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________________ ज्ञानियोका आराध्य - भैया ! अब सुनिये व्यवहार की बात। हम किसे पूजे, किसे माने? अरे जो अपूर्व ज्ञानप्रकाश और शुद्ध आनन्दका अनुभव किया था, यह तो करना है ना, यही तो धर्म है ना, यह बात जहाँ सातिशय प्रकट हो वही इसका आराध्य हुआ, कहाँ झंझट रहा, नामपर दृष्टि मत दो, स्वरूपपर दृष्टि दो। नामके लिए चाहे जिन कहो, चाहे शिव कहो, ईश्वर कहो, ब्रह्मा कहो, विष्णु बुद्ध, हरि, हर इत्यादि कुछ भी कहो, ये सब स्वरूपके नाम है। स्वरूप जहाँ सातिशय ज्ञान और सातिशय आनन्दको पाये वही हमारा आदर्श है। हमें क्या चाहिए? वही जो अभी अनुभवन में लाया था। परपदार्थ से दृष्टि हटाकर क्षणिक विश्राम लेकर जो हमने अनुभव किया था वही मुझे चाहिए। इतनी अध्यात्मदृष्टि न रहेगी तो बाहर में यह अनुभवी पुरूष उस ही स्वरूपकी शरण जायगा जहाँ यह शुद्ध पूर्ण प्रकट हुआ है और शुद्ध आनन्द पूर्व विकसित हुआ है। बस नामकी दृष्टि तो छोड़ दो और स्वरूपको ग्रहण करलो। व्यवहारभक्तिमें आश्रयका प्रयोजन - व्यवहार में नामका आश्रय इसलिए लिया जाता है कि हम कुछ जाने तो सही कि ऐसा भी कोई हो सका है क्या? या हम ही कोरी कल्पना बना रहे है, उसके निर्णयके लिए नाम लिया जाता है, ऋषभनाथ, पार्श्वनाथ, रामचंद्र, महावरी, हनुमान, लेते जावो नाम, जो जो भी निर्वाण पदको प्राप्त हुए उनका नाम किस लिए लेते है, यह कर्म देखनेके लिए कि हम ऐसा बन सकते है यह कोरी गप्प तो नही हे। ये-ये लोग निर्वाणको प्राप्त हुए है- ऐसा अपनेमें निर्णय बनाने के लिए नाम लिया जाता है, पर नाममें स्वरूप नही है, स्वरूप तो स्वरूपके आधारमें है जो पुरूष इस स्वरूपमें बसता है, अपने उपयोगको टिकाता है वह इस स्वरूपमें ही प्रेम करेगा, वही वही सर्वत्र उसे दिखेगा। कामी पुरूष को सर्वत्र कामिनी और रूप और ऐसे ही विषय दिखते है क्योकि उसका उपयोग उसीमें बस रहा है। तो योगियोको दर्शन सर्वत्र उस योग-योगका ही होता है। आशयके अनुसार दर्शन - जो पुरूष ईमानदार है, सत्य बर्ताव और सत्य आशय रखता है उसे दूसरे जीवके प्रति यह छली है अथवा किसीको पीडा करने वाले विचारका है, इस प्रकार विश्वास नही होता है। सहज तो नही होता है। कोई घटना आ जाय ऐसी तब वह ख्याल करता है, ओह! यह ठीक कह रहा था, यह ऐसा ही है। जो धूर्त है, झूठा हे , दगाबाज है उसे और लोगो पर ये सच्चे है ऐसा विश्वास नही होता है। सहज नही होता। बहुत दिन रम जाय, रह जाय, घटनाएं घटे तो यह विश्वास करता है। जो जिस भावमें रहता हुआ ठहरता है वह उस भावमें ही प्रीति करता है। विषयोमें रमनेवाले व्यामोही पुरूषकी विषयोमें ही प्रीति रहती है और विषयोसे अतिरिक्त कोई धार्मिक प्रसंग मिल जाए तो वहाँ घबड़ाहट पैदा होती है। कभी - कभी पूजा और विषयोसे अतिरिक्त कोई धार्मिक प्रसंग मिल जाय ता वहाँ घबडाहट पैदा होती है। कभी - कभी पूजा करनेमें, दर्शन करनेमें कितने उद्वेग रहते है? झट बोले, जल्दी करे, क्योकि उपयोग दूसरी जगह रम रहा है। यहाँ 192
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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