SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भी यह ध्यान बना है कि कहाँ इस झंझट में लग गए है, न जाने अभी कितने वर्ष तक इस झंझट में लगना पड़ेगा, ऐसी भीतरमे धारणा हे उस ज्ञानीके। अज्ञानी तो यो देखेगे कि यह कैसा बच्चोसे मोह रखता है। अरे वह बच्चेको खिलाये नही तो क्या गड्ढे मं पटक दे करना तो पड़ेगा ही सब कुछ जैसे कि लोग करते है, पर उसकी दृष्टि अंतरमें इतनी विशुद्व है कि उन कामोंमे रहकर भी उसके सम्वर और निर्जरा बराबर चलती रहती है। आत्मलाभकी इतनी विकट स्पृहा ज्ञानी पुरूषमें ही होती है। सजग वैराग्य - जिसको वैराग्य ज्ञानसहित मिल गया है उसका वैराग्य आजीवन ठहरात है। ज्ञानके बिना वैराग्य मुद्रा बनाना, यह तो लोकप्रतिष्ठा, बढावा आदिके लिए है। वैराग्य टिक सकेगा या नही- यह तो ज्ञान और अज्ञान पर निर्भर है। ज्ञान बिना वैराग्य में विडम्बनाएँ बढ़ जाती है और वह वैराग्रूकी नही निभा पाता है और लोग भक्त भी ऊब जातें है, यह सब उसके एक अज्ञानका फल है। ज्ञानी पुरूष तो आत्मलाभके लिए स्पृहा रखता है अन्यत्र कही उपयोग जाय तो पछतावा करता है, ओह इतना समय मेरा व्यर्थ गया? ज्ञानी का साहस एक विलक्षण साहस है, और साहस भी क्या है? जो चीज छूट जायगी उसको अभीसे छूटा हुआ मान लेना है, और छूटा हुआ माननेके कारण उपेक्षा बन जाय और कभी थोड़ी हानि हो जाय, तो उसका खेद न आए तो इसमे कौनसे साहसकी बात है? इतना ही फेर रहा कि जो 10 वर्षके वाद छूटना था उसको अभी से छुटा हुआ देख रहे है। इतना ही किया इस ज्ञानीने, और क्या किया, पर मोही पुरूषोकी दृष्टि में यह बड़े साहस भरी बात है। अज्ञानी और ज्ञानीकी दृष्टि में साहसका रूप - भैया ! साहस तो अनात्मीय चीजको पानेमें करना पड़ता है। जो चीज अपनी नही है उसे कल्पनामें अपनी ओर उसे जोड़ना धना, रक्षा करना इसमें साहस करना पड़ता है। अपने आपकी वस्तुको अपने आपमें उतानाना इसमें न साहसकी बात है? लेकिन अज्ञानियों को ज्ञानियो की करतूतमें बड़ा मालूम हातो है। ज्ञानी सोचता है कि ये संसारी सुभट बड़े साहसी है। जिन परिजन, मित्रो और जड़ सम्पदावोसे इन्हे कष्ट मिलता है उनको सहकर उन्ही के प्रति इच्छा, वाञछा और यत्न बनाए रहते है, इतनी हिम्मत तो हमसे नही हो सकती, ऐसे ही अज्ञानियोको ज्ञानियो की क्रियावोमें बड़ा साहस मालूम होता है। ओह! ये योगी जन कैसा इस समस्त जगतको इन्द्रजालकी तरह निरखतें है, कितनी इन्हें आत्मस्ववरूपके प्रति अभिलाषा है। जालमें विविधरूपता - जालमें विविधता होती है, और जो जाल नही, एकत्व है उसमें विविधता नही होती है। जैसे मकड़ी जाल बनाया करती है तो वह जाल एक लाइनसे नही बनता है। गोल मटोल, लम्बा चौड़ा, संकरा, नाना दशावोरूप होता है - व्यञजन पर्याय और एक व्यञजन पर्यायमें भी भिन्न भिन्न क्षेत्र में विभिन्न परिणमन पर्याय । यह शरीर एक है, पर पैरमें जो परिणमन है वह सिरमें नही है, किन्तु जो जाल नही है, 171
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy