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________________ वाले योगी को अब किसी भी समागम में रहने की चाह नही रहती है, वह तो एकान्त वास का अनुरागी है। अज्ञानावस्था की वात्रछाये - अज्ञान अवस्था मेंयश और कीर्ति की चाह हुआ करती है कि मेरा लोक में बड़प्पन रहे, इस अज्ञानी को यह विदित नही है कि जिन लोगो में मै बड़ा कहलाना चाहता हूँ वे लोग स्वयं दुःखी है, अशरण है, मायास्वरूप है- यह भान नही रहा, इसी कारण इन मायामयी पुरूषो में ये मायामयी पुरूष यश के लिए होड़ लगगा रहे है। दुःख और किस बात का है धन मे लोग बढ़ना चाहते है वह भी यश के लिए । यश की चाह अन्तर में पड़ी है तो नियम से जानना चाहिए कि उसके अज्ञानभाव है। जो कारण समयसार है, जो निज मूल शुत चिदात्मक तत्व है उसका परिचय नही हुआ है इस कारण दर दर पर इसे परपदार्थो से भीख मांगनी पड़ती है। योगीश्वरो का आदर्श - यह ज्ञानी पुरूष निर्जन स्थानो में एकांत का संवास चाहता है। उसे प्रयोजन नही रहा किसी समागम मे रमने का और आदरपूर्वक चाहता है। ऐसा नही है कि संन्यासी हो गया है इस कारण अलग रहना ही पड़ेगा। घर बसाकर तो न रहा जायगा ऐसी व्यवस्था नही है किन्तु आस्थापूर्वक वह एकान्त स्थान चाहता है। यह उन्नति के पद में पहुंचने वाले योगियो की कथा है। उन्होने निकट पूर्व काल में जो मार्ग अपनाया था, ज्ञान किया था वह ज्ञान हम आप सब श्रावकजनो के करने योग्य है, जिस मार्ग से चलकर योगी संत महान् आत्मा हुए है, वे चलकर बताते है, कि इस रास्ते से हम यहां आ पाये है, इसी उत्कृष्ट पथ से चलकर तुम अपने आपके उत्कृष्ट पद को पा लो। अज्ञान और उद्दण्डता- बेवकूफी और धूर्तता – इन दो ने जगत के जीवो को परेशान कर दिया है। बेवकूफी तो यह है कि पदार्थ का यथार्थ स्वरूप न विदित हुआ और एक का दूसरे पर अधिकार सम्बन्ध दीखने लगा। यह तो है इसका अज्ञान और इतने पर भी अपने को महान् माल लेना। कोई छोटी बिरादरी का हो तो वह भी अपने को छोटा स्वीकार नही कर सकता है, कोई निर्धन हो वह भी अपनी दृष्टि में अपने को हल्का नही मान सकता है। एक तो अज्ञान रहा और अज्ञान होने पर भी अपने में बड़प्पन की बुद्धि रहे, जिससे अभिमान बने और भी प्रतिक्रियाये करने का यत्न होना यह है इस मोही जीव की धूर्धता । अज्ञान ही होता, सरल रहता ता भीअधिक बिगाड़ न था, किन्तु अज्ञान होने पर भी अपने आप में बड़प्पन स्वीकार करना यह और कठिन चोट है, इससे परेशान होकर यह जीव चौरासी लाख योनियो में भटक रहा है। जीव का सर्वत्र एकाकीपना – यह जीव अकेला ही जन्ममरण करता है, सुख दुःख भोगता है, रोग शोक आदि वेदनाएँ पाता है, स्त्री पुत्रादि को लक्ष्य में लेकर यह अपने रागद्वेष और मोह का विस्तार बनाया करता है, यहां कोई भी इस जीव का साथी नही है। 174
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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