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________________ धर्मका आधार भैया ! धर्म मिलेगा तो स्वयमें ही मिलगा। बाह्रा में जो भी आदर्श है, पूज्य है वे इस आत्मानुभवके मार्गके निर्देशक है, इस कारण उनकी भक्तिसे एक शुद्व आनन्द मिलता है और अपने आपमें जो स्थिति उत्पन्न करना चाहतें है, यह योग जिन्हे प्रकट हुआ है उनमें अपूर्व बहुमान स्तवन, उपासनाका अपूर्व भाव होता है। जिसे जो आनन्द मिल गया है वह जैसे मिलता है उस ही उपायमें लगता है। जहाँ आनन्द नही है ऐसे साधनोसे हटता है । सब ज्ञानका माहात्म्य है। जब तक इस जीवको अपने आत्माका और परपदार्थोके यथार्थ स्वरूपका बोध नही होता है तब तक यह अपनी ओर आये कैसे और परसे हटे कैसे? 1 वस्तुस्वरूपके प्रतिपादनकी विशेषता जैन शासन मं सबसे बड़ी विशेषता एक वस्तुस्वरूपके प्रतिपादन की है। जीवको मोहही दुःख उत्पन्न करता हे। वह मोह कैसे मिटे, इसका उपाय वस्तुस्वरूपका यथार्थ परिज्ञानकर लेना है। जगतमें अनन्तानन्तें तो आत्मा है, अनन्तानंत पुद्गल परमाणु है- एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य एक आकाशद्रव्य और असंख्यात काल द्रव्य हे। इनका जो परिणमन है वह कही सूक्ष्म परिणमन है और कही स्थूल परिणमन है पर इन परिणमनोमें सर्वत्र एक रूप रहने वाले जो मूल पदार्थ है, जो अनेक दशावोमें पहुचं कर भी एक स्वभावरूप रहें वही समस्त परिणमनोका मूल कारण है। जैसे कि जो चिदात्मक गुणपर्याये है उन सृष्टियोका कारण यह चित्स्वरूप है और जितने जो कुछ ये दृश्यमान है इन दृश्यमान समस्त पदार्थों का मूल कारण अणु है । उस परमाणुमें भी परमाणु अकेला रह जाय तब भी परिणमन चलता है। उस परिणमनसे परिणत अणुको कार्य अणु कहते है और यह वह परिणमन जिस आधार में होता है उसे कारण अणु कहते है । — मूल पदार्थका मोहियोको अपरिचय इन जीवो ने इन द्रश्यमान पदार्थो का मूल कारण नही जान पाया और न यह समझ पाया कि ये प्रत्येक पदार्थ अपनेमें ही अपनेको अपने लिए अपने द्वारा रचतें रहतें है । किसीके विभाव परिणमनमे अन्य द्रव्य निमित्त होते है, किन्तु कोई भी निमित्तभूत परपदार्थ उपादानमें किसी परिणतिको उत्पन्न नही करते है। ऐसी वस्तुस्वरूपकी स्वतंत्रता एक सूत्रमें ही कह दी गई है- उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत् । जो भी है वह निरन्तर नवीन पर्यायसे परिणमता है, पुरातन पर्यायको विलीन करता है और वह स्वंय कारण रूपमें घ्रौव्य बना रहता है । यो जब आत्मा के स्वरूप का भान होता है तो यह निर्णय होता है कि किसी भी पदार्थ का कोई पदार्थ कुछ नही लगता है। सर्व पदार्थ अपने अपने स्वतंत्र स्वरूप को लिए हुए है, ऐसा भान होने पर जो परपदार्थ से सहज उपेक्षा होती है और उस उपेक्षा से जो अपने आपके स्वभाव में झुकाव दृढ़ हुआ और एकत्व की दृष्टि बनी उसमें जो आनन्द प्रकट होता है। वह अलौकिक आनन्द है । उसका अनुभव कर चुकने 173
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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