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फिर भी ये जब मिलते है तो नयेसे लगते है। ज्ञानी पुरूष चिन्तन कर रहा है कि अब उन जूठे भोगो में मुझ ज्ञानीकी क्या स्पृहा हो? अनादि कालसे मोहनीय कर्म के उदयवश सभ पुद्गलोंको मुझ संसारी जीव ने बार-बार भोगा और भोग करके छोड़ दिया। अब कुछ चेत आया है, अब मै विवेकी हुआ हूँ, शरीर आदिकके स्वरूपको भली प्रकार जानकर अब उन जूठे भोजनमें, गधं आदिक पदार्थो मे अब मेरे भोगनेकी क्या इच्छा हो?
आत्मीय आनन्दकी अपूर्वता - भैया ! जब तक किसी को निरूपम आनन्दका अनुभव नही हो लेता तब तक विषयोकी प्रीति नही छूट सकती। इसे तो आनन्द चाहिए। वर्तमान आनन्दसे अधिक आनन्द किसी बातमें हो तो इसे छोड़ देगा, बड़े आनन्द वाली चीज ग्रहण करेगा। मोह दशामें पदपदार्थो की और बुद्वि होने के कारण इस जीवको अपने आत्मस्वरूप्में रूचि नही है और न यह विकल्पोंका बोझा हटाना चाहता है। विकल्पोंका ही मौज मानता है। मोह बढाकर, ममता बढ़ाकर, राग बसाकर यह जीव अपनेको कुशल और बड़ा सुखी मानता है, फिर इसे आत्मीय सत्य आनन्द कैसे प्राप्त हो? जो बड़े स्वादिष्ट पदार्थोका सेवन करने वाला है उस पुरूष को जूठा खाने में कोई अभिलाषा नहीं होती। जूठे पदार्थोको मनुष्य घृणाकी दुष्टि देखते है। तो यो ही यह समझो कि ये रमणीक समस्त पदार्थ अनेक बार भोग लिए गए वे झूठे है। उनमें मुझ ज्ञानीकी क्या इच्छा हो?
स्पर्शनेन्द्रियविषयकी अरम्यता - भैया ! कुछ निर्णय तो करो कि कौनसा विषय ऐसा है जो हितकारी हो, जिसमें रमण करना हो? कोई भी विषय नही है। यह कामी पुरूष कामवासवनाके वश होकर शरीरकें रूपको बहुत रमणीक मानता है। मगर रूप क्या है? अरे थोड़ी सी देरमें नाक निकल पड़े तो बड़ा सुन्दर जंचने वाला रूप भी किरकिरा हो जाता है, घृणा आने लगती है। जिसे जानते है कि यह बहुत अच्छी छवी है, क्रान्ति है, रूप है, सुडौल है, और जरा नाकमल बाहर निकल आये, थोड़ा ओठोसे भिड़ जाय और इतना ही नही, कुछ अंदाज भी हो जाय तो वहाँ फिर रति नही हो सकती। घृणा होने लगती है।
शरीर की असारता - अहो, कर्मोने तो मानो इस अपवित्र मनुष्य शरीरको इसलिए बनाया कि यह जीव विरक्त होकर अपने आत्महितके मार्गमें लगे। भीतर से बाहर तक सारा शरीर अपवित्र ही अपवित्र है। जैसे केलेके पेड़में सार नही रहता, उसे छीलते जावो तो पत्ते निकलते जायेगे, सब खत्म हो जायेगे, पर सारकी बात कुछ न मिलेगी। जैसे वह केले का पेड़ असार है ऐसे ही जानो कि इस शरीर में कुछ सार नही है। अपवित्र वस्तुओंको सबको हटा दो फिर क्या मिलेगा देहमें बहुत अन्दरसे बाहर तक अपवित्रता ही अपवित्रता नजर आती है इस शरीर में। भीतर हड्डी, फिर मांस, मज्जा, खून, चमड़ा, रोम है। कही कुछ भी तत्वकी बात नही मिलती है। यदि कुछ तत्वकी बात मिलती हो तो बताओ, पर मोह का ऐसा नशा है इस जीवपर कि जो असार है, जिस शरीर में कुछ सारकी बात नही
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