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________________ प्रयोजन वहीका वही रहता है जो अचेतनको मिलता है, इससे अधिक कछ नही है। यह जीवज्ञानरूप परिणमात है तो ज्ञानरूप परिणमनेका फल ज्ञान ही रहता है, इससे अतिरिक्त कुछ फल नही है। जो और कुछ फल खोजा जाता है वह सब मोहका माहात्म्य है। वस्तुतः अपनी सत्ता कायम रखनेके लिए ही पदार्थ परिणमन करते है। जैसे यह चौकी है, इसको कोई ल दे तो क्या हो गया इसका? इसका ही यो परिणमना हो गया।। न भी कुछ करे तो भी यह जीर्ण हाती जा रही है, परिणमती जा रही है। किसी भी रूप परिणमें, इन परिणमनोका प्रयोजन इतना ही मात्र है कि परमाणुवोंकी सता बनी रहे, अब कोई भी चीज किसी भी प्रकार परिणमें उसका प्रयोजन यह मोही जीव अपनी कल्पनाके अनुसार बना लेता है। योगीकी आत्मस्पृहा - यह समस्त जगत इन्द्रजालकी तरह है। इन सवबो यह योगी शान्त कर देता है। इस सारे जगत्को यह रोगी ओझल कर देता है अपने उायोगसे और होता क्या है कि अंधकार में सर्व पदार्थ औझल हो जाते हे। रहो, किसी प्रकार रहो। अब योगीके लिए यहाँ कुछ भी नही है, यो इन्द्रजालकी तरह इन समस्त पदार्थोको यह ज्ञानी अपने उपयोगसे ओझल कर देता है। अब ज्ञानीके केवल आत्माकी ही स्पृहा रहती है और यह अंतस्तत्व ही उसके प्रोग्राममें, लिस्टमें रह जाता है। ये योगी केवल आत्मालाभकी स्पृहा करते है। मेरा आत्मा मेरेको मिले, ये भिन्न असार पदार्थ, इनका मिलना जुलना सब खतरेसे भरा हुआ है कोई रूच गया राग तो क्या वह कुछ बढ़वारीके लिए है? कोई अनिष्ट जंचा, द्वेष किया वह भी बरबादीके लिए है। मेरा शरण, रक्षक यह मेरा आत्मा मेरेको प्रकट हो, और मुझे कुछ न चाहिए। आत्मालाभकी आकांक्षा - जैसे कोई जबरदस्त मुसाफिर किसी कमजोर मुसाफिरको | झगड़ा बढ़ जाय तो वह कमजोर मुसाफिर यही कहता है कि बस मेरी चीज दिला दो, मुझे और कुछ न चाहिए। वह अपनी मांग करता है, यो ही यह बना बनाया गरीब एक बड़े फंद और बिडम्बनामें पड़ गया है। कहाँ तो यह अमूर्त निर्लेप ज्ञानमात्र अंतस्तत्व उत्कृष्ठ पदार्थ है और कहाँ यह सुख दुःख पर्याय, कल्पना, शरीर इनमें बँधा फिर रहा हैऔर अपने राग की जिस विषय में ममता की है उस विषयके पीछे-पीछे भटकता फिरता है। जैसे बछड़े वाली गायको हांकना नही पड़ता है यदि उसके बछड़ेको कोई गोदमें लेकर चलता जाय आगे, वह गाय उस बछड़ेके पीछे-पीछे हीडत्रती भागती चली जायगी। अपनी विपदाको भी वह न देखेगी, ऐसे ही यह मूढात्मा अपने रागका जो विषय बनाता है उस विषके पीछे यह आत्मा दौड़ता भागता फिरता है। न अपनी विपदाको देखता है, न अपनी बरबादीका ख्याल है। ऐसा यह मोही जीव संसार-भ्रमणमें गोते लगा रहा है, किन्तु यह ज्ञानी पुरूष एक आत्मलाभकी ही स्पृहा करता है। 169
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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