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________________ वे सब केवल व्यवहार में स्वार्थ बुद्वि से रंगे हुए इस जन्म में ही साथी हो सकते है। कोई भी कभी मेरी विपदा में रच साथ नही दे सकता है। ऐसी समझ द्वेष के लिए नही करना कि ये कोई साथी नही है, क्यो द्वेष करना? क्या तुम हो किसी के साथी? जब तुम किसी के साथी नही हो तो कोई दूसरा तुम्हारा साथी कैसे हो सकता है? यह तो वस्तुस्वरूप ही है। यह द्वेष के लिए समझ नही बनाना, किन्तु उपेक्षा परिणाम करने के लिए ध्यान बनाना है। व्यामोहवृत्ति - यह मोही आत्मा अपनी भूल से ही इन परजीवो को अपनी रक्षा का कारण समझता है। ये मेरी रक्षा करेंगे। कहो समय आने पर जिसका विश्वास है वही विपदा का कारण बन जाए। लेकिन मोह में जो दिमाग मे आया, क्योकि शुद्ध मार्ग का तो परिचय नही है सो अपनी कुमति के अनुसार दूसरो का रक्षक मानता है और उन्हे त्यागने में भय मानता है मै इस रक्षक का त्याग कर दूँ तो कही मेरा गुजारा न खत्म हो जाय ऐसा भय मानता हे और कभी वियोग हो जाय, होता ही है, जिनका संयोग हुआ है उनका वियोग नियम से होता है। तब यह अज्ञानी बड़ा क्लेश मानता है। अज्ञान की कष्टरूपता - जो संयोग में हर्ष मानते है उनको वियोग में कष्ट मानना ही पड़ेगा। जो संयोग के समय भी वियोग की बात का ख्याल रखते है कि जिनका संयोग हुआ है उनका वियोग अवश्य होगा, तो उनके संयोग के समय भी आकुलता नही रहती और वियोग के समय भी आकुलता नही रहती। यह मोही जीव जब अपने अभीष्ट का वियोग देखता है तो यह व्याकुल होने लगात है। अज्ञान दशामें कही जाय तो इसे कष्ट है, क्रोध में रहे तो भी अज्ञान से कष्ट है। गृहस्थी त्यागकर साधु संन्यासी का भी भेष रख ले तो वहां भी कष्ट है कष्ट किसी परिस्थिति से नही होता है किन्तु अपने अज्ञान भाव के कारण कष्ट होता है, और शुद्ध ज्ञान होने पर कष्ट मिट जाता है, यह अपने में विवेक जागृत करता है। विवेक क्या है? विवेचन करने का नाम विवेक है, अलग कर लेने का नाम विवेक है। विवेक शब्द का अर्थ ही अलग कर लेना है। अपने आपको समस्त परपदार्थो से विविक्त देखना, अपने एकत्वस्वरूप को आकना यही वास्तविक विवेक है। , विवेक वृत्ति - जब यह जीव विवेक उत्पन्न करता है, मै अकेला ही हूं, मेरा कोई दूसरा साथी नही है, मै मेरे द्रव्यत्व और अगुरूलघुत्व स्वरूप के कारण अपने आप में ही निरन्तर परिणमा करता हूं। जो भी परिणति मुझमें होती है, सुख हो अथवा दुःख हो, इन सबका मै अकेला ही कर्ता और भोक्ता हूं। दूसरे जन मेरी ही भांति अपना मतलब चाहते है इन समागमो में रहना कष्टदायी मालूम होने लगात है। अपने आत्मस्वरूप से चिगकर किसी बाहा की और विकल्प करना पड़े इसे यह कष्ट मानता है। क्यो विकल्प किया जा रहा है? कुछ हित की सिद्वि है क्या इसमें? वे सब विकल्प मेरे प्राणघात के लिए है अर्थात् 175
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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