने में विलंब लग गया। जब वह पत्थर खोद डालना तो उसमें एक अशर्फिया का हंडा मिला। उन अशर्फियो से उसने भोजन सामग्री खरीदी और सब अशर्फियो को लेकर घर पहुंचा।
चौथे दिन उस सेठ ने अपने लड़के पुजारी को 10) देकर भोजन सामग्री लाने के लिए भेजा। उसे नगर में मिला एक मन्दिर । उसेन क्या किया कि एक चाँदी का कटोरा खरीदा, घी खरीदा और रूई की बाती बनाई। आरती धरकर मंदिर में भजन करने लगा । भजन करते-करते जब शाम के चार बज गय तो मंदिर का अधिष्ठाता देव सोचता है कि इसके घर में भूखे पड़े है, इसमें तो धर्म की अप्रभावना होगी, सो उस लड़के का रूप बनाकर बहुत-सी भोजन सामग्री गाड़ियों में लादकर सेठ के यहाँ ले गया । सबने खूब भोजन किया और सारे नगर के लोगो को खिलाया। अब रात के 7-8 बजे वह लड़का सोचता है कि अब घर चलना चाहिए । पहुंचा घर रोनी सी सूरत लेकर कहा पिता जी मैने 10) की सामग्री लेकर मंदिर में चढ़ा दिया। पिताजी हमसे अपराध हुआ, आज तो सब लोग भूखे रह गए होगें। तो पिता जी बोले- बेटा यह तुम क्या कह रहे हो? तुम तो इतना सामान लाए कि सारे नगर के लोगो को खिलाया और खुद खाया । तो पुजारी ने अपना सारा वृतान्त सुनाया। मै तो मंदिर में आरती कर रहा था। तो फिर मैने सोचा कि इस कटोरे को भी कौन ले जाय सो उसे भी छोड़कर चला आया । चार-पांच दिन व्यतीत होने पर एकांत स्थान में बड़े लड़के को बुलाकर सेठ पूछता है- कहो भाई यह तो बताओ कि तुम्हारी तकदीर कितनी है? तो वह बोला कि मेरी तकदीर एक रूपये की है, और जुवारी की तकदीर है उससे दस गुना और अंधे की तकदीर हजार गुना और पुजारी के गुनो का तो कोई हिसाब ही नही है। जिसकी देवता तक भी मदद करें उसकी तकदीर का क्या गुना निकाला जा सकता है? जब उस बड़े लड़के की समझ में आया, और बोला- पिता जी मै व्यर्थ ही कर्तृत्व बुद्वि का अंहकार कर रहा था। मैं नही समझता था कि सब का भाग्य अपने-अपने साथ है। अब मैं अलग न होऊगाँ ।
परकी अपनायत में बिडम्बना -- यह जीव भ्रमवश कर्तृत्व बुद्धि का अंहकार करता है । इस जीव का तो अकर्त्ता स्वरूप है, केवल ज्ञाताद्रष्टा ज्ञानानन्दका पुञच चित्स्वभाव मात्र अपने आप विश्वास बनावो । भ्रमवश यह जिस भव में गया उस ही पर्यायरूप यह अपने को मान रहा है। पशुहुआ तो पशु माना, पक्षी हुआ तो पक्षी माना। जैसे कि आजकल हम आप मनुष्य है तो ऐसी श्रद्वा बैठाए है कि हम मनुष्य है, इंसान है। बहुत बड़ी उदारता दिखाई
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तो जाति का भेद मिटा दो, कुलका भेद मिटावो, एक मनुष्य-मनुष्य मान लो सबको। इतना तक ही विचार पहुंचता है अथवा इतनी भी उदारता का भाव चित्त में नही आता। अरे इससे अधिक उदारता यह है कि यह मान लो कि हम मनुष्य ही नही है। मैं तो एक चैतन्य तत्व हूं। आज मनुष्य देह में फस गया हूँ,कभी किसी देह में था। मै कहाँ मनुष्य हूं, मनुष्य भव से गुजर रहा हूं। अपने आपको विशुद्व ज्ञानानन्दस्वरूप इस जीव ने नही माना। इसके फल में परिणाम यह निकला कि इस जीव के साथ सारी विडम्बनाएँ साथ-साथ चल रही है, जन्म मरण की संतति बनती चली जा रही है।
ज्ञानामृत – भेदविज्ञान ही एक अमृत है। उस अमृत को कैसे पकड़ोगे, अमृत कोई पानी जैसा नही होता अमृत कोई फल जैसा नही होता। अमृत क्या चीज है जिसका पान करने से यह आत्मा अमर हो जाता है? जरा बुद्वि में तो लावो। अमृत का अर्थ क्या है? अ मायने नही, मृत मायने मरे, जो मरे नही सो अमृत है। जो स्वंय कभी मरे नही अर्थात् नष्ट न हो उसे अमृत कहते है। जो कभी नष्ट न हो ऐसी वस्तु मेरे लिए है ज्ञान। ज्ञानस्वभाव कभी नष्ट नही होता। इस अविनाशी ज्ञानस्वभाव को जो लक्ष्य में लेता है अर्थात् इस ज्ञानामृत का पान करता है वह आत्मा अमर हो जाता है। अमर तो है ही यह, पर कल्पना में जो यह आया कि मै मनुष्य हूँ, अब तक जीवित हूँ, अब मर रहा हूं, ऐसी जो बुद्वि आयी उसके कारण संसार में रूलना पड़ रहा है। मोह का माहात्म्य तो देखा - यह जीव विषय-विषरस को तो दौड़ दौड़कर भटक भटककर पीता है और दस ज्ञानामृत का इसने निरादर कर दिया है, उसकी और तो यह देखता भी नही है। जो जो जन्तु पुदगलद्रव्य को अपना मानते है उनके साथ ये पुदगल के सम्बन्ध की विडम्बनाएं चारो गतियों में साथ नही छोड़ती है।
पुद्गलो का मुझमें अत्यन्ताभाव - इन पुद्गलो का मुझ में अत्यन्ताभाव है। मेरा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव किसी भी अणु में नही पहुंच सकता है । किसी अणु का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव मुझ में नहीं आ सकता है। जैसे घर में बसने वाले 10 पुरूषो में परस्पर में एक दूसरे से मन न मिलता हो तो लोग कहते है कि एक घर में रहते हुए भी वे बिल्कुल न्यारे-न्यारे रहते है। वहाँ तो फिर भी क्षेत्र जुदा है, किन्तु यहाँ शरीर है वहाँ ही जीव है, एक क्षेत्रावगाह सम्बंध है, फिर भी जीव का काई अंश इस शरीर में नही जाता, शरीर का कोई अंश इस जीव में नहीं आता। एक क्षेत्रावगाही होकर भी शरीर-शरीर में परणिम रहा है और जीव-जीव में परिणम रहा है। यों सर्वथा भिन्न है ये बाहा समागम, ये आत्मा के न कभी हुए और न कभी कभी हो सकते है, किन्तु मिथ्या आशय जब पड़ा हुआ है, अपने आपके सुख स्वरूप का परिचय नही पाया है तो भेदविज्ञान का विवेक नही हो पाता है। इस जगत में रहकर मौज मानने का काम नही हे। कितनी विडम्बना हम आपके साथ लगी है उस पर दृष्टिपात करे उन विपत्तियों से छूटने का यथार्थ उपाय बनाये।
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माया की वाञछा अनर्थ का मूल इस मायामय जगत में मायामय लोगो को निरखकर मायामय यश की मायामय चाह करना यह अनर्थ का मूल है। एक आनन्दधा अपने आपके परमार्थ ब्रह्रास्वरूप का दर्शन करे, आनन्द वही से निकलकर आ रहा है, विषय सुख भी जब भोगा जाता है वहाँ भी आनन्द विषयो से नही आ रहा है किन्तु आनन्द का धाम यह स्वंय आत्मा है और उस विकृत अवस्था में भी इस ही से सुख के रूप में यह आनन्द प्रकट हो रहा है। जो बात जहाँ नही है । वहाँ से कैसे प्रकट हो सकती है? जैसे यह कहना मिथ्या है कि मैं तुम पर प्रेम करता हूं, अरे मुझ में प्रेम पर्याय उत्पन्न होती है वह मेरे मे ही होती है, मेरे से बाहर किसी दूसरे जीव पर वह प्रेमपर्याय नही उतर सकती है। जैसे यह कहना मिथ्या है ऐसे ही यह कहना भी मिथ्या है कि मैने भोग भोगा, मैंने अमुक पदार्थ का सेवन किया। यह मैं न किसी पर को कर सकता हूँ और न कोई भोग भोग सकता हूँ, किन्तु केवल अपने आप में अपने ज्ञानादिक गुणों का परिणमन ही कर सकता हूँ। चाहे मिथ्याविपरीत परिणमन करूँ और चाहे स्वभाव के अनुरूप परिणमन करूँ, पर मै अपने आपको करने और भोगने के सिवाय और कुछ नही करता हूं और न भोगता हूं। यह वस्तु की स्वंतत्रता जब ज्ञान में उतर जाती है तो मोह दूर हो जाता है।
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मोहविनाश का उपाय भेदविज्ञान – भैया ! प्रभु की भक्ति से प्रभु से भिक्षा मांगने से या अन्य प्रकार के तप करने से मोह नही गलता । मोह लगने का मूल मंत्र तो भेदविज्ञान है। ये भक्ति, तप, व्रत संयम कहाँ तक काम देत है, इसको भी सुनिये। यह जीव अनादि से विषय वासना में जुटा हुआ है। इसका उपयोग विषयवासना में न रहे और उसमें इतनी पात्रता आए कि यह ज्ञानस्वरूप का दर्शन कर सकेगा, उसके लिए पूजन, भक्ति, तप, संयम, व्रत ये सब व्यवहार धर्म है, पर मोह के विनाश की समस्या तो केवल भेदविज्ञान से ही सुलझती है, क्योकि किसी पदार्थ में कर्तृत्व और भोक्तृत्व की बुद्वि मानने से ही तो अज्ञानरूप यह मोह हुआ । परपदार्थ की भिन्नता न जान सके और उसे एक दूसरे का स्वामी मान ले, इसी मानने का ही तो नाम मोह है । जैसे कोई पुरूष अपने परिजनो में मोह करता है तो उसका अर्थ ही यह हे कि इन परिजनो को आपा माना है, आत्मा समझा है। यह आत्मीयता का जो भ्रम है इसके मिट जाने का ही नाम मोह का विनाश है। यह ज्ञान से ही मिटेगा । भगवान की पूजा करते हुए में भी हम अपने ज्ञान पर बल दे तो मोह मिटेगा, पर अन्य उपायो से यह मोह नही मिट सकता है ।
सद्विवेक जब विवेक बनेगा तभी तो यह समझेगा कि यह हेय है और यह उपादेय है। जब तक विवेक नही जगता, तब तक मोह रागद्वेष की संतति चलती ही रहती है और उससे नरक, तिर्यञच, मनुष्य, देव इन चारों गतियों में जन्म मरण करना ही पड़ता हे। वैसे कहाँ दुःख है, शारीरिक मानसिक कहाँ क्लेश है? इससे तो थोड़े ही खोटे मनुष्य, पशु, पक्षी, कीड़ा, मकोड़ा इनको देखकर जाना जा सकता है कि संसार में कैसे क्लेश होते है, इन
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सब क्लेशो को सहता हुआ भी यह मोही जीव परद्रव्यों के मोह को नही त्यागना चाहता और उनसे विरक्त होकर अपने आप में वह नहीं आना चाहता है, यह दशा इस व्यामोही जीव की हो रही है कर्तव्य यह है विरक्त होकर अपने आप में वह नही आना चाहता है, यह दशा इस व्यामोही जीव की हो रही है। कर्तव्य यह है कि वस्तुस्वरूप का यथार्थ बोध करें और इस मोहपरिणाम को मिटा दे, जिससे इस ही समय क्लेशो को बोझ हट जाये, यही एक उपाय है इस मनुष्ययजन्म को सफल करने का कि हम सच्चा बोध पायें और संकटो से छूटने का मार्ग प्राप्त करे ।
आत्मानुष्ठानिष्ठस्य व्यवहारबहि-स्थितेः ।
जायते परमानन्दः कश्चिद्योगेन योगिन । । 47 ||
इष्ट का उपदेश इस ग्रन्थ का नाम इष्टोपदेश है। जो इष्ट है उसका इसमें उपदेश किया है। कोई रोग में अनिष्ट चीज को इष्ट मान ले तो वह तो वास्तव में इष्ट नही है, ऐसे ही मोह रागद्वेष के रोगी विषय कषायों के ज्वर में पीड़ित ये प्राणी किसी भी वस्तु को इष्ट मान लें तो वे वास्तव में इष्ट तो न हो जायेंगे। जो जीव वास्तव में भला करें उसे इष्ट कहते है। इष्ट को इसमें उपदेश किया गया है।
आत्मनिर्णय – हम आप सब आत्मा है अर्थात् जानन देखनहार एक तत्व है। हमें जो कुछ निर्णय करना है वह आत्मतत्व के नाते निर्णय करना है। हम अपने को किसी जाति का, किसी कुलका न समझें यह तो दूर की बात है, हम अपने को मनुष्य भी न समझें किन्तु एक मनुष्य देह में आज बंध गया हूं, मनुष्य देह में बँधने वाला यह पदार्थ एक जाननहार चैतन्यस्वरूप ह । उस आत्मा के नाते निर्णय करें हितका । जहाँ अपने स्वरूप का नाता जोड़ा, फिर बाहर में ये मायामय स्कंध नजर आते। जब खुद में लगने का खुद विषय नही रहा तो बाह्रा पदार्थो में यह लगता है और उन्हें अपनाता है।
कल्याणकामुक की धर्मविषयक एक मुसीबत कभी इस मोही जीव को कुछ धर्मबुद्वि जगे, कुछ कल्याण के करने की कामना की हिलोर आए, भावना जगे तो उसके मुसीबत इसके प्रसंग में एक बहुत कठिन आती है। वह मुसीबत है नाना पंथों की उलझन में पड़ जाना। यह मुसीबत आ रही है नाना रूप कल्पनाएँ करने के कारण। मै अमुक हूं, मेरा धर्म यह है, मेरा देव यह है, मेरी गोष्ठी वातावरण यह है, इस प्रकार का बाह्रा में एक आत्मा का बोध होता है और उस आशय से यह कल्याण से वंचित होता है । यद्यपि यह बात ठीक है कि जो भी पुरूष अपना कल्याण कर सके है वे पुरूष जिस गोष्ठी में रहे हुए होते है, जिस जाति कुल अथवा प्रवृत्ति रूप धर्म को धारण करके मुक्त होते है वह व्यवहार धर्म पालन करने के योग्य है । ठीक है किन्तु दृष्टि में मुख्यता व्यवहार धर्म की जिसके रहे उसको मार्ग नही मिलता है। ये समस्त आचरण एक अवलम्बन मात्र है, करना क्या है, वह अपने अंतरंग में अपने आप सहज अनुभव की जाने वाली चीज है ।
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पर से दुःख और निज से सुख - अभी कुछ पूर्व में यह बताया गया था कि परपदार्थ तो पर ही है, उनसे दुःख होता है और अपना आप आप ही है उससे सुख होता है, क्योकि जो परपदार्थ है वे सदा मेरे निकट नही रह सकते है। जो परपदार्थ है वे अपनी ही परिणमनशीलता के कारण अपनी योग्तानुसार परिणमेंगे, मेरी कल्पना से नही। ये दो मुख्य प्रतिकूलताएँ आती है इस कारण किसी पर से स्नेह करने मे सुख नही रहता ? लोक में भी कहते है कि अपना है सो अपना ही है, अर्थात जो खुद का घर है उसे कौन छुटा लेगा। उसमें रहना भला है। जो खुद के परिजन है वे कहाँ भाग जायेगें, उनका विश्वास किया जा सकता है, किन्तु जो गैर है, जो पराधीन मकान है, दूसरे का है, उस पर स्नेह करना भला नही है। जरा और अपने हितमार्ग में अंतः टटोलकर निरखो। जो पर है, याने परिजन, धन सम्पदा आदि पर है, अपने आत्मतत्व को छोड़कर जितने भी अनात्मपदार्थ है वे सब पर है, ये भिन्न है, इनका वियोग होगा, ये मेरी इच्छा के अनुकूल परिणमते है, इस कारण उनके स्नेह में सदा क्लेश रहता है और अपने आपका आत्मतत्व अर्थात् ज्ञानस्वरूप जिस ज्ञान को हम जान रहे है उस ही ज्ञान का स्वरूप वह मुझ में कहाँ अलग होगा, वह अन्य भी नही है, माया रूप भी नही है, वह शाश्वत शक्ति है, परमार्थ है, मुझसे तन्मय है, उसका आश्रय लेने से नियम से आनन्द होगा क्योकि यह मैं स्वयं आनन्दमय हूं और शाश्वत हूं।
आत्मपरिचय के मार्ग में - मैं मेरे को ही पहिचानें तो उससे आनन्द मिलता है। इस कारण जो महात्मा जन होते है अर्थात् विवेकी ज्ञानी पुरूष होते है वे आत्मलाभ के लिए ही उद्यम किया करते है। इस आत्मलाभ में कौन सा अभिष्ट चमत्कार होता है? उसका वर्णन इस श्लोक में किया जा रहा है। आत्मा में किस उपाय से भोग किया जायगा, किस तरह अनुष्ठान बनेगा, कैसे अध्यात्मवृत्ति बनेगी, उसके लिए प्रथम उपाय यह जीव करता है प्रवृत्ति और निवृत्ति रूप व्यवहार का। कोई पुरूष जन्मते ही शुद्ध निश्चय अध्यात्म का परिज्ञान और प्रयोग करता हुआ नही आया। यह बात बने तब बने, किन्तु उससे पहिले क्या स्थितियां गुजरी, कितना व्यवहार किया, सत्संग, देवदर्शन, सदाचार, अध्ययन और कुछ मनन ध्यान का उद्योग आदि ये बहुत-बहुत प्रकार प्रवृत्तियां चलती रही। किसी दिन किसी क्षण जो कि एक नया दिन है समझना, आत्मा के लिए मिला। अपने सहज चित्स्वरूप की दृष्टि जगे तो आत्मा का परिचय मिले। लेकिन प्रथम तो प्रवृत्ति और निवृत्ति का व्यवहार ही चला करता है। अब जब आनन्दमय निज अंतस्तत्व का आश्रय हो तब उसके व्यवहार की स्थिति नही रही अब वह न कही प्रवृत्ति करता है और न कही निवृत्ति करता है। लोग अध्यात्म योग के अर्थ की गई विभिन्न परिस्थितियों में साधनाओ के मर्म को न जानकर कितने ही संदेह करने लगते है और कुछ नही करना चाहते। न पूजन, न ध्यान, न सत्संग। वे यह कहने की उलायत मचातें है कि ये पूजनादिक सब तो व्यवहार बताये गये
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है, इनसे भी अलग होकर धर्म मिलता है। ठीक है यह, किन्तु समर्थ स्थिति में ही प्रवृत्ति निवृत्ति का व्यवहार छूटता है। अपने भीतर के तत्व को न जान पाये और बहारों प्रवृतियो के ही कोई मार्ग निरखे तो उससे केवल धोखा ही होगा।
विवेक की दशा - भैया! किसी ज्ञानी की बाहरी वृत्ति को निरखकर ज्ञानमर्म से अनभिज्ञ पुरूष बाहृ प्रवृत्ति को करके कही संतोष का मार्ग न पा लेगा। मुक्ति का मार्ग, शान्ति का मार्ग नो अंतरंग ज्ञानप्रकाश में है। और उसको थोड़े ही शब्दो में कहना चाहें तो यह कहलें कि समस्त परसे न्यारा केवल ज्ञानमात्र यह मैं आत्मतत्व हूं| जो ज्ञान और आनन्द रससे परिपूर्ण है ऐसा ज्ञान करें, श्रद्वान करें और ऐसा ही अपना संकल्प बना ले कि मुझे अब इस आनन्दघाम से हटकर कही बाहर में नही लगना है। कदाचित् लगना भी पड़े तो उसकी स्थिति सेठ के मुनीम जैसी बने। जैसे मुनीम सारे कामों मे लग रहा है। रोकड़ सम्हाले, बैंक का हिसाब रक्खे, और कोई ग्राहक आये उसे हिसाब बताना पड़े तो यह भी कह देता है कि मेरा तुम पर इतना गया, तुम्हारा हम पर इतना आया, इतने सब व्यवहार करके भी मुनीम की श्रद्वा में दोष नही है। वह जान रहा है कि मेरा यह वर्तमान परिस्थिति में करने का काम है। कर रहे है किन्तु मेरा कुछ नही है। तो कुछ करना भी पड़े और अपनी ही और झुकाव रहे तो अपनी रक्षा है। कोई किसी भी रक्षा न कर सकेगा।
मोह, राग द्वेष में अकल्याण - भैया ! किसी में मोह रागद्वेष करने का परिणाम भला नही है। किसमें मोह करते हो? कौन तुम्हारा कुछ सुधार कर देगा? यदि कोई शाश्वत आनन्द पहुंचा दे तो मोह करो, किन्तु कौन ऐसा कर सकता है? आनन्दमय करने की बात तो दूर रहो, यह दृश्यमान समागम तो केवल क्लेश का ही कारण है। यह परिजनों का जो समागम हुआ है वह प्रकट भिन्न और असार है, किसमें राग करना? कोई पुरूष मेरा विरोधी नही है ऐसा निर्णय करके यह भी भावना बनाओ कि मुझे किसी में द्वेष भी नही करना है। जो भी पुरूष जो भी चेष्टा करता है उसके भी दिल है, उसमें भी अपने प्रयोजन की चाह है, उसके भी कषायो की वेदना है, वह अपने कषाय की वेदना को शान्त करने का उद्यम कर रहा है, वह अपने अभीष्ट स्वार्थ को सिद्ध करने का उद्योग कर रहा है। इसके लगा हो अपना स्वार्थ और वहाँ जंचे बाधा, तो इसने कल्पना करली कि उसने मुझे कष्ट दिया, इसने नुकसान पहुंचाया। उस बेचारे ने अपने आप में अपना काम करने के अतिरिक्त कुछ भी तो नही किया, किसे द्वेषी माना जाय? इस जगत में कोई मेरा विराधी नही है, इस दृष्टि से जरा निहार तो लो। किसी को विरोधी मान- मानकर कोई काम बना पाता हो तो बतलावों। अरे विरोध को मिटाना है तो उसका मिटाना अत्यन्त सुगम है। विरोधी न मानकर उसे सद्व्यवहारी मान लो, विरोध एकदम खत्म हो जायगा, अर्थात् जब विराध भाव नही रहा तो जिसका विराधी नाम रखा था वह मित्र बन जायगा।
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वस्तुस्वरूप का दृढ़तम दुर्ग- यह वस्तुस्वरूप का दुर्ग बड़ा मजबूत है। किसी वस्तु में किसी अन्य वस्तु का न द्रव्य, न स्वभाव, न गुण, न पर्याय कुछ प्रवेश नही करता है। बड़े-बड़े रासायनिक, वैज्ञानिक प्रयोग भी कर लें तो वहाँ भी आप मूल बात पायेगें की जो मूल सत् है वह पदार्थ न किसी दूसरे रूप होता है और न उसका कभी अभाव होता है। यह बात अवश्य चलती है कि किसी पदार्थ के संयोग का निमित्त पाकर दूसरे पदार्थ भी दूसरे के अनुरूप परिणमतें है । इस ही को व्यवहार में लोक कहतें है। देखो यह भी बन गया। जो यह है वह यह ही रहेगा। जो वह है वह वह ही रहेगा। केवल निमित्तनैमित्तिक प्रसंग में निमित्त के सद्भाव के अनुरूप पर्याय बन जाती है। जगत में जितने भी सत् है उनमें से न कोई एक कम हो सकता है और न कोई असत् सत् बन सकता है, केवल एक पर्याय ही बदलती रहती है। जितने भी पदार्थ है वे सब परिवर्तनशील होते है, पर मूल सत्व को कोई पदार्थ नही छोड़ता है। यह मै आत्मा स्वंय सत् हूं और किसी भी पररूप नही हू ।
योगी का ज्ञान, समाधिबल व आनन्दविकास
ये सकल पदार्थ अपना सत्व तभी रख सकते है जब त्रिकाल भी कोई किसी दूसरे रूप न परिणमन जाये। ये दो अंगुली है एक छोटी और एक बड़ी । ये अपना सत्व तभी रख सकती है जब एक किसी दूसरे रूप न परिणम जाये। अंगुली का दृष्टान्त बिल्कुल मोटा है क्योकि यह परमार्थ पदार्थ नही है । यह भी मायारूप है, किन्तु जो परमार्थ सत् है वह कभी किसी दूसरे रूप हो ही नही सकता है। जब ऐसा समस्त पदार्थो का स्वरूप है तब मै किसके लिए मोह करूं, किसके लिए राग और द्वेष करूँ? परोपयोग के व्यर्थ अनर्थ श्रम से विश्राम लेकर जो अपने आत्मा में ठहरता है, सहज विश्राम लेता है ऐसे योगी पुरुष इस समाधिबल से कोई विचित्र अलौकिक अनुपम आनन्द प्रकट होता है।
विषयविपदा भैया ! ये विषयो के सुख कोई आनन्द है क्या? इनमें तो दुःख ही भरा हुआ है। जितने काल कोई भोजन कर रहा है उतने काल भी वह शान्त नही है। सूक्ष्म दृष्टि से देखो - इन विषयो के सुख में जो भी कल्पना उठती है वह शान्ति की प्रेरणा को पाकर नही उठती है, किन्तु अशान्ति की प्रेरणा को पाकर उठती है, कोई भी विषयभोग, किसी भी इन्द्रिय का साधन न पहिले शान्ति करता है, न भोगते समय शान्ति देता है और न भोगने पर शान्ति देता है। जिन भोगो के पूर्व वर्तमान और भविष्य अवस्थ क्लेशरूप है उन ही भोगो के लिए अज्ञानी पर शान्ति देता है। जिन भोगो के पूर्व वर्तमान और भविष्य अवस्थ क्लेशरूप है उन ही भोगो के लिए अज्ञानी पुरूष अपना सब कुछ न्योछावर किये जा रहे है आनंद यहाँ कही न मिलेगा । अरे एक दिन ये सब कुछ छोड़कर चले जाना है। जिस समय है उस समय भी ये तेरे कुछ नही है। तू सबसे विविक्त प्रत्यक्ष ज्योतिस्वरूप् अपने अंतस्तत्व का अनुभव करे। यही धर्म पालन है ।
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अध्यात्मयोग - जो पुरूष प्रवृत्ति और निवृत्ति रूप व्यवहार से मुक्त होकर आत्मा के अनुष्ठान में निष्ठ होते है अर्थात् अध्यात्म में अपने उपयोग को जोड़ते है उनके उससे अलौकिक आनन्द होता है। योगी का अर्थ है जोड़ने वाला। यहाँ हिसाब में भी तो योग शब्द बोलते है। कितना योग हुआ अर्थात् दो को मिलाकर एक रस कर दे इसी के मायने तो योग है। चार और चार मिलाकर कितना योग हुआ? आठ। अब इस आठ में पृथक-पृथक चार नही रहे। वह सब एक रस बनकर एक अष्टक बन गया है। इस प्रकार ज्ञान करने वाला यह उपयोग और जिसका ज्ञान किया जा रहा है ऐसे उपयोग की ही आधारभूत शाश्वत शक्ति इस शक्ति में इस व्यक्ति का योग कर दो। अर्थात् न तो व्यक्ति को अलग बता सकें और न शक्ति को अलग बता सकें, किन्तु एक रस बन जाय इस ही को कहते है अध्यात्मयोग।
निज में ही निज के योग की संभवता - भैया! गलत योग नही कर लेना, परपदार्थ में अपने उपयोग को जोड़कर एकमेक करने का गलत हिसाब नही लगाना है। गलत हिसाब लग भी नही सकता है। किसी भी परपदार्थ में अपने उपयोग को जोड़े तो कितना ही कुछ कर डाले, जुड़ ही नही सकता। भले ही कल्पना से मान लो गलत हिसाब को कि मैंने सही किया, पर वहाँ जुड़ ही नही सकता। पर के प्रदेश भिन्न है, पर में है, अपने प्रदेश भिन्न है, अपने में है। इस शक्ति का और इस उपयोग का योग जुड़ सकता है, क्योकि यह भी एक चैतन्मय है और यह अंतस्तत्व भी चैतन्यस्वरूप है। जैसे समुद्र और समुद्र की लहर का समुद्र मे योग हो सकता ह क्योकि लहर भी समुद्ररूप है और समुद्र तो समुद्र ही है, इस ही प्रकार इस उपयोग का इस परमब्रहा में योग हो सकता है, ऐसा योग जिनके होता है। उन योगी पुरूषों के कोई अलौकिक आनन्द उत्पन्न होता है।
आत्मकर्तत्व – जब तक दृश्यमान बाहापदार्थ मे किञिचत् मात्र भी ममता रहती है तब तक स्वरूप में लीनता नही हो सकती है, किन्तु जब अध्यात्मयोगी की किसी भी बाहा तत्व में कोई ममता नही रहती तो वह स्वरूप में लीन होता है। यही स्वरूपलीनता परम तत्व की प्राप्ति का कारण है। यह चीज होगी रागद्वेष के अभाव से। रागद्वेष मिटेंगे वस्तुतस्वरूप के यर्थाथ ज्ञान से। इस कारण वस्तुस्वरूप के यथार्थज्ञान का अभ्यास करना चाहिए। जो अनुभव में उतरे, जो यर्थार्थ ज्ञान है उस ज्ञान का अर्जन करे। वह गुरू कृपा बिना नही हो सकता। यदि साक्षात् गुरू न मिले कभी तो ये ग्रन्थ भी गुरू ही है? क्योकि वे जो बोलतो थे वह सब यहाँ अक्षरो रूप में है। इस प्रकार स्वाध्याय और सत्संग करके अपने ज्ञानार्जन का उद्यम करे, यह ही अपने कल्याण का उपाय है।
आनन्दो निर्दहत्युद्व कर्मन्धनमनारतम। न चासौ खिद्यतें योगी बहिर्दःखेष्वचेतन।।48।।
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आत्मोत्थ शुद्ध आनन्द का परिणाम - पूर्व श्लोको में यह कहा गया था कि जो योगी न तो प्रवत्ति रूप व्यवहार कर रहा है और न निवृत्ति रूप भी व्यवहार कर रहा है इन दोनो व्यवहार से ऊपर स्वरक्षित होकर जब आत्मा के उपयोग में उपयुक्त होता है उस समय इस अपूर्व योग के प्रसाद से उस योगी के अपूर्व आनन्द प्रकट होता है। अब श्लोक में यह कहा जा रहा है कि उस आनन्द का फल क्या मिलता है आनन्द भव-भव के बाँधे हुए प्रबल कर्मरूपी ईधन को जला डालता है। जैसे ईघन कितने ही दिनो से ढेर करके संचित किया जाय, उस समस्त ईधन को जलाने में अग्नि समर्थ है इस ही प्रकार विकल्पो से जितने भी कर्म बंधन संचित किये है उन कर्मो को नष्ट करने यह योगी का आनन्द समर्थ है।
अध्यात्मयोग की आनन्दमग्नता से कर्मप्रक्षय - भैया! बाहा में साधुजनों की तपस्या कायक्लेशरूप दिखती है लोगो को कि ये बहुत उपवास करते है, एक बार भोजन पान करते है आदि कितनी कठिन विपत्तियाँ सहते है? लोगो को दिखता है कि ये कष्ट सह रहें हे पर वे कष्ट सह रहे हो तो उनके कर्म नष्ट नही हो सकते। वे तो किसी अपूर्व आनन्द में मग्न हो रहे है जिस आनन्द के द्वारा वे कर्म नष्ट हो जाते है, जो हम आपके आत्मा में चिकाल से बंधे है। कर्म शब्द के अर्थ पर दृष्टि डालो। कर्म शब्द के दो अर्थ है एक तो जो आत्मा के द्वारा किया जाय उसका नाम कर्म (भाव कर्म) है। दूसरे इस कर्म के निमित्त से जो कार्माणवर्गणा कर्मरूप होती वह कर्म है।
भावकर्म और द्रव्यकर्म - यह जीव जो कुछ भी करता है, उसका नाम कर्म है। जैसे रागद्वेष विकल्प संकल्प मोह ये सब कर्म कहलोते है, इसका नाम भावकर्म है। भावकर्म तो जिस समय किया उस ही समय रहा, बाद में नही रहते। क्योकि भावकर्म जीव के एक समय की परिणति है, और उपयोग में आने की दृष्टि में अन्तर्मुहूर्त की परिणति है। वह परिणति दूसरे क्षण नही रहती। दूसरे क्षण अन्य रागद्वेष मोह उत्पन्न हो जाते है। प्रत्येक जीव के जिस समय रागद्वेष होता है वैसा परिणमन दूसरे क्षण नही रहता। इस कारण भावकर्म तो अगले क्षण नही रहते, नये-नये भाव उत्पन्न होते रहते है, किन्तु उस नवीन क्षणिक भावके कारण जो कर्म बनते है, ज्ञानावरणादिक कर्म बनते है उनमें कितने ही कर्म अनगिनते अरबो, खरबो वर्ष तक इसके साथ रहते है, और वे उतने वर्षों तक जीव को सताने के कारण बन रहे है। एक क्षण की गल्ती से अरबो खरबो वर्ष तक जीव को कष्ट सहना पड़ता है।
कर्मस्थिति का समर्थन - जैसे कोई पुरूष रसना इन्द्रिया के स्वाद में आकर किसी हानिकारक चीज को खा जाय तो खाने में भागने में कितना समय लगा? दो तीन मिनट का, किन्तु उससे जो दर्द बनेगा, रोग बनेगा वह भोगना पड़ेगा घंटो । ऐसे ही रागद्वेष करना तो आसान है, स्वच्छन्दता है, जो मन मे आए सो कर लो, पुण्य का उदय है। जिस
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चाहे को सताकर अपने मनको खुश कर लो, जिस स्त्री या पुरूष के प्रति कामवासना उत्पन्न हो, और-और भी पाप कार्य कर लो, केवल एक दो मिनट ही तो वह पाप कार्य करता है किन्तु उन पापों के करने के कारण जो द्रव्यकर्म बंध है वे जीव के साथ अनगिनते वर्ष तक रहेंगे।
क्षणिक गलती से असंख्याते वर्षों तक क्लेश भोग- आगम में बताया गया है कि कोई मन वाला पुरूष जिसके विशेष समझ उत्पन्न हुई है वह मोह करेगा, गडबड़ी करेगा तो उस तीव्रमोह में 70 कोड़ाकोड़ी सागर तक के लिए कर्म बँध जाते है। अभी बतावेगे कि कोड़ा-कोड़ा सागर क्या चीज होती है। कर्म इस लोक में बहुत सूक्ष्म कार्माण मैटर है। वह कार्माण स्कंध के नाम से प्रसिद्ध है।वह सब जगह भरा है, और इस मोही मलिन जीव के साथ तो बहुत सा सूक्ष्म मैटर साथ लगा रहता है जो इसके लिए सदा तैयार है। यह जीव कुछ मलिन परिणाम तो करे कि कर्म रूप बन जायेगें, जिसे विनसोपचय कहते है। ये कर्म रूप बनेगें तो 70 कोड़ाकोड़ी सागर तक के लिए भी बँध जाते है। इसका अर्थ यह हुआ कि कुछ वर्षों के बाद वे कर्म जब उदय में आतें है तो अनगिनतें वर्षों तक उदय में आ आकर इस जीव को क्लेश के कारण बनते है।
सागर का प्रमाण - सागर का समय बहुत लम्बा समय है। यह गिनती में नही बताया जा सकता है। जिस चीज को गिनती में बताया ही न जा सके उसको किसी उपमा द्वारा बताया जायगा। कल्पना करो कि 2 हजार कोश का कोई लम्बा चौड़ा गड्ढा है। सब कल्पना पर बात चलेगी, न कोई ऐसा कर सकता है। न किया जा सकेगा। पंरतु इतना लम्बा समय कितना है इसका परिज्ञान करने के लिए एक उपमारूप में बताया गया है। उस विशाल गड्ढे में छोटे-छोटे रोम खण्ड जिनका दूसरा खण्ड किया न जा सके, भर दिया जाय ठसकर और मानो उस पर हाथी फिरा दिया जाय, फिर उन बालो को सौ-सौ वर्ष बाद एक-एक टुकड़ी निकाला जाय, सब यह उपमा की बात है, जितने वर्षों में वे सब बाल निकल सकेंगे उसका नाम है व्यवहारपल्य। उससे असंख्यातगुणा समय लगता है उद्वारपल्य में, उससे असंख्यात गुणा समय लगता है अद्वापल्य में। एक करोड़ अद्वापल्य में एक करोड़ अद्वापल्य का गुणा करें उसका नाम है एक कोड़ाकोड़ी अद्वापल्य। ऐसे 10 कोड़कोड़ी पल्यो का एक सागर बनता है। एक सागर में एक करोड़ सागर का गुणा करो तब तक कोड़ाकोड़ी सागर होता है। यों 70 कोड़ाकोड़ी सागर तक ये द्रव्यकर्म इस जीव को जकड़ डालते है।
दुर्लभ मनुष्यजन्म का अवसर – यह मनुष्य कैसी-कैसी कुयोनियो को भोग-भोगकर आज प्राप्त किया है। जरा दृष्टि तो डालो - अन्य जीवों की अपेक्षा मनुष्य जीवन कितना श्रेष्ठ है। वृक्ष, पृथ्वी, इन जीवो की जिन्दगी क्या जिन्दगी है? कीड़ा मकोड़ा भी क्या मल्य रखते है लोग जूतो से कुचलते हुए चले जाते है, उनका कुछ भी मूल्य नही समझते। पशु
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पक्षी भी बन जाय तो भी क्या है, अक्षर नही बोल सकते। दूसरे की बात नही समझते। अटपट उनका भोजन, कैसी उनकी आकृति,? परंतु मनुष्य को देखो यह विवेक कर सके, सब पर हुकूमत कर सके, बड़े बड़े साहित्य रच सके, एक दूसरे के हृदय की बात समझ सके, कितने विकास वाला यह मनुष्य जीवन है? इतना विकास पाने के बाद यदि विषयकषाय पापों में ही अपना समय गंवाया तो उसका फल यह होगा कि जिन कुयोनियों से निकलकर मनुष्य पर्याय में आये है उन ही कुयोनियो में जन्म लेना पड़ेगा।
आत्मप्रभुपर अन्याय के दुष्परिणाम का दृष्टान्तपूर्वक प्रदर्शन - एक साधु था। उसके पास एक चूहा बैठा रहा करता था। चूहा को साधु का विश्वास रहा करे सो वहाँ बैठ जाया करे। एक बार कोई बिलाव उस चूहे पर झपटा तो साधु ने आशीर्वाद दिया चूहे को कि विडालों भव, तू भी बिलाव हो जा, सो वह चूहा भी बिलाव हो गया, उस पर झपटा एक कुत्ता तो साधु ने आशीर्वाद दिया कि श्वानो भव। तू भी कुत्ता बन जा, सो वह कुत्ता हो गया। अब उस पर झपटा एक तेदुवा (व्याघ्र)। तो साधु ने आशीर्वाद दिया कि व्याघ्रो भव। तू व्याघ्र हो जा। सो वह कुत्ता भी व्याघ्र हो गया। उस पर झपटा एक शेर । सो साधु ने आशीर्वाद दिया कि सिंहो भव। तू सिंह बन जा। वह भी सिंह बन गया। अब उसे लगी भूख, सो उसने सोचा कि क्या खाना चाहिए? ध्यान आया कि अरे ये ही साधु महाराज तो बैठे है, इन्ही को खाकर पेट भर लेना चाहिए। सो ज्यों ही साधु को खाने का संकल्प किया और कुछ उद्यम करना चाहा त्यों ही साधु ने आशीर्वाद दिया कि पुनः मूषको भव, तू फिर चहा बन जा, वह फिर चूहा बन गया। अरे कितना उठकर सिंह बन गया और जरा सी गफलत में चूहा बनना पड़ा। ऐसे ही हम आपके भीतर विराजमान जो कारणपरमात्मतत्व है, परमब्रहृा स्वरूप है, विशुद्व समयसार है, ज्ञानानन्द स्वभाव है उसका आशीर्वाद मिला, कुछ विकास बना तो यह स्थावरों से उठकर कीड़ा मकोड़ा बना, उससे भी और बढ़कर पशु पक्षी बना, वहाँ से भी उठकर अब यह मनुष्य बना। अब मनुष्य बनकर इस परमब्रहास्वरूप पर, इस कारणपरमात्मतत्व पर हमला करने की ठान रहा है।
आत्मदेव पर मनुष्य का अन्याय - जो मनुष्य विषय भोगता है, कषायो में प्रवृत्त होता है, मोह रागद्वेष को अपनाता है वह इस प्रभु पर ही तो अन्याय कर रहा है। जिस प्रभु के आशीर्वाद से , प्रभु के प्रसाद से जघन्य योनियों से निकलकर मनुष्य जैसे उत्तम पद में आए है, तो अब यह मनुष्य कैसी कलावो से विषयो का सेवन कर रहा है, यह कभी बैल, घोड़ा, गघा था। ये कलापूर्वक कुछ विषयसेवन नही कर पाते है और मनुष्य को योग्यता विशेष नही मिली ना, सो बढ़िया, साहित्यिक ढंग से बढ़िया रागभरी कविताएँ बनाकर कितनी कलावो से यह विषय भोग रहा है और कितना प्रसार कर रहा है? सब जीवों से अधिक अन्याय कर सकने वाला यह मनुष्य है, यह अपने आप के प्रभु पर अन्याय कर रहा है। यह जीव आनादि से निगोद अवस्था में था। निगोद कहते है, पेड़ और पृथ्वी
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से भी खराब योनि को । एक शरीर के अनन्त जीव स्वामी है। कितनी कलुषित निगोद की योनि है? वहाँ से निकलकर धीरे-धीरे विकास करके यह मनुष्य बना और अब यह अपने आश्रयभूत इस परमात्मप्रभु पर हमला करने लगा, विषय कषायो का परिणमन करने लगा, यही तो प्रभु पर अन्याय है। तो इस प्रभु ने भीतर से फिर आशीर्वाद दिया कि पुनः निगोदो भव। तू फिर से निगोद बन जा । तो मनुष्य जैसी उत्कृष्ट योनि पाकर फिर निगोद बन जाता है। ऐसे ये विकट कर्म बंधन है।
धर्म का आनन्द और कर्मक्षय इन विकट कर्म ईधनो को जलाने में समर्थ शुद्व आनन्द है, कष्ट नही है। धर्म कष्ट के लिए नही होता। धर्म कष्टपूर्वक नही होता। धर्म करते हुए में कष्ट नही होता। कोई पुरूष जो यथार्थ धर्मात्मा है वह धर्म करने की भावना कर रहा हो तो वह प्रसन्नता और आनन्दपूर्वक ही कर सकेगा, कष्ट में नही जिस काल में धर्म किया जा रहा है उस काल में भी कष्ट नही हो सकता है, वहाँ भी आनन्द ही झर रहा होगा और धर्म करने के फल में उसे आनन्द ही मिलेगा । आनन्द में ही सामर्थ्य है कि भव-भव से संचित कर्मो को क्षणमात्र में जला सकता है। " कोटि जन्म तप तपै ज्ञान बिन कर्म झरै जे! ज्ञानी के छिनमाहि त्रिगुप्ति तैं सहज टरेंते ।" अज्ञानी पुरूष बड़ी-बड़ी तपस्या करके करोड़ो भवो में जितने कर्म जला सकते है उतने कर्मो को ज्ञानी एक क्षण में ज्ञानबल से नष्ट कर देता है। इस मनुष्य - जीवन का सुन्दर फल प्राप्त करना हो तो एक निर्णय बना लो कि हमें ज्ञानप्रकाश का आनन्द लूटना है। घर में चार छः जन है ना, सो उनका कुछ ख्याल रहता है, तो उनको भी धर्म के रंग मे ऐसा रंग दो कि वे सब भी धर्मी बन जायें मोह रागद्वेष की फिर पद्वति न रहेगी। उनका भी भला करवा दो और अपना भी भला कर लो। दूसरे का भला करना अपने आधीन तो है नही लेकिन सम्बंध है तो व्यवहार ऐसा करो कि उनमें भी धर्मभावना जाग्रत हो, और एक ज्ञानप्रकाश के लिए ही मनुष्य जीवन समझो।
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धर्मपथ - भैया! आत्मा के हित का पंथ निराला है और दुनियादारी का पंथ निराला है। कोई मनुष्य चाहे कि मै दुनिया का आनन्द भी लूट लूँ और साथ ही आत्मा का हित भी कर लूँ तो ये दोनो बातें एक साथ नही मिलती है। निर्णय कर लो कि तुम्हें क्या प्यारा है? देखो दुनिया में अपना नाम कर जाने की धुन बनाना, धनसंचय की भावना बनाना, देश के लिए मर जाना, इनसे भी ज्ञानभावना प्रकट नही होती है। इस धर्मी को समूचे देश से अथवा धन वैभव से क्या मिलेगा? कुछ भी तो न मिलेगा। यह परोपकार के लिए नही है, किन्तु ज्ञानी पुरूष अपने को ज्ञान में, ध्यान में लीन होने में असमर्थ समझ रहा है जब तक तब तक विषय किन्तु ज्ञानी पुरूष अपने को ज्ञान, ध्यान में लीन होने में असमर्थ समझ रहा है जब तक तब तक विषय कषाय जैसे गंदे परिणाम मेरे मे घर न कर पायें उनसे बचने के लिए परका उपकार है। जो केवल पर के लिए ही परका उपकार समझतें है वे धर्म से भी
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गये और धन से भी गए, और श्रम कर करके तकलीफ भी भोगी, और जो परोपकार का अंतः मर्म समझते है उनसे परोपकार भी वास्तविक मायने में हुआ, स्वयं भी प्रसन्न रह गया। मोक्षमार्ग भी, धर्मपालन भी साथ-साथ चला।
अध्यात्मयोगी के संकटो मे खेद का अभाव – वह योगी पुरूष अपनी ध्यानसाधना में रहकर जिन संकटो को सामना कर रहा है उन्हे यह कष्ट नही समझता। लोग समझते है कि संकट आ रहे है लेकिन वह उन दुःखो को दुख नही समझ रहा है। वह तो अपने अनादिकाल से बिछुड़े हुए परमपिता, परमशराण चिदानन्दात्मक प्रभुता का दर्शन मिला, उस आनन्द में यह मग्न हो रहा है, और इस शुद्ध आनन्द का ही प्रताप है कि भव-भव के संचित कर्म उसके क्षण मात्र में नष्ट हो जाते है, उसे खेद नही होता। खेद करने से खोटे कर्मो का बंध होता है। प्रसन्नता तो तब मिल सकती है जब इन बाहापदार्थो मे मोह ममता का सम्पर्क न बढाये, ज्ञाताद्रष्टा रहे, जो कुछ बाहा में होता है उसके जाननहार रहे।
दुनिया के अजायबघर में निःसंकट रहने का उपाय - यह दुनिया अजायबघर है, अजायबघर में दर्शको को केवल देखने की इजाजत है, छूने की या कुछ जेब में धरने की इजाजत नही है। यदि कोई आज्ञाविरूद्व काम करेगा तो वह गिरफ्तार हो जायगा, ऐसे ही ये सर्वसमागम अजायबघर है, परमार्थ नही है, इनको देखने की इजाजत है ईमानदारी से। छूने की इजाजत, अपनाने की इजाजत नही है। जो किसी भी अनात्मतत्व को अपनायेगा वह बंधन में पड़ेगा और अनेक भवों तक उसे कष्ट भोगना होगा। सब जीव है, एक समान है, उनमें से किसी एक दो को ही अंतरंग मे पकड़कर रह जाना है, इसका क्या फल मिलेगा? सो यह बिलबिलाता दृश्यमान जीवलोक ही प्रमाण है। अब तो ऐसा अंतः पुरूषार्थ बनायें और अपने आपके स्वरूप में रमने का यत्न करें जिससे संकटो का समूल विनाश है। इसके लिए सत्संगति, ज्ञानार्जन, परोपकार सब कुछ उपाय करे। आत्मदृष्टि से ही महारे संकट दूर हो सकेंगे।
अविद्यााभिदुरं ज्योतिः परं ज्ञानमयं महत् ।
तत्प्रष्टव्यं तदेष्टव्यं तद्रष्टव्यं मुमुक्षुभिः ।।49 ।। आत्महितकर परमज्योति - आत्मा का परमहित करने वाला परमशरण तत्व क्या है? इस संबंध में बहुत पूर्व प्रंसग से वर्णन चल रहा है। आत्मा का हित आत्मतत्व के सहज ज्ञानज्योति के अवलम्बन में ही है वही जिन आत्माओ को इष्ट हो जाता है। उसका कल्याण होता है, किन्तु जो व्यामोही पुरूष केवल परिजन सम्पदा को ही इष्ट मान पाते है रात दिवस उन ही परिजनों की चिन्ता में समय खो दिया करते है उनका शरण इस लोक में कोई नही है। शरण तो किसी का कोई दूसरा हो ही नही सकता, हम तो हमारे लोक में कोई नही हे शरण तो लोक में कोई नही है। शरण तो किसी का कोई दूसरा हो ही नही सकता, हम ही हमारे शरण है। तब शरण होने की पद्धति से खुद में खुद का अनुभव किया
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जाय। यह ज्ञानज्योति यह शुद्ध ज्ञानस्वरूप जो निर्विकल्प स्थिति करके अनुभवो में आ सकने योग्य है यह ज्ञानज्योति समस्त चाह का भेदन कर देने वाली है। जैसे सूर्य प्रकाश गहन अंधकार को भी भेद देता है इस ही प्रकार ज्ञानज्योति भ्रम के गहन अंधकार को भेद देती है।
अज्ञानान्धकार और उसका भेदन - भैया - कितना बड़ा अंधेरा यहाँ कि है तो मेरा परमाणु मात्र भी कुछ नही और उपयोग ऐसा पर की और दौड़ गया है कि परिजन और सम्पदा को यह अपना सर्वस्व मानता है। यह विचित्र गहन अंधकार है। सर्व पदार्थ विमुक्त हो जायेगें, इस पर अज्ञानी घुटने टेक देते है। जीवनभर कितने ही काम कर जाय अर्थात् कितनी ही धन सम्पदा निकट आ जाय, पर एक नियम सब पर एक समान लागू है। वह क्या कि सब कुछ छूट जायगा। इस व्यामोही जीवन ने यहाँ घुटने टेक दिये। वहाँ तो अज्ञान की प्रेरणा से रात दिवस खोटे-खोटे कार्यो में ही जुट रहे है लेकिन यहाँ वश नही चलता, और इसी कारण अज्ञानी मोहियो के दिमाग भी कभी-कभी सुधार पर आ जाया करते है। यह ज्ञानप्रकाश अज्ञान अंधकार को नष्ट करने वाला है। यह ज्ञानस्वरूप खुद का भी प्रकाश करता है और दूसरो का भी प्रकाश करता है। खुद ज्ञानस्वरूप है इसलिए खुद ज्ञान का प्रकाश कर ही रहा है, किन्तु इस ज्ञान में ये समस्त परपदार्थ भी आते हैं, उनका भी प्रकाश्ज्ञ है। यह उत्कृष्ठ ज्ञानरूप है।
भेदविज्ञान से स्वातन्त्र्यपरिचय – वस्तु में पूर्ण स्वतंत्रता भरी हुई है, इसका जिस ज्ञानी को परिचय हो जाता है वह सम्यग्ज्ञान पर न्यौछावर हो जाता है। लोग कहा करते है कि मकान बनाया, दुकान बनाया, यह बात तो बिल्कुल विपरीत है। यह मनुष्य कहाँ ईट पत्थर को बनाता है। ईट पत्थर में अपना कुछ लगा दिया हो ऐसा तो कुछ नजर नहीं आता है। अब इससे और कुछ गहरे चलें तो यह कह देते है कि मकान दूकान तो नही बनाता है जीव किन्तु अपने-अपने पैरों को चलाता है। यह भी बात विपरीत है। आत्मा के हाथ पैर ही नही है। वह तो एक ज्ञानप्रकाश्ज्ञ है, आकाश की तरह अमूर्त और निर्लेप है, यह हाथ भी नही चलाता है, पैर और जिहा भी नही चलाता है। ये क्रियापरिणत हो जाते है निमित्तनैमित्तक संबंध से। इस बात का भी ख्याल रहा तो बतावेंगे। अब आगे और चलें तो यह ध्यान में आता कि आत्मा हाथ पैर भी नही चलाता है किन्तु रागद्वेष की कल्पनाओ को तो करता है, यहाँ भी विवेक बनाये। आत्मा है ज्ञानस्वरूप । आत्मा में रागद्वेष विकार करने का स्वभावतः कर्तृत्व नही है। ये रागादिक हो जाते है, इन्हे आत्मा करता नही है।
दृष्टान्तपूर्वक वस्तुस्वरूप का परिचय – वस्तु का स्वतन्त्र परिणमन समझने के लिए एक दृष्टान्त लो - दर्पण सामने है, उसे दर्पण में सामने खड़े हुए दसों लड़को के प्रतिबिम्ब आ गए है। यद्यपि वह प्रतिबिम्ब दर्पण में हैं लेकिन दर्पण तो अपने में अपनी स्वच्छता की वृत्ति बना रहा है। ऐसे ही इस आत्मा में रागद्वेषो के परिणमन आ गए है, इस आत्मा ने
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रागद्वेषो को पैदा नही किया है। यह आत्मा रागद्वेषो का भी कर्ता नही है। इस समय बात अध्यायत्ममर्म की बात चल रही है और चलेगी, लेकिन ध्यान से सुनने पर सब सरल हो जायगा हाँ इन रागद्वेषो का भी करने वाला यह आत्मा नही है।
निज में निज का परिणमन - अब कुछ और आगे चलकर यह समझ रहा हे जीव कि यह रागद्वेष का करने वाला तो है नही, किन्तु यह चौकी को, पुस्तक को, जितनी भी वस्तुऐ सामने आयी है उन सबको जानता तो है। अपने आत्मा को तकें जरा, यह कितने बड़ा है, कितनी जगह में फैला है, कैसा स्वरूप है? तब ध्यान में आयगा कि यह जो कुछ कर पाता है अपने प्रदेशो में कर पाता है, बाहर कुछ नही करता है। तब आत्मा में एक ज्ञानगुण है, इस ज्ञानगुण का जो भी काम हो रहा है वह आत्मा में ही हो रहा है , अतः इस आत्मा ने आत्मा को ही जाना, किन्तु ऐसा अलौकिक चमत्कार है इस ज्ञानप्रकाश में कि ज्ञान जानता तो है अपने आपको ही किन्तु झलक जाता है यह सारा पदार्थ समूह । जैसे हम कभी दर्पण को हाथ में लेकर देख तो रहे है, केवल दर्पण को, पर पीछे खड़े हुए लड़को की सारी करामातो को बताते जाते है तो जैसे दर्पण को देखकर पीछे खड़े हुए सारे लड़को की करामात बताते जाते है इसी तरह हम आप पदार्थो को जान नही रहें है किन्तु इन पदार्थों के अनुरूप प्रतिबिम्बित हम अपने ज्ञानस्वरूप को जान रहे है और इस अपने आप को जानते हुए में सारा बखान कर डालतें है।
पर से असम्प्रक्त जीव का पर से कैसा नाता - भैया ! अब परख लिया अपने इस आत्मा को? इसका परपदार्थो के जानने तक का भी सम्बन्ध नहीं है, किन्तु यह मोही प्राणी यह मेरा कुटुम्बी है, सम्बन्धी है इत्यादि मानता है। अहो! यह कितना बड़ा अज्ञान अंधकार है? इस महान् अंधकार को भेदने वाली यह ज्ञानज्योति है। यह ज्ञानज्योति उत्कृष्ट ज्ञानस्वरूप है। इसका जिसे दर्शन हो जाता है उसकी समस्त आकुलताएं दूर हो जाती है। इस कारण हे मुमुक्ष पुरूषो! संसार के संकटो से छूटने की इच्छा करने वाले ज्ञानीसंत जनो!एक इस परम अनुपम ज्ञानज्योति की ही बात पूछा करो, एक इस ज्ञानस्वरूप की ही बात चाहा करो और जब चाहे इस ज्ञानस्वरूप की ही बात देखा करो, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ चीज न चाहने लायक है और न देखने लायक है। इस ज्ञानस्वरूप के दर्शन से अर्थात् अपने आपको मै केवलज्ञानमात्र हूं - ऐसी प्रतीति बनाकर उत्पन्न हुए परमविश्राम के प्रसाद से अनुभव करने वाले पुरूष के अज्ञान का सर्वथा नाश हो जाता है और अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त आनन्द और अनन्त शक्ति प्रकट हो जाती है, जिस ज्ञान के प्रसाद से समस्त लोक और अलोक को यह आत्मा जान लेता है।
स्वकीय अनन्त तेज की स्मृति - हम आप सब मे अनन्त महान तेज स्वरसतः बसा हुआ है, लेकिन अपने तेज को भूलकर पर्यायरूप मानकर कायर बना हुआ यह जन्तु विषय के साधनो के आधीन बन रहा है। जैसे कोई सिंह का बच्चा भेड़ो के बीच पलने लगा तो
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भेड़ो बकरियों की तरह ही वह रहने लगा, इसको जो जैसा चाहे वैसे ही सीग मारे, गड़रिया कान पकड़कर खीचता है और वह सिंह का बच्चा उसी तरह दीन होकर रहता है जैसे भेड़ बकरियाँ रहती है। कभी किसी दूसरे सिंह की दहाड़ को सुनकर, उसकी स्थिति की देखकर कभी यह भान कर ले कि ओह मेरे ही समान तो यह हे जिसकी दहाड़ से ये सारे मनुष्य ऊटपटांग भाग खड़े हुए है। अपनी शूरता का ध्यान आए तो यह भी दहाड़ मारकर सारे बंधनो को तोड कर स्वतंत्र हो जायगा, ऐसे ही हम आप संसारी प्राणी उस तेजपुंज के प्रताप को भूले हुए है जिस विशुद्व ज्ञान में यह सामर्थ्य है कि सारे संकट दूर कर दे। इस भव की बातो में ज्यादा न उलझें, यहाँ कोई संकट नही है। संकट तो वह है जो खोटे परिणमन उत्पन्न होते है, मोह रागद्वेष की वासना जगती है यह है संकट । यह मोही प्राणी प्रतिक्षण आकुलित रहता है। ये ही हम आप जब इस मोह को दूर करे, विवेक का बल प्रकट करें और अपने तेजपुंज की संभाल करे, अतंरगं में दृढ़ प्रतीति कर लें तो समस्त संकट दूर हो जायेंगे।
आत्मोन्नति से महत्व का यत्न - भैया ! दूसरे नेतावो को, धनिकों को देखकर विषाद न करे। वे दुःखी प्राणी है। यदि उन्हें ज्ञानज्ञयोति का दर्शन नही हुआ है, तुम उनसे भी बहुत बड़े बनना चाहते हो तो सांसारिक माया का मोह दूर करके अपने आप में शाश्वत विराजमान इस ज्ञानस्वरूप का अनुभव कर लो, तुम सबसे अधिक बड़े हो। जिन्हें कल्याण की वाञछा है उनका कर्तव्य है कि वे ऐसी धुन बनाएँ कि जब पूछे तो इस आत्मस्वरूप की बात पूछे, जब चाहे तब आत्मस्वरूप की बात चाहे और देखें जानें तो आत्मस्वरूप की बात ही देखें जाने, ऐसी ज्ञानज्योति प्रकट हो जाय तो फिर आकुलता नही रह सकती है।
सम्यग्ज्ञान का चमत्कार - भैया ! लग रहा होगा ऐसा कि यह योगी संतो के करने की बात गृहस्थजनों को क्यों बताना चाहिए? इससे गृहस्थ कुछ फायदा लेंगे क्या ? अपने हृदय से ही बतावों। बिडम्बना का बोझ कुछ हल्का हुआ है या नही? कुछ अंतरंग में प्रसन्नता जगी है या नही? अरे इतना आचरण नही कर सकता तो न सही, किन्तु करने योग्य परमार्थतः क्या काम है, उसका ज्ञान करने में ही महान् आनन्द उत्पन्न होने लगता है। सूर्य जब उदित होकर सामने आये तब आयगा, किन्तु उससे पौन घंटा पहिले से ही अंधकार सब नष्ट हो जाता है। यह चारित्र आचरण आत्मरमण, स्थिरता जब आए, किन्तु इसका ज्ञान, इसकी श्रद्वा तो पहिले से ही आकुलता को नष्ट करने लगती है। यह ज्ञानभावनाा समस्त दुःखो का नाश करने वाली है और आत्मा में बल उत्पन्न करने वाली हे। इस ज्योति के अनुभव से जो उत्कृष्ट आनन्द होता है उससे कर्म भी क्षीण होने लगते है और आत्मा में भी एकाग्रता होने लगती है।
आत्मलाभ की प्रारम्भिक तैयारी - आत्मा के सहज स्वरूप की बात तो जानने की और लक्ष्य की है। अब इसकी प्राप्ति के लिए हम अपने पद में कैसा व्यवहार करें कि हम
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इसके धारण के पात्र रह सके। प्रथम कर्तव्य यह है कि सम्पदा को भिन्न, असार, नष्ट होने वाली जानकर इस सम्पदा के खातिर अन्याय करना त्याग दे। कोई भी ऊँची बात मुझे पुरूषार्थ बिना मिलेगी कैसे? और कुछ उससे नुकसान भी नही है, तो हम अन्याय त्याग दे। क्योकि जगत में जीवन के आवश्यक पदार्थो का समागम पुण्योदय के अनुसार सहज सुगमतया मिलता रहता है। अन्याय से सिद्वि नही होती। अन्याय वह है जिसे अपने आपपर
कते है कि जो बात अपने को बुरी लगती है वह बात दूसरो को भी बरी लगती है, उसका प्रयोग दूसरो पर करना अन्याय है। ऐसा जानकर उसका प्रयोग दूसरों पर न करे, यही है अन्याय त्याग। हमारे बारे में कोई झूठ बोले, हमारी चीज चुरा ले, हमारी माँ बहिन पर कोई कुदृष्टि डाले तो हम को बुरा लगता है, तो हम भी किसी का दिल न दुखावे, किसी की झूठ बात मब कहें, किसी की चीज न चुराये, किसी परस्त्री पर कुदृष्टि न करें और तृष्णा का आदर न करें। बतावो क्या कष्ट है इसमें? इसमें न आजीविका का भंग होता है और न आत्महित में बाधा आती है।
अन्याय व मिथ्यात्व के त्याग का अनुरोध - भैया ! अन्याय का त्याग और मिथ्या श्रद्वान का त्याग करो। पर से हित मानना, कुदेव, कुशास्त्र, कुगूरू में रमना, अपने आपको सर्व से विविक्त न समझ पाना – ये सब मिथ्या आशय है। ज्ञानप्रकाश करके इस मिथ्या आशय का भी त्याग करें और अभक्ष्य पदार्थ न खाये, ज्ञानार्जन में रत रहे, अपनी आजीविका बनाये रहें और इस शुद्वज्ञान के पालने में भी लगें। तुम्हे क्या कष्ट है इसमें? कौन सा नुकसान पड़ता है? व्यर्थ की गप्पों में और काल्पनिक मौजो की चर्चावों में समय खाने से कुछ भी हाथ न लगेगा।
एक ज्ञानस्वरूप की घुनि की आवश्यकता - इस ज्ञानार्जन से शान्ति व संतोष मिलेगा। इससे इस ज्ञानज्योति के अर्जन में, इसकी चर्चा में अपना समय लगाये। इससे ही अपना सम्बन्ध बनाएँ। जैसे कोई कामी पुरूष जिस किसी परस्त्री पर आसक्त हो गया हो या किसी पर कन्या पर जैसे कि पुराणो में भी कितने ही मोहियों की चर्चा सुनी है, तो वह पूछेगा तो वही बात, जानेगा देखेगा तो वही बात, अकेले में भी भजन बोलेगा तो वही। कैसी जाती है। वह पूछेगा, चाहेगा तो एक ज्ञानस्वरूप को। हम आपका भी यही कर्तव्य है कि इस ज्ञानस्वरूप का आदर करें और संसार संकटो से सदा के लिए छुटकारा पायें।
जीवोऽन्यः पुद्गलश्चान्य इत्यसौ तत्वसंग्रहः।
यदन्यदुच्यतें किञिचत्सोऽस्तु तस्यैव विस्तरः । 150 || संक्षिप्त तत्वसंग्रह - ग्रन्थ समाप्ति से पहिले विचरम श्लोक में यह बताया जा रहा है कि समस्त प्रतिपादित वर्णनो का सारभूत तत्व क्या है? हमें यह पूर्ण ग्रन्थ सुनने पर शिक्षा लेने योग्य बात कितनी ग्रहण करनी है, यह जानना है, वही कहा जा रहा है कि
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जीव जुदा है, पुद्गल जुदा है। इतना ही मात्र तत्व का संग्रह है, इसके अतिरिक्त अन्य जो कुछ कहा जाता है वह सब इसी तत्व का विस्तार है।
___ मूल में सत्स्वरूपता - मूल में तत्व सन्मात्र कहा गया है। जो है वह तत्व है, इस दृष्टि से जितने भी पदार्थ है वे समस्त पदार्थ सत्रुप है और इस ही दृष्टि को लेकर अद्वैतवादों की उत्पत्ति होती है। कोई तत्व को केवल एक सद्बा मानते है, कोई तत्व को केवल शून्य मात्र मानते है, कोई ज्ञानमात्र, कोई चित्रोद्वैतरूप। नाना प्रकार के इन अद्वैतवादों की एक इस सद्भाव से उत्पत्ति हुई है, और इस स्थिति से देखो तो कोई भी पदार्थ हो, प्रत्येक पदार्थ है, है की अपेक्षा सब समान है। जैसे मनुष्य की अपेक्षा बाल, जवान, बूढ़ा किसी भी जाति कुलका, देश का हो सबका संग्रह हो जाता है और जीव की अपेक्षा से मनुष्य हो, पशु हो, कीट हो सबका संग्रह हो जाता है और सत् की अपेक्षा जीव हो अथवा दिखने वाले ये चौकी, भीत आदि अजीव हो सबका सग्रह हो जाता है।
विशेष से अर्थक्रिया की सिद्वि - सत् की दृष्टि समस्त अर्थो के समान होने पर भी अर्थ क्रिया की बात देखना आवश्यक है। काम करने की बात है, प्रत्येक पदार्थ है और वे सब कुछ न कुछ काम कर रहे है, उनमें ही परिणमन हो रहा है। और इस अर्थक्रिया की दृष्टि से जितने भी पदार्थ है वे सब एक अपने-अपने स्वरूप में अपना एकत्व लिए हुए है। जैसे गौ जाति और न्यारी-न्यारी गौये। गऊ जाति से दूध नही निकलता किन्तु जो व्यक्तिगत गौ है उससे दूध निकलता है। जाति तो काम करने वाले अर्थक्रिया से परिणमने वाले, पदार्थ के संग्रह करने वाले धर्म का नाम है। जो ऐसी-ऐसी अनेक गौये है। उनका संग्रह गौ जाति में होता है। तो वास्तव में पदार्थ अनन्तानन्त तो जीव है, अनन्तानन्त पुद्गल है, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, एक आकाशद्रव्य औश्र असंख्यात कालद्रव्य है। उन सबका सत्वधर्म से संग्रह हो जाता है।
जीव और पुदगलों की अनन्तता - जीवद्रव्य अनन्त है, इसका प्रमाण यह है कि प्रत्येक जीव अपने में अपना ही परिणमन करता है। एक परिणमन जितने में समाये और जितने से बाहर कभी न जाय उसको एक पदार्थ बोला करते है। जैसे मेरा सुख दुःख मेरी कल्पना आदिक रूप परिणमन जितने में अनुभूत होता है। और जिससे बाहर होता ही नही है उसको हम एक कहेंगे। यह मै एक हूं, ऐसे ही आपका सुख दुःख रागद्वेष समस्त अनुभव आप में ही परिसमाप्त होते है सो आप एक है। इस प्रकार एक एक करके अनन्त जीव है, लेकिन सभी जीवों का मूल स्वरूप एक समान है। अतः सब जीव एक जीव जाति में अंतर्निहित हो जाते है। पुद्गगल भी अनन्त है जिसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श पाया जाए, उसे पुद्गल शब्द में यह अर्थ भरा है- पुद् मायने जो पूरे और गल मायने जो गले। जहाँ मिल-जुल कर एक बड़ा रूप बन सके और बिखर बिखरकर हल्के क्षीण रूप हो जायें
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उनको पुद्गल कहते है। ये रूप, रस, गधं, स्पश, गुण के पिंड रूप जो इन्द्रिय द्वारा ज्ञान में आते है वे सब पुद्गल है।
अचेतन अमूर्त द्रव्यो की प्रसिद्वि - धर्मद्रव्य एक ही पदार्थ है। जो ईथर, सूक्ष्म समस्त आकाश में नही किन्तु केवल लोकाकाश में व्याप्त है वह जीव वे पुद्गल के चलने के समय निमित्तभूत होता है। जैसे मछली को चलाने में जल निमित्तामात्र है। जल मछली को जबरदस्ती नही चलाता किन्तु जल के अभाव में मछली नही चल पाती है। मछली के चलाने में जल भी निमित्त है, इसी प्रकार व्याप्त यह धर्मद्रव्य हम आपको जबरदस्ती नही चलाता, किन्तु हम आप जब चलने का यत्न करते है तो धर्मद्रव्य एक निमित्तरूप होता है। इसी प्रकार चलकर ठहरने में निमित्तभूत अधर्मद्रव्य है। वह भी एक है। आकाश के बारे में यद्यपि वह अमूर्त है, इस धर्म आदिक की तरह अरूपी है फिर भी लोगो के दिमाग में आकाश के सम्बन्ध में बड़ी जानकारी बनी रहती है। यही ही तो है आकाश जो पोल है
और हाथ फैलाकर बता देते है। है वह भी अमूर्त, न हाथ से बताया जा सकता और न दिखाया जा सकता और इस लोक में एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालद्रव्य स्थित है जिस पर स्थित हुए समस्त द्रव्यो की वर्तना में जो कारण है।
जीवगत क्षोभ व उसके विनाश के लिए निज ध्रव तत्व के आश्रय की आवश्यकता - इन सब द्रव्यो में से केवल जीव और पुद्गल ही विभावरूप परिणम सकते है। हम आप जीवो को क्षोभ लगे है तो इस पुद्गल के सम्बन्ध से धन, सम्पदा, घर, मकान, शरीर, ये कुटुम्बी जन इनको देखकर न कहना, ये तो निमित्तभूत कार्माण पुद्गल के नोकर्म है, आश्रयधूत है। जो यह स दृश्यमान है उसको देखकर इन सबके झंझट कल्पना में आते है, जो रात दिन परेशान किए रहते है इस जीव को। तो जीव का हित इसमें है कि वह झंझटो से मुक्त हो। झंझटो से मुक्त तब ही हो सकता है जब इसको कोई ध्रुव आशय मिले। जितने भी ये बाहा पदार्थ है जिनका यह मोही जीव आश्रय किए रहता है वे सब अध्रुव है। जैसे चलते हुए मुसाफिरको रास्ते में पेड़ मिलते है तो पेड़ निकलते जाते है, उन पेड़ो से मुसाफिश्र को मोहब्बत नही होती है, उनको देखकर निकल जाता है, ऐसे ही यात्रा करते हुए हम आप सब जीवों को ये समागम थोड़ी देर को मिलते है, निकलते जाते है, इन अध्रुव पदार्थो के प्रीति करने में हित नही है। जिनको अपने ध्रुव तत्व का परिचय नही है वे आश्रय लेंगे अध्रुव का।
देहदेवालयस्थ देव के शुद्ध परिचय की शक्यता – इन पुद्गलो से भिन्न मै हूं, ऐसा समझने के लिए स्वरूप जानना होगा, यह मै जीव चेतन हूं और ये पुद्गल अचेतन है, इनसे मै न्यारा हूं। शरीर में बँधा होकर भी यह जीव अपने स्वरूप को पहिचान ले, इसमें क्या कुछ अनुमान प्रमाण भी हो सकता है? हाँ है। जब हम आप किसी एंकात में बैठ जाते है तो वहाँ केवल एक प्रकार की कल्पना-कल्पना में ही उपयोग बसा रहता है। उस समय
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यह भी स्मरण नही रहता कि मेरा देह है, मेरा घर है। केवल एक कल्पना ही रहा करती है। कोई काम धुनिपूर्वक कर रहे हो, उसमें किसी तत्व की धुन लगी हो तो अपने शरीर का भी भान नही रहता है। कोई एक तत्व ज्ञान में रहता है। अब तो जाननहार तत्व है उस ही का स्वरूप काई जानने में लग जाये, ऐसी धुन बने तो उसे इस देह का भी भान नही रहता है, जिस पर दृष्टि हो उसका ही स्वाद आता है चाहे कही बस रहे हो, जहाँ दृष्टि होगी अनुभव उसका ही होगा।
दृष्टि के अनुसार स्वाद – एक छोटी सी कथानक है- किसी समय सभा में बैठे हुए बादशाह ने बीरबल से मजाक किया बीरबल को नीचा दिखाने के लिए। बीरबल! आज हमें ऐसा स्वप्न आया है कि हम और तुम दोनो घूमने जा रहे थे। रास्तं में दो गड्ढे मिले, एक में शक्कर भरी थी और एक में गोबर, मल आदि गंदी चीजें भरी थी। सो में तो गिर गया शक्कर के गड्ढे में और तुम गिर गये मल के गड्ढे में। बीरबल बोला - हजूर ऐसा ही स्वप्न हमें भी आया। न जाने हम और आपका कैसा घनिष्ट सम्बन्ध है कि जो आप देखते स्वप्न में सो ही मै देखता। सो मैने स्वप्न में देखा कि हम और तुम दोनों घूमने जा रहे थे, रास्ते में दो गड्ढे मिले। एक था शक्कर का गड्ढ़ा और एक था मल, गोबर आदि का गड्ढा। शक्कर के गड्ढे में तो आप गिर गये और मै गोबर मल के गड्ढे में गिर गया, पर इसके बाद थोड़ा और देखा कि आप हमको चाट रहे थे और हम आपको चाट रहे थे। अब देखो- बादशाह को क्या चटाया ? गोबर, मल आदि, और स्वंय ने क्या चाटा? शक्कर। तो कहाँ हम पड़े है, कहा विराजे है, इसका ख्याल न करना, किन्तु जहाँ दृष्टि लगी है उस पर निगाह करना। स्वाद उसी का आयगा जहाँ पर दृष्टि लगी है। यह ज्ञानी गृहस्थ अनेक झंझटो में फंसा है, घर में है, कितना उत्तरदायित्व है ऐसी स्थिति में रहकर भी उसकी दृष्टि वस्तु के यथार्थ स्वरूप पर है। अपने सहज ज्ञानस्वरूप का भान है, उस और कभी दृष्टि हुई थी। उसका स्मरण है तो उसको अनुभव और स्वाद परमपदार्थ का आ रहा है।
श्रद्वाभेद से फलभेद - कोई पुरूष बड़ी विद्याएँ सीख जाए, अनेक भाषाएँ जान जाय, और ग्रन्थो का विषय भी खूब याद कर ले, लेकिन एक सहजस्वरूप का भान न कर सके औश्र अपनी प्रकट कलावों द्वारा विषयो के पोषण में ही लगा रहे तो बतलावों कि ऐसे जानकारो के द्वारा स्वाद किसका लिया गया? विषयो का, और एक न कुछ भी जानता हो और स्थिति भी कैसी हो विचित्र हो, किन्तु भान हो जाय निज सहजस्वरूप का तो स्वाद लेगा अंतस्तत्व का आनन्द का। भैया ! श्रद्वा बहुत मौलिक साधन है। हो सकता है कि पुशु पक्षी, गाय, बैल, भैस, सूवर, गधा, नेवला, बंदर आदि ये अंतस्तस्व का स्वाद करलें अर्थात् ब्रहास्वरूप का अनुभव कर ले, इस ज्ञानशक्ति का प्रत्यय करलें - मैं ज्ञानानन्दमात्र हूं| जो जिस से बोल भी नही सकते, जिनकी कोई व्यक्ति भी नही हो पाती है। कहो उन जीवों में से कोई निज सहजस्वरूप का भान कर ले और बहुत विद्यावों को पढ़कर भी न कर सके
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तो अन्तर एक श्रद्वा की पद्वति का रहा। सप्तम नरक का नारकी जीव तो सम्यक्त्व उत्पन्न कर सकता है और भोग विषयो में आसक्त जीव मनुष्य है और बड़ी प्रतिष्ठा, यश अनेक बातें हो, पर विषयो का व्यामोही पुरूष इस सम्यक्त्व का अनुभव नही कर सकता है। श्रद्वा एक मौलिक साधन है उन्नति के पथ में बढ़ने का।
पार्थक्य प्रतिबोध - यहाँ इतना ही समझना है संक्षेपरूप में कि जीव जुदे है पुद्गल जुदे हे। ये सामने दो अंगुली है, ये दोनो अंगुली जुदी जुदी है क्योकि यह अनामिका अंगुली मध्यमा रूप नही हो सकती और मध्यमा अंगुली अनामिका अंगुली रूप नही हो सकती। इस कारण हम जानते है कि ये दो अंगुलियाँ जुदी-जुदी है। ऐसे ही ये दो मनुष्य जुदे-जुदे है क्योकि यह एक मनुष्य दूसरे मनुष्यरूप नही हो पाता और यह दूसरा मनुष्य इस मनुष्य रूप नही हो पाता यही तो भिन्नता समझने का साधन है। तो ये समस्त पुदगल प्रसंग जिनकें व्यामोह में विपत्ति और विडम्बना रहती है, ये अचेतन है और यह मै जीव चेतन हूं। इस प्रकार का उनका आसाधारणस्वरूप जानना, बस यही एक हेय पदार्थ से अलग होकर उपादेय पदार्थ में लगने का साधन है। इसके अतिरिक्त अन्य जो कुछ भी कहा जाता है वह सब इसका विस्तार है। सात तत्व जीव पुद्गल के विस्तार इसके अतिरिक्त अन्य जो कुछ भी कहा जाता है वह सब इसका विस्तार है। सात तत्व जीव पुदगल के विस्तार है, तीन लोक का वर्णन यह जीव पुदगल का विस्तार ह। सर्वत्र जानना इतना है कि यह मैं ज्ञानानन्दस्वरूप आत्मा जुदा हूं और ये देहादिक पुद्गल मुझसे जुदे है।
यथार्थ प्रतिबोध के बिना शान्ति का अनुपाय - भैया! शान्ति यथार्थ ज्ञान बिना नही मिल सकती, चाहे कैसा ही कुटुम्ब मिले, कितनी ही धन सम्पदा मिले, पर अपना ज्ञानानन्द स्वभाव यह मैं हूं ऐसी प्रतिति के बिना संतोष हो ही नहीं सकता। कहाँ संतोष करोगे?
तृष्णा के फेर में अशान्ति – एक सेठ जी एक बढ़ई ये दोनो पास-पास के घर में रहते थे। बढ़ई दो रूपये रोज कमाता था और सब खर्च करके खूब खाता पीता था और सेठ सैकड़ो रूपयो कमाता था और दाल रोटी का ही रोज-रोज उसके यहाँ भोजन होता था। सेठानी सेठजी से कहती है कि यह गरीब तो राज पकवान खाता है और आपके घर में दाल रोटी ही बनती है तो सेठ जी बोले कि अभी तू भोली है, जानती नही है यह बंढ़ई अभी निन्यानवे के फेर मे नही पड़ा है। निन्यानवे का फैर कैसा? सेठ जी एक थैली में 99 रूपये रखकर रात्रि को बढ़ई के घर में डाल दिये। सोचा कि एक बार 99 रूपये जाये तो जाये, सदा के लिए झंझट तो मिटे, घर की लड़ाई तो मिटे । बढ़ई ने सुबह थैली देखी तो बड़ा खुश हुआ। गिनने लगा रूपये-एक दो, 10, 20, 50, 70, 80, 90, 98, और 99| अरे भगवान ने सुनी तो खूब है मगर एक रूपया काट लिया। कुछ हर्ज नही, हम आज के दिन आधा ही खर्च करेगें, 1 रूपये उसमें मिला देंगे तो 100) हो जायेगे। मिला दिया। अब 100)
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हो गये। सोचा कि हमारा पड़ौसी तो हजारपति है उसको बहुत सुख है, अब वह जोड़ने के चक्कर में पड़ गया। सो हजार जोड़ने की चिन्ता लग गई। अब तो वह दो रूपये काम तो चार आने में ही खाने पीने का खर्चा चला ले। अब जब हालत हो गयी तो सेठ कहता है सेठानी से कि देख अब बढ़ई के यहां क्या हो रहा है? तो सेठानी ने बताया कि अब तो वहाँ बड़ा बुरा हाल है। बस यही तो है निन्यानवे का फेर ।
शान्ति का स्थान - यह अनुमान तो कर लो कि कहाँ शान्ति मिलेगी? निर्लेप आकिञचन्य ज्ञानानन्दस्वरूपमात्र मै हूं, मेरा कही कुछ नही है, ऐसा अनुभव करने में ही शान्ति मिलेगी, अन्यत्र नही । इसलिए कहा है कि तत्व का संग्रह इतना ही है। पुद्गल जुदे है और मैं इस पुद्गल से जुदा हूं।
इष्टोपदेशमिति सम्यगधीत्य विद्वान्, मानापमानसमतां स्वमताद्वितन्य । मुक्ताग्रहो विनिवसन्स्वजनेऽजने व मुक्तिश्रियं निरूपमामुपयाति भव्यः । 151 ।। इष्टोपदेश के अध्ययन का फल यह इष्टोपदेश ग्रन्थ का अंतिम छंद है। इस छंद मे इस ग्रन्थ के अध्ययन का फल बताया है । ग्रन्थ का नाम इष्टोपदेश । जो आत्मा को इष्ट है अर्थात् आत्महित करने वाला है ऐसे तत्व का उपदेश, तत्व की दृष्टि और तत्व के ग्रहण का उपाय जिसमे बताया है इस ग्रन्थ की समाप्ति पर यह अन्तिम छंद कहा जा रहा है। किसी भी विषय को ग्रन्थ को उपदेश को, जानने का साक्षात् फल अज्ञाननिवृत्ति है। ज्ञान के फल चार बताए गये है अज्ञान निवृत्ति, हेय का त्याग करना, उपादेय का ग्रहण करना व उपेक्षा हो जाना । ज्ञान के फल चार होते है जिसमें अज्ञाननिवृत्ति तो सब में रहता है। चाहे हेय का त्याग रूप फल पाये, चाहे उपादेय का ग्रहणरूप फल पाये और चाहे उपेक्षा पाये, अज्ञाननिवृत्ति सब में फल मिलेगा। जिस तत्व का परिज्ञान कर रहे है, जब तक हमारा अज्ञान दूर न हो जाय तब तक हेय को छोड़ेगा कैसे कोई, अथवा विषयो को त्यागेगा कैसे या उदासीनता भी कैसे बनेगी? जगत के जीव अज्ञान अंधकार पड़े है। अज्ञान अंधकार यही है कि वस्तु है और भांति व जानता है और भांति, यही अज्ञानन अंधकार है।
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कल्पित चतुराई - यों तो भैया! अपनी कल्पना में अपनी बड़ी चतुराई जंच रही है। दस आदमियों में हम अच्छा बोलते है, हम अनेक कलाये जानते हे और अनेको से बहुत - बहुत चतुराई के काम कर डालते है, इतनी बड़ी सम्पदा बना ली है, ऐसा मिल और फैक्टरी खाल ली है। हम तो चतुर है और बड़े ज्ञानवान है। सबको अपने आप में अपनी चतुराई नजर आती है, और यों अलंकार में कह लो कि मान लो दुनिया में कुल डेढ़ अक्ल हो तो प्रत्येक मनुष्य एक अक्ल तो अपने में सोचता है और आधी अक्ल दुनिया के सब लोगो में मानता है। अपनी चतुराई सभी मानतें है । भिखारी भी भीख मांग लेने में अपनी
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चतुराई समझते है। वाह मैने कैसी चतुराई खेली कि इसने मुझे इतना कुछ दे दिया। लेकिन यह सब अज्ञान अधंकार है।
निष्पक्ष वृत्ति में आत्महित - आत्मा का हित आत्मा का मर्म निष्पक्ष हो सके बिना नही मिल सकता है। केवल अपने आप में आत्मत्व का नाता रखकर सब कुछ जाने, करे, बोले, नाता केवल आत्मीयता का हो, किसी अन्य सम्बन्धो का न हो। एक वस्तु का दूसरे वस्तु के साथ कोई तात्विक सम्बध नहीं है, क्योकि वस्तु का सत्व इस बात को सिद्ध करता है कि इस वस्तु का द्रव्य गुण पर्याय कुछ भी इस वस्तु से बाहर नही रहता है और ऐसे ही समस्त पदार्थ है। जब समस्त वस्तुवो में स्वतंत्रता है क्योकि अपने स्वरूप की स्वतंत्रता आये बिना उसकी सत्ता ही नही रह सकती है, तब किस पदार्थ का किससे सम्बंध है?
प्रकाश दृष्टान्त पर वस्तुस्वातन्त्र्य का दिग्दर्शन - वस्तुस्वातन्त्र्य के सम्बन्ध में कुछ दो चार चर्चाये कोई छेड दे तो प्रथम तो कोई थोडी बहत आलोचना करेगा, लेकिन कछ
ई थोड़ी बहुत आलोचना करेगा, लेकिन कुछ सुनने के बाद, मनन के बाद समझ में आ जायगा कि ओह! वस्तु की इतनी पूर्ण स्वतंत्रता है। यहाँ जो प्रकाश दिख रहा है, इसी के बारे में पूछे कि बतावो यह प्रकाश किसका है, सब लोग प्रायः यह कहेगें कि यह प्रकाश लटू का है, बल्ब का है। कितना ? जितना इस कमरे में फैला है। लेकिन यह तो बतावों कि लटू किसको कहते है और वह कितना है? इसके स्वरूप का पहिले निर्णय करे। कहने में आयगा कि वह तो एक तीन- चार इंच घेर का है और उसमें भी जितने पतले-पतले तार है उतना मात्र है। तो यह नियम सर्वत्र लगेगा कि जो वस्तु जितने परिणाम की ह उस वस्तु का द्रव्य गुण पर्याय, (पर्याय मीन्स मोडीफिकेशन) वह उतनेमे ही होगा, उससे बाहर नही। इस नियम से कही भी विघात नही होता है। यह प्रकाश जो इस माइकपर है यह लटू का प्रकाश नही है, यह माइक का प्रकाश है। चौकी पुस्तक कपड़े आदि पर जो प्रकाश्ज्ञ है वह लटू का प्रकाश नही, वह कपड़ा चौकी आदि का प्रकाश है। इसमें कुछ युक्तियां देखो। लठ्ठ भी एक पौद्गलिक चीज है, भौतिक चीज है। जैसे उस भौतिक चीज में इतना तेज स्वरूप होने की योग्यता है तो इस पदार्थ में भी अपनी-अपनी योग्यता के माफिक तेज स्वरूप होने का स्वभाव है। दूसरी बात यह है कि लटू का ही प्रकाश हो तो यह सर्व चीजो पर एक समान होता, यह भेद क्यों पड़ गया कि कांच ज्यादा चमकीला बन गया, पालिशदार चीज उससे कम चमकीली है और यह फर्श अत्यन्त कम चमकीला है। यह अन्तर कहाँ से आया? ये पदार्थ स्वंय अपनी योग्यता के अनुसार प्रकाशमान हो गए है।
छाया दृष्टान्त पर वस्तुस्वातन्त्र्यका दिग्दर्शन – वस्तुस्वातन्त्र्य के बारे में दूसरी बात देखो - इस हाथ की छाया चौकी पर पड़ रही है, सब लोग देख रहे होंगे। अच्छा बताइए कि यह किसका परिणमन है? लोग तो यही कहेगें कि यह तो हाथ की छाया है। लेकिन हाथ कितना है, कहाँ है? जितना हाथ है, जितने में है, हाथ का सब कुछ प्रभाव परिणमन
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गुण सब कुछ हाथ में ही गर्भित हो गया, हाथ से बाहर नही हुआ, लेकिन आप यह शंका कर सकेगें कि हाथ न हो तो वह छाया कैसे हो जायगी? बस यही है निमित्त के सद्भाव को बताने का समाधान । यही निमित्त है, निमित्त की उपस्थिति बिना इस उपादेय में इस रूप कार्य न हो सके यह बात युक्त है, पर निमित्तभूत पदार्थ का द्रव्य, गुण, पर्याय, प्रभाव कुछ भी परवस्तु में उपादाय में नही आता ।
परके अकर्तृत्वपर एक जज का दृष्टान्त एक जज साहब थे, वे कोर्ट जा रहे थे, ठीक टाइम से जा रहे थे। रास्ते में एक गधा कीचड़ में फंसा हुआ दिखा। जज साहब से न रहा गया, सो मोटर से उतरकर उसे कीचड़ से निकालने लगे। हसथ के सिपाही लोगो ने मना किया कि हम लोग निकाले देते है आप न निकालो, पर वे नही माने। उस गधे के निकालने में जज साहब कीचड़ से भर गए और उसी हालत में कोर्ट चले गए। वहाँ लोगो ने देखा कि आज जज साहब की बड़ी बुरी हालत है, कोट पैंट आदि में मिट्टी लगी हुई है। साथ के सिपाही लोगो ने उनसे बताया कि आज जज साहब ने एक गधे की कीचड़ में फंसा हुआ देखकर उसके ऊपर दया करके उसे कीचड़ से निकाला है। तो जज साहब बोले कि मैने गधे पर दया नही की, गधे की वेदना को देखकर मेरे हृदय में एक वेदना उत्पन्न हुई, सो उस अपनी ही वेदना को मैनें मिटाया ।
स्वातन्त्र्यसिद्वि मे दृष्टान्तो का उपसंहार ऐसे ही जज की घटना में निमित्तनैमित्तिक सम्बंध था कि वह गधा बच गया । इसी को कहते है निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध। ऐसे ही सभी पदार्थो में निमित्तनैतिक सम्बंध छाया रूप परिणमी । यह छाया निश्चय से चौकी की है, व्यवहार से हाथ की है। यह समस्त प्रकाश निश्चय से इन वस्तुओ का है व्यवहार से लट्टू का है। हम बोल रहे है, आप सब सुन रहे है। लोगो को दिखता है कि महाराज हमको समझाया करते है, लेकिन मै कुछ भी नही समझा पाता हूं, न मुझमें सामर्थ्य हैं कि मैं आपको समझा सकूँ, या आप मेंकोई परिणमन कर दूँ । जैसे अपने भावो के अनुसार अपना हित जानकर अपनी चेष्टा करते है। सुनने आते है, उपयोग देते है और उन वचनों का निमित्त पाकर अपने ज्ञान में कुछ विलास और विकास पैदा करते है, ऐसे ही मैं ही अपने ही मन में, अपने ही विकल्प में विकल्प करता हुआ बैठ जाता हूं, बोलने लगता हूं, और अपनी चेष्टा करता हूं। मै जैसे आप में कुछ नही करता हूं, आप मुझमें कुछ नही करते किन्तु यह प्रमिपादक और प्रतिपाद्यपने का सम्बन्ध तो लोग देख ही रहे है, यह निमित्तनैमित्तिक सम्बंध की बात है।
अन्तःस्वरूप के परिचय से स्वातन्त्र्य का परिज्ञान भैया ! अतःस्वरूप में प्रवेश पाने के बाद वस्तु की स्वतंत्रता विदित होती है। ऐसी स्वतंत्रता विदित होने पर मोह रह नही सकता। कैसे रहेगा मोह? मोह कहते है उसको कि किसी वस्तु को किसी दूसरे की वस्तु मानना। जहाँ स्वतंत्र वस्तु नजर आ रहे है वहाँ सम्बंध कैसे माना जा सकता है, मोह
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ठहर नही सकता है। किसी भी उपदेश के अध्ययन का फल साक्षात् अज्ञाननिवृति है। यह जीव पहिले अपनाए हुए परवस्तु का त्याग करता है यह भी ज्ञान का फल है। जो चीज ग्रहण के अयोग्य है उसे ग्रहण नही करना है,किन्तु मात्र ज्ञाताद्रष्टा रहना है, उदासीन रहना है। उसके फल से उत्कृष्ट फल है उदासीनता का। यो इस ग्रन्थ का भली प्रकार अध्ययन करे। भली प्रकार का अर्थ है अपेक्षा लगाकर ।
स्याद्वाद के बिना मन्तव्यो में विरोध - देखिये विडम्बना की बात, जीव सब ज्ञानमय है और एक पुरूष दूसरे की बात का खण्डन करता है। यह कैसी विडम्बना हो गयी है? जब ज्ञानमय दूसरे जीव है, ज्ञानमय हम भी है तो हम दूसरे के तत्वनिर्णय का खण्डन करे, यही तो एक विडम्बना की बात है। यह विडम्बना क्यों बनी? इसने नयका अवलम्बन छोड़ दिया। दूसरे की बात सुनने का धैर्य रक्खो और उस कहने वाले के दिमाग जैसा अपना दिमाग बनावो और उसे सुनो, दूसरे की बात मानो अथवा न मानो, इसके दोनो ही उत्तर है, मानना भी और न मानना भी, लेकिन दूसरे की बात को हम गलत न कह सके। जिस दृष्टि मे मान लिया और अन्य दृष्टि से वह बात नही मानी जा सकती है। जैसे कोई पुरूष किसी पुरूष के बारे में परिचय बताने वाली एक बात कह दें कि यह अमुकका बाप है, हाँ अमुक का बाबा है, यह दृष्टि बनने पर तो विडम्बनापूर्ण वचन नही हुए, यहाँ कोई दृष्टि छोड़ दे, यह साहब तो बाप कह रहे है, वही विवाद हो जायगा। वह पुरूष किसी का पुत्र है, किसी का कोई है। यदि हम अपेक्षा समझतें है तो वहाँ कोई विसम्वाद उत्पन्न न होगा। अपेक्षा त्यागकर तो विडम्बना बनती ही है। ऐसे ही जीव और समस्त पदार्थो के स्वरूप के बारे में जिसने जो कुछ कहा है उनके दिमाग को टटोले, सबकी बात को आप सही मान जायेगे। लेकिन वे सब परस्पर विरुद्ध तो बोल रहे है, इन सबको सही कैसे मान लोगे? अरे भले ही परस्पर विरूद्व बोले लेकिन जिस दृष्टि से जो कहता है उस दृष्टि से उसकी बात जान लेना है, इसमें कोई विडम्बना की बात नही है।
सम्यग्ज्ञान होने पर कर्तव्य - नयो द्वारा वस्तुत्व को जान लेने पर फिर कर्तव्य यह होता है। कि जो ध्रुव तत्व से सम्बद्व दृष्टि है उसे ग्रहण कर लें और अध्रुव तत्वरूप जो निर्णीत है उसे छोड़ दे और अंत मं ध्रुव और अध्रुव दोंनो की कल्पना हटाकर एक परम उदासीन अवस्था प्राप्त करे। यह है आत्महित करने की पद्वति। इस इष्टोपदेश को भली प्रकार विचारकर आत्मज्ञान के बल से सम्मान और अपमान में समतापरिणाम धारण करना, न राग करना, न द्वेष करना और ग्राम बन जंगल किसी भी जगह ठहरते हुए समस्त आग्रहो को छोड़ देना, मूल सत्य के आग्रह के सिवाय अन्य समस्त आग्रहो का परित्याग कर दे, अन्त में यह सत्य सत्यरूप रह जायगा। सत्य का भी आग्रह न रह जायगा। सत्य का भी जब तक आग्रह है तब तक विकल्प है, भेद है, और जब सत्य का भी आग्रह नही रहता किन्तु स्वयं सत्यरूप विकसित हो जाता है वह है आत्मा की उन्नति की एक चरम
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________________ अवस्था। यह जीव फिर ऐसे ही अनन्त ज्ञानानन्द गुणो से सम्पन्न एक निरूपम अवस्था को प्राप्त कर लेता है। इष्टोपदेश के सम्यक् अध्ययन का फल - इस ग्रन्थ के अध्ययन के फल में बताया है कि अज्ञान निवृत्ति, हेय पदार्थो का त्याग, उपादेय का ग्रहण, फिर परम उदासीन अवस्था- यह क्रमशः होकर अंत में इस निरूपग निर्वाण की अवस्था प्राप्त होती है। साक्षात् फल तो अज्ञान निवृत्त हो गया यह है, साथ ही चूँकि निश्चय और व्यवहारनय से पदार्थो को समझा भी है तो उस ही के फल में बाहा का त्याग करना, ध्रुव निज ब्रह्मास्वरूप में मग्न होकर समस्त रागद्वेष मान अपमान संकल्प विकल्प विकारों को त्याग देना है। अब इसके इस योग साधन के सम्बंध में शत्रु, मित्र, महल, मकान कांच, निन्दा, स्तवन- ये सब समान रूप से अनुभव में आते है। जो पुरूष आत्मा के अनुष्ठान में जागरूक होता है, स्वाधीन, नय पद्वति से निर्णय करके उन सब नयपक्षों को छोड़कर केवल एक ज्ञानस्वरूप में जो अपना उपयोग करता है, वीतराग शुद्ध ज्ञान प्रकाश में मग्न होता हुआ सर्व विकारो से दूर होकर विशुद्व बन जाता है, फिर यह जीव अनन्त ज्ञान जिसके द्वारा समस्त विश्व का ज्ञाता बनता है, अनन्त दर्शन, जिसके द्वारा समस्त अनन्त ज्ञेयो को जानने वाले इस निज आत्मतत्व को दृष्टि में परिपूर्ण ले लेता है। अनन्त आनन्द, जिसके बल में कोई भी आकुलता कभी भी न होगी और अनन्त सामर्थ्य, जिसके कारण यह समस्त विकास एक समान निरन्तर बना रहेगा, ऐसे अनन्त चतुष्टयसम्पन्न स्थिति को भव्य जीव प्राप्त होता है। इष्टोपदेश से सारभूत शिक्षण - इस उपदेश को सुनकर हमें अपने जीवन में शिक्षा लेनी है कि हम अपने को समझें और आत्मधर्म के नाते हम अपने आप में कुछ अलौकिक सत्य कार्य कर जाये, जिससे हमारा यह दुर्लभ नर-जन्म पाना सफल हो। उसकें अर्थ में रागद्वेष निवारक शास्त्रो का अध्ययन करें और सत्संग, गुरूसेवा, स्वाध्याय, ज्ञानाभ्यास इत्यादि उपायो से अपने आत्मतत्व को रागद्वेषो की कलुषतावों से रहित बनाये। यह चर्या हम आपकी उन्नति का प्रधान कारण बनेगी। 231