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________________ सर्वागनिर्गत है, किन्तु यह अवस्था आत्मा के सहज नही होती है। तब जो राग सहित है ऐसे योगीश्वर जिनको वीतराग आत्मतत्व से प्रेम किन्तु रागांश शेष है उन्हे कोई अनुरोध करता है तो वे उपयोग भी देते है, अथवा कोई समय निश्चित कर दिया लोग जुड़ जाते है तो बोलना भी पड़ता है, किन्तु वह योगी बोलकर भी न बोलने की ही तरह है। प्रत्येक प्रसंग में आत्महित दृष्टि - जो आत्महित का अभिलाषी है वह अन्तरात्मा अपने उपयोग को यहाँ वहाँ न घुमाकर अपना अधिक समय आत्मचिन्तन में ही लगाते है। उनका बोलना भी इसी के लिए है। वे उपदेश देने के प्रसंग में भी अपने आप में ज्ञान का बल भरतें है। प्राकपदवी में आत्मध्यान के काम में लगने पर भी वासनावश शिथिलता आ जाती है और उपयोग अन्यत्र चलने लगता है तो वह योगी दूसरो को कुछ सुनाने के रूप से अपने आप में अपनी शिथिलता को दूर किया करते है, वे अपनी दृष्टि सुदृढ़ बनातें है। जो जिसका प्रयोजक है, जिसने जो अपना प्रयोजन सोचा है वह सब प्रसंगो मे अपने प्रयोजन की सित जैसे हो उस पद्वति से प्रवृत्ति करता है। ज्ञानी के क्रिया में आसक्ति का अभाव – भैया! स्वपर के उपकार आदि कारणो से उन्हे वचन भी कुछ कहने पडेगे तो बोलते है, पर न बोलने की तरह है। शरीर से कुछ करना पड़े तो करते है, पर न करने की तरह है किसी भी क्रिया में ज्ञानी की आसक्ति नही है, अन्य बातें कुछ भी उनके धार्मिक प्रसंग की बातें है उन बातो को भी वे अन्तरंग रूचि से नही करते है, अर्थात यही मेरा ध्येय है ऐसी उनकी रूचि नही रहती है। किन्तु सहज अंतः प्रकाशमान जो अंतस्तत्व है उसकी सिद्धि के लिए व्यवहार धर्म का पालन करते है । इतनी परम विविक्ता इन ज्ञानी संतो के प्रकट होती है, ये कुछ करते हए भी न करने की तरह है। जो पुरूष आत्मध्यान के अतिरिक्त अन्य क्रियावो में चिर क्षण तक उपयोग नही देते है वे ज्ञानबल से ऐसा बलिष्ट बनते है कि वे आत्मस्वरूप से व्युत नही हो सकते। उनके आत्म शान्ति में किसी भी निमित्त से बाधा न हो सकेगी। सुख दुःखादि की ज्ञानकला पर निर्भरता –' सुख और दुःख दोनो का होना ज्ञान और अज्ञान पर निर्भर है। जो सांसारिक सुख है और दुःख है वे तो अज्ञान पर निर्भर है किन्तु सुखो में परम सुख अथवा शुद्ध आनन्द वह ज्ञान प्रकाश पर निर्भर है। यही बैठे ही बैठे किसी परपदार्थ से थोड़ा सम्बंध की दृष्टि मान ले तो चाहे वह अनुकूल हो और चाहे प्रतिकूल हो, दानो ही स्थितियो में सम्बधं बुद्वि वाला पुरूष दुःखी होगा। संसार के सभी जीव अपना दुःख लिए हुए भ्रमण कर रहे है। वे दुःखो को त्यागकर विश्राम से नही बैठ पाते है ज्ञान बिना सारा साज श्रृंगार, बडप्पन, महत्व, व्यापार, व्यवसाय चटकमटक सब व्यर्थ है। किसे क्या दिखाना है, कौन यहाँ हमारा प्रभु है जिसको हम अपना चमत्कार श्रृंगार साज धाज बताएँ? यह जो हमारा अमूर्त आत्मा है उसे तो कोई जानता नही। जो ये 179
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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