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________________ है, अपवित्र ही अपवित्र है पूरा और फिर भी इस शरीर को निरखकर मोही पुरूष कुछ कल्पना बनाकर मौज मानते है। नर देहमें जुगुप्सा और असारता - भैया! पृथ्वीमे, वनस्पतिमें इनमें तो कुछ सार मिल जायगा, जितने ये काम आ रहे है पृथ्वी और वनस्पति प्रयोगमें आ रहे है, पर यह मनुष्यका शरीर किसी काम आता है क्या? मर जानेके बाद बड़ी जल्दी जलावो ऐसी लोगोको आकुलता हो जाती है। देर तक मुर्दा न रहे, कोई लोग तो यह शंका करते है कि देर तक मुर्दा रहने से घरमें भूत न बस जाय। कोई अपवित्र दुर्गन्धित वातावरण न हो जाय, इससे डरतें है, उसका मुख भयानक हो जाता है सो उससे डरते है। घरके ही लोग उस मुर्देकी शक्ल भी नही देख सकते है, छुपते है। किस काम आता है यह शरीर, सो बताओ? इस शरीर से भले तो उपयोग की दृष्टि से पृथ्वी और वनस्पति है, इनका फिर भी आदर है, हीरा-जवाहरात, सोना-चांदी ये सब पृथ्वी ही तो है, इनमें भी जीव था, अब जीव नही रहा तो मुर्दा पृथ्वी है, किन्तु इस मृतक पृथ्वी का कितना आदर है? वनस्पतियो में काठ आदि का कितना आदर है, कितनी ही उस पर कलात्मक रचनाएँ की जाती है पर मनुष्य शरीर का क्या होता है, क्या आस्था है इसकी, कौन रखता है इसे? शरीर की कृतघ्नता – यह शरीर प्रीति के योग्य नही है और फिर अपने आपके शरीर को भी कह लो, यह शरीर भी प्रीति के योग्य नही है, इसे आराम से रखो, कही इसे कष्ट न हो जाय। अरे क्या डरना, जैसे सर्प को दूध पिलाओ तो विष ही उगलेगा ऐसे ही इस शरीर को कितना ही सजाओ, कितना ही गद्दा तकियों पर रक्खे रहो, दूसरे का भी काम न करना पड़े, शरीर पर कितनी ही मेहरबानी करो पर शरीर की और से क्या उत्तर मिलेगा? रोग, अपवित्रता से सारी बाते और अधिक इसमें फैल जाती है और अन्त में यह साथ न जायगा। कितना ही इससे मरते समय लड़ो-अरे शरीर ! तेरे लिए हमने जिन्दगी में बड़े-बड़े श्रम किये, संकल्प विकल्प आकुलता व्याकुलता के कितने ही प्रसंग आये, उनमें मैने तुझे बड़े आराम से रक्खा, तू मेरे साथ तो चल। तो इस जीव के साथ एक कण भी चलता है क्या? वैभव की असारता - कौन सा ठाठ है ऐसा सारभूत जिसमे इतना रमा जा रहा है? वह वैभव रमने के लायक नही है तिसपर भी कितना इसका बेढंगा नाच है, कितना भी वैभव मिल जाय तो इसे थोड़ा लगता है। मुझे तो यह थोड़ा ही है, हम तो बड़े कष्ट में है, कुछ ढंग से गुजारा ही नही चलता है। ज्ञानी जीव इस वैभव को झूठा समझता है। करने योग्य काम तो निर्विकल्प होकर ज्ञानप्रकाश का अनुभव करना है और सारी बातें मायामयी है, व्यर्थ है, केवल बरबादी के ही कारण है। ज्ञानीपुरूष इन पुद्गल से प्रीति नही रखता है। किस भव में ये विषयभोग नही मिले, सूकर, कूकर, कीट, पंतग जो कुछ भी भव धारण किया क्या उन सब भवों में विषयभोग नही भोगे? इस जीव के लिए खेद की बात यह है 128
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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