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________________ मेरा और मै का निर्देश मुझे तो मेरा मै चाहिए अन्य कुछ न चाहिए, इस ही का नाम है योग धारण । योग मायने जोड़। मेरा मै बिछुड़ा हुआ हूं, इसका जोड़ कर दीजिए । मेरेको मै मिल जाय यही है योग । जिसको मेरा कहा जा रहा है वह तो है उपयोके रूपमें ओर जिसे मै कहा जा रहा है यह है परम पारिणामिक भावमय अंतस्तत्वके रूपमें । यह उपयोग कह रहा है कि मेरा मै मिल जाय । मेरा जो आधारभूत है जिसपर मेरी स्पृहा चलती है, जिसपर मै अपना चमत्कार दिखा पाता हूं, अपना जौहर दिखाया करता हूं ऐसा मेरा नाथ शरण मुझे मिल जाय यही मेरा नाथ है। न अथ । अथ मायाने आदि । जिसकी आदि नही है उसे नाथ कहते है । यह उपयोग यह परिणमन तो सादि है । जिसकी कुछ आदि हो उसकी क्या वखत करूँ। जिसकी आदि नही है उसकी वखत है। नई फर्म खुली हो किसीके नामपर तो उसका कुछ असर नही होता और पुरानी फर्म हो तो लोग बदलते नही है। उसे चाहे पोते और सन्तेमें भी बाँट हो। लोग सोचते है कि पुरानी फर्मका नाम न बदले, नही तो फिर ठिकानेकी सम्भावना नही है। जिसका आदि नही है ऐसा मेरा नाथ वही विश्वास के योग्य है। जिसकी आदि है वह मिट जायगा । ऐसे परिणमनोपर इस ज्ञानीका उपयोग नही थमता है। यह तो एक अंतस्तत्वके लाभ के लिए स्पृहा करता है। ज्ञानी का परोपयोगमें अनुताप यह अज्ञानी योगी अपने आत्ममिलनके लिए उद्यत है फिर भी पूर्व वासनावश उससे डिग जाय और किन्ही बाह्रा अर्थो मे लग जाय तो उसे ऐसा पछतावा होता है कि इतने क्षण हमने व्यर्थ में विकल्पोमे लगाये। ज्ञानी जन कभी उपवास करते है तो उस उपवास का उनके लक्ष्य क्या है? उस आहारके प्रसंग में जो पौन घंटेका समय लग जाता है उस समयमें जो आत्मतत्वसे चिगनेका विकल्प बनता है उसका वे पछतावा करते है निराहार रहने में वे खुश है, पर आत्मातत्वके उपयोगसे चिगनमें वे खुश नही है, इसलिए उनका आहार छूट जाता है, वे निराहारी हो जाते है । अज्ञानसे व्यवहारधर्ममें भी कर्तृत्व बुद्वि- इस आहारत्यागमें धर्म लग जायगा, पुण्य बंध जायगा, मुझे उपवास करना चाहिए ऐसा सोचना विकल्पमूलक उपवास है। एक झंझट से बचे और अपने आत्मलाभमें लगे ऐसी दृष्टि ज्ञानी पुरूष के होती है अज्ञानी तो उपवासमें क्षोभ बढाता है, एक दिन पहिले क्षोभ किया, जब उपवास किया तब क्षोभ, अंतमें क्षोभ किया। किसीने कई उपवास किया तो शरीर के कमजोर होते हुए भी यह कहता है कि भाई हमें तो कुछ भी नही कठिनाई मालूम पड़ रही है? हम ता बड़े अच्छे है ऐसे मायाचार को बढ़ावे तृष्णाको बढ़ावे क्रोधको बढ़ावे घमंडको बढ़ावे इसी सभी चीजें बढ़ाने का ही वास्तवमें उसने कार्य किया, कुछ अपने हितका कार्य नही किया । ज्ञानी अर्न्तदृष्टि - ज्ञानी पुरूष की दृष्टि को ज्ञानी ही कूत सकता है, अज्ञानी नही कूत सकता है। गृहस्थ ज्ञानी यदि यथर्थादृष्टि है तो गोदमें बालकाको खिलाकर भी सम्बर और निर्जरा उसक बराबर चलती रहती है। कैसी है उसकी दृष्टि ? वच्चे को खिलाता हुआ 170
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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