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________________ रहने दो, तुम उसके ज्ञन की इच्छा और मत करो, फिर आकुलता कुछ नही है। इच्छा न हो ऐसी स्थिति तब बनती है जब कि ज्ञान स्पष्ट हो, इस कारण पदार्थ के स्वरूप का परिज्ञान करके केवल ज्ञाताद्रष्टा रहने का अभ्यास करे और इच्छा न करे तो वह परमात्म स्थिति इसके निकट ही है। स्वंय ही तो परमात्मस्वरूप है, इसकी और आये तो क्लेश दूर हो। इस प्रकार यह योगी परमार्थ एकांत निज आत्मतत्व की ही चाह करता है। ब्रुवन्नपि हि न ब्रूते गच्छन्नपि न गच्छति। स्थिरीकृतात्मतत्वस्तु पश्चन्नपि न पश्यति।।41 || समाधिनिष्ठ योगी का व्यवहार - जिस पुरूष ने आत्मतत्वर को स्थिर कर लिया है अर्थात् जो समाधिनिष्ठ योगी आत्मास्वरूप का दृढ़ अभ्यासी हो जाता है वह प्रयोजनवश कदाचित् कुछ बोले भी, तो बोलता हुआ भी अतः बोल नही रहा है कही जाय वह तो जाता हुआ भी अन्तरंग से जा नही रहा है, कही देखे भी, तो वह देखता हुआ भी देख नही रहा है। आनन्द व धाय में उपयोग - जिसको जहां रसास्वादन हो जाता है उसका उपयोग वहां ही रहता है। जिसे जो बात अत्यन्त अभीष्ट है उस अभीष्ट में ही वह स्थित रहता है। ज्ञानी को ज्ञान अभीष्ट है इसी कारण वह अन्य क्रियाएँ विवश होकर करे तो भी वह अन्य क्रियावो का कर्ता नही है जैसे फर्म के मुनीम की केवल अपने परिवार से सम्बधित आय पर ही दृष्टि है, वहां ही ममत्व है, और जो लाखो का धन आए उसमें ममत्व नही है। तो वह हिसाब किताब रखकर भी, सब कुछ सम्हालता हुआ भी कुछ नही सम्हाल कर रहा है, अथवा जैसे धाय बालक को पालती है, पर धाय का प्रयोजन तो मात्र इतना ही है कि हमारी आजीविका रहेगी, गुजारा अच्छा चेलगा। इतने प्रयोजन से ही उसको ममत्व है। तो वह बालक का श्रृंगार करके भी वस्तुतः श्रृगार नही कर रही है। ऐसे ही जिस ज्ञानी पुरूष को अध्यात्मरस का स्वाद आया है वह प्रत्येक प्रसंगो में चाहता है केवल अध्यात्म का रसास्वादन। जब वह कुछ भी बाहा में क्रिया करे तो भी उन क्रियावो का वह करने वाला नही है। योगीश्वर का व्यवहार - शुद्ध आत्मतत्व का परम आनन्द पा लेने वाले योगी के एक सिर्फ आत्मदृष्टि के अतिरिक्त अन्य सब बाते, व्यवसाय पदार्थ, नीरस और अरूचिकार मालूम होते है, किसी भक्त पुरूष को कहाँ उपदेश भी देना पडे तो वह उपदेश देता हुआ भी न देने की तरह है। कर्मो के उदय की बात वीतराग पुरूषो के भी हुआ करती है। अरहंत, तीर्थकर परमात्मा हो गए, उनको अन्तरंग से कुछ भी बोलने की इच्छा नहीं है, लेकिन कर्मो का उदय इस ही प्रकार का है कि उनकी दिव्यध्वनि खिरती है, उनके उपदेश दिव्यध्वनि रूप में होते है। जब वीतराग परमात्मा के भी किसी स्थिति तक कर्मोदयवश योग होता है, बोलना पड़ता है, यद्यपि उनका यह बोल निरही है और 178
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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