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________________ शुद्व जो चिदानन्दस्वरूप है उसका आवरण करने के लिए है। उन विकल्पो से यह दूर रहना चाहता है। अन्तस्तत्व के रूचिया का अन्त आश्रय विकल्पो से निवृत्ति के अर्थ ही वह निर्जन स्थान में रहने की अभिलाषा करता है, क्योकि साधन सामने रहे तो वे विकल्पो के निमित्त बन सकते है इसलिए उन समागमो को ही छोड़कर किसी निर्जन स्थान में यह रहने की चेष्टा करने लगता है, करता है, परन्त सदा एकांत मे रह जाना बड़ा कठिन है। क्षुधा, तृषा की वेदना का कारणभूत शरीर साथ लगा है उसकी वेदना को शान्त करने के लिए कुछ समागम होना ही पड़ता है। ये योगी क्षुधा की शान्ति के लिए नगर में भिक्षावृत्ति करते है, अथवा कभी किसी से वचनालाप का प्रसंग होता है तो अवसर पर बोल देते है। बोलने के बाद फिर उन सबका यह विस्मरण कर देता है। क्या - क्या चीजें स्मरण में रक्खे, किन्ही परपदार्थो को अपने उपयोग में बसाये रहने का क्या प्रयोजन है? कौन सा कर्ज चुकाना है, कौन सी आफत हे जिससे वह बाह्रा पदार्थो को अपने उपयोग में रक्खे, नही रखना चाहता है। - वृत्ति की प्रयोजनानुसारिता लाख बात की बात तो याद रहती है और सब प्रयोजनो की बात याद नही रहती है। जैसे गृहस्थजनों को, व्यापारियो को गृहस्थी और व्यापार की बात बहुत याद रहती है, कैसा थान है, कहां धरा है, कैसा रंग है, कैसी क्वालिटी का है, सारा नक्शा अब भी खिचं सकता है, सब चीजो को भाव ताव याद रहता है। देखने की भी जरूरत नही है, शक्ल देखकर बता देते कि यह इस भाव का है। तो उस बाह्रारूचिक गृहस्थो को व्यापारियो को ये सब बातें तो याद रहती है पर धर्म की बातें या ज्ञान सीखतें है तो याद नही रहती है, ठीक है, अंत में यह ज्ञान ही प्रयाजन हो जायगा। अभी तो गृहस्थी के जंजाल का प्रयोजन है, उसकी सुध बहुत रहती है, धर्म और ज्ञान की सुध नही रहती है। जब विवेक जगेगा, जब यह उपयोग कुछ मोड़ खायगा, तब इस जीव को ज्ञान की सुध बनेगी, अन्य सब बातें भूल जायेगी। - -- अप्रायोजनिक विषय का विस्मरण खाने के लालसांवंती को कितना याद रहता है कि कल क्या खाना है? जो कल खाना है उसका साधन अभी से ही जुटाते है, ज्ञानीसंत पुरूष भोजन करते है, पर उन्हें भोजन की कुछ याद नही रहती है। भोजन के समय तो चूँकि उनके पास विवेक है सो उसकी बात समझने के लिए याद रखना पड़ता है, पर प्रयोजन एक ज्ञान का साधुओ का ही है, इस वजह से भोजन करते हुए में भी भोजन के स्वाद में वे मौज नही मानते है क्योकि उनका उपयोग ज्ञान की और लगा हुआ है। भोजन करते जा रहे है पर वे उसके ज्ञाना द्रष्टा रहते हे । 176
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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