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लोकदृष्टि की प्राकृतिकता - जो मन लगाकर खाये उसको भक्ति पूर्वक खिलाने का भाव नही होता है, जो मन न लगाकर खाये उसको सभक्ति खिलाने को भाव होता है। यह सब विशेषता है । जो मन लगाकर नही खाते है उनको ही साधु कहते है । उनको आहार दान देने में उत्सुकता गृहस्थ जनों को रहती है, यदि कोई मौज मानकर खाये तो गृहस्थ का परिणाम खिलाने में बढ़ नही सकता है, मन हट जायगा, यह प्राकृतिक बात है। जैसे गृहस्थजन भी भोजन के लिए मना करते जाएँ तो खिलाने वाले मनाकर खिलाते है, और लाओ - लाओ कहें तो परोसने वाले के उमंग नही रहती है। ऐसे ही जो जगत से उपेक्षा करके अपने स्वरूप की और मोड़ करते है उनकी सेवा में जगत दौड़ता है और जो जगत की और मुख किए हुए है उनकी और से यह जगत मुड़ता है।
ज्ञानी का तात्विक उद्यम यहाँ यह कहा जा रहा है कि यह योगी ज्ञानी पुरूष चूँकि एक अलौकिक आनन्द का अनुभव ले चुका है। अपने आपके स्वरूप में, इस कारण उसकी प्राप्ति के लिए ही इसका उद्यम होता है और यह निर्जन स्थान में पहुंचना चाहता है। इस आत्मध्यान के प्रताप से मोह दूर हो जाता है, और जहाँ सबको मन में बसाये रहें तो यह मोह कष्ट देता रहता है, छुट्टी नही देता है। विविक्त निःशक शुद्ध ज्ञानप्रकाश जो है वह सर्व संकटो से मुक्त है, उसके ध्यान से ये मोह राग द्वेष बिल्कुल ध्वस्त हो जाते है ।
आत्मनिधि के रक्षण का पुरूषार्थ - भैया! सब कुछ न्यौछावर करके भी ज्ञानानुभव का आनन्द आ जाय तो उसने सब कुछ पाया है। सब कुछ जोड़कर भी एक ज्ञानस्वरूप का परिचय नही हो पाया तो उसने कुछ नही पाया है। लाखो और करोड़ो की सम्पत्ति भी जोड़ ले तो भी एक साथ सब कुछ छोड़कर जाना ही पड़ता है, और ज्ञानसंस्कार, ज्ञानदृष्टि शुद्ध आनन्द की प्राप्ति कर लेना ये सब शरीर छोड़ने पर भी साथ जाते है। जो ज्ञान और आनन्द की निधि है वह कभी छूटती नही है। जो आत्म की निधि नही है वह कभी आत्मा के साथ रहती नही है। गुरू परम्परा में बतायी हुई पद्वति के अनुसार जो आत्मस्वरूप का अभ्यास करता है वह योगी ध्यान के जो भी साधन औश्र स्वरूप है उनका साक्षात्कार करता है अर्थात् जिस समय आत्मस्वरूप के चिन्तन में यह योगी लीन हो जाता है उस समय उसे संसार का कोई भी पदार्थ, अपने प्रयोजन का कोई भी तत्व समझिये इसे अदृश्य हो जाता है ।
ज्ञानस्वरूप के आश्रय का प्रसाद – जो अपने ज्ञान को बाह्रा पदार्थों की ओर जानने के लिए लगाए उसके ज्ञान का विकास नही होता है और जो बाह्रा पदार्थो से हटकर केवल अपने केन्द्र को ही जानने का यत्न करे तो स्वयं ही ज्ञान का एक ऐसा विकास होता है कि यह लोकालोक समस्त एक साथ स्पष्ट विज्ञान होने लगात है। आनन्द में बाधा देने वाली दो बाते है- एक तो ज्ञान न होना, दूसरी इच्छा बनाना । जब किसी वस्तु का ज्ञान नही है और इच्छा बनी हुई है तो आकुलता होती है। किसी वस्तु का ज्ञान नही है तो न
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