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________________ मन नही लगता है और ज्ञानी जीवको व्यवसाय, दुकान, व्यवहार इनमें मन नही लगता है। यह जल्दी समय निकल जाय, दर्शनका, प्रवचनका, वाचनका, जल्दी छुट्टीमिले इसके लिए अज्ञानी अपनी तरस बनाता है। जो जहाँ रहता है उसको उसहीमें प्रीति होती है। यही देखा- जो मनुष्य जिस नगर में, जिस शहर में, जिस गाँव में रहता है उसका प्रेम वहाँके मकान आदिसे हो जाता है। जिस टूटे फूटे मकान में रह रहे है, उसकी एक-एक इंच भूमि और भीतं ये सब कितने प्रिय लग रहे है, और पास ही में किसी की अट्टालिका खड़ी है तो उससे प्रीति नही रहती । यह सब उपयोग में बसनेकी बात प्रभाव है। आत्मीयकी प्रियता - किसी सेठने एक नई नौकरानी रक्खी, सेठानीका लड़का एक स्कूलमें पढ़ता था, उस नौकरानीका लड़का भी उसी स्कूल में पढ़ता था। सेठानी रोज दोपहर को खाने को एक डिब्बेमें कुछ सामान रखकर अपने लडकेको दे देती थी पर एक दिन देना भूल गयी। सो सेठानीने नौकरानीसे खानेका सामान लड़के को दे आने के लिए कहा। वह बोली कि मै अभी तुम्हारे लड़के को नही पहिचानती तो सेठानी अभिमानमें आकर बोली कि हमारे लड़के को क्या पहिचानना है? जो लड़का सब लड़को में सुन्दर हो वही हमारा लड़का है। सम्भव है कि ऐसा ही रहा हो । वह नौकरानी वह सामान लेकर स्कूल पहुंची तो वहाँ उसे अपने लड़के से सुन्दर कोई लड़का न दिखा। सो उसने अपने ही बच्चे को सारी मिठाई खिला दी और घर वापिस आ गई। शाम को जब वह लड़का घर आया तो माँ से बोला कि आज तुमने हमें खाने को कुछ भी नही भेजा, सो माँ कहती है कि मैने नौकरानी के हाथ भेजा तो था। नौकरानी को बुलाकर पूछा कि हमारे बच्चे को खाने को सामान नही दिया था क्या ? तो नौकरानी बोली कि दिया तो था। तुमने ही तो कहा था कि स्कूल में जो सबसे अच्छा बच्चा हो, वही हमारा बच्चा है, सो मुझे तो सबसे अच्छा बच्चा मेरा ही दिखा तो उसी को मिठाई देकर मैं चली आयी। यही है सब मोहियो की दशा। बाधक से मधुर भाषण बाधकता के विलय का कारण - अरे तुम ही हमारी शरण हो, तुम ही सबसे प्यारे हो, ऐसे दो चार शब्द ही तो बोल देना है, फिर तो जी जान लगाकर वह आपकी सेवा करेगा। कितनी मोह की विचित्र लीली है? इतने पर भी इतना नही किया जा सकता है कि मधुर शब्द बोल दे। मधुर वचन बोलने में सर्वत्र आनन्द ही आनन्द मिलेगा, संकट न रहेंगे, लेकिन जिसपर मोह है उसके प्रति तो मधुर वचन बोले जा सकते है और जहाँ मोह नही है वहाँ मधुर वचन बोलना कुछ कठिन हो जाता है और जिन्हे अपने विषयसाधनों में बाधक मान लिया उनके प्रति तो मधुर बोल बोल ही नही सकेत। यदि उनसे भी मधुर वचन बोल ले तो बाधक बाधकता को त्यागकर साधक बन सकते है, पर इतना इस मोही पुरूष से नही हो पाता है। 193
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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